नारी जीवन: आदर्श एवं उत्कर्ष लेखक- डॉ. प्रमोद पाण्डेय समीक्षक - आलोक चौबे प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक नारी जीवन के विभिन्न पहलुओं क...
नारी जीवन: आदर्श एवं उत्कर्ष
लेखक- डॉ. प्रमोद पाण्डेय
समीक्षक- आलोक चौबे
प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक नारी जीवन
के विभिन्न पहलुओं का चित्रण करती डॉ. प्रमोद पाण्डेय द्वारा
लिखित पुस्तक "नारी जीवन: आदर्श एवं उत्कर्ष"
नारी जीवन की समस्याओं तथा उनकी स्थितियों पर डॉ. प्रमोद पाण्डेय द्वारा लिखी गई पुस्तक "नारी जीवन: आदर्श एवं उत्कर्ष" इस पुस्तक में प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमानकाल तक की महिलाओं की समस्याओं और स्थितियों पर गंभीर चिंतन प्रस्तुत किया गया है। पर्दा प्रथा, बहु विवाह प्रथा, सती प्रथा आदि द्वारा महिलाओं के शोषण को उजागर करने वाली यह पुस्तक सिर्फ भारत देश की ही नहीं बल्कि अमेरिका, रूस जैसे कई देशों की महिलाओं की स्थितियों का चित्र उकेरा गया है।
आर. के. पब्लिकेशन, मुंबई द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में कुल एक सौ सोलह पृष्ठ हैं। इसकी कीमत १७५/- रुपए है। इस पुस्तक में लेखक ने अपनी बात में लिखा है कि "आधुनिक दौर स्त्री विमर्श कर दो रहा है, स्त्री विमर्श के अंतर्गत प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान काल तक की नारी जीवन से जुड़ी तमाम समस्याओं का विभिन्न कालखंडों में नारी की स्थिति का चित्रण हुआ है। आज के दौर में स्त्रियों के बढ़ते कदम ने नारी जीवन को नई दिशा प्रदान की है।"
इसी क्रम में भी आगे लिखते हैं कि "वैदिक कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक थी परंतु मध्यकाल में उनकी स्थिति अत्यंत देनी होती चली गई। उनकी इस दयनीय अवस्था का कारण पुरुष का स्वार्थ है। स्वार्थ पूर्ति हेतु पुरुषों ने स्त्रियों को ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया, जहां से उनका निकलना असंभव सा लगने लगा था।" अपनी बात में लेखक ने अंत में यह लिखा है कि "स्त्रियों को पुनः समाज में प्रतिष्ठा, आदर व सम्मान प्राप्त हो ऐसी शुभकामनाएं मैं इस पुस्तक के माध्यम से प्रेषित कर रहा हूं। मैं यह उम्मीद करता हूं कि समाज में स्त्रियों के प्रति लोगों का नजरिया अवश्य बदलेगा और समाज में उन्हें पुरुषों के बराबर का दर्जा प्राप्त होगा।"
पहले अध्याय में लेखक डॉ. प्रमोद पाण्डेय ने प्राचीन भारतीय नारी जीवन के आदर्श को बड़े ही सुंदर और सटीक ढंग से अर्थ को समझाते हुए उसकी व्याख्या प्रस्तुत करते हुए परिभाषित किया है। इसके साथ ही साथ नारी जीवन के उत्कर्ष के अर्थ को समझाते हुए नारी जीवन के उत्कर्ष को सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्होंने एक जगह लिखा है कि "मनुष्य सत्ता के दो भाग हैं- ज्ञान और शक्ति। मनुष्य पहले तो जानना चाहता है और फिर कहना चाहता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य सत्ता का तीसरा भाग भी है, उसे हम प्रेम कहते हैं। यही प्रेम दोनों का समान आश्रय स्थान है। दोनों जाकर इसी प्रेम में आश्रय लेते हैं।"
दूसरे अध्याय में लेखक ने विभिन्न युगों में नारी जीवन के अस्तित्व को चित्रित किया है। जिसमें प्रागैतिहासिक युग से लेकर वर्तमान युग तक नारी जीवन की समस्याओं तथा स्थितियों का सुंदर एवं स्पष्ट चित्रण किया है। इसके अंतर्गत प्राचीनकाल, मध्यकाल तथा वर्तमानकाल के आधार पर नारी जीवन की समस्या का वर्णन किया है। यहाँ पर विधवा के संदर्भ में गांधी जी द्वारा लिखा गया एक मत उन्होंने प्रस्तुत किया है। जिसमें गांधीजी ने नवयुवकों को परामर्श देते हुए लिखा है कि "मैं उस लड़की को विधवा ही नहीं मानता जो १५ से १६ साल की उम्र में बिना पूछे ब्याह दी गई। अपने नामधारी पति के साथ कभी रही भी नहीं और एक दिन अचानक विधवा करार देगी दे दी गई। यह शब्द और भाषा का दुरुपयोग है और भारी पाप है।" इसी क्रम में वे विधवा पुनर्विवाह के संबंध में लिखते हैं कि "जो माता-पिता अपने संरक्षकत्व का दुरुपयोग करके अपनी दुधमुही लड़की का विवाह किसी अधेड़ बुड्ढे से अथवा किसी किशोर से कर देते हैं, उनका कम से कम यह कर्तव्य है कि यदि उनकी लड़की विधवा हो जाए तो उसका पुनर्विवाह करके अपने पाप का प्रायश्चित कर लें।" लेखक का मानना है कि इन सब कुरीतियों का कारण अंधविश्वास, निरक्षरता और अज्ञानता है। स्त्रियों को इन सब समस्याओं से छुटकारा दिलाने के लिए राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती, पंडिता रमाबाई, महर्षि केशव कर्वे, महात्मा गांधी, सावित्रीबाई फुले जैसे महान समाज सुधारकों का ध्यान एक साथ समाज सुधार व स्त्री शिक्षा की ओर गया, तब जाकर कहीं समाज में परिवर्तन संभव हुआ।
तीसरे अध्याय में लेखक ने स्वतंत्रता पूर्व स्त्रियों के भविष्य की गई कल्पना जो आज के दौर में साकार हो रही है, उसको बड़े ही सुंदर एवं स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया है। स्वतंत्रता पूर्व का भविष्य काल जो आज वर्तमान काल हो चुका है, उस दौर में साहित्यकारों द्वारा स्त्रियों की समस्याओं के संदर्भ में की गई कल्पनाएं आज साकार हो रही हैं। लेखक ने एक जगह पर लिखा है कि “भूतकाल में स्त्रियां जिस स्थिति से गुजर रही थीं, उन पर इतना अत्याचार हुआ था, भविष्य में उन्हीं प्रतिक्रियाओं का परिणाम सामने अवश्य दिखाई देगा।” लेखक का मानना है कि समाज में स्त्रियों को स्वतंत्रता मिलने के साथ-साथ उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता भी मिलनी चाहिए।
यह तो हम सभी जानते हैं कि भारत में स्त्रियों की स्थिति प्राचीन काल से लेकर अब तक किस प्रकार की रही है परंतु अमेरिका, रूस आदि देशों की महिलाओं की स्थिति किस प्रकार की थी। इस पर लेखक ने चौथे अध्याय में अमेरिका, रूस और भारत की स्त्रियों की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में एक जगह लिखा है कि “यूरोप के स्त्री समुदाय ने अपने संकुचित जीवन से आगे बढ़कर संसार के सामने यह बात स्पष्ट रूप से प्रदर्शित की कि स्त्रियां जीवन के प्रत्येक अंग में उसी तत्परता और योग्यता से काम कर सकती हैं, जिस तत्परता और योग्यता से पुरुष करते हैं परंतु एक अवस्था में।”
इसी क्रम में एक और जगह और लिखा है कि “प्राचीन काल में न सिर्फ हिंदू स्त्रियां बल्कि मुस्लिम स्त्रियों की भी स्थिति अत्यंत दयनीय थी।” इस आधार पर पांचवें अध्याय में उन्होंने प्राचीन युग की मुस्लिम स्त्रियों की विवेचना प्रस्तुत की है। उनका मानना है कि प्राचीन काल में भी मुस्लिम संप्रदाय में बहुविवाह की प्रथा अधिक मात्रा में प्रचलित थी। इस संदर्भ में उन्होंने प्राचीन इतिहास को भी दर्शाया है। एक जगह पर लेखक ने मोहम्मद पैगंबर और एक युवती के वार्तालाप को बड़े सुंदर ढंग से दर्शाया है। वे लिखते हैं कि “किसी समय एक युवती ने आकर मोहम्मद पैगंबर से शिकायत की कि मेरे मां-बाप ने मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह कर दिया है। यह सुनकर पैगंबर साहब ने उसके पिता को बुलवाया और पिता के आ जाने पर उसके सामने ही पैगंबर ने युवती से कहा कि यदि तू चाहे तो अपना यह विवाह तोड़ सकती है। युवती ने उत्तर दिया- हे खुदा के दूत, मेरे पिता ने जो मेरा विवाह कर दिया है, वह रहने दिया जाए। मैं केवल यह बता देना चाहती थी कि किसी युवती के विवाह में पिता को जबरदस्ती करने का कोई अधिकार नहीं है।”
इसके बाद लेखक ने छठवें अध्याय में स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व आधुनिक स्त्री धर्म का विस्तृत वर्णन किया है। जिसके अंतर्गत वे शिष्टाचार एवं वेशभूषा, कला, गुण, सतीत्व की महत्ता, स्वास्थ्य एवं सौंदर्य, पर्दा प्रथा, सार्वजनिक क्षेत्र में नारी, चूल्हा चौका आदि का सुंदर एवं स्पष्ट चित्र प्रस्तुत किया है।
सातवें अध्याय में लेखक ने स्त्री शिक्षा जो कि आज एक महत्वपूर्ण विचारणीय विषय है, उसे प्रस्तुत किया है। स्त्री शिक्षा जो आज के समाज की अपरिहार्य मांग है, ऐसे में लेखक ने स्त्री शिक्षा को बड़े ही सुंदर और सटीक ढंग से इस अध्याय में स्थान प्रदान किया है। एक जगह पर उन्होंने लिखा है कि "स्त्री को इस प्रकार शिक्षा से वंचित रखना स्त्री तथा समाज दोनों के प्रति अन्याय करना है। स्त्री शिक्षा का असली प्रश्न यही है, जिसका ऊपर की पंक्तियों में वर्णन किया है।" स्त्रियों को आर्थिक रूप से स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। यह आज नहीं अपितु स्वतंत्रता पूर्व प्राचीन युग से यह परंपरा चली आ रही है।
आठवें अध्याय में लेखक ने स्त्रियों की आर्थिक स्वतंत्रता का वर्णन किया है। इस अध्याय के अंतर्गत पाश्चात्य अंग्रेजी लेखकों के भी मतों को प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में अगले अध्याय में 'समाज की रचना में स्त्रियों का सहभाग' इस अध्याय में उन्होंने यह दर्शाया है कि समाज की रचना में न सिर्फ पुरुषों का महत्वपूर्ण योगदान होना चाहिए बल्कि स्त्रियों का भी योगदान होना चाहिए और उन्हें पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने का अवसर मिलना चाहिए। इसी क्रम में ही आगे उन्होंने अगले अध्याय 'समाज में स्त्री-पुरुष का स्थान' में स्त्री-पुरुष समानता की बात की है । उनका मानना है कि मनुष्य सत्ता के दो भाग हैं- ज्ञान और शक्ति। दोनों सत्ता स्त्री और पुरुष को समाज की रचना में समान रूप से अधिकार मिलना चाहिए।
मध्यकाल में जिस प्रकार स्त्रियों के जीवन को गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया गया था। आज वे उन जंजीरों को तोड़कर बाहर निकल चुकी हैं। ऐसे में लेखक ने अगले अध्याय 'स्त्री जीवन गुलामी से आजादी की ओर' में उन्होंने स्त्रियों की स्वतंत्रता के लिए किए गए प्रयासों का चित्रण किया है। इसके लिए कई संस्थाएं भी उठकर सामने आई हैं। जिनका जिक्र इस अध्याय में किया गया है।
अंत में उन्होंने अपने अंतिम अध्याय वर्तमान युग में नारी जीवन की स्थिति किस प्रकार की है तथा आगे किस प्रकार की होनी चाहिए, इसकी विवेचना की है।
कहना न होगा कि लेखक ने अपनी इस पुस्तक में स्त्री जीवन से जुड़ी तमाम समस्याओं को बड़े ही सुंदर, सटीक एवं सुस्पष्ट ढंग से संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे पाठक स्वयं कम से कम शब्दों में बहुत कुछ स्पष्ट रूप से समझ लेता है। कुल मिलाकर लेखक ने अपनी इस पुस्तक के माध्यम से स्त्री जीवन की तमाम समस्याओं एवं स्थितियों का चित्रण करने के साथ-साथ उन स्थितियों से कैसे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ा जाय, इसका उपाय भी बताया गया है। उम्मीद करता हूं कि यह पुस्तक समाज के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी। मैं इस पुस्तक के लेखक डॉ. प्रमोद पांडेय को अपने इस समीक्षा के माध्यम से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं देता हूं कि उन्होंने ऐसे ज्वलंत मुद्दे को समाज के सामने लाने का प्रयत्न किया है। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आने वाली पीढ़ी के लिए यह पुस्तक अत्यंत प्रेरणादायी सिद्ध होगी।
मैंने स्वयं इस पुस्तक की पचास प्रतियां खरीदकर कुछ नवयुवा हिंदी साहित्य प्रेमियों को न सिर्फ मुफ्त में वितरित किया है बल्कि उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित किया है।
आलोक चौबे
हिंदी लेखक एवं समीक्षक
प्रीतम विला, ठाकुर कॉम्प्लेक्स,
कांदिवली (पू.), मुंबई- 400101
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