*शोषण के विरुद्ध आवाज उठाता- गाँव का मसीहा* --------------------------------------------- डॉ चिरोंजीलाल यादव द्वारा रचित उपन्यास:'गाँव क...
*शोषण के विरुद्ध आवाज उठाता- गाँव का मसीहा*
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डॉ चिरोंजीलाल यादव द्वारा रचित उपन्यास:'गाँव का मसीहा'उनकी तीसरी कृति है,किन्तु उपन्यास प्रथम है। इस उपन्यास से पूर्व उनके दो काव्य संग्रह 'गुंजनिका' 1993 तथा किरणावलि 2018 में प्रकाशित हो चुके हैं। इस उपन्यास का आद्योपांत अध्ययन करने कर बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ-
हर बात को सत्य कहना ये भी मुश्किल है।
जिंदगी से दम तोड़ लेना ये भी मुश्किल है।
मुश्किल है यहाँ जीना पल पल आदमी का,
हर जुल्म सहते रहना यर भी मुश्किल हैं।
जब इसी प्रकार के जुल्म शिखर पर पहुँच जाते हैं,अत्याचारों की पराकाष्ठा हो जाती है,शोषण अपनी सीमाओं को लाँघ जाता है,अनाचार का घड़ा भर जाता है,जब जनता के बीच से त्राहि- त्राहि की आवाज उठने लगती है,राक्षसी प्रवृत्तियां समाज में अपने पैर फैलाने लगती हैं झूठ का बोलबाला हो जाता है,अनैतिकता का चीरहरण होने लगता है,सबल निर्बल को सताने में लग जाता सत्य को अर्थी पर पहुचाने की क्षमता बेईमानों में आ जाती है तथा भ्रष्ट आचरण सदआचरण को जब चारों खाने चित्त करने में जुट जाता है तब उससे प्रतिकार करने के लिए मर्यादा की स्थापना करने के लिए और जुल्म ढहाने वाले जालिम सिंह के जुल्मों का अंत करने के लिए कृष्णावतार होता है और यही कृष्णावतार 'गाँव का मसीहा' होता है। यही गाँव का मसीहा दबी कुचली आवाज को बुलंद करता है। अपने मर्यादित आचरण से सत्य की स्थापना करने में सफल होता है और अपनी ग्राम पंचायत 'जीतपुर जमौरी' को प्रदेश की उन ग्राम पंचायतों में शामिल करा लेता है जिसे देखकर हर एक व्यक्ति के होंठों पर खुशी की किरणें नृत्य करने लगतीं हैं।
प्रसिद्ध उपन्यासकार जैनेन्द्र ने कहा है,
" पीड़ा में हीं परमात्मा बसता है।"
ऐसी पीड़ा को भोगने वाला है उपन्यास का नायक कृष्णावतार। जिसके ह्रदय में अपनी ग्राम पंचायत की आम जनता का उद्धार करने के लिये जो ज्योति प्रज्ज्वलित होती है वही ज्योति एक ऐसी ज्वाला बन जाती है जिसमें उपन्यास के खलनायक जालिम सिंह तथा उसका साथी मटरूमल की सारी दुष्टता जलकर राख हो जाती है। इस उपन्यास में उत्तर प्रदेश के जनपद माणिक नगर तथा विकास खण्ड कमलगढ़ की ग्राम पंचायत जीतपुर जमौरी की पटकथा है,जिसमें नायक कृष्णावतार ग्राम पंचायत के जुल्मी प्रधान जालिम सिंह की दबंगई से त्रस्त जनता का उद्धार करता है। वह एक बार खुद तथा दूसरी बार अनुज वधू कर्कशी और तीसरी बार अनुज लल्लूराम को प्रधानी का चुनाव जितवाता है।यद्यपि ये दोनों ही रबड़ स्टाम्प ही बने रहते हैं प्रधानी का असली काम काज तो कृष्णावतार ही निपटाता है।
गाँव की जनता लल्लू राम से जाकर कहती है-
"तुम जो कुछ भी हो कृष्णावतार की बदौलत हो। हम अपने अपने वोट कृष्णावतार को ही देते हैं न कि तुम्हें ।कृष्णावतार को छोड़ने के बाद तुम्हारी मट्टी खराब हुइ जइहै। तुम चुपचाप अपनी दुकान पर बैठो हमाओ तो प्रधान कृष्णावतार ही है।"
लल्लू राम से ऐसा जनता को तब कहना पड़ता है जब वह सत्ता के मद में अपने विरोधियों के हाथों का खिलौना बन जाता है। इस उपन्यास में सन 1982 से 2017 तक के कृष्णावतार द्वारा किये गए संघर्ष की कहानी का चित्रण है जिसमें कृष्णावतार द्वारा चाहे तो जालिम सिंह को प्रधानी के चुनाव में पराजित कर स्वयं प्रधान बनने की या फिर ब्लॉक प्रमुख का चुनाव लड़ने के लिये किये गए संघर्ष या फिर कर्कशी को प्रधान बनाने लल्लूराम को प्रधान बनाने के लिये किये गए संघर्ष की अथवा स्वयं के द्वारा जिला पंचायत सदस्य पद का चुनाव लड़ने के लिए किए गए संघर्ष की बात ही क्यों न हो हर जगह पर वह निर्भीकता के साथ संघर्ष करता हुआ दृष्टिगोचर होता है कहीं कहीं पर इसमें सटीक तिथियों का अंकन किया गया है जिसके परिणाम स्वरूप इस उपन्यास को यथार्थवादी तथा ऐतिहासिक उपन्यास की श्रेणी में रखा जा सकता है। सभी घटनाओं का सटीक चित्रण ऐसा है जैसे कोई रेखाचित्र बन गया हो इस प्रकार यह उपन्यास घटना प्रधान भी है। समाज की विसंगतियों पर भी प्रहार भी है इसलिए यह उपन्यास सामाजिक उपन्यास भी है।
इस कृति की अन्तर्यात्रा करते हुए जिन पात्रों और घटनाओं से रू- ब -रू होने का मौका मिला उनके बारे में मेरी सहज प्रतिक्रिया इसप्रकार है-
प्रस्तुत उपन्यास का कथानायक भी लेखक के व्यक्तिगत जीवन से बहुत दूर तक सादृश्य रखने वाला है। व्यक्तित्व की सहजता,सरलता, सत्यनिष्ठा, आत्म निर्माण की संकल्पशीलता,दृढ़ता ,सौंदर्य बोध की उदग्रता और अपराजित जिजीविषा के सघन तन्तुओं से लेखक ने नायक कृष्णावतार की प्रतिमा को गढ़ा है।
प्रसिद्ध उपन्यासकार एवं नाटककार जयशंकर प्रसाद कहते हैं-
"मुझे कविता और नाटक की अपेक्षा उपन्यास में यथार्थ का अंकन सरल प्रतीत होता है।"
लेखक ने भी यथार्थ की भावभूमि से इसके कथानक को उठाया है और उस यथार्थ के अंकन में अपने व्यक्तित्व को रोक नहीं पाया है। बीस अध्याय और दो सौ अस्सी पृष्ठों में वर्णित इस उपन्यास में कथाक्रमानुसार लेखक के द्वारा कविताओं को भी स्थान दिया गया है।
"हम कहाँ संघर्ष के संकल्प हारे हैं।
हम कहाँ निज हार को पल भर निहारे हैं।"
किसी भी उपन्यास में संवाद शैली का अपना विशिष्ट महत्व होता है। इस उपन्यास में भी संवाद शैली का भरपूर वर्णन किया गया है।
उपजिलाधिकारी-मैं ऐसी राशन की दुकानें रोज निरस्त करता हूँ। तुम मेरे पास माणिक नगर क्यों नहीं आये?
कृष्णावतार- सर! एक नहीं कई चक्कर लगाये.... कोई सुनता ही नहीं।
उपजिलाधिकारी-क्या तुमने वास्तव में पी एच डी की है? या फिर अपने नाम के पहले फर्जी डॉ लिखे हुए हो?
कृष्णावतार- सर ! मेरी पी एच डी से सम्बंधित आप जो कुछ भी पूछना चाहते हो पूछ लो।
उपजिलाधिकारी-क्या था तुम्हारे शोध का विषय?
कृष्णावतार- 'निरंकारदेव सेवक के बाल साहित्य का समालोचनात्मक अध्ययन'
उपजिलाधिकारी-अब आप घर जाइये कल मेरे पास माणिकपुर आइये। मैं राशन की दुकान को निरस्त कर दूँगा।
सम्पूर्ण सम्वाद में कृष्णावतार ने अपने जीतपुर जमौरी के राशन डीलर के विरुद्ध जो अभियान छेड़ा उसे अपनी आखिरी मंजिल तक भी पहुंचाया।
दूसरा सम्वाद जिसमें राशन डीलर की शिकायत करने के लिये एक महिला कृष्णावतार के पास जाती है-
'लला! डीलर बरिगओ हमें मट्टी को तेल नाय देत! बाके ढिंगा जब-जब जात हैं तब तब बू मनैं करि देतु है। उल्टी -सीधी बातें कत्तु है।"
उपरोक्त संवाद में यदि भाषाई दृष्टि से देखा जाये तो आंचलिक भाषा की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है।इस प्रकार से इस उपन्यास को आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में भी रखा जा सकता है।
इस उपन्यास में कहावतें एवं लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया गया है। तथा यत्र तत्र आंग्लभाषा के भी प्रचलित शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है।
साहित्यकार समाज का दर्पण होता है। वर्तमान की वायु प्रदूषण की समस्या का भी जिक्र तथा समाधान पर भी लेखक के द्वारा अपने विचारों को विस्तृत रूप से रखा गया है। सूक्ति शैली का एक उदाहरण दृष्टव्य है-
'जवानी,सुंदरता एवं बड़ा पद इन तीनों को कोई विवेकशील मनुष्य ही संभाल सकता है।'
उपन्यास के सभी पात्र स्वतंत्र हैं।लेखक के हाथ का खिलौना नहीं बनें हैं। स्वाभाविक रूप से उनका चरित्रांकन किया गया है। कथानायक कृष्णावतार का बड़ा भाई धनलोलुप है। छोटा भाई लल्लूराम जो कि बालकों की भी समानता करने में असफल है और जिसे वास्तव में लल्लू की की उपाधि से विभूषित किया जा सकता है। वह विरोधियों के बहकावे में आकर कृष्णावतार के राजनैतिक स्तर को चौपट करने में कोई भी कोर कसर नहीं छोड़ता है। लल्लूराम की पत्नी कर्कशी का स्वर कर्कश है जो कि कृष्णावतार को बंटवारे के नाम पर अपना घर छुड़वाने के लिए मजबूर कर देती है।उसके चरित्र की एक खलनायिका के चरित्र की संज्ञा दी जा सकती है। माता भूदेवी तथा पिता रामानन्द धार्मिक विचारों से ओत-प्रोत पूजनीय हैं। कृष्णावतार की पत्नी भावना कुछ समय तक उसका साथ निभाती है फिर स्वर्गलोक चली जाती है उसे उपन्यास की अल्पकालीन नायिका की संज्ञा दी जा सकती है। कुल मिलाकर लेखक ने स्त्री पात्रों को उजागर करने में कंजूसी बरती है।कृष्णावतार के चरित्र को ही गढ़ने में पूरी ताकत झोंक दी है। उपजिलाधिकारी सचिव मधुमणि गुप्ता नृपति राव सक्सेना, जगरूप सिंह,भावना तथा अभिमत आदि पात्र कथा के विस्तार में सहायक सिद्ध हुए हैं।
सम्पूर्ण उपन्यास में कुछ अनसुलझे तथा अनुत्तरित प्रश्न सम्पूर्णता की राह खोजते रह गये हैं। यथार्थवाद की अधिकता के कारण काल्पनिकता ने अपना स्वरूप संकुचित कर लिया है। खलनायक जालिम सिंह को उसके कुकृत्यों का परिणाम भोगने को नहीं मिला। पाठक को जिन पात्रों से सर्वाधिक घृणा होती है- जालिम सिंह तथा मटरूमल उनके जीवन के बुरे दिनों की चरम सीमा तक नहीं पहुंचाया गया। काश!उक्त दोनों ही पात्रों को उनके द्वारा किये गये घृणित कार्यों का कुफल भुगतने को मिला होता तो पाठक को और अधिक सन्तोष की प्राप्ति होती। रसीद की खेती हड़पने वाले व्यक्ति की सजा नहीं हुई तथा उसे उसकी खेती वापस भी नहीं मिली। भाई लल्लूराम तथा उसकी पत्नी कर्कशी ने कहीं और भी कृष्णावतार से समझौता नहीं किया और नहीं माफी माँगी।उक्त प्रश्नों के उत्तर कल्पनाशीलता के माध्यम से दिए जा सकते थे जिससे पाठक को परितोष होता।
प्रधान का मुख्य कार्य होता है अपनी ग्राम पंचायत का विकास। कृष्णावतार अपने इस कार्य को आखिरी अंजाम तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त करता है और वह अपने गाँव का मसीहा बन जाता है।
मैं अंत में यही आशा करता हूँ कि लेखक की आगे आने वाली अन्य कृतियों में उपन्यास कला के सभी तत्वों की परिपक्वता अपने चर्मोत्कर्ष पर होगी और वह जैनेन्द्र कुमार,,इलाचन्द्र जोशी,भगवती प्रसाद वाजपेयी, प्रेमचन्द, अज्ञेय राजेन्द्र यादव तथा कमलेश्वर जैसे महान उपन्यासकारों पंक्ति में खड़ा दृष्टिगोचर होगा। मुझे विस्वास है कि लेखक की भावी कृतियां और अधिक ऊर्जा के साथ उपन्यास जगत में आकर सम्पूर्ण विश्व की अपनी आभा से आभामण्डित करेंगी। मेरी शुभकामनाएं उपन्यासकार के साथ हैं।
समीक्ष्य कृति- गाँव का मसीहा
लेखक- डॉ चिरोंजीलाल यादव
प्रकाशक- पराग बुक्स, साहिबाबाद, गजियाबाद
समीक्षक- डॉ राजीव कुमार पाण्डेय
(कवि,कथाकार, हाइकुकार, सम्पादक)
1323/भूतल,सेक्टर-2,वेबसिटी गाजियाबाद
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