कवि-परिचय रतन लाल जाट S/O रामेश्वर लाल जाट जन्म दिनांक- 10-07-1989 गाँव- लाखों का खेड़ा, पोस्ट- भट्टों का बामनिया तहसील- कपासन, जिला-...
कवि-परिचय
रतन लाल जाट S/O रामेश्वर लाल जाट
जन्म दिनांक- 10-07-1989
गाँव- लाखों का खेड़ा, पोस्ट- भट्टों का बामनिया
तहसील- कपासन, जिला- चित्तौड़गढ़ (राज.)
पदनाम- व्याख्याता (हिंदी)
कार्यालय- रा. उ. मा. वि. डिण्डोली
प्रकाशन- मंडाण, शिविरा और रचनाकार आदि में
शिक्षा- बी. ए., बी. एड. और एम. ए. (हिंदी) के साथ नेट-स्लेट (हिंदी)
ईमेल- ratanlaljathindi3@gmail.com
(1) कविता-"प्यार”
जाता है नहीं आँखों से,
प्यार मेरा वो कभी रे।
ऐसा अटूट रिश्ता बना है,
कैसा एकपल में॥
मालूम नहीं कब वो,
जाग उठे दिल से।
बाहर-भीतर दोनों,
स्थल हैं उसके ॥
कौन है वो हिम्मतवाला,
प्रेम-मंत्र जपे सदा।
दिन-रात जो अपना,
अप्रतिम है जग का॥
मुख से अचानक आया,
नाम मुझे वो सहसा।
कर गया कमाल था,
जादू उसके प्यार का॥
ओ मेरे जीवन की तू,
जैसे हो एक पताका।
ना जाने कब उड़कर वो,
कुछ कहे पास आ॥
जाता है नहीं आँखों से,
नेह-नीर का जलधि रे।
कभी सूखता वो नहीं,
सींचे नदी-झरने॥
- रतन लाल जाट
(2) कविता-“रात"
जल्दी से दूर क्षितिज पर
उतर आया है रवि।
जलाने वियोगी दिलों को यह
संध्या हो गयी है अभी॥
पहले दिनकर की रोशनी,
इसके साथ ताप और प्रकाश।
जिससे मन में स्वर्ग-उल्लास भरी,
मेरे मन में आयी थी वो दिवस की बहार॥
अरे! क्यों हो गयी है यह रजनी?
अब नहीं मिलेगी मुझे सजनी॥
तो क्या हो जायेगा आज?
इस मन में जल उठेगी एक आग॥
इस निशा में ये जहां।
लगता है अनजान यहाँ॥
तेरा यह तिमिर आँचल फैल गया।
अब मैं इस नरक-लोक में जा पहुँचा॥
आज यह दृश्य हुआ साकार,
एक काल-सर्पिनी-सा।
जो रूक-रूककर काट,
मेरे भीतर पहुचा देगी विष अपना॥
इस जगत् की कोई चीज।
जिसमें निर्जीव के बीच सजीव॥
सब मेरे जैसे जलते मालूम होते हैं।
शायद ये सभी मेरा विरह बाँट रहे हैं॥
जब मैं ना सो जाऊँ।
और उस स्वप्न लोक में,
जाने की देरी करूँ॥
तब होगी अग्नि-परीक्षा मेरी।
वो जीवन-संगिनी परखेगी छिप कहीं॥
वश में होती है केवल आत्मा।
मन ज्वाला की लपटें उगलता॥
मुझे इंतजार है जल्दी आये नींद।
यह चाहती है नेत्रों में विरह-नीर॥
यह साँझ देती है,
मृत्यु-लोक की नश्वरता का आभास।
ऐसा हरपल बीतता है,
इस पंचभूत काया को माँझ॥
जागे हुए सोया रहता हूँ।
अटूट निद्रा से जाग जाता हूँ॥
पास आ मेरे, पूछती है धीरे।
किसको है मालूम?
कौन, क्या और क्यों कहता है?
अरे, इस स्वप्न लोक में विचरने दे।
तब कहीं न कहीं यह साकार होगा रे॥
प्रथम आलोक की किरण
नव-स्फूर्ति देती है।
ताम्र-सविता एकबार फिर
मुझे प्रियतम की सुन्दरता का आभास दिलाता है॥
यह स्वर्ग-सा नजारा न जाने
कब, क्यों और कैसे थम जायेगा?
और यही क्रम चलता रहता है।
सोचकर यह मन मेरा विरक्त हो जाता है॥
आह, यह निशा अभी होने वाली है।
तभी मेरा अन्तर्मन काँप जाता है॥
- रतन लाल जाट
(3) कविता-“हृदय नाम की चीज"
कुछ नहीं होता है बिना इन्सानियत के।
उन्हें क्या? जिनमें हृदय नाम की चीज नहीं है॥
यह हृदय भी कुछ होता है,
जितनी भी बीतती है इसकी तह।
जिन निशाचरों में छल है,
वो क्या जानते वेदना, पीड़ा और विरह॥
उनका मन मिल जाता है।
आज सुबह तुमसे, शाम को किसी और से॥
हमेशा बनते-बिगड़ते हैं।
ऐसे उनके कच्चे रिश्ते॥
कौन जानता है हृदय की बात?
नहीं देती है कानों में सुनायी आवाज॥
जो आँखों से कही जाती है।
और हृदय अविचलित होकर पढ़ता है॥
यही सीखाता है अटूट
त्याग और समर्पण का मंत्र।
तुम चाहो, जो कर लो।
भूल ना सकूँ, उस साथी को॥
जिसने पुकारा था कभी,
उसे आज धोखा कैसे दे दूँ?
लेकिन उसको जलता नहीं
सपने में देख सकता हूँ॥
केवल यही कहूँगा,
आने दो इन सकल कष्टों को।
मैं हूँ इनसे अकेला,
टकराने और लड़ने को॥
कौन है? कहाँ है? और कैसा है?
जो अलग करे मुझे इस प्रण से॥
नहीं जलेगा और नहीं पिघलकर।
कहीं दूर वो जायेगा बहकर॥
असीम विश्वास है उसके साथ।
जो साकार होगा कई जन्मों के बाद॥
बदल जायेगा यह मौसम-बहार,
फिर भी आँच नहीं आ सकती है।
जब तक अरूणाचल का रवि,
तब तक प्रिय-नाम अमर है॥
कितनों के सपने साकार करके यह?
पहुँचाता है उन्हें मंजिल के सोपान तक॥
राहों में दीपक जला,
काँटों की जगह फूल बिछाता।
साथ ही मस्ती का गुलदस्ता,
हाथ में मेरे वो थमाता॥
अस्ताचल का दिनकर, देता है विश्राम।
हो जाते हैं जो थककर, बैठने को लाचार॥
फिर कुछ नहीं बदला आज तक।
विरह की ज्वाला है प्रज्ज्वलित॥
उदास हैं,दीन-दुःखी हैं आज,
अपने में अमिट मुस्कान है।
वो स्नेह-निर्झर की ऐसी धार,
जो बिना कगारों के बहती है॥
कहाँ हुआ है इसका उद्गम?
इन्सान के सीने में हरदम॥
फिर भी खोज नहीं सकते हैं कभी वो जन।
पता नहीं हृदय का, आत्मा है अजर-अमर॥
कितनी दूरी हैं इनके बीच?
अलगाव के बंधनों में जकड़े हम॥
हमें इस जग के पिंजरे से
हो जाने दो स्वतंत्र।
उताल तरंगें उदधि की आये
हमारे मिलन के इस पार तक॥
पहली ही बार मिले,
मेरे जैसे दोस्त।
जो पाबंद हैं निभाने को
यह प्यारा बंधन॥
यह हृदय नाम है ऐसा।
जो हरकिसी पर हो जाये फिदा॥
तुम थोड़ी-सी अग्नि में जलकर देखो।
फिर कोई चीज इस जहां में सीखो॥
चाहे तू जितना जल,
कोई नहीं रोक सकता है।
इसकी तपन से अब
ये लोग ठिठुर जायेंगे॥
हरकिसी से मिलन होगा।
उसके पहले तुम रूककर सोचना॥
सुना है कपटी और कलुषित मन इनका।
क्या जान पायेगा वो? अमिट प्यार अपना॥
- रतन लाल जाट
(4) कविता-"दोस्ती"
दोस्ती बातों से नहीं,
आँखों से होती है।
कुछ कहने की जरूरत नहीं,
चिर-विश्वास ही काफी है॥
दोस्ती नहीं देखती है,
बाहरी रूप-सौन्दर्य।
यह तो खोजती है,
एक सहारा अपनत्व॥
न वादों की जरूरत हैं,
न बड़ी कसमें खाने की।
बस, यहाँ परस्पर मिलन होता है,
आँखों के साथ अन्तर्मन और श्वाँसों की वाणी॥
कभी आपस में भूलाया नहीं जाता है।
हरपल उसका ही नामजप होता है॥
यह त्याग और समर्पण के लिए,
हमें एक नया पाठ पढ़ाती है॥
यह रिश्ता तीनों लोक में निराला है।
पिता-पुत्री और माँ-बेटे की तरह,
एक प्यारा बंधन है॥
यह जिन्दगी कितनी मुश्किल से मिलती है?
लेकिन दोस्ती इसकी परवाह नहीं करती है॥
चाहते तो हैं दुनिया में जीना।
फिर भी तत्पर हैं दोस्ती के खातिर मरना॥
हर चीज हमसे आज ही बिछुड़ जाये।
लेकिन दोस्ती हमेशा ही कायम रहे॥
तेरे ईश्क में लोग, पागल हो जाते हैं।
इस नाम-मात्र से, निकलते प्राण रूक जाते हैं॥
दो सच्चे यारों का रिश्ता,
भले हो जायें दुनिया से अलविदा।
लेकिन कभी नहीं टूटता,
सात जन्मों तक साथ रहता॥
चाँद-सितारों की दोस्ती,
निशाचरों का नाश करती है।
दो दिलों की दोस्ती,
रूके जग के पहिये को बढ़ाती है॥
यह देखने, बोलने और
साथ चलने में ही नहीं।
चिर-निद्रा में भी,
नहीं भूल पाती है कभी॥
इसमें एक का दुःख
दूसरे को सताता है।
दूसरे के सुख का,
पहला आनन्द उठाता है॥
ये तीखे-पैने शूल,
अपने तन में चुभते हैं।
ये महकते फूल,
ग्रीष्म में बसंत की याद दिलाते हैं॥
इस रिश्ते से सात जन्मों तक ही नहीं,
तीनों लोक में विचरते हुए भी।
अलग नहीं होऊँगा मैं कभी,
याद करेंगे इसको सभी॥
- रतन लाल जाट
(5) कविता-“गाँव की रोक-टोक"
मना है यहाँ किसी को देखना।
साथ चलने-फिरने की है सजा॥
जो मिलेगी हमें इनके कानून से।
ऐसा कहीं और नहीं देखा है॥
पास से मिलना तो दूर।
दूर से देखना भी है एक कसूर॥
एक नहीं, इतने सारे लोग।
जो इशारे करते हैं खूब बोल॥
हम दोनों दूर से ही।
आपस में हैं सुखी॥
देखते ही औरों को हो जाते जड़वत।
फिर चलती है वेग से धड़कन॥
कुछ कहना है मुझे।
जान लो मेरी इन आँखों से॥
इस अमिट पंक्ति को।
मूक बनकर पढ़ लो॥
कितना भ्रम होता है मुझे।
कोई बड़ा अपराध हो गया जैसे॥
देखकर इन लोगों को।
अजीब सूरत बना लेते हैं दोनों॥
जब मिलते हैं सौभाग्य से।
आ पहुँचते हैं लोग फिर कहीं से॥
तब हम बन जाते हैं अनजान।
पास खड़े वो खोजते हैं कोई सार॥
मिलन की आशा पर।
फिर जाता है नीर॥
और वापस करते हैं इन्तजार।
कि- मिल जायें हम कहीं एकबार॥
कब कहूँ मैं अपने मन की बात?
कैसे जानूँ उसकी श्वाँसों की आवाज?
बिछुड़ते हैं हम एक ही तनाव के साथ।
रहते हैं खोये-खोये दूर कहीं अज्ञात॥
विरह की ज्वाला में पागल।
रहते हैं अपने में निमग्न॥
रजनी के तम में,
सो जाता हूँ गम में।
नयन बन सजल-से,
बहे चाँदनी-रात में॥
फिर छा जाता सघन तिमिर।
और मैं हो जाता भाव-विभोर॥
मिलता हूँ एक अज्ञात-लोक में।
जब विचरण करता हूँ स्वप्न में॥
करते हैं बातें हम झूक-झूक।
और लिपट जाते हैं झूम-झूम॥
हो जाता तब मोहित मैं,
और खुल जाती हैं आँखें।
तभी नीरव-वाणी से,
कुछ पूछ लेता हूँ प्रिया से॥
नहीं बोलती हो भय के तुम,
अपयश मिल सकता है मुझे।
चलने का संकेत,
करते हैं नयन तेरे॥
जहाँ नहीं हो जहान्,
मिलने आना उस शाम।
सारी बातें कहूँगी अपनी,
जो है मेरे उर में जमीं।
तुम कभी रह जाना।
इससे विहीन कभी ना॥
- रतन लाल जाट
(6) कविता-"अदृप्त प्रेम"
उन दिनों से पहले की जिन्दगी।
जब नहीं मिलती थी निगाहें अपनी॥
इससे पहले कितना जानते थे हम?
कुछ भी कर लें नहीं सोच पायेंगे अब॥
जैसे हम आज ही आये हैं धरती पर।
अभी से शुरू हुआ है अपना जीवन-पथ॥
मैंने सुनी नहीं है कोई बात।
तुमने भी कहा नहीं कुछ आज॥
फिर भी मान लिया मैंने।
कर ली मित्रता तेरे हृदय से॥
रह गया निज मन अज्ञात।
बन गयी आत्मा में एक कतार॥
खींचे-तोड़े भी मिटेगी नहीं।
और निरन्तर बढ़ती जायेगी॥
क्या जानती है जुबान।
साक्षी है हमारे नयन॥
दिल में है अलगाव का सहारा।
हृदय में अमिट प्रेम अपना॥
चाह होगी मिलन की।
खोज लायेगी नींद अपनी॥
फिर भी रहता हूँ दूर तुमसे।
आ बैठती हो तुम मेरे उर में॥
जलाती हो आग तुम।
तड़पाती हो मेरा मन॥
उमड़ते हैं आँखों में अश्रु-नीर।
चलती है श्वाँसों में तेज-समीर॥
मैं हूँ तुमसे दूर।
किन्तु तुम मेरे पास॥
कहता हूँ बात तुमसे।
खो जाता हूँ अपने में॥
आता हूँ मिलन की आस से।
चलता हूँ कठिन-डगर अकेले॥
रूक जाती है आवाज मेरी।
बढ़ जाती है धड़कन मेरी॥
देखता है मेरा हृदय धीरे-से।
बोलती है मेरी आँखें जोर-से॥
डगमगाते हैं पैर मेरे।
लगता है बीमार हैं जैसे॥
चलकर वो रूकते पास तेरे।
भगाता है मुझे निज मन दूर तुमसे॥
चल देता हूँ अनजान हो जैसे।
लगता हूँ फिर भी परिचित तुझे॥
लौटता हूँ दहकता दिल लेकर।
रह जाता हूँ प्रेम-बिन तिलमिलाकर॥
पूरे दिन के वियोग से।
जितना नहीं जला मैं॥
जब से मिलन हुआ तुमसे।
सौ गुना जलता हूँ हरक्षण मैं॥
मूक बन वाणी निकलती मुख से।
करता हूँ मैं प्रेम-क्रोध तुम से॥
बस, सौगन्ध खाते हैं अधर चुपके-से।
सींचता हूँ रिश्ता अपना नेत्र-जल से॥
खोजकर हाँप जाता है मन।
थककर चूर हो जाती है देह॥
झरकर सूख जाते हैं नयन।
तब करता हूँ मैं विश्राम कुछ पल॥
टकटकी लगाती है आँखें नम होकर फिर से।
रूक-रूककर चलती है अपनी श्वाँसें धीरे-से॥
जा पहुँचा है तन गहरी निद्रा में।
मिलन करता है मन अज्ञात लोक में॥
तुम कहती हो बात मुझसे।
तब सुनता हूँ धीर बन मैं॥
झूम जाता हूँ तेरे प्रेम में।
गुनगुनाता हूँ गायन मैं॥
नाचती हो तुम घुम-घुम मेरे पास।
आ पहुँची हो निज लोक से तुम भाग॥
तभी खुल जाते हैं नयन हो सजल।
और जाग उठता हूँ नाम तुम्हारा जप॥
- रतन लाल जाट
(7) कविता-"मेरी आग"
मन के ज्वार को रोके था।
इन्तजार था उस सुनहरे पल का॥
इस प्यासे दिवस में,
बहेगी प्रेम की धारा।
मिलेगी मुझे मीठी गुटकी,
जिसको पाने में सब भूला॥
यह पल ढ़लते रवि का।
स्वर्णिम-संध्या बाला के रूप सौन्दर्य-सा॥
कटता है हर पल।
दुःखों का पहाड़ बन॥
गुजर गये पूरे आठ पहर।
लगी इस मायूस मन को उमंग॥
रूकते नहीं है पैर मेरे।
जल्दी-जल्दी दौड़ चलते हैं॥
मन मेरा जा पहुँचा पहले से।
सवार था शायद हवा के झोंके में॥
धीर-प्राण हो उठे अधीर।
आ गयी स्फूर्ति मेरे रोम-रोम में भीतर॥
कहीं निष्फल ना हो जाये,
अद्भूत इन्तजार तुम्हारा।
मेरे लिए हो दुःखी तुम,
जलता है कलेजा बन अंगार मेरा॥
हुआ है मिलन हमारा।
दृश्य बना है स्वर्ग-सा॥
मन में है असंख्य बातें।
फिर भी नहीं कह सकता एक मैं॥
चाहता हूँ रहना पास तुम्हारे।
वश चले तो कभी न बिछड़ूँ मैं॥
देखूँ तुम्हें पुलकित-हर्षित।
नहीं रहो तुम मुझसे पीड़ित॥
तेरे मुख की मधुर मुस्कान।
नहीं बुझा पाती है मेरी आग॥
मिलता हूँ सुशोभित काया से।
जमीं बर्फ भी भाप बन उड़ती है॥
लगती हो भयानक हो जाता हूँ कंपित मैं।
तेरी चंचलता मुझे स्तब्ध करती है॥
- रतन लाल जाट
(8) कविता-"सपना ढ़ह गया"
उस दिन, मेरा दिल।
जा लगा, किसी के संग॥
वो सपना था,
उसे प्राण सौंप दिये।
फिर पूछा क्यों?
बस, प्यार के बदले॥
वो हँसी और बोली,
बातें कई मीठी-मीठी।
अच्छी-खासी एक
दोस्ती भी बन गयी॥
किन्तु यह स्वर्ग-सा माहौल।
दुनिया की नजरों से ना हुआ ओझल॥
वो सपना देखा कि-
सदा वह हँसती रहे।
कभी कोई दुःख
उसको नहीं सताये॥
मन मिला काम करें।
तन को संभाल रखें॥
हर दुःख की खबर दे।
और वो मुझे पुकारे॥
अपना संग सदियों तक है।
कभी हम जुदाई ना देख सकें॥
लेकिन वो सपना था।
जो अब ढ़ह गया॥
सच ही है, अब मैं जाग गया।
मगर दिल तो कोई ले ही गया॥
जो बरसों तक जलेगा
और रोयेगा उस सपने पर।
क्योंकि वो सपना अब ढ़ह गया
किसी को ना है यह खबर॥
क्या थी? अब कैसी हो गयी?
इतना बदलाव, थोड़े दिनों में ही॥
एकपल भी नसीब नहीं उसका संग।
क्यों भूल की? हमने उसे प्यार कर॥
सच ही है, अब मैं जाग गया।
मगर दिल तो कोई ले ही गया॥
वो कोमल कली,
जो जान से ज्यादा प्यारी।
वो दिल की आवाज,
जन्मों की कसम खायी॥
अब दिखाई है देती,
फूल होकर भी काँटा।
कोमल होकर भी कठोर,
संग होकर भी लगे पराया॥
जुल्म किया किसने?
जो सपना ढ़ह गया।
कर्म किसका था?
जो नींद और चैन ले गया॥
क्या भरोसा अब?
नींद मुझे आयेगी या नहीं।
वो सपना किसी के संग,
मैं ना देखूँगा कभी॥
उस दिन, मेरा दिल।
जा लगा, किसी के संग॥
अब वो सपना ढ़ह गया।
कसमें गयी, वादा टूट गया॥
- रतन लाल जाट
(9) कविता-“वो अति-सरला है।"
कोई ज्यादा कुछ कहे,
तो बोलते रूक जाये।
कोई थप्पड़ मार दे,
तो वह छुपकर रोये॥
कुछ ही क्षण बाद,
वह शांत हो जाती थी।
गलती भूल अपनी,
वापस बोलने लगती थी॥
पुनः मुस्कान उसके,
सुन्दर चेहरे पर उभरती।
क्योंकि वो अति-सरला है,
वही एक मेरी प्यारी दुनिया॥
उसका मन चाहता,
नहीं बोलूँगी मैं तुमसे।
मगर दिल से पुकार,
वो हमेशा अपनी करती॥
मुँह बिगाड़कर वह,
विपरीत होकर पीठ दिखाती।
शायद मुझे उसकी
नाराजगी का एहसास कराती॥
किन्तु चुपके-से मुड़ वह,
तिरछे नयनों से निहारती।
उसी वक्त मेरी आँखें भी,
उन आँखों से जा मिलती॥
तब मैं देखता, वो काली-काली बड़ी आँखें।
जो असीम प्यार की कसम दिलाती है॥
उसी वक्त अन्तर्मन से आवाज
सहसा निकल उठती।
कि- वो अति-सरला है,
सिर्फ अकेली मेरी दिवानगी॥
कभी बात-बात पर,
कर देते हम झगड़ा।
और खींचकर गाल पर,
प्यार का निशान बनाता॥
उसकी आँखों से सहसा
नेह-नीर उमड़ जाता।
तेज हिलोरें उठती हुई,
मुझे भी ले जाती दूर बहा॥
क्या करता था? तब मैं अकेला।
दिल करता कि- अपने से लगा॥
आँखें रोने को होती,
कलेजा जलने लगता।
तब वो पुनः तिरछे नयनों से,
मुड़कर मुझे निहारती यहाँ॥
आत्मा झकझोर जाती।
मैं कह देता कि-
वो अति-सरला है
और मेरी दुनिया प्यारी॥
- रतन लाल जाट
(10) कविता-“वही मेरा प्यार"
क्या कहूँ? किसे करता हूँ मैं प्यार?
कभी दूर नजर आती,
उसकी पोशाक लाल-लाल।
जैसे केशर की सुगन्ध,
कर रही है मेरी पुकार॥
जब उसकी याद अवसर पाकर मुझे।
सताया करती है हरक्षण तन्हाई दे॥
सुन उसकी स्नेहिल पीयूष-वाणी की झंकार।
हो जाता है खुश दिल, क्योंकि वही मेरा प्यार॥
उसकी आत्मा लगती है मेरे अन्दर।
जैसे वो आ गयी हो यहाँ भागकर॥
दिल उसका कोरा-काजल,
है कमल-सा मुलायम।
उस पर लगा एक निशान,
वही है मेरा प्यार॥
जिस पर लिखे हैं शब्द,
बस, अपना ही नाम।
एक क्षण का मिलन,
कई दिनों तक रहेगा याद॥
कभी भूलाने का करता हूँ खयाल।
तो सामने आकर खड़ी हो जाती है पास॥
मैं खुश होकर,
नाच उठता मन में।
वही मेरा प्यार,
सहसा याद हो आता है॥
उसका है मंझला कद, दुबला-पतला बदन।
श्याम-वर्ण है मुख और प्यार-भरा दिल॥
वही मेरा प्यार,
उसकी आँखें बरसाये मुस्कान।
हँसी और रूदन,
संग उसकी मंद-मंद चाल॥
फूलों-सी खुशबू, कली-सी कोमल।
बरसते मधु भरा, दिल उसका सरोवर॥
वही मेरा प्यार,
जो उसी में दिखाई देता।
बिन उसके रोता दिल,
कभी नहीं रूकता॥
सब पराये-से,
मुझे मालूम होते।
बस, करता खोज उसकी,
हरपल यहाँ-वहाँ मैं॥
क्योंकि वही मेरा प्यार
दुनिया दिखाई देती है उसमें।
सारी खुशियाँ भी वहीं पर हैं॥
मेरा अपना है कुछ नहीं।
सारा सुख-चैन उसमें ही॥
यादें उसकी कसम दिलाती,
ख्वाब आकर कुछ वादे करते।
बिन उसके है कुछ भी नहीं,
दुःख रहता घेरे हरदम मुझे॥
अकेला मैं उसका,
क्योंकि वही मेरा प्यार।
क्या कहूँ? किसे करता हूँ मैं प्यार?
कभी दूर नजर आती,
उसकी पोशाक लाल-लाल।
- रतन लाल जाट
(11) कविता-"अब क्या हाल होगा?”
कभी सपने में सोचा तक नहीं था।
कि- ऐसे हालात बनेंगे, मैंने चाहा नहीं था॥
उसके लिए कितने ही?
ख्वाब और आशा संजोयी थी।
किन्तु सपने सारे कच्चे निकले।
वो अधूरे ही टूटकर बिखर गये॥
होता है कुछ अलग नहीं।
न ही सोचा था मैंने कुछ भी॥
पढ़ाई छोड़कर वह,
ग्वालिन जा बनी।
पिता का हिस्सा छोड़,
गँवा दी जिन्दगी॥
वो परिवार में एक नन्हीं थी।
आज सारे लोग उसको ही,
मान बैठे हैं एक नौकरानी॥
मटका भरकर पानी पिलाती।
नन्हें हाथों से रोटियाँ बनाती॥
जो काफी कोमल थे।
जबकि थामना था कलम उन्हें,
किन्तु हालात ऐसे बने॥
हर कोई धिक्कारता है उसे,
डाट-फटकार ही ना झेलती।
अपितु हो जाती है,
कभी-कभी पिटाई उसकी॥
क्या यही मैंने सपना सँजोया था?
देख ना सकूँ, तो कोई आकर कह देता॥
कि- वो रो रही है, बोझ के मारे।
खाना मिले बाद में, काम पहले॥
ऐसा आदेश मिला उसे।
वरना होती है पिटाई, क्या करे?
सच है, मेरे सामने
लेकिन ऐसा ना हो।
देख भी कैसे सकूँ?
ऐसा नहीं था सपना वो॥
अब क्या हाल होगा?
ऐसे हालात बनेंगे,
सोचा तक नहीं था॥
सहयोग करूँ, किन्तु किसका?
जो हरदम बनके रहता है काँटा॥
दुःख इसी बात का,
कि- अब क्या हाल होगा?
बस, दिल से यही पुकार
धीरे-से निकल जाती।
मैं हूँ तैयार झेलने को,
दुःख का आधा भागी॥
कभी सपने में सोचा तक नहीं था।
कि- ऐसे हालात बनेंगे, मैंने चाहा नहीं था॥
अब क्या हाल होगा?
जरा, कुछ सचेत हो जा।
ये कुत्ते वरना, काटते रहेंगे सदा॥
नहीं पालना इनको,
कभी ये अपने ना होंगे।
और क्या भरोसा कि-
तुमको ही काट खायेंगे॥
आगे और न जाने तेरा
क्या हाल होगा?
कभी सपने में सोचा तक नहीं था।
कि- ऐसे हालात बनेंगे, मैंने चाहा नहीं था॥
- रतन लाल जाट
(12) कविता-“हजारों के बीच वो ही"
ना मिट पायेगी अपनी दोस्ती।
इस जहां में हीरे-सी चमकेगी॥
हजारों अप्सराओं के बीच वो ही,
मुझे एक परी-सी दिखायी देगी।
फूलों से सुगन्धित-बाग में वो ही,
एक मात्र जूही का फूल बन खिलेगी॥
सावन की घटाओं में,
चमकती बिजली के बीच कहीं।
पानी की बुन्दों में,
स्वाति जल वो ही होगी॥
चमकते सितारों के बीच,
जगमगाती है दोस्ती अपनी।
चाँद-सी चारों ओर,
अपनी आभा वो ही बिखरायेगी॥
उषाकाल की पहली किरण वो ही,
अन्धेरी राह में दीपक समान वो ही।
मेरी स्तब्धता के बीच,
किलकारी उसी की गूँजेगी।
हर धड़कन में पल-पल,
मेरा प्राण वो ही बनकर रहेगी॥
आये सपने में सबसे पहले वो,
और दर्शन भी हो उसके ही।
सबकुछ उसके पीछे,
छिपकर विचरण करेंगे सभी॥
मेरी तपन को शान्त करेगी वो ही।
जीवन की वेदना में हँसायेगी वो ही॥
- रतन लाल जाट
(13) कविता-“एक नहीं अनेक"
क्यों मान बैठे हैं हम?
कि- नहीं मिलेगा हमको दुनिया में कोई ऐसा जन।
क्या चीज है एक?
परमात्मा को भी हम मानते हैं अनेक॥
फिर क्यों पड़े हैं हम एक के ही पीछे?
उठे, आज ही सारी सृष्टि खोज निकाले॥
मिल जायेगी हमको, एक नहीं अनेकों।
उसके जैसी ही नहीं, और भी सौ गुनी अच्छी जो।
दुनिया की यही एक कहानी है।
कोई नहीं यहाँ पर अकेला है॥
कितने ही होंगे अपने?
बस, कर्त्तव्य निभाते रहें॥
तब निश्चय ही हम प्राप्त कर लेंगे उसको।
यहीं है धरती-आसमां के छोर बीच कहीं वो॥
एक छुट गया, तो कई हो जायेंगे अपने।
जैसा हम चाहें, वैसा ही प्राप्त कर लेंगे।
पहले हम अपनी कमियों से निजात पायें।
रजत को खोने के बाद स्वर्ण पायें॥
हम क्यों हो निराश?
दुःख-पीड़ा का करें नाश॥
नहीं तो फिर दुःख ही मिलेगा।
तब यहाँ रोना ही बचेगा॥
अभी जो है अपना,
रहें साथ उसके घुलमिलकर सदा।
हँसी-मस्ती ही है, दुनिया की सच्चाई।
एक को खोकर, हमने अनेकों पाई॥
- रतन लाल जाट
(14) कविता-"लाल-पीला रंग"
जिधर देखूँ उधर, चारों ही ओर
अंधेरा हो या उजाला, सभी ठौर
दिखाई देता है प्रिया का रंग
लाल रंग के बीच पीलापन
तब विस्मय से बोल उठता हूँ।
मेरी आँखें अंधी है या है कोई जादू॥
लगता है सच ही प्रिया आ गयी।
या मैंने कोई स्वप्न तो देखा नहीं॥
अभी मैं सोया हूँ या जगा।
हरा रंग बन गया पीला
और लाल हो गया है नीला॥
मानो छिपी हुई,
खड़ी है वो कोने में।
जो सजी-धजी,
दिखे सलवार-सूट में॥
कोमल बाँहों के बीच,
लहराता हुआ सतरंगी दुपट्टा।
लाल-पीले रंग बीच,
झिलमिला रही है प्रिया।
खड़ी है वो मानो छिपकर।
जो देख रही मुझको एकांत॥
नहीं है पता तनिक भी,
हम दोनों में से एक को भी।
वह बुलाती है अपने पास,
या खुद मैं जा पहुँचा उसके साथ।
सहसा मैंने पाया, अपने में अद्भुत रंग।
लाल-पीला, तो कभी श्वेत-श्याम सब॥
प्रिया मुझमें है या मैं प्रिया में।
प्रिय ही प्रिया है या प्रिया ही प्रिय है॥
वो मेरे मन में, या मैं उसके तन में।
आते-जाते हैं पल-पल,
कभी हँसते हैं हम।
तो रोते हैं अगले ही क्षण॥
नीला है अम्बर, बीच में शस्य-श्यामल बादल।
बीच में उनके नजर आते हैं लाल-पीले रंग॥
- रतन लाल जाट
(15) कविता-“प्रियतम"
इस दुनिया का हूँ मैं अकेला,
एक तेरा चेहता प्यारा।
जो वादा किया है,
मरके भी ना टूटे।
जीवन प्यारा है मुझे तेरा।
अर्पण कर दूँगा सबकुछ अपना॥
प्रियतम की हँसी-खुशी और मौज-मस्ती।
लगती है मुझे अपनी एक तृप्त-सन्तुष्टि॥
पीड़ा-वेदना, झेलूँगा मैं सारी।
रोग-शोक हो मेरी बीमारी॥
तुम रहना वंचित, देखना मुझको ग्रसित।
कभी अपने प्रिय को मत देना धोखा।
जो भूखा है तेरे प्यार में आज तक जिन्दा॥
इतनी हिम्मत, वो शक्ति थी।
साहस और संघर्ष, वो तेजस्विता थी॥
देखो, ऐसा तुम कभी नहीं मानना।
कि- सह लेगा वो प्यार में धोखा॥
ढ़ह जायेगा स्वर्ग उसका,
वो मालिक था जिसका।
प्यार में रमता हुआ, दिल का राजा।
अपनी देह छोड़कर हो जायेगा विदा॥
बस, तेरा यह मिजाज,
कर देगा उसका यह हाल।
जिसके आघात से हो जायेगा,
वो घायल यार॥
और दिखेगा इस प्यार में पागल।
जो कभी था तुम्हारा प्रेमी अनन्य॥
अग्नि में तपकर दी परीक्षा।
निष्काम थी उसकी साधना॥
फूँक दिया मंत्र तपस्वी बन।
हुआ प्यार का यज्ञ-हवन॥
फिर नहीं देखेगा, तुम्हारी ओर कभी।
तब शुरू हो जायेगी, वो संकट की घड़ी॥
नहीं होगा तन का साथ,
जग दे जायेगा अब मात।
अचानक आह निकलेगी,
दिल से उस प्रियतम की।
तब तक वो दिवाना,
लाँघ जायेगा लम्बी दूरी॥
- रतन लाल जाट
(16) कविता-“एक सन्देश"
दोस्ती के दो वर्ष पूरे,
उस दीपावली को हो गए।
सबकुछ बदल गया,
जो छोटा था, बड़ा हो गया।
और सच्चा था,
वो झूठा हो गया॥
दिवानी बन गयी डायन।
जो मार देती है आशिक॥
वो लड़की पवित्र-आत्मा,
जो कभी किसी की नहीं होती।
अब गलत रास्ते पर निकली,
उसे कुत्ते की मौत मिलेगी॥
मैं जपूँगा उसका नाम।
किया वादा नहीं टूटेगा आज॥
नसीब हुए जो लम्हें और थोड़े-से पल।
याद रखूँगा मैं सात जन्मों तक॥
जिसको बुरा कहती है दुनिया।
मगर वो मेरी प्रिया, जिसको दिल से चाहता॥
- रतन लाल जाट
(17) कविता-“स्वप्न से जागरण"
चिर-निद्रा में सोया था,
तब किसी स्वप्न ने आ घेरा।
स्वप्न को जानकर सुखदायी,
हिला-डूला तक मैं नहीं॥
पहले-पहल आने लगे,
मधुर-मधु दृश्य बहुत सारे।
फिर कहीं रमने लगा मैं,
जहाँ किसी ने अपना बनाया मुझे॥
तभी सहसा खुलने लगी आँखें।
तो जोर-से बन्द रखी थी इस मोह में॥
उसके बाद देखा था एक जाल।
जिसमें हो गया था बन्द मैं फाँस॥
फिर जलाने लगी विरहाग्नि,
धीरे-धीरे मेरा दिल।
तप-तपकर उठता है धुँआ,
अब लगता है एक नशा॥
जब उठी लौ आग बन।
तो हो गया मैं पागल॥
इसी पागलपन ने ऐसा धक्का मारा।
कि- मानो आसमां टूटकर है पड़ा॥
अब जाऊँ तो कहाँ?
किसी ने मुझे रोक लिया॥
यहाँ से भाग ना सकूँ,
बात यह अब किसे बताऊँ॥
यही है राह और मंजिल मेरी।
अब किधर जाऊँ कुछ समझ है नहीं॥
अपनों ने जलाया और सताया।
जिस पर मैं चिल्लाया और झगड़ा॥
बस, उतर आया मैं मारने तक।
तब रोका था किसी ने आकर॥
अब मरा कि मैं मरा।
तभी जोर-से चिल्लाया॥
और खुल गयौ आँखें।
जहाँ का तहाँ पाया मैंने॥
किन्तु अब सोचने लगा।
कि- कौन थी और कहाँ?
यह तो एक स्वप्न था,
जो अब खत्म हुआ।
नहीं था उसमें कोई आनन्द या दुःख।
भूल जा, वह था एक स्वप्न अद्भूत॥
व्यर्थ सोचें और कुछ करें।
किन्तु यह एक कोरा स्वप्न है॥
तू उठ, आगे देख कहाँ था?
अब चल खोज ले अपना रस्ता॥
- रतन लाल जाट
(18) कविता-“ऐसा लगा"
आपके मिलने से ऐसा लगा मानो,
बीते दिन फिर लौट आये हो।
नव-नव हो अपना जहां।
हम सब बन गये नया॥
नवमंत्र को साथ लेकर,
हम छू जायें शिखर को।
सभी एक साथ मिल,
बनायें सुन्दर जगत् को॥
जो कमी थी मेरे पास।
वो पूरी हो गयी आज॥
वाह! सारा संसार ही ,
आँखों के सामने।
आ साकार हो गया,
आपके दर्शन पाके॥
आज से ही हम नित्य नव-कर्म करें।
जो पूर्ण हो सबके जीवन-स्थल में॥
हमारी साधना से, ऐसा लगा हमें।
स्वर्ग भी देखता है, नीचा झूकके॥
इतनी शक्ति है पवित्र-प्रेम में।
और सामने खड़ी यह शक्ति है॥
लग जायें कुछ नया करने,
स्वहित का त्याग करके।
सकल जगत् को
नयी खुशी एहसास कराने॥
इसी जीवन में हम करेंगे,
दर्शन अलौकिक इष्ट के।
हमारा सहयोग पाकर,
छोड़ देंगे दुःखों का सागर।
और नहायेंगे इसी लोक में,
मानसरोवर-से कुण्ड में।
अपना-पराया भूल,
काँटों की जगह फूल।
प्रिय जन के बीच,
स्वर्ग करें स्थापित॥
- रतन लाल जाट
(19) कविता-“होली के रंग सुहाने"
होली के रंग सुहाने,
सबके दिलों को लुभायें।
नौ-दो ग्यारह हो जायें,
सारे गम हम सबके॥
प्रकृति लगती नयी दुल्हन।
जैसे अभी-अभी हुई शादी की रस्म॥
वो अपने पिया को चुराने की।
लाख कोशिशें करके ना थकती॥
रंग-बिरंगे हैं कपड़े,
गुलाबी रंग चेहरे पे।
बड़े प्यारे लगते जो,
पागल कर दे पिया को॥
ऐसे ही हम होली पर।
लगते हैं नये दुल्हे-दुल्हन॥
अपने प्रियतम को भीगोना है।
नेह-रूपी हम रंग ढ़ुलकायें॥
बीती बातें भूलकर
प्यारी रातें प्राप्त कर।
फागुन का मधुमास,
दो दिन का मेहमान॥
फिर बदल जायेगी बहारें।
आग उगलेगी भानु-किरणें॥
अवसर हाथ से चला ना जाये।
दिल से दिल को आज मिलायें॥
- रतन लाल जाट
(20) कविता-“उसका आना"
मुड़ते ही कदम चले मेरी ओर।
तभी से देखे वो आँखें कुछ खोज॥
कहीं न कहीं तो होगा, वो छुपा हुआ यहाँ।
सौ-सौ इन्तजार के बाद आज पूरा हुआ वादा॥
नहीं मिला, कहाँ चला गया?
यहाँ है या वो मुझे छोड़ गया॥
पता नहीं किसी को, क्या चाहती हूँ मैं?
बाहर से नहीं, अन्दर से अपना है॥
इस बार चला जादू,
तेरा नहीं, तेरी वाणी का।
सुनते ही वह कोमल-स्वर,
मंद-मंद मैं खिल गया॥
तभी उठ देखना चाहा,
लेकिन घेरा था उसे आगोश में।
दिखी नहीं वो मुझको,
किन्तु मिलन का आनंद पाया हमने॥
जैसे वो मेरे संग
और मैं उसके सामने था।
बस, ऐसा ही मिलन,
हम दोनों के प्यार का॥
उसकी वाणी और मेरी परछाई।
दोनों घुलमिल बन गयी तरूणाई॥
अरे! लौट आयी प्रिया,
जो मेरी सच्ची साधना का फल।
अब पाया है थोड़ा-सा,
मिलन-सुख का आनंद ॥
ऐसा अजीब नजारा,
कहाँ किसने देखा था?
मिलेगा भी नहीं,
और देखा भी नहीं॥
किन्तु हो गया मिलन,
लौट आयी है साजन।
यही हमारी पवित्रता का,
अद्भूत बल और फल॥
- रतन लाल जाट
(21) कविता-“सोच"
दूर खड़े हैं क्षितिज पर,
वहाँ नारी के संग है नर।
क्या सोचती है दुनिया?
नर की है वह प्रिया॥
बस, हम यही सोच बैठे हैं।
वे मित्र जन नहीं हो सकते?
हर वक्त प्यार ही चाहते।
नाम नहीं प्रेम का कभी बोलते॥
उनका तो रिश्ता था सात जन्मों का।
मगर कोई विश्वास ही नहीं पाया था॥
दाम्पत्य नहीं है सहचर्य-भाव उनमें।
अजनबी थे परिचित हुए आज से॥
अनजान है तुम्हारी बातों से।
संग एक-दूजे का दुःख हरने॥
मिलन हुआ है नर-नारी का।
जीवित हुई है आज फिर मानवता॥
चाहते हैं सहयोग तुमसे।
देखते हैं आप घृणा से॥
परिवर्तित कर दो इस कुण्ठा को।
आप कभी अपने पथ से विचलित ना हो॥
सतत् चलती रहेगी जोड़ी यह।
अटक ना सकेगी होड़ से यह॥
नर की पत्नी उसे क्यों मानते?
क्या और कुछ नहीं हो सकती है?
वह बहिन और कुछ अन्य।
अरे! कैसे होगी मानवता धन्य॥
नारी है अवनि-तल की नाड़ी।
नहीं चलती बिन इसके जग-गाड़ी॥
स्तम्भ है यह।
आकार बनता इसकी तह॥
जड़ है यही, अंकुर हुआ कभी।
कली में प्रवाहित रक्त-धार इसकी॥
ना सोचें बुरा आप, सोचे कि- यह कितना पाप?
नहीं है यह खिलौना, है यह लोक की माता॥
- रतन लाल जाट
(22) कविता-“क्या-क्या है वो?”
मेरा प्राण, जीवन का आधार।
पल-पल जपूँ मैं, उसी का नाम॥
आठों पहर जिसकी छवि,
रहती है मेरे अन्दर बसी।
देखकर खुशी उसकी,
मैं पुलकित हो जाता।
यदि थोड़ा-सा कष्ट-मात्र,
उसको आ घेरता।
तो दीन-दशा मेरी,
और मैं असहाय हो जाता॥
दुःख से कहता मैं,
क्यों मेरी प्रिया को सताये?
जिसके लिए सर्वस्व समर्पित,
तन-मन भी है उसी को अर्पित।
उसके जीवन की खुशी,
रमती रहे सदा।
चाहे मैं वेदना-पीड़ा से,
पीड़ित रहूँ सदा॥
किन्तु इसमें मेरा क्या है?
वो ही तो बस दुनिया है॥
हाँ! मेरी आत्मा भी उसके पास।
मेरे भीतर सुनायी दे उसकी आवाज॥
उसका स्मरण-मात्र,
जला देता है विरह-आग।
नयन-नीर से भीग जाते हैं चीर,
किन्तु ज्वाला में तपता है शरीर॥
पलभर के लिए, धैर्य और हिम्मत भी।
खो देते हैं, अपना गुण-प्रकृति॥
और तरह-तरह के विचारों का,
उमड़ जाता है एक तूफान।
बीती स्मृति छा जाती है,
आँधी बनकर एकबार॥
अन्तस से निकल बाहर,
सामने दिखायी देती है तस्वीर।
भूलाये नहीं सकता हूँ मैं भूल,
कहते हैं सब याद दिलाता है दुःख।
किन्तु मैं तो सुखानन्द का एहसास होते ही।
तड़प उठता हूँ कि- वो कैसे जी रही होगी?
हाँ! वही है वही,
करता हूँ जिसकी भक्ति।
कहा जाता है,
जिसको प्रिया सच्ची॥
वो मेरी है शक्ति और
बसी है मेरे ही भीतर।
तन मेरा हो या उसका,
मन उसमें एक ही बसता।
लगते हैं हम अलग-अलग,
बिखरे हुए टुकड़े एक ही खण्ड।
क्या-क्या है वो? प्राणदायिनी या परमेश्वरी।
वो घोर पीड़ा-वेदना के साथ है सच्ची सुख-शान्ति॥
अमिट मुस्कान और स्थिरता।
सब कुछ स्वाँग है उसी का॥
जीना-मरना और मिलना-जुदा होना।
फिर भी अज्ञात दूरी पर संग है अपना॥
शायद मैं ही हूँ उसका प्रिय।
लेकिन वो है जग-प्रिय॥
जग तो क्या? स्वर्ग में भी।
उसके जैसी कोई चीज नहीं॥
स्वयं प्रस्तुत हूँ, एक उसके लिए।
वो जीवनदायिनी और संगिनी है॥
दुर्गा, काली और माँ सरस्वती।
दिखायी देती है उसमें प्रकट सभी॥
इस दुनिया में वो है।
या वो ही एक दुनिया है॥
तुम ही अब बताओ,
क्या-क्या है वो?
- रतन लाल जाट
(23) कविता-“वो और मैं”
वो सोचे कि- मैं ना बोलता
मैं सोचूँ कि- वो ना बोलती।
गलती ना है उसकी
और ना ही है मेरी॥
बस, हम दोनों मानते हैं
गलती एक-दूजे की।
जबकि पता है हम दोनों को,
मन ही मन वो मुझसे प्यार करती।
और मैं भी जीता-मरता,
सिर्फ उसके संग ही॥
मैं चाहता हूँ मिलना,
उससे कुछ शिकवा करना।
उतना ही वो चाहती है,
मुझसे भी कुछ शिकवा करना॥
अपनी नाराजगी पर मैं तड़पता हूँ,
यह सोचके कि- वो मुझसे दूर भी खुश है।
लेकिन बात ऐसी नहीं, वो भी तड़पती यूँ,
दिन-रात यह सोचके कि- अकेला हूँ खुश मैं॥
जबकि वही प्यार है और वही एक बात है।
दूर होकर भी दिल में, एक-दूजे के लिए प्यार है॥
ना वो दूर जा सकती, ना ही मैं कभी।
विश्वास हम दोनों को, अभी होगा प्यार नहीं॥
वो रोये, तो हम कैसे चुप रहें?
हम तड़पे, तो वो कैसे हँस पाये?
प्यार अकेला नहीं जीता।
उसके संग कोई हमेशा ही रहता॥
- रतन लाल जाट
(24) कविता-“प्यार”
प्यार जन्नत, प्यार मन्नत।
प्यार सुन्दर, प्यार सत्यम्॥
शूल है, फूल है।
पवन और महक है॥
मनभावन प्यार।
सबसे पावन प्यार॥
जीत और हार।
मीत तो कभी धार॥
कठिन डगर प्यार।
मजबूत कदम प्यार॥
कभी रूदन तो कभी हँसी।
रण-स्थल और मंजिल भी॥
प्यार रंग है, प्यार संग है।
प्यार मूरत, प्यार सूरत॥
प्यार धरती-अंबर।
प्यार जीवन-मरण॥
प्यार कड़वा, प्यार मीठा।
प्यार तीखा, प्यार सीधा॥
एक सहारा, विश्वास सबका।
अपना होकर भी, है वो पराया॥
रोग दिल का, फिर भी है दवा।
प्यार सच्चा, नहीं वो कच्चा॥
प्यार एक तलवार है।
देखो, तीर-कमान है॥
गूँजे तो तोप जैसे।
चमके तो विद्युत जैसे॥
प्यार खास है, प्यार राज है।
अनजान होकर भी।
ज्ञात है सबको ही॥
यादों में प्यार।
मिलने में प्यार॥
प्यार नृत्य-गान।
प्यार एक तकरार॥
प्यार अमर है, वो अजर है।
एक सुर है दिल का।
तो दूजा सुर मंदिर का॥
राग है, नहीं विराग।
राख नहीं, है चिराग॥
अंगार जैसे जलता।
बादल जैसे बरसता॥
प्यार कुर्बानी है, प्यार जवानी है।
प्यार योग है, नहीं वो भोग है॥
प्यार संकट, प्यार सुखद।
एक नैया है प्यार।
और नदी भी प्यार॥
प्यार नयन, प्यार वचन।
प्यार धारा, प्यार किनारा॥
प्यार संजीवन है, प्यार परजीवन है।
प्यार मूक है, प्यार भूख है॥
प्यार अरमां दिल का।
प्यार सपना दिल का॥
एक पतंग और डोर।
नदी है वो दो छोर॥
प्यार दिल का सौदा।
मोल नहीं कोई जिसका॥
हजारों आँखों से भी नजर ना आता।
दिल की आँख से है, फिर भी दिखाई देता॥
प्यार शक्ति है, प्यार भक्ति है।
प्यार है सजा और रजा है॥
प्यार नहीं बोलता।
फिर भी सब जानता॥
दुनिया से नहीं वो हारता।
रब उसके साथ सदा ही रहता॥
प्यार खुदा है, प्यार जुदा है।
प्यार एक तूफान, प्यार एक खूमार।
प्यार आँधी है और क्रांति है प्यार॥
प्यार की बरसात में।
बुझती प्यास दिल की है॥
और इसके पानी में।
खिलते फूल खुशी के॥
प्यार एहसास है।
प्यार विश्वास है।।
अटल और तांडव।
द्रौपदी और पांडव॥
राम सीता, कृष्ण राधा।
हर रूप में प्यार यहाँ।।
प्यार भाग्य-विधाता।
प्यार है जगदाता॥
प्यार है करूणा और प्यार एक दया।
प्यार एक चन्दा, प्यार अंधेरी निशा।।
प्यार एक सूरज है।
सर्दी की प्रभात में॥
प्यार किसी को मारे ना।
भले वो खुद ही मर जाता॥
हर मरते को जीवन-दान दे।
प्यार अपने को कुर्बान कर दे॥
प्यार बसंत है, प्यार संगम है।
प्यार है आराम, प्यार एक सौगात।
प्यार के है नाम कई।
चेहरे इसके रूप कई॥
निभाओ तो नहीं कोई तुमसे बलवान है।
अगर साथ छोड़ो, तो नहीं तुम-सा शैतान है॥
प्यार दीपक, प्यार पतंग।
प्यार प्रकट, प्यार जीवट।
प्यार है अमृत, प्यार असीम।
अटूट है प्यार, मशहूर प्यार॥
प्यार एक पूजा है।
वो अपनी गीता है॥
प्यार कण-कण में।
प्यार हर दिल में॥
मुस्कान है प्यार।
आँसू भी है प्यार॥
बेचैनी है वो, तन्हाई वो।
प्यार नहीं तो, फिर क्या नाम हो॥
सीता-राम है प्यार।
राधे-श्याम है प्यार॥
वो पवन की झंकार में।
वो बादल की टंकार में॥
प्यार है कोयल के राग में।
और भी वो मोर के नाच में॥
नदी के कल-कल बहते पानी में प्यार।
हर खिलते हुए फूल में छुपा है प्यार॥
आँखों में प्यार, होठों पे प्यार।
दुआओं में प्यार, पुकारो तो प्यार॥
शरण है प्यार, नहीं वो हरण।
हम उसके लिए, वो सभी के लिए।
प्यार निष्काम है।
प्यार अपनी जान है॥
प्यार एक सागर है गहरा।
प्यार पर्वत से भी ऊँचा॥
प्यार सबसे भारी।
वो अवनि-तल हमारी॥
प्यार एक लगन, वो एक जलन।
प्यार इम्तिहान है, प्यार अनंत-नाम है।।
- रतन लाल जाट
(25) कविता-"बंधन"
कोई लाख कहे कि- मैं तेरा दोस्त हूँ।
बहुत कहते कि- मैं भाई या बहन हूँ॥
कहने से कभी कोई अपना नहीं हो जाता।
और जब अपना होता है, तो उसको भी पता तक ना चलता॥
बंधन बाहरी मजबूत दिखते हैं।
मगर होते बहुत ही नाजुक हैं॥
इसीलिए दिल के अदृश्य तार जोड़ें।
और किसी को इसकी खबर तक ना चले॥
बन जायें हम जन्मों के संगी।
कभी जरूरत ही ना पड़े कुछ कहने की॥
कि- मैं तेरा भाई हूँ या तू बहन है मेरी।
फिर दोस्ती में कुछ कहा जाता है₹ नहीं॥
बार-बार जताओगे अपना रिश्ता।
तो भी दिल इसे नहीं स्वीकार करेगा॥
तभी तो कहता हूँ, दिल से नाता जोड़ना।
ताकि अपने को कभी कुछ जताना पड़े ना॥
- रतन लाल जाट
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