“मंटो” – ( फिल्म प्रस्तुति के अनुभव ) निर्देशक – नंदिता दास “सहादत हसन मंटो” वो नाम है जो किसी के परिचय का मोहताज नही है| वह जाने जाते हैं अ...
“मंटो” – ( फिल्म प्रस्तुति के अनुभव )
निर्देशक – नंदिता दास
“सहादत हसन मंटो” वो नाम है जो किसी के परिचय का मोहताज नही है| वह जाने जाते हैं अपनी बेबाक और स्वतंत्र लेखन के लिए| मंटो मूल रूप से एक उर्दू लेखक थे उन्होंने अपने अल्प जीवनकाल में जो कुछ भी लिखा वही उनकी प्रसिद्धि का आधार है| वह लेखन के साथ – साथ सिनेमा जगत में अपने पटकथा लेखन के लिए भी मशहूर है| मंटो की कुछ रचनाओं पर अश्लीलता का आरोप भी लगाया जाता है जिसमें “ठंडा गोश्त” का नाम काफी प्रासंगिक है और इस संदर्भ में उन्हे कई बार अदालत का भी चक्कर लगाना पड़ता है| पर यहाँ एक रचना या साहित्य को पूरी तरह अश्लील ठहराना कहाँ तक उचित है क्योकि मेरी नजर में कोई भी रचना अश्लील नही होती, बल्कि अश्लील होती है हमारी मानसिकता| और इसी मानसिकता से जन्म लेते है अश्लील विचार, एक लेखक या रचनाकार जब अपने विचारजगत को रचना के रूप में परिणत करता है तो हम सारा का सारा दोष उस रचना पर आरोपित कर देते है यह कहाँ तक उचित है इस प्रश्न को मैं आप पर छोड़ता हूँ? पर यहाँ पर आपका ध्यान एक दूसरी घटना की ओर ले जाना चाहूँगा, जो अचानक ही दिमाग में चक्कर लगाने लगती है वह यह कि एक लेखक की स्वतन्त्रता को लेकर केवल आज के परिप्रेक्ष्य में ही नही, बल्कि इससे पहले भी कई रचनाकारों को इस तरह के सवालों और प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा| कुछ इसी तरह गुप्तकाल ( 4थी शताब्दी ) के एक महान और विश्व प्रसिद्ध लेखक कालिदास को भी सामाजिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी थी जिसे सुरेन्द्र वर्मा ने “आठवाँ सर्ग” नाटक में विस्तार पूर्वक व्याख्यायित किया है| वह घटना यह है कि कालिदास को भी उनकी कृति “कुमारसम्भवम” को लेकर अश्लीलता का आरोप कुछ मठाधीश और राजपुरोहित द्वारा लगाया जाता है| और कहा जाता है कि उन्होंने शिव-पार्वती के प्रणयप्रसंग को अश्लील रूप में चित्रित किया है अतः सात सर्गो के बाद वह आठवाँ सर्ग नही लिखे, अन्यथा उन्हे देश निकाला दे दिया जाएगा| किन्तु कालिदास ने उस समय के धर्माचार्यों व राजतंत्र दोनों से लोहा लेते हुये अपनी लेखनी को आवाज दिया और कड़े शब्दों में कहाँ कि अगर उनकी रचना पर कोई जितना भी प्रतिबंध लगाएगा उतनी ही गर्जना के साथ वह सप्तम सुर में गयी जाएगी|
इस तरह उन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों में “कुमारसम्भवम” को सत्रह सर्गो में लिखा और फिर आगे चलकर वही राजतंत्र उस रचना को स्वीकारते हुये अपनी राजसभा में उसकी रजत शताब्दी मानता है| अतः कुल मिलाकर यहाँ एक लेखक की स्वतन्त्रता को केंद्र में रखकर पूरी बात कही गयी है| कुछ इसी प्रकार मंटो ने भी विभाजन की त्रासदी के नग्न यथार्थ चित्रों से पर्दा हटाने का काम किया है जो कुछ लोगों को हजम नही होती है और फिर वह उनपर अश्लील होने का आरोप लगाते है| यहाँ पर मैंने कालिदास से मंटो की तुलना नही की है बल्कि वैचारिक स्तर पर एक लेखक के स्वतंत्र व निरपेक्ष लेखन से किया है| दोनों लेखकों का समय और विषयवस्तु भले भिन्न हो, पर वैचारिक रूप से उनका लेखन पूरी तरह से स्वतंत्र और नग्न है जिसके विपक्ष में राजनीति खड़ी है| जिस दिन एक लेखक की लेखनी सत्ता का समर्थन और चाटुकारीयता करना प्रारम्भ कर देंगी उस दिन या तो कविताएं समाप्त हो जाएगी या फिर सत्ताये| मंटो फिल्म में मुझे दो-दो स्वतन्त्रता के द्वंदात्मक चित्र देखने को मिलते है जिसमें एक देश की स्वतन्त्रता के पश्चात विभाजन का मार्मिक द्वंद जो दोनों तरफ के लोगो के दिलो- दिमाग में चल रहा था और दूसरा एक रचनाकार के लेखन की स्वतन्त्रता का द्वंद जो उसे अदालत के कटघरे में लाकर खड़ा कर देता है| सभ्यता और संस्कृति के ठेकेदारों ने मंटो को एक बदनाम लेखक के नाम से प्रचारित किया, पर मंटो उन बिरले लेखको में अपना स्थान रखते है जो अपनी रचनाओं में पूरी बेबाकी और संजीदगी के साथ इंसानी मनोविज्ञान का नंगा दृश्य अपनी कहानियों में उधेड़कर रख दिया है और यही उनकी सबसे बड़ी कामयाबी भी हैं|
मंटो ने अपने दौर के खोखलेपन को बखूबी पहचाना और फिर पूरी ईमानदारी के साथ वह उसके चेहरे से नकाब को हटाने का काम करते है| उन्होंने औरत-मर्द के संबंधों व देश विभाजन के मसलों दोनों ही को शब्दों में गोलगोल न घुमाकर अपने अंदाजेबयां में खोलकर रख दिया है| वह अपने और अपने समय दोनों के बारे में कहते है कि “मुझमें जो बुराइयां है दरअसल वो इस युग की बुराईयां है, मेरे लिखने में कोई कमी नहीं, जिस कमी को मेरी कमी बताया जाता है वह मौजूदा व्यवस्था की कमी है मैं हंगामापसंद नही हूँ मैं उस सभ्यता, समाज और संस्कृति की चोली क्या उतारूँगा, जो हैं ही नंगी”| अपने समय से पहले के समाज और संस्कृति को जानना और समझना होता है तब हमारे लिए एक साधन होता है साहित्य | जिसे पढ़कर हम उस समय के समाज की स्थितियों, परिस्थितियों और घटनाओं से अवगत होते है| आज के वैश्विक दौर में तकनीकी ने हमें और भी बहुत सारे साधन मुहैया कराये है जिसके माध्यम से हम बहुत ही थोड़े समय में उन अनजान विषयों के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेते है| जिसमें से एक साधन हिन्दी सिनेमा व फिल्म जगत भी है जो कुछ ही घंटों में हमें उस बीते हुये जमाने के चित्रों को प्रदर्शित करने का प्रयास करता है|
पर जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ वह यह है कि जब हम किसी रचना को यथार्थ रूप से पढ़ते है तो उस रचना के साथ हमारा एक भावनात्मक रूप से जुड़ाव बनता जाता है और फिर हम उसी धाराप्रवाह के साथ रचना के अमूर्त विचारों के साथ बहते चले जाते है जो कही न कही उतनी गहराई से फिल्मों में नही देखने को मिलती| कहना न होगा कि मंटो ने अपने लेखन में उन समस्याओं और मुद्दों पर अपनी लेखनी को और भी गहराई और चटख रंग के साथ उभारने की पुरजोर कोशिश की, जिसके लिए उन्हे जाना भी जाता है| देश विभाजन के दौरान जब लाखों लोगों की भीड़ एक जगह से दूसरे जगह पर विस्थापित हो रही थी उसी दौरान दोनों मजहबों के दरिंदों ने अपनी हवस का शिकार नाबालिक लड़कियों और औरतों को बनाया| इस दरिंदगी के कुछ दृश्य हमें मंटो फिल्म में भी देखने को मिलते है जब एक लड़की का बाप अपनी लड़की की तलाश में इधर-उधर भटकता रहता है और फिर एक अस्पताल में जा पहुँचता है जहां पर उसकी बेटी एक बेड पर लेती रहती है और जैसे ही वह उसका नाम ( अंजलि ) पुकारता है वह तुरंत अपने सलवार का नाड़ा खोलकर सलवार नीचे कर देती है| एक पल के लिए किसी भी दर्शक के दिल की धड़कने ठहर सी जाती है वह दृश्य उस दहशत को रेखांकित करता है जो उसके साथ घटित हुआ था, वह दृश्य उस बेदर्दी को दर्शाता है जो उसपर बीती थी, वह दृश्य उस दरिंदगी को दिखाता है जो उस समय उसके दिलों – दिमाग में पालथी मारकर बैठ गया था|
पर इस बात को जब एक लेखक लिखता है तो ना जाने उसे कितनी हिम्मत की आवश्यकता पड़ती होगी, यह तो केवल एक लेखक ही बता सकता है| और मंटो ने इस बात को बखूबी अपनी रचनाओं में दर्शाया है कि कैसे विभाजन की विभीषिका ने उसकी चपेट में आने वाले लोगों के दिलों में कितने गहरे जख्म दिये जिसके निशान आज भी पूरी तरह से मिट नहीं पाये है|
धन्यवाद
चंद्रभान सिंह मौर्य "भानु"
सटीक लेख
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