1. कविता- सबसे बड़ी विडम्बना माता-पिता की व्यस्त जिंदगी से अकेले आप अपने में सिमटे बच्चे बूढे़ माँ-बाप को अनाथालय भेजते आज के ...
1. कविता- सबसे बड़ी विडम्बना
माता-पिता की व्यस्त जिंदगी से
अकेले आप अपने में सिमटे बच्चे
बूढे़ माँ-बाप को अनाथालय भेजते
आज के सुशिक्षित नौकरी-पेशा वाले
यही आज की सबसे बड़ी विडम्बना है
टूटती लव मैरिज बिखरते परिवार-रिश्ते हैं
जमीन-जायदाद के लिए दुश्मन बने भाई हैं
पराये को छोड़ अपनों के लिए भी समय नहीं है
दया-प्रेम और सहयोग पर स्वार्थ-धोखा हावी है
क्या यह आज की सबसे बड़ी विडम्बना है
भीड़ के मध्य है सब अकेले
पैसों के बिछौने पर तन्हा रोते
खुद से परेशान आत्महत्या करते
या बेवजह अजनबी का गला घोंटते
शायद अब एक यही सबसे बड़ी विडम्बना है
- रतन लाल जाट
2. कविता- उसके साथ
कोई कभी उसको
प्यार से पुकारता नहीं है
चाहे कितनी ही मर-मिटती हो
वो सबके लिए
कोई कभी उसको
हँसी देता नहीं है
भले ही उसने
कई जनों के आँसू पोंछे
कोई कभी उसका
साथ देता नहीं है
चाहे उसने
बंधन कई निभाये
- रतन लाल जाट
3. कविता- बदलते नजारे
ना अब नीम पीपल की घनी छाँव है
ना तालाब नहर का शीतल पानी है
ना बचपन के वो खेल पुराने रहे
ना भरे पूरे परिवार के मजे शेष रहे
घर की चारदीवारी तक सब सीमित है
बच्चों के नन्हें हाथों में गेम मोबाइल है
ए सी की हवा और पानी फ्रीज का है
प्रेम पर दौलत का अधिकार हुआ है
- रतन लाल जाट
4. कविता- हैवानियत
कितना हैवान है आदमी
इंसान कहलाने लायक रहा नहीं
नहीं देख रहा है वो
दूधमुँही नन्हीं बच्चियों को
मार रहा है नोच रहा है
अपने राक्षसी हाथों से
वह गिर गया है कुत्ते से भी
गिर गया है सियार से भी
दिल में है शातिरता
आंखों में वहशीपन
कौन कहता इंसान है
वह पशु से है बदतर
धिक्कार है तुम्हें
तुम्हारे रिश्तो पर
कौन करेगा
विश्वास तुम्हारे पर
नहीं रही है संवेदना
ना ही इंसानियत की भावना
हर तरफ है
हैवानियत का बोलबाला
हैवानों से है
बहुत मुश्किल बचना
- रतन लाल जाट
5. कविता- हमारे बाबूजी
हमारे बाबूजी
अपने लिए
आकाश हैं
उनके बिना
हम कुछ नहीं
अधूरे हैं
जैसे टूटी डाल
या मुरझाया फूल
जिसका ना कोई मोल
ना उसमें कोई सुगंध
केवल एक साधन है
औरों के लिए
जो जब चाहे
तब काम लें
बदले में कुछ नहीं
डाट-फटकार के
ना प्यार है
ना तारीफ कोई
परायापन और
बस बेबसी
- रतन लाल जाट
6. कविता- खोती हुई संवेदना
इंसान रोबोट हैं जैसे
आंसू नकली ग्लिसरीन के
पूतले झूठे और दिखावे
पैसों के गुलाम बनें
एक पल का वक्त नहीं है
कुछ अपनों के लिए
प्रेम की जगह छल है
सब स्वार्थ पर टिके
- रतन लाल जाट
7. कविता- तुमसे भी प्यारे हैं
हर बार मैं
लाख कोशिश करता
उसे इतना प्यार दूँ कि
कभी किसी की कोई
कमी महसूस नहीं हो
उसे इतनी खुशी दूँ कि
कभी कोई गम
दिल में उसे नहीं हो
लेकिन अफसोस है मुझे
किसी न किसी बहाने
वो याद किया करती है
अपने पापा को
उतना प्यार तो
शायद अपनी माँ से भी
नहीं किया होगा
वह अकसर कहती रहती है कि
मेरे पापा कितने अच्छे हैं
वो तुमसे भी प्यारे हैं
यह कहते-कहते
उसकी आँखों से
प्रेम के बादल
बरसने को उमड़ उठते हैं
तब मुझे एहसास होता कि
वो भले ही उनसे दूर
कई दिनों से साथ मेरे हैं
पर प्यार मुझसे
कई गुना ज्यादा
उनसे करती है
समझ नहीं आता
मेरे प्यार में
ऐसी क्या कमी
रह गयी है
- रतन लाल जाट
8. कविता- घातक खेल
मौत से खेलते हुए
जीवन से हार गये
पता तो सबको है
कि अंजाम बुरे इसके
पर, नहीं छुटती लत ये
विज्ञान के घातक खेल से
क्या रात क्या दिन है
कुछ नजर नहीं आता है
बस, जागे-सोये हुए
रहते हैं ऑनलाइन ये
कभी नहीं रूकते हैं
गेम, चैट और वीडियो बनाते
आखिर एकदिन आ ही जाता है
हँसते हुए जीवन को रुलाके
खिलते फूलों को मुरझाके
बुझा देता है कुलदीपक कई सारे
क्यों हम साधन को साध्य मान बैठे हैं
क्यों स्वामी की जगह दास बन गये
- रतन लाल जाट
9. कविता- ऐसा मेरा वतन हो
ऐसा मेरा वतन हो।
सारा जहाँ समाया हो।
जहाँ सब एक जैसे,
मानव बसते हो॥
भाषा होगी मानवता,
खुशियों की करे दुआ।
किसी का ना बोलबाला,
एक प्रभु है पिता॥
मानव-धर्म उनका,
दीन-दुःखी, देव-रूपी।
सद्कर्मों से रखें नाता,
मीठी बोले सब वाणी॥
दर्शन मानवता का,
करने को मानव है।
नाम भारतीय का,
जो यहाँ रहते हैं॥
मिल-जुलकर रहते,
साथ बाँटकर खाते।
भेदभाव ना करते,
बदले में प्राण दें॥
सारी धरती प्यारी हो,
खुशियों से चमन हो।
सागर दया बहाये,
नेह-नीर बरसे॥
भाषा होगी मानवता,
मानव-धर्म उनका।
सारी धरती प्यारी हो,
ना कोई अपना-पराया॥
ऐसा मेरा वतन हो।
- रतन लाल जाट
10. कविता- कौन चाटता तलवे
कौन चाटता तलवे?
हम वो नहीं जन हैं।
जो खुशामद करते,
हाथ जोड़ आपके॥
आप हमारी दृष्टि से,
वरना ऐसे कमीने।
तुम हो और तुम्हारे,
सब स्वार्थी चम्मचे॥
नाम राजनीति, अरे!
सुनकर कौन नहीं?
अकड़ता या करता,
काम चोरी-डकैती॥
गढ़ दिल्ली है इसका,
यह पंचायत छोटी।
फिर भी आप करते,
ऐसी दादागिरी॥
अगर कुछ हो जाते,
बड़े अधिकारी जैसे।
तब धरती पर क्या?
रूकते ना आसमां में॥
बात यह अपनी है,
जहाँ मंत्री कई सारे।
उनके नीचे वो जिसे,
सरपंच कहते हैं॥
और उस एक के नीचे,
मालूम नहीं हैं कितने?
हमें खुशामद नहीं,
सच्चाई पसंद रही।
झूठे कारनामें हुए,
महिमा बढ़ी तुम्हारी॥
आप चलाना राजनीति,
मैं चलाऊँगा सद्नीति।
हावी होंगे आप सभी,
किन्तु दबूँगा मैं नहीं॥
अंत में सत्ता बदली,
और बचेगा हमारा ही।
अब तक नामों-निशां,
आप दब जायेंगे कहीं॥
याद करो तुम कैसे?
और कैसी राजनीति?
सबसे बड़ी वो नीति,
जो करे भलाई औरों की॥
- रतन लाल जाट
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कवि-परिचयरतन लाल जाट S/O रामेश्वर लाल जाट
जन्म दिनांक- 10-07-1989
गाँव- लाखों का खेड़ा, पोस्ट- भट्टों का बामनिया
तहसील- कपासन, जिला- चित्तौड़गढ़ (राज.)
पदनाम- व्याख्याता (हिंदी)
कार्यालय- रा. उ. मा. वि. डिण्डोली
प्रकाशन- मंडाण, शिविरा और रचनाकार आदि में
शिक्षा- बी. ए., बी. एड. और एम. ए. (हिंदी) के साथ नेट-स्लेट (हिंदी)
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