श्री राम कथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग निशाचर तरणीसेन के वध उपरान्त विभीषण एवं श्रीराम रो पड़े श्री राम कथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग निशाच...
श्री राम कथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
निशाचर तरणीसेन के वध उपरान्त विभीषण एवं श्रीराम रो पड़े
श्री राम कथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
निशाचर तरणीसेन के वध उपरान्त विभीषण एवं श्रीराम रो पड़े
यावत् स्थास्यन्ति गिरय: सरितश्च महीतले।।
तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।
वा.रा.बा. २-३६-३७
इस पृथ्वी पर जब तक नदियों पर्वतों की सत्ता रहेगी, तब तक संसार में रामायण कथा का प्रचार होता रहेगा।
कृत्तिवास रामायण बंगभाषा-भाषियों की रग-रग में कूट-कूट कर भरी है। चाहे धनी-निर्धन, पंडित-अल्पज्ञानी, शिक्षित-अशिक्षित, प्रत्येक सम्प्रदाय, समाज और वर्ग के लिये समान रूप से यह रामायण आनंदकारी-कल्याणकारी एवं सर्वहिताय है। यदि संस्कृत में महाकवि कालिदास और हिन्दी में गोस्वामी तुलसीदासजी है तो बंगला भाषा में महाकवि कृत्तिवास और उनकी रचना, ''कृत्तिवास रामायण सर्वतोगामिनी, सर्वतोव्यापिनी और सर्वकालानुयायिनि-कालजयी है। अतुलनीय पांडित्यपूर्ण एवं भाव सरलता रचना की प्रमुख विशेषताएँ हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी से एक शती पूर्व बंगला-रामायण के रचियता संत कृत्तिवास ने अपनी अमर रचना को जन-जन तक पहुँचाने का कल्याणकारी श्रेष्ठ कर्म किया है। कृत्तिवास रामायण का कथानक प्राय: वाल्मीकिय रामायण के अनुसार है किन्तु अनेक स्थानों-प्रसंगों पर अन्य पौराणिक अंशों का पर्याप्त समावेश किया गया है। गोस्वामी तुलसीदासजी की तुलना में आख्यानों की अत्यधिक प्रचुरता कृत्तिवास रामायण की अपनी एक अलग, अनोखी पहचान और विशेषता है। बंगला भाषा मधुर-सरल-सरस है अत: इसका आरम्भिक ज्ञान प्राप्त कर उसके समृद्ध साहित्य का रसास्वादन पाठकों-विद्वजनों को अवश्य यहाँ प्राप्त होगा।
इस कथा प्रसंग में रामायण (श्रीराम कथा) के एक ऐसे वीर-भक्त-पुरुष तरणीसेन की कथा है। तरणीसेन जिसका कृत्तिवास रामायण में अपना एक विशेष महत्व है। तरणीसेन कौन था? वह किसका पुत्र था? वह श्रीराम का भक्त था, फिर श्रीराम से क्यों युद्ध किया? विभीषण एवं सरमा से उसका क्या सम्बन्ध था?
उसकी मृत्यु श्रीराम के हाथों होने पर श्रीराम एवं विभीषण को दु:ख क्यों हुआ आदि का पटाक्षेप इस कथा में है। यह कथा-प्रसंग अन्य श्रीरामकथाओं में लगभग नगण्य होने से इस रामायण में अपना एक विशिष्ठ स्थान रखता है। भारतीय साहित्य में रामायण ही एक ऐसी जन-जन प्रिय रचना है जो भारत की प्रत्येक भाषा में किसी न किसी रूप में उपलब्ध होकर कालजयी है।
मकराक्ष अपने पिता खर का दंडकवन में श्रीराम द्वारा वध का प्रतिशोध लेकर उनके समक्ष युद्ध हेतु आ गया। उसने युद्ध के मैदान में नल, नील, सुषेण, सुग्रीव, अंगद और हनुमान को भयभीत कर रणभूमि त्याग कर भागने पर विवश कर दिया। उस समय श्रीराम ने उससे कहा-
राम बले, मकराक्ष ना कर बिलाप, आजि धुचाइव तव मनेर सन्ताप
एखनि पाठाब तोरे यमेरसदन, चिर दिन पिता-पुत्रे हबे दर्शन
बंगला कृत्तिवास रामायण लंकाकाण्ड-५५
मकराक्ष खेद न करो। आज तुम्हारे मन का सारा सन्ताप दूर कर दूँगा। अभी तुमको यम-सदन भेज दूँगा, वहाँ तुम पिता-पुत्र में भेंट होगी। इतना कह कर श्रीराम ने खुरपार्श्व नामक बाण फेंका। श्रीराम को उसके पिता खर से भी मकराक्ष बड़ा वीर शूरवीर दिखा। अंत में उन्होंने ऐषिक बाण फेंक कर मारना चाहा, किन्तु वह टस से मस नहीं हुआ। अंत में उसे अग्रिबाण से मार गिराया।
मकराक्ष के युद्ध में मारे जाने की एक दूत ने रावण को सूचना दी। तब रावण यह सुनकर सिंहासन से गिरकर मूर्च्छित हो गया। रावण को लगा कि कुम्भकर्ण, अतिकाय और वीर अकम्पन के वध से स्वर्ण लंकापुरी धीरे-धीरे वीरों से शून्य हो रही है। रावण ने सोचा कि अब किसे रणक्षेत्र में भेजूँ ताकि वह श्रीराम-लक्ष्मण और सुग्रीव सहित वानर सेना का वधकर युद्ध में पराजय को विजय में परिवर्तित कर दे। रावण के आदेश देने पर उनके समक्ष तरणीसेन आया तथा उसने उन्हें भूमि पर झुक कर प्रणाम किया। दशानन ने उसे अपनी बाहों में बाँध कर उसका सम्मान किया तथा पुष्प-पान देकर उसे युद्ध में जाने के लिये आरती उतारी। रावण ने कहा-
रावण बले, लंकापुरी राखह तरणी, एत्तेक प्रमाद हबे, आगे नाहि जानि
तव पिता विभीषण धर्म्मेतेतत्पर, हित उपदेश भाइ बुझाले विस्तर
अंहकारे मत्त आमि, छिन्न हैलमति, बिना-अपराधे तारे मारिलाम लाथि
आमारे छाड़िया गेल भाई विभीषण, अनुरागे लइयाछे रामेर शरण
बंगला कृत्तिवास रामायण लंकाकाण्ड -५८
तरणी! अब लंकापुरी की रक्षा करो, इतना बड़ा संकट आ जावेगा यह मुझे पहले नहीं मालूम था। तुम्हारे पिता विभीषण धर्म के पालनकर्ता हैं, उन्होंने मुझे भी ढेर सारे हित उपदेश देकर समझाया लेकिन में तो अंहकार में अंधा था, मेरी मति भ्रष्ट हो चुकी थी, मैंनेबिना अपराध के उन लात मार दी। भाई विभीषण मुझे त्याग कर राम की शरण में चले गये। अब तुम्हारे पिता शत्रु पक्ष में जाकर राम की मंत्रणा देकर कनक लंका का विनाश करा रहे हैं। तुम उनके पुत्र हो लेकिन तुम तुम्हारे पिता जैसे नहीं हो, मैं सदा से तुमको जानता हूँ। तरणीसेन ने हाथ जोड़कर कहा हे राक्षसों के नाथ, आप त्रैलोक्यविजयी हो। सभी शास्त्रों में कहा गया है कि माता-पिता महागुरु हैं, इसलिए पिता के सम्बन्ध में कुछ भी कहना उचित नहीं होगा। रावण ने तरणीसेन से कहा कि तुम श्रीराम-लक्ष्मण को हाथ-पैरों से बाँधकर ले आओ। यह सुनकर तरणीसेन ने रावण से कहा कि मैं संग्राम में अपनी शक्ति से भंयकर मारकाट मचाऊँगा। वंश के नाश में मूल आधार (कारण) मेरे पिता विभीषणजी हैं। इस समय में उनसे कोई अनुरोध नहीं करूँगा। विभिन्न पुराणों और शास्त्रों में यह कहा गया है कि युद्ध के समय श्रेष्ठ और ज्येष्ठ की विवेचना नहीें करनी चाहिए।
तरणीसेन ने सेना को युद्ध के लिये सुसज्जित होने के आदेश देकर अपनी माता 'सरमाÓ के पास गया तथा राजा रावण से युद्ध में जाने का कहा। तरणी ने कहा कि माता मैं पूर्णब्रह्म नारायण को अपनी अँाखों से देखूँगा। श्रीराम के दर्शन से मेरा शरीर पवित्र हो जावेगा। मैं अपने पिता के चरण-कमल भी देख सकूँगा। हे माता! मुझे रणक्षेत्र में जाने की अनुमति दो। यह सब सुनकर सरमा चौंक कर रो पड़ी। सरमा ने तरणी से कहा कि तुम रणक्षेत्र में नहीं जाओगे। मैं तुम्हें लंका छोड़कर कहीं और लेकर चली जाऊँगी। सरमा ने कहा कि तुम्हारे पिता धार्मिक हैं, पाप संगति को त्यागकर श्रीराम की शरण ली है। तुम भी जाओ और श्रीराम की शरण लेकर उनकी स्तुति करो। श्रीराम मनुष्य नहीं हैं, वे गोलोक के स्वामी हैं। दुष्ट राक्षसवंश का ध्वंस करने के लिये विष्णु भगवान ने राजा दशरथ के पुत्र के रूप में रामावतार लिया है। जिसके एक लाख पुत्र हो और सवा लाख पोते हों तो भी उनके वंश में एक भी दीपक जलाने को नहीं बचेगा। तरणी ने माँ की बातें सुनकर कहा कि मुझे सब ज्ञात हैं फिर भी युद्ध करूँगा, श्रीराम के हाथों से मरने पर स्वर्ग प्राप्त होगा। यदि दास का पुत्र समझकर श्रीराम मेरा वध न करे तो फिर तुम्हारे शरणों में आकर प्रणाम करूँगा।
सरमा यह सब सुनकर रो पड़ी। तरणीसेन जननी-सरमा के चरणों को नमन कर युद्ध के लिये चल पड़ा। राक्षसों और वानरों में महारण हुआ। वानर प्रहार को सहने में असमर्थ हो भाग खड़े हुए। श्रीराम ने कहा मित्र विभीषण, तनिक देखना तो कौन युद्ध करने आ गया? विभीषण ने कहा, हे राजीवलोचन, यह तो रावण के अन्न से पला कोई है। रिश्ते में वह उसका भतीजा लगता है और उसके गोत्र का है। यह बड़ा धार्मिक विचारधारा वाला तथा महाबली योद्धा भी है। तरणी के नेत्र श्रीराम एवं अपने पिता विभीषण के दर्शन के लिये आतुर हो रहे थे। तरणी ने अपना रथ श्रीराम की ओर भगाया तो मार्ग में नील ने कहा तू कहाँ जा रहा है? मैं तेरा सिर एक ही चांटे में तोड़ दूँगा। तरणी ने हाथ जोड़कर कहा रास्ता छोड़ दो मैं श्रीराम-लक्ष्मण को देखूँ। तरणी के शरीर के सारे अंगों पर तथा रथ के चारो ओर राम नाम लिखा था। यह तरणी की भक्ति देखकर वानर हँसने लगे। उन्होंने उसे बगुला भगत कहा। उन्हें तरणी मायावी लगा। नील तरणी में युद्ध हुआ। नील पराजित होकर गिर पड़ा तथा उसके मुँह से रक्त की धारा बह निकली। इसके बाद तरणी तथा हनुमान् में युद्ध हुआ। तरणीसेन ने हनुमान् को पकड़कर जमीन पर पटक दिया। हनुमानजी को पीछे कर बालि का पुत्र अंगद तरणी से जा भिड़ा। तरनीसेन को अंगद पर गुस्सा आ गया और उसने अंगद के सीने पर लोहे का मुद्गर दे मारा। युद्ध में बड़े बड़े वानरों को तरणीसेन ने घायल कर दिया। महेन्द्र, देवेन्द्र और बूढ़ा सुषेण तरणीसेन के बाणों का कोई भी सामना नहीं कर सके। सुग्रीव के सीने पर तरणीसेन ने घनघोर जाठा फेेंककर मारा- राजा सुग्रीव भूमि पर गिर पड़े और उनके मुख से रक्त की धारा बह निकली। तरणीसेन के बाणों के सामने कोई भी स्थिर नहीं रह सका। महेन्द्र, देवेन्द्र द्विविद और कुमुद भागने को विवश हो गये। हनुमान्जी, सुषेण और अंगद रह गये। तीनों मिलकर सुग्रीव की मूर्च्छा दूर करने का प्रयत्न करने लग गये।
सामने तरणी का रथ जा पहुँचा। उसने देखा कि उसके सामने श्रीराम-लक्ष्मण हाथ में धनुष लिये खड़े हैं तो दक्षिण में जाम्बवान और बाएँ विभीषण हैं। तरणीसेन रथ से उतर पड़ा और पिता (विभीषण) के चरणों पर संकेत से प्रणाम कर फिर हाथ जोड़कर श्रीराम-लक्ष्मण को प्रणाम किया। विभीषण ने कहा, हे राम, शीघ्र देखो तुम दोनों को निशाचर (तरणीसेन) प्रणाम कर रहा है। श्रीराम ने कहा मित्र विभीषण यह निशाचर होकर तथा विपक्ष का योद्धा होकर भी हम दोनों को क्यों प्रणाम कर रहा है। विभीषण ने कहा, प्रभु लंका में यह आपका भक्त है तथा आपके चरणों के अतिरिक्त यह कुछ भी नहीं जानता है। यह लंका के राजा रावण के आदेश से आया है। श्रीराम ने कहा कि वास्तव में यह मेरा भक्त है तो आशीर्वाद देता हँू कि इसकी मनोकामना पूर्ण हो। लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा कि हाय-हाय यह आपने क्या किया? राक्षस की मनोकामना-अभिलाषा है और रावण की विजय। श्रीराम ने कहा-
श्रीराम बलेन, तूमि ना जान लक्ष्मण, भक्तेर विषय-वाच्छा नहे कदाचन
बंगला कृत्तिवास रामायण लंकाकांड-२७२
तुम नहीं जानते लक्ष्मण, भक्त कभी भौतिक इच्छाएँ नहीं करता। तरणीसेन ने सिंहनाद कर उन्हें अपने देश सकुशल लौट जाने को कहा। यह सुनकर लक्ष्मणजी को क्रोध हो आया और उन्होंने तरणीसेन पर पाँच सौ बाँण फेंके जिनको तरणीसेन ने काट-काट कर खंड-खंड कर दिये। रहस्य की बात यह थी कि जितने बाण लक्ष्मण तरणीसेन पर निशाना साधकर फेकंते, तरणीसेन श्रीराम का मन में स्मरण कर काटकर गिरा देता था। अन्त में लक्ष्मणजी ने गन्धर्व बाण फेंका, जिससे तीन करोड़ गन्धर्वों का जन्म हो गया और गन्धर्वों तथा राक्षसों में भयंकर युद्ध छिड़ गया। तरणीसेन की सेना में एक भी सैनिक शेष नहीं रहा। यह देख तरणीसेन ने क्रोधित होकर हाथ में जाठा उठाकर लक्ष्मणजी के सिर पर दे मारा। लक्ष्मणजी को मूर्छा आ गयी तथा गिर पड़े। हनुमान्जी ने बिना विलम्ब किये उठाकर ले गये।
लक्ष्मणजी को गिराकर तरणीसेन ने पुकारा कहाँ है वह कपटी तपस्वी जटाधारी राम? मैं तुम्हें अभी जल्द ही यम के घर भेज रहा हूँ यह सुनकर श्रीराम तरणीसेन के सम्मुख आकर खड़े हो गये। वीर तरणी ने श्रीराम का विश्वरूप देखा। उनके एक एक रूप-कूप में ब्रह्माण्ड समाया हुआ था। मृत्युलोक, तपोलोक ओर ब्रह्मलोक देखे। माया से गोलोक के स्वामी मनुष्य रूप धरकर लीला कर रहे हैं, उनके चरणों में गंगा, भागीरथी प्रवाहमान हैं। भूमि पर साष्टांग लोटकर उसने प्रणाम किया। धनुष बाण उठाकर एक तरफ फेंककर वह श्रीराम की स्तुति करने लगा। हे पुडंरीकाक्ष, हे राक्षसों के रिपु, मैं स्तुति करने में असमर्थ हूँ। मैंने राक्षसों का शरीर पाया है। युग-युगान्तरों से मुक्ति को असाध्य मानने के उपरान्त अब मैंने तुम्हारा वध्य बनकर राक्षस वंश में जन्म लिया। अब झूठे गर्व करने से क्या लाभ, मुझको स्वर्ग नहीं चाहिए, तेज खड्ग से मेरा मुंड काट डालो, मैं मोक्षधाम को चला जाऊँ। यदि आप अपने कर-कमलों से मेरा मस्तक काट डालों तो मैं प्रसन्नतापूर्वक गोलोक चला जाऊँगा। इस बात में कोई संदेह नहीं है।
तरणी की इस प्रकार की स्तुति सुनकर श्रीराम का कोमल शरीर आँसुओं से भीग गया। श्रीराम ने कहा, हे मित्र विभीषण सुनो, अब मुझे ज्ञात हुआ कि लंका में मेरा ऐसा भी भक्त है। उन्होंने अपने हाथ के धनुष-बाण रख दिये। श्रीराम ने विभीषण से कहा कि मैं अपने भक्त को कैसे मार सकता हूँ। आज मुझे सेतु बाँधना, व्यर्थ लग रहा है। मैं लंका का युद्ध त्यागकर वन में लौट जाऊँगा। मैंने समझ लिया कि अब न सीता का उद्धार होगा और न मैं अपने राज्य में जाऊँगा। मेरे भक्त के अंग में काँटा भी चुभ जाये तो मेरे हृदय में शैल की सी चोट लगती है। यह कहकर श्रीराम ने युद्ध से हाथ खींचकर अलग बैठ गये।
तरणी ने अपने मन ही मन विचार किया कि श्रीराम मेरी स्तुति से प्रसन्न होकर मुझ पर अस्त्र नहीं चला रहे हैं। इस राक्षस-देह से कैसे मुक्ति मिलेगी तथा युद्ध के बिना मुक्ति का कोई उपाय नहीं। तब तरणीसेन ने धनुष-बाण उठाकर श्रीराम को कठोर वाक्य कहना शुरू कर दिया। राम तेरी जो वीरता है उसके बारे में चराचर में विदित है। भरत ने तुझे भगाकर राज्य छीन लिया। तुमको मारने के बाद मैं युद्ध में लक्ष्मण का भी वध करूँगा और सीता को लेकर रावण के बाँए बिठाऊँगा। इतना सुनकर लक्ष्मण ने सौ बाण धनुष पर चढ़ाये। यह देखकर तरणीसेन ने मन ही मन सोचा कि मुझे तो राम के हाथों मरने की अभिलाषा है। विभीषण ने दु:खी तरणी की अभिलाषा भाप ली। विभीषण ने श्रीराम के हाथ जोड़कर कहा, लंका में यह बालक दुर्जय वीर है। अत: अब पुन: लक्ष्मणजी को भी इससे युद्ध न करने दे तथा अब आप ही इस निशाचर को मारे। श्रीराम और तरणी के मध्य निर्णायक युद्ध हुआ। अंत में तरणीसेन ने देखा की श्रीराम अत्यन्त परिश्रम से थक से गये हैं। तब उनसे मन में निर्णय किया कि राज्य-धन-सम्पत्ति कुछ भी नहीं चाहिए। केवल श्रीराम के हाथों मरकर गोलोकधाम जाना चाहता हूँ।
तरणीसेन जब यह मन ही मन सोच रहा था कि विभीषण ने श्रीराम के कानों में कहा-
शुन प्रभु रधनाथ, करि निवेदन, ब्रह्म-अस्त्रे हइबेक इहार मरण
अन्य-अस्त्रे ना मारिबे एइ निशाचर, सदय हइया ब्रह्मा दियाछेन वर
एतेक शुनिया राम कमल लोचन, घनुकेते ब्रह्म-अस्त्र जुड़िला तखन
रविर किरण जिनि खरतर बाण, सेइ बाणें रघुनाथ पूरिला सन्धान
बंगला कृत्तिवास रामायण लंकाकाण्ड-२८०
प्रभु रघुनाथ सुनो मेरा यह निवेदन है कि इसकी मृत्यु केवल ब्रह्मास्त्र से होगी। अन्य किसी अस्त्र से इस निशाचर की मृत्यु नहीं होगी ऐसा दयाकर ब्रह्मा ने इसे वरदान दिया है। श्रीराम ने रवि के किरण सा प्रखर ब्रह्मास्त्र (बाण) धनुष पर चढ़ाया। उधर तरणीसेन हाथ जोड़कर श्रीराम से कहने लगा, तुम्हारे चरणों को निहार कर मैं अपने प्राण त्यागता हूँ। हे नाथ, हे प्रभु। परलोक में भी अपने श्री चरणों में स्थान देना। तरणी को बाण लगा और उसका मुंड कटकर अलग जा गिरा। दो खंड होकर वह वीर धरा पर गिर पड़ा। तरणीसेन का कटा मुण्ड राम राम उच्चारने लगा। उधर हाय हाय करता विभीषण आँसुओं से भीगकर जमीन पर गिर पड़ा। श्रीराम ने कहा मित्र विभीषण तुम क्यों रो रहे हो तथा उन्हें अपनी गोद में बैठा लिया। विभीषण ने कहा प्रभु, यह मेरा पुत्र तरणीसेन मरा है। यह सुनकर श्रीराम भी रोने लगे तथा उन्होंने विभीषण से कहा कि यदि तुम मुझे पहले ही बता देते कि यह तुम्हारा पुत्र है तो मैं तरणी के साथ कभी युद्ध ही नहीं करता। श्रीराम, विभीषण को रोते देख लक्ष्मण, समस्त वानर, सुग्रीव, अंगद, हनुमानजी, सुषेण और जाम्बवान भी रोने लग गये। श्रीराम ने कहा मित्र विभीषण पता नहीं तुम्हारा हृदय कितना कठोर पत्थर है, तुम्हीं ने मुझे ब्रह्मअस्त्र से मारने की मंत्रणा दी। तुमने स्वयं अपने पुत्र का वध कराया। पहले विचार नहीं किया, अब किस कारण रो रहे हो? हे मित्र शोक मत करो, मन को स्थिर करो, यह शरीर नश्वर है, इसके लिए क्यों रोते हो।
विभीषण ने श्रीराम से कहा कि मैं पुत्र शोक से नहीं रो रहा हूँ। मैं धन्य हूँ और मेरा पुत्र भी पुण्यात्मा है, जिसने आपके हाथों मरकर निर्वाण प्राप्त किया है। सम्भवत: वह वैकुंठ गया या गोलोक, उसने अपना राक्षस शरीर त्यागा और आपने उसे मुक्त कर दिया। कुम्भकर्ण, अतिकाय आदि आपके शत्रुओं ने भी मुक्ति प्राप्त कर ली है। तुम्हारे चरण कमल की सेवा कर मुझको क्या लाभ प्राप्त हुआ। यदि मैं इस शरीर को त्याग सकता तो मैं भी वैकुंठ जा सकता था। किन्तु ब्रह्माजी ने वर दिया कि मेरी मृत्यु नहीं होगी और पृथ्वी पर मुझको बहुत दु:ख देखना और सहना पड़ेगा। इसी चिन्ता में मैं रो रहा हूँ। श्रीराम ने कहा, हे विभीषण दु:ख मत करो, क्योंकि साधु के लिये जीवन मृत्यु दोनों बराबर है। जितने दिन तुम इस संसार में रहोगे सदा तुम पर मेरी कृपा बनी रहेगी। यह सुनकर विभीषण ने अपना क्रन्दन रोक दिया। दूत ने जाकर कहा हे लंकेश्वर आज तरणीसेन वीर गति को प्राप्त हो गये। तरणीसेन की मृत्यु का समाचार सुनकर लंकेश्वर सिंहासन से जमीन पर गिर गये। इधर पुत्र शोक में तरणीसेन की माता सरमा (जो कि गन्धर्व राज शैलूष की पुत्री) के सारे अंग आँसुओं से भीग गये। सरमा ने किसी तरह मन को समझाया कि यह शरीर नश्वर है। सरमा को जानकीजी ने तरह-तरह से समझाकर ढांढस बँधाया।
विभीषण ने अन्यायी-अत्याचारी-अहंकारी राक्षसवृत्ति रावण से मुक्ति प्राप्त करने हेतु अपने प्राण-प्रिय पुत्र का भी वध श्रीराम से करवा कर जो आदर्श प्रस्तुत किया है, वास्तव में श्रीरामकथा में स्वर्णाक्षरों में रहेगा। विभीषण की श्रीराम से मित्रता त्याग-बलिदान, सुख शांति और लोककल्याणकारी थी। पुत्र के समान दूसरा संसार में कोई प्रिय नहीं होता है इसलिये कहा गया है-
नास्ति पुत्रसम: प्रिय:
वा.रा. अयो. का. ७४-२४
पुत्र के समान कोई दूसरा प्रिय नहीं होता है। इस प्रकार तरणीसेन का कथा प्रसंग कृत्तिवास रामायण में अन्य श्रीरामकथाओं से अलग अपना-अपना विशेष स्थान रखता है।
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डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
'मानसश्री, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
Email : drnarendrakmehta@gmail.com
पिनकोड- ४५६ ०१०
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