डिस्चार्ज आपके पास चार्जर है? - मैंने पूछा। हाँ जी, है न...वहाँ है। वह देखो...उससे नर्स का मोबाईल चार्ज हो रहा है- उसने बड़े उत्साही स्वर में...
डिस्चार्ज
आपके पास चार्जर है? - मैंने पूछा।
हाँ जी, है न...वहाँ है। वह देखो...उससे नर्स का मोबाईल चार्ज हो रहा है- उसने बड़े उत्साही स्वर में बताया।
उस अजनबी पेशेंट के साथ बातचीत को आगे बढ़ाने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। मुझे तो केवल अपना उल्लू सीधा करना था। मेरा मोबाईल स्वीच ऑफ हुआ था। मुझे उसे चार्ज करना था और मेरे पास अपना चार्जर नहीं था। कल रात ही मैं इस अस्पताल में अपने भाई से मिलने आया था। पिछले दो दिन से इसी अस्पताल के आय सी यू में मेरे भाई को भर्ती किया गया था। उसके सीने में दर्द होने की वजह से अचानक भर्ती करना पड़ा था| गाँव से भाई के साथ पिताजी आये थे। उन दिनों मैं औरंगाबाद में पढाई कर रहा था। माँ ने रुलाई के स्वर में मुझे भाई की सेहत बहुत खराब होने की खबर सुनाई और जल्दी से अपने साथ लातूर ले जाने की हिदायत दी, तो मैं तुरंत निकला। लातूर आते समय परली से माँ को भी साथ लेकर चला। आते समय पिताजी मुझे बार-बार कॉल करके अपना एटीएम कार्ड बिना भूले साथ लाने को कह रहे थे, चूँकि उनके पास जो बारह हजार रुपये थे वे एक दिन में ही खर्च हो चुके थे। अस्पताल में आते ही उन्होंने एडमिशन फ़ीस के तौर पर पाँच हजार रूपये एडवांस और सात हजार सी टी स्कैन के लिए भर दिये थे। पिताजी भलीभाँति जानते थे कि अस्पताल में पैसों की सख्त जरूरत होती है, आदमियों से भी कई गुना ज्यादा। मैं अपने एटीएम कार्ड और माँ के साथ अस्पताल में पहुँच गया, लेकिन जल्दबाजी में अपने मोबाईल का चार्जर लाना भूल गया था। मैं चार्जर को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते अस्पताल की रूम नम्बर 305 में पहुँच गया। मैंने देखा कि वहाँ एक अकेला पेशेंट बेड पर लेटा हुआ था। मैंने उसे चार्जर के बारे में पूछा, तो उसने मुझे उपर्युक्त सीधा जवाब दिया था। उसका जवाब सुनकर मैं रूम के बाहर आ गया। रूम के बाहर कुछ कुर्सियाँ रखी थी, वहीं बैठ गया। वहीं से थोड़ी दूरी पर नर्सों का काउंटर था। शायद! उन्हीं में से किसी एक नर्स का मोबाईल इस रूम में चार्जिंग हो रहा था। मैं इंतजार करने लगा कि उन्हीं में से कोई एक नर्स आ जाये और अपना मोबाईल ले जाये, ताकि मैं अपना मोबाईल चार्जिंग को लगा सकूँ। अस्पताल की दीवार पर एक एलईडी टी.व्ही. लटकी हुई थी। उसमें यो! यो! हनी सिंग के नये पॉप सॉन्ग बज रहे थें। मैं उन्हें देखकर ही टाइम पास करने लगा। वैसे मेरी अभिरुचि समाचार चैनलों को देखने में रही है, लेकिन टी.व्ही.का रिमोट नर्सों के पास था। मैं चुपचाप वहीं देखने लगा, जो इस वक्त टी.व्ही. में चलने लगा था। लगभग आधे घंटे के इंतजार के बाद एक नर्स आ गई और अपना मोबाईल चार्जर से निकालकर ले गई। मैं फौरन रूम के अंदर चला गया और मैंने अपना मोबाईल चार्जिंग को लगाया। कृतज्ञता वश उस अजनबी पेशेंट के साथ औपचारिक वार्तालाप की शुरुआत कर दी –
हाँ जी...कहाँ से आये हैं आप?
भालकी से...यहाँ से 107 कि.मी. दूर है..हमरा गाँव।
आपको हुआ क्या है?
मेरी चलते समय साँस फुल जाती है और हवा को सूंघते ही सीना दर्द करता है.... सीने के अंदर बड़ी तकलीफ़ होती है।
इससे पहले किसी और डॉक्टर को दिखाए?
हाँ जी, दिखाया न... उस्मानाबाद के सरकारी अस्पताल में।
तो फिर... इस डॉक्टर के पास आने को किसने कह दिया?
उस्मानाबाद के सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ने कहा कि यहाँ जाओ। यह माताजी क्रिटिकल केअर एंड एडवान्सड अस्पताल है। सुना है..यहाँ का डॉक्टर हार्ट स्पेशलिस्ट है और अमरिका से पढ़कर आया है। मुझे यहाँ आते ही उन्होंने वीआयपी रूम में भर्ती कर दिया।
यहाँ भर्ती हुए आपको कितने दिन हुए हैं?
पाँच दिन हुए...बेटे।
कुछ राहत मिली?
हाँ हाँ, मिली है न...अब मुझे काफ़ी राहत महसूस हो रही है।
आपके साथ कोई रिश्तेदार दिखाई नहीं दे रहे हैं। क्या आप अकेले ही अस्पताल में आये हैं!
मेरा परिवार गाँव में रहता है। हम छोटे जोत के किसान है। इन दिनों खेती के बहुत सारे काम सिर पर सवार हुए है। इसलिए मेरी पत्नी और बेटा साथ न आ सकें। बहू आंगनबाडी में 'आशा' कार्यकर्ता है। वह अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रही है। मेरी बेटी और दामाद यहीं लातूर में रहते हैं। दामाद नौकरी में है और बेटी घर सँभालती है...शिलाई का काम भी करती है। समय निकालकर दोनों खाना लेकर आ जाते हैं। बेटी रुक रही थी, लेकिन मैंने ही मना किया। वैसे तो मैं चल फिर सकता हूँ। देखो, अभी मैंने खुद चलकर मेडिकल से यह दवाइयाँ लाई है।
सुबह के दस बज रहे थे। डॉक्टर साहब के राऊंड का समय हो चुका था। सभी नर्सें अलर्ट हो गई। उनकी हँसी- मजाकियाँ बातें बंद हो गई। टी.व्ही. का चैनल बदल दिया गया। अब उसमें एबीपी माझा मराठी न्यूज़ चैनल चलने लगा था। डॉक्टर साहब के आते ही एकसाथ सभी नर्सें चुपचाप खड़ी हुई, मानो बच्चों के क्लास में अनुशासन प्रिय टीचर आ गये हो। एकदम माहौल बदल गया, जैसे शहर में कर्फ्यू लग गया हो! डॉक्टर साहब आगे चलने लगे, तो नर्सें उनके पीछे दौड़ रही थीं। डॉक्टर पहले आय सी यू में गये, उसके बाद वीआयपी रूम में। वे एक के बाद दूसरे पेशेंट्स का फॉलो अप लेने लगे। अचानक एक रूम से डॉक्टर साहब की जोर-जोर से डाँटने की आवाज आने लगी, शायद! किसी नर्स से कोई बड़ी गलती हुई होगी। एक नर्स रोने लगी। बहरहाल, वह ही डॉक्टर के क्रोध का शिकार हुई होगी, इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं था। डॉक्टर साहब का क्रोध उनके अहंकार की उपज थी। उन्हें हमेशा यह लगता था कि वे शहर के सबसे बड़े ही नहीं, बल्कि फाईव स्टार होटल जैसे आलीशान अस्पताल के मालिक है और बाकी यहाँ काम करनेवाले सभी उनके नौकर-चाकर। वैसे भी तो क्रोध और अहंकार किसी भी मालिक के अलंकार बन जाते हैं, इनके बग़ैर मालिक कहाँ शोभा देते हैं? डॉक्टर साहब रूम नम्बर 305 में आ गये। मैं उसी रूम में खड़ा था। डॉक्टर साहब ने उस पेशेंट का चेकअप किया और उसे स्लाइन लगाने को कहा। साथ ही दो दिन बाद उस पेशेंट को डिस्चार्ज मिलने की बात कह दी। उसके बाद वे उस रूम से निकलकर पड़ोस की रूम में चले गए। वह अजनबी पेशेंट बिना किसी भी शिकायत के डिस्चार्ज के लिए राजी हो गया। डिस्चार्ज मिलने की खुशी में वह फूले नहीं समां रहा था। मैंने उसकी खुशी में शामिल होने के लिए कहा–
अब आप तो सीधा गाँव चले जायेंगे?
जी हाँ..
आपने अपना शुभ नाम नहीं बताया?
अजी, मेरा नाम तो रामप्रसाद है और आपको किस नाम बुलाते हैं बेटा?
मुझे सभी सृजन नाम से बुलाते हैं।
अच्छा किया आपने चार्जर साथ में रखा...
मैं हमेशा साथ में ही चार्जर रखता हूँ। यह आज के जमाने में हर आदमी की पहली जरूरत जो बन गया है...उसने ठहाका लगाते हुए कह दिया।
अब तक मेरा मोबाईल 80 प्रतिशत चार्जिंग हो गया था। मैंने चार्जर से मोबाईल निकाला और चलने लगा। तो उसने कहा- ‘आप को जब भी जरूरत हो आ जाइए, मैं दो दिन यहाँ ही रहूँगा।
बहुत बहुत धन्यवाद- मैंने कहा और वहाँ से चल दिया...अपने भाई और माँ के पास।
रामप्रसाद को दो के बदले तीसरे दिन डिस्चार्ज मिला। उसने लगभग दस हजार रुपये बिल चुकाया, 8 दिनों का। मैंने देखा कि वह अस्पताल से बाहर जाते समय बेहद खुश लग रहा था। उस समय करीब-करीब पाँच बजे थे। अब यहाँ से गाँव पहुँचने में देर हो जायेगी, यह सोचकर बेटी और दामाद ने उन्हें आज की रात लातूर में अपने घर रूकने का आग्रह किया। उन्होंने भी समय के हालात को समझ कर उनका आमंत्रण सहर्ष स्वीकार किया। उसी शाम दामाद ने अपने ससूर जी के लिए नये कपड़े खरीद लिये, चूँकि भारतीय समाज में यह रिवाज रहा है कि कोई भी आदमी अपनी बीमारी का इलाज करके जब अस्पताल से बाहर आये ,तब तो उसका स्वागत नये कपड़े पहनाकर रिश्तेदारों द्वारा किया जाता है। रात के आठ बजे भोजन हुआ। रामप्रसाद थकान महसूस कर रहा था। उसे नींद आ रही थी। पिछले आठ दिनों से अस्पताल में वह ठीक से सो नहीं पाया था। उसके लिए बिस्तर तैयार था। वह जाकर लेट गया, तो पता ही नहीं चला कि कब आँखें लग गई।
सुबह जल्दी जागने की आदत थी, रामप्रसाद की। प्रातः पाँच बजे ही उसकी आँखें खुल गई, लेकिन वह बिस्तर पर पड़ा रहा। वह सोचने लगा कि इतनी जल्दी जागकर वह करें भी तो क्या करें! उसके जल्दी जागने से बेटी-दामाद को कोई कष्ट न हो, इसकी उसे अधिक परवाह थी। वह भलीभाँति जानता है कि शहर में तो लोग रात को देर से सोते है और सुबह जल्दी जागते नहीं। लेटे-लेटे ही उसके दो घंटे बीत गये। उसे लगा कि अब तक बेटी-दामाद की नींद खुल गई होगी, उतने में दामाद ने ससूर जी को चाय के लिए मेज पर आने को आवाज दी। रामप्रसाद चुपचाप आकर कुर्सी पर बैठ गया और अखबार के पन्ने पलटने लगा। दामाद ब्रश कर रहे थे। बेटी चाय बना रही थी। चाय बन गई, तो स्ट्रे में चाय लेकर बेटी आने लगी। आते समय उसने देखा कि अचानक पिताजी के हाथों में अखबार थरथराने लगा है और वे कुर्सी से गिरनेवाले है। वह चिल्लाई। उसकी आवाज सुनकर दामाद दौड़े चले आये। जब तक बेटी और दामाद आ जाते, तब तक रामप्रसाद जमीन पर गिर गया था। दोनों ने उसे उठाने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन असफल रहें। रामप्रसाद को लकवा मार गया था। ताबड़तोड़ ऑटो रिक्शा बुलाया गया और आनन- फानन में रामप्रसाद को उसी अस्पताल में भर्ती किया गया जिस अस्पताल से कल ही उसे डिस्चार्ज मिला था। भले ही यह पैरालिशिस अस्पताल का नहीं था, अपितु वह इसी अस्पताल का अंडर ट्रीटमेंट पेशेंट था। आते ही उसे तुरंत आय सी यू में ले गये, मानो आय सी यू किसी प्रेमिका की तरह उसका बेसब्री से इंतजार कर रहा हो। आय सी यू की उपलब्ध सभी अत्याधुनिक तकनीक और सुविधाओं का लाभ रामप्रसाद को दिया जाने लगा, मानो वह पेशेंट न होकर कोई नया कस्टमर हो। आरएमओ ने दवाइयों की एक लम्बी लिस्ट लिखकर मेडिकल से फ़ौरन लाने को कह दिया। मेडिकल से दवाइयाँ, सुई, नली और अन्य कई सहायक वस्तुएँ आ गई। अभी तक डॉक्टर साहब नहीं आये थे। उनका आवास बहुमंजिल अस्पताल की सबसे ऊपरी मंजिल पर था, लेकिन वे दस बजे से पहले नीचे नहीं आते थे। आपने निर्धारित समय से पहले उन्हें बुलाने की किसी की क्या मजाल थी? उनको किसी भी हालात में डिस्टर्ब नहीं किया जा सकता था। शायद! यह अस्पताल का अलिखित नियम बन गया था।
डॉक्टर साहब आपने निर्धारित समय पर राऊंड पर आ गये। वे पहले आय सी यू में गये । वहाँ उन्होंने रामप्रसाद को बेहोश पड़ा देख लिया। उसे देखकर वे मन ही मन खुश हो गये कि चलो किसी तरह हो एक और पेशेंट मिल गया जिसका लम्बा चौड़ा बिल बन जायेगा। डॉक्टर साहब के सिर पर भी बहुत बड़ा बोझ था। इस बहुमंजिल अस्पताल को खड़ा करने के लिए उन्होंने पीएनबी बैंक से लगभग दो- ढाई करोड़ रूपये का लोन लिया था। उसे चुकता करने, कर्मचारियों का हर महीने वेतन करने और अस्पताल को सुचारू रूप से चलाने के लिए उन्हें रामप्रसाद जैसे कई पेशेंट्स की जरूरत थी। उन्होंने आरएमओ की ट्रीटमेंट को ही आगे जारी रखने का आदेश दिया। उसके बाद वे अस्पताल में भर्ती अन्य पेशेंट्स का फॉलो अप लेने चले गये। जैसे ही मुझे खबर मिली की रामप्रसाद को वापिस भर्ती किया गया है, वैसे ही ताबड़तोड़ मैं उसे देखने आय सी यू में पहुँच गया। मैंने देखा कि उसके नाक में ऑक्सीजन के लिये वेंटिलेटर लगा हुआ है और वह बेहोश पड़ा है। उसकी यह दुर्दशा देखकर मेरा मन व्यथित हुआ। इस समय रामप्रसाद को मदद के रूप में देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था, सिवाय सहानुभूति, संवेदना और सद्भावना के। रामप्रसाद की बेटी ने अपने घर भी संदेश भेज दिया। घर से फ़ौरन सभी सदस्य पत्नी, बेटा और बहू काम छोड़कर अस्पताल की ओर दौड़े चले आये। सबको एक साथ आय सी यू में जाने की परमिशन नहीं थीं। एक के बाद एक करके घरवाले रामप्रसाद को देखने आय सी यू में जाने लगे। सभी ने महसूस किया कि रामप्रसाद की हालत बहुत नाजुक है। उसे इस संकट से बाहर निकलने के लिए सभी मिन्नतें करने लगे। यकीन मानिए, रामप्रसाद को शाम तक होश आ गया, शायद! मिन्नतों का असर हुआ। उसने आँखें खोली और देखने लगा, किन्तु बोल नहीं पा रहा था। उसके शरीर का आधा हिस्सा सुन्न पड़ गया था। मैं भी उसे देखने अंदर चला गया। मैंने उसकी आँखों में देखा और उसने भी मेरी आँखों में। मुझे लगा कि उसने मुझे पहचान लिया और वह बात करना चाहता है, लेकिन मुँह से एक शब्द भी निकालने में वह अपनी असमर्थता प्रकट कर रहा है। तब मैंने ही आँखों की भाषा में उसे नमस्कार किया और उसने भी आँखों से मेरा नमस्कार स्वीकार किया। मैंने जीवन में पहली बार महसूस किया कि आँखों की भाषा जुबान की भाषा से अधिक आत्मीय, संप्रेषणीय और प्रभावी होती है। मुझे लगा कि इतने कम समय में हमारा रिश्ता कितना गहरा हुआ है। कुछ समय पहले ही तो मेरे लिए वह एक अजनबी पेशेंट था, लेकिन आज वह मुझे अपना लगने लगा है। क्या उसका दुख-दर्द मुझे उसकी ओर खिंच रहा है? या फिर मेरी संवेदना उसकी वेदना की पुरानी रिश्तेदार है? क्या उसने मुझे बेटा कह दिया और वह मेरा सचमुच बाप हो गया है? क्या इसीलिए कहते है की खून से भी बड़े मन के नाते होते हैं? ऐसे कई सवालों की अनेक लहरें मेरे ह्रदय में उठने लगी थी। मैं अपने ह्रदय की लहरों को समेटते हुए आय सी यू के बाहर आ गया। मैंने देखा कि बाहर रामप्रसाद की पत्नी जोर-जोर से रो रही है और मेरी माँ उसे संभालने की कोशिश कर रही है। माँ ने मेरी ओर देखते हुए कहा कि, ज्याचे त्यालाच लावलेले असत।[1] माँ के शब्द सुनकर और रामप्रसाद की पत्नी के आँसू देखकर मेरी आँखें भी नम हो गई ।
रात के लगभग आठ बजे थे। रामप्रसाद के परिवारवालों ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। सभी को जोरों की भूख लगी थी। इस वक्त भूख दुख पर भी हावी होने लगी थी। रामप्रसाद के घरवाले अपने साथ गाँव से रोटी–सब्जी लेकर आये थे। वे सभी आय सी यू के बाहर अस्पताल में ही फर्श पर खाना खाने बैठ गये। सभी ने रोटी सब्जी खाई और अपने पेट की आग बुझाई। कहना गलत नहीं होगा कि भूख यह एक ऐसी आग है जो केवल रोटी रूपी पानी से ही बुझाई जा सकती है। रामप्रसाद का इलाज काफी धीमी गति से चल रहा था। डॉक्टर साहब को कोई जल्दी नहीं थी। रामप्रसाद रात भर एक पैर पटकने लगा था, किसी ने भी उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। रामप्रसाद के पड़ोस में ही मेरे भाई का बेड था। भाई ने सुबह माँ से कहा कि यह आदमी रातभर सोया नहीं और लगातार पैर पटकता रहता है। माँ को लगा कि भाई को उसका डर लग रहा है। स्वाभाविक ही है कि माँ को अपने बेटे की चिंता होने लगीं। दूसरे दिन रामप्रसाद ने पैर पटकना लगभग बंद कर दिया। भाई ने बताया कि कल रात करीब-करीब ढेड़ बजे उसने अंतिम बार जोर–जोर से पैर पटकाया था। आय सी यू में नाईट ड्यूटी पर रहनेवाला ब्रदर गहरी नींद में था। उसने रामप्रसाद की ओर थोड़ा भी ध्यान नहीं दिया। सुबह होते ही माहौल बहुत तंग हो गया। सुबह सात बजे से ही डॉक्टर साहब आय सी यू में बार– बार चक्कर लगाने लगे। अब तक पैरालिशिस का स्पेशलिस्ट डॉक्टर आ गया था। उसने अपने अनुभव से रामप्रसाद को बचाने की काफी जद्दोजहद शुरू कर दी, लेकिन शायद बहुत देर हो चुकी थी। दो-तीन दिनों से रामप्रसाद वैसा ही निर्जीव- सा पड़ा रहा। हालचाल के नाम पर केवल उसका पेट फूलने लगा था। नाक पर वेंटिलेटर लगाने से हवा या ऑक्सीजन जैसा ही कुछ आने–जाने का केवल आभास हो रहा था। अब तक गाँव के बहुत सारे लोग अस्पताल में पहुँच गये थे। वे डॉक्टर साहब से मिलने पहुँचे, तो पता चला कि डॉक्टर साहब किसी जरुरी काम से अचानक बाहर गये है। दो दिन हुए, डॉक्टर साहब अभी तक नहीं लौटे और कब तक लौटेगें किसी को भी नहीं जानता। समझदार लोगों ने रामप्रसाद की बॉडी की माँग की, तब आरएमओ ने बिल भरकर आने को कहा। लगभग सत्तर हजार रूपये बिल भरने के बाद एक अम्बुलेंस में रामप्रसाद को हमेशा के लिए अस्पताल से डिस्चार्ज मिल गया।
रामप्रसाद के जाने के बाद अस्पताल के आय सी यू की अच्छी सी साफ़- सफाई की गई...पानी से धोकर। अस्पताल के सभी कर्मचारियों को रामप्रसाद के प्रति हमदर्दी थी। सभी को उसके जाने का बहुत अफ़सोस हुआ, लेकिन कोई भी अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त नहीं कर सकता था। आखिर उनकी नौकरी का जो सवाल था। अस्पताल में दो- चार दिन सन्नाटा छाया रहा। पाँच- छह दिनों के बाद जब डॉक्टर साहब आ गये, तब सब कुछ सामान्य-सा हो गया जैसे कि इस अस्पताल में पिछले दिनों कुछ हुआ ही नहीं।
गंगाधर चाटे
एस.एन.डी.टी.कला व वाणिज्य महिला
महाविद्यालय, पुणे -38 (महाराष्ट्र)
[1]कोई किसी का नहीं होता, सबको अपना दुख मांजता है।
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