भूमिका - यह एक सोच ही है या फिर और भी कुछ है जिसे हम जाति, उपजाति, प्रजाति, वर्ग, टाइटल, या सेकेंड नेम का नाम देते है | जो आज वर्तमान तकनीकी...
भूमिका -
यह एक सोच ही है या फिर और भी कुछ है जिसे हम जाति, उपजाति, प्रजाति, वर्ग, टाइटल, या सेकेंड नेम का नाम देते है | जो आज वर्तमान तकनीकी दौर में तकनीक के भी भीतर अपनी जड़े धंसाता चला जा रहा है जब हम कोई भी फार्म या फाइल फिलप करते है तो उसमें भी एक option आता है – सेकेंड नेम | हो सकता है यह किसी सुरक्षा की दृष्टि से ऐसा किया जाता हो, पर यह कहाँ तक सही है यह मैं नहीं जानता ? पर इस लेख के अन्त में सही – गलत के प्रश्न पर अपनी बात रखने का प्रयास किया है जिसे मैंने अपने एक मित्र के मुखार बिन्दुओं से सुना था जो की काफी हद तक मुझे प्रभावित भी किया | मैंने शिक्षा से सम्बन्धित पत्रिकाओं को भी पढ़ा जैसे शिक्षा विमर्श, शैक्षिक सन्दर्भ, इत्यादि जिसमें शिक्षा की सेहत पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा किया गया है कि हम शिक्षा से यह उम्मीद करते है कि वह लोगों की सामाजिक हैसियत में सकारात्मक बदलाव लाएगी उन्हें एक विवेक शील नागरिक बनाएगी | किन्तु यहाँ शिक्षा खुद अपनी हैसियत बचाने की लड़ाई लड़ रही है | अर्थात आज हम समाज ( नीति नियंताओं ) द्वारा शिक्षा व्यवस्था बनाने और शिक्षा के द्वारा समाज को बदलने की परस्पर विरोधी प्रश्नों में उलझ गए है जिससे संघर्ष की स्थिति निरंतर बनी हुयी है और इन्ही सब के चलते शिक्षा की सेहत बिगड़ने का रास्ता भी प्रशस्त हुआ | हमारे संविधान के अनुच्छेद -29 में भी वर्णित है कि लोकतांत्रिक भारत में जाति ,धर्म ,लिंग या स्तर कि परवाह किए बिना सभी को अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करने के लिए समान अवसर प्रदान किए जाने चाहिए । पर यह कहाँ तक सम्भव हो पाया है ? यह किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं है |
बच्चों और उनके पालकों से बातचीत –
कक्षा दूसरी का छात्र अजय जिसका मन खेलने – कूदने में पढ़ने – लिखने के अपेक्षा ज्यादा ही लगता है और लगना भी चाहिए , क्योकि हम हर वक्त , हर जगह , हर कार्य में हम कुछ न कुछ सीखते है | अजय की एक बहन भी है जो उसी विद्यालय में कक्षा पाँचवीं में पढ़ती है जिसका नाम रेशमा है रेशमा काफी सारे सवाल मुझसे पूछती रहती है | जैसे – सर तू कवन गाँव में रथस ? तोर गाँव के नाम का हव , तोर माँ कहा रथस इत्यादि | इन्ही कौतूहल भरे प्रश्नों में उसने एक और आश्चर्यजनक प्रश्न पूछा – “सर तोर जात का हव” ?, यह सुनकर एक पल के लिए मैं खुद सोच में पड़ गया कि एक छोटी सी बच्ची जो कक्षा पाँचवी में पढ़ती है उसने इस बात को इतना जरूरी क्यों मान लिया है कि सामने वाले की जात को जानने की लालसा उसके मन में है | यह एक बहुत ही गम्भीर और सोचनीय विषय की ओर हमारा ध्यान केन्द्रित करता है कि हम अपने बच्चों के इर्द – गिर्द कौन सी बाते और सवाल करते है जिसे बच्चा भी सुनकर बहुत ही ज्यादा एहमियत देने लगा है | और सच कहे तो यह ऐसा जख्म है जो नासूर की भांति हमारे समाज में तेजी से अपनी पैठ बनाता जा रहा है | और हमी – आप के द्वारा आने वाली नेक्स्ट जनरेशन को विरासत के रूप में दिया जा रहा है | समाज अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए आने वाले अगले सामाजिक दौर अर्थात अगली जनरेशन को सौपता चला जाता है | ताकि उसका वजूद और प्रतिनिधित्व कायम रह सके | पर मैं यहाँ पूछना चाहता हूँ कि क्या हमारी “जात” ही हमारी पहचान है ? ................ तो मैं यही कहूँगा की नहीं | तब फिर हम क्यों इसे इतनी प्राथमिकता देते है | क्या ऐसा नही हो सकता कि हम अपने आने वाली पीढ़ियों को इसके खतरे व अलगाव जैसे घातक विशेषताओं से अवगत कराते हुये उनके नाम से जुड़ने ही न दे | इस जात रूपी जहर को उसी प्रकार नष्ट कर दे जिस प्रकार प्रकाश की ज्योति अंधकार का समूल नाश कर देती है | इस जाति के दंश से हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृति के लोग काफी लंबे समयावधि से जूझ रहे है पर जाने – अनजाने में यह इस प्रकार से उनसे जुड़ता गया जिस प्रकार से दाँत के बीच में जिह्वा रहती है जिह्वा को पता है कि कभी न कभी उसे दाँत से नुकसान हो सकता है पर वह फिर भी उसके सान्निध्य में निरंतर क्रियाशील रहती है | कहना न होगा कि इस जात रूपी जख्म के इलाज में हमें बहुत लंबा समय भी लग सकता है क्योंकि सच यही है कि इसने अपनी जड़ों को हमारे समाज के लोगों की सोच में बहुत ही मजबूती के साथ जमाये हुये रखा है जिसे जड़ से उखाड़ना कितना संभव हो पाएगा वह आने वाले समय पर छोड़ देते है | क्योंकि मेरे द्वारा बड़ी – बड़ी बातें व प्रवचन कर देने से यह नहीं दूर हो सकता , यह दूर तभी हो सकता है जब हम इसे स्वयं अपने वजूद से निकाल फेंके |
कुछ इसी तरह का मिलता जुलता एक और भी रोचक प्रसंग में आप के समक्ष रखना चाहता हूँ जिसमें हमारे समाज के कुछ खास वर्ग के रूढ सोच वाले महानुभावकों का असर कायम दिखाई पड़ता है | प्रसंग यह है कि एक दिन मैंने स्कूल में देखा की एक ही कक्षा के कई बच्चों ने अपना सिर मुड़ा लिया था जब मैंने उनसे पूछा कि आप सभी ने क्यों अपना बाल बनवा लिया है तो एक बच्चे ( चंदन ) ने कहा कि – “एकर जात के एक छोटा बच्चा खतम हो गयल” इसीलिए इन्होंने अपना बाल बनवा दिया है | पर असल बात मुझे बाद में पता चलता है जो विद्यालय के प्रधान पाठक द्वारा बताया जाता है | उन्होंने बताया कि जिस बच्चे की मृत्यु हुयी थी वह यादव जात का था और जिन्होंने अपने बाल बनवा दिये है वह भी यादव जात के है इसीलिए इन्होने अपना बाल बनवा दिया है | यह लोग अपना व दूसरों का “गरवा” चराते है | लेकिन उसी कक्षा में एक चन्दन यादव नाम का बच्चा था जो उन्हीं के घर के पास का था पर उसके बाल का मुंडन नही हुआ था | और यही से एक रूढ़िगत सोच का मुझे पता चलता है कि – “यादव दो प्रकार के होते है एक “कोसरिया” और दूसरा “झरिया” | जिसमें चन्दन “झरिया जात” का यादव है इसलिए उसका बाल नही बना है और जिन बच्चों ने बाल बनवा लिया है वो “कोसरिया” जात के यादव है | ये कैसी रूढ मानसिकता है जिसके चक्रव्यूह में हम फंसते चले जा रहे है ? अर्थात एक जाति के ही भीतर दूसरी अन्य जातियाँ जिसे वह अपने से निम्न बताकर उसका शोषण करते है यह वो दलदल है जिसके भीतर हर कोई धँसता चला जा रहा है और इससे निकलने का कोई ठोस रास्ता भी किसी को नही सूझ रहा है | अगर हम अपने समय से थोड़ा पीछे अतीत में नजर दौड़ाये तो यह पढ़ने व सुनने को मिलता है कि निम्न जाति ( अछूत कहे जाने वाले ) - वर्ग के लोग जब स्कूल जाते भी तो उनसे स्कूल की साफ़-सफाई का काम करवाया जाता था और कक्षा के बाहर ही रहकर मजबूरी में उन्हें पढ़ना पड़ता था क्योंकि कक्षा के अंदर बैठकर उन्हें बाकी के बच्चों के साथ पढने की अनुमति नहीं थी | यहाँ तक की उनका मंदिरों व तालाबों आदि में भी प्रवेश वर्जित था जिसके लिए सावित्रीबाई फुले , ज्योतिबा फुले , व अंबेडकर आदि ने लंबे समय तक संघर्ष किया और फिर शिक्षा के द्वारा इसे समाप्त करने का भी अथक परिश्रम किया | हमारे भारतीय समाज में ये छुआछूत की बीमारी कई सदियों से चली आ रही है हां आज के समय में कुछ हद तक इसे संवैधानिक प्रयासों के द्वारा समाप्त किया गया है किन्तु अभी भी पूरी तरह से हम इसकी जड़ों को उखाड़ पाने में सक्षम नहीं हुए हैं | क्योंकि अगर उनमें उच्चता या श्रेष्ठता होती तो ह्रदय की श्रेष्ठता होती जिसमें किसी को तुच्छ समझाने की मानसिकता की कोई जगह नहीं होती और अगर ऐसा नहीं है तो मेरी नजर में वे तथाकथित उच्च वर्ग के लोग उच्च नहीं हैं |
निष्कर्ष –
अक्सर लोग आदर्श रूप में ऐसा कहते मिल जाएंगे कि आज समाज को जरूरत है कि वो जात – पात, ऊंच – नीच, साम्प्रदायिकता आदि के बन्धनों को त्यागकर मानवता को अपनाये | पर जहां तक मैं समझ पाया हूँ यथार्थ कुछ और ही है | वह यही है कि हमें इस संघर्ष की स्थिति से निरंतर इसी तरह जूझना होगा | या फिर इस जात के दंश से हमें मुक्ति भी मिलेगी , यह एक गम्भीर प्रश्न बना हुआ है ? और इस तरह के सवालों से टकराते हुये इसका हल करने में प्रयत्नशील रहना होगा | आज समाज में जो समानता – असमानता की स्थिति बनी हुयी है वह और कुछ नहीं है बल्कि एक सोच है जिसे हमने अपने दिमाग में स्थान दिया हुआ है और वह कुंडली मारकर वही बैठ गया है | अब यहाँ मूल प्रश्न यह है कि इस तरह के उन तमाम उलझे हुये प्रश्नों के उत्तर की तलाश हम सभी को जो इस समाज के ऋणी है चिंतन करते हुये निष्कर्ष तक पहुँचना होगा | कि क्या सच में कोई उत्तर सही या गलत होता है ? क्या सच में जात का कोई मूल अस्तित्व होता है ? अथवा नहीं | जब प्रथम बार हम कोई उत्तर बनाते या ढूंढते है तो यह कैसे निर्धारित करते है कि यह सही ही है | क्योंकि हमनें उस उत्तर को सही मान लिया इसलिए वह सही है अन्यथा वह न जाने कितने और लोगों की निगाह में गलत भी होगा | अतः मेरे समझ से सही – गलत कुछ है ही नही यह तो केवल एक समझौता है जिससे यह समाज निरंतर जूझ रहा है | अतः किसी वाजिब निष्कर्ष तक पहुँचने की जल्दबाज़ी किए बिना हमें व इस समाज की चिंता करने वाले शिक्षा विचारकों को इन उलझे हुये प्रश्नों के जवाब ढूँढने की चिंता करनी चाहिए | किसी ने ठीक ही कहा है कि जिसे हम समाज कहते है दरअसल वह आपसी समझौते का एक बहुत बड़ा नेटवर्क है |
चंद्रभान सिंह मौर्य
एसोसिएट, (अजीम प्रेमजी फाउंडेशन)
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