1 शीर्षक:माँ को नमन घर को मंदिर बनाती है माँ, आँगन की रौनक बढाती है माँ। लाख दुख दर्द हँसकर है सहती, भूले से भी वो किसी से न कहती। बीमारी मे...
1 शीर्षक:माँ को नमन
घर को मंदिर बनाती है माँ,
आँगन की रौनक बढाती है माँ।
लाख दुख दर्द हँसकर है सहती,
भूले से भी वो किसी से न कहती।
बीमारी में भी दायित्व है निभाती,
परिवार के लिए सब सह जाती।
अपनी कभी भी फिक्र न करती,
सदा खुश निज बच्चों संग रहती।
अपनी हिम्मत से घर है सम्हाले,
माँ को नमन करो ये दुनियावाले।"
रचनाकार:-
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'
2
गाँव की मिट्टी
गाँव की मिट्टी में सौंधी सी खुशबू आती है,
रिश्तों में अपनेपन का एहसास कराती है।
चलती हुई पावन पवन मन को छू जाती है,
नीम और बरगद की छाया पास बुलाती है।
अपने घर आँगन की तो बात ही निराली है,
गूलर के पेड़ पर बैठ कोयल गाती मतवाली है।
पानी और गुड़ से स्वागत की शान निराली है,
सभी मेहमानों को इसकी मधुरता खूब भाती है।
कोल्हू से गन्ने का रस पीकर हम मौज मनाते है,
हम गाँववाले कुछ इस तरह गर्मी भगाते है।
हप्ते में हम दो दिन ही गाँव की बाज़ार जाते हैं,
हरी सब्जियां और आवश्यक सामान घर लाते हैं।
जोड़,घटाना,गुणा,भाग में हम थोड़े कच्चे होते हैं,
लेकिन रिश्तों को निभाने में एकदम पक्के होते हैं।
रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'
3
बावरी है वो
"थोड़ी बावरी थोड़ी सी सावरी है वो,
थोड़ी नटखट थोड़ी सी नकचढ़ी है वो।
गुड़िया जैसी सौम्य पर थोड़ी सी पागल वो,
मेरी ख्वाबों की दुनिया की सोन परी है वो।
लड़ती है पर मुझसे बहुत प्यार करती है वो,
उलझन में भी सबका ख्याल रखती है वो।
नम हो आँखें फिर भी चेहरे पर मुस्कान रखती है वो,
दर्द हो कितना फिर भी कभी न जाहिर करती है वो।
मुझे पागल,दीवाना और न जाने क्या-क्या समझती है वो,
जिन्दगी है मेरी और मेरे दिल की हर धड़कन में बसती है वो।"
रचनाकार:-
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'
4
बेशर्म आदमी
बेशर्म आदमी!हो तुम,आज यह भी दुनिया ने बोल दिया,
ऐतबार था जिन पर मुझे उन्होंने भी राज अपना खोल दिया।
नज़ाकत से कहते है कि सबकी तरह तुम चुप क्यों नहीं रहते,
निज स्वार्थ मे सबकी तरह मस्त तुम क्यूँ नंही रहते?
सच्चाई का आईना तुम सबको क्यों दिखाते हो?
जानते हो?इसीलिये तुम पीठ पीछे बहुत कोसे जाते हो।
छोड़ दो जिन्दगी की सच्चाई और यह वसूलो पर चलना,
खाली हाथ रह जाओगे तुम्हें कुछ भी न है फिर मिलना।
सुनता रहा,सहता रहता और अन्त में सबसे यह कह उठा,
राजा हो या रंक अन्त में यह भी मिटा और वह भी मिटा।
रचनाकार:-
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'
5
इश्क़ के किस्से
प्यार,इश्क़,मोहब्बत और अफ़साने,
तो अमीरों के चोचले है,साहब!
हमें तो रोटी कमाने से ही फुरसत नहीं मिलती।
हम जुटे रहते है जिन्दगी की जद्दोजहद मे,साहब!
इसीलिये हमारी कोई मुमताज नहीं होती।
और गरीबों का इश्क़ भी पूरा कहाँ होता है,साहब!
क्योंकि हमारी ताजमहल बनाने की औकात नहीं होती।
हम मिट्टी में जन्में हैं, मिट्टी में पलते हैं और एक दिन मिट्टी में ही मिल जायेंगे।
हम जैसों के इश्क़ के किस्से भी कहाँ बनते है,साहब!!
रचनाकार:-
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'
6
हौसला
'बिन मेहनत के रोटी नहीं मिलती,गरीब के घर में खुशियाँ नहीं सजती।
हौसलों के पंख से उड़ान कितनी भी भर लो,पर पेट की भूख नहीं मिटती।
फौलादी इरादों से साँसों का दामन थाम रखा है,वरना यहाँ मौत भी आसान नहीं मिलती।
सुना है सारा संसार रंगोत्सव मना रहा है,पर यहाँ कोरी किस्मतें कहाँ रंगती।
जद्दोजहद है जिन्दगी में कि किसी दिन सुकून मिलेगा,उसी दिन सतरंगी यह चेहरा भी सजेगा।
मजबूरी में मजदूरी कर मजबूरी से निपटते हैं, हम गरीब होली पर भी पसीने से ही रंगते हैं।'
रचनाकार:-
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'
7
हाँ,मै भी बेरोजगार हूं।
सब सो जाते है पर मुझे रात में भी नींद आती नहीं है,
मेरे बेचैन मन को कोई भी बात अब भाती नहीं है।
साहब!बता दूँ सबको कि मैं कोई चौकीदार नहीं हूं,
मैं पढ़ा लिखा, डिग्रीधारी एक बेरोजगार हूं।
बूढ़े माँ बाप की हर पल चिन्ता सताती रहती है,
भाई बहनों की जिम्मेदारी भी याद आती रहती है।
जब भी कोई नौकरी की आशा की किरण जगती है,
वही भर्ती हमेशा अन्त में कोर्ट में जाकर फंसती है।
चार पैसे कमाने के बारे में दिन रात सोचा करता हूं,
पर इन्हीं परिस्थितियों में भी मन लगाकर पढ़ता हूं।
कभी खुद की,कभी घर की चिन्ता में डूबा रहता हूं,
इसीलिए शायद आजकल मैं रातों को जागा करता हूं।
साहब! बता दूँ सबको कि मैं कोई चौकीदार नहीं हूं।
मैं पढ़ा लिखा, डिग्रीधारी एक बेरोजगार हूं।।
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रचनाकार:-
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'
8
होली मनाऊंगा
'चलो तुम संग नहीं खेलते रंग और गुलाल,न ही हम करेंगे इस बात का कोई मलाल।
जरा तुम भी स्मरण कर लेना,जब कोई और हाथ बढाये रंगने को तुम्हारे गाल।
सतरंगी रंगो को बिना छुए रह लूँगा, तुम बिन बेरंग से पल भी किसी तरह जी लूँगा।
होली खेलेंगे जब सब मिलकर, तब मैं तुम्हारी खुशबू से खुद को रंग लूँगा।
जब सब मीठी गुझियां खायेंगे, तब मैं तुम संग बिताये मीठे पलों में खो जाऊंगा।
सब रंग बिरंगे नए कपड़े पहन सज जायेंगे, मैं भी तेरे सतरंगी सपनों में खो जाऊंगा।
मैं प्यार के रंग से इस त्यौहार के रंग में रंग जाऊंगा,प्रेम में सराबोर हो मैं तो होली मनाऊंगा।
चाहे कोरी रहे सारी दुनिया,पर मैं तो तितलियों सा रंग में रंग जाऊंगा।'
9
रोटी और जिगर
'सदियां गुजर गयी,सारी रियासतें सिमट गयी,
शान शौकत की बात पर तलवारें निकल गयी।
सब कुछ मिटा,मिट रहा है और मिट जायेगा,
पर रोटी का मामला कभी सुलझ न पायेगा।
मजबूरियाँ है किस कदर कोई क्या समझेगा?
जीवन यापन की समस्या से कैसे कोई निपटेगा?
रोटी की खातिर न जाने क्या-क्या आजमाना पड़ता है,
जिगर के टुकड़े को भी कभी-कभी दांव पर लगाना पड़ता है।'
10
कारवां बन जायेगा
ठोकरें खाकर भी जो न सम्हले वो मुसाफिर कैसा?
मंजिले न हो हासिल तो फिर उसका जूनून कैसा?
दुनिया की तस्वीर न बदल सको तो कोई बात नहीं,
तुम अपनी तकदीर न बदल सको तो ये बात न सही।
मुमकिन है जो तुम्हें सही लगे वो रास्ता तो गलत हो सकता है,
मजबूत इरादे हो पर मंजिल न मिले ये नामुमकिन सा लगता है।
खुद पर है जो भरोसा तो अच्छा सा कारवां भी बन जायेगा,
चलते हुये सफ़र में खुशियों का गुलिस्तां भी मिल जायेगा।
रचनाकार:-
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'
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