कविता लिखी नहीं जाती, कविता स्वत: जन्म लेती है। वास्तव में मन के उद्गार ही कविता है। कवि यथार्थ के धरातल पर बैठा हुआ कल्पना लोक में स्वच्छन्...
कविता लिखी नहीं जाती, कविता स्वत: जन्म लेती है। वास्तव में मन के उद्गार ही कविता है। कवि यथार्थ के धरातल पर बैठा हुआ कल्पना लोक में स्वच्छन्दता पूर्वक विचरण करता रहता है। कवि पीड़ाओं के गहरे समुन्दर को पार करता हुआ कल्पनारूपी पतवार से अबाध गति से आगे ही आगे बढ़ता रहता है और अपनी साहित्य-सर्जना से आशा, हर्ष, आनन्द, नवस्फूर्ति, नव ऊर्जा एवं जिजीविषा का मानव में संचार करता है। कविता अंतस्तल की गहराइयों उमड़ती-घुमड़ती घनघटा के समान, वीणा के तारों सी झंकृत होती हुई, वेगवती कलकल करती हुई, स्वच्छन्द नदी के समान प्रस्फुटित होती रहती है।
साहित्य,मनोरंजन के साथ-साथ समाज का स्वच्छ दर्पण होता है। ईर्ष्या-द्वेष से परे कवि-हृदय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं एवं विविध प्रकार की समस्याओं का यथार्थ चित्रण करके उन्हें दूर करने का मार्ग दिखाता है। कवि विभिन्न परिस्थितियों में अपनी रचनाधर्मिता से सामंजस्य स्थापित करने के अपने कर्तव्य को भली-भाँति निभाता है।
सुप्रसिद्ध कवयित्री, गीतकार, कहानीकार, श्रेष्ठ समीक्षक एवं साहित्यकार डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु" का मुक्तक काव्य संग्रह "उम्मीदों की छाँव में" मुझे पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस काव्यसंग्रह में कवयित्री ने जहाँ एक तरफ समाज में व्याप्त बुराइयों, कुप्रथाओं और अनेक विभिन्न ज्वलन्त समस्याओं – चाहे वो दहेज की हो,बेटी-बेटे में अंतर की हो, भ्रूणहत्या, नारी-सम्मान की हो, पर्यावरण-प्रदूषण की हो अथवा भौतिकता के पीछे भागते हुए अपने कर्तव्यों से विमुख होकर सत्य, न्याय,धर्म को भूल चुके लोग हों या लोलुपता, चाटुकारिता में माहिर लोग हों, इन सभी विषयों पर कवयित्री की पैनी नज़र अनवरत बनी रही है, वहीं दूसरी तरफ गुरू, माता-पिता का वन्दन एवं महत्व , ईश-भक्ति एवं वन्दन-अर्चन, देश-प्रेम, त्योहारों की आह्लादकता एवं प्रकृति के विविध मादक रूपों का प्रकृति की चितेरी कवयित्री ने सूक्ष्म से सूक्ष्म अत्यन्त बारीकी से प्रकृति के मनोरम दृश्यों का वर्णन मनमोहक रूप में किया है।
कवयित्री ने काव्य के आरम्भ में गुरु की वन्दना की है, जिससे कवयित्री की परिपक्वता का परिचय मिलता है, क्योंकि गुरु सर्वोपरि है और वो गुरु ही ईश्वर का रूप है–
गुरुवाणी अमृत वचन,
गुरु ईश्वर का रूप ।
गुरु के बिन नहिं उपजते,
सुर, नर, मुनि अरु भूप।।
इसी तरह बेटी के महत्त्व को बताती हुई कवयित्री कह उठती है–
बेटा नहीं तो जगत की
की बुनियाद नहीं है,
बेटी नहीं तो दुनिया की
औक़ात नहीं है,
बेटी ही तो बेटे को दुनिया में है लाती,
बेटी नहीं तो घर की सरताज़ नहीं है।
लगातार वृक्षों के कटने से कवयित्री व्यग्र होकर कहती है–
वृक्ष न रहे धरा पे,
जग न रहेगा यह,
पशु-पक्षी, प्राणियों का,
अन्त ही आ जायेगा।
कवयित्री निस्वार्थ भाव से होली के त्योहार में सभी के प्रति प्रेम, समता, एकता, बन्धुत्त्व की भावना, शान्ति, अमन-चैन की कामना करती हुई ईश्वर से प्रार्थना करती है–
होली की दुआओं में,
सुन्दर से चमन सबका हो।
एकता से भरा एक,
अमन-चैन सबका हो।।
डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु" की काव्यकृति "उम्मीदों की छाँव में" सुन्दर परिपक्व रचनाधर्मिता से परिपूर्ण है। शब्द, रीति, गुण, रस, छन्द एवं अलंकारों का औचित्यपूर्ण प्रयोग कवयित्री ने अपने पूर्ण मनोयोग से किया है।
एक कवि की कविता तभी सफल होती है, जब उसमें हृदयस्पर्शिता हो, सहृदय के मन को भावविभोर करने की क्षमता हो । जब सहृदय पाठक और श्रोता के मन में , अंतस्तल में आनन्द की तरंगें हिलोरें लेने लगें तथा सामाजिक कुरीतियों को समूल नष्ट करने का जोश , नव चेतना से परिपूर्ण अपार उत्साह जन-जन में भर दे, तभी कविता सार्थक एवं सभीष्ट होती है।
कवयित्री डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु" का ये नवीनतम एवं सशक्त मुक्तक काव्य संग्रह "उम्मीदों की छाँव में" प्रत्येक दृष्टि से श्रेय एवं प्रेय से परिपूर्ण है, जो साहित्याकाश में कीर्तिमण्डित होकर सूर्य के समान जन-जन में अनन्त उम्मीदों का प्रकाश भरने में पूर्ण समर्थ होगा, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है।
मुझे पूर्ण उम्मीद है कि कवयित्री डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु" उत्तरोत्तर प्रगति-पथ पर अग्रसर होती रहेंगी। इनकी सुयश प्रदाता शशक्त लेखनी अविराम होकर अबाधगति से साहित्य-लेखन करती हुई जन-जन को आह्लादित करती रहेगी तथा शौर्य,शक्ति, साहस से ओत-प्रोत करती हुई समाज का पथ-प्रदर्शन करती रहेगी।
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समीक्षक एवं साहित्यकार
कु0 उर्मिला शुक्ला
114, महराज-नगर
लखीमपुर-खीरी (उ0प्र0)
कॉपीराइट–लेखिका कु0 उर्मिला शुक्ला
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प्रस्तुत है डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु" की एक कविता -
मां को समर्पित कुछ पंक्तियाँ–
"गंगाजल-सी है माँ पावन"
काशी,काबा, तीर्थ है माता,
शुद्ध प्रेममयी स्नेहिल माता।
माता से नाता अति अनुपम,
सबसे प्यारी मधुरिम माता।।
मृदु पुष्पों से भरी मृदुलता,
दिनमणि जैसी भरी प्रखरता।
गंगाजल–सी है माँ पावन,
वाणी में अति भरी मधुरता।।
माँ की गोद में देव भी विह्वल,
मैया की ममता है अविरल।
सागर–सी गहराई है इसमें,
हिमगिरि-सा मृदु मन है अविचल।।
माँ के बिना नहीं फुलवारी,
माँ से महके क्यारी-क्यारी।
माँ-सन्तति का अनुपम नाता,
"मृदु" माँ पर जाए बलिहारी।।
महि-अम्बर से विशाल है माता,
सीधी, सरल, महान है माता।
सुर,नर,मुनि से वन्दित मां नित,
तीनों लोकों में गर्वित माता।।
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कवयित्री
डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
114, महराज-नगर
लखीमपुर-खीरी(उ0प्रा)
कॉपीराइट–कवयित्री डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
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