वह पैदल ही स्टेशन की तरफ दौड़ा जा रहा था। न जाने किससे भाग रहा था वह। हड़बड़ाहट और घबराहट से जेहन सांय सांय कर रहा था। वह न जाने कौन सी घुटन से...
वह पैदल ही स्टेशन की तरफ दौड़ा जा रहा था। न जाने किससे भाग रहा था वह। हड़बड़ाहट और घबराहट से जेहन सांय सांय कर रहा था। वह न जाने कौन सी घुटन से भाग रहा था। बस वह इस जगह को छोड़ देना चाह रहा था। सारी दुनिया उसे अजनबी जान पड़ती थी। स्टेशन पहुंचा और प्लेटफार्म पर खड़ी एक पैसेंजर ट्रेन में वह सवार हो गया था। कहां जाना है, क्या करना है कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा था वह। वह बदन पर पहने एक जोड़ी कपड़ों में था। जेब में कुछ खास पैसे भी नहीं थे। बस यहां से दूर जाने की जल्दी थी उसे।
ट्रेन में बैठे उसे आधा घंटा हो गया था पर ट्रेन सरक ही नहीं रही थी। कभी वह दरवाजे पर खड़ा होता। कभी वह टॉयलेट जाता। कभी सीट पर आ बैठ जाता। बार-बार पहलू बदल रहा था वह। उसे कुछ सुझाई नहीं दे रहा था बस एक घबराहट, बेचैनी और हड़बड़ाहट थी। उम्र यही कोई अठारह-उन्नीस साल थी उसकी। आखिरकार जब ट्रेन सरकी तब उसे छटपटाहट से कुछ सुकून मिला। पहली बार वह इस तरह घर से बिना कुछ बताये जा रहा था। उसके दिमाग में मंजिल की धुंधली सी तस्वीर थी। उसके पड़ोसी के मामा पुणे में रहते थे और एक फैक्टरी में काम करते थे। अभी तो वहीं जाने का निश्चय कर चुका था वह। ट्रेन अपनी गति से बढ़ी जा रही थी। जंक्शन में पहुंच उसने पुणे जाने वाली ट्रेन पकड़ी। उसके पास टिकट खरीदने को पैसे भी नहीं थे। लंबी ट्रेन यात्रायें वह कर चुका था, लेकिन बगैर टिकट लिये वह पहली बार ट्रेन में सफर कर रहा था। घबराहट और बेचैनी से जब उसे कुछ चैन मिला तब उसे बिना टिकट पकड़े जाने का अहसास हुआ था। अब उसे ट्रेन टीटीई द्वारा पकड़े जाने की चिंता सताने लगी थी। टीटीई आया तो वह गेट पर खड़ा हो गया। ट्रेन टीटीई ने टिकट पूछी तो उसने टिकट न होने और बदले में घड़ी लेकर टिकट बनाने की गुजारिश की। टीटीई के रोजमर्रा का काम था यह। उसने सहृदयता दिखाई और उसे उसके हाल पर छोड़ आगे की बोगी में चला गया।
बाकी का सफर उसने दरवाजे पर बैठे-बैठे ही पूरा किया। पुणे पहुंचकर वह पैदल ही उन पड़ोसी के मामा की फैक्टरी की ओर चल दिया। अनजान शहर और अनजान राहें, पर कदम में जैसे पहिये लग गये हों, वह अप्रत्याशित गति से बढ़े जा रहा था। फैक्टरी पहुंचा तो उसे इंतजार करना पड़ा मामा के आने का। वे आये और मैनेजर से छुट्टी ले उसे अपनी कोठरी तक छोड़ने गये। छोटी सी कोठरी में दो लोग और रहते थे। उसे वहीं छोड़ वे वापस काम पर चले गये। उनके साथ में रहने वाले दो साथी काम पर गये हुए थे। सुबह का खाना रखा हुआ था। एक टाइम बनाना और दोनों टाइम खाना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। उसने हाथ मुंह धोकर खाना खाया और सो गया। रात किसी वक्त मामा और उनके साथी आये थे। वह सोता रहा। सुबह उसकी आंख खुली तो, मामा और उनके साथी नहा धोकर, पानी भर कर खाना बनाने में लगे हुए थे। वह यूं ही लेटा रहा। वे सब लोग खाना बना खा कर काम पर चले गये, फिर वह अकेला हो गया उस कोठरी में। थोड़ी देर बाद वह उठा था और उसने दैनिक क्रिया से निवृत होने के लिए डिब्बा उठाया। सुबह के साढ़े आठ बज रहे थे। बाहर निकला तो अंदाज लगाकर जिस दिशा में और लोग दैनिक क्रिया से निवृत होने के लिए जा रहे थे, वह भी उस दिशा में बढ़ चला था। कुछ दूर जाकर झाड़ियों में लोग विलुप्त होते जा रहे थे, वह भी झाड़ियों में घुस गया था। सुअरों से जूझते हुए वह किसी तरह दैनिक क्रिया से निवृत हुआ था। वापिस लौटकर उसने नहा धोकर खाना खाया और फिर सो गया था।
पांच दिन तक वह यूं ही कोठरी में पड़ा रहा। छठे दिन उन मामा ने घर से फोन आने की बात कह कर उसे घर वापस जाने को कह दिया। वह वापस उसी झंझावात में उलझ गया। क्या करता? मेजबान की मर्जी के बगैर रूका भी नहीं जा सकता था। वे उसकी वापसी की टिकट कटा ट्रेन में बैठाकर चले गये। फिर वही ट्रेन यात्रा और वापस पहुंच कर होने वाली घुटन उसे परेशान करने लगी। आखिर वह अपना स्टेशन आने पर नहीं उतरा और ट्रेन में ही बैठा रोता रहा। ट्रेन आगे बढ़ गयी थी और उसकी बेमकसद यात्रा शुरू हो गयी थी। ट्रेन यात्रा उसे बैचेनी और छटपटाहट से सुकून दे रही थी। उसके अंदर से पकड़े जाने का डर गायब हो गया था। इलाहाबाद, बनारस होते हुए बिहार के किसी दूरस्थ स्टेशन तक वह उसी ट्रेन में बोगियां बदल-बदलकर यात्रा कर रहा था। अंतिम स्टापेज तक ट्रेन के पहुंचने के बाद उसे खाने पीने का होश आया था। दो दिन से वह भूखा था और इसी ट्रेन में वह पिछले चार दिन से बैठा हुआ था। किसी से मांगकर खाने से उसका आत्मसम्मान आहत होता था, इसलिए वह पानी पीकर ही यात्रा कर रहा था। फिर उसने वापसी की ट्रेन पकड़ ली थी। आखिर बनारस तक आते आते उसकी हिम्मत जवाब दे गयी और उसने बनारस में उतरने में ही अपनी भलाई समझी। अब उसे आत्मसम्मान से ज्यादा जिंदा रहने की चिंता सताने लगी थी। वह स्टेशन के बाहर निकल आया और अनजान दिशा में पैदल ही चलने लगा था। उसने किसी से कभी कुछ मांगा नहीं था और न ही कुछ मांगने की जरूरत पड़ी थी। उसके बगैर कहे ही माता पिता उसकी सारी जरूरतें पूरी कर दिया करते थे। आधे पेट खाकर भी माता पिता उसे भरपेट खिलाते थे। बड़ा होने के कारण सभी का चहेता था वह। उससे सभी को बड़ी उम्मीदें थीं। इन्हीं उम्मीदों का बोझ उठाये वह बारहवीं में एक बार फेल हो गया था और इसी दबाव, तनाव और घुटन से छुटकारा पाने के लिए घर से निकल पड़ा था दूसरे साल की बारहवीं की परीक्षा छोड़कर। उसे लगता था कि उसकी परीक्षा की तैयारी पूरी नहीं है और इस बार वह फिर से फेल हो जायेगा।
उसने काशी के अस्सी घाट के बारे में काशी के अस्सी उपन्यास में पढ़ा था। वह स्टेशन से पैदल ही चल पड़ा था। वह पहली बार बनारस के रास्तों पर चल रहा था, बगैर किसी से पूछे। वह रास्ता भटक गया था और हाइवे की रोड पकड़ ली थी। चलते-चलते एक ढाबे को देखकर उसकी अंतड़िया जोर मारने लगीं थी। वह ढाबे की खाली कुर्सी पर बैठ गया। पैसे नहीं थे, सो खाना ऑर्डर करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। आखिरकार जब उसके भूख बर्दाश्त करने की शक्ति जवाब दे गयी तो उसने खाना ऑर्डर कर दिया था। खा-पीकर वह बहुत देर तक यूं ही बैठा रहा था। जब शाम का धुंधलका घिरने लगा तो उसने ढाबे वाले को सच्चाई बतायी थी। ढाबे वाला सहृदय निकला और उसने उसे बगैर पैसे लिये जाने दिया था।
खाना पेट में पड़ते ही उसके अंदर दुगुनी उर्जा का संचार हो गया और लगभग दौड़ता हुआ वह स्टेशन पहुंचा था। पुराना अखबार उसे कहीं मिल गया था, और वह वेटिंग हॉल में वह अखबार बिछा सो गया था। नींद पूरी लेने के बाद थकान से चूर उसके बदन को आराम मिला था। वह वापस प्लेटफॉर्म पर पहुंच गया। फिर वही कहां जाउं, क्या करूं के झंझावात में वह उलझ गया। घर से इस तरह भागकर आने वाले और फर्श से अर्श तक पहुंचने के किस्से उसने पढ़े और फिल्मों में देखे थे लेकिन उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अभी तो उसे अपने तनाव और दबाव पर काबू पाना था। आखिरकार उसने अमृतसर जाने वाली ट्रेन पकड़ ली थी। दो दिन तक वह फिर से पानी पी पीकर यात्रा करता रहा था। अमृतसर पहुंच स्टेशन से बाहर आकर किसी गुरूद्वारे में लंगर खाने का मन बनाया। दो तीन बड़े गुरूद्वारों से उसकी हालत देखकर बाहर से ही भगा दिया गया था। आखिरकार एक गुरूद्वारे में उसे लंगर में खाना खाने को मिल गया। वह वापिस फिर से स्टेशन पहुंचा और टाटानगर जाने वाली ट्रेन में बैठ गया। अब तक उसको घुटन से चैन मिल चुका था। अमृतसर से इलाहाबाद तक पहुंचने के बाद उसे फिर इंसान की प्राथमिक जरूरत भूख से जूझना पड़ रहा था। वह सोच ही रहा था कि क्या करे, क्या न करे कि तभी एक दंपति ने वहीं दरवाजे पर बैठे-बैठे खाना निकाल लिया। वेष-भूषा से वे गरीब तो दिख रहे थे, लेकिन फिर भी उसे कुछ संदेह हुआ था। वे उसे रोटी देने लगे तो उसने मना कर दिया, लेकिन उनने अपनी रोटी से एक टुकड़ा तोड़कर जबरदस्ती दे दिया था। भूख लगी थी तो उसने रोटी का टुकड़ा ले लिया लेकिन उसका संदेह गहरा गया था। उनके रोटी खाने के बाद उसने रोटी खा ली थी। तभी साथ वाला पुरूष नीचे पानी लेने गया और गिलासों में पानी भर लाया। उससे पानी के लिए उन्होंने पूछा तो उसने मना कर दिया और अगले स्टेशन में अपनी बोगी बदल ली थी। अभी तक वह जनरल डिब्बों में यात्रा कर रहा था, लेकिन वहां से वह स्लीपर बोगी में चढ़ गया था।
रात भर और दूसरे दिन दोपहर तक यात्रा के बाद वह टाटानगर पहुंच गया। स्टेशन पर कैंटीन वाले से उसने खाने के लिए बोला तो उसने मना कर दिया। फिर वह स्टेशन से बाहर आया लेकिन उसे खाना नहीं मिला था। वापिस स्टेशन पहुंच वह फिर किसी ट्रेन में बैठ गया था। रात होते-होते भूख से उसका बुरा हाल हो गया था। आखिर वह एक स्टेशन पर उतर गया था। बाहर आया तो एक टपरियानुमा भोजनालय में वह बैठ गया और उसने हिम्मत करके पैसे न होने का हवाला देकर कुछ खाने के लिए मांगा था। होटल वाले ने मना कर दिया। वह बैठा रहा कि तभी उसकी हालत पर तरस खा होटल के एक खाना बनाने वाले कर्मचारी ने उसे अपनी अंटी में से निकाल कर दस रूपये दिये थे। उसने दूसरे भोजनालय में जा कर उन दस रूपयों में दाल चावल खाया था। वापस स्टेशन पहुंच वह फिर एक ट्रेन में बैठ गया। वह ट्रेन जगन्नाथ पुरी जा रही थी। फिर वही पानी पीकर यात्रा जारी हो गयी थी। वह ट्रेन जगन्नाथ पुरी अगले दिन दोपहर को पहुंची। जगन्नाथपुरी में स्टेशन पर उतरते ही उसने पीछे वाले लंबे रास्ते से निकलना उचित समझा। पहली बार वह पुरी आया था और उसके मन में समुद्र देखने की लालसा जाग उठी थी। एक दोस्त पुरी आया था तो उसने समुद्र के पास बिताये अपने पल उसे बताये थे, तब से समुद्र देखने की ललक उसके अंदर जाग उठी थी और शायद यही ललक उसे पुरी ले आयी थी। समुद्र किनारे पहुंच उसकी सारी थकान, भूख प्यास गायब हो गयी थी। जहां तक नजर जाती अथाह जलराशि उसे दिखायी दे रही थी। लहरें आ जा रही थीं और समुद्र तट पर स्त्री पुरूष और बच्चे उस जलराशि का आनंद ले रहे थे। वह आनंद से भर उठा था और उसके मन का तनाव दबाव गायब हो गया था। घर से परीक्षा छोड़कर भागने का अपराधबोध जो अब तक था वह उस अथाह जलराशि में विलीन हो गया था। समुद्र तट पर उसका मन भी अठखेलियां करने का करने लगा पर उसके पास कपड़े नहीं थे और वह मन मारकर मंदिर जाने का रास्ता पूछ उस रास्ते पर बढ़ गया था। दोपहर का वक्त था। मंदिर के पुजारी भगवान को भोग लगाने की तैयारी में थे और तन पर केवल अधोवस्त्र धारण किये हुये तन्मयता से अपने कार्यों में लीन थे। मंदिर के अंदर एक स्थान पर वह बैठ गया था। मंदिर के पुजारी तन्मयता से यहां वहां आ जा रहे थे और वह एक स्थान पर बैठा उनके कार्यकलाप अनुभव कर रहा था। मंदिर में दो तीन घंटे गुजारने के बाद उसका मन एवं पेट अपने आप भर गया था और वह वहां से स्टेशन आ गया था।
फिर उसने भिलाई जाने वाली ट्रेन पकड़ ली थी। दो दिन का सफर कर वह भिलाई पहुंचा था, जहां उसके एक मित्र के चाचा रहते थे और वह वहां एक बार हो आया था। भिलाई में वे एक फैक्टरी में वह काम करते थे और लेबर कॉलोनी की झुग्गी बस्ती में रहते थे। भिलाई स्टेशन पहुंच वह पैदल ही पांच किलोमीटर चलकर उनके घर पहुंचा था। उसकी हालत खराब थी। पैर में जूते नहीं थे क्योंकि वे रास्ते में फट गये थे और वह उन्हें फेंक चुका था। हाथ घड़ी कहीं गिर गयी थी। कपड़े कीट हो गये थे और दाढ़ी बढ़ चुकी थी। करीब दस ग्यारह दिनों से वह नहाया नहीं था। वह चाचा के यहां पहुंच नहा खाकर सोता रहा और अगले दिन दाढ़ी बनाकर, कपड़े धुल कर, प्रेस कर और पैरों में हवाई चप्पल पहन घर जाने को कह निकल पड़ा था। चाचा ने उसे उपहारस्वरूप कुछ पैसे भी दिये थे। इस बार उसने नागपुर तक के लिए पैसेंजर ट्रेन की बाकायदा टिकट ली थी। ट्रेन आने में कुछ बिलंब था तो उसने एक पत्रिका भी खरीद ली थी। पैंसेजर ट्रेन लेट होते होते सुबह चलकर शाम को नागपुर पहुंची । नागपुर पहुंच उसने बचे पैसों से खाना खाया और एक प्लेटफॉर्म टिकट ले वह दिल्ली जाने वाली ट्रेन में सवार हो गया। दिल्ली से उसने जम्मू वैष्णोदेवी जाने का निश्चय किया था।
जम्मू वैष्णोदेवी तक वह हो आया था अपने पिता के साथ। उसके पिता पिछले साल ही बीस दिनों के टूर का पैकेज लेकर उसे आगरा, दिल्ली, वैष्णोदेवी, जम्मू, हरिद्वार, अयोध्या घुमा लाये थे। उसे आज भी याद है वह टूर। कितना आनंद आया था। अपने कैमरे से तीन रोल उसने फोटो खींचने में ही खर्च कर दिये थे। आगरा, दिल्ली से वे वैष्णोदेवी पहुंचे थे। वैष्णोदेवी में कटरा में टिकट ले वे पैदल ही मां का जयकारा लगाते हुए मां के दर्शनों के लिए चले थे। रात को गर्भगुफा में पहुंचे तो वहां काफी भीड़ भाड़ थी। वह भी अपने पिता के साथ मां के दर्शनों के लिए मां का जयकारा लगाते हुए लाईन में लग गया था। लाईन बढ़ती ही जा रही थी। गर्भ गुफा के पास पहुंचते ही पीछे के दबाव और आगे सकरी गुफा देखकर वह घबरा गया और पीछे लौट आया था। पिता किसी तरह दूसरी ओर से निकले थे। पिता नाराज हो गये थे। वह अपनी मनःस्थिति पिता जी को नहीं समझा पा रहा था। रात को सर्दी बढ़ गयी थी और वे कंबल ले रात को वहीं सोते रहे थे। सुबह उठकर पिता नाराजगी में आगे-आगे चल रहे थे और वह अपराधबोध में भरा हुआ पीछे-पीछे चल रहा था। चलते चलते उसका साथ पिता से छूट गया था। रास्ते की भीड़भाड़ में उसे पिता कहीं नहीं दिख रहे थे। वह किसी तरह मंदिर के द्वार तक पहुंचा था, लेकिन दर्शनों से ज्यादा उसे पिता की चिंता सता रही थी। वह बिना दर्शन किये ही नीचे लौटने के लिए चल पड़ा था। बिना रूके और आराम किये वह नीचे आया और उसने नीचे आकर पिता का नाम एनाउंस कराया था। वह उस सराय तक भी गया था, जहां वे नहाधोकर और सामान रखकर उपर दर्शनों के लिए गये थे, लेकिन वहां से सामान लेकर पिताजी जा चुके थे। वह दुविधा में वहीं एनाउंस करने के स्थान पर बैठ गया था। आखिर उसके पिताजी मिले जो कि उसे खोज रहे थे और फिर वे दोनों वापिसी की यात्रा में चल पड़े थे।
ट्रेन की विकलांग बोगी में वह सवार हुआ था, जो कि अपेक्षाकृत छोटी होती है। उपर वाली सीट में वह बैठ गया। वहां कोई यात्री एक फिल्मी पत्रिका छोड़ गया था। दोनों पत्रिका पढ़ते वह दूसरे दिन रात्रि में दिल्ली पहुंचा था। आधी रात से उपर का समय हो चुका था। दिल्ली का वह हजरत निजामुद्दीन स्टेशन था। ट्रेन की बोगी से उतरते ही उसे एक सिपाही ने पकड़ लिया था। वहां कुछ अंधेरा था। सिपाही नशे में था। उसने जेब में हाथ डाला तो उसे प्लेटफार्म टिकट पकड़ में आया था। उसने सिपाही को वह नागपुर में खरीदा प्लेटफार्म टिकट पकड़ा दिया था। सिपाही उजाले में जाकर टिकट देखने लगा और वह अंधेरे का लाभ उठाकर सरपट भाग पड़ा था। स्टेशन से बाहर आकर ही उसने दम लिया था।
दिल्ली वह एक बार और एक प्रतियोगी परीक्षा के सिलसिले में आ चुका था। उसके एक दूर के रिश्तेदार फौज में थे। वह उनकी छावनी में ही रूका था। वहां से वे अपने घर भी ले गये थे। छावनी नजदीक ही थी, अतएव वह पैदल ही सुबह होने पर छावनी की ओर चल दिया था। छावनी पहुंच कर उसने वहां सिपाहियों के साथ नाश्ता किया और फिर वह नहाया था। दोपहर को खाना खाकर वहां विश्राम किया। शाम को उन्हें यह कह कर कि वह और उसके दोस्त वैष्णोदेवी जा रहे हैं, वहां से विदा ले लिया था। स्टेशन पहुंच वह जम्मू जाने वाली ट्रेन में सवार हो गया था।
रात भर सफर कर वह दोपहर को जम्मू पहुंच गया था। उसके हाथ में दो पत्रिकायें थी। उसने बुक स्टाल वालों को वह पत्रिकायें बेचने की कोशिश की किंतु वे पढ़ी हुयी पत्रिकायें लेने को राजी न हुये। आखिर एक बुक स्टॉल वाले को उसने पैसे न होने का हवाला देकर वह पत्रिकायें बेची थी। उसने बदले में बीस रूपये दिये, जिन्हें लेकर उसने एक सस्ती सी टपरियानुमा होटल में जाकर खाना खाया था। वैष्णों देवी के लिए वह पैदल ही चल दिया था, लेकिन वह रास्ता भटक गया था। किसी से भी पूछने में डर था कि कहीं गलत लोग पीछे न पड़ जायें। इसलिए वह बिना रास्ता पूछे अंदाज से चल रहा था। जब काफी दूर तक उसे रास्ता समझ में नहीं आया तो उसने वापस जम्मू का रूख किया। लौटते-लौटते रात हो गयी थी। रात को वह किसी तरह बस स्टैंड पहुंचा और वहीं रात भर मच्छरों से जूझता हुआ जमीन पर पड़ा रहा था। सुबह होते ही वह फिर वैष्णोदेवी के लिए चल पड़ा था। सुनसान रास्ते में वह फिर भटक गया था। उसने लंबा रास्ता पकड़ लिया था। दोपहर को एक गांव में स्थित दुकान वाले से उसने खाना मांगा था़। दुकान वाला सहृदय निकला और घर से रोटी अचार लाकर दिया था। भरपेट खाकर और रास्ता पूछकर वह फिर चल दिया था। जब उसे सही व्यस्त रास्ता मिल गया तो उसने पेड़ की छांव में कुछ विश्राम किया और एक ढाबे वाले से मांगकर चाय पराठा खाया। उसने दुकान वाले और ढाबे वाले को यही बताया था कि दोस्तों के साथ वैष्णोदेवी जाते हुए उनका साथ छूट गया है और पैसे भी नहीं हैं। वह फिर चल दिया था। रास्ता व्यस्त था। आखिर उसे माँ के भक्तों की एक टोली मिली और वह उनके साथ हो लिया। माँ की छांव में पहुंचकर उसकी चिंता, तनाव, घुटन गायब हो गयी थी। उसने माँ के जी भरकर दर्शन किये, वहीं लंगर में खाना खाया और वापसी के लिए कुछ खाना बांध भी लिया। माँ के दर्शन कर और तृप्त हो उड़ता हुआ स्टेशन पहुंचा और वापसी के लिए फिर ट्रेन में बैठ गया। उसमें जीवन के प्रति एक उमंग का संचार हो गया था। उसके मन में पुन: परीक्षा देने के प्रयास के लिए एक स्फूर्ति पैदा हो गई थी।
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आपबीती है यह युवा कहानीकार की,मुझे ऐसा लगा.एक बेहतरीन कहानी होती यदि कुछ और धैर्य रख लिखते और अंत करते.फिर भी ईमानदारी से लिखी गयी आपबीती बहुतोँ को राह दिखाएगी.कहानीकार को मेरी शुभकामनायें!
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