आत्मकथ्य- किसके नाम का रोना है? देवेन्द्र कुमार पाठक .कमोबेश समूचा...
आत्मकथ्य-
किसके नाम का रोना है?
देवेन्द्र कुमार पाठक
.कमोबेश समूचा असफल,निरर्थक और नामालूम-सा लेखन गांव-कस्बे के दलित-उत्पीड़ित मजूर-किसानों,स्त्रियों के संघर्षरत जीवन की विसंगतियों,उम्मीदों और उनकी सामाजिक,आर्थिक समस्याओं पर केंद्रित.....न क़िताबों के लोकार्पण हुये न.कोई चर्चा!फिर भी लिखता हूँ. कितना-कुछ अप्रकाशित अप्रकाशित पड़ा है......न छपने की कोई सार्थकता,न अनछपे से कोई नुकसान. बस,लिखे जा रहे हैं,बेसबब,जिए जा रहे हैं बेसबब; चाहकर भी नहीं छूटती लत की तरह लगता है अब, लिखना या जीना. .....ऐसे-इतना भी लिखकर जी लेना कुछ कमतर नहीं;बड़ी बात है. अपने गांव-गंवई के मेहनत-मजूरी कर बमुश्किल गुजर करनेवालों की ज़िन्दगी की पीड़ा,चाहत,अभाव,ज़द्दोज़हद और उस पर भी उम्मीद,भरोसा कि बहुरेंगे सुदिन; कुछ तो होंगे सपने सच,कोई तो होगा-लाखों बेईमानों,बतलबरों,खुदगर्ज़ों और हरामखोरों में से एक भलामानुष,बात का धनी नेता-अगुआ,जो हमारी सुध लेगा,ऊपर तक हमारे सच को पहुंचायेगा,लड़ेगा; हमारी भूख-प्यास,हारी-बीमारी,बेकारी-लाचारी और तमाम आपदा-दुखों,अभावों पर सवाल उठायेगा.हमारे लिये कुछ सुख-सुविधायें ले आकर, हमें राहत देगा........एक ही ठौर-ठीये पर ठहरी-ठिठकी उनकी ज़िन्दगी को कुछ चल-बढ़ सकने लायक तो बनायेगा.....इतना भी लिखे का अघाव सुकूनदेह है. जर्जर,स्थूलकाय,वात पीड़िता पत्नी के साथ उम्र के सातवें दशक में बीमार,अकेला बेऔलादआदमी करे भी क्या?..... बड़े आदमीनुमा लेखकों की बड़ी बातें. हम तो देश के उन करोड़ों बहुसंख्यकों में से एक हैं,जिनका न कोई अत-पता,न पहचान,चर्चा; न कोई खूंटा-ठीया समकालीनता का.न कोई गुट-संगाती, न अपनी कोई विरासत-थाती. नहीं गाया कभी भी राग दरबारी किसी की सहमति का, न बांधा मोर्चा किसी के विरोध -प्रतिशोध में. न कभी हो सके हमप्याला-हमनिवाला किसी बिरादरी में..... गाते रहे अकेले मेहनत कश की पीर के गान.जिस पर नहीं देता कोई ध्यान,बस देते रहते हैं थोथे बयान.जिसकी नहीं कोई सुनता-गुनता. वह आज भी बाजार का मारा खेतिहर,जला देता है समूचा खेत टमाटर का,पेड़ मौसम्मी के बारह बरस तक पाले-पोसे. 'पूस की रात' घीसू की तरह.....यही सब जो आँखिन देखा-भुगता,व्ही लिखा............वही हल-बैल,खेत-खलिहान,प्यास-पसीना,लू-घाम,बारिश-सर्दी,छानी-छप्पर,गैल-खोरी,जंगल-बीहड़,नदिया-तालाब,सूखा-बाढ़, काई-कीच,हल्कानी-हीच,हारी-बीमारी,जात-जमात,छूत-छात,व्याह-बारात,बीवी-बच्चा और जिंदगी पर भरोसा .....बस.ऐसे ही किसी दिन सरक लेंगे,अपने अकेलेपन से छुड़ाकर हाथ, अनाहट......हाशिये में भी नहीं रहे हम कभी,न होना है......."आख़िरकार अगिन-शय्या पर नंगे ही तो सोना है;
कौन यहाँ अपना-बेगाना,किसके नाम का रोना है......?'
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सम्पर्क-1315,साईंपुरम् कॉलोनी,साइन्स कॉलेज डाकघर-
कटनी,कटनी,483501,म.प्र. मोबाईल-8120910105;
ईमेल-devendrakpathak.dp@gmail.comनवगीत-
भागते उस भूत की छूटी लँगोटी हाथ लेकर
देवेंद्र कुमार पाठक
लस्त तन,मन पस्त,अन्तस त्रस्त,संवेदन अचेतन;
इस विषम परिवेश में भी गीत कोई गा रहा है.
कामयाबी आंकड़ों की तालियाँ पिटवा रही,
सीढ़ियाँ चढ़ती तरक्की लबर-दावों की;
दे सुदिन-सन्देश घर-घर छलना-छछूँदर,
मन लुभाती बतकही वह हाव-भावों की.
भागते उस भूत की छूटी लँगोटी हाथ लेकर
आज के मुद्दों से सबका ध्यान वह भटक रहा है
शत्रुदल -सी हमलावर हैं विसंगतियां-विषमतायें
प्रश्न करता 'आज' गिन-गिन जो हुये अब तक न हल,
मेंढकों को तौलने बगुले जुटे हैं दलदलों में ;
हो रहा बहुसंख्य जन-अंतस बहुत बेसब्र-बेकल;
चढ़ रहा है भाव इतना गिर रही ऊंचाइयों का;
और बेपर्दा सचों पर पर्दा डाला जा रहा है
है भभकता भय कहीं, टूटा कोई भ्रमजाल है
दर्प-मद किस सर चढ़ा,कौन बदले है खूंटा;
हो रहा बदरंग किसका ध्वज,उठीं किस परअंगुलियां,
बेबसों पर कहर बनकर कब कौन क्यों टूटा;
बज रहा है एक सहमति-सुर सभी के साज़ पर,
एक ही कीर्तन-भजन गाया- बजाया जा रहा है.कविता-
नई और टिकाऊ बैसाखियों पर चलकर
देवेंद्र कुमार पाठक
हो गया खुलासा अब न पालना कोई मुगालता
अब नहीं जाती दीखती कोई पगडंडी न सड़क
न कोई स्पष्ट रास्ता है न दिशा भविष्य की
जो ले जाती-पहुंचाती हो तुम्हें वहां तक
पहुँचने की नाकाम कोशिश कर थे तुम जहाँ तक
जीना चाहते थे निर्विघ्न वहां चाहे जैसे और जब तक.......
और ही है क्या दशकों की लम्बी मेहनत धैर्य के भरोसे
तुम्हारे इस 'आज' में सुकूनदेह या रेखांकित करने लायक
सिवाय भागते भूत के उल्टे पांवों के
पीछे की दौड़ के भ्रम-भुलावों,भटकावों के.........
अतीत के श्मशान की राख उड़ाती
गर्म हवाओं के बगढूरों में फंसकर
गर्म लू के थपेड़े खाती,चक्करियाती, छटपटाती
ओझों-गुनियों,सिद्ध-बाबाओं की शरण में जाकर
भूत उतरवाती तुम्हारी युवशक्तिदेखती अक्क-बक्क
लौटती श्रद्धाभिभूत भौचकभक्ति से भरकर
बकझौंसे मठाधीशों,पण्डों-बाबाओं के गुणगान कर
इतिहास के कबाड़ख़ाने से
खोजकर लाती कोई अनसुनी कथा
आज'को बताती-समझाती विगत व्यथा
रोमांचक और चटखारेदार सच होते उजागर
बारम्बार दुहराकर गाकर चीख-चिल्लाकर
भूत-प्रेतों से मुक्ति के वादों की
नई और टिकाऊ बैसाखियाँ पर चलकर
'आज' की टू,थ्री,फोर लेन सड़क से
अपने-अपने महानगर,शहर,कस्बा,ग़ाँव-गंवई,
घर-द्वार सबको पहुंचना,पूजना है अपने देवता............
धूल फांकते तालाब, निर्वसना नदियां,
आवारा ढोर-डांगर उजाड़ते खेतियां,
और खूंखार चौपायों से भी ज्यादा
सफेदपोश दोपायों से दहशतजदा
मासूम दुधमुंही बछियों,बकरियों,भेड़ों,
ख़ुदकुशी करते कर्ज़दार और हाट सेठगे-लुटे किसानों को
बेकारी-बेरोज़गारी भुगतते दिवास्वप्न देखते
जवानों को धीरज नहीं खोना है सपनीली रातों की नींदों में
चैन से सोना है........................
इन तमाम मुद्दों पर मत उलझो
इस कठिन परीक्षा की घडी में कोई सवाल मत पूछो
अभी देश खतरे में है इस खतरे से जूझो
'हुआ,सो हुआ' लेकिन अब जो भी होना है
कैसे,कब,क्या कहाँ-कहाँ और किससे-किसको होना है
सब कुछ अब होना है वैसे तय कर दिया है उन्होंने जैसे
आनेवाले कल की चिंता में क्या घुलना
अभी तो हमें अतीत को खंगालना है
गाड़ दिये गये कई-कितने भूतों का सच ढूँढना है
इतिहास को मनोनुकूल बदलना फिर से लिखना है.........
..
मासूम,अहिंसक और शांतिप्रिय कबूतर
या कोई मेमना होने से कहीं बढ़कर
है बड़ी अहम कठिन और दुष्कर
कातिल बनने उन्हें हलाल कर सकने की
बेरहम बहादुरी दिखाने की चुनौती पर
उतारना है खरा खुद को हर कीमत पर............
हमें औरों से अलग देखना-दिखना है
वक्त के इस नये दौर में नयी चौधराहट
और पांच पंचों के तिया-पांचे के न्याय से
ऐसी हर हत्या को जायज वध ठहराना है
महान कौम और नस्लों के श्रेष्ठताबोध की
रक्षा के जबरिया दावे और अड़ियल दलीलें देकर
लगवानी है जनमत की सहमति की मुहर
इसी सत्य को थोपना है हर किसी की सोच-समझ,
हर ज़ेहन,मनोभूमि पर समृद्ब विरासत
और प्रथा-परम्पराओं के पौधे रोपना है
गोड़ना-सींचना है, .................
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आत्मपरिचय-
देवेन्द्र कुमार पाठक
म.प्र. में कटनी जिले के दक्षिणी-पूर्वी सीमांत पर,
छोटी- महानदी ग्राम्यांचल के एक गांव में जन्म.
शिक्षा-M.A.B.T.C.
शिक्षा विभाग मध्यप्रदेश से सेवानिवृत्त.
कमोबेश हर विधा में लेखन-प्रकाशन;
'महरूम' तखल्लुस से गज़लें कहीं...................
.प्रकाशित किताबें- 2 उपन्यास, ( विधर्मी/अदना सा आदमी ) 4 कहानी संग्रह,( मुहिम/मरी खाल : आखिरी ताल/धरम धरे को दण्ड/चनसुरिया का सुख ) दिल का मामला है,कुत्ताघसीटी ;( व्यंग्य संग्रह ) दुनिया नहीं अँधेरी होगी; (गीत-नवगीत संग्रह) ओढ़ने को आस्मां है;(ग़ज़ल संग्रह ) सात आंचलिक नवगीतकारों के संग्रह 'केंद्र में नवगीत' और 'आँच' लघुपत्रिका के कुछ अंकों के संपादन और मंचों से कविताई की भूलें भी कर लीं...... ' वागर्थ', 'नया ज्ञानोदय','मनस्वी', 'अक्षरपर्व','चकल्लस', 'अन्यथा', ,'वीणा',आजकल','दिशा','नई गुदगुदी','वैचारिकी', 'कथन','कहानीकार','आज','अवकाश','उन्नयन','कदम', 'नवनीत', 'अवकाश' ', 'शिखर वार्ता', 'हंस','राष्ट्रदूत', 'भास्कर','बालहंस'आदि पत्र-पत्रिकाओं और 'रचनाकार', 'साहित्यम्', 'प्रतिलिपि'आदि बेव पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित.आकाशवाणी,दूरदर्शन से प्रसारित. 'दुष्यंतकुमार पुरस्कार','पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार' आदि कुछ पुरस्कार भी हाथलगे................
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