१.कविता:- 'दरिन्दगी' इतनी बढ़ गयी है दरिन्दगी , कि रुकने का नाम नहीं ले रही है। देवी तुल्य नारी की अस्मत , आज दिनदहाड़े सर...
१.कविता:- 'दरिन्दगी'
इतनी
बढ़ गयी है
दरिन्दगी ,
कि
रुकने का
नाम नहीं ले रही है।
देवी तुल्य
नारी की
अस्मत ,
आज
दिनदहाड़े
सरेआम लुट रही है ।
पुरुष
अपनी
मर्दानगी पर
अट्टहास कर रहा है ,
बलात
नारी
मुँह को
दोनों हाथों से
ढाँपकर
सिसकियाँ ले रही है ।
अखबारों में
पीत खबर
बनकर ,
उनकी
इज़्ज़त और
आबरू
निलाम हो रही है ।
हवस की
आग में
जलकर,
नारी
बगैर मौत के
मर रही है ।
दरिन्दगी के
घावों से
नाखूनों से
छत-बिछत
शरीर में
उठते हुए
दर्द से
कराह रही है ।
सारी
सीमाओं को
लांघकर
समाज की
मर्यादा को
खूंटी पर टांगकर
अबलाओं के जीवन से
खेल रही है दरिन्दगी ।
२. कविता- 'सीख'
सीखना
जीवन का
सबसे बड़ा आधार है,
हार हो या जीत
सभी
सीख के स्तंभ हैं ।
नहीं
होना चाहिए
विचलित
हार से ,
क्योंकि हार
आगे बढ़ने के लिए
सबसे बड़ा उद्गार है।
नही चाहिए
जीत पर इतराना ,
और न ही
लानी चाहिए
अपने अन्दर
अहम् की भावना ।
जो हार से
हारकर
हार मान लेते हैं,
वे अपने को
जीते जी
बर्बाद कर लेते हैं ।
जीत के
घमण्ड में
जो उद्दण्ड
हो जाते हैं ,
वे जीत कर भी
जीवन में
जीत नहीं पाते हैं ।
हार को
हृदय से
स्वीकारना जरुरी है,
अायी थी
ऐसी कौन सी
खामियाँ
जीत के मार्ग में
उन सभी का
अवलोकन जरूरी है।
नहीं
भूलना चाहिए
नारद की तरह
काम को जीतकर
अपनी मर्यादा ,
और न ही
होना चाहिए
गरुड़ की तरह
अपने
पंखों के वेग पर
घमण्ड ।
होनी चाहिए
युधिष्ठिर की तरह
निष्ठा ,
और
शेष की तरह
रखनी चाहिए
भार उठाने की सहनशक्ति ।
धरती की तरह
होना चाहिए वक्ष
और
अम्बर की तरह
होना चाहिए
मन के अन्दर फैलाव ।
३. कविता- 'बनावटी भक्त'
पक्के भक्त
वो हैं
जो
मन्दिर में जाकर
चप्पल वहाँ उतारते हैं
जहाँ से
भगवान और
चप्पल दोनों दिखते हैं ।
आराधना
तो करते हैं
अपने आराध्य की ,
पर
एक आँख भगवान पर
दूजी चप्पल पर रखते हैं।
ले जाते हैं
चढ़ावे के लिए
परसाद थोड़ा सा ,
पुजारी से
इशारों इशारों में
डिब्बे को
परसाद से
भरने को कहते हैं।
जाते हैं मन्दिर
भगवान से
दुखड़ा रोने,
पर
माया मोह को
विसराते नहीं हैं।
भगवान से
करते हैं
सद्-बुद्धि की याचना,
पर
सुन्दर स्त्री को
ताकना
छोड़ते नहीं हैं ।
आते हैं
बनावटी
आस्था को लेकर ,
भगवान को
ठगने के लिए
पत्थर में
भगवान ढूँढते हैं ।
४.कविता- 'हांफती नदी'
जब से
मनुष्य ने
मुझे बांध लिया है,
तभी से
मेरा अस्तित्व
घटने लगा है ।
जब से
मेरी विशाल
जल राशि में
मनुष्य के
दोहन की
मथानी चलने लगी है,
तभी से
मेरी आभा
गंदली होने लगी है ।
धीमी हो गयी है
मेरी
बहने की चाल,
बंद हो गयी है
मेरी
कल-कल की आवाज ।
जब से
मनुष्य ने
मुझे बांध करके
फैक्ट्रियां चलायी हैं
मेरे ही जल से
बिजली बनायी है,
तभी से
मेरे आगोश में
पलने वाले
जीवों पर
खतरा मड़राया है।
मेरे
शीतल जल में
बड़े-बड़े
उद्योगों का
जबसे
कचरा बहाया गया है,
तभी से
मेरा
स्वच्छ जल
जहर बन गया है।
निकली थी
पहाड़ों से
जब मैं
अन्तर-मन में
सपनों को संजोए ,
नहीं पता था
कि
फिर फंस जाउंगी
मतलबी
मनुष्यों के भवर में ।
लगता है जीवन में
मेरे बंधना लिखा है,
जन्म से लेकर
आज तक
मुझे
कई बार
बांधा गया है ।
सर्व प्रथम
ब्रह्मा के
कमण्डल में बंधी हूं
दूसरी बार
शिव की
जटाओं से घिरी हूं ।
तीसरी बार
मनुष्य के
हाथों में बंधकर
घुट-घुटकर
अपने
अन्तिम दिनों के
पल गिन रही हूं ।
गिड़-गिड़ाकर
लोभी मनुष्य से
आंचल में
पलने वाले
जीवों के
जीवन की
भीख मांगती हू्ं ।
अपना
शीतल जल
और
पुरानी
तीव्र गति की
चाल मांगती हूं,
विस्तृत
भूखण्ड पर
स्वच्छंद होकर
घूमना चाहती हूं ।
अब
अपने
बंधक से
आजाद कर दो,
सूखी हुई
नदियों की
प्यास बुझाने दो ।
बहने दो
वेग से
आसमान की
छाया में
बहुत
दुह चुके तुम
मेरे स्वच्छ जल को ।
बहुत
थक चुकी हूं
तुम्हारे कहर से
दब गयी हूं
तुम्हारे
मैं
कचरे के नीचे ।
हांफ-हांफकर
रुकी हुयी
सांसे मांगती हूं ,
घटते हुए
अस्तित्व को
बचाने की
फरियाद कर रही हूं ।
५. कविता--'छोटा बच्चा'
गांव के
बीचो-बीच
कुएँ पर बैठा
सियासी नेताओं की
बातें सुन रहा हूं ,
भड़कीली
बातों से
मैं
गांव के
लोगों का
जोश देख रहा हूं ।
कैसे
झगड़ते हैं
एक-दूसरे से
आपस में,
मैं
नेताओं के
हाथों से
पानी में
लगाई गयी
आग देख रहा हूं ।
कैसे
रोजमर्रा की
जिन्दगी को
भूलकर
अपनी
हालत को
अलगनी पर
रखकर
जाति-धर्म की
चक्की में
मैं
लोगों को
पिसते देख रहा हूं ।
भूल गए हैं
वे दिन
जब
उनका बच्चा
नौकरी के चक्कर हमें
चक्कर काटता था ,
सभी
जगहों से
निराश होकर
ख़ुदकुशी कर लिया था ।
भूल गए हैं
जब वे
राशन की दुकान से
खाली
झोला लेकर
उल्टे पांव
वापस
लौटकर आते थे ।
भूल गए
वह भी
जब
नहीं जलता था
चूल्हा
पूरा-पूरा दिन,
और
उनके बच्चे
रात को
भूखे ही सो जाते थे ।
मैं बैठा
कुंए पर
लोगों के अन्दर
कुण्डली मारकर
बैठी मूर्खता को
देखकर
हैतंग हो रहा हूं ।
चाहकर भी
लोगों को
समझा नहीं सकता हूं,
मुझे
डांट दिया जाता है
बंद
कर दी जाती है
जुबान
यह कहकर
कि
मैं अभी
छोटा बच्चा हूं ।
कहते हैं
कि
नहीं समझ है
तुझमें
अभी तूने
दुनिया
देखी कहाँ है ।
क्या जाने
तू
नेताओं की महिमा
ऐसे ही
नहीं आ गयी है
मेरे
बालों में सफेदी
मत समझा मुझे
मैं धूप में
थोड़े ही
बाल सफेद किया हूं ।
- ओम प्रकाश अत्रि
शिक्षा - नेट/जेआरएफ(हिन्दी प्रतिष्ठा ),शोध छात्र विश्व भारती शान्तिनिकेतन (प.बंगाल )
पता- ग्राम -गुलालपुरवा,पोस्ट-बहादुरगंज, जिला- सीतापुर (उत्तर प्रदेश)
ईमेल आईडी- opji2018@gmail.com
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