(चित्र - देवीलाल पाटीदार की कलाकृति) सुशील शर्मा डूबता हुआ पानी तल में , अतल में , धरा में , सागर में पानी डूब रहा पानी की कविता के ओ...
(चित्र - देवीलाल पाटीदार की कलाकृति)
सुशील शर्मा
डूबता हुआ पानी
तल में , अतल में ,
धरा में , सागर में
पानी डूब रहा
पानी की कविता के ओंठ
सूख कर छुहारा बन गए हैं
एक शीशी में भरा
गंगाजल पूजन में
सूख रहा है।
झील की पारदर्शी लहरें
बूढ़ी होकर हांफने लगी हैं।
मेरे शहर की नदी
पलंग पर पड़ी बूढ़ी बीमार
औरत सी निर्वाक।
पानी की जीवनानुभूति
समूचे अस्तित्व को बचने की जिजीविषा सी
सुलगते सूरज का प्रतिकार।
धरती की असंख्य जलधाराएं
बन रही हैं भूगोल का इतिहास।
सदानीरा नर्मदा बेहद उदास
अंध श्रद्धा भक्ति के सड़े गले फूल
जैव विविधता के लिए बने जहर
गंदे नालों का सड़ा पानी
अमृत जल राशि को दूषित कर
बो रहा है नसों में जहर।
कुँओं का अंधापन
हेण्डपम्पों का मरना संकेत है
कि पानी अब मरुस्थल में डूबने वाला है।
पानी की आशा
बेटी की चिंता
भविष्य के दो यक्ष प्रश्न।
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मंजुल भटनागर
मजदूर दिवस पर मेरी एक रचना
मजदूर कहाँ
ढूंढ़ता हैं छत अपने लिए
वो तो बनाता है मकान
धूप में तप्त हो कर
उसकी शिराओं में
बहता है हिन्दुस्तान ----
मजदूर न होता
तो क्या कभी बनता
मुमताज़ के लिए
ताज महल महान
और चीन की दीवार
आश्चर्य, कहाती सीना तान ------
मजदूर ने खडे किये
वीराने ,सुन्दर शहरों में
अजंता एल्लोरा कला शिल्प
देती है उसके हाथों को
कीर्ति की सोपान
हर देश का मजदूर
गढ़ता है ,अपने दो हाथों से
सुन्दर बुर्ज दरवाज़े
चाहता कुछ नहीं ,होकर नादान
रहता है उसका देश उसके कारण
दुनिया की नजरों में महान !
मजदूर दिवस पर----
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एस के सिद्धार्थ
surendrakumar01791@gmail.gmail.com
*किसान हैं हम*
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कैसे कहें क्या हैं हम
किसी का अभिमान हैं हम ।
मेहनत कर सभी को खिलाने वाला
दुनिया का भगवान हैं हम ।
महात्मा बुद्ध और महावीर का
प्राप्त अनमोल ज्ञान हैं हम ।
गंगा-जमुनी तहजीब का
सावन और रमजान हैं हम ।
हर उन्मुक्त पक्षियों का
हौसलों का उडा़न हैं हम ।
भारत एक सुनहरी चिड़िया के
कीमती पहचान हैं हम ।
गांवों में बसी भारतीय आत्मा की
सुंदर खेत-खलिहान हैं हम ।
कृषि प्रधान मुल्क हमारा
स्वर्णिम पहचान हैं हम ।
कभी न थकने - हारने वाला
मेहनती इंसान हैं हम ।
''पूस की रात'' का होरी मैं
धनपत का महान है हम ।
१८५७ ई० आजादी की क्रांति का
पहली तलवार हैं हम ।
देश की अखण्डता, रक्षा के खातिर
हमेशा देते आयें बलिदान है हम ।
अपने मेहनती खुरदुरे हाथों से
सबल मुल्क का करते निर्माण हैं हम ।
तन पे जीर्ण-शीर्ण वस्त्र केवल
फिर भी गांधी का स्वाभिमान हैं हम ।
प्रकृति आपदा हर बार तोड़ती
फिर भी उठ खड़े होते हर बार हैं हम ।
कभी अतिवृष्टि कभी सुखाड़ से
हमेशा सहते नुकसान हैं हम ।
कर्ज तले दबा - कुचला हूं पर
समय से चुकाते लगान हैं हम ।
खाने को फाके नहीं हैं घरों में
पर संतुष्टता का पहचान हैं हम ।
आज विकास की इस दौर में
सिर्फ लवनी भर धान हैं हम ।
वो भी मेरी अवस्था को देखता नहीं
जिसे करते मतदान हैं हम ।
आज हमारी कुदाल भी स्वप्न काट रही
सच कहें तो बहुत लहू-लुहान हैं हम ।
अपनी खुशियां दूसरों पे लुटाने वाला
एक संत महिर्यान हैं हम ।
बंजर भूमि से सोना उपजाता हूँ
फिर भी निर्धन किसान हैं हम ।
-एस के सिद्धार्थ
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कृष्ण कुमार यादव
हाइकु
लोकतंत्र है
अथवा भेड़तंत्र
कोई ना जाने।
मताधिकार
नाम का रह गया
बिकते लोग।
चुनावी बेला
बनी कमाऊ धंधा
खुश हैं लोग।
खोटे सिक्कों ने
गायब कर दिया
योग्य लोगों को।
नेता बिकते
जनता भी बिकती
जंगलराज।
चुनाव बने
पंचवर्षीय प्लान
हैं मालामाल।
चल रही है
लोकतंत्र की चक्की
पिसते लोग।
बढ़ रहा है
चारों ओर पाखंड
खामोश लोग।
हर तरफ
जातिवाद है फैला
प्रतिभा त्रस्त।
कुर्सियाँ खींचें
ये जिम्मेदार लोग
हैरान सब।
राज-काज में
नैतिकता खो गई
भोग-विलास।
खबरदार
रहनुमा सो रहे
अब तो जागो।
-कृष्ण कुमार यादव
निदेशक डाक सेवाएँ
लखनऊ (मुख्यालय) परिक्षेत्र, उ.प्र.-226001
ई-मेलः kkyadav.t@gmail.com
ब्लॉग: https://kkyadav.blogspot.in/, https://dakbabu.blogspot.in/
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कृष्ण कुमार यादव : 10 अगस्त 1977 को तहबरपुर, आजमगढ़ (उ.प्र.) में जन्म। इलाहाबाद वि.वि. से 1999 में राजनीति शास्त्र में एम.ए.। वर्ष 2001 में भारत की प्रतिष्ठित ‘सिविल सेवा’ में चयन। सूरत, लखनऊ, कानपुर, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, जोधपुर में नियुक्ति के पश्चात फिलहाल लखनऊ (मुख्यालय) परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएँ पद पर आसीन। प्रशासन के साथ-साथ साहित्य, लेखन और ब्लाॅगिंग के क्षेत्र में भी प्रवृत्त।
विभिन्न विधाओं में अब तक कुल 7 पुस्तकें प्रकाशित- 'अभिलाषा' (काव्य-संग्रह, 2005), 'अभिव्यक्तियों के बहाने' व 'अनुभूतियाँ और विमर्श' (निबंध-संग्रह, 2006 व 2007), 'India Post : 150 Glorious Years' (2006), 'क्रांति-यज्ञ : 1857-1947 की गाथा', 'जंगल में क्रिकेट' (बाल-गीत संग्रह, 2012) व '16 आने 16 लोग' (निबंध-संग्रह, 2014)।शताधिक पुस्तकों/संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक 'बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव' (सं0- दुर्गाचरण मिश्र, 2009) प्रकाशित।
देश-विदेश की प्रायः अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और इंटरनेट पर वेब पत्रिकाओं व ब्लॉग पर निरंतर प्रकाशित। हिंदी ब्लॉगिंग में शब्द सृजन की ओर (http://kkyadav.blogspot.in) और डाकिया डाक लाया (http://dakbabu.blogspot.in) ब्लॉग के माध्यम से सशक्त उपस्थिति। आकाशवाणी लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद, जोधपुर व पोर्टब्लेयर और दूरदर्शन से कविताएँ, वार्ता, साक्षात्कार का समय-समय पर प्रसारण।
उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा ’’अवध सम्मान’’, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल द्वारा ’’साहित्य-सम्मान’’, छत्तीसगढ़ के राज्यपाल श्री शेखर दत्त द्वारा ’’विज्ञान परिषद शताब्दी सम्मान’’, परिकल्पना समूह द्वारा ’’दशक के श्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉगर दम्पति’’ सम्मान, अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन, भूटान में ’’परिकल्पना सार्क शिखर सम्मान’’, विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर, बिहार द्वारा डाॅक्टरेट (विद्यावाचस्पति) की मानद उपाधि, भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘’डॉ. अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान‘‘ साहित्य मंडल, श्रीनाथद्वारा, राजस्थान द्वारा ”हिंदी भाषा भूषण”, वैदिक क्रांति परिषद, देहरादून द्वारा ‘’श्रीमती सरस्वती सिंहजी सम्मान‘’, भारतीय बाल कल्याण संस्थान द्वारा ‘‘प्यारे मोहन स्मृति सम्मान‘‘, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ‘‘भारती रत्न‘‘, अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनन्दन समिति मथुरा द्वारा ‘‘कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान‘‘, आगमन संस्था, दिल्ली द्वारा ‘‘दुष्यंत कुमार सम्मान‘‘, विश्व हिंदी साहित्य संस्थान, इलाहाबाद द्वारा ‘‘साहित्य गौरव‘‘ सम्मान, सहित विभिन्न प्रतिष्ठित सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता और प्रशासन के साथ-साथ सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु शताधिक सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त।
संपर्क: कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवाएँ, लखनऊ (मुख्यालय) परिक्षेत्र, उ.प्र.-226001
ई-मेलः kkyadav.t@gmail.com ब्लॉग: https://kkyadav.blogspot.in/, https://dakbabu.blogspot.in/
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तालिब हुसैन
आज शब्द राजभक्त हैं
नीले- लाल और न जाने
कितने ही रंग के
शब्द
ढो रहे हैं अपना अनिर्वचनीय सत्य
कुछ शब्द घायल है ;
रुदन से भर कर
मौन ; देख रहे हैं तमाशा''''
कुछ पहन सभ्य चोला
हाथ में लिए
लोकतंत्र की डोर
बन चौथा खम्बा
कर रहे हैं वध सत्य का
वहीँ कुछ दूर
कुछ शब्द मना रहे हैं मातम
फसल के मर जाने का
कुछ भेज रहे हैं शब्द मुआवजे का
कुछ शब्द कर रहे हैं सवाल
पेड़ पर लटके रस्सी के फंदों में
कुछ ने की है हिम्मत
चुप्पी तोड़ने की
पर
अकस्मात् कुचले गये हैं कुछ शब्द
निरपराध
कुछ शब्द आसमान को ओढ़
धधकती धरती पर
रख कर बैठे हैं अपने सपने
कुछ शब्द बन बसंत आने को तैयार हैं
मारीच की तरह
कुछ शब्द बनने वाले हैं
किसी नये लकड़ी के रावण के नारे
कुछ शब्द दे रहे हैं दस्तक
दोहरे रंग का खेल खेलने को ......
मैं सोचता हूँ
क्या शब्द भी होंगे कभी वाणी
क्या कहेंगे यह भी आक्रोश की भाषा
कुछ भी हो
पर
आज शब्द राजभक्त हैं..............
तालिब हुसैन
हिंदी विभाग , जामिया मिल्लिया इस्लामिया
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अनिल कुमार
'शिल्पी'
रचनाकार नहीं मैं
ना हूँ शिल्पकार मैं
जो लिखता
या मुझ से बन पड़ता
वह उद्गार है अवचेतन का
या मेरे जीवन का
या फिर यथार्थ है सब का
जो अनुभूत मुझे है होता
संवेदना मानव मन की
लेकर चरितार्थ है होता
लिख पड़ता ना जाने क्यों?
कलम हाथ और काग़ज पर
खिंचती रेखाएँ यादों से
तब मैं नहीं बोल रहा होता
जग अन्तर्मन ढोल रहा होता
वह रचनाकार
या कलाकार कोई
सब के यथार्थ का
शब्दों में या कलाकृतियों में
लेकर रंग-रूप
सार्वभौम शिल्पी
किसी कृति में घोल रहा होता।
--
'कर्म और भाग्य'भाग्य ने जो लिख दिया है तेरे भाग का
वो ना लेकर कोई जायेगा
पर जो तू ने कर्म ना किया तो
तेरे नसीब का भी भाग हिस्से ना आयेगा
उस विधाता ने सभी को समता से है दे दिया
पर जो तू ना कर्म का पथ चढ़ सका तो
तेरे भाग्य का भी है लिखा मिट जायेगा
तू अगर सोचता है
कि भाग्यदाता तुझ को भूल गया
कुछ ना लिखा भाग्य में तेरे
तो सोचता तू, फिर अभागा रह जायेगा
भाग्य ने जो लिख दिया है तेरे भाग का
वो ना लेकर कोई जायेगा
पर जो तेरा कर्म पथ है
इस पथ ना चला तो
तेरा भाग्य सो गया है, तू यही दोहरायेगा
तो कर्म कर, कर्म से ही तू
भाग्य की रेखा बदल पायेगा
भाग्य ने जो लिख दिया है तेरे भाग का
वो ना लेकर कोई जायेगा।
अनिल कुमार, वरिष्ठ अध्यापक 'हिन्दी'
ग्राम देई, जिला बून्दी, राजस्थान
अनिल कुमार, व.अ. हिन्दी
ग्राम देई, जिला बून्दी, राजस्थान
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सत्येंद्र कुमार मिश्र 'शरत'
-:सीमाएं-:
सबकी अपनी
सीमाएं होती हैं ,
सबकी अपनी
लक्ष्मण रेखाएं होती हैं,
जिन्हें
बहुत कम लोग
पार करने की
हिम्मत
करते हैं
और
इतिहास बनते हैं।
रावण तो
एक मिथक है
सीमा रेखा
न पार करने का
गढ़ा गया
नारी के लिए
केवल
बहाना है।
-: फर्क-:
जब किसी
चीज का
विश्वास ना हो,
कुछ
अकस्मात हो,
कुछ
अकल्पनीय हो,
बिना योग के
संयोग हो,
तब
यह सब
सपना नहीं
तो सपने जैसा
अवश्य लगता है।
सोचता हूं
तब सपने में
और
इसमें फर्क क्या है
हां
फर्क इतना है ,
यह सब
हम खुली आंखों से
देखते हैं
और सपना
बंद आंखों से।
-:लौट चलें-:
आओ
वापस लौट चलें
इन
भीड़ भरे शहरों से
अपने गांव की
पगडंडियों की ओर।
खेतों की मेड़ पर
सुबह-सुबह
ओस से नहाई
हरी घास पर
नंगे पांव
टहलते हैं।
वापस
बुला रहे हैं
गांव के
हरे भरे खेत ,
पोखर ..
जिसमें तैरते होंगे
इस समय
गांव के सारे बच्चे।
दोपहरी
बिताएंगे
आम के बाग में
किसी पेड़ के नीचे।
एक बार फिर
गाय-भैंसों को।
चौका नदी की तरफ
चराने ले जायेंगें।
वहां
खेलेंगे
गिल्ली- डंडा
बच्चा बन
बच्चों के संग।
--
-:- शब्द-:-
मैं
दूर खड़ा
इतिहास के आईने से
शब्दों का
चमत्कार देख रहा हूं,
कि
शब्द कोरे ,
काले धब्बे
नहीं होते।
शब्दों की ताकत
शायद
दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है
शब्दों से ही
इतिहास
बनते और बिगड़ते हैं
शब्द
मनुष्य का सबसे बड़ा आविष्कार है,
यह
एक ऐसा जादू है
जिसे
आता है
वह दुनिया पर
अपनी अमिट छाप छोड़ता है।
और युगों- युगों तक
अमर हो जाता है।
-: न्याय-:
वातानुकूलित
घरों ,वाहनों मे
मुस्कुराते चेहरे
और
इस
तीखी धूप में
धूल और पसीने से लथपथ चेहरे।
गर्मी अधिक है
चाहिए
ईश्वर को भी वातानुकूलित मंदिर का गर्भ गृह
उसने समझा
कोई फर्क नहीं है
ईश्वर में
और
ईश्वर के न्याय में ।
परिचय
नाम-: सत्येंद्र कुमार मिश्र 'शरत'
जन्म-: 14 जनवरी 1994
माता -: कलावती देवी
पिता -:राम शंकर मिश्र
पता-: ग्राम व पोस्ट कोदौरा, जिला- सीतापुर उत्तर प्रदेश।
शिक्षा-: बीए, एमए,(हिंदी) बीएड, नेट जेआरएफ, इलाहाबाद विश्वविद्यालय ।
कार्य -शोध
-:-विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताएं
-:-उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से युवा कविता सम्मान।
-:इलाहाबाद विश्वविद्यालय हिंदी विभाग से रामस्वरूप चतुर्वेदी कविता पुरस्कार (स्नातक वर्ग 2012)
ईमेल-satyendra15794@gmail.com
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लक्ष्मीनारायण गुप्त
खोल दो ये खिड़कियाँ
खोल दो ये खिड़कियाँ कुछ बाहर की हवा आने दो
खोल दो पर्दे और रोशनी को आने दो
बन्द घर की गंध ज़रा बाहर निकल जाने दो
झाड़ू लगाओ और धूल मिट्टी निकल जाने दो
खोल दो मन की खिड़कियाँ इसमें नये विचार आने दो
हटाओ अपने मन का अन्धकार और ज्ञान का प्रकाश आने दो
छोड़ दो पुरानी दमघोंट रूढ़ियाँ इन्हें अपनी मौत मर जाने दो
साफ कर दो अपने मानस के जाले सड़ायँध को निकल जाने दो
जिसने कभी रोशनी नहीं देखी है उसकी आँखें चका चौंध हो सकती हैं
लेकिन यह केवल क्षण मात्र के लिए है आँखों को को ज़रा अभ्यस्त हो जाने दो
बेसुरी आवाज़ों से दूर अपने कानों में नये सुरों को आने दो
जाओ उन जगहों में जहाँ नहीं गए पहले अपरिचित को परिचित में बदलने दो
छोड़ दो परलोक की चिन्ता अपने मन को इस लोक में रमने दो
दुख नहीं दो किसी को और हो सके तो कुछ औरों का भला कर दो
इस दुनिया में अच्छा बुरा सब कुछ है अपने विवेक को सक्रिय रहने दो
बिता दो अपनी ज़िन्दगी सुख शांति से मौत आती है तो आने दो
--
लेखा जोखा
जो हम भुलाना चाहते हैं
वह भूल नहीं पाते
जो क्षण जीवन में आये थे
जिनमें हमारा वर्ताव ग़लत था
उन्हें हम भूल नहीं पाते
ये क्षण काँटों की तरह सालते हैं
काँटा जो निकाला नहीं जा सकता
भूल जो सुधारी नहीं जा सकती
कटु वाक्य जो बोल दिये थे
खीझ कर, उनका असर
क्या हुआ, कह नहीं सकते
किन्तु यदि सम्भव होता तो
वे शब्द मैं वापस ले लेता
शब्दों का आघात क्या होता है
मुझे पता है क्यौकि मैं ख़ुद भी
उनका शिकार बना हूँ अतीत में
कुछ अच्छा भी किया है
किसी की मदद भी की है
औरों का दुख सुख भी सुना है
कुछ आंसू भी पोंछै हैं
मृदु वाणी का मरहम भी
किसी के घाव पर लगाया है
बस यह आशा करता हूँ
कि भले और बुरे का समीकरण
हो गया है या भला थोड़ा
बुरे से अधिक है
--
मेरा जीवन
चल रहा है अब जीवन का आठवाँ दशक
समय आगया है लेखा जोखा करने का
क्या खोया है, क्या पाया है
किन किन का मैंने दिल दुखाया है
किसके जीवन की कसक मैं नहीं सुन पाया
किसकी मदद के लिए हाथ नहीं बढ़ाया
मैंने बहुत सारी ग़लतियाँ की है
कभी जाने में, कभी अनजाने में
लेकिन प्रयत्न किया है
कि हर परिस्थिति में
समन्वय हो, फूट नहीं
मुझे कोई पछतावा नहीं है
कि मैंने कैसे ज़िन्दगी बिताई है
यदि मुझे फिर से ज़िन्दगी बिताने
का मौका मिले तो मोटे तौर पर
वही करूँगा जो मैंने इस ज़िन्दगी में किया है
आगई है अब जीवन की शाम
अभी तक किन्तु मैं हूँ हैरान
कि जीवन का क्या है उद्देश्य
ज्ञात होगा कभी इसमें संदेह
इस अनिश्चितता को वरण करना ही होगा
विकल्प कोई नहीं यह मानना होगा
जीवन के बचे खुचे वर्ष पूरे हो जायेंगे
फिर क्या होगा कभी नहीं जान पायें
—-
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अरुण तोमर
"पागल पथिक"
मैं पागल पथिक निर्जन पथ का
चित्त पर चित्र उभरे सजीले
जग गयी फिर नयी आशायें
पर वेदनाओं से अभी नयन गीले।।
कहीं जरा स्नेह मिले तो
तनिक आराम वहाँ कर लूँ
चाह में हूँ अभी छांव की
जहाँ से वेग पुन: भर लूँ।।
फिर बैठ चिंता करूँ मैं जग की
लगाऊं सदियों तलक वहाँ फेरा
क्यूँ एक तरफ आलोक नवीन था
क्यूँ एक तरफ घनघोर अंधेरा।।
फिर दु: ख के महाजनपदों में घूमूं
मौन-मौन सी कठपूतलियाँ देखूँ
पीड़ितों की पीड़ाओं में पैठूँ
नर्मदा से फिर उनको लेखूँ।।
यथार्थ की ओछी बातें सभी
विद्रोह विरूद्ध भड़काती आवें
धर्म-अधर्म के भेद सभी
सत्य-असत्य समझाती आवें।।
पर सोचते हुए डरता हूँ
समाधान कोई कहाँ है पाया
मिली दूर तक बस मरीचिका
आभासी जल- कण हाथ ना आया।।
सुनो पथ की 'धूल' औ 'आँधी
मेरा गंतव्य बताती जाना
अच्छे दिनों की प्राप्ति में मुझको
कितनी राह अभी है जाना।।
कितनी पराजयों से मुझको
हौसला अभी परखना है
ये यथार्थ का नंगा अस्थि पंजर
अभी कितना और निखरना है।।
मैं कल की आशाओं का बस
व्यामोह लादकर चलता हूँ
कब संकट के बादल छंट जाये
इस दिवा स्वप्न में पलता हूँ।।
आज जगा तो निकल पड़ा हूँ
दु: ख के महासागर की भंवरें
कहीं क्रांति के बीज उगे थे
बस खोज रहा मैं वे किरणें।।
मैं लेकर चलूँगा संग सबको
तोड़ लायेगें तारे चमकीलें
फिर धरा का श्रृंगार करेगें
खिलेगा पुष्प रंग- रंगीले।।
मैं पागल पथिक निर्जन पथ का
चित्त पर चित्र उभरे सजीले।।
इस रचना को "मेरठ कालेज" हिंदी-विभाग ने सुंदर समालोचना तथा उचित सारगर्भित शब्दों का समावेश करके मूल्य प्रदान किया है। मैं अपने पूजनीय प्राध्यापकों का बहुत -बहुत आभार व्यक्त करता हूँ।
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हरिओम गौड़
'ममता और बाल स्नेह'
ठुनक रहा है आँगन में वो,
माँ की आँखों का तारा,
सूरज जैसा तेज है जिसमें,
चाँद से भी जो है प्यारा,
देख के जिसकी एक छवि को,
मंत्रमुग्ध हो मन सारा,
ऐसी अदा है उस चेहरे में,
कि झूम रहा आँगन सारा,
काजल का टीका माथे पर,
लचीले बेल सा तन है,
पीताम्बर धारण किया है,
निश्चल कोमल मन है,
रेंग-रेंग कर चलना उसका,
दिल को बहुत लुभाता है,
घुटनों के बल चलते-चलते,
वो निरंतर गिरता जाता है,
हठ करता है हर बात की,
लड़-लड़कर मैं भी हारा,
ऐसी अदा है उस चेहरे में,
कि झूम रहा आँगन सारा।
हाथों के बल लिटाती उसको,
छलका-छलका के नहलाती है,
अधिक वेग से हाथ फिरे ना,
वो ममता है सब जानती है,
पलकें नहीं झपकता एक क्षण भी,
देख-देखकर मैं भी हारा,
ऐसी अदा है उस चेहरे में,
कि झूम रहा आँगन सारा।।
B.sc 4th SEM(cbz)
D.B.S (P.G) College Dehradun
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सतीश कुमार यदु
"नृत्य दिवस" का पावन क्षण ,
नर्तन करता मोर मन !
साथ न देता यह तन ,
भीषण गर्म रवि किरण !
ऊष्णता लिए वातावरण ,
और ये ऋतु तपन !
हे दिनेश, दिवाकर, दिनकर तुमको है नमन
सुनाई न देता कोकिल कण्ठ ,
स्तब्ध खड़ा सब जन जीवन !
उर में उठ रहा प्रतिपल जलन
ले आओ शीतल मंद पवन !
त्राहिमाम त्राहिमाम भास्कर भुवन ,
शांत करो अंतस्तप्त अंतःकरण !
हे प्रभाकर, मार्तण्ड , हरि,पतंग तुमको है नमन
सतीश कुमार यदु, व्याख्याता
कवर्धा छत्तीसगढ़
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डॉ0जय प्रकाश यादव
**नायक**
********
प्रभात - काल
दर्पण निहारता,
घाव सहलाता नायक,
रात के सपनों से भयभीत,कि-
क्षत -विक्षत गिरने पर भी नहीं छोड़ता,
दैत्य गला दबाता रहा।
माँ ने देखा -
युद्ध-उद्त बेटे को ,
जो निरीह सा देखता है,
कि वही अस्त्र-शस्त्र ,वही रणभूमि,
और नित्य एक युद्ध।
निराकार ब्रह्म सा,दल-बल सहित बेकारी,
संचालित करता एक युद्ध,
और युद्ध ?
क्षत-विक्षत ,कट कर गिरते मनुष्य,
लथपथ अंग-प्रत्यंग,कराह-चीखें,
रक्त-रंजित दूर तलक बंजर भूमि।
एक दुःसाहस! युद्ध जारी रखना है।
क्योंकि- प्रसुप्त ज्वालामुखी,
सीने में दबाते - दबाते,
विकृति होते. चेहरे,
व्यंग चित्र सा आदमी,
मरी हुई व्यवस्था ,
लाश में कीड़े सा कुलबुलाता नेतृत्व।
युद्ध रतों के नथुनों में,
घुसा सड़ांध और व्याकुल नायक ।
कि शाप मुक्त होना है।
मानस चित्र बदलना है।
नायक ,कराहता है कि-
युद्ध जारी रखना है।
शापमुक्त होना है।
तभी,अखबार वाला चिल्लाया।
"राम नहीं आयेंगे, कार्यक्रम स्थगित,"
कोई शाप मुक्त नहीं ।
क्यों नहीं होगा ?
कब तक पत्थर ,पत्थर रहेगा ?
दहाड़ता हुआ निकालता है तलवार ,
आओ ! मेरे साथ -
'उसे युद्ध में हरायेंगे,
उसे पकड़ कर लायेंगे,
फिर होगी मुक्ति।'
पीछे देखता हैं ,तो
सन्नाटे में गूँजती है प्रतिध्वनि।
सन्नाटा ! सिर्फ तुम ?
चलो ! तुम्ही चलो।
तभी भटकती हुई ध्वनि सुना-
"रोज तो जाता हैं कहीं मरने ,
फिर क्यों नहीं मरता ?
माँ ने कहा -"नहीं रे लड़ने जाता है,
युद्ध लड़ रहा है, मुक्ति पा रहा है।"
जा समय से चला जा।
वह चलने लगा,
अकेला ही लड़ने जीवन - युद्ध।
सुनायी देती रही प्रतिध्वनि ,
अंतिम पद-चाप तक।
वह भागता चला गया,
कागजी अस्त्र- शस्त्र सज्जित नायक।
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अशोक बाबू माहौर
काँटों पर
काँटों पर
बैठी
उदास तितली
शायद सोचती होगी
फूलों की बगिया उजड़ गयी
जंगल उजड़ गये
मेरा रहना कठिन सा
श्राप बन गया।
जाऊँ कहाँ?
कहाँ से रस चूसूँ?
मेरी अचल संपत्ति
बिखर गयी
विलुप्त हो गयी
अब मैं भी चलती हूँ
कहीं दूर
जहाँ हो
खुशबू नन्हें फूलों की
प्यारी मधुर बगिया भी
--
परिचय
अशोक बाबू माहौर
साहित्य लेखन :हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में संलग्न।
प्रकाशित साहित्य :हिंदी साहित्य की विभिन्न पत्र पत्रिकाएं जैसे स्वर्गविभा, अनहदक्रति, साहित्यकुंज, हिंदीकुंज, साहित्यशिल्पी, पुरवाई, रचनाकार, पूर्वाभास, वेबदुनिया, अद्भुत इंडिया, वर्तमान अंकुर, जखीरा, काव्य रंगोली, साहित्य सुधा, करंट क्राइम, साहित्य धर्म आदि में रचनाऐं प्रकाशित।
सम्मान :
इ- पत्रिका अनहदक्रति की ओर से विशेष मान्यता सम्मान 2014-15
नवांकुर वार्षिकोत्सव साहित्य सम्मान
नवांकुर साहित्य सम्मान
काव्य रंगोली साहित्य भूषण सम्मान
मातृत्व ममता सम्मान आदि
प्रकाशित पुस्तक :साझा पुस्तक
(1)नये पल्लव 3
(2)काव्यांकुर 6
(3)अनकहे एहसास
(4)नये पल्लव 6
अभिरुचि :साहित्य लेखन।
संपर्क :ग्राम कदमन का पुरा, तहसील अम्बाह, जिला मुरैना (मप्र) 476111
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डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
मां को समर्पित कुछ पंक्तियाँ–
"गंगाजल-सी है माँ पावन"
काशी,काबा, तीर्थ है माता,
शुद्ध प्रेममयी स्नेहिल माता।
माता से नाता अति अनुपम,
सबसे प्यारी मधुरिम माता।।
मृदु पुष्पों से भरी मृदुलता,
दिनमणि जैसी भरी प्रखरता।
गंगाजल–सी है माँ पावन,
वाणी में अति भरी मधुरता।।
माँ की गोद में देव भी विह्वल,
मैया की ममता है अविरल।
सागर–सी गहराई है इसमें,
हिमगिरि-सा मृदु मन है अविचल।।
माँ के बिना नहीं फुलवारी,
माँ से महके क्यारी-क्यारी।
माँ-सन्तति का अनुपम नाता,
"मृदु" माँ पर जाए बलिहारी।।
महि-अम्बर से विशाल है माता,
सीधी, सरल, महान है माता।
सुर,नर,मुनि से वन्दित मां नित,
तीनों लोकों में गर्वित माता।।
कवयित्री
डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
114, महराज-नगर
लखीमपुर-खीरी(उ0प्रा)
मो0 नम्बर–9919168464
कॉपीराइट–कवयित्री डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
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देवेन्द्रसिंह राठौड (भिनाय)
बीते हुये पल में चले आये,
गुजरे हुये कल में चले आये l
बीते हुये पल.......
वो बारिश की मस्ती,
वो कागज की कश्ती,
वो बारिश की.........
हम खुद को भिगो आये l repeat
बीते हुये पल..........
अभिलाषायें अधूरी,
जो हो न सकी पूरी,
अभिलाषायें....
हम उनसे मिल आये l repeat
बीते हुये पल....
जिन लम्हों ने हँसाया,
इक ख्वाब दिखाया,
जिन लम्हो.....
हम उन में जी आये l repeat
बीते हये पल......
देखा जो अक्स तेरा,
मचला फिर दिल मेरा,
देखा जो.....
अरमान मचल आये l repeat
बीते हुये पल में.....
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अजय अमिताभ सुमन
तुम ही संबल समर्थ अहो
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
तुमपे है, कैसे खर्च करो।
या जीवन में अर्थ भरो या,
यूँ हीं इसको व्यर्थ करो।
या मन में रखो हीन भाव,
और चाहो औरों पे प्रभाव,
भागो बंगला गाड़ी पीछे ,
कभी ओहदा कुर्सी के नीचे,
जीवन को खाली व्यर्थ करो,
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
तुमपे है, कैसे खर्च करो।
यदि मन में हो मान, ताप ,
तो तन में हो पीड़ा ,संताप,
फिर ताप अगन छा जाता है,
तेरा ही तन जल जल जाता है,
ये मान , क्रोध अनर्थ तजो,
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
तुमपे है, कैसे खर्च करो।
बेशक जीवन में आय रहे,
पर ना जीवन पर्याय रहे ,
कि तुममे बसती है सृष्टि,
कर सकते ईश्वर की भक्ति,
कोई तो तुम निष्कर्ष धरो,
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
तुमपे है, कैसे खर्च करो।
धन से सब कुछ जब तौलोगे,
जबतक निज द्वार न खोलोगे,
हलुसित होकर ना बोलोगे,
चित्त के बंधन ना तोड़ोगे,
तुममे कैसे प्रभु आन बसो?
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
तुमपे है, कैसे खर्च करो।
कभी ईश्वर यहाँ न आएंगे,
कोई मार्ग बता न जाएंगे ,
तुमको ही करने है उपाय,
जीवन का हेतु और पर्याय,
निज जीवन में कुछ अर्थ भरो,
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
तुमपे है, कैसे खर्च करो।
बरगद जो ऊँचा होता है,
ये देख अनार क्या रोता है?
खग उड़ते रहते नील गगन ,
मृग अनुद्वेलित खुद में मगन,
तुम अवचेतन में फर्क करो,
जीवन ऊर्जा तो एक हीं है,
तुमपे है, कैसे खर्च करो।
ये देख प्रवाहित है सरिता,
बहती जैसे कोई कविता,
भौरों के रुन झुन गाने से,
कलियों से मृदु मुस्काने से,
आह्लादित होकर नृत्य करो,
जीवन ऊर्जा तो एक हीं है,
तुमपे है, कैसे खर्च करो।
तुम लिखो गीत कोई कविता,
निज हृदय प्रवाहित हो सरिता,
कोई चित्र रचो, संगीत रचो,
कि हास्य कृत्य, कोई प्रीत रचो,
तुम ही संबल समर्थ अहो ,
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
तुमपे है, कैसे खर्च करो।
जीवन ऊर्जा तो एक हीं है,
तुमपे है, कैसे खर्च करो।
या जीवन में अर्थ भरो या,
यूँ हीं इसको व्यर्थ करो।
संबोधि के क्षण
इन आंखों से नित दिन गुनता,
रहता था जिसके सपने,
वो भी तो देखे इस जग को,
नित दिन आँखों से अपने।
कानों में जो प्यास जगी थी,
वाणी जिसकी सुनने को,
वो भी तो बेचैन रहा था,
अक्सर मुझसे मिलने को।
पर मैं अक्सर अपनों में,
नित दिन हीं खोया रहता था,
दिन में तो चलता रहता,
सपनों में सोया रहता था।
जन्मों जन्मों से खुद को,
छलने से ज्ञात हुआ है क्या?
सच ही तो है कभी सत्य,
स्वप्नों में प्राप्त हुआ है क्या?
निराशुद्ध था पावन निर्मल,
इसका बोध नहीं मुझको,
निज को हीं जो ठगता जगमें,
वो निर्बोध कहे किसको?
जन्मों की अब टूटी तन्द्रा,
मुझको ये संज्ञान हुआ,
प्राप्त नहीं कुछ भी किंचित,
केवल लुप्त अज्ञान हुआ।
कर्णों के जो पार बसा है,
बंद आँखें हैं जिसकी द्वार,
बिना नाद की बजती वीणा,
वो ॐ है सृष्टि सार।
पाने को कुछ बचा नहीं और ,
खोने को ना शेष रहा,
मैं जग में जग है मुझमें कि,
कुछ भी ना अवशेष रहा।
हुआ तिरोहित अहमभाव औ,
जाना कर्म ना कर्ता हूँ,
वो परम तत्व वो परम सत्व ,
सृष्टि व्याप्त हूँ, द्रष्टा हूँ।
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राह प्रभु की
कितना सरल है,
सच?
कितना कठिन है,
सच कहना।
कितना सरल है,
प्रेम?
कितना कठिन है,
प्यार करना।
कितनी सरल है,
दोस्ती,
कितना मुश्किल है,
दोस्त बने रहना।
कितनी मुश्किल है,
दुश्मनी?
कितना सरल है,
दुश्मनी निभाना।
कितना कठिन है,
पर निंदा,
कितना सरल है,
औरों पे हँसना।
कितना कठिन है,
अहम भाव,
कितना सरल है,
आत्म वंचना करना।
कितना सरल है.
बताना किसी को,
कितना मुश्किल है,
कुछ सीखना।
कितना सरल है,
राह प्रभु की?
कितना कठिन है,
प्रभु डगर पे चलना।
अजय अमिताभ सुमन
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पूनम दुबे
अजब-गजब
अजब-गजब है भाषा बोली,
अजब-गजब है दुनियां,
अजब-गजब है बिखरे मौसम
मुस्कुरायें सारी कलियां,
अजब-गजब.......
सुबह-सुबह चिड़ियों की बोली,झूमे सारी डालियां,
हल किसान कंधों पर रख के,
चाल चले मस्तानियां,
खेतों की हरियाली देख,
मन मेरा हरसाया......
अजब-गजब......
फूलों की खूशबू बिखरी है,
भौरों की कहानियां
पनघट पर घूंघट खिंचे,
झांक रही दुल्हनियां,
इन सबको देख -देख,
मन मेरा शरमाया....
अजब-गजब......
रिमझिम बारिश की बूंदें,
चमक रही मोती जैसे,
टिप -टिप की आवाज लगे,
कानों में सरगम जैसे,
मैं भी थोड़ा भींज जाऊं,
मन मेरा लहराया....
अजब-गजब........
पूनम दुबे
अम्बिकापुर छत्तीसगढ़
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सीताराम साहू
जिन्हें याद कर मुस्कुराती है आंखें
वो खुद दूर जा कर हमें देखते हैं ।
जिन्हें दिल में हर वक्त हमने बिठाला
सवालात हमसे गजब पूछते है- ।
जिन्होंने कहा था तुम्हीं जिन्दगी हो ।
जिन्होंने कहा था कि तुम बंदगी हो।
वही कह रहे बात अब तुम करो न
जमाने में खुश हो सदा बैठते है- ।
किया सात जन्मो निभाने का वादा।
लगे उनका जीवन सदा सीधा सादा ।
ऐ आशिक बड़े वेवफा जिन्दगी के
अगर कुछ कहो तो अजब ऐंठते हैं-।
लगे कि किताबों में खोये हुए हैं ।
जहर ही जहर में पिरोये हुए हैं ।
संभल जाओ इनसे रहो दूर इनसे
ऐ कानूनी माया गजब ऐंठते हैं- ।
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खान मनजीत भावडिया मजीद
मर जाना
मेहनत करनेवाले की लूट,
पुलिस के डण्डों की लूट,
गद्दारी करनेवाले की लूट,
लोभ की मुट्ठी की लूट,
ज्यादा खतरनाक नहीं होती
बिना खोट पकड़े जाना,
बेठे बिठाऐ पकड़े जाना,
चुप्पी के अंदर जकड़े जाना,
ज्यादा खतरनाक नहीं होती
रात को जुगनू टिमटिमाते,
उस में हम सब पढ पाते,
काश जुगनू की रोशनी ज्यादा कर पाते,
समय को दम भर कर निकाल जाते,
ज्यादा खतरनाक नहीं होता।
खतरनाक हैं
मुर्दा शांति से मर जाता,
उसमें तड़प का न होना
सहन कर जाना
पूरी जिंदगी दुख होना
काम से लौट कर घर आना
सुबह काम पर जाना
सपनों का मर जाना
कलाई स घडी गिर जाना
वक्त उसका रूक जाना
नजर का ठहर जाना
खाना तलक न खाना
खतरनाक है
जो आँख दुनिया देखती हैं
उस आंख का जाना
जिसकी नजर दुनिया की मोहब्बत भुलाती हैं
वो होंठ जो चूमना भूल जाते है
एक घटिया बन जी जाते है
वो गीत जिनको अक्सर गाते है
अब उन गीतों में प्यार नहीं
जिसमें हुब्बे वतनी न हो
जिसमेँ कौम की बात न हो
वो सब खतरनाक है
खतरनाक है
जिस मंजिल में कांटे न हो
न चांद की रोशनी हो
न सूरज की धूप हो
सब कुछ वीरान हो
न कोई आता हो
न कोई जाता हो
न पौधे हो
न पानी हो
न हवा हो
वह खतरनाक हैं
वह खतरनाक हैं
न जी पायेगा
न पी पायेगा
यह नहीं होगा
तो सपना भी नहीं होगा
सारे सपने मर जायेंगे
सबसे खतरनाक हैं
सपनों का मर जाना
गाँव भावड गोहाना सोनीपत -131302
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डॉ. रानू मुखर्जी
आंसू
एक दिन अचानक मेरी सहेली का फोन आया
कि कल वह गई थी
हास्य कवि सम्मेलन में
जहाँ उसे बड़ा मजा आया ।
मजा इतना आया कि
हंसते हंसते आंखों में पानी भर आया
सुनकर तो मेरा सर चकराया
भुख के कारण आंखों का बहना
चोट लगने पर आंख भर आना
दर्द का सैलाब बन जाना
सुना था!
पर हंसते हंसते आंसू का बहना ?
सोचने पर याद आया एक “सबक”
कि आंखो के पानी में होता है “नमक”
जब दर्द में बहता है तो
लगता है पानी खारा और
जब हंसने पर बहता है तो
लगता है मीठा मीठा प्यारा प्यारा
तो जब भी आंसू बहाइए इसे चखिए
और चखकर जरुर बताइए कि
यह मीठा है या खारा
अगर मीठा है तो इसे खूब बहाइए
खूब बहाइए और जीवन का मजा लुटिए ।
पतंग
नीला आसमान खिलखिला रहा है
रंग अपना जमा रहा है पर वह
रंग बिरगी पतंगों से घिर रहा है
होड लगी है पतंगों में एक दूसरे को टापने की
शाम का सूरज
फिजा का रंग बद्ल रहा है
आसमान को अपने रंग से सजा रहा है
चांद जो अब तक फीका था अब चमकने लगा है
उधार ली हुई सूरज की रोशनी से दमक रहा है
सितारे अब आंख मिचौली खेल रहे है
पतंग की तरह वे भी आसमान को
खेल के मैदान में बदल रहे है
मैं भी अनमनी सी उस बद्लाव को देख रही थी
उड्ते पतंगों में अपनी छ्वि निहार रही थी
तारे तो स्वतन्तत्र थे अपने में चमक रहे थे
पर पतंग की डोर धरती से जुडी होती है
विडंम्ब्नाओ से घिरी औरत की तरह होती है
ममता , विश्वास , भरोसा, अपनेपन की आस में
मर मरकर जीती रहती है
पर मैं पतंग बनकर भी अपनी पहचान बनाना चाहती हूं
सदियां बीत जाती है अपनों को पहचान कर उनसे जुड्ने में
मैं अपने आप से जुडकर आसमान को छूना चाहती हूं .
--
मैं भी बन सकती हूं सीता पर नहीं
नहीं सहूंगी अकारण मैं लोगों की बातें भली बुरी
नहीं बनूंगी राम की अनुगामिनी बनना चाहूंगी सहचरी
नहीं बनने दूंगीं अपने परिवार को किसी मथंरा के मन्त्रणा का शिकार
नहीं मरने दूंगी दशरथ को सहकर अपने वर का प्रहार
अचानक छोड़ राजपाट क्यों भटके राम वन वन
संस्कारी होने की दुहाई दे नहीं रहूंगी तब मौन
मागूंगी न्याय समाज से क्या अग्रज होने का अर्थ है केवल विसर्जन
मैं भी बन सकती हूं सीता पर नहीं
नहीं बनने दूंगीं अपने राम को किसी शूर्पणखा का शिकार
रहूंगी सहचरी बन डोलूंगीं हरदम उनके आसपास
नहीं करुंगी हठ स्वर्ण हिरन के लिए
अगर किया भी तो जाऊंगी संग उसे पाने के लिए
क्यों रहूं घेरे में बन्द खींची गई लक्ष्मण रेखा के मध्य
मैं भी हूं समर्थ इतनी कि खींच सकती हूं रेखा
किसी को रखने के लिए मध्य
डर डर कर क्यों दूं भिक्षा
पहचान कपटी को क्या नहीं कर सकती अपनी रक्षा
तन में आग मन में आग रावण के लिए मेरे हर कर्म में आग
विनती सुन लो अबके हे सीतापति राम
हो उदय विश्व में नारी के प्रति सम्मान
अब से न हो किसी नारी का अपमान
किसी नारी का अपमान। हे सितापति राम हे सितापति राम
मैं भी बन सकती हु सीता पर नहीं डा. रानू मुखर्जी
१७, जे. एम. के.अपार्टंमेन्ट ,ऍच.टी.रोड , सुभानपुरा ,
बडोदा ३९००२३.
---
0000000000000000000
प्रणव भारती
एक कड़ी
-----------
जीवन को नापते हुए
कभी पूरे आकाश से
कभी पूरी धरा से
कभी अहसासों के आँगन से
कभी धुंध भरे प्राँगण से
कभी धड़कते हृदय से
कभी बंद होने की प्रक्रिया में
उलझती साँसों से
एक ही कड़ी
रह जाती है
ताकती ,ऊपर कहीं
टँगी, आकाशीय खालीपन को ताकते
आँखों के आँसुओं में भरे
एक कौतूहल
तलाशती जीवन की
गरिष्ठता को ,जो न जाने क्यों
पच ही नहीं पाती
लम्हों में बिखरे सूनेपन को
बटोरने की कोशिश में
समोने के प्रयास में ,एक चिथड़े में से
झांकती नज़र आती है
सहमती है ,सहमाती है
पलों की दूरी को
परिवर्तित करती मीलों की दूरी में
एक कड़ी
बंधी रह जाती है
मेरे भीतर कहीं
और मैं ! मन की साँकल खोलने में
स्वयं को
अशक्त पाती हूँ
निर्जन अहसासों के बयाबान में
उस कड़ी को खोलने के प्रयास में
जूझती
उम्र के अंतिम चरण तक
जा पहुंचती हूँ ||
नाम ; डॉ. प्रणव भारती
शैक्षणिक योग्यता ; एम. ए (अंग्रेज़ी,हिंदी) पी. एचडी (हिंदी)
लेखन का प्रारंभ ; लगभग बारह वर्ष की उम्र से छुटपुट पत्र-पतिकाओं में लेखन
जिसके बीच में 1968 से लगभग 15 वर्ष पठन-पाठन से कुछ कट सी गई
हिंदी में एम.ए ,पी. एचडी विवाहोपरांत गुजरात विद्यापीठ से किया
शिक्षा के साथ लेखन पुन:आरंभ
उपन्यास;
-----------
-टच मी नॉट
-चक्र
-अपंग
-अंततोगत्वा
-महायोग ( धारावाहिक रूप से ,सत्रह अध्यायों में दिल्ली प्रेस से प्रकाशित )
-नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि
-गवाक्ष
-मायामृग
-शी डार्लिंग (कहानी-संग्रह )
पद्य रचनाएं;
--------------
-एक त्रिशंकु सिलसिला
-चंपक चूहा एवं अन्य बाल-कविताएं (बच्चों के लिए)
-(अप्रकाशित बहुत सी पद्य रचनाएं) भविष्य में प्रकाशित होने की संभावना
अन्य कार्यों में रही संलग्नता ;
-------------------------------
-गुजराती व अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद(कहानी,कविता,उपन्यास आदि)
-NID की योजना ' डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया ' मुंबई के लिए अनुवाद कार्य
-अहमदाबाद एक्शन ग्रुप (असाग) में को-ऑर्डिनेटर के रूप में कार्य
-राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान (NID) में हिंदी अधिकारी के रूप में अनुभव
-इसरो (अहमदाबाद) के शैक्षणिक विभाग (डेकू )के लिए कई नाटकों व कार्यक्रमों का लेखन तथा प्रस्तुति
-इसरो के डेकू विभाग के लिए सरकारी योजना के अंतर्गत (अब झाबुआ जाग उठा) सीरियल का कथानक,शीर्षक गीत एवं संवाद-लेखन (68-70 ) एपिसोड्स का लेखन (भोपाल के लिए)
-इसरो (अहमदाबाद)के माध्यम से भोपाल,इंदौर के लिए पद्य में नृत्य-नाटकों का लेखन
-'एजुकेशन इनीशिटिव्स' संस्था के साथ हिंदी -विशेषज्ञ के रूप में कई वर्षों तक संबद्ध
-( " " " " " " " " " " ) के लिए बच्चों के शिक्षण हेतु लगभग 70 बच्चों की कविताओं का गुजराती से हिंदी में अनुवाद
-आई .आई. एम अहमदाबाद के साथ सात वर्षों तक हिंदी-विशेषज्ञ के रूप में जुड़ाव
-लंदन में 'ए वोयेग ऑफ पीस एंड जॉय ' शीर्षक से फ्यूज़न के लिए 8 भजनों का लेखन
-विभिन्न संग्रहों ,पत्र-पत्रिकाओं में गद्य-पद्य लेखन में भागीदारी
-आकाशवाणी एवं दूरदर्शन में वर्षों से भागेदारी (कविता,कहानी-पाठ,नाटक,साक्षात्कार,चर्चा,संचालन आदि
-Visiting Faculty (CITY PULS FILM & TELEVISON iNSTITUTE ,GANDHINAGAR' अहमदाबाद से तीन वर्ष पूर्व से घर से कार्यरत
सम्मान एवं उपलब्धियाँ ;
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-विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मान
-अंततोगत्वा उपन्यास को हिंदी साहित्य परिषद द्वारा प्रथम पुरूस्कार
-गवाक्ष उपन्यास को रांची से 'स्पेनिन पुरुस्कार ', श्री योगी जी ,मुख्य मंत्री (उत्तर-प्रदेश) द्वारा
'प्रेमचंद नामित पुरूस्कार
-'राही रैंकिंग' में विश्व के 100 हिंदी -लेखकों में नाम दर्ज
संलग्न
-------
-उपन्यास 'हिरण्यगर्भ:' (शीर्षक में बदलाव अपेक्षित)
-कहानियाँ , पद्य-रचनाएँ विभिन्न पत्रों व वेब पत्रिकाओं के लिए
-कई संस्थाओं से जुड़ाव
-विराट-वैभव हिंदी दैनिक-पत्र 'दिल्ली' चार विभिन्न स्थानों क्रमश:जयपुर,जोधपुर व अहमदाबाद में प्रत्येक रविवार को लेख 'उजाले की ओर' का प्रकाशन (वर्षों से )
शौक;
कत्थक नृत्य ,भारतीय शास्त्रीय संगीत,पठन,लेखन
निवास;
डॉ. प्रणव भारती
'ललितश्रुति' 31 ,उमेद पार्क
सोला-रोड़
घाटलोडिया ,अहमदाबाद 61
0000000000000000000
कंचन खत्री
जज़बाती दिल कुछ भुला बैठा है,
गम का नकाब पहने बैठा है।
इसे हटा ना पाएगा कोई अंधी तूफान,
बना रहेगा समुद्र की लहरों सा उफ़ान।
दूसरों गम में कब तक जियोगे,
कुछ तो खुद के भी राहगीर बनोगे।
चंचल मन में कितनी कड़वाहट भर पाओगे,
आख़िर कब तक खुद से मुख मोड़ पाओगे।
पानी सिर पार कर जायेगा,
दिल तू कब तक जज़बाती बना रहेगा।
--
#_सच्ची यारी_#
सच्ची यारी हैं जुड़ी ए दोस्तों तुमसे,
हम जैसे भी हैं बस सदा जुड़े रहना हमसे।
मुसीबत में साथ दिया हर पल हक से,
मेरी नादानियों को माफ़ किया बेशक़ दिल से।
गलत फहमियों में हम झगड़ लिये एक दूसरे से,
पर दोस्ती का सफ़र बनाते गये गहराई से।
मुख ना मोड़ना कभी मुश्किलों से,
बांधे रखना मुझे अपने साये से।
सच्ची यारी हैं जुड़ी ए दोस्तों तुमसे।
मस्ती के पल ना भूलेंगे हम भूल से,
दूर रहेंगी हमारी दोस्ती हर इम्तिहानों से।
आजीवन याद रहेंगे साथ खेले खेल सदा से,
दूर ना कर पाउंगी हमारा बचपन ख्यालों से।
माना दोस्ती नहीं निभती एहसानों से,
पर जिंदगी पूरी नहीं होती बिना दोस्तों के एहसानों से।
रब से दोस्त मिले फरिश्तों से,
सच्ची यारी हैं जुड़ी ए दोस्तों तुमसे।।
00000000000000000
नवनीता कुमारी
लोग कहते है कि माँ कैसी होती हैं,
मैं कहती माँ बस माँ जैसी होती हैं|
ना मंदिर की मूरत हैं,ना मस्जिद के अल्लाह की सूरत |
माँ की प्रीत का असर दवा में दुवाओं जैसा होता है,
माँ सहनशीलता की मूरत होती हैं |
हर बच्चा अपनी माँ की छवि होता है,
दुनिया में बस एक यही रिश्ता सच्चा होता |
बचपन में हर बच्चे की माँ के लिए नादानी होता है,
और बड़े होने पर बच्चे के लिए माँ से रिश्ता ही बेमानी होता है |
माँ का अर्थ ' मेरे पास मेरे बच्चे का हर संकट आ 'हर माँ के लिए होता है,
माँ जैसी रिश्ते का कोई मोल नहीं |
लोग कहते है माँ कैसी होती हैं,
मैं कहती हूँ माँ बस माँ जैसी होती हैं ||
000000000000000000
चंचलिका
" कचरा "
वह था छोटा सा
प्यारा सा बच्चा
साथ में थी
उसकी बेबस माँ ।
मैली कुचली
चिथड़ों में लिपटी
कचरे की बोरी साथ लिए........
ये दोनों
साथ थे मेरे ।
सफ़र में
हमसफ़र बनकर ।
माँ के कदम थे
थोड़े से लड़खड़ाये ।
हलक़ से उतरे थे उसके
एक बोतल ज़हर.......
अपने दर्द
भुलाने का
तरीक़ा उसका ग़लत था।
दुनिया के तानों ने
बच्चे को बहुत
रुलाया था.........
बच्चे ने दुनिया की
बेरुख़ी देखी ।
शर्मसार होकर
माँ से बोला,
" अब उठ जा माँ,
फिर बेहोश न होना ।
डर लगता है ,
माँ, मर न जाना ।
इस ज़ालिम दुनिया ने
हमें कुछ न दिया
सिवाय नफ़रत के ।
तेरे सिवा मेरा कोई नहीं ।
अब उठ जा माँ,
देख मरना नहीं "........
मेरे भीगे नैनों ने देखा
उन ज़िल्लत भरी
मासूम निगाहों को ।
बेबस होकर जो हर पल
सम्हाल रहा था
अपनी मजबूर माँ को........
आखिर बच्चा ही था ।
दुनिया की क्रूर मंशा से
वह थक हार कर वापस चला
अपनी झोपड़ी की ओर ।
कचरे की बोरी साथ लिए........
---- .
" सूखी झुर्रियां "
सूखी है काया
मगर हृदय का स्पर्श
अभी बाकी है
उम्र गुज़र गई
मगर एहसास
अभी बाकी है.....
ये घनेरी छाँव है
झुर्रियों का मोहताज़ नहीं
जन्नत इसी स्पर्श में है
बाकी और कहीं नहीं.....
रुपये पैसे ऐश ओ आराम
कुछ भी रास नहीं आते
जिनके घर में ऐसा स्नेह नहीं
वो घर सूने से रह जाते.....
जड़ जहाँ मज़बूत नहीं
डाल, पत्ते कुम्हला जाते हैं
घर की बुनियाद बुज़ुर्ग ही होते
बिन उनके सब अधूरे लगते हैं....
---- चंचलिका.
00000000000000000000
सचिन राणा हीरो
""" तुम हो """
मेरे जीवन का आधार हो तुम,, मेरी खुशियों का संसार हो तुम,,
बड़ी मुश्किल से तुमको पाया,, मेरी लोरी का अल्फाज़ हो तुम,,
मेरी आंखों के सितारे हो,, मेरे आंगन के राज दुलारे हो,,
मेरे जीवन रूपी आसमान के, तुम ही तो ध्रुव तारे हो,,
मेरे साजन की छाया हो, मेरी चौखट का शृंगार हो तुम,,
मेरे जीवन का आधार हो तुम, मेरी खुशियों का संसार हो तुम,,
मेरे उपवन के पौधे तुम, तुम ही फूल चमन हो,,
मेरी आंखों में सजते, तुम ही नयन कमल हो,,
मेरे आंचल के इन्द्रधनुष के , अद्रित रंगदार हो तुम,,
मेरे जीवन का आधार हो तुम, मेरी खुशियों का संसार हो तुम,,
मेरे खुश होने की आदत हो, मेरे जगने का बहाना हो,,
मैं हुं तेरी यशोदा मां ,, तुम ही तो मेरे कान्हा हो,,
तेरी मीठी बोली जैसे , नंदलाला का अवतार हो तुम,,
मेरे जीवन का आधार हो तुम, मेरी खुशियों का संसार हो तुम,,
राणा की यही गुज़ारिश रब से, बस इतनी सी फरमाइश है,,
बेटा चले ना गलत मार्ग पर, हर मां की यही बस ख्वाहिश़ है,,
मेरे ख्वाबों की दुनिया का, एक सच्चा सपना साकार हो तुम,,
मेरे जीवन का आधार हो तुम, मेरी खुशियों का संसार हो तुम,,
मेरे साजन की छाया हो, मेरी चौखट का शृंगार हो तुम ।
सचिन राणा हीरो
कवि एवं गीतकार
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ब्रजेश त्रिवेदी
खेल पुराने खेलूं , तेरे पल्लू में छिप जाऊं
छिप कर में तुझे बुलाऊ , न दिखूं तुझे रुलाऊं
तेरी रोती आँखें , मुझको गली गली में देखे
मैं देख तुझे छिप जाऊं, फिर से बच्चा बन जाऊँ
खबर नहीं थी की इक दिन ये सब सपने बन जाएंगे
बचपन वाले ये दिन , क्या फिर न आ पाएंगे
जब मचल कर सब चीजें ले लेते थे
अब चाह नहीं है कुछ , बस फिर से बच्चा बन जाऊँ
सुबह सुबह तू मुझे जगाती , मीठी चाय पिलाती
देख कर चार चवन्नी, खेतों में संग ले जाती
खुद धूप में तपती ,मुझको छाँव छुपाती
अब मैं तप जाऊँ ,तेरी गोदी में छुप जाऊँ
अम्मा बस तू इतना कर दे
मैं फिर से बच्चा बन जाऊँ
भैया के संग , राजा बन मेला जाऊँ
भाभी को रोज तंगा कर , फिर भग जाऊँ
फिर वो मुझे बुलाये , अपने हाथों से नहलाये
धीरे से बात ब्याहने की ,कह मुझे चिढ़ाये
चिढ़ते मौसम की फिर , भाभी को याद दिलाऊँ
अम्मा कुछ तो कर , मैं फिर से बच्चा बन जाऊँ
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बाल कविताएँ
-जियाउर रहमान जाफ़री
पानी -पानी
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सबकी देखो यही कहानी
सब कहते हैं पानी -पानी
है ये तो बरसात का मौसम
बारिश वाली रात का मौसम
माना बिजली चमक रही है
बूंद एक न टपक रही है
बादल भी आकाश पे छाता
लेकिन फ़ौरन ही छट जाता
सूख रहे हैं नदियाँ -नाले
बहुत दुखी हैं खेतों वाले
आसमान से आस लगी है
चिड़ियों को भी प्यास लगी है
बूंदें बारिश की जो आती
ख़त्म ये गरमी भी हो जाती
काश अगर हम पेड़ लगाते
होती बारिश खूब नहाते
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हाई स्कूल माफ़ी
वाया.. अस्थावां
ज़िला.. नालंदा
803107
बिहार
9934847941
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मौलिक, अप्रकाशित, तथा अप्रसारित
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परिचय
हिन्दी से पीएचडी, पत्रकारिता,, बीएड
कुल सात पुस्तकें प्रकाशित, पत्र पत्रिकाओं में नियमित लेखन
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अविनाश तिवारी
लो हो गयी छुट्टियां गर्मियों की
मन में जगी आस
अपनों से मिलने उत्सुक है
होगी मीठी बात
कुछ शादियों में जायेंगे जमकर धूम मचाएंगे
बच्चे नाना नानी को नाको चने चबाएंगे
दादा दादी से मिलकर सुनेंगे नई कहानी
टीवी होगा अपना बेट बल्ला होगा जानी
नहीं घूरेंगे मम्मी पापा चलेगी अपनी मनमानी
छुपम छुपाई खेलेंगे अमरैया में झूमेंगे
तालाब में होगी तबडक तबडक
बड़े मजे से तैरेंगे।
नज़र न लगाना कोई छुट्टी पर
बचपन इसे तरसता है।
मिले गांव की मीठी महक
संस्कार हमे यहीं मिलता है।
सभी बच्चों बड़ों को गर्मी की छुट्टियां की
अनेकाधिक बधाई
#अवि
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
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सार्थक देवांगन
कठपुतली
मै कठपुतली हूं
मै इशारों से नाचती हूं ।
मुझमे उतनी ताकत नहीं
कि खुद निर्भर रह पाऊं ।
डोरियो ने सम्भाला है
उन्होने ही पाला है ।
गुस्सा तो आता है
परंतु ना खुद पर अधिकार
ना है कोई आजादी
ना पता है उम्र
ना पता है नाम
बस ऐसे ही रहना है ।
डोरियो से बंधे बंधे
जीना है हर दम ।
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गर्मी
खत्म परीक्षा बंद पढ़ाई
बडी मुश्किल से छुट्टी आई ।
दिन भर होगी धमा चौकडी
शैतानी की कसम है खाई ।
हल्ला गुल्ला खूब करेंगे
लस्सी शर्बत जीभर पिएंगे ।
सैर करेंगे चिड़िया घर की
गप्पे लड़ायेंगे दुनिया भर की ।
खाएंगे सब कुछ भर भर के
खिलखिलाएंगे जोर जोर से ।
क्योंकि
बड़ी मुश्किल से छुट्टी आई ।
सार्थक देवांगन
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