पत्नी का अपने सैनिक पति को पत्र हथेली पर लिख दो न पिया मेंहदी से यह पैगाम भारत माँ सदा रहे सुहागन मेरा सिंदूर उन पर कुर्बान जो काम न आये देश...
पत्नी का अपने सैनिक पति को पत्र
हथेली पर लिख दो न पिया
मेंहदी से यह पैगाम
भारत माँ सदा रहे सुहागन
मेरा सिंदूर उन पर कुर्बान
जो काम न आये देश का
वह सिंदूर बेकार
तेरे नाम के सिंदूर पर पिया
जाऊं कोटि बलिहार
तुम कहते हो- मैं कुछ मांगू
पर बिन मांगे सब कुछ पाऊं
तेरे एक चुटकी सिंदूर से साजन
मेरा सोलहो श्रृंगार
लो, आज तुमसे कुछ मांग रही
देने को तैयार रहो
भारत की बलवेदी पर प्रियतम,
बलि का तुम तलवार बनो !
जो सिंदूर तुझे समर्पित था -
अब है अर्पित भारत के नाम
मांग मेरा उजड़ जाय तो क्या
सदा सुहागन हो भारत मां
इस वर्ष की होली पर
तुझे चार रंग मैं भेज रही
इन रंगों से ही होली खेलना
बस इतनी अरज मैं कर रही
तीन रंग वीरों का है-
श्वेत, हरा और केसरिया
चौथा रंग वीरॉगनाओं का है
जिससे मॉग सजाती नारियां
हरे रंग से होली खेलना
देश के वीर किसानों से
जो दूसरों की भूख मिटाते हैं
और खुद ही भूखे सो जाते हैं
श्वेत रंग से होली खेलना
सत - पथ के अनुगामी से
अमन - चैन के रखवालों से,
देश भक्त स्वाभिमानी से
केसरिया रंग से होली खेलना
परम वीर बलिदानी से
जो सरहद पर शीश चढ़ाने आते
अपनी भरी जवानी में
चौथा रंग सिंदूर का है
लो, इसे कुर्बान कर रही
भारत मां की सेवा में
लो, इसे न्यौछावर कर रही
गर दुश्मन आये एक इंच भी
अपने देश के अंदर
उससे लहू की होली खेलना
उसके सीने को चीरकर
संगीनों की पिचकारी से
उससे सिंदूरी होली खेलना
उसके एक पग के बदले
उसका अंग- अंग कतर देना
दुश्मन के दु:साहस को
शमन- दमन तुम कर देना
अगर गोली लगे सीने में तो
अपने लहू से जय हिंद लिख देना
सरहद पर जान लुटाने का-
अंदाज तुम्हारा देखूंगी?
प्रियतम मेरा कितना ऊंचा
अंबर से मैं यह पूछूंगी
पर एक बात का दुख हमें है
यह कैसी परिभाषा है
अगर शहीद अमर होते हैं तो
उनकी पत्नी कैसे विधवा है ?
मेरी अरज बस इतनी है -
यह परिभाषा अब बदलनी होगी
जो निज पति को करती कुर्बान
उसे चिर सुहागन कहनी होगी
यह खत तुझे मैं भेज रही हूं
तुम सीमा पर डटे रहो,
तुम वहां नव इतिहास रचो
मैं यहां नई परिभाषा लिख रही हूं
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श्रीप्रकाश सिंह ( उपनाम : मनोज कुमार सिंह), सलाहकार, राष्ट्रीय मयूर, मासिक पत्रिका, दिल्ली, मो. न. 9436193458 ( यह कविता दिल्ली से प्रकाशित अभिनव इमरोज पत्रिका में प्रकाशित है)
गंगा संताप
गंगा की लहरें रो- रोकर पुकारे
सदियों से बहती हूं तेरे लिये प्यारे
पाप धोते सूख गयीं-
मेरे अंसुअन की धारें
गंगा की लहरें-------------------------
मैंने तुम्हें पाक किया
तूने पंक मुझमें डाले
ऊपर से और तुमने
बहा दिया मुझमें नाले
अब तो मेरे लाल, कर कुछ विचार रे
गंगा की लहरें--------------------
हाथ जोड़ कहती हूं, सुनो, रे दुलारे
बूढ़ी होकर सूख रही हूं, अब तो बचा रे
जीऊं तो जीऊं कैसे,
किसके सहारे
गंगा की लहरें-------------------------
कई टुकड़े तुमने किये,अपनी मां के मेरे शरीर को
कैसा तू लाल मेरा, नहीं समझे मेरे पीर को
कूड़ा- कचरा, मल, मैला
अब मत बहा रे
गंगा की लहरें------------------------
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मनोज कुमार सिंह उर्फ श्रीप्रकाश सिंह, सलाहकार, राष्ट्रीय मयूर, मासिक पत्रिका, दिल्ली, एसोसिएट मेम्बर, फिल्म राइटर्स एसोसिएशन, मुम्बई मो. न. 9436193458 (यह कविता साहित्य अमृत पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है ।)
चलो, चले उस पार प्रिये !
चलो, चले उस पार प्रिये,
क्या रखा इस पार प्रिये !
इधर मुर्दाघर, उधर मधुशाला
इधर लुटेरा, उधर रखवाला
उधर ही जीवन- सार प्रिये,
चलो, चले उस पार प्रिये !
इधर क्षार, उधर क्षीर है
इधर कछार, उधर नीर है
इधर व्यापार, उधर प्यार प्रिये,
चलो, चले उस पार प्रिये !
इधर दैत्य, उधर देव है
इधर प्रेत, उधर श्रेय है
इधर बाजार,उधर घर-द्वार प्रिये,
चलो, चले उस पार प्रिये !
इधर तम घन, उधर स्वर्ण किरन
इधर व्यथा है, उधर मगन मन
उधर ही श्रृंगार प्रिये,
चलो, चले उस पार प्रिये !
प्रीति की पीली पहन चुनरिया
अब मत जोगन बनु रे गुजरिया
अपना घूंघट उघार प्रिये,
चलो, चलें ! उस पार प्रिये !
श्रीप्रकाश सिंह (उपनाम: मनोज कुमार सिंह), स्नातकोत्तर अध्ययन महविद्यालय, उमियाम-793103 शिलॉग,मेघालया, मो. न. 9436193458 ( यह कविता अभिनव इमरोज पत्रिका के अप्रेल, 2019 अंक में प्रकाशित
है ।)
तू नदिया मैं हूं तीर
तू नदिया, मैं हूं तीर
तू है क्षीर, मैं रिक्त नीर
तू कल-कल, मैं क्रंदन हूं
तू रून-झुन, मैं रोदन हूं
तू है प्रीति, मैं हूं पीर
तू नदिया, मैं हूं तीर
तू है मधु, मैं मदिरा
मैं हूं तम घन, तू सबेरा
तू है आत्मा, मैं शरीर
तू नदिया, मैं हूं तीर
मैं हूं आह, तू सुरभित स्वर
मैं भग्न दीप, तू ज्योति प्रखर
तुम हो तकदीर, मैं लकीर
तू नदिया, मैं हूं तीर
तुम सावन की शीतलता
मैं दग्ध मरू की उष्णता
तू है अमीर, मैं फकीर
तू नदिया, मैं हूं तीर
तुम विमला, कमला, निर्मला
मैं धूलधूसरित, मटमैला
तुम हो चंदन, मैं गिरा अबीर
तू नदिया, मैं हूं तीर
श्रीप्रकाश सिंह (उपनाम: मनोज कुमार सिंह), स्नातकोत्तर अध्ययन महविद्यालय, उमियाम-793103, शिलॉग,मेघालया, मो. न. 9436193458 ( यह कविता कविताएं अभिनव इमरोज पत्रिका के अप्रेल, 2019 अंक में प्रकाशित है ।)
कविता
जिसके पास जमीर नहीं है
सचमुच वह अमीर नहीं है
राजा नहीं, वह रंक है भाई
मन से जो फकीर नहीं है
मां से बढ़कर दुनिया में
दूजी कोई जागीर नहीं है
हाथ की रेखायें क्या देखूं
लकीर में तकदीर नहीं है
चित्र तो चित में होता है
दर्पण में तस्वीर नहीं है
आँखों के आँसू- सा पावन
जग में कोई नीर नहीं है
उस दरवाजे की क्या हस्ती है
जिसमें कोई जंजीर नहीं
वो ऊंचाइयॉ कितनी बौनी है
जो ओछी है, गंभीर नहीं
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श्रीप्रकाश सिंह ( उपनाम : मनोज कुमार सिंह), सलाहकार, राष्ट्रीय मयूर, मासिक पत्रिका, दिल्ली, सलाहकार संपादक, कंचन मेधा, मो. न. 9436193458 ( यह कविता साहित्यिक पत्रिका “ साहित्य अमृत में प्रकाशित हो चुकी है ।)
मैं बुलबुला हूं
तो क्या हुआ ?
मैं बुलबुला हूं !
जबतक जिया
हरदम खिला हूं ।
सागर दहाड़ से
तुम डरो,
मैं तो लहरों से लड़कर
उनकी पलकों पर झुला हूं ।
अस्तित्वहीन नहीं,
अनंत हूं,
विशाल जलराशि का
अंतरंग हूं ।
शील हूं, शर्मीला हूं,
नटखट, गर्वीला हूं,
शबनम और शोला हूं
मैं अलबेला हूं ।
चंद पल के जीवन में
चुनौतियों से खेला हूं
आँधी-तूफानों को भी झेला हूं
मैं बुलबुला हूं ।
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श्रीप्रकाश सिंह ( उपनाम : मनोज कुमार सिंह), सलाहकार, राष्ट्रीय मयूर, मासिक पत्रिका, दिल्ली, सलाहकार संपादक, कंचन मेधा, मो. न. 9436193458 ( अप्रकाशित कविता )
प्रश्न
कुबेरों की यह बस्ती है,
भूखमरी यहां बहुत सस्ती है ।
हर रात घुंघुरूओं की झंकार
हर सुबह कौन सिसकती है ?
रंग महल की रंगत में,
फांसी की किसकी रस्सी है ?
यह पूछे, किसकी हस्ती है,
यहां मातम, वहां क्यों मस्ती है ?
अपनी डफली, अपना राग,
हर ओर जोर - जबरदस्ती है ।
जीवन के आपाधापी में,
रिश्तों में खुदपरस्ती है ।
जिस मां ने दिया जीवनदान,
हर पल क्यों वह मरती है ?
हाय ! मानवता हुई कंगाल,
बस मुर्दों की ही गश्ती है ।
कैसे करूं मैं दलदल पार,
चारों ओर नरभक्षी हैं ।
किस नौका पर मैं होऊं सवार
टूटी – फूटी हर कश्ती है ।
टूट रहे सांसों के तार
शासन की कैसी वंशी है ।
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श्रीप्रकाश सिंह ( उपनाम : मनोज कुमार सिंह), सलाहकार, राष्ट्रीय मयूर, मासिक पत्रिका, दिल्ली, सलाहकार संपादक, कंचन मेधा, मो. न. 9436193458, (अप्रकाशित कविता)
)
आओ, चले नजारे देखें !
आओ, चले ! नजारें देखें
धूल फांकते तारे देखें
कौवों की महफिल सजी है
हंस बैठे किनारे देखें
सागर में खींच गई लकीरें
अब अम्बर में दीवारें देखें
सांसों में है धुंआ - धकड़ा
मन में फटी दरारे देखें
सियासत की अजब कहानी
हर पात्रों में तकरारें देखें
आज कितनी कलियां कुचली
आओ, चलें अखबारें देखें
मानवता बिक रही है सस्ती
सजी दुकानें - खरीदारें देखें
आओ, चले नजारे देखें
श्रीप्रकाश सिंह ( उपनाम : मनोज कुमार सिंह), सलाहकार, राष्ट्रीय मयूर, मासिक पत्रिका, दिल्ली, सलाहकार संपादक, कंचन मेधा, मो. न. 9436193458, (यह कविता सृजनलोक प्रकाशन के “समकालीन कविता” संग्रह में प्रकाशित हो चुकी है ।)
गांव की गलियों में रौनक बहुत है
गांव की गलियों में रौनक बहुत है
बाग - बगीचों में मधुरस बहुत है
कभी आकर देखो, ऐ देवराज ईंद्र
खेत- खलिहानों में परियां बहुत हैं
सावन के मौसम में गांवों में आना
धान रोपती देखना कितनी ही रम्भा
घास गढ़ती मेंढ़ों पर मेनका बहुत है
खेत- खलिहानों में परियां बहुत हैं
बाग- बगीचों में जब पड़ जाते झूलें
गली और कूंचों में कजरी जब गूंजे
नाचती रति, झूले अप्सरा बहुत हैं
खेत - खलिहानों में परियां बहुत हैं
आम मोजराये जब महुआ कोचियाये
वसंत अनंग संग पवन रथ पर आये
पीले सरसों में सजती उर्वशियां बहुत हैं
खेत - खलिहानों में परियां बहुत हैं
मादक उमंग ले जब चले पुरवाई
देखना,तुम शाम को छत पर कौन आई
भेजती पतंग- पाती तिलोत्मा बहुत है
खेत - खलिहानों में परियां बहुत हैं
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मनोज कुमार सिंह उर्फ श्रीप्रकाश सिंह, सलाहकार, राष्ट्रीय मयूर, मासिक पत्रिका, दिल्ली, एसोसिएट मेम्बर, फिल्म राइटर्स एसोसिएशन, मुम्बई मो. न. 9436193458
“आह”
आँखों में आँसू, होंठों पर आह
मुरझा गई है अधखिली कली,
रौंदा, कुचला, मसला उसको
हाय ! बेदर्दी, यह क्या कर दी !
अपने हवस में इतने गिर गये हो,
मानव नहीं, तुम गिद्ध बन गये हो;
लपका, झपटा,नोचा उसको,
शरीर उसका क्षत-विक्षत कर दी !
सांसें उसकी थम रही है,
दिल की धड़कन मंद पड़ रही है;
नाजुक तन लहू से लथ- पथ
अर्ध नग्न वह तड़प रही है |
चीख रही है वह सुकुमारी,
रो रही है दुनिया सारी ;
बिलख रहे हैं उसके खेल- खिलौने,
सिसक रही है उसकी गुड़िया प्यारी |
पर ऐ बेदर्दी, तुम्हें दर्द कहां है,
अपने दुष्कर्मों पर तुझे शर्म कहां है !
गुड़ियों के जो साथ खेलती,
उससे तुम मुंह काला कर ली !
वह एक नन्ही-सी चिड़िया थी,
जो घर- आंगन में फुदक रही थी;
अम्बर में उड़ने की आशा ले,
अपने मन में चहक रही थी |
तितलियों के संग दूर देश
जाने घर से निकली थी,
दो कदम वह अभी चली थी
कि तेरी बुरी नजर पड़ी थी |
ऐ पतित, उसके पथ में
क्यों खेला यह खेल घिनौना ?
मानवता चीत्कार उठी है,
हिमालय ने भी सिर नीचे कर ली |
अपना पतन और कितना करोगे ?
जा ! सोच बैठ, अकेले में,
जो आरती की दीपशिखा- सी थी
उसे बुझाकर तुम पाप न कर दी ?
कितनी बालायें दम तोड़ रही हैं
तेरे क्रूर करतूतों से,
और कितनी बालायें आहत होकर
अभी- अभी खुद्कुशी कर ली !
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मनोज कुमार सिंह उर्फ श्रीप्रकाश सिंह, सलाहकार, राष्ट्रीय मयूर, मासिक पत्रिका, दिल्ली, एसोसिएट मेम्बर, फिल्म राइटर्स एसोसिएशन, मुम्बई मो. न. 9436193458
मैं तन नहीं, अंतर्मन देखता हूं
मैं तन नहीं, अंतर्मन देखता हूं
बूढों के अंदर बचपन देखता हूं
नहीं पढ़ता हूं हर गीत - गजल
मैं शब्दों के अंदर शबनम देखता हू
मैं कीचड़ के अंदर कमल देखता हूं
मैं कॉटों के अंदर सुमन देखता हूं
सिर्फ तारें - सितारें निरखता नही
मैं लपटों के अंदर तड़पन देखता हूं
मैं भावों में सबरी का जूठन देखता हूं
लेखनी के अंदर अल्हड़पन देखता हूं
मैं पिंजड़े का पंछी नहीं यारों,
मैं उड़ने के लिये गगन देखता हूं
मैं विचारों को भावों से अलंकृत करता हूं
मैं व्याकरण नहीं, साहित्य पढ़ता हूं
जिसमें सत्यम, शिवम, सुंदरम नहीं
उसे मैं कभी नहीं साहित्य कहता हूं
मनोज कुमार सिंह उर्फ श्रीप्रकाश सिंह, सलाहकार, राष्ट्रीय मयूर, मासिक पत्रिका, दिल्ली, एसोसिएट मेम्बर, फिल्म राइटर्स एसोसिएशन, मुम्बई मो. न. 9436193458
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लेखक परिचय एवं साहित्य के क्षेत्र में योगदान
नाम : श्रीप्रकाश सिंह
उपनाम : मनोज कुमार सिंह
पिता का नाम : स्व. केशव सिंह
माता का नाम : श्रीमती फूलझरी देवी
स्थायी पता : ग्राम- इब्रहिमाबाद, पोस्ट- इब्रहिमाबाद, जिला- बलिया, उत्तर प्रदेश
पत्राचार का पता : कॉलेज ओफ पोस्ट ग्रेजुएट स्ट्डिज
सेंट्रल एग्रीकल्चर युनिवर्सिटी, उमियाम, बारपानी- 793103, शिलॉग, मेघालय
Email- singhmanojprakash@gmail.com
जन्म तिथि : 15/07/1969
शैक्षणिक योग्यता : एम. ए., बी. एड.
व्यवसाय : सरकारी नौकरी
सदस्यता : Ex-Associate Member, Film Writer Association
प्रकाशित पुस्तक : उपन्यास- मंगलसूत्र
: काव्य- मेरी प्रेयसी
इसके अतिरिक्त “अभिनव इमरोज”, साहित्य अमृत, शब्द प्रवाह साहित्यिक पत्रिकाओं सहित अन्य विभिन्न राष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रका शन ।
साहित्यिक पदभार एवं कार्य :
1-स्नातकोत्तर अध्ययन महाविद्यालय, कृषि विश्वविद्यालय, उमियाम, रि-भोई, मेघालय में गठित हिंदी समिति के सचिव के रूप में हिंदी के प्रचार-प्रसार का कार्य्।
2- सदस्य, सलाहकार मंडल एवं स्तंभकार, मासिक हिंदी पत्रिका “राष्ट्रीय मयूर”,नई दिल्ली ।
3- सलाहकार संपादक- कंचन मेधा, अध्यात्मिक पत्रिका ।
पुरस्कार एवं सम्मान 1- वर्ष 1996 में स्नातकोत्तर महविद्यालय, खलीलाबाद मे आयोजित भाषण एवं वाद-विवाद प्रतियोगिता में क्रमश: प्रथम एवं द्वितीय पुरस्कार.
2-“साहित्य रत्न” 2012 ( समता साहित्य अकादमी, महाराष्ट्र के सौजन्य से डॉ माता प्रसद, पूर्व राज्यपाल, अरूणॉचल प्रदेश के द्वारा 26 मई,2012 को मुम्बई में आयोजित राज्यस्तरीय एवं राष्ट्रीय गौरव पुरस्कार 2012 के अंतर्गत प्रदान किया गया)
3- भारतीय दलित साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा वर्ष 2012 का ‘डाँ. भीम राव अम्बेडकर राष्ट्रीय फेलोशीप सम्मान’ 2012.( यह सम्मान भारतीय दलित साहित्य अकदमी, नई दिल्ली के दो दिवसीय 28 वें राष्ट्रीय सम्मेलन दिसम्बर 9 -10,2012 मे प्रदान किया गया)
4- “अखिल भारतीय साहित्य सम्मान 2013” शब्द प्रवाह साहित्य मंच उज्जैन, मध्य प्रदेश द्वारा प्रदान किया गया |
5-माण्डवी प्रकाशन फेसबूक ग्रुप द्वारा 3/3/2013 को आयोजित QATA’AT AUR MUKTAK प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार
6- India+ Nepal Friendship International Award -2013 “ से सम्मानित. यह सम्मान 10 /11/2013 को कठमाण्डु, नेपाल में आयोजित समता साहित्य अंतर्राष्ट्रीय साहित्यकार सम्मेलन-2013 मे नेपाल अकैडेमी के चांसलर माननीय तिल विक्रम नियांग द्वारा दिया गया.
7 -पूर्वोत्तर हिंदी एकेडेमी, शिलॉग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मेलन एवं अखिल भारतीय लेखक सम्मान समारोह में “ डॉ. महारज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान- 2014” से सम्मानित |
8- भारतीय वाड्मय पीठ, साहित्यिक संस्था, कोलकता द्वारा “ युगपुरूष स्वामी विवेकानंद पत्रकार- रत्न सारस्वत सम्मान- 2016.
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