गरीब की बददुआयें कभी खाली नहीं जाती। संस्मरण- आत्माराम यादव पीव मुझ निर्दोष को तुम जेल भेज रहे हो, गालियां बकते हुये बेरहमी से पीट रहे हो,...
गरीब की बददुआयें कभी खाली नहीं जाती।
संस्मरण-
आत्माराम यादव पीव
मुझ निर्दोष को तुम जेल भेज रहे हो, गालियां बकते हुये बेरहमी से पीट रहे हो, जबकि जेल तुम्हें होनी थी,तुम्हारा अपराध छिपाकर मुझे चोरी में अन्दर भेज रहे हो । मैं और मेरी पत्नी तुम्हारे खेत में तुम्हारी बनाई टपरिया में 8 साल से रहते हुये हरवाई का काम कर खेती की देखभाल करते आ रहे है और तुम्हारे घर का भी काम करते है तुम्हारी मॉ, बहिन,पिता भाई सबके काम करने के बाद मैं उनका चहेता था आज चोर हो गया हूं, इसलिये कि मुझ गरीब ने तुम्हें जेल जाने से बचाकर तुम्हारा अपराध छिपाया। मैंने ही नहीं सभी ने उसे बददुआयें देते सुना, मैं अन्दर ही अन्दर कराह रहा था और वे गालिया बकते उसे पीट रहे थे और कहते कहीं कौआ के कोसने से जानवर मरा है। डेढ़ घन्टे के सफर में वह सुबकता रहा, उसपर जब भी लात घूसे पड़ते वह चीख उठता। आखिरकार उसने अपने कुलदेवता को जिसे वह देवबाबा कह रहा था से उसने आँखें बंद करके कहा कि मैंने जिंदगी में आपसे कभी कुछ नहीं मॉगा, पर आज मॉगता हूं अगर मैं सच्चा हूं और मैंने कोई अपराध नहीं किया है मुझे जेल भेजने वाले के घर का सर्वनाश कर देना, एक महीने के अन्दर उनके घर का कमाऊपूत मर जाये, यह अरदास पूरी कर देना। वे बड़े कठोर थे जो पिटाई करते और ठहाका लगाकर हॅसते रहे और उसे चिढ़ाकर कहते कि तेरे कहने से कोई मरेगा। उसे गंदी गदी गालियां बकी जाती कि तू बददुआ देगा । वह पिटता और अपनी जुबान से यही बददुआ को बीसों बार होशंगाबाद पुलिस थाने पहुंचने तक दोहराता रहा। पुलिस वाले उसे पीट रहे थे, साथ में कुछ स्वजातीय भाई भी थे जो उसे पकड़ने टिमरनी पहुंचे थे वे भी उसे थप्पड़ों से पीट रहे थे । वह टिमरनी कृषि मण्डी से होशंगाबाद तक पिटते आया और मैं शून्य में ताकते हुये आश्चर्य से भरा हुआ था तथा जो भी उसे पीटता उसे रोकने की कोशिश करता कि मत मारों भाई लेकिन पुलिस थाने से टीआई के साथ बैठे पुलिसवाले और मुझ सहित दो अन्य स्वजातीय भाई उसे बेरहमी से पीटते रहे, और मुझे ताने देते रहे कि तुम एक चीटी नहीं मार सकते तो किसी को क्यों मारोंगे, कुछ मुझे डरपोक, तो कुछ साधु बोलकर मेरा मजाक बनाते, मैं बेबस, लाचार उसे पिटते देखने को विवश था और मेरे सामने ही वह उभरते बंधु विराजमान थे जिन्हें वह चोर बदददुआ दे रहा था।
जब यह घटना घटी तब साल 1997 के नवम्बर माह का आखरी सप्ताह चल रहा था। मैं यादव समाज से उस समय पहला उभरता हुआ पत्रकार के साथ समाजसेवा से राजनीति में पकड़ रखने लगा था। चूंकि यादव महासभा के जिलाध्यक्ष के साथ स्थानीय श्रीकृष्ण व्यायाम शाला में संयोजक का दायित्व भी मेरे पास था तब हिन्दकेसरी पहलवान चंदगीराम का सम्मान समारोह आयोजित करने के कारण नगर के पहलवानों सहित अन्य लोग सम्मान देने लगे थे। उन्हीं दिनों मध्यप्रदेश के तत्कालीन उपमुख्यमंत्री सुभाष यादव जी एक शाम मेरे घर आये तब उनके आने से पर उनके साथ आये बड़े नेताओं, प्रशासनिक अमले के पाच साठ वाहनों के मोहल्ले में आने से लोग हतप्रद थे और सुभाष यादव जी मेरे माता पिता जी से स्नेहपूर्ण भेट कर मेरे बेटे को आर्शीवाद दिया। उसके बाद वे मेरे बुलाने पर ग्वालटोली काली मंदिर पर दो बार ओर आये। बस उसके बाद जिले के प्रशासनिक अधिकारियों व स्थानीय नेताओं से मुझे कुछ ज्यादा ही सम्मान व स्नेह मिलने लगा था, या यूं कहूं मेरी पकड़ प्रशासनिक अधिकारियों के बीच मजबूत हुई थी। जिसका लाभ मैं तो नहीं ले पाया लेकिन समाज के कुछ लोग पुलिस थाने, पुलिस अधीक्षक, कलेक्टर आदि के यहाँ लेजाकर अपने काम कराने में सफल रहे।
मेरे प्रभाव और पकड़ के कारण ही मैं अपने उस स्वजातीय भाई की मदद करने पुलिस थाने पहुंचा जहाँ उनके बताये अनुसार कोई अज्ञात व्यक्ति उनके नये टेक्टर और ट्राली को चोरी कर ले गया। थाना प्रभारी का प्रभार सब इंस्पेक्टर मानसिंह के पास था। उन्होंने अपनी मजबूरी बताई कि इस बार थाने में 10 लाख रूपये के चोरी के मामले दर्ज है और रिकवरी कुछ नहीं हुई और यह मामला लिख लेंगे तो 5 लाख रूपये की चोरी का इजाफा होने से हमारे थाने का रिकार्ड गिरेगा। रिपोर्ट लिखने की बजाय उन्होंने एक सादे कागज पर शिकायत लेकर पावती दे दी।
10-15 दिन बाद मुझे गोपाल ने होटल पर बुलवाया और कहा भैया टेक्टर ट्राली का पता चल गया है और उसे अपने यहाँ पहले काम करने वाले एक नौकर ने चुराया है और खबर मिली है कि वह टिमरनी में है। उस समय गोपाल का पूरा परिवार था। उनके छोटे भाई के साथ में रामकिशोर निगोटे को लेकर पुलिस थाने पहुंचा और थाना प्रभारी मानसिंह को बताया तो उसने कहा कि पक्का है टिमरनी में टेक्टर ट्राली और चोर है। गोपाल के छोटे भाई के हामी भरने के बाद थानेदार ने कहा कि एक टेक्सी कर लो उससे चलेंगे और टेक्टर ट्राली जब्त कर ले आयेंगे। उन्होंने तुरन्त एफआईआर दर्ज करना शुरू की, मैंने कहा कि शिकायत की पावती है , तो उन्होंने कहा कि भैईया साल का आखरी माह है 5 लाख की चोरी की रिपोर्ट के बाद उसे पकड़ने पर विभाग से एवार्ड मिलेगा, कि साल में 17 लाख की चोरी में 5 लाख रूपये की चोरी पकड़ने में सफल हुये। रिपोर्ट लिखी गयी। एक रिटायर्ड जेलर के बेटे की टेक्सी किराये पर ली और गौरीशंकर यादव,रामकिशोर निगोटे के साथ मैं तथा गोपाल का छोटा भाई और थानेदार मानसिंह व एक पुलिस वाला सवार हुये और टिमरनी रवाना हो गये। होशंगाबाद पुलिस ने टिमरनी पुलिस थाने में जानकारी दी और हम टिमरनी मण्डी पहुंचे जहाँ गोपाल के छोटे भाई ने गाड़ी रूकवाई और बोले रूकों हम पता करके आते है। मैं उनसे पीछे हो लिया। कृषिमण्डी में वह एक टेक्टर ट्राली के पास रूका वहाँ एक व्यक्ति आया और उसने जिस दिन से टेक्टर ट्राली चोरी हुई थी उस दिन से आज तक किये गये कामों का ब्यौरा देकर पैसे दिये। उसने पैसे झट रख लिये और पूछा अपने टेक्टर ट्राली कहा है उसने बताया किसी की धान भरी है उसे लेकर आया हूं। वह व्यक्ति बार बार गोपाल के छोटे भाई से पूछ रहा था कि टेक्टर ट्राली का मामला सुलझ गया, अब पुलिस की दिक्कत तो नहीं । वह बातें ही कर रहा था कि थाना प्रभारी और अन्य मित्र लोग उधर आते दिखे जिन्हें देखकर तुरन्त गोपाल के छोटे भाई ने उस व्यक्ति की कालर पकड़कर जोर जोर से गाली बकने लगा कि साले चोर तुझपे विश्वास था और तूने विश्वासघात कर टेक्टर ट्राली चुरा लाया। तब तक पुलिस भी आ गयी थी और उन्होंने आते ही तावड़तोड 8-10 डन्डे उसके पैरों में मारे और घूसे लातों से मारकर चोरी करके लायी गयी टेक्टर ट्राली की ओर चलने को कहा। पुलिस ने देखा कि टेक्टर ट्राली में धान भरी है उन्होंने चोरी के आरोप में पकड़े ड्रायवर को जीप में पुलिसकर्मी के साथ बिठलवा दिया। वह ड्रायवर अवाक था, कि आखिर क्या हो गया जिस टेक्टर ट्राली को मालिक ने उसे सौपकर काम धन्धे में लगाया आखिर उसकी कमाई करके देने के बाबजूद भी उसे टेक्टर ट्राली चोरी के इल्जाम में क्यों पकड़ा है। वह यह प्रश्न जीप तक लाते समय अनेक बार कर चुका था तब जबाव में उसे लातघूसे और गालियॉ मिलती रही।
अब थानेदार मानसिंह बोला भाई आप लोगों की टेक्टर ट्राली पकड़ने में कुछ मिलेगा तो नहीं लेकिन यहाँ मौका है कुछ अखबारवाजी न करों तो कुछ कमा ले। वे टेक्टर ट्राली को लेकर आने लगे तब एक किसान पहुंचा और उसकी धान खाली करने को कहा, पुलिसवाले ने किसान को डपट लगायी कि चोरी की टेक्टर ट्राली को लेकर धान बेचने आया है अब यह धान जब्त होगी और थाने में सड़ेगी। जब थानेदार ने किसान को बंद करने की घुडकी दी तो किसान घबरा गया और उसने झट अपनी जान छुडाने और धान उतारने की सौदेवाजी की और 10 हजार रूपये किसान से हथियाकर गाडी होशंगाबाद की ओर चल दी जिसमें उस व्यक्ति की पिटाई की जा रही थी। उसने बताया कि नई टेक्टर ट्राली को मालिक चला रहे थे तब उन्होंने टेक्टर ट्राली से बिजली के खम्बे को उखाड़ दिया था तब बिजली विभाग के कर्मचारी ने इसकी रिपोर्ट करने की धमकी दी थी तब गोपाल और परिवार ने एक व्यक्ति का घरेलू सामान सिवनीमालवा छोडऩे के लिये उसे टेक्टर ट्राली के साथ भेज दिया। गोपाल और उसका परिवार डर गया कि कहीं उनकी टेक्टर ट्राली पुलिस थाने पहुंच जाने के बाद उनकी समाज में प्रतिष्ठा धूमिल न हो जाये, बस उन्होंने अपने यहाँ सालों से खेत में काम करने वाले अपने नौकर को भेज दिया साथ ही उन्हें किसी ने धान को मण्डी तक पहुचाने का काम दिलाने की बात की जिससे मोटी आमदनी होनी थी, वह उनका हरवाहा करता रहा और बिजली विभाग के कर्मचारी रिपोर्ट करने पहुंचे उससे पहले ही षडंयंत्र रचकर गोपाल के भाई ने यह रिर्पोर्ट पुलिस थाने में की जिसका पूरा वाकया आप ऊपर पढ़ चुके है।
इधर थाना प्रभारी को सच मालूम हो गया तो उसने गोपाल को 20 हजार रूपये की दबिश दी । उनके परिवार ने मुझे बुलाया और गोपाल के पिताजी एवं माता जी मुझे भला बुरा कहकर कि तुमने पुलिस वाले को पढ़ाकर भेजा है से बहस करने लगे मैंने थाना प्रभारी से बात की लेकिन वह मुझसे बात करने को तैयार नहीं था। इसी दरम्यान चोरी के इल्जाम में गोपाल ने अपने नौकर को जेल भिजवा दिया जबकि उसकी पत्नी बच्चों सहित परिवार के सामने माथा टेककर रोती रही कि आप इन्हें बंद न कराओ लेकिन किसी ने भी उनकी बात नहीं सुनी, मैं इस घटना से स्वयं को ठगा महसूस कर समाजसेवा के मायने ढूढते हुये खुद को कौसने लगा कि मैंने एक निर्दोष व्यक्ति को बिना सोचे समझे जेल भिजवाने का गुनाह किया है। उधर अचानक गोपाल का स्वास्थ्य बिगड़ गया और उसे होने वाली बीमारी का पता नहीं चल सका। घर के लोग गोपाल को लेकर भोपाल पहुंचे जहाँ एक निजी चिकित्सालय में भर्ती कराया गया। मैं जेल में उस ड्रायवर से मिलने पहुंचा और उसकी मदद का आश्वासन के साथ मैंने उससे कहा कि तू गोपाल और उसके परिवार को माफ कर दे लेकिन वह तैयार नहीं था, उधर गोपाल की हालत दिनोदिन बिगड़ती गयी। मैं गोपाल को देखने भोपाल गया तब मैंने देखा गोपाल को अपने किये का पाश्चाताप था लेकिन इसके लिये वह अपने छोटे भाई को जिम्मेदार बताता रहा। गोपाल के इलाज के दरम्यान परिवार 3 लाख रूपये खर्च कर चुका था लेकिन यह क्या टेक्टर ट्राली घर आने के 22 दिन बाद ही गोपाल की मृत्यु हो गयी। इस घटना ने सबक दिया कि किसी निर्दोष को फंसाने के बाद उसके मुख से निकली बददुआ किसी हॅसते खेलते परिवार को किस तरह तबाह कर देती है। कुछ दिनों बाद ड्रायवर जेल से छूट गया तब तक गोपाल का एक भाई भी असमय मौत का शिकार हो गया । ये घटना हमेशा मुझे कुचेटती रही है जबकि गोपाल का छोटा भाई आज भी इन सब बातें से अन्जान अपना नया निशंकु राज बनाने की दौड़ में लगा हुआ है।
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जब ऋषिकेश में हुआ मौत से सामना
संस्मरण आत्माराम यादव वरिष्ठ पत्रकार पीव
2 जून 2016 को मैंने जगदीशपुरा स्थित कैलाश नामदेव के मकान को किराये पर लिया। मुझे 4 दिवसीय कार्यशाला के लिये 22 जून को साढ़े तीन बजे गोड़वाना एक्सप्रेस से दिल्ली तक निकलना था और वहाँ से अगले दिन 12 बजे देहरादून के लिये ट्रेन बदलनी थी। संयोग से आज 22 जून की तारीख थी और मैं तैयारी में जुटा था कि अचानक मकान मालिक की बड़ी बहिन जिन्हें सब बुआजी कहते थे सीढि़या चढ़ते समय अचेत हो गयी जिससे घर में कोहराम मच गया। नामदेव जी का बड़ा पुत्र आनंद और पूरा परिवार घबरा रहे थे कि मैंने केशव अस्पताल में डाक्टर अतुल सेठा को वस्तुस्थिति बतलाते हुये बुआजी को लाने की बात की और उनकी स्वीकृति मिलते ही हम उन्हें लेकर केशव अस्पताल पहुंचे लेकिन वहाँ अव्यवस्था थी किसी ने भी बुआ जी को अटेंड नहीं किया और उनकी साँसें फूलती जा रही थी। बुआजी कह रही थी कि मुझे सीढि़या मत चढ़ाना मेरी साँसें थम जायेगी, लेकिन नीचे कक्ष में कोई डाक्टर नहीं था और ऊपर सीढि़या चढ़ाकर बुआजी को बुलाया। बुआजी की सांसे उखड़ चुकी थी और पलंग पर लिटाने के दरम्यान उन्होंने बाथरूम जाने की बात की, आनन्द की मम्मी उन्हें बाथरूम कराकर लौटी और पलंग पर लिटाया वैसे ही बुआ जी की साँसें टूट गयी। इस घटनाक्रम मे् 15 मिनिट लगे तब डाक्टर अतुल सेठा जी आये और उन्होंने जॉच के बाद बुआजी को मरा हुआ बताकर घर ले जाने की कहा। निश्चित ही बुआजी को समय पर डाक्टर नीचे ही अटेंड कर लेता थो शायद वे आज जीवित होती। बुआजी के शव को लेकर हम घर लौट आये।नीचे नामदेव का निवास था और ऊपर मैं किरायेदार था। आनंद और उनके परिवार के लोगों ने कहा कि अब बुआजी तो चली गयी तुम अपनी कार्यशाला क्यों छोड़ते हो। इस पूरे घटनाक्रम में तीन बज गये 40 मिनिट बाद ट्रेन थी, मैंने जल्दी से घर पहुंचकर स्नान कर सामान उठाया और बुआजी की मृतक देह को छोड़दुखी मन से स्टेशन की ओर कदम बढ़ाये।
रेल्वे स्टेशन पर पहुंचते ही ट्रेन आ गयी और मैंने अपनी सीट पर सामान रख लिया जबकि मेरा पूरा मन अपने घर की ओर था जहाँ पहली बार मेरी पत्नी व बच्चे घर में मेरे बिना ऐसी परिस्थिति में होगें जब सारी रात बुआजी का शव उनके बेटे ओर परिजनों के इंतजार के बाद सुबह अंतिमसंस्कार के लिये ले जाया जायेगा। रात 9 बजे के लगभग गंजबसौदा के पास बेटे ने फोन करके कहा पापा, खाना नहीं बना पाये बहुत बुरा लग रहा है, हम होटल से खाना ले आते है ,मम्मी खाने को मना कर रही है और बहिन घबरा रही है। मैंने मोबाईल से हुई चर्चा द्वारा सबसे बात करके सबको समझाया और रात दरवाजा लगाकर सोने की बात की। मैं उधेड़बुन में ट्रेन में लेट गया, कब नींद लगी पता नहीं चला, देखा घर से तीन चार मिसकाल थी। देखा तो मथुरा स्टेशन निकल चुका था, लेकिन सिग्नन नहीं मिल रहे थे, कुछ देर बाद बेटी का फोन आया उसने बताया सभी लोग रात भर जागते रहे और बहुत डर लगा। चूंकि किराये के इस मकान में सब कुछ नया था ऊपर से बुआ जी के शव के पास उनके भाई कैलाश जी और परिजन इस पूरी रात में अनेक बार फूटफूट कर रोते रहे जिससे बच्चों के लिये यह रात डरावनी और कभी न भूल पाने वाली रही।
सुबह 9 बजे मैं दिल्ली पहुंच गया था और देहरादून की ट्रेन 12 बजे दिन में थी। मेरा भतीजा दिल्ली में एएसआई है, उसको मेरी यात्रा की खबर थी मैं जब यात्री प्रतीक्षालय पहुंचा तब उसका फोन आ गया और उसने पूछा कहा हो। बताने के आधे घन्टे बाद वह आ गया और घर पर खाना खाने की जिद कर ले जाने लगा लेकिन समय कम होने से मैंने मना कर दिया। कुछ समय उसके साथ गुजारकर मैं उस प्लेटफार्म पर पहुंच गया जहां मेरी ट्रेन थी। ट्रेन आते ही मैं अपने कोच व सीट पर पहुंच गया लेकिन ये क्या, वहां तो दूसरे लोग बैठे थे और देवबन्द स्टेशन तक उठने को राजी नहीं थे, मैंने टीसी को बुलाया लेकिन वह कुछ किये बिना चला गया। देवबंद के बाद मैं अपनी सीट पर बैठ सका और शाम 8 बजे देहरादून पहुंचा। कार्यशाला की व्यवस्थापकों द्वारा स्टेशन पर हमें लेने टेक्सी का इंतजाम किया गया था जिसमें बैठकर हम अपने गंतव्य की ओर पहुंचे और रात ग्यारह बजे अपने कक्ष में प्रवेश करने से पहले अपनी अपनी जानकारी दी । खाना खाकर कमरे में सो गये। सुबह तैयार होकर नास्ते के बाद कार्यशाला में पहुंचे और भोजन कर फिर अगले सत्र मे शामिल हुये और रात खाना खाकर एक दूसरे से परिचय में लग गये। चार दिन कब बीत गये पता नहीं चला। कार्यशाला समाप्त होने के बाद हमें शाम को ही वापिस देहरादून स्टेशन छोड़ दिया गया।
हम 8 मित्र 28 जून को देररात हरिद्धार पहुंचे और शांतिकुंज में ठहरने की व्यवस्था जुटाकर रात होटल में खाने गये। वापिस कमरे पर पहुचंकर सुबह हरिद्धार में गंगा स्नान, पश्चात ऋषिकेश, लक्ष्मणझूला जाने का कार्यक्रम बनाकर सो गये। 29 जून की सुबह सभी ने हरिद्धार में गंगा का विकराल रूप देखकर सीढि़यों पर बैठकर सांकले पकड़कर स्नान कर सके। वहाँ से सब ऋषिकेश पहुंचे और वहाँ भी गंगा जी का बहाव डराने वाला था। कुछ मित्र याददाश्त के लिये स्नान के वीडियों बना रहे थे कुछ फोटो खींच रहे थे। मैं भी स्नान के गंगा मैईया की जय बोलकर उनके चरण लागकर पानी में पहली सीढ़ी पर कदम रखने के बाद आठ दस फीट चला जहाँ दूसरी सीढ़ी पर उतरने के बाद जैसे ही मैंने तीसरी सीढ़ी की ओर कदम बढ़ाया, पर ये क्या मैं कब गंगा की गहराई में समा गया और बहाव में वह निकला। मेरी साँसें उखड़ चुकी थी जैसे साक्षात यमराज मेरे प्राणों को लेने आ पहुंचा हो मैं गंगा के तेज बहाव में पत्थरों से टकराता लहुलुहान हुआ चला जा रहा था कि मुझे पानी के अन्दर ही याद आया मैं मॉ नर्मदा की गोद मे घन्टे तैरकर इस पार से उस पार आना जाना करता रहा हूं। मौंत सामने थी एक पल में हजारों ख्याल आये पूरा परिवार दिखा, अचानक मैंने पूरी ताकत से गंगा की गहराई से उछालमाकर पानी के ऊपर आया और तैरने का प्रयास किया लेकिन गंगा के पानी के इस बेग के सामने मैं इसलिये नहीं ठहर पा रहा था कि मुझे पीछे छूट आये किनारे पर जाने की इच्छा थी। मैंने ख्याल किया कि गंगा मैईया के बेग के साथ ही तैरकर अन्दर कुछ देखू, और एक लोहे की सांकल घाट के अंतिम छोर पर पकडाई आया जहाँ से गंगा का बेग और तीव्र था। मैंने पूरी ताकत से सांकल को पकड़ लिया, पर उसमें लगी कांई के कारण मेरे हाथ छूटते गये परन्तु मैं समझ चुका था कि अगर इस सांकल को छोड़ दिया तो मैं बच नहीं सकूंगा। परन्तु सांकल हाथ से छूटते छूटते आखिर में बड़ा कड़ा हाथ में पकड़ा गया जिसमें मैंने अपने हाथ की अंगुलिया डालकर पूरी ताकत से पकड़ रखा और गंगा के बहाव के साथ किनारे पर जाने के लिये पानी में हाथ पैर मारते रहा। गंगा मैईया ने कृपा की या यूं कहिये बच्चों के भाग्य से एक पत्थर पर मेरे पैर टिक गये जो सांकल के आखिरी छोर पर थे। पैर टिकते ही मेरी ऑखों से आंसू छलक पड़े और फिर मैंने प्रयास करके उस पत्थरसे खुद को घाट की सीढि़यों की ओर तैरकर पहुंचा लेकिन जब तक सुरक्षित नहीं हो सका मैंने सांकल नहीं छोड़ी। उधर मेरे अन्य मित्रगण वहाँ घाट पर बैठे सुरक्षाकर्मियों से मेरे बहने की खबर के साथ मुझे तलाशने की जिद में अड़े रहे उन्हें नहीं पता था कि मैं घाट के आखिरी छोर पर मौत से सामना करके बच सका हूं। घाट पर पहुंचकर मैंने मिश्राजी, राजेश जी और व्यास जी को बुलाया वे खुशी से चीत्कार उठे कि तुम जिंदा हो, भाई हम तो समझ चुके थे कि तुम अब इस दुनिया में नहीं रहे। मुझसे सीढि़यों से उठते नहीं बन रहा था पत्थरों से टकराने के बाद शरीर में कई जगह चोट आ गयी थी। सबसे बुरा हाल मेरी दोनों हथेलियों का था जो पूरे समय शरीर की शक्ति का आखिरी कतरा लगाने तक सांकलों को छोड़ना नहीं चाहती थी। इसलिये इन हथेलियों में खून उतर आया था और वे लाल हो गयी थी। सभी पत्रकार मित्र मुझे डाक्टर के पास लेकर पहुंचे जहाँ प्राथमिक चिकित्सा कराने के बाद सभी ने मेरी जान बचने की खुशी में मिठाईया बॉटी और चन्द घन्टों बाद लक्ष्मणझूला पहुंच वहाँ कुछ स्थानों को देखकर वापिस हरिद्धार लौटे। इस घटना की खबर देहरादून, दिल्ली, भोपाल कार्यालय पहुंच गयी थी और मेरी सकुशलता के समाचार मिलने पर सभी को खुशी हुई परन्तु मैं वापिस घर होशंगाबाद आने के दो माह तक ऋषिकेश में गंगा के प्रबलवेग में टकराने वाली मौत से हुये इस साक्षात्कार से शरीर पर पड़ गये जख्मों के अवशेषों को मिटाने में लग गये थे किन्तु यह कभी न विस्मृत होने वाली घटना मन की स्मृतियों में अमिट हो गयी है।
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एक घर की दास्तान- अंधी बूढ़ी मॉ फुल्लो का दर्द और अंधा समाज
( ऑखोंदेखा वृंतात)
आत्माराम यादव पीव
ज्येठ का महिना था। धरती पर सूरज आग उगल रहा था नर्मदा नदी से तीन किलोमीटर दूर पहाड़ की तलछटी और जंगलों से घिरा हुआ एक गाँव है बगवाड़ा जो सीहोर जिले की बुदनी तहसील में आता है। तब आने जाने के साधन के नाम पर बैलगाड़ी हुआ करती थी जिससे नर्मदा नदी का तीन चार किलोमीटर रास्ता पैदल और बीमारों को बैलगाड़ी से पार करना होता। सरपंच के पास साईकिल थी बाकि दूर तक इस अभाव था। गाँव पहुंचने के लिये सुबह, दोपहर और शाम तय समय पर सडकमार्ग पर बसें रूक जाया करती थी। गाँव के करीब आते ही बसो में लम्बा भोंपू या सायरन बजता तो लोग घरों से टेकरा की ओर भागते थे। टेकरा पर हाथ हिलाने के बाद सड़क पर बस कन्डक्टर बसों को रोक लेता था। बाकि पूरे समय सड़कों पर सन्नाटा छाया रहता था। भीषण गर्मी से बगवाड़ा भी अछूता नहीं रहा। गाँव के पूर्व-उत्तर का अन्तिम घर फुल्लो अम्मा का था। घर के बाद एक किलोमीटर तक टेकरानुमा सपाट मैदान था जिसमें सुबह शाम गाँव भर के गाय-भैस आदि एकत्र होते और सभी चरवाहे वहाँ से उन्हें जंगल की ओर ले जाते।
दाड़ी पर एक फेफर का बड़ा पेड़ और एक बरगद का पेड़ था जिनके नीचे बनी मढि़या में नगरा बाबा, खूबतबाबा, लालमन बाबा और ग्वाल बाबा को पत्थर की पिण्डियों के रूप में पूजते थे। तब दाने बाबा की पूजा के लिये लोग मूक पशुओं में मेड़ा, बकरे बकरियों की बलि चढ़ाकर प्रसन्न करते थे लेकिन बाबा पर बलि के रूप में काटे गये अपने पशुओं का मांसाहार लोग स्वीकार नहीं करते थे और बलि में चढ़ाये पशुओं का मॉंस लेने वे समाज के लोग आते जो मांसाहार के शौकीन थे। गाँव के बुजुर्ग दाने बाबा के प्रकोप से डरते थे इसलिये यह सब चलता रहा। गाँव के अनेक बुजुर्ग थे जो चबूतरों पर घूमते जिनके शीश में ये देवता सवारी करते थे। एक बार सभी गाँव वालों ने विचार किया हर साल दाने बाबा को अनेक घरों से निरीह पशुआं की बलि के रूप में भेंट दी जाती है जिसे कोई प्रसाद के रूप में खाता नहीं तब सभी ने चतुतरे पर बैठक में बाबा के शीश आते ही उनसे निवेदन किया कि आपका प्रसाद कोई गाँववाला नहीं लेता। सभी शाकाहारी है इसलिये बाबाजी आप भी हमसे शाकाहारी प्रसाद स्वीकार कर इन पशुओं की बलि को रूकवा दो , तब बाबा ने गुड मलीदा का प्रसाद चढ़ाने पर सभी गाँववालों पर प्रसन्न रहने की बात की तब यह बलि प्रथा समाप्त हुई और दाने बाबा की पूजा में अब भी गुड मलीदा से वे प्रसन्न रहते है। जबकि खूबत बाबा को मीठे पुआ का प्रसाद आज भी चढ़ता है और पीरबाबा को चना चिरोंजी पंसद है जबकि मरई मैईया और सती मैईया की पूजा एक विशेष गोत्र के लोग करते है पर अब वह पूजा होते नहीं दिखती जबकि गाँव से डेढ़ किलोमीटर पूर्व में नर्मदातट पर खेड़ापति मईया की पूजा साल में एक बार करने सभी जाते है जहाँ प्रसादी के बाद भण्डारा होता है। गाँव में 40 के लगभग मकान ग्वालों के बने थे जिनका अपना एक कुंआ था जिससे सुबह चार बजे से सुबह 8 बजे तक और शाम को चार बजे से छह बजे तक ग्वालिने पानी भरने आती और सुबह 9 बजे के बाद कुये पर युवकों की टोली स्नान करते दिखती। गाँव के बीचीबीच एक चौपाल लगती थी। गाँववालें अपने-अपने घरों में दूध दुहने के बाद जानवरों को चारा-सानी रखकर चौपाल की ओर चले आते थे। शाम को चार पांच बजे से ही हर घर में चूल्हा जल जाता और परिवार के लिये माता-बहिनें खाना पका कर रखती थी। कुछ लोग खाना खाकर चोपाल पर आते और देररात तक बैठते। चौपाल पर गाँव के हर व्यक्ति के सुख दुख की बातें होती। ऐसा ही आलम सुबह शाम कुये पर देखने को मिलता जहाँ पानी भरने आती महिलायें एक दूसरे के घरों में होने वाले सुख दुख की बातें करती। कुये पर पता चलता किसके घर में झगडा हुआ है, किसकी सास ने किस बहु पर गुस्सा निकाला है, किसको बुखार आया, किसके घर शराब पीकर झगड़ा हुआ। कुये की अधिकांश बातें महिलायें रात को अपने पति और घर में बताती फिर वही बातें चौपाल पर होती ।
शाम ढ़लने से पहले आकाश में पक्षियों का कलरव दिल मोह लेता था। हजारों की सॅख्या में पक्षी झुंड बनाकर दानापानी चुगकर घरों को लौटते थे। दो-तीन घन्टे तक आकाश में यह नजारा रहता और और हर झुंण्ड का नेतृत्व एक पक्षी आगे दिखता और अनगिनत उसके पीछे होते। दोपहर में कौओं की कांवकांव गाँव में गूंजती और सैकडों की सॅख्या में गिद्ध आकाश में विचरते थे और जहाँ गाँव के मरे जानवरों को एक समाजवर्ग के लोग उठाकर उस जानवर की खाल उतार लाते उस स्थान पर यह गिद्ध जिन्हें लोग चील के नाम से भी पुकारते वे आ टपकते। ऐसा आलम हर गाँव के आकाश में देखने को मिलता था। दाना चुगने के लिये लाखों की संख्या में तोते खेतों में आते और घर-बाडे सहित पेड़ों पर बैठ कर मधुर कलरव करते थे। फसल की रखवारी के लिये लोग अपने खेतों के बीच मुंडेर बनाकर उसपर चढ़कर गोपिया में पत्थर रखकर तोतों के झुण्ड को भगाया करते थे। जैसे शाम को आकाश लाखों पक्षियों को हर गाँव की परिधि में अपने अपने अंक में लिये होता वैसा ही नजारा सुबह होता जब पक्षी सूर्योदय से पूर्व ही वापिस जंगलों की ओर जाते दिखते और कुछ पक्षी गॉवों के खेतों में दाना चुगते थे। तब गाँव में बिजली नहीं आयी थी। हर घर में चिमनी, लालटेन का प्रकाश बिखरा होता था।
गाँव की चौपाल पर ही एक परिवार ने अपने घर के हिस्से की जमीन दे दी जिसमें गाँववालों ने शिवजी का मंदिर बना लिया और सुबह शाम इस मंदिर में आरति को एकत्र होते। युवाओं में तब पहलवानी का जोश था इसलिये वहीं खाली जमीन पर सबने अखाड़ा बना लिया जिसमें पहलवान जोर आजमाईश करते। कुछ युवाओं ने रामायण मण्डल बना लिया जो हर शनिवार ओर मंगलवार को गाँव के किसी एक घर में जाता और ढोलक, झॉझ मजीरों के साथ रामायण का पाठ होता। गाँव में जब भी शादी विवाह होते तो गैसबत्ती के लाईट में बारातें लगती और गैसबत्ती बंद होने पर मेंथल लगाकर हवा भरने वाले व्यक्ति का बहुत सम्मान हुआ करता था। कहते है इस गाँव में 1940 में मोतीझिरा नामक बीमारी आयी थी जिसे लोगों ने बड़ीमाता नाम दिया था। इस बड़ी माता में इस गाँव के शोभाराम और उनकी पत्नी फुल्लो बाई की आखों की रोशनी चली गयी थी। शोभाराम गाँव के धनाडयों में गिने जाते थे,उनके पास खेती बाड़ी थी पर जब दोनों पति पत्नी की ऑखें चली गयी तो उन्होंने कुछ लोगों को मदद के लिये जमीन की देखभाल के लिये रखा तब उनकी बड़ी बेटी 14 साल की थी और छोटी छह महिने की तब शोभाराम जी चल बसे। उनकी मौत के बाद उनके द्वारा मटकों में धन छिपाकर रखा था उसकी जानकारी फुल्लो अम्मा को थी वे जब मटकों से धन लेने पहुंची तो सभी खाली मिले, निश्चित ही किसी ने पहले ही जॉच परखकर यह धन चुराया था। दूसरी ओर उनकी जितनी भी खेती की जमीनें थी उसकी देखरेख वे ही करते जिन्हें दी थी और वे परिवार के भरण पोषण के लिये अनाज दे देते। फुल्लो अम्मा जिनका मूल नाम फूलवती बाई था के मायके में 30 एकड़ से ज्यादा जमीन थी जिसे उन्होंने होशंगाबाद में अपने भाई ओमकार को दे दी। समय आने पर ओमकार ने जमीन का कब्जा नहीं छोड़ा और उधर गाँव की जमीनों पर जो रिश्तेदार नौकर थे, वे मालिक बन गये, मजबूरी में फुल्लो अम्मा खेतों की मेढ़ों पर जाकर चारा लाती और अपने गॉय भैसों के चारे की व्यवस्था करती ।फुल्लो अम्मा के दोनों बेटे गाय,बकरी पालते,चराते और महुआ बीनने के लिये सुबह 4 बजे जंगल निकल जाते, तेदूं लाते, तेज दोपहरी में आचार, तेंदूपत्ता, बॉस काटकर लाते और उन्हें बेचकर अपना पेट पालते।
बात 1970-71 की है जब फुल्लो बाई के बड़े बेटे हेमराज की बारात गाँव से बैलगाड़ी से निकली थी और होशंगाबाद में सिवनीनाके के पास धूमधाम से लगी थी। बहू आने पर फुल्लो अम्मा बहुत खुश थी। कुछ दिनों बाद उनकी खुशिया का ठिकाना नहीं रहा जब बड़ी बहू ने एक सुन्दर सुडौल बेटे को जन्म देकर इस परिवार का पहला वारिस दिया। महिनों तक बच्चों को खिलाने उसकी सभी बुआओं का डेरा गांव में रहा। दो ढाई साल बाद बेटा बीमार हो गया तब हेमराज और उनकी पत्नी बेटे को होशंगाबाद इलाज के लिये पहुंचे परन्तु उन्होंने बच्चों को डाक्टर को नहीं दिखाया। किसी की सलाह पर हेमराज अपने बेटे को बाबई के पास बीकोर गाँव में झड़वाने-फुकवाने ले गये। वहाँ बच्चे ने दम तोड़ दिया तब दोनों बीकारे से सात आठ किलोमीटर पैदल बाबई आये और बाबई में भी उन्हें किसी बस वाले ने सिर्फ इसलिये नहीं बैठने दिया कयोंकि उनके हाथ में उनके बेटे का शव था जिसे वे गले में चिपकाये थे। आखिरकार हेमराज और उनकी पत्नी ने तीन चार घन्टे में 9 किलोमीटर का रास्ता तय कर किया । तब तवापुल के आधे भाग पर पुल था और आधे भाग को पैदल जाना होता था। बरसात में यह मार्ग 4 महिने बंद हो जाया करता था। दोनों बहुत दुखी और परेशान थे, साथ में उनकी गोदी में बेटे का शव था और उनके घर गाँव का रास्ता पैदल में डेढ़ दिन का था। शाम हो गयी थी उन्होंने बच्चे के शव को गाँव ले जाना उचित नहीं समझ कर वहीं तवापुल की रेत में गाड़कर वे बस में सवार होकर होशंगाबाद पहुंचे। हेमराज की ससुराल पहले सिवनीनाके के पास थी लेकिन 1973 की भीषण बाढ़ में मकान ध्वस्त हो जाने पर उनके श्वसुर स्टेशन के पास रहने लगे थे जहाँ दोनों पहुंचे जिन्हें परिजनों ने ढांढस दिलाया और अगले ही दिन सुबह 10 बजे घर से निकलकर नर्मदाघाट स्थित नावघाट पहुंचे जहां नाव में सवार हो उसपर उतरे और पैदल जोशीपुर के खेतों से होते हुये अपने गाँव बगवाडे़ पहुंचे।
इधर बच्चे के बीमार होने की खबर आग की तरह पूरे परिवार में फैल गयी। क्योंकि शोभाराम जी के परिवार में बडे बेटे हेमराज के ज्येष्ठ पु्त्र के रूप में पहला वारिस मिला था । हेमराज की सभी सातों बहनें रामकली, सुन्दो बाई, कस्तूरी बाई, गोरा बाई, भगवती बाई, प्रेम बाई एवं सातों बाई अपने भतीते की कुशलक्षैम जानने को एक दिन पहले ही डेरा डाल चुकी थी। जैसे ही हेमराज और बहू पहुंची तब उनकी गोद में बेटा नहीं पाकर बहनों ने पूछा- हमारा भतीजा कहॉ है। किसके पास खेल रहा है। तब रोते हुये बड़ी बहू ने अपनी ननदों को सारी दास्तान बता दी तब तक गाँव की अनेक बुजुर्ग मातायें, बहुयें वहाँ एकत्र हो गयी थी। जैसे ही बड़ी बहू और बेटे ने पुत्र के मरने तथा साधन नहीं मिलने के कारण तवा की रेत में दफनाने की बात सुनाई, इस पर बहनों ने बड़ी बहू को खरी खरी सुनाई परन्तु भग्गो बाई अपना आपा खो चुकी थी और उसने बड़ी बहू की जमकर पिटाई कर दी। बड़ी बहू के साथ मायके से एक सदस्य आया था जिसने बड़ी बहू के पिता को खबर भेज दी। खबर मिलते ही बडी बहू के पिता आ गये और परिवार को सान्तवना देने की बजाय अपनी बेटी का पक्ष लेकर गाली बकते हुये अपनी बेटी को अपने घर ले गये और बोल गये कि मेरी बेटी आपके घर नहीं आयेगी । समाज के सभी लोगों ने बूढ़ी अंधी फुल्लों की स्थिति बतलाते हुये घर तोड़ने की बजाय घर बसाने की सलाह दी लेकिन उन्हें समझाने की सारी कोशिश बेकार गयी और वे टस से मस नहीं हुये और उन्होंने कहा कि जैसे मेरा बड़ा जंवाई घरजंवाई बनकर रह रहा है, वैसे अब हेमराज भी रहेगा, लेकिन मेरी बेटी कभी बगवाड़ा नहीं जायेगी।
इस घटना को बीते दिन,महिने,साल गुजरते गये पर बड़ी बहू आने को तैयार नहीं। आखिरकर पूरा परिवार बच्चे का गम भुलाकर सुलह को तैयार थे कि किसी तरह बड़ी बहू घर आ जाये पर बड़ी बहू दो टूक कह चुकी थी कि मै मर जाऊगी पर अपनी ससुराल नहीं जाऊगी। तब ऐसे मसलों का हल करने के लिये लोग पुलिस थाने कोर्ट कचहरी नहीं जाते थे और समाज की पंचायतों के माध्यम से सुलह किये जाने का रिवाज था। आखिरकर बगवाड़े के बुजुर्गो और हेमराज के सभी रिश्तेदारों ने विचार किया कि समाज की पंचायत बुलवाकर निर्णय करा ले। उस समय ग्वालटोली काली मंदिर होशंगाबाद में ग्वाल समाज की पंचायत का न्याय सर्वोपरि था, यह पंचायत सभी छावनियों में न्याय के लिये सुप्रीमकोर्ट का दर्जा हासिल किये हुये थी। होशंगाबाद,बगवाड़ा जोशीपुर, जर्रापुर, गडरिया नाला, बुदनी, बुदनीघाट, छैघरा,बाबई शुक्करवाड़ा और बेरखेड़ी तक के सरपंच एकमत होकर इसमें शामिल होते थे और तब पंचों की सॅख्या सात सौ तक पहुंच जाती थी। फुल्लोबाई को अपनी बहू लाने के लिये इस पंचायत पर विश्वास था। पंचायत आखिरी विकल्प हुआ करती थी, इसके पहले परिवार में बातें होती, जहाँ नहीं बनती तब कुटुम्ब के लोग बातें करते, तीसरे विकल्प के रूप में रिश्तेदार सुलह कराते, जब सभी असफल हो जाते तब समाज की पंचायत ही निर्णायक होती और हेमराज को भी इस पंचायत से आखिरी उम्मीद थी।
हेमराज नींम की छाव में अपनी खटिया पर कथरी बिछाकर सोया था। गर्मी से बचने के लिये उसने पानी की नांद में जाकर चादर को गीला कर निचोड़कर ओढ़ रखी थी। आज शनिवार का दिन था, कल होशंगाबाद में पंचायत होना है। पूरे सप्ताह वह घर के पास स्थित महुआवाले खेत से सटी घास की बीड़ काटकर पूला बनाकर गंजी तैयार करता रहा था । उसे तब दिनभर की मजदूरी के 1 रूपये मिलते थे, सुबह ही उसे एक सप्ताह की मजदूरी 6 रूपये मिले थे जो उसने अपनी अंधी बूढ़ी मॉ जिन्हें वह अईयो कहता था की हथेली पर रख दिये थे। शाम को समाज की पंचायत से उसे न्याय मिलेगा और उसकी पत्नी आ जायेगी इसी उधेड़बुन में वह बहुत ही प्रसन्न था और खुशी खुशी में अपनी हैसियत के 25 पैसे के धोबी साबुन को न खरीदकर रईसों के लिये समझे जाने वाले 60 पैसे का खुसबुदार सनलाईट साबुन ले आया और अपने कपड़े धोये । उसे नींद नहीं आ रही थी इसलिये वह मन को समझाने के लिये राधा कृष्ण प्रसंग के सवैया गाकर रोमांचित था। शाम को 4 बजे घर से होशंगाबाद जाते समय फुल्लो अम्मा ने उसे चार रूपये दिये और 2 रूपये घरखर्च के रख लिये। हेमराज नर्मदा तट पर आया वहाँ से नाव में बैठकर होशंगाबाद आया।
हेमराज अपनी ससुराल पहुंचा और ससुर से मिलकर फिर अपनी पत्नी को पहुंचाने के लिये हाथ जोड़े पर ससुर ने कहा जा पंचायत करा ले, पंचायत कहेगी तो भेज देंगे तभी वहा उनके बड़े साले तुलसीराम ने उनकी बेईज्जती कर बहिन को भेजने से मना कर दिया। वह अपनी सास से मिलने पहुंचा जहाँ सालों ने फरमान सुना दिया, हमारी बहिन तुम्हारे घर नहीं जायेगी, तुम चाहों तो हमारे घर आकर बहिन के साथ रह सकते हो। मायूस हेमराज अपने बड़े जीजाओं, मामा ओमकार के घर गया और पूरे घटनाक्रम को बताया। तब सभी ने पंचायत के महाते, चौधरी, दीवान, जमादार को बताया और उनकी सलाह से अगले दिन पंचायत करने की सहमति दे दी। शाम को ही पंचायत का बुलउआ की खबर खबास को दे दी और सुबह 6 बजे ग्वालटोली के सभी मोहल्लों में खबास से पंचायत का हंका दे दिया। दूसरे स्थानों पर खबास ने सुबह ही खबर भिजवा दी। शाम चार बजे काली मंदिर ग्वालटोली पर पंचायत के लिये पंचों का आना शुरू हो गया था। काली मंदिर परिसर सहित पूरा मैदान खचाखच समाज के लोगों से भरा गया था और हेमराज अपने सप्ताह में कमाये पैसों से खरीदी गयी बीड़ी के बन्डल, माचिक, सुपाड़ी,तम्बाखू, लोंग इलायची आदि सहित पीने के पानी पंचों के समक्ष खबास के द्वारा बंटवा रहा था। सभी पंच विराजमान हो गये थे और महाते को छोड़ सभी पदाधिकारी अपना अपना स्थान ले चुके थे। तब नियम था जब तक महाते नहीं आये तब तक पंचायत शुरू नहीं होती थी, पर विषयवस्तु को लेकर चर्चायें और विचारों आ आदान प्रदान जरूर चलने लगता था। महाते का इंतजार करते तीन चार घन्टे बीत गये पर महाते पंचायत में नहीं पहुंचे और वे घर पर भी नहीं थे, पंचों के बार बार कहने पर उन्हें तलाशा जाता पर वे नहीं मिले, तब हेमराज से पूछा क्या तुमने उन्हें खबर नहीं की, तब हेमराज द्वारा कहे जाने कि मैंने उनसे बात करने के बाद अनुमति लेकर पंचायत बुलाई है तब सब शांत हो जाते। इस पंचायत में महाते के नहीं मौजूद होने से सभी पंचगण अगली पंचायत इतवार को करने की सहमति देकर चले गये ।
एक साल तक हर महिने हर इतवार को काली मंदिर ग्वालटोली में पंचायत में में अनेक मसले आते और उनका निर्णय हो जाता लेकिन जैसे ही हेमराज का यह मामला शुरू होता उसमें सकल पंच,पदाधिकारी आते लेकिन मुख्य न्यायिक पदाधिकारी मथुरा महाते गायब रहकर अनुपस्थित रहते और हेमराज की मेहनत मजदूरी की पूरी कमाई पंचायत की आवभगत, व्यवस्था में चौपट हो जाती। हर पंचायत में लकड़ी पक्ष से उनके पिता को बुलाया जाता लेकिन वे कभी मौजूद नहीं हुये, पता चला पंचायत के प्रमुख महाते जी की उनसे रिश्तेदारी है और वे जब भी हेमराज द्वारा पंचायत बुलायी जाती वे लड़की के पिता के साथ होते और इस पंचायत बिना प्रमुख के किसी निर्णय पर नहीं पहुंचती। आखिर में पंचों ने पंचायत में आने से मना कर दिया हेमराज और उसकी बूढी अंधी मॉ और पूरा परिवार न्याय के लिये इस पंचायत से वंचित रहा। हेमराज हर प्रयास कर चुका था कि उनकी पत्नी उनके घर पहुंच जाये पर गरीबी उसकी कमजोरी थी और पंचायतों में जो पंच लोग पक्ष-विपक्ष में बहस कर निर्णय तक पहुंचाते थे वे हेमराज के साथ नहीं थे। अपनी पत्नी को अपने घर पर नहीं ला पाने के कारण हेमराज पूरी तरह टूट चुका था। वह अब रोज शाम को जोशीपुर जाता और वहाँ से कच्ची शराब पीकर लड़खड़ाता लौटता और मॉ को देखकर चिल्लाता अईओ मैं क्या करू, जीने का मन नहीं होता और मैं अपनी बीबी के बिना नहीं रह सकता। यह क्रम रोजाना का हो गया था इससे हेमराज का स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा।
अंधी बूढी मॉ अपने बेटे को इस पर रोजाना रोता और तड़फता नहीं देख सकती थी इसलिये उसने अपनी छाती पर पत्थर रखकर कहा बेटा, तू बहू के मायके चला जा और वहीं घरजवाई बन कर रहना, कम से कम रोज तिल तिल यह जानलेवा शराब पीकर तेरी जान जाये इससे अच्छा है तू भले नजरों के सामने नहीं होगा, पर तेरी जान तो सलामत रहेगी। हेमराज ने सभी को समझाते मॉ से कहा -अईओ, अगर मैं वहाँ गया तो फिर वे न मुझे तुझसे मिलने देंगे और न ही मेरी किसी बहन के घर आ जा सकूंगा, सबसे रिश्ता तोड़कर उनकी शर्त में वही जीना होगा। मॉं रोती पर आंखों में आंसू नहीं आने देती उसकी चाहत थी कि वह किसी तरह अपनी बहू बेटे के साथ अपना बुढावा गुजार दे और बेटा बहू उसकी ऑख बन जाये, पर नियति को कुछ और मंजूर था। फुल्लो अम्मा ने उस दिन हेमराज को बुलाकर गले से लगाया और खूब रोयी। हेमराज ने अपनी ऑखों में काजल लगाया था और वह गबरू जवान अपनी रौबीली मूछों की शान के कारण गाँव में जाना जाता था, वह अपना घर, गाँव और मॉ को सदा के लिये त्यागने से पहले मॉ से चिपककर ऐसे बिलख रहा था जैसे कोई बच्चा रोता है। दूसरे कमरे में छोटा बेटा और छोटी बहू भी इस मंजर को देखकर दुखी थे जैसे उनका सब कुछ लुटने जा रहा है। घर की दालान में लालटेन टिमटिमाने लगी तब छोटी बहू आयी और उसने घासलेट भरा, शाम को रोज दो चिमनी घर में जलती थी और एक लालटेन दालान में तथा एक बाहर के लिये थी जब गायों की सार में गायों को चारा डालने,दुहने के लिये या किसी को शौच,लघुशंका आने पर उसका इस्तेमाल बाहर ही होता था।
वह रात उस अंधी फुल्लो के जीवन की सबसे भयानक और डरावनी थी। शाम ढ़लते ही मॉ ने अपने हाथों से चूल्हा जलाकर कंडों और लकड़ी जलाकर मिटटी की हॉडी में घर की बेला में लगी बल्लर और बाडे से लाल लाल टमाटर की सब्जी बनाई और मिटटी का कल्ला/तवा रखकर रोटी पकाकर बेटे को परौसकर खुश थी। क्या रोशनी,क्या अंधेरा कभी फुल्लो अम्मा को भान नहीं होता था , ऑखें की रोशनी खाने के बाद उनके कदम ऑखवालों से तेज चलते थे और रास्ते का आभास हो जाता था। घर हो या बाड़ा सभी चीजें उनकी पकड़ में थी। ऑखों के बिना कभी चूल्हें में रोटी जली हो यह कभी हुआ नहीं। हाथों से टटोल कर वह जान जाती थी कि आग ठण्डी हो गयी या नहीं, बस एक लकड़ी के टुकडे से चूल्हें से आग निकालकर रोटी सेकती थी। सुबह हेमराज को अपने ससुर की शर्तो के पालन करने ससुराल में सदा के लिये बस जाना था और आज वह मॉ के पास उसके खपरैल मकान के पटमे के नीचे आराम सो रहा था। हेमराज गहरी नींद में था पर उनकी मॉ फुल्लो अम्मा की ऑखों में नीद नहीं थी वह सारी रात उसके पलंग के पास बैठ उसकी हथेली की ऊंगलियों के पोरों का स्पर्श करती रही। पास ही दूसरी खटिया पर छोटा बेटा लेटा था और उसकी ऑखों में भी नींद नहीं थी उसे अपने बड़े भाई के बिछड़ने का दुख था और वह खाट पर बिछी कथरी में मुंह छिपाकर रो रहा था ताकि फुल्लो अम्मा को पता न चल जाये। जब आधी रात हो गयी तो वह चुपके से उठकर मॉ के कन्धों पर हाथ रखकर धीरे से फुसफुसाया अम्मा सो जाओ। मॉ और छोटा बेटा चूल्हें के पास पहुंचकर रोने लगे जिन्हें छोटी बहू ने रोते हुये सोने को कहा। चूल्हें के पास बैठे बहुत समय हो गया तब मॉ ने जान लिया कि रात का तीसरा पहर गुजर गया है। उसने छोटे बेटे और बहू को सोने भेज दिया लेकिन वे सोये नहीं। मॉ के कानों में पड़ौस के घरों में जागने वालों की आवाजें सुनाई दी। पूरे गाँव के लोग सुबह 4 बजे उठ आते थे और अपने अपने गाय-भैसों को रहट चराने के लिये ले जाते और छह बजे लेकर लौट आते। फिर सभी दूध दुहने के बाद शहर में बेचने निकल जाते।
जब सॉझ फुल्लो अम्मा रोटी बना रही थी तब उन्होंने गेहूं के चून/आटा के बर्तन को खाली देख लिया था। उसे पता था सुबह हेमराज के लिये रोटी बनाकर खिलाना है इसलिये वो एक परात में गेहूं लेकर चकिया के पास पहुंची और चकिया को साफ करके धीरे-धीरे गेहूं पीसना शुरू किया और कब चून का बर्तन भर गया उसने चकिया बंद कर चूल्हें में आग सुलगा ली। छोटा बेटा चकिया में आटा पीसे जाने के दरमयान घर से रस्सी बाल्टी,गुंड घघरा लेकर कुये पर पहुंच गया और छोटी बहू भी कुऐ से पानी लाने में जुटी और कुछ समय में जरूरत का पानी भरकर रस्सी लपेटकर आ गये, पता नहीं चला। जब मॉ ने चूल्हा जला लिया था तब तब छोटा बेटा बहू दूध दुह चुके थे। तब उनके पास 100 से ज्यादा बकरिया थी जिनमें 30 के लगभग बकरियों दूध देने वाली थी, जिन्हें बहू बेटे ने मिलकर दुहा और घर में पीतल के तीन बड़े तसले जिसमें डेढ़ सौ लीटर दूध रखने की क्षमता थी लेकिन इनके पास 40 लीटर दूध होता था जो 20 पैसे लीटर घर से एक व्यक्ति ले जाता ओर शहर में बेचकर अपना मुनाफा निकाल लेता था। एक समय था जब इस घर में तीनों तसले दूध से भरे होते थे, जिसमें एक तसले में गाय का दूध एक में बकरी का दूध और एक तसले में भैसों का दूध अलग अलग रखते थे। तब मलाई निकालने के लिये अलग डबला था और दही के लिये बडी हांडी थी।
सुबह हुई, यह सुबह हेमराज की थी जो उसके गृहस्थ जीवन की दुबारा जीने का शुभ संकेत लेकर आने वाली थी। यह सुबह हेमराज के ससुराल में उनकी पत्नी की थी। फुल्लो अम्मा के जीवन में अंधेरा ही अंधेरा था। ऊपरवाले ने पहले नेत्र की रोशनी छीन ली, जब हेमराज का जन्म हुआ तो उन्हें खुशी हुई कि यह बेटा जीवन में रोशनी भर देगा, पर यह सपना आज टूटने जा रहा था। कुछ साल गुजरने के बाद फुल्लो अम्मा के पति उनका साथ छोड़कर चले गये और उनके जीवन का अंधकार दुगुना हो गया। पति के जाने के बाद फुल्लों अम्मा की तीन बेटिया एवं दो बेटों के भरण पोषण का प्रश्न था। उनके पति के खेत,खलियान, गौधन सब करीबी रिश्तेदारों ने इस शर्त पर कि बच्चों का लालन पोषण व शादी कर देंगे अपने अपने पास रख लिया और बाद में सभी ने उनकी सम्पत्ति हड़प ली। सब कुछ खोने के बाद भी फुल्लो अम्मा को जितना दुख नहीं पहुंचा उतना दुख उन्हें आज अपने बड़े बेटे को घर से ससुराल में घरजमाई बनकर रहने की रजामंदी में हुआ। फुल्लो अम्मा का दर्द चरम पर था पर वह अंधी रो भी नहीं सकती थी। उसे याद है जब वह ससुराल आयी तब पति का आधे गाँव पर साम्राजय था और वही मायके में उनकी इतनी सम्पत्ति थी कि वह आज करोड़ों की स्वामिनी होती, पर ऑख न होने का सभी ने फायदा उठाकर उन्हें छला पर वे कभी अस्थिर नहीं रही। बड़े बेटे हेमराज के जाने के बाद फुल्लो अम्मा कई दिनों तक खामोश रहीं और किसी से बातें न कर रोती रहती। सब समझाते पर वह सुनकर भी अनसुनी करती। उसके मस्तिष्क में सैकड़ों सवाल इस समाज के लिये उठते कि मुझे तो ऊपरवाले ने नेत्रहीन बना दिया लेकिन यह समाज मुझ जैसे लोगों के प्रति दया दिखाने की बजाय इतना कठोर क्यों हो गया जो मुझे अपने बेटे के लिये बहू घर लिवाने में सहायक होने की बजाय पूरा समाज और पंचायत अंधी हो गयी जो न्याय नहीं कर सकी। फुल्लो अम्मा शून्य में ताकते हुये अंधे समाज, अन्याय के खिलाफ बेटे के घर लौटने का इंतजार करती रही लेकिन कई बरस गुजर जाने के बाद उसका बेटा ससुराल में पहुचंकर सरकारी नौकरी करते हुये कभी मॉ के पास नहीं आया। ससुराल में बेटे के दिमाग में ऐसा क्या फितूर भरा गया जिससे वह अपनी मॉ के घर और अपनी सभी बहनों के घर होने वाले किसी भी सुखदुख एवं वैवाहिक आयोजनों में नहीं पहुंचा और न ही बड़ी बहू ही शामिल हुई जैसे सवाल फुल्लो अम्मा को मरने तक कुचेटते रहे।
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आत्माराम यादव (पीव) वरिष्ठ पत्रकार
सिटीपोस्ट आफिस के पास, उर्मिल किराना दूकान गली, मोरछली चौक होशंगाबाद मध्यप्रदेश
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