विभिन्न श्रीरामकथाओं में स्वयंप्रभा कथा प्रसंग- डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता ‘मानसश्री’ मानस शिरोमणि,विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर श्रीरामचरितमान...
विभिन्न श्रीरामकथाओं में स्वयंप्रभा कथा प्रसंग-
डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता
‘मानसश्री’ मानस शिरोमणि,विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
श्रीरामचरितमानस में तपस्विनी एवं हनुमान्जी के साथ वानरों की भूख-प्यास एवं थकावट की व्याकुलता का वर्णन किष्किन्धाकाण्ड में वर्णित है। उस तपस्विनी और रहस्यमयी गुफा के वर्णन को रोचक ढंग से हिन्दी-संस्कृत एवं अहिन्दी भाषी श्रीरामकथाओं में भी प्राप्त होता है। अतः नई पीढ़ी, जिज्ञासु विद्वत्जन एवं श्रीरामकथा के प्रेमियों के ज्ञानवृद्धि हेतु विभिन्न श्रीरामकथाओं से यह प्रसंग प्रस्तुत किया जाता है।
1. श्रीरामचरितमानस में तपस्विनी कथा प्रसंग
कतहुँ कोई निसिचर सैं। भेटा प्रान लेंहि एक एक चपेटा।।
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोई मुनि मिलइ ताहि सब घेरहिं।।
श्रीराम.च.मा.किष्किन्धा.24-1
वानरों की कहीं किसी राक्षस से भेंट हो जाती है, तो एक-एक चपत में ही उसके वे प्राण ले लेते हैं। पर्वतों और वनों को बहुत प्रकार से खोजते रहते हैं। यदि कोई मुनि मिल जाता है तो पता (सीताजी का) पूछने के लिये उन्हें सब घेर लेते हैं। इसी समय -
लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गह न भुलाने।।
मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत बिनु जल जाना।।
श्रीराम.च.मा. किष्किन्धा.24-2
इतने में सबको प्यास लगी, जिससे सभी अत्यन्त व्याकुल हो गये किन्तु जल कहीं नहीं मिला। घने जंगल में सब मार्ग में भूल से गये। हनुमानजी ने अनुमान किया कि जल बिना पीये सब मरना ही चाहते हैं। यह देखकर हनुमानजी -
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबर एक कौतुक पेरवा।।
चक्रबाक बक हँस उड़ाही। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं।।
श्रीराम.च.मा. - किष्किन्धा - 24-3
पहाड़ी की चोटी पर चढ़कर चारों ओर देखा तो पृथ्वी के अन्दर एक गुफा में से बहुत से पक्षी अन्दर से बाहर और बाहर से अन्दर जा रहे थे। पवनसुत हनुमानजी पर्वत से उतर आये और सब वानरों को गुफा दिखलायी। सभी ने हनुमानजी को आगे कर लिया तथा वे सब गुफा में प्रवेश कर गये। गुफा में घना अंधकार था किन्तु अन्दर जाने पर क्या देखा?
दो. दीख जाइ उपबन बर सर बिगसित बहु कंज।
मंदिर एक रूचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज।।
श्रीराम.च.मा. किष्किन्धा - दो 24
अन्दर जाकर उन्होंने एक उत्तम उपवन और तालाब देखा जिसमें बहुत से कमल खिले हुए हैं। वहीं एक सुन्दर मंदिर है जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी है। दूर से ही सब ने उसे सिर नवाया और उस तपस्विनी को अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसने उन सभी को रसीले फल एवं जलपान कराया। उसके पश्चात् उस तपस्विनी ने अपनी कथा सुनाकर - कहा कि मैं अब वहाँ जाऊँगी जहाँ श्रीरघुनाथजी हैं। तुम सब आँखें मूंद लो मैं तुम्हें समुद्र के किनारे छोड़ दूँगी। सभी ने आँखें मूँदली तथा दूसरे ही क्षण वे सब समुद्रतट पर आ गये। वह यह भी कह गई कि तुम सीताजी को पा जाओगे। वह श्रीराम के पास गयी तथा उसने उनके चरण कमलों में मस्तक नवाया। श्रीराम ने उसे बदरीकाश्रम जाने को कहा तथा परधाम का आशीर्वाद भी दिया।
दो. बदरीवन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस।
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत आज ईस।।
श्रीराम. च.मा. किष्किन्धा.25
प्रभु की आज्ञा सिर पर धारणकर और श्रीरामजी के युगल चरणों की जिनकी ब्रह्माजी, महेश भी वन्दना करते हैं, हृदय में धारणकर वह (तपस्विनी) बद्रीकाश्रम को चली गई।
इस तरह श्रीरामचरितमानस में तपस्विनी का किष्किन्धाकाण्ड के इस प्रसंग में हनुमानजी को सीताजी की खोज में सहायता की। तपस्विनी कौन थी? वह यहाँ क्यों रहती थी? उसका क्या नाम था? आदि प्रसंग जिज्ञासुओं के लिये उनकी ज्ञान पिपासा तृप्त नहीं कर सके। अस्तु अन्य श्रीरामकथाओं से इन प्रश्नों का समाधान किया जा रहा है।
श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण में स्वयंप्रभा कथा प्रसंग -
हनुमान्जी अन्य श्रेष्ठ वानरों के साथ सीताजी के अन्वेषण के लिये विन्ध्य पर्वत क्षेत्र में पहुँच गये। वे सब दक्षिण दिशा में जो पर्वतमालाओं से घिरे हुए क्षेत्र थे वहाँ सीताजी की खोज कर रहे थे। खोजते-खोजते उन्हें एक गुफा दिखायी दी जिसका द्वार बंद नहीं था। वह गुफा ‘ऋक्षबिल’ नाम से विख्यात थी। उसका रक्षक एक दानव सदैव वहाँ रहता था। सभी कपिगण भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे थे तथा थक भी गये थे। लता और वृक्षों से आच्छादित विशाल गुफा में से क्रौंच, हंस, सारस तथा जल से भीगे हुए चक्रवाक पक्षी बाहर निकल रहे थे।
गुफा में जल होने के सन्देह में सभी वानर उस भयंकर गुफा में वे एक योजन तक एक दूसरे का हाथ पकड़कर पहुँच गये। वहाँ उन्होंने क्या देखा -
तत्र तत्र विचिन्वन्तो बिले तत्र महाप्रभाः।
ददृशुर्वानराः शूराः स्त्रियं कांचिददूरतः।।
तां च ते ददृशुस्तत्र चीरकृष्णाजिनाम्बराम्।।
तापसीं नियताहारां ज्वलन्तीमिव तेजसा।
विस्मिता हरयस्तत्र व्यवतिष्ठन्त सर्वशः।।
प्रपच्छ हनुमांस्तंत्र कासि त्वं कस्य वा बिलम्।।
श्रीमद्. वा.रा. किष्किन्धा. सर्ग -50-40
वहाँ उन्होंने थोड़ी ही दूरी पर किसी एक स्त्री को देखा जो कि वल्कल और काला मृगचर्म पहनकर नियमपूर्वक आहार करती हुई तपस्या में लीन थीं और अपने ही तेज से प्रकाशित तेजस्विनी दिखाई दे रही थी। सभी वानरों ने उसे ध्यानपूर्वक देखा एवं आश्चर्यचकित होकर खड़े रहे। उस समय हनुमानजी ने उस तपस्यारत स्त्री से पूछा - देवि! तुम कौन हो और यह किसकी गुफ़ा है ? हे देवि! हम सब भूख, प्यास और थकावट से दुःखी थे। अतः सहसा इस गुफा में घुस आये। इस गुफा में अद्भुत विविध पदार्थों को देखकर हमें ऐसा लगा कि कहीं यह असुरों की माया तो नहीं है। हमारी विवेकशक्ति लुप्त सी हो गई
यह सुनकर उस तपस्विनी ने कहा -
मयो नाम महातेजा मायावी वानरर्षभ।।
तेनेदं निर्मितं सर्वं मायया कांचनं वनम्।।
श्रीमद्. वा.रा. सर्ग 51-10-1/2
वानरश्रेष्ठ! मायाविशारद महातेजस्वी मयका नाम तुमने सुना होगा। उसी ने अपनी माया के प्रभाव से इस समूचे स्वर्णमय वन का निर्माण किया था। मयासुर दानव-शिरोमणियों का विश्वकर्मा था,उसी ने इस दिव्य सुवर्णमय श्रेष्ठ भवन को बनाया है। वह वर्षों तक यहाँ रहा तथा कुछ वर्षों के बाद हेमा नाम की अप्सरा के साथ सम्पर्क हो गया। इन्द्र को इस घटना की जानकारी प्राप्त होने के पश्चात् उन्होंने मयासुर का वज्र से प्रहारकर युद्ध में मार डाला। ब्रह्माजी ने यह वन एवं भवन हेमा को दिया। मैं मेरूसावर्णिका की कन्या स्वयंप्रभा हूँ। अच्छा, ये शुद्ध भोजन और फल-फूल प्रस्तुत हैं उन्हें खाकर पानी पी लो। अब आप अपना वृत्तान्त कहो।
हनुमान्जी ने श्रीराम - लक्ष्मण एवं सीताजी के वन में आने का वृत्तान्त,सीताजी के रावण द्वारा हरण की कथा सुनायी। हनुमान्जी ने सुग्रीव - श्रीराम की मित्रता बताकर, सीतान्वेषण के कार्य से वन में आने का कारण बताया। उन्होंने हमें कहा कि प्यास, क्षुधा एवं थकान ने व्यथित-दुःखित कर दिया तभी मैंने इस गुफा से जल में भीगे हंस, कुरर और सारस आदि पक्षी निकलते देखकर इस गुफा में प्रवेश किया। हनुमानजी की पूरी बात सुनने के पश्चात् तापसी ने उन्हें कहा कि जो एक बार इस गुफा में आ जाता है वह यहाँ से जीते जी लौट नहीं सकता। तथापि मेरी तपस्या के उत्तम प्रभाव से मैं तुम सब को गुफा से बाहर निकाल दूँगी। स्वयंप्रभा ने उनके गुफा से बाहर निकालने के कहने पर सबको अपनी आँखें मूँद लेने का कहा स्वयंप्रभा ने पलक झपकते ही उन सब को गुफा से समुद्र के तट पर छोड़ दिया, तथा कहा-
स्वति वोऽस्तु गमिष्यामि भवनं वानरर्षभाः।
इत्युक्त्वा तद् बिलं श्रीमत् प्रविवेश स्वयंप्रभा।।
श्रीमद्.वा.रा.सर्ग 52-32
तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं अपने स्थान पर जाती हूँ। ऐसा कहकर स्वयंप्रभा उस सुन्दर गुफा में चली गयी।
अध्यात्मरामायण में स्वयंप्रभा कथा प्रसंग -
श्रीराम भक्ति के महासागर अध्यात्मरामायण के किष्किन्धाकाण्ड के सर्ग 6 में इस वृŸान्त को एक विशेष नये स्वरूप में दिया गया है। सुग्रीव के भेजे गये अंगद,जाम्बवान्,हनुमान आदि ने सीताजी की खोज में घूमते-घूमते विन्ध्याचल के विशाल वन में एक पर्वताकार राक्षस देखा जो कि वन में मृगों और हाथियों को पकड़-पकड़कर खा रहा था। कुछ वानरों ने यह देखकर उसे रावण समझकर कुछ ही क्षण में घूँसा मारकर, मार डाला। इतनी आसानी से उसकी मृत्यु देखकर उन्हें यह लगा कि यह रावण नहीं है।
इस कृत्य के उपरान्त वे सब घोर वन में गये वहाँ उन्हें प्यास लगी किन्तु कहीं भी जल नहीं दिखा। तभी उन्होंने वहाँ तृण,गुल्म और लता आदि से ढँकी हुई विशाल गुहा देखी। उसमें से उन्होंने भीगे हुए पंखोवाले क्रौंच और हँसों को निकलते देखा। तब उन्होंने यह अनुमान लगाया कि, यहाँ से अवश्य जल प्राप्त होगा, इतना निश्चय कर हनुमानजी के पीछे एक दूसरे की बाँह बाँह डालकर अन्दर पहुँच गये। वहाँ उन्होंने देखा कि -
प्रभया दीप्यमानां तु ददृशुः स्त्रियमेककाम्।
ध्यायन्तीं चीरवसनां योगिनीं योगमास्थिताम्।।
अध्यात्मरामायण -किष्किन्धाकाण्ड - सर्ग 6-40
दिव्य भवन में वह सुन्दरी योगाभ्यास में तत्पर एक योगिनी थी, अपने तेज से वह उस स्थान को प्रकाशित कर रही थी तथा शरीर पर चीर-वस्त्र धारण किये उस समय ध्यान कर रही थी। युवती को देखकर उन सभी ने उन्हें प्रणाम किया। उस देवी ने उनसे पूछा तुम क्यों और कहाँ से आये हो? हनुमानजी ने आने का सारा वृŸान्त बता दिया। तब उस दिव्यदर्शना योगिनी ने हनुमानजी को इस प्रकार बताया -
हेमा नाम पुरा दिव्यरूपिणी विश्वकर्मणः।
पुत्री महेशः नृत्येन तोषयमास भामिनी।।
अध्यात्मरामायण, किष्किन्धाकाण्ड - सर्ग 6-51
पूर्वकाल में विश्वकर्मा की हेमा नाम की एक दिव्यरूपिणी पुत्री थी। उस सुन्दरी ने अपने नृत्य से महादेवजी को प्रसन्न किया। प्रसन्न होने पर शंकरजी ने उसे यह विशाल और दिव्य नगर उसे निवास हेतु दिया। वह यहाँ हजारों वर्ष रही। मैं उसकी सखी दिव्य नामक गंधर्व की पुत्री स्वयंप्रभा हूँ। हेमा ने मुझे यह कहा कि तुम यहाँ पर तपस्या करती रहो, त्रेतायुग में जब राम के दूत आवेंगे तब उनका आतिथ्य-सत्कार करना। वानरों का उसी प्रकार सत्कार कर श्रीरामचन्द्रजी की वन्दना और स्तुति करके विष्णुजी के धाम को चली जायगी जो कि योगियों को ही प्राप्त होता है। अतः अब मैं तुरन्त ही भगवान श्रीराम का दर्शन करने के लिये जाना चाहती हूँ। तुम लोग भी अपनी-अपनी आँखें मूँद लो अभी गुहा बाहर पहुँच जाओगे। वह श्रीराम के पास गई स्तुति करने के पश्चात् वरदान माँग लिया और श्रीराम के आदेशानुसार बदरी-वन चली गई, वहाँ उसने अपना नश्वर शरीर त्याग कर परम पद प्राप्त किया।
तत्वार्थ रामायण (गुजराती भाषा)
पूज्यपाद श्रीरामचन्द्रजी केशव डोंगरे महाराज में स्वयंप्रभा कथा प्रसंग -
यह कथा प्रसंग किष्किन्धाकाण्ड अध्याय 54 में स्वयंप्रभा से हनुमानजी की भेंट होने पर उसने अपनी कथा उन्हें सुनायी। स्वयंप्रभा ने कहा कि मैं भगवान शंकरजी की दासी हूँ। शंकरजी की आज्ञा से यहाँ तपश्चर्यारत हूँ। शंकरजी ने मुझे आज्ञा दी है कि श्रीरामजी के सेवक यहाँ आवेंगे। तुम उन सबका स्वागत करना। श्रीरामजी के दर्शन करना फिर तुम्हारा उद्धार हो जावेगा। इसलिये मैं यहाँ बैठकर तप कर रही हूँ। आप सब आ गये हैं। आप सब श्रीरामजी के दर्शन करना फिर तुम्हारा उद्धार हो जावेगा। इसलिये मैं यहाँ बैठकर तप कर रही हूँ। आप सब आ गये हैं। आप सब श्रीरामजी के सेवक हो अतः मेरे लिये पूज्य हो! आप श्रीराम सेवकों की सेवा करने का परम् सौभाग्य प्राप्त हुआ। अब मैं यहाँ से श्रीरामजी जहाँ विराजमान हैं, वहाँ जाऊँगी। तुम सब आँख बंद करो ताकि मैं इस गुफा से सबको समुद्र के तट पर पहुँचा कर श्रीराम की शरण में जाऊँ। शेष कथा अन्य श्रीरामकथाओं से ही मिलती-जुलती है। वह श्रीराम की शरण में गई तथा वहाँ से बदरिकाश्रम जाकर, परमधाम चली गई।
श्रीराम विजय (मराठी रामायण) रचयिता
संतकवि पं. श्रीधर स्वामी में सुप्रभा (स्वयंप्रभा) कथा प्रसंग
इस रामायण के किष्किन्धाकाण्ड में अध्याय 18 में यह कथा प्रसंग वर्णित है। पूर्ववर्ती अन्य रामायणों की तरह इस कथा प्रसंग में कुछ हटकर वर्णन है। स्वयंप्रभा के नाम के स्थान पर उसका नाम सुप्रभा इस कथा प्रसंग में बताया है।कपिगण आकाश मार्ग से जा रहे थे, तब उन्होंने एक शापित -दग्ध वन को देखा और छलाँग अर्थात् उड़ान कुण्ठित होने से लोट-पोट होकर गिर पड़े। हनुमान्जी भी तटस्थ (स्थिर) हो गये। इसका मूल कारण यह था कि वहाँ पूर्वकाल में दण्डक नामक एक महातपस्वी ऋषि रहते थे। उनके एक 18 वर्षीय पुत्र को, जब वह खेल रहा था,तब भयानक वनदेवी उनके पुत्र को खा गयी। यह जानकर दण्डक ऋषि ने क्रोधपूर्वक उस वन को शाप दिया कि जो भी प्राणी इस वन में प्रवेश करेगा, उसी क्षण उसकी मृत्यु हो जावेगी। ये कपि श्रीराम के स्मरण करते रहने के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए। दण्डक मुनि का वह पुत्र, ब्रह्मराक्षस बनकर बारह योजन तक प्राणियों का नित्य भक्षण करता था। उसी समय वह कपियों का भक्षण करने दौड़ा तब अंगद ने पाँव पकड़कर आकार में चक्राकार घूमाकर, उसे पटक-पटक कर मारडाला। दण्डक ऋषि के पुत्र ने तत्काल अपने शरीर को प्राप्त कर लिया तथा उन्होंने समस्त वानरों को अपना पूर्व वृŸान्त बता दिया। उसके पश्चात् समस्त वानरों को प्रणाम कर पिता के दर्शनार्थ चला गया।
उसी समय समस्त वानर भूख एवं प्यास से व्याकुल हो उठे, क्योंकि उस शापित वन में वृक्ष-फल और जल नहीं था। हनुमान्जी अन्न-जल खोज रहे थे। तब उन्हें एक विवर में पक्षी फल ला कर खाते दिखाई दिये। कपिगण भी उनके पीछे-पीछे चल दिये। वहाँ उन्हें ‘सुप्रभा’नामक एक योगिनी दिखाई दी। हनुमान्जी ने योगिनी से पूछा कि इस स्वर्णमय नगर,फल और अमृततुल्य जल से परिपूर्ण स्थान का निर्माण किसने किया ? इस प्रश्न के उŸार में सुप्रभा ने हनुमान्जी को बताया कि इस स्थान पर किसी समय मय नामक दैत्य निवास करता था। उसने अपनी कठिन तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और तब विधाता ने यहाँ आकर इस दिव्य नगर का निर्माण कर उसे वरदान दिया कि तुम इस विवर में चिरंजीवी बने रहोगे और यदि विवर के बाहर आये तो तत्काल मृत्यु हो जावेगी। वह अनेक प्रकार के मंत्र हवन कर दैत्यों के कल्याण की अभिलाषा करता था। इस कारण इन्द्र ने विधाता से प्रार्थना कर हेमा नामक एक सुन्दर नारी उत्पन्न करवाई। वह नारी विवर में चली गई। उसे देखकर उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर मय ने उससे कहा कि तुम मेरे साथ विवर से बाहर चलो। मय ब्रह्माजी के वरदान को भूल गया तथा जैसे ही विवर से बाहर निकला, इन्द्र ने वज्र से उसका वध कर दिया। विधाता ने यह नगर हेमा को दे दिया। हेमा बहुत काल व्यतीत कर सत्यलोक चली गई। उसने जाते समय अपनी सेविका (परिचारिका) के रूप में यह नगर उसे दे दिया। तब से आज तक मैं इसकी रक्षा कर रही हूँ तथा हेमा ने सत्यलोक जाते समय कहा था कि यहाँ वानर आएँगे और वे तुम्हारा उद्धार करेंगे।
हनुमान्जी ने भी सीताजी की खोज का सारा वृत्तान्त सुप्रभा को बताया। सुप्रभा ने उन सबको जल-फल देकर तृप्त किया। हनुमान्जी ने जब बाहर जाने के मार्ग का कहा तो उसने विवर में सबको अपनी-अपनी आँखें बन्द करने को कहा। आँखें खोलने पर सभी वानर समुद्र तट पर खड़े थे तथा सुप्रभा कहीं नहीं दिखायी दी। सुप्रभा उसी समय विवर त्याग किष्किन्धा जाकर श्रीरामजी से मिली और श्रीराम ने उसे बदरिकाश्रम भेज दिया। वहाँ उसने देह त्यागकर भगवान के स्वरूप में विलीन हो गई।
अतः राक्षसी प्रवृत्ति के बारे में रामायण में कहा गया है-
स्वधर्मो राक्षसां भीरूः सर्वदैव न संशयः।
गमनं वा परस्त्रीणां हरणं सम्प्रमथ्य वा।।
वा.रा.सु.कां.20-5
भीरू! परायी स्त्रियों से समागम अथवा उनका बलपूर्वक अपहरण करना-निःसंदेह सदा ही राक्षसों का धर्म रहा है।
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डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता
‘मानसश्री’ मानस शिरोमणि,विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
सीनि. एमआईजी - 103, व्यासनगर,
ऋषिनगर विस्तार उज्जैन, (म.प्र.)
पिनकोड 456010
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