कवि - परिचय रतन लाल जाट S/O रामेश्वर लाल जाट जन्म दिनांक - 10-07-1989 गाँव - लाखों का खेड़ा , पोस्ट - भट्टों का बामनिया तहसील...
कवि-परिचय
रतन लाल जाट S/O रामेश्वर लाल जाट
जन्म दिनांक- 10-07-1989
गाँव- लाखों का खेड़ा, पोस्ट- भट्टों का बामनिया
तहसील- कपासन, जिला- चित्तौड़गढ़ (राज.)
पदनाम- व्याख्याता (हिंदी)
कार्यालय- रा. उ. मा. वि. डिण्डोली
प्रकाशन- मंडाण, शिविरा और रचनाकार आदि में
शिक्षा- बी. ए., बी. एड. और एम. ए. (हिंदी) के साथ नेट-स्लेट (हिंदी)
ईमेल- ratanlaljathindi3@gmail.com
कविता- “मनुजता के अनमोल क्षण”
जब कोई दो रिश्तेदार,
काफी समय साथ रहने के बाद।
जुदा होते हैं,
एक-दूसरे से।
तब उनके दिलों में,
करूणा का सागर उमड़ आता है॥
पास में खड़े उनके,
जो कठोर हृदय के लोग हैं।
मानव-प्रेम क्षणभर के लिए,
उनमें भी आ बैठता है॥
यदि कोई पापी हो,
तो उसका पाप भी।
इस पश्चाताप से,
मिट जाता है जरूर ही॥
ऐसे क्षणों में हम पाते हैं,
मानव-प्रेम के दर्शन की निशानी।
हमेशा ही यह अवसर जिंदा रहे,
यही कामना है मेरी॥
जब कोई अपनी बेटी को,
डोली में बैठाकर विदा करता है।
तब उनके नेत्रों से,
अपनत्व का आनन्द टपकता है॥
ऐसे में पलभर के लिए भी,
पापी इन बरातियों का दिल भी पिघल जाता है।
वो नरभक्षी दूल्हेराजा भी,
एकबार दयाभाव से भर जाता है॥
तब अपनी नववधू को,
पूण्यता की सजीव-मूर्ति मानकर।
कुछ समय के लिए ही सही,
हाथ जोड़कर श्रद्धा से नमन करता है वह॥
यदि अभी-अभी किसी ने,
अपने प्राण त्यागे हैं।
तब देखने वाले,
रोये बिना नहीं रह सकते हैं॥
यदि कोई शत्रु तलवार लेकर,
किसी दुश्मन को मारने आया हो।
तब भी उसके हाथ,
पलभर के लिए काँप जायेंगे॥
उसके दिल में मानवता का,
करूणामय आभास हो जाता है।
तब वह अपने से अलग होकर,
अलौकिकता का चिन्तन करने लगता है॥
यही मानवता है,
जो व्याप्त हमारे में ही।
क्या? फिर भी हम,
अपने को अलग मानेंगे कभी॥
जिसमें मानवता के लिए,
आँसुओं का कोषागार नहीं है।
वे लोग कभी भी,
मानव कहलाने के काबिल नहीं हैं॥
हम मानव,
इस धरा पर पूजित।
करोड़ों जीवों से भी,
कहलाते हैं बेहतर॥
तो फिर यहाँ,
दानवता का बीज।
कैसे अँकुरित हुआ?
मानवता के बीच॥
सोचें, समझें, अच्छा ही अच्छा,
चिन्तन-मनन करें पूण्यता से भरा।
ऐसी मनुजता के इन क्षणों को,
जीवित बनाये रखें सदा॥
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कविता-“काश, देवियाँ देवियाँ ही होती”
काश, इस जगत् की जननी,
ये नारियाँ सच्ची देवियाँ होती।
तो कौन दुःख का भागी बनता?
काश, ये देवियाँ देवियाँ ही होती॥
तो इनकी सुन्दर देह का सौदा कौन करता?
और कौन अपनी इज्जत बेचती?
यदि सब दैवीय मूर्ति होती,
तो वेश्यालयों की स्थापना कैसे संभव थी?
और कभी नहीं आते यहाँ पर लोग।
इनकी इज्जत का करने के लिए भोग॥
ये देवियाँ वस्त्रों में लज्जाशील बन रहती।
तो कौन नग्नता और अश्लीलता को जान पाता कभी?
यदि ये पूज्यता से भरी होती।
तो पुरूषों को अपने पीछे नहीं दौड़ाती॥
और नहीं एक-दूसरे के हाथों,
अपनी देह रूपी फूल को मुरझाती।
साथ ही इसकी सुगन्ध महकती,
यदि वह कोमल कली बनी रहती॥
काश, ये देवियाँ देवियाँ ही होती।
तो कौन दूध पिलाता?
इन आतंकवादी बेटों को।
इनकी शिक्षा कहाँ की?
पाठशाला में हम दिलाते।
यदि ये जन्म नहीं पाते,
तो इनका ही अपहरण कौन करता?
माँ-बहिन की इज्जत के,
खुलेआम सौदे फिर कहाँ होते।
काश, ये देवियाँ देवियाँ होती,
हर तरफ विश्व-बन्धुत्व की त्रिवेणी।
अपनी धार पर शाँत-निर्मल भाव से,
पापों का शमन करती हुई बहती॥
क्यों, मानव मानव का दुश्मन बनता?
यदि इन्हें नारी का आदेश नहीं मिलता।
क्यों कलियुग का आगमन होता?
यदि नारी का तन अपवित्र होने से बच जाता॥
क्या शेष बचा है?
जब नारी तोड़ दे सकल बंधन ।
और दिखा अपनी नग्न देह,
कर दे इन कुत्तों को सुपुर्द॥
जो खड़े हैं कभी से,
इसके पीछे भूखे-प्यासे।
यह नारी ही देगी,
तृप्ति का आनन्द इन्हें॥
नहीं, खुद भी पाती है स्वर्ग का मौज।
नारीत्व को बचाना है भारी बोझ॥
वाह, स्त्री तेरा रूप,
कितना पूज्य है?
खुद ने ही बेच दी,
इज्जत अपनी।
दुकानें चल रही, देह से अपनी॥
क्या? इसी के लिए हो तुम नारी।
काश, देवियाँ देवियाँ ही होती॥
तो कोई नहीं पापी बनता।
और नहीं पनपती दानवता॥
रखो, अपनी लज्जा को बचाकर,
खिलो, कोमल कली-सी पवित्र बनकर।
नाचो, स्वर्ग-लोक की परी-सी बन,
गाओ, बसंत की महकती कोमल की कूक॥
नारी, सब तेरे पीछे हैं।
फिर क्यों तू फिरे?
औरों के पीछे॥
तुम ही पूज्य अलौकिक मूर्ति हो।
फिर क्यों इनके बीच गन्दी बनी हो?
काश, तुम देवी देवी ही हो॥
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कविता-“असीम के प्रति”
हे मेरे देव,
अब तुम ही हो मेरे रखवाले।
सकल जगत् के निर्माता,
सद्बुद्धि और सद्कर्म का सन्देश देने वाले॥
जरा देखो, इस जगत् की ओर,
कहाँ चली गई है मानव बुद्धि इनकी।
एकबार अवतरित हो मेरे देव,
यहाँ निरन्तर पुकार करता हूँ मैं तुम्हारी॥
श्रेष्ठ मानव क्यों बनाया हमें?
हिंसक पशु या कीट-पतंगे ही सही थे॥
हम नहीं थे इसके काबिल।
अब तुम ही हो हमारे से जलील॥
हे मेरे देव,
सर्वस्व तुम्ही हो।
तीनों लोक के स्वामी भी हो॥
हम तो इस धरा पर हैं,
अपराधी, अन्यायी और अत्याचारी।
नहीं है हमारे में,
सद्कर्मों की निशानी॥
क्यों भेजा है?
हम पापी दानवों को।
इस स्वर्गीय धरा को,
कलंकित करने॥
यहाँ हम शोभित नहीं,
हे मेरे देव।
आज जरा-सी,
यह बात मान लो।
आज से ही अलग नरक में,
हम दुष्टों को निर्वासित कर दो॥
जहाँ हो ऐसे ही दानव,
वहीं हम आनन्द से जीयेंगे।
वहाँ पाशविक कर्म हम,
असूरों के साथ मिलजूल कर करेंगे॥
यही विनति है मेरी,
जरा कृपा करो अभी।
नहीं बचेगी अब धरा,
इन असूरों से नष्ट हो जायेगी॥
स्वीकार करो मेरे स्वामी,
इस धरा पर अवतार लो।
शीघ्र ही इन दुष्टों का नाशकर,
यहाँ परम स्वर्ग की स्थापना करो॥
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कविता-“बचपन की शादी”
जब बचपन में पहली बार,
इस धरा पर चलना सीखा।
जब माँ कोख में था,
उस समय का बना एक रिश्ता॥
न बोलना सीखा था,
तभी हो गई बातचीत पक्की।
सोच-समझ भी नहीं थी,
सभी कहने लगे, किसी को किसी की पत्नी॥
कैसी है वह,
बड़ों की पसंद है, तो अच्छी ही होगी।
कैसे पहचान सकूँगा मैं?
जिसे बतायेंगे आप, वही स्वीकार करनी होगी॥
हृदय की बात,
और श्वासों की वाणी।
अंतर्मन की आवाज,
और प्यारी आँखों की टकटकी॥
यह सब कुछ अजनबी,
जिसको कभी पहचाना नहीं।
जो सपनों की रानी,
प्राणों से प्यारी॥
कौन है मेरी?
जिसको कहूँ सहचरी।
यह शादी हुई भी या नहीं,
हमें नहीं मालूम, आप कहो जो सही॥
हम पूरी जिन्दगी का साथ निभायें।
कसम तो खायी नहीं थी हमने॥
फिर भी बन सकेंगे,
हम जीवन-साथी।
क्या बन पायेगा?
यह सात जन्मों का रिश्ता कभी॥
एक घनी भीड़ के बीच में
भाई की पुकार आई।
वह लड़की मेरे को,
बहिन-सी रास आई॥
पास में खड़े,
एक भद्रजन ने कहा- धीरे-से।
अरे, इधर देखो भाई,
यह आपकी पत्नी है॥
आप यह मजाक,
हमसे ना करना।
हम दोनों ने,
एक-दूसरे को भाई-बहिन कहा॥
अब होश खो दिये,
जो रिश्तेदार बने थे।
हम दोनों आश्चर्य से,
इन्हें धिक्कार रहे थे॥
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कविता-“ऐसी बीत रही है।”
जननी तुमने जताया अधिकार अपना।
दूध पिलाकर, मृद-वचन सुनाकर पढ़ाया॥
गोद से उतारकर, उँगली पकड़ चलना सिखाया।
फूल-से लाल को, कंठीली डाल पर खिलाया॥
चलने लगा अब वह, दौड़-दौड़कर।
फूली ना समायी, माँ झूम- झूमकर॥
अपने में रहने लगा, वह अकड़-अकड़कर।
माँ के नयनो से बहने लगे, अश्रु झर-झरकर॥
देता है उलाहना,
बड़ा तुमने किया।
होती है पड़ताड़ना,
खुदा की राह पर मिला॥
सुनाती है वधु, तानें मार-मार।
रोती है वह, मुँह फाड़-फाड़॥
देता है आदेश पूत,
हो जाते हैं बँटवारे।
जीते हैं महलों में खूब,
झेलती है दुःख मातृभार से॥
हो गई वह जर्जर,
मिलेगा प्राच्य खंडहर।
रहती है वह एकांत,
करते हैं वे छिपकर वार॥
दादी का दर्जा दिलाया देव-दया ने।
आयी अट्ठहास अकेले अनजाने में॥
लोरी सुनाती है लाल को,
साथ सास को फटकार।
आयी है बारी बहू की,
बेटे की बहार से उपहार॥
पुत्र को देता है समाज,
लाड़-प्यार और मान-सम्मान।
एक-एक दिलासा के लिए,
काट रही है जिन्दगी वह॥
खाते हैं बेटे तरह-तरह के पकवान।
चाटते हैं पोतों के साथ-साथ श्वान॥
वह दो-दो दिनों की, सूखी-बाँसी रोटियाँ।
खाती है पीस-पीसकर, आज से नहीं बीता अरसा॥
देती है गालियाँ, ये अपनी सास को।
जो सूनी नहीं जाती हैं, बिना पिटाई के।
पीछे से, रट लगाते हैं बूढ़ी को।
कब जल्दी मरे? खिलाये समाज को॥
नहीं चाहती है वह,
किसी को कष्ट में।
इसी दुःख में भी,
रहती है वह खुशी से॥
करती है गुहार, अपने लाल की।
खुशी से प्रदान हो, उसे जिन्दगी॥
दूर से उन नन्हों को ईशारा कर।
दीर्घायु की अर्ज करती हाथ जोड़कर॥
देखो, इस जीर्ण-शीर्ण पीढ़ी में।
खोजो, मानवता की ऊँची सीढ़ी है॥
सोचो, जरा अभी से,
ढूँढोंगे फिर ना मिलेगी यहाँ रे।
रोओगे, कौन बँधाएगा ढ़ाँढस तुम्हे?
हो जायेगी प्रलय पलभर में॥
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कविता-“मृत्युभोज”
एक जवान-तरूण सी कोमल काया ने।
तोड़ दिया बंधन नन्हें की मैया ने॥
मच गया हाहाकर,
चारों ओर।
हर ओर रुदन-स्वर,
नयनों से गिरती अश्रु-धार॥
प्रलाप में, पागल-से परिजन।
साथ ले पार्थिव-देह, निकले विसर्जन॥
कोई न आया साथ,
साथ चली केवल लकड़ियाँ।
भूल आये सब,
श्मशान के यहाँ॥
शांत-स्थिर-मौन बन लौटे,
लेकर निशानी अस्थि-पंजर।
कितने सत्कार से,
गंगा में बहायी राख॥
बीते दिन तीन,
जुड़े बैठक में लीन।
बनी योजना महाभोज की,
भीतर से आयी करूण चीत्कार-सी॥
समझ ना पाये व्यथा ये,
आने लगे विचार-विमर्श करने।
क्षीण पड़ा मृत का आघात,
कतारें लगी महोत्सव-पर्व में॥
जग बड़ाई से बनाये,
विशिष्ट पकवान यहाँ।
फिर आमंत्रण हुआ,
महानुभावों का॥
करने लगे, अनहोनी बड़ाई।
होने लगी, अर्थ की हनाई॥
ऐसे ही फैल गयी दरिद्रता,
और प्राप्त कर गयी वह स्वर्ग,
अन्य परिजन हुए,
सहर्ष जीर्ण-शीर्ण॥
हुआ भोज, बढ़ी मानवता।
पूण्य पा गयी, वह मृत आत्मा॥
जिन्दे-जी, ना देखी।
सूखी रोटी और,
आधा गिलास पानी॥
लेकिन अब, चढ़ाये जा रहें छत्तीस भोज।
वह आत्मा, कहाँ करेगी इसकी खोज?
नहीं हैं घर में दाम।
आ रहे महाजन के धाम॥
बिन माँगे ही मिल रहा धन।
दिखा रहे हैं दया-दान जन॥
पखवाड़े भर लगा मेला।
अब बिछुड़ने लगा सैला॥
उड़ गयी पातलें यहाँ से।
रस्म की गँध रूक गयी है॥
अब झेल रहा है परिवार।
आये दिन ऋण के आघात॥
करने लगे ये लोग व्रत।
ना तन पर है पूरे वस्त्र॥
फिर भी नहीं मानते हैं यह,
किसी भी सत्ता का कानून-नियम।
इसी भोज में समझते हैं अपना बड़पन,
नवशिशु भी ग्रसित हैं इससे जकड़न॥
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कविता- “महाविनाश आ गया"
महाविनाश आ गया।
सृष्टिलोक में हाहाकार मच गया॥
हत्या, लूट और डकैती के बाद,
अब फैला है आतंकवाद।
क्या है आतंकवाद?
निस्सहायों पर आघात॥
बेकसूर गोलियों से भूने जाते।
और झुग्गी-झोंपड़ियाँ बम से उड़े॥
कितने ही होते हैं अकाल मौत के शिकार?
दो जुड़े दिलों में पड़ जाती है एक दरार॥
स्नेह-निर्झर सूख गया है अब।
रोदन स्वर शेष बचा है बस॥
कहाँ करूणा, कहाँ मानवता?
हाय रे हाय! यह क्या?
महाविनाश आ गया।
धरती माँ का स्वर्ग ढह गया॥
नरदेवों का हुआ प्रस्थान।
अब है यहाँ असूरों का मान॥
क्या इज्जत और मर्यादा?
सदाचार पर लग गया ताला॥
व्यर्थ है ऐसे नाम।
बेइन्साफी चढ़ गयी परवान॥
महाविनाश का आतंक,
उठता है अपने ही बीच।
हमारे आसपास यहीं-कहीं,
खड़ा है यह वृक्ष, जड़-मूल सही।
लगता है मानव जाति का उपजा हुआ,
यह वटवृक्ष है बहुत ही विषैला।
वो शीघ्र ही लील लेगा,
वंश अपना पूरा का पूरा॥
फिर यह नरराक्षस,
असुरों से घुलमिल।
बेफिक्र हो अपना कर्म,
करेंगे शायद पूर्ण।
महाविनाश का पहला सफर।
जिसमें आतंकी बने हैं मुसाफिर॥
क्या कहें सामान्य जन की?
जो खड़ा है आगे कुआँ, पीछे बावड़ी॥
हिले-डुले, तो गिरे।
बोले-चीखे, तो मरे॥
बन मूक वह लाचार,
खड़ा है अधर में खाँडे की धार।
कैसे जीयेगा मानव अब?
बचे हैं थोड़े-से पल॥
सोचता है खड़े-खड़े।
गुजार दूँ जिन्दगी लड़ते-लड़ते॥
अब सामने है महाविनाश अपना।
खुदा ही साथ देगा करूँ मैं प्रार्थना॥
हाय! निश्चय यह लगता कि-
मानव मानव को देखेगा कैसे?
देख! सामने है उसको,
टूट पड़ेगा खून के लिए॥
सुगबुगा उठी है आज यह लौ।
महाविनाश का ही मंत्र जपेगी वो॥
न जाने क्या होगा?
शायद ही अवशेष बचेगा।
तैयारी है अरथी उठने की,
चलने को खड़े हैं हम सभी।
अब है कोई आशा नहीं,
भू-लोक के बचने की॥
चलो, महाविनाश आ गया।
कैसे शुरू करना है सफर इसका?
ए मानव समय से पहले सोच लेना।
जल्दी ही कोई जतन अपना॥
कविता-“वेश्या”
यह हाँड़-माँस की बनी देह।
जीर्ण-शीर्ण हो जायेगी एक दिन।
फिर क्यों चुके हम?
पूर्णता से हो इसका दोहन।
आनन्द है इसमें वो ही आनन्द,
जिसकी प्राप्ति है त्रिलोक में भी नामुमकिन।
किसको कहे मलिक अपना?
जो भी कोई मिल जाये।
उसको ही अपना बनाएँ,
भिन्न-भिन्न नाम दे।
बाहर से नहीं कहती अपना स्वामी ।
बस अन्दर ही अन्दर उसे मान लेंगी।
भ्राता भी यही,
यही है दोस्ती का अर्थ भी।
जो बुझाये आग अपनी,
उसी को हमने काया सौंपी।
एक पति को नहीं,
सौ-सौ को सौंप चुकी।
फिर भी ललक है,
और वासना का विष भी।
यही है हमारा कर्म,
जो कर रही मानव जीवन में पूर्ण।
और चाहिए ही क्या?
नहीं बची हैं हमारी मनोवाँछा।
आओ कोई भी,
हम नहीं पूछती किसी को भी।
कौन हो-क्या काम?
पुरुष हो, करो अपनी पिपासा शांत।
हम है वह दूधारू पशु,
जो देगा चारा-पानी।
वही ग्वाला पायेगा दूध,
नहीं तो लात मिलेगी।
नहीं मानती हम,
आत्मा-परमात्मा।
जब शांत करेगा नर,
अपनी काम-वासना।
तभी होगा पाप-पूण्य कर्म,
नहीं तो हमारा जीवन गया।
नारी हूँ तो यही,
बनता है फर्ज मेरा।
एक नहीं हजारों का हो,
चारो और घेरा।
जग की खुशी ही, हमारी खुशी।
क्यों विघ्न डाले हम,
किसी के स्वर्ग भोग में।
जितना हो सके,
हम सहयोग दे।
नर की चाहत में,
जिन्दगी समर्पित कर दी नारी ने।
यदि राक्षस हम नहीं होते,
तो हमेशा उसकी पूजा होती।
तुम्हारी तृष्णा के बीच में,
अभी तक फँसी है अबला नारी।
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कविता-“कलियुग के अवतार”
सतयुग बीता,
बीता द्वापर।
त्रेता भी चला गया
आज का यह कलियुग,
महानता के शिखरों को छू गया।
यहाँ अवतारी राम-कृष्ण ही नही,
रावण कंस से भी बढ़कर।
इस धरती पर आश्रित है,
जो अवगुणों पर गुणों को लादकर।
क्या कर्म है?
क्या पुनर्जन्म?
पहले से सचेत हो,
करें हम सद्कर्म।
अब ऐसी बात नहीं है,
इन्तजार करें हम अगले जन्म में।
तुरन्त ही क्रूर कर्मों का फल,
मिल जायेगा कुछ ही पल में।
आज का हिसाब,
इस हाथ से उस हाथ।
सीधा-सरल,
दूध का दूध-पानी का पानी।
एक नहीं सौ-सौ महापुरूषों ने पाया जन्म।
जो करे चोरी-हिंसा, लूटमार और अपहरण।
इनके संगी है कई रूप,
भ्रष्टाचार और आतंकवाद।
कलियुग के अवतारी,
सीधी नजरों से दिखाई नही देते हैं।
उनको घोर पापभरी निगाहें ही,
जाँच-परख सकती है।
आज सभी यौद्धा है,
कोई नही सेवकगण।
सब नायक है,
कोई नहीं कलाकार।।
नहीं बची मानवता की निशानी,
बची केवल दानवता की रवानी।
ये अवतारी,
नहीं हैं स्वर्गवासी।
बस सभी हैं,
नरकभोगी ही।
कौन शक्ति है,
जिसकी स्तुति करें हम।
इस पाशविकता का,
समूल करे शमन।
पुकारें सभी सत्युगीन पुकार,
आये कोई करे कलियुग का विनाश।
हम जीयें,
सतयुग को साथ ले,
बोलें परोपकारी,
और मृदुवाणी।
मन में हो मानव-प्रेम,
आँखों में हो सहृदय नीर।
कर-कमलों को लगायें,
सद्कर्मों को साथ ले।
तब कलियुग की तस्वीर,
परिवर्तित होगी जरूर।
-----*-*-*-*-*-*---
कविता-“विकास के नाम पर”
हमारी लोकतांत्रिक सरकार,
जनता इसकी आधार।
पद मिला है,
तो कर्तव्य भी साथ है।
विकास करना हो,
तो स्वयं दीन बन जायें।
जनता के चुने प्रतिनिधि राजनेता।
क्यों है सामान्य से अलग विशिष्टता।
यही कर्तव्य बने कि-
सुलझाये आप प्रत्येक परेशानी।
क्यों इतनी सभाएँ करते?
स्वयं जनता से मिलकर सन्तुष्ट नहीं होते।
इनका यह देश नहीं,
बस, यह तो हैं तानाशाही।
दूसरों के कल्याण की जरूरत भी नही,
खुद बन जाते हैं करोड़पति।
बनती हैं बड़ी-बड़ी योजनाएँ,
बजट भी हम घाटे में बनाते हैं।
फिर भी यह देश और समाज,
वैसा का वैसा ही क्यों है।
करोड़ों रूपये खर्च करती है सरकार।
ताकत हो तो जल्दी ही खींच लो अपनी तरफ।
लेकिन यह धन-वर्षा,
वहाँ नहीं होती है।
जहाँ सदैव ही,
सूखा और अकाल है।
यह तो सीधी ही,
नदी और सागर में होती है।।
कब धीरे-धीरे बहकर,
पानी यहाँ पर आये।
जरूर ही होता है विकास ।
जिस योजना की है तलाश।
सामान्य जन को यह नहीं मालूम।
सुनते हैं इनकी बातचीतें खूब।
प्रजातंत्र की प्रजा पीड़ित,
अपने टूटे खण्डहर-झोपड़े से।
अपनी सरकार भी कार्यरत,
एकांत काँच के महल बनवाते।
जहाँ भारत देश की जनता,
निवास करती है खुले में।
वहाँ पर कच्ची-मिट्टी से ही,
बने हैं सब अवशेष।
सार्वजनिक स्थलों की तो बातचीत ही क्या?
पारदर्शी फर्श और डिजाईनदार-दरवाजा।
जीवन की हर विलासिता के साथ।
शौचालय भी मार्बल-पत्थरों से सज्जित ।
इन चीज़ों से क्या लेना है जनता को,
क्षणभर यहाँ ठहरकर आनन्द उठायें।
इस भारतदेश में,
क्या अजीबोगरीब चीज़ें हैं।
जो स्वर्ग को भी,
सौभाग्य से ही प्राप्त है।
विकास हम देखते हैं,
अखबारों और सभाओं में।
जहाँ ही हम दर्शन पाते हैं,
हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों के।
बड़े-बड़े भाषण,
और कागज पर बनी योजना।
यही लोकतंत्र की,
विकासोन्मुख शासन-व्यवस्था।
क्या कसूर है इनका,
किसको दोष दें हम?
एक ही है चाँद यहाँ,
बाकी सब टिमटिमाते नक्षत्रगण।
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COMMENTS