डां नन्द लाल भारती लघुकथा :बेटी की रोटी अरे चेतन ओ चेतन।अनजान शहर कुछ परिचित सी आवाज ।असमय बूढा हुआ चेतन, फूंक मार कर चश्मा आंखों पर टांगते...
डां नन्द लाल भारती
लघुकथा :बेटी की रोटी
अरे चेतन ओ चेतन।अनजान शहर कुछ परिचित सी आवाज ।असमय बूढा हुआ चेतन, फूंक मार कर चश्मा आंखों पर टांगते हुए बोला कौन है भाई..?
पहचाना नहीं ?
भैय्या अनजान शहर अनजान लोग किस पहचान के भरोसे पहचानूं ?
हमारी पहचान बहुत पुरानी है, स्कूल से कालेज तक साथ थे । नौकरी की वजह से बिछुड़े थे अब मिले ।
कौन हो भैय्या ?
चितरसेन.....चेतन ।
अच्छा वही चितर है जो गुली डण्डा मे हारने पर रोने लगता था।
हां वही हूँ,मेरे दोस्त।तू बार बार चश्मा साफ कर रहा दिखाई नहीं पड़ रहा क्या ?
बूढा हो गया अपनों की घाव ढोते-ढोते।
तू मुझसे दो साल छोटा है और मुझसे अधिक बूढ़ा हो गया।
बहुत लम्बी दास्तान है तू यहां कैसे ?
दौरा पर आया हूँ।
तुम कैसे आये हो ?
मै अब इसी शहर मे रहता हू।
कहां ?
बेटी के घर ।
क्यों ?
क्या गुनाह है ?
सुना था तुम्हारा बेटा भी था।
था नहीं है।मेरी मेहनत की कमाई का बेटा बहू जश्न
मना रहे हैं।
ऐसा कैसे हो गया ?
बहू की साजिश ने अंगूठा कटवा लिया ।अब वही बेटा हमारे ही घर से बेघर कर दिये ।मैं उसी बेटी-दमाद की रोटी पर जी रहा हूँ जिसने मेरी सम्पत्ति से हिस्सा लेने से मना कर दिया ।
याद रखना चितरसेन अंगूठा मत कटवाना ।
तुम्हारी गीली पलकों ने आंखे खोल दिए चेतन ।
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लघुकथा: साढे तीन सौ रुपये का दण्ड ।
विक्रम काका गाँव कब जा रहे हो ।
अगले महीने बेटी का ब्याह करने ।
अगले हफ्ते चुनाव है, अपनी सरकार नहीं बनाओगे ?
सरकार तो बनेगी, मतदान भी होगा। पिछले चुनाव में मतदान किसी और को किया, गया किसी और को । इस बार न जाने क्या होगा ?
मतदान नहीं करोगे तो चुनाव आयोग साढे तीन सौ रूपये तुम्हारे बैंक खाते से या मोबाईल से छिन लेगा ।
बेटी का ब्याह अगले महीने है, एक एक पैसा दांत से दबाकर रख रहा हूँ। पांच छ: हजार रूपये मतदान के लिए कहाँ से निकालूँ ।महंगाई बेरोजगारी के इस दौर मे मुश्किल है।ट्रेन की भीड़ और टीटी की लूट से वाकिफ हो। साधुओं की तरह से गृहस्थ को कोई सहायता भी नहीं है। हां आत्महत्या करने को स्वतंत्र है।
जगत काका मतदान नहीं करोगे ?
करना तो चाहता हूँ विक्रम बेटा ।
पर कैसे काका ...?
आधार कार्ड की तरह मतदाता कार्ड काम नहीं करेगा क्या ..?
काका फिलहाल तो नहीं ।
फिर ये डिजिटल इंडिया क्या है ?
एक दिवास्वप्न काका ।
हाय रे किस्मत... जुमलों में विकास, जुमलों का जीवन, जुमलों का छप्पन भोग,हकीकत में महंगाई, भ्रष्टाचार, भेदभाव,अत्याचार और अब चुनाव आयोग का नया दण्ड ।
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लघुकथा :सास का कत्ल ।
सूर्य आसमान की गोद में समाने को आतुर था परिंदों के झुंड घोसले की तरफ सरपट भाग रहे थे।आम के पेड़ पर लटका शहद-पिण्ड की मधुमक्खियों में ना जाने क्यों बेचैनी का माहौल था।इसी बीच प्रवीण बाबू का फोन घनघना उठा ।
हेलो.......भईया।
जी द्रविड़ भाई बोलो क्या खबर है। पिताजी ठीक हैं।
पिताजी वैसे ही हैं,चारपाई में समाये हुए पर इन्दिरा फुआ चल बसी ।
क्या.......कह रहे हो ?
बहुत तकलीफ मे फुआ थी ।
साल भर पहले तो भलीचंगी थी।लल्ला के ब्याह मे कितना भागा दौड़ी की।एकदम से क्या हो गया था ?
बहू प्रियंका ने झाड़ू से मारकर ढकेल दिया बेचारी फुआ की कमर ऐसी टूटी की फिर नहीं खड़ी हो पायी । बेचारी दर्द, भूख प्यास मे तड़प तड़प कर मर गई।
हे भगवान बहू ने सास का कत्ल कर दिया ।जिस
बहू बेटे के लिए फुआ तिनका-तिनका जोड़ती उसी ने हत्या कर दी ।
इतनी प्रियंका शैतान हो गई है कि फुआ का चेहरा नहीं देखने दी।विधिवत दाह संस्कार भी नहीं करने दी।लाश गंगा मे फेकवा दी।मैं दाह संस्कार का खर्च उठाने को तैयार था पर नहीं तो नहीं। मचलदार अपने सास ससुर और पत्नी का गुलाम हो गया है। मां की इतनी दर्दनाक मौत का तनिक गम न था उसे ।
हे भगवान बूढ़े सास ससुर का जीवन प्रियंका जैसी बहू की मुट्ठी मे असुरक्षित हो गया है जब चाहे टेटुआ दबा दे ।
हां भईया गांव के लोग भी दबी जबान यही कह रहे है बहू प्रियंका ने सास को ढाठी देकर मार डाली है।
हिंसक बहू को देखते हुए कठोर कानून बने,पुलिस और समाज कल्याण विभाग बुजुर्गों की खोज खबर लेता रहे जिससे बुजुर्ग सास ससुर बहू के ठीहे पर हलाल होने से बच जाए ।
डां नन्द लाल भारती
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मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
लघुकथा - रमधनिया
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रमधनिया ने ठान लिया था कि वो अपने शराबी - जुआरी पति को आज सबक सिखा कर ही मानेगी | बेचारी रमधनिया मध्यप्रदेश से चलकर आगरा मजदूरी करने आई थी | सुबह से शाम तक खेतों में आलू बीनती तब जाकर प्रतिदिन सौ - सवा सौ रुपये कमा पाती | साथ में दो बेटियाँ भी थी, इसलिए खाने-पीने का खर्च भी ज्यादा था | पति काम तो करता था पर सारी कमाई जुआ - शराब में उढा देता और ऊपर से रमधनिया के कमाये पैसों पर भी हक जमाता |
देररात टुन्न होकर रमधनिया का पति आया तो दोनों में झगड़ा हो गया | झगड़ा इतना बढ़ गया कि झगड़े की खबर ठेकेदार को पता चल गई | उसने तुरन्त सौ नं. पर सूचना दी, कुछ ही समय बाद सौ नं. की गाड़ी आ गई | पुलिस आने से झगड़ा खत्म हो गया और पुलिस ने दोनों का राजीनामा करा दिया परन्तु राजीनामा के बदले दो हजार रुपए रमधनिया को गंवाने पड़े | वैसे दो हजार बचाने के लिए रमधनिया ने उन पुलिस महाशयों के खूब हाथ-पैर जोडे, लेकिन उन निर्दईयों को तनिक भी तरस नहीं आया | सच भी है वर्दी पहनकर कोई देवता नहीं बन जाता |
रमधनिया अपने तिरपाल के बने झोपड़े में पड़ी-पड़ी सोच रही थी, काश वो अपने शराबी पति से न लड़ती और हजार - पांच सौ उसे दे देती तो कम से कम कुछ पैसे तो बच ही जाते... |
- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा, 283111
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