बिछोह कोख में आने से अब तक तुम्हारा स्पर्ष, अहसास चहुँ ओर बिखरी ...
बिछोह
कोख में आने से
अब तक
तुम्हारा स्पर्ष,
अहसास
चहुँ ओर बिखरी
तुम्हारी यादें,
तुम्हारी खनकती हँसी,
तुम्हारी शरारतें,
फिर कई तरह की
मनुहारें,
तुम्हारे लिये खुदा से
भीख माँगना व तुम्हें
पाना,
तुम्हारे बिछोह की
कल्पना मात्र से काँप
जाना याद है मुझे
आज तुम चली गई
सुना है पराई हो गई
पर मेरा मन नहीं
स्वीकारता, क्यूँकि आज
भी धड़कता है मेरा दिल
सिर्फ तेरे लिये,
सिर्फ तेरे लिये।
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पोटली
बड़े नाज़ों से पाल पोस
मैंने पकड़ा दी अपने
प्राणों की डोर किसी
अनजान पथिक को,
देना चाहती समस्त
संसार की खुषियाँ,
कुछ कल्पना भरी,
कुछ यथार्थ से जुड़ी
परन्तु कई जगह
असमर्थ हो जाती
दृढ़ता से कह सकती,
मैंने पकड़ाई है तुम्हें
जाते हुए इक यादों भरी
बड़ी कीमती पोटली।
बिटिया, जब कभी भी
मेरी याद आये, खोल
कर कुछ निकाल लेना
उसे इस्तेमाल भी करना
वही है इक याद भरी
संस्कारों की पोटली,
जो तुम्हें कभी भी
भटकने न देगी।
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इन्तज़ार
बीती रात,
झकझोर दिया इक ख्याल ने
उठ बैठी
अंधेरी काली रात में
चहुँ ओर सिर्फ अन्धकार,
बुझ गये सारे दीये,
अरे, कोई टिमटिमा भी नहीं रहा,
ये बेबुनियाद लम्हें
ये सरकती सी ज़िन्दगी
पूछती सिर्फ इक सवाल
अब किसका इन्तज़ार
सलाम होता कुर्सी, जवानी व
पैसे को,
विदाई ले चुके यह सब
रह गई सिमटी सी देह,
खुष्क आँखें, कंपकंपाते हाथ,
टपकती छतें व सिलवटों
से भरे बिस्तर,
नाहक जीने की चाह,
ख्याल जीत गया,
पूछ ही बैठा दोबारा,
बता अब किसका इन्तज़ार।
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धोखा
कौन, किसे, कब
धोखा देता
कितना ग़लत,
कभी नहीं।
धोखा दे रही हूँ खुद को,
बनावटी मुस्कुराकर,
झूठे-सच्चे रिश्ते बनाकर
एक उम्मीदों का गुम्बद दिखाकर
इस बेचारे दिल को,
जो सिर्फ़ धड़क सकता है
देख नहीं,
क्यों, आखिर क्यों कर रही हूँ
मैं ऐसा? ग़र सच का आईना
दिखा दिया इसे, तो शायद ये
धड़कना भी बंद कर दे।
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एहसास
सौंप कर अपने दिल का
टुकड़ा तुम्हें, मैं निष्चिंत हो गई,
पर कैसे?
उग गये मेरे हृदय पटल पर
एक की जगह दो पौधे
जिन्हें साथ-साथ बढ़ता, लहराता
देखना चाहती।
छुपा लेती अपने हृदय की वेदना,
जब लू या ठंड का झोंका तुम्हें
हिला जाता।
शायद कभी एहसास हो तुम्हें, कि
कितना कठिन होता, अपने जिगर
का टुकड़ा किसी को सौंपना
व अपनी अमानत उसकी
झोली में डालना।
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तस्वीर
धुंधली हो गई
सारी यादें,
सारी तस्वीरें,
चूर हो गये सारे
इरादे सारे वादे
समय का पहिया
किसे नहीं रौंदता,
पर क्यूँ नहीं
धूमिल पड़ी
वो तस्वीर, जो
तुम्हारे आने पर
छपी थी मेरे
मानस पटल पर,
सब कुछ स्वार्थहीन
सुन्दर, सलोना,
दिखाता मुझे
सदैव मेरा अक्ष
वही तस्वीर
याद करो, ज़रा याद करो।
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मंगलसूत्र
तमाम रसमों-रिवाज़ निभा,
एक बड़ा जमघट बना
शोर-षराबे के माहौल में
सबकी मौजूदग़ी में
पहना दिया उसने मेरे गले में
चंद काले मोतियों का मंगलसूत्र,
जो सदैव याद दिलाता
मायके का विछोह व
सारी उम्र की उम्रकैद एक
अजनबी संग।
चाहते मिटाना मेरा सम्पूर्ण
अस्तित्व,
ढल जाऊँ, बन जाऊँ मैं
उनके घर की उस पुरानी
दहलीज़ सी,
जिसमें आई पुष्तों से कई
बहुएँ, गई कई दादियाँ।
मैं शायद बन भी गई
उस दहलीज़ का पायदान,
जिस पर सिर्फ पाँव ही पोंछे
छोटे से बड़े तक ने,
मेरा मंगलसूत्र घिस गया,
हलकी पड़ गई उसकी टिकड़ी,
मोती भी बदरंग हो गए,
पर कभी षिकायत न की,
क्योंकि ये कभी बदला नहीं जाता।
सिर्फ एक सोच,
मज़बूर करती मुझे
काष कि उस दिन पहनाया होता
किसी ने बाहों का मंगलसूत्र
जो मुझे हर वक्त देता इक सकून
इस घर को अपना कहने के लिये।
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दरवाज़ा
आज कितने दिन हो गये
उन्हें गये।
हर पल इन्तज़ार है किसी
माँ, बहन या बूढ़े माँ-बाप को,
हर आहट, हवा का झोंका,
पत्तों की खड़खड़ाहट उन्हें
सोने नहीं देती।
वह तो कुंडी भी नहीं लगाते,
धीरे से सांकल लगा, सिर्फ
लेट जाते।
नींद कोसों दूर, ज़रा सी
आहट पर कई आवाज़ें,
बिटुवा, भाई, माँ, बहन
आई है सुनाई देती मुझे,
ये असहनीय, अकथनीय दर्द
जिसका कोई सानी नहीं
क्यूँ दिया प्रभु तूने।
चूंकि, जो चले गये, वो तो
नहीं लौटेंगे, लाख पुकारने
पर भी।
सज़ा भोगते ये मासूम
न जी पाएँगे, न मर पाएँगे
ताउम्र।
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स्वपन
गोद में नन्हें को लिये,
मुस्करा रही थी,
खुद ही खुद बतिया
रही थी,
मेरा राजा बेटा, मेरा
राजकुमार
मेरी आँखों का तारा
मेरा राजदुलारा,
कब बड़ा होगा?
मम्मा के लिये लाएगा
इक सुन्दर सी दुलहन
घूमेगी, खाना पकाएगी,
पाँव दबाएगी,
कटेगा बुढ़ापा उस नन्हीं
सी जान की आस पर!
नहीं करेगी अलग वह
पल भर भी, इस नन्हीं जान को,
बड़ा होगा तो क्या?
उसके लिये तो ‘नन्हा’ ही रहेगा।
पास बैठी बेटी सुन रही सब
कि भोली भाषा में बोल बैठी
‘‘माँ, ऐसा कुछ नहीं होगा,
तूने दादा-दादी को घर से
निकाला है,
ज़मीन पर सुलाया है,
कभी सेवा नहीं की,
पापा को उनसे बतियाने
भी नहीं दिया,
मुझे भी उनके पास
जाने नहीं दिया।’’
सुनकर स्तब्ध, हैरान व बेचैन
सोच अपना वही कंटीला भविष्य
जो उसने बो दिया था।
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दोराहा
दौराहे पर खड़ी जिन्दगी,
लिए कई सवाल,
कई बवाल
चहुँ ओर घोर अन्धकार,
टिमटिमाता सा इक तारा,
ममता का सहारा,
क्यूँ बार-बार मेरा हाथ
पकड़, मुझे घसीट लाता
ये उस दौराहे पर
जहाँ से आगे जाना
कठिन,
पीछे आना असंभव,
खींचता तुम्हारी ओर
सिर्फ एक ही जवाब,
कि ज़िन्दगी के बचे पल
तुम्हारे नाम हो जाएँ
लगे मुझे कि किसी काम
आए मेरे ये निश्छल पल
बूढ़ी ज़िन्दगी।
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ज़िन्दगी की नाव
ज़िन्दगी की नाव,
इक लम्बी नदी,
कई उतार-चढ़ाव,
अच्छी लगी।
अचानक इक तूफ़ान
में फंसी, कि भंवर भी
समेट ले गया, पता ही
न चला, कब मेरे चप्पू
मेरे हाथों से छूट बह गये
पानी मेंख् हो गई मैं अकेली
अनाथ उस नाव पर, जिसमें
संजोए थे मैंने अनगिनत सपने,
मन आवाज़ें लगाता, चीखती मेरी
आत्मा, पर अनायास
सूख गई नदी, बह गये सपने
व धीरे-धीरे मेरी नाव भी
निकल गई मुझे छोड़कर अकेला
सिर्फ उस ऊँचे पत्थर पर,
जहाँ से कभी देख सकती थी मैं
उफनता पानी, छलकती लहरें
व उन्माद संगीत।
आती है नज़र इक उम्मीद कि
कभी पानी बरसेगा, नदी बहेगी,
मेरी नाव आयेगी,
मेरी नाव फिर से आयेगी।
--
शबनम शर्मा
अनमोल कुंज, पुलिस चैकी के पीछे, मेन बाजार, माजरा, तह. पांवटा साहिब, जिला सिरमौर, हि.प्र. - 173021
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