दुख-सुख, आचार-विचार, चेतन-अचेतन अवस्था ही नहीं, मुक्तावस्था भी कविता को जन्म देती है। अनुभूतियों का वह स्तर जहाँ पहुँचकर मानव स्वयं को भूल ...
दुख-सुख, आचार-विचार, चेतन-अचेतन अवस्था ही नहीं, मुक्तावस्था भी कविता को जन्म देती है। अनुभूतियों का वह स्तर जहाँ पहुँचकर मानव स्वयं को भूल जाता है और अपनी निजता को लोक-सत्ता में लीन किए रहता है या फिर सत्ता और सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा हो जाता है, वहाँ विचारवान मानव जैसे कवि हो जाता है। संकुचन समाप्त प्राय: हो जाता है। फिर जैसा मन, वैसी कविता। व्यक्ति यदि मानसिक रूप से धार्मिक है तो धार्मिक कविता, राजनीतिक है तो राजनीतिक कविता, किसी का प्रेमी है तो प्रेमान्ध कविता, उत्पीड़ित है तो प्रताड़ना के खिलाफ चीखती-चिल्लाती अर्थात देश, काल और परिस्थिति कविता को सदैव प्रभावित करती है।
कविता अचानक किसी के दिमाग में घर नहीं करती। यूँ जानिए कि प्रत्येक बच्चा जन्मजात एक कवि होता है, यदि उसे होने दिया जाए या फिर बच्चा अपनी पहली आवाज को याद रख पाए, किंतु सच यह है कि प्रत्येक बच्चा – जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, वैसे- वैसे सांसारिक उलझनों से परिचित होता चला जाता है, यानि कि उसका अपना मूल समाप्त होता चला जाता है। और बाहरी झंझटों में उलझकर रह जाता है।, उसका बचपना समाप्त हो जाता है। हाँ! कुछ बच्चे ऐसे अवश्य होते हैं जो तमाम उलझनों/पचड़ों में पड़कर भी अपने कविमन को वैचारिक खाद-पानी देकर कविता को जिन्दा रख पाते हैं।
कविता कवि की अपनी ही बात हो, यह आवश्यक नहीं। कविता अनुभूति अर्थात अहसास और संवेदना का भी परिणाम भी हो सकती है। कविता अपने दुख-दर्द से भी प्रेणित हो सकती है। इसे चेतावनी देना शायद ही तर्कसंगत हो। यह आवश्यक नहीं कि कवि की अपनी पीड़ा की अनुभूति किसी और को हो, किंतु औरों की पीड़ा कवि की पीड़ा हो सकती है। हाँ! यह अलग बात है कि कवि समस्या का समाधान करने में सक्षम हो न हो, किंतु समस्या के विरोध में न केवल आवाज़ बुलन्द कर सकता है, अपितु समस्या के समाधान का मार्ग तो प्रशस्त करता ही है, यह जानना अति आवश्यक है।
दर्शन की बात करें तो जगत एक है, किंतु इसके रूप अनेक। मुखौटे पहने हुए है आज का हर शख्स। एक उतारा, दूसरा पहना। जैसा मौका मिला, वैसा काम किया। अब कविता बेचारी क्या करे? जब संवेदना ही खारिज हो गई तो शेष क्या रह गया? केवल व्यभिचार, भ्रष्टाचार, अनाचार और क्या? ठीक इसी प्रकार कवि एक है – हृदय एक है, किंतु भाव अनेक हैं। इस विभिन्न प्रकार की भावनात्मकता का निर्वाह, कार्य-व्यवहार तब ही समझा जा सकता है, जब यह भावनात्मकता जगत के भिन्न-भिन्न रूपों, व्यापारों या तथ्यों के साथ हो जाए; जगत की बात करे।
यहाँ यह जानना भी जरूरी है कि काव्य-दृष्टि में भाव-पक्ष मूल होता है। विषय अलग-अलग हो सकते हैं। भोगे हुए सच में भी भाव-पक्ष का निर्वहन आवश्यक है। भोगा हुआ सच नंगा और अशोभनीय हो सकता है, किंतु उसका प्रस्तुतिकरण नंगा-उघाड़ा न होकर अत्यंत मार्मिक और वीभत्स हो जाता है। दरअसल कविता भाव-पक्ष की चहेती है। स्मरणीय है कि जैसा पहले कहा जा चुका है कि विषय अलग-अलग हो सकते हैं। इसे ध्यान में रखने की आवश्यकता है। सामाजिक परिवर्तन के साथ कविता भी अपने वस्त्र बदलती रही है, क्योंकि विचार निरंतर बदलता है। ऐसे में कवियों का काम ही नहीं बढ़ जाता अपितु परम्परागत विषयों से नए विचारों तक लौटकर आना, उनके गले की हड्डी बन जाता है। कविता समाज की पहचान है। समाज में व्याप्त अच्छाइयाँ और बुराइयाँ ही कविता का विषय रही हैं। इस सत्य को नकारना जैसे कविता को नकारना है।
असल में, कविता मूलत: सभ्यता और संस्कृति की विवेचना है। कविता की सार्थकता भी इसी में है कि उसमें रसात्मकता हो न हो, किंतु क्रांति-बोध जरूर सम्मलित हो। जिनके लिए कविता बन पड़ी है, उन्हें चलने को, उठने को, अन्याय से निपटने को खड़ा करने का मार्ग प्रशस्त करे। कविता में मीरा, सूरदास या फिर तुलसी के जैसा भक्ति-भाव ही पर्याप्त नहीं है। अम्बेडकरवादी साहित्य (तथाकथित दलित साहित्य) की मान्यताओं के अनुसार, यह कविता का एक भ्रामक रूप है। लुभावना और कर्णप्रिय अवश्य है किंतु समाज की प्रगति में साधक नहीं। यह एक लीक बनाता है और एक ही लीक पर चलना, क्रांति का मार्ग लील जाता है। कविता में भक्ति-भाव होना समाज में व्याप्त विभिन्न मान्यताओं की पहचान है। समर्थ और असमर्थ के बीच खड़ा होना और सामाजिक-सद्भाव की दीवार खड़ी करना भी कविता का काम है। भूख-प्यास से उबरने के लिए संयम और विवेक उत्पन्न करना भी कविता की मूल आत्मा है। बात सीधी-सपाट हो या चक्रदार, लक्ष्य से विमुख न हो।
समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, गैर-बराबरी और कट्टरता का काव्यात्मक रूप में बखान भर करते रहना कविता नहीं कही जा सकती – अपितु समाज में व्याप्त विकृतियों, भ्रांतियों, गैर-बराबरी और कट्टरता के बखान के साथ-साथ उनके निराकरण के लिए दिशा देने; उनसे निबटने के लिए भाव-भूमि प्रस्तुत करने से कविता समग्र होती है।
कवि मुक्त-भाव होता है। कोई रोता है तो कवि भी रोता है। कोई हँसता है तो कवि भी हँसता है। समय के साथ-साथ चलता है कवि। कवि खुद का कम, जगत का प्रतिनिधित्व ज्यादा करता है। कोई इस तथ्य को समझे अथवा न समझे किंतु अम्बेडकरवादी कवि का यही सत्य है। हाँ कुछ अपवाद अवश्य हो सकते हैं। उन अपवादों में भी कट्टरपंथियों, पोंगा पंडितों का ही प्रतिशत ज्यादा निकलेगा किंतु उन्हें अम्बेडकरवादी कवि की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। दरसल कवि एक प्रवाह है। नदी के साथ-साथ बहता है। कभी किनारों में फंसा होता है तो कभी नदी की भाँति किनारों को छोड़कर दूर तक बढ़ जाता है। इतना ही नहीं, समंदर का-सा ठहराव भी कवि में होता है। कभी सुनामी लहरों-सा भी उफनता है कवि। प्रेम-प्रीत और वियोग – दोनों को जीने का दम कवि में होता है। यदि ऐसा दम नहीं होता है किसी कवि में तो वो कवि कतई नहीं हो सकता, कुछ और ही होता है। वास्तव में कवि वह है जो तमाशबीन नहीं, भावुक और सहृदय होता है। भावुक और सहृदय कि कभी कभी वर्षा भी उसे नहीं भिगो पाती तो कभी वो सर्दी में भी ग्रीष्म के प्रचंड आतप में तपता है। कभी मधुमास में पतझर तो कभी पतझर में मधुमास का अनुभव करता है। दरअसल भिन्न-भिन्न/ विशेष-विशेष परिस्थितियाँ कवि की भावुकता को नाना प्रकार से प्रभावित करती हैं। कवि की दृष्टि सृष्टि के क्षेत्र को घटा-बढ़ा देती हैं। कवि की दृष्टि यदि सजीव है तो उजड़ा जंगल भी हरा-भरा सा लगता है, यानी सौन्दर्य-बोध को प्रबलता प्रदान करता है। हाँ, यदि कहीं अनाचार ही अनाचार है तो कवि का धर्म अनाचार से लड़ना होता है। कवि की दृष्टि यदि निर्जीव है तो सब-कुछ गुड़-गोबर सा हो जाता है। हास-परिहास तो क्या, क्रांति का भाव तक उत्पन्न नहीं होता। वस्तुत: कविता किसी की धरोहर अथवा सौतन नहीं है। सत्य और अनुभूति का योग है। अब चाहे इसे कवि की अनुभूति कहें अथवा तथ्य, सजीवता कहें अथवा निर्जीवता, इसी से कविता जन्म लेती है। किंतु वाह्य अनुभूति – चमक-धमक का ज्यूँ का त्यूँ बखान करती कविता का कोई अर्थ नहीं है। यह बात अलग है कि आजकल के कुछेक मंचीय कवि नाम कमाने के चक्र में फँसकर कविता के मूलाधार को ठिकाने लगाने से बाज नहीं आते। और कविता के बल पर साहित्यिक व्यवसायी हुए दिखते हैं। तथाकथित ख्यात कवि अक्सर चुटकलेबाजी करते दिखते हैं।
यदि कविता व्यावसायिक है तो वह कविता के मर्म और धर्म दोनों को नहीं समझती। देश, काल और परिस्थिति का अर्थ व्यावसायिकता की चादर में ढक जाता है। ऐसे में कोई भी कवि व्यावसायिक होकर, कवि नहीं, शब्दों-अर्थों का व्यावसायी हो जाता है। या यूँ कहें कि सुख-समृद्धि और सम्पन्नता ही व्यावसायिक कविता का उद्देश्य हो जाता है। ऐसी स्थिति में कवि की भावुकता और संवेदनशीलता मृत प्राय: हो जाती है।
उपर्युक्त कथन के मद्देनज़र, सजीव और निर्जीव कविता में अंतर करना सहज और सरल हो जाता है। अत: सूक्ष्म और मार्मिक पाठक को अति सचेत रहना पड़ता है। अपना मार्ग स्वयं ही तलाशना होता है। सजीव कविता में ही जीवन-प्रवाह को गति मिलती है किंतु व्यावसायिक कविता से जीवन-प्रवाह क्षीण और अशक्त सा होने लगता है। व्यावसायिकता ज्ञान और विचार – दोनों की विशालता और अस्मिता की रक्षा करने का सामर्थ्य नहीं पालती। अर्थात व्यावसायिकता कविता को ही नहीं, समूचे काव्य-साहित्य को लील जाती है। अत: गद्य हो या पद्य, साहित्य को व्यावसायिकता की बेड़ियों से मुक्त होना ही चाहिए।
शेष पाठक की दृष्टि पर निर्भर है। यदि दृष्टि संकीर्ण/सूक्ष्म है तो कविता भी संकीर्ण/सूक्ष्म; यदि दृष्टि मार्मिक तो कविता भी मार्मिक। इसका उलट भी हो सकता है। यदि कविता संकीर्ण/सूक्ष्म दृष्टि वाली है तो मार्मिक पाठक के लिए बेकार और कविता मार्मिक/ मानवीय दृष्टि वाली है तो संकीर्ण/सूक्ष्म दृष्टि वालों के लिए बेकार। इसलिए मार्मिक पाठक को सचेत रहने की अति आवश्यकता होती है। कवि को भी।
सफलता/प्रभुल्लता प्राप्त करने के लिए सबको अपना मार्ग स्वयं तय करना होता है। सच्ची कविता से जीवन प्रवाह को गति मिलती है। अम्बेडकरवादी कविता में यह गुण विद्यमान है। किंतु व्यावसायिक कविता से जीवन-प्रवाह क्षीण और अशांत सा होने लगता है। व्यावसायिकता ज्ञान और विचार दोनों की विशालता और अस्मिता की रक्षा करने की क्षमता को खो देती है। या यूँ कहें कि व्यावसायिकता कविता को ही नहीं, समूचे साहित्य-धर्म को ही लील जाती है। अत: साहित्य को व्यावसायिकता से मुक्त होना ही चाहिए। कम से कम अब तक तो अम्बेडकरवादी कविता व्यावसायिकता के कोढ़ से मुक्त है।
कविता समसामयिक हो, प्रासंगिक हो, वस्तु-निष्ठ हो तो बात ही कुछ और होती है। जहाँ हर ओर चीख-पुकार हो या यूँ कहें कि फुफकारते काल-चक्र में कविता (साहित्य) फुफकारेगी नहीं तो और क्या करेगी? कहा जाता है कि थके-हारे लोग ही सच्चा साहित्य रचते हैं। अम्बेडकरवादी कविता (साहित्य) इस तथ्य का प्रमाण है। इस दृष्टि से अम्बेडकरवादी कविता (साहित्य) को किसी के भी प्रमाण-पत्र की आवश्यकता नहीं है।
अम्बेडकरवादी कविता (साहित्य) की दशा और दिशा पर बहस छिड़ना कोई नई बात नहीं है। सामाजिक दृष्टि से उत्पीड़ित व्यक्ति की अभिव्यक्ति ही अम्बेडकरवादी कविता (साहित्य) का उद्देश्य है। सामाजिक असमानता और वर्तमान पीढ़ी में समानता के प्रति व्याप्त व्याकुलता ही अम्बेडकरवादी कविता (साहित्य) का मूल है। अब व्याकुल अभिव्यक्ति से परिपूर्ण साहित्य में परम्परागत साहित्यिक व्याकरण ढूंढना एक कतिपय हास्यास्पद बात है। आज मुक्त-छन्द कविता पर ही नहीं, कथा-साहित्य पर भी नाना-प्रकार से उंगलियाँ उठाई जा रही हैं। जो तर्क-संगत इसलिए नहीं है कि अम्बेडकरवादी साहित्य परम्परावादी साहित्य कतई नहीं है। अपितु समाज के शोषित वर्ग की पीड़ा का साहित्य है।
अब बात चाहे उर्दू साहित्य की हो या हिन्दी साहित्य की, साहित्य पहले रचा गया है या साहित्यिक व्याकरण, यह प्रश्न आज भी अपने उत्तर की तलाश में है। हिन्दी साहित्य में कबीर, मीरा, सूरदास, रहीम, रैदास ऐसे नाम है, जिन्होंने अपने-अपने अन्दाज में साहित्य-रचना की है। कोई बताए कि इन्होंने किस मठ में शिक्षा-दीक्षा ली थी। उधर उर्दू साहित्य में अमीर खुसरो, मीर तकी मीर से लेकर गालिब तक के जमाने तक ग़ज़ल का कोई व्याकरण नहीं था। व्याकरण बनी तो बाद में बनी। शुरु-शुरु में सिर्फ और सिर्फ भाषाई पकड़ थी जिसमें हिन्दुस्तानी जबान का जोर रहा।
सच तो ये है कि वर्तमान दौर में दो तरह से कविता हो रही है। एक मन से, दूसरी मस्तिष्क से, यानी गढ़ी जा रही है। ऐसा होना स्वाभाविक ही लगता है। समग्र साहित्य ने समय के साथ-साथ खुद भी करवट बदली है। भक्ति-काल और छायावाद के बाद कविता मुक्त-छन्द में लिखी जाने लगी। शिक्षा का क्षेत्र जो बढ़ गया। शिक्षा के प्रचार और प्रसार के साथ-साथ मन के बजाय मस्तिष्क ने ज्यादा काम करना शुरू जो कर दिया, जो व्यावहारिक/स्वाभाविक ही है। अक्सर कहा जाता है कि आज कविता भी गद्य में लिखी जा रही है। क्या कविता पर भी किसी का ‘पेटेंट’ है कि कविता ऐसे लिखो? समय परिवर्तन के चलते न जाने कितने आयाम बदलते चले जाते हैं, फिर कविता(साहित्य) पर ये सवाल क्यों? आज कविता में छ्न्द-विधान का सवाल उठाना प्रासंगिक नहीं है। छ्न्द-विधान की परिधि में रहकर कविता करना शायद आज के कवि के वश की बात नहीं है, क्योंकि आज की कविता नितांत मन की बात नहीं है, दिमाग की भी है। अत: अम्बेडकरवादी कविता ( साहित्य) में छ्न्द-विधान का सवाल उठाना कतिपय उचित नहीं है। कविता बस कविता है। मन की बात है। कविता ठीक पेड़ की डालियों पर सहज अवस्था में उगने वाली पत्तियों की तरह है। अम्बेडकरवादी कविता को छ्न्द-विधान में बंधने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती। फिर भी यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि छ्न्द-विधान आदि शर्तों की तलाश साहित्य-शिक्षकों अथवा आलोचकों की आवश्यकता हो सकती है, रचनाकार की नहीं। वैसे भी किसी कविता की एक पंक्ति भी यदि हृदयग्राही हो जाती है तो इसे कविता की सम्पूर्णता ही कही जाएगा। अब जहाँ तक अम्बेडकरवादी कविता में छन्द-विधान की प्रश्न है, यह समय के साथ-साथ स्वत: ही हल हो जाएगा, किसी को इसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। अम्बेडकरवादी कविता (साहित्य) का व्याकरण परम्परागत न होकर, एक नए छन्द-विधान का जनक सिद्ध होगा, इसमें कोई संदेह की गुंजाइश नहीं है।
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तेजपाल सिंह ‘तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- ‘दृष्टिकोण ‘ट्रैफिक जाम है’, ‘गुजरा हूँ जिधर से’, ‘तूफाँ की ज़द में’ व ‘हादसों के दौर में’ (गजल संग्रह), ‘बेताल दृष्टि’, ‘पुश्तैनी पीड़ा’ आदि (कविता संग्रह), ‘रुन-झुन’, ‘खेल-खेल में’, ‘धमा चौकड़ी’ आदि ( बालगीत), ‘कहाँ गई वो दिल्ली वाली’ (शब्द चित्र), पाँच निबन्ध संग्रह और अन्य सम्पादकीय। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ‘ग्रीन सत्ता’ के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका ‘अपेक्षा’ के उपसंपादक, ‘आजीवक विजन’ के प्रधान संपादक तथा ‘अधिकार दर्पण’ नामक त्रैमासिक के संपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। सामाजिक/नागरिक सम्मान सम्मानों के साथ-साथ आप हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं। आजकल आप स्वतंत्र लेखन में रत हैं।
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