(1) आँसू छंद "कल और आज" भारत तू कहलाता था, सोने की चिड़िया जग में। तुझको दे पद जग-गुरु का, सब पड़ते तेरे पग में। बल पे विपुल ज्ञान क...
(1)
आँसू छंद "कल और आज"
भारत तू कहलाता था, सोने की चिड़िया जग में।
तुझको दे पद जग-गुरु का, सब पड़ते तेरे पग में।
बल पे विपुल ज्ञान के ही, जग पर शासन फैलाया।
कितनों को इस संपद से, तूने जीना सिखलाया।।1।।
तेरी पावन वसुधा पर, नर-रत्न अनेक खिले थे।
बल, विक्रम और दया के, जिनको गुण खूब मिले थे।
अपनी अमृत-वाणी से, जग मानस को लहराया।
उनने धर्म आचरण से, था दया केतु फहराया।।2।।
समता की वीणा-धुन से, मानस लहरी गूँजाई।
जग के सब वन उपवन में, करुणा की लता सजाई।
अपने पावन इन गुण से, तू जग का गुरु कहलाया।
रँग एक वर्ण में सब को, अपना सम्मान बढ़ाया।।3।।
पर आज तुने हे भारत, वह गौरव भुला दिया है।
वह भूल अतीत सुहाना, धारण नव-वेश किया है।
तेरे दीपक की लौ में, जिनके थे मिटे अँधेरे।
तुझको सिखा रहें हैं वे, बन कर अब अग्रज तेरे।।4।।
तूने ही सब से पहले, उनको उपदेश दिया था।
जग का ज्ञान-भानु बन कर, सब का तम दूर किया था।
वह मान बड़ाई तूने, अपने मन से बिसरा दी।
वह छवि अतीत की पावन, उर से ही आज मिटा दी।।5।।
तेरे प्रकाश में जग का, था आलोकित हृदयांगन।
तूने ही तो सिखलाया, जग-जन को वह ज्ञानांकन।
वह दिव्य जगद्गुरु का पद, तू पूरा भूल गया है।
सब ओर तुझे अब केवल, दिखता सब नया नया है।।6।।
जग-जन कृपा दृष्टि के जो, आकांक्षी कभी तुम्हारी।
अपना आँचल फैलाये, बन कर जो दीन भिखारी।
उनकी कृपा दृष्टि की अब, तू मन में रखता आशा।
क्या भान नहीं है इसका, कैसे पलटा यह पासा।।7।।
बिसराये तूने अपने, सब रिवाज, खाना, पीना।
भूषा और वेश भूला, छोड़ा रिश्तों में जीना।
अपनी जाति, वर्ण, कुल का, मन में भान नहीं अब है।
तूने रंग विदेशी ही, ठाना अपनाना सब है।।8।।
कण कण में व्याप्त हुई है, तेरे भीषण कृत्रिमता।
केवल आज विदेशी की, तुझ में दिखती व्यापकता।
जाती दृष्टि जिधर को अब, हैं रंग नये ही दिखते।
नव रंग रूप ये तेरी, हैं भाग्य-रेख को लिखते।।9।।
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आँसू छंद विधान
14 - 14 मात्रा (चरण में कुल 28 मात्रा। दो दो चरण सम तुकांत)
मात्रा बाँट:- 2 - 8 - 2 - 2 प्रति यति में।
मानव छंद में किंचित परिवर्तन कर प्रसाद जी ने पूरा 'आँसू' खंड काव्य इस छंद में रचा है, इसलिए इस छंद का नाम ही आँसू छंद प्रचलित हो गया है।
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(2)
आल्हा छंद "समय"
कौन समय को रख सकता है, अपनी मुट्ठी में कर बंद।
समय-धार नित बहती रहती, कभी न ये पड़ती है मंद।।
साथ समय के चलना सीखें, मिला सभी से अपना हाथ।
ढल जातें जो समय देख के, देता समय उन्हीं का साथ।।
काल-चक्र बलवान बड़ा है, उस पर टिकी हुई ये सृष्टि।
नियत समय पर फसलें उगती, और बादलों से भी वृष्टि।।
वसुधा घूर्णन, ऋतु परिवर्तन, पतझड़ या मौसम शालीन।
धूप छाँव अरु रात दिवस भी, सभी समय के हैं आधीन।।
वापस कभी नहीं आता है, एक बार जो छूटा तीर।
तल को देख सदा बढ़ता है, उल्टा कभी न बहता नीर।।
तीर नीर सम चाल समय की, कभी समय की करें न चूक।
एक बार जो चूक गये तो, रहती जीवन भर फिर हूक।।
नव आशा, विश्वास हृदय में, सदा रखें जो हो गंभीर।
निज कामों में मग्न रहें जो, बाधाओं से हो न अधीर।।
ऐसे नर विचलित नहिं होते, देख समय की टेढ़ी चाल।
एक समान लगे उनको तो, भला बुरा दोनों ही काल।।
मोल समय का जो पहचानें, दृढ़ संकल्प हृदय में धार।
सत्य मार्ग पर आगे बढ़ते, हार कभी न करें स्वीकार।।
हर संकट में अटल रहें जो, कछु न प्रलोभन उन्हें लुभाय।
जग के ही हित में रहतें जो, कालजयी नर वे कहलाय।।
समय कभी आहट नहिं देता, यह तो आता है चुपचाप।
सफल जगत में वे नर होते, लेते इसको पहले भाँप।।
काल बन्धनों से ऊपर उठ, नेकी के जो करतें काम।
समय लिखे ऐसों की गाथा, अमर करें वे जग में नाम।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
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(3)
कनक मंजरी छंद "गोपी विरह"
तन-मन छीन किये अति पागल,
हे मधुसूदन तू सुध ले।
श्रवणन गूँज रही मुरली वह,
जो हम ली सुन कूँज तले।।
अब तक खो उस ही धुन में हम,
ढूंढ रहीं ब्रज की गलियाँ।
सब कुछ जानत हो तब दर्शन,
देय खिला मुरझी कलियाँ।।
द्रुम अरु कूँज लता सँग बातिन,
में यह वे सब पूछ रही।
नटखट श्याम सखा बिन जीवित,
क्यों अब लौं, निगलै न मही।।
विहग रहे उड़ छू कर अम्बर,
गाय रँभाय रही सब हैं।
हरित सभी ब्रज के तुम पादप,
बंजर तो हम ही अब हैं।।
मधुकर एक लखी तब गोपिन,
बोल पड़ी फिर वे उससे।
भ्रमर कहो किस कारण गूँजन,
से बतियावत हो किससे।।
इन परमार्थ भरी कटु बातन,
से नहिं काम हमें अब रे।
रख अपने मँह ज्ञान सभी यह,
भूल गईं सुध ही जब रे।।
भ्रमर तु श्यामल मोहन श्यामल,
तू न कहीं छलिया वह ही।
कलियन रूप चखे नित नूतन,
है गुण श्याम समान वही।।
परखन प्रीत हमार यहाँ यदि,
रूप मनोहर वो धर लें।
यदि न सँदेश हमार पठावहु,
दर्श दिखा दुख वे हर लें।।
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लक्षण छंद:-
प्रथम रखें लघु चार तबै षट "भा" गण संग व 'गा' रख लें।
सु'कनकमंजरि' छंद रचें यति तेरह वर्ण तथा दश पे।।
लघु चार तबै षट "भा" गण संग व 'गा' = 4लघु+6भगण(211)+1गुरु]=23 वर्ण
{1111+211+211+211+211+211+211+2}
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
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परिचय -बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
नाम- बासुदेव अग्रवाल;
शिक्षा - B. Com.
जन्म दिन - 28 अगस्त, 1952;
निवास स्थान - तिनसुकिया (असम)
रुचि - काव्य की हर विधा में सृजन करना। मुक्त छंद, पारम्परिक छंद, हाइकु, मुक्तक, गीत, ग़ज़ल, इत्यादि। हिंदी साहित्य की पारंपरिक छंदों में विशेष रुचि है और मात्रिक एवं वार्णिक लगभग सभी प्रचलित छंदों में काव्य सृजन में सतत संलग्न हूँ।
परिचय - वर्तमान में मैँ असम प्रदेश के तिनसुकिया नगर में हूँ। मैं साहित्य संगम संस्थान, पूर्वोत्तर शाखा का सक्रिय सदस्य हूँ तथा उपाध्यक्ष हूँ। हमारी नियमित रूप से मासिक कवि गोष्ठी होती है जिनमें मैं नियमित रूप से भाग लेता हूँ। साहित्य संगम के माध्यम से मैं देश के प्रतिष्ठित साहित्यिकारों से जुड़ा हुवा हूँ। whatsapp के कई ग्रुप से जुड़ा हुवा हूँ जिससे साहित्यिक कृतियों एवम् विचारों का आदान प्रदान गणमान्य साहित्यकारों से होता रहता है।
सम्मान- मेरी रचनाएँ देश के सम्मानित समाचारपत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती है। हिंदी साहित्य से जुड़े विभिन्न ग्रूप और संस्थानों से कई अलंकरण और प्रसस्ति पत्र नियमित प्राप्त होते रहते हैं।
Blog - https: nayekavi.blogspot.com
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