मौसम अंगार है अविनाश ब्यौहार Publisher : Centre : 2097/22, Balaji Market, Chah Indara, Bhagirath Place, Delhi-110006. ...
मौसम अंगार है
अविनाश ब्यौहार
Publisher :
Centre :
2097/22, Balaji Market, Chah Indara,
Bhagirath Place, Delhi-110006.
Website : www.kavyapublications.com
ISBN : 978-93-88256-41-4
Price: 160 /-
Copyright © AVINASH BYOHAR
All rights Reserved.
No part of this publication may be reproduced,
transmitted or stored in a retrieval system, in any
form or by any means, electronic, mechanical,
photocopying recording or otherwise, without the
prior permission of the publisher.
SDR INNOWAYS INDIA PVT. LTD.
667,Rajaward, Kulpahar/Bhopal/Delhi
With Co-operation:
KAVYA PUBLICATIONS
Abhinav R.H. 4, Awadhpuri, Bhopal.
462002, M.P.
पूजनीय
माता
एवं
पिता
को समर्पित
प्रकाशक की ओर से
हमने एक कठोर यथार्थ को रेखांकित किया है और वह ये है कि समूचे विश्व में अपने देश के अन्दर हिन्दी रचनाकारों की जो दुर्दशा है वह किसी से छिपी नहीं है। हिन्दी लेखकों व कवियों को रचनाओं के प्रकाशन में विशेषकर उसे पुस्तकीय आकार देने के लिए मुश्किल से ही कोई प्रकाशक मिलता है।
इस गुरु गंभीर समस्या के निदान के लिये हमने काव्या पब्लिकेशन्स के रूप में रचनाकारों के लिये एक सशक्त मंच देने का प्रयास किया है। यह मात्र एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान नहीं है यह रचनाकारों की रचनाऐं प्रकाशित करने का एक रचनात्मक आन्दोलन बनकर उभर रहा है।
देखना है कि देश के हिन्दी भाषी रचनाकार इस मंच को कितना सशक्त रूप प्रदान करते हैं। आप सभी से निवेदन है कि अपनी रचना के सुगमतापूर्वक प्रकाशनार्थ एवं हिन्दी के सेवार्थ आप हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो सकते हैं, इस हेतु आपका सदैव स्वागत है।
इसी क्रम में श्री अविनाश व्यौहार की रचना ‘मौसम अंगार है‘ आपके करकमलों में है। उनकी रचनायें दर्शाती है कि मानवीय मूल्यों को बिखरने की पीड़ा वह कितनी गहरी संवेदना के साथ महसूस करते हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि उनका ये लेखन भारतीय समाज की सोच को एक नई दिशा प्रदान करेगा।
हमारे प्रकाशन से उनकी यह पहली पुस्तक है, बहुत-बहुत बधाई एवं नवीन सृजन हेतु शुभकामनाएं।
सादर।
अजय अग्रवाल
प्रबंध संपादक
नवगीत
9
नवगीत (एक)
सूरज ने ताना
धूप का तिरपाल!
सिवानों पर है
लगा हुआ मेला!
खिले शिरीष औ
महका है बेला!!
पुरइन का
निर्जन में
लहराया ताल!
मृतप्राय पड़ी हुई
रेत की नदी!
धूसरित होती
इक्कीसवीं सदी!!
पंछी का कलरव
अहेरी का जाल.......!!
10
नवगीत (दो)
उजियारे के
छौने लाये
पर्व दिवाली!
आँगन लिपे
हुये हैं
गोबर से!
पुरसी करे
दिवाली-
पोखर से!!
खिरके में हैं
गौयें बैठे
करे जुगाली!
बम फुलझड़ियाँ
हैं खुसाल
हँसती बतियाती!
रिश्ते हों ऐसे
जैसे की
दीपक बाती!!
हवा चली तो
लचक गई
आमों की डाली........!!
11
नवगीत (तीन)
आई दिवाली
हुये उजाले
सत्तासीन!
दीवट खुश हैं
ठुमकी दीपमालिका!
सजी धजी दीवाली
लग रही कुमारिका!!
टिमटिमाते दीपों
से हुईं
राते रंगीन!
झुग्गी की ड्योढ़ी
पर एक
दिया बालना!
गैया पर
गेरू के
छापे है डालना!!
खोटा खाना
हुआ उल्लू
के आधीन........!!
12
नवगीत (चार)
सिंगार हुये हैं
दीवाली के
खील बताशे!
स्वर्ग से
उतरी
भू पर!
लिस गये
दीपक
छू कर!!
अब नहीं चलेंगे
अंधकार के
कोई झाँसे!
घर-आँगन
लिपे-
पुते हैं!
मावस तो
ओट
छिपे हैं!!
दीपावली में
खीझ भरे दिन
हुये रूआँसे........!!
13
नवगीत (पाँच)
चाँद को
है तारापुंज
का निहोरा!
घुलती है
चाँदनी
हवा में!
पूजा के
भाव हैं
जवा में!!
मंदिर की
सीढ़ियाँ धोता
है टोरा!
सड़कों पर
टहल रही
धूप!
नहीं रहे
प्रचलन में
कूप!!
बिलाने हैं
रस्मों रिवाज
से तोरा........!!
14
नवगीत (छः)
क्या करे साँकल
जब देहरी
हो चोर!
खुसुर पुसुर करते
मगरे औ छानी!
आँगन के मुख से
फूट रही बानी!!
संदली हवा
चली जाने
किस ओर!
जाड़े से काँप रहे
हैं गाछ-गात!
इठलाती हवा चली
जाने क्या बात!!
काली सी धुंध में
लिपटी है भोर.......!!
15
नवगीत (सात)
रात्रि के लिये
एक नया सा
सूर्य उगायें!
जो अंधियारा
धो डालेगा!
उजली किरनें
बो डालेगा!!
दुर्गम राहों
की भी कटी
सभी बाधायें!
रातों में भी
होगी भोर!
छज्जों पर
पंछी का शोर!!
कृष्ण पक्ष की
सदा के लिये
मिटी ब्यथायें.......!!
16
नवगीत (आठ)
मन में आया
एक ख़्याल
ट्वीट कर दिया!
चेहरे में पुती
उदासी है!
खुशियाँ तक हुईं
रूआँसी हैं!!
मुस्कानों का
पड़ा अकाल
ट्वीट कर दिया!
मछली जल की
महारानी है!
और दिखती वो
लासानी है!!
चूम गयी
मछुये का जाल
ट्वीट कर दिया.......!!
17
नवगीत (नौ)
बीड़ी सी
सुलग रही
भोर!
गाँव-शहर
में है
अनबन!
रिश्तों में
बबूल के
वन!!
डूबते
अवसाद में
शोर!
डान बना
आज ये
शहर!
चाँदनी पर
चाँद का
कहर!!
तनी है
तनावों की
डोर......!!
18
नवगीत (दस)
भ्रष्टाचार गर
दैत्य तो
सुरसा मंहगाई!
बढे़ फ्यूल के
अतिशय दाम!
घायल पड़ी
सुकोमल शाम!!
विलास कुंज पावन
तो पद च्युत
हुई पुजाई!
दुष्कर्मी की
पौ बारा है!
नेकी को मिलती
कारा है!!
है कंचन देह
लेकिन धुली न
मन की काई......!!
19
नवगीत (ग्यारह)
खबरें लू
लपटों की
बाँचती हवायें!
मौसम अंगार है
सुआ कुतरे आम!
कुत्ते सा हाँफ रहे
हैं आठों याम!!
रातों का
सुरमा है
आँजती हवायें!
सूख रहे झरने
और सूखती नदी!
जेठ की दोपहरी है
दिनों पर लदी!!
आँधियाँ बवंडर
बन नाचती
हवायें....!!
20
नवगीत (बारह)
प्यास के पखेरू हैं
छत पर सकोरे!
फुदक फुदक
आती है
छत पर गौरैया!
द्वारे पे
खड़े हो
रम्हाती है गैया!!
समुद्र लगे झील से
ताल हैं कटोरे!
आँगन ने
छेड़ा तो
रो पड़ी घिनौची!
लबरी बातें
ही लगतीं
हैं पोची!!
वंचना पंडित हैं
हमी रहे कोरे......!!
21
नवगीत (तेरह)
खूं के आँसू
मौसम रोया है।
पानी बरसा
फसलें जल गईं!
हरियाली लपटों
में ढल गई।
मेघों ने अंगारा
ढोया है!
पुरवा पछुआ
धुंध मे डूबी।
दंशित पर्यावरण
की खूबी।
अब बेखबर सा
शहर सोया है।।
22
नवगीत (चौदह)
उठती है
गंधों की डोली
अब तारों
की छाँव में!
फूलों पर रंगत
और आ गया हिजाब!
कलरव करें पंछी सा
आँखों मे ख्वाब!!
खेत, मेड़,
खलिहान, बगीचे
मनोहारी हैं
गाँव में!
बागों में होती
अलियों की
गुनगुन है!
आती दूर कहीं से
रबाब की धुन है!!
है मिले सुकूं
भटकी हवाओं को
पीपल की ठाँव में.....!!
23
नवगीत (पन्द्रह)
वन जंगल में
भटक रहे हैं
देवपुरूष श्री राम।
बेर खाये
शबरी के जूठे।
आदर्शों में
रहे अनूठे।।
पथरीले पथ पर
डग भरते
चलते थे अविराम।
रूपवती एक
नार नवेली।
करती है उनसे
अठखेली।।
मायामोह
विलग थे उनसे
मन से थे निष्काम।।
24
नवगीत (सोलह)
ऊँट किस करवट
बैठेगा पता नहीं!
काली आँधी
का मौसम!
पत्थर की भी
आँखें नम!!
शिशु क्रीड़ा करते हैं
लेकिन खता नहीं!
मंजिल पाकर
मंजिल खोता!
सावन भादों
बादल रोता!!
युग है स्पर्धा का
किंतु अता नहीं.........!!
25
नवगीत (सत्रह)
हर सू इस शहर
में क्रन्दन है।
आब हवा
बदली बदली है!
सभ्यता दूषित
गंदली है।
भाईचारा होने में
भी निबन्धन है।
निराशाओं के अब्र
घने हैं।
सपने सारे
धूल सने हैं।
तपन दिखाता
मलयागिरी चन्दन है।।
26
नवगीत (अठारह)
चलते पुर्जा शहर,
गाँव अब कन्नी
काट रहे!
फैशन का
शहरों मे चढ़ता
पारा है!
तंगी नें
गाँवों में पैर
पसारा है!!
रसद के लिये
शहर गाँव से
मतलब गाँठ रहे!
रेला वाहन का
शहरों में
बहता है!
फिजूल खर्ची
इसे गाँव अब
कहता है!!
सुविधाभोगी शहर,
गाँव के
फक्कड़ ठाठ रहे.....!!
27
नवगीत (उन्नीस)
घोर घटा
छाई मौसम
है मक्बूल!
अंकुरित
हो आये
फूल पत्ते!
लबालब
भरे हुये
हैं खत्ते!!
शिलापट्ट जेठ
की तपन
गये भूल!
बूंदा बांदी
मतलब मेघों
का प्यार!
चतुर्दिक हो
रही आनंद
की बौछार!!
चिकने पत्ते
बूटे निखर
गये फूल......!!
28
नवगीत (बीस)
सुख दुख
दूर खड़े
सब कुछ
मोबाइल है!
कब किस पर
क्या गाज गिरी है!
बहरों से आवाज
गिरी है!!
भूमि नेह
की बाँझ
बदी फर्टाइल है!
नहीं झोपड़े
घास फूस के!
आमों जैसा
फेंक चूस के!!
बिना वजन
न खिसके
सरकारी फाइल है।।
29
नवगीत (इक्कीस)
जाल रूप का
नवयुवती फेंक रही
जाल रूप का!
कमनीय है
मादक है
उनका इशारा!
नदिया का
जल लगे
जैसे शरारा!!
सुबह हुई लहराया
पाल धूप का!
मौसम रंगीन है
इन्द्रधनुषी शाम!
थरथराये लब लेते
उनका नाम!!
पनिहारिन चूम रही
भाल कूप का.....!!
30
नवगीत (बाईस)
अंधियारा इस जग
में फैला है।
आग उगलती
जल की धारा!
काल कोठरी
में उजियारा।
लोगों का नेचर
हुआ बनैला है।
धोखा धड़ी
बन गई फितरत।
घिरी बबूलों
से है इशरत।
फ्लर्ट करे मजनूं
की लैला है।
31
नवगीत (तेईस)
महानगर में होते हैं
रोज़ धमाके।
बदहवास सी
भीड़ भाड़ है।
दहशत का
पसरा पहाड़ है।।
अंधी खोहों में
किरणें न झांके।
पुलिस कर रही
है पेट्रोलिंग।
बिगड़ी बाजारों
की रोलिंग।।
एहतियात के नाते
बंद हुये नाके।।
32
नवगीत (चौबीस)
बदनसीबी लगा गई
खुशियों पे महसूल!
आवाजाही गम की
बेखटके है!
चाल चलन रस्ते
से भटके है!!
पैताने सियार के शायद
बैठा है शार्दूल!
कैसा बसंत है
कैसा सावन है!
ढोती कलुष भावना
पावन है!!
करें फूल से जोरा जोरी
बदनिगाह बबूल......!!
33
नवगीत (पच्चीस)
प्यास के पखेरू हैं
छत पर सकोरे!
फुदक फुदक
आती है
छत पर गौरैया!
द्वारे पे
खड़े हो
रम्हाती है गैया!!
समुद्र लगे झील से
ताल हैं कटोरे!
आँगन ने
छेड़ा तो
रो पड़ी घिनौची!
लबरी बातें
ही लगतीं
हैं पोची!!
वंचना पंडित हैं
हमी रहे कोरे.....!!
34
नवगीत (छब्बीस)
हम देहाती
गँवार हैं
वे शहराती हैं।
खेतों की बोनी
खलिहान याद है!
गैया, खूंटा औ
थान याद है।
सांधे सांधे गाँव
तो देश की
थाती हैं।
चौपाल में वट तले
आल्हा गाना।
डाकिये का गाँव में
चिट्ठी लाना।
श्रम सीकर के
बदले में
ठकुर सुहाती है।।
35
नवगीत (सत्ताईस)
बूढ़ा सूरज
चलता है
किरणों की लाठी को टेक।
वे ऐसे कार्मिक हैं
जिनको कि
अवकाश नहीं है।
खिले हैं ऐसे
सुमन कि
जिनमें कोई
सुवास नहीं हैं।।
कृत्रिम है
अधुनातन युग
यानि सब का
सब है फेंक।
दोष मुक्ति
अंधियारे को
सजायाफ्ता
उजियारा है।
36
तंग वक़्त में
‘रूह आफजा‘
भी लगता
खारा है।।
धींगा मुश्ली
आम हुई
प्रेक्षक बने
हुये हैं नेक।।
37
नवगीत (अट्ठाईस)
आया मधुमास
विहंस उठे फूल!
दक्षिण से
बहती है
मलयज समीर!
़ऋतुओं की
आहट पा
मौसम अधीर!!
इतराती उड़ती
पगडंडी की धूल!
फागुन में
बहती है
गुनगुनी हवा!
लाल लाल
सूर्य-बिम्ब
जैसे जवा!!
हिरना हैं
चंचल और आखेटक भील......!!
38
नवगीत (उनतीस)
मुझे सुनाई
पड़ता ये
कोलाहल शहरी है।
गाँव का
भोलापन आ
रहा है रास।
महानगर को
जकड़े कटुताओं
का नागपाश।
आबशार नातों का
दूषित है,
जहरी है।
रसोई की
साख गिरी,
कैफे गुलजार है।
बिछुये, इंगुर,
पायल, मेंहदी
सब बेजार है।
डरी डरी
सी लगती
तालों की लहरी है।।
39
नवगीत (तीस)
मौसम बांह पसारे,
जब चलती
है पछुआ!
कल-कल बहती
नदिया में,
है संगीत भरा!
श्रद्धा का एक
दीप जलाए
तुलसी का बिरवा!!
जटा जूट धारी
बरगद को
है बैराग हुआ!
सर-सर चलीं
हवायें, डोले
पीपल के पत्ते!
घाट नदी का
जिस पर ‘रतिया‘
फींच रही लत्ते!!
हुआ पहरूआ
खलिहानों का
चौकस है महुआ......!!
40
नवगीत (इकतीस)
हैं सन्नाटों
की झीलें,
दिवस हुए पुरइन!
फुनगी संग
धूप की
होती कल्लोल!
पिक बंधु
हवाओं में
गंध रहे घोल!!
ताल तलैया
सूने सूने,
है हंसों के बिन!
सफ़र हुआ खत्म
नदिया का
मुहाना है!
फिरदौस में
गंध की
तितली उड़ाना है!!
नदी नाव
संयोग है,
पुलकित हैं पलछिन......!!
41
नवगीत (बत्तीस)
दे रही है सुनाई
जाड़े की पदचाप!
लोकधुन गाते हुए
लोग तापेंगे अलाव।
चाय की गुमटियों के भी
अब बढं़ेगे भाव!
धूप ऐसे खिलेगी
जैसे हल्दी के थाप!
तन में सुई-सी
चुभोती हैं ठंडी हवाएं
आतप स्नान होगा
काँपते तन की दवाऐं!
सूरज को हंसमुख रखने
ऋतुएं करतीं जाप.......!!
42
नवगीत (तैंतीस)
अमन चैन के
सुग्गे हैं
पटवारी के गाँव में।
कृषकों को
मिलता सहयोग
नहीं किसी को
उनसे क्षोभ।
बने दयानतदार हैं
नहीं पालता कोई दुरोग।
दो पल का चैन मिले
अमुवा की
शीतल छाँव में।
खसरा खतौनी
गिरदावली।
चाह किया
सबकी भली।
करते हैं जरीब कशी
न्यायधर्म की नाव चली।
खेत मेड़ में
फिरते-फिरते
फंटी बिवाई पाँव में।।
43
नवगीत (चौंतीस)
गाँव ने
अभाव भोगा
सुख भोगा/शहरों ने!
लेम्पपोस्ट से
रौशन सड़कें
गाँव में ढिबरी जलती।
रहनुमाई शहरों की
हमको रह रह
कर खलती।
बैंड बाजों की
अगवानी
की है बहरों ने।
कोलतार सड़कें
शहरों में
गाँव में है पगडंडी
जर्किन पहने
लोग निकलते
देहाती पहनें बंडी
समय नदी खामोश
हलचल की है लहरों ने।।
44
नवगीत (पैंतीस)
गाँव छूटा
बखरी छूटी
केवल जीना है।
बैल बिकाने,
खेत हुये
सिकमी में।
शहरी बाला
घूम रही
बिकनी में।
महानगर में
कुंठाओं का
जहर ही पीना है।
नौकर, चाकर
औ कार-कोठी है।
लेकिन हमको भाती चूल्हे
की रोटी है।
पुष्प सार
खेतों में
बहा पसीना है।।
45
नवगीत (छत्तीस)
अंबर पर
छा रहे हैं
कजरारे बादल।
नाच रहे हैं
मोर बागन में,
छम-छम बरसीं
बूँदें आँगन में।
पत्र मेह के
बाँट रहे हैं
हरकारे बादल।
मौसम में हरियाली ने
है रंग भरा,
दुबली-पती नदिया
का है अंग भरा।
फटी धरा की
प्यास बुझाये
मतवारे बादल।।
46
नवगीत (सैंतीस)
सांधी सांधी
गंध उठ रही
माह जुलाई हैं।
आ गया
मौसम काली
घटाओं का!
बाग में
बिखरी मोहक
छटाओं का!!
शिखरों के
मुखड़े पे चिपकी
हुई लुनाई है!
डैने फैलाये
अब्र उड़
रहे हैं!
फुहार लगे
गूंगे का
गुड रहे हैं!!
वर्षा के पानी
की सरिता करे
ढुलाई हैं.......!!
47
नवगीत (अड़तीस)
चुभती बूँदें
बुरे हुए दिन
चुभती बूँदें
शूल सी!
दामिनी सा
दुख तड़का
जेहन में!
ख्वाबों की
जागीर है
रेहन में!!
अल्पवृष्टि लगती
मौसम की
भूल सी!
कैसा मौसम
आया कि
मेह न बरसे!
नदी, ताल, विटप
सहमें हैं
डर से!!
खेतिहर की
सूरत है
मुरझाये फूल सी.....!!
48
नवगीत (उनतालीस)
कुछ तो अच्छे लोग मिले
पर कुछ तो बेढंगे।
लाज शरम सब
गिरवी रखकर बेशरमाई ओढ़ी।
जोड़ी ऐसी राम मिलाई
एक अंधा एक कोढ़ी।।
झरे शाख से पत्ते
यानी पेड़ हुए नंगे।
ऐसा चला समय का पहिया
मरा आँख का पानी।
ऊगे सींग व्यवस्था के
औ मूढ़ हुए ज्ञानी!!
क्या झाँसी
क्या मेरठ
जहाँ तहाँ है
भड़के दंगे.......!!
49
नवगीत (चालीस)
सच का ही
यशगान करेगा
घर खपरैल
हुआ तो क्या!
ऊँचे बंगलों
के कंगूरे
बेईमानी की
बातें करते!
महानगर के
है बाशिंदे
विश्वासों पर
घातें करते!!
कोई तवज्जों
नहीं मिली
दिल में तुफैल
हुआ तो क्या!
हो गईं
मुंहजोर हैं
शहर में
50
चलती हवायें!
भोंडेपन के
दबाव में
आ गईं हैं
हुनर कलायें!!
हमने उनकी
करी भलाई
मन में मैल
हुआ तो क्या.......!!
51
नवगीत (इकतालीस)
सच को
फटकार मिली
झूठ को शाबासी!
सन्नाटों के
खुले झरोखे!
जीवन में
धोखे ही
धोखे!!
उनकी भी
बुनियादी हिली है,
काम कर रहे
जो चोखे!!
ओस धुली
सुबह भी
लगती है बासी!
नहीं खनक है
अहसासों में!
दिखीं दरारें
विश्वासों में,
52
रेतीले दरिया
की झलकें
दिखती है
परिहासों में!!
किरचों सी
धूप चुभी
छाँव है जरा सी.....!!
53
नवगीत (बयालीस)
भौरों ने समझे हैं
फूल के जज़्बात!
बागों में
छलक पड़ी
खुशबू की गागर!
नदी के
समर्पण से
लहराया सागर!!
ठंडी हवाओं से
सिहर गये गात!
नरम नरम
धूप लगे
जैसे खरगोश!
शरद में
जाड़े को
आया है होश!!
कंबल, रजाई में
दुबक गई रात......!!
54
नवगीत (तैंतालीस)
मधुर कंठी
बुलबुल ने
गाया है गीत।
सपनों में
झरते हैं
फूल हरसिंगार के।
शीतल हवायें हैं
क्षण हैं
अभिसार के।।
है जुन्हाई
गोया पूनम
की प्रीत।
हंसों का
जोड़ा ताल
में दिखा।
मछली का
फंसना जाल
में लिखा।।
टीसते अहसास
हुये बालू
की भीत।।
55
नवगीत (चौवालीस)
खिलते हैं
विपरीत समय में
हम शिरीष
के फूल!
बाट जोहते
द्वार खिड़कियाँ
नयना पथराये!
बीते मास
खुशी के
पल छिन
न आये!!
शिशुओं की
किलकारी सहमी
समय हुआ प्रतिकूल!
आंगन बाड़ी
सिसक रहे हैं
बदल गया परिवेश!
बड़े, बुजुर्गों को
56
अब छोटे
देते हैं आदेश!!
बेला उदास,
खुशबुयें गायब,
हँसते हुए बबूल.......!!
57
नवगीत (पैंतालीस)
प्यास के
हिस्से आया
रेत का कुआँ।
कंदराओं में
किरणें खोजें।
बीहड़ में
बजते अलगोजे।
अब अमराई में
दिखता नहीं सुआ।
आँसू की
नैनों से अनबन।
सहम गई है
काया कंचन।
सपनों ने
पहन लिया
वस्त्र गेरुआ।।
58
नवगीत (छियालीस)
हँस हँस कर
झूमती बदलियाँ
आँगन का तन
लगी भिगोने!
चुहल करे हरियाली
गद गद हैं खेत!
रसभरी लगती है
मरूस्थल की रेत!!
नदिया की देह
हुईं दोहरी
झरनों के मुख
हुये सलोने!
लगती है खुशबू
कवितायें फूलों की!
तीखी आलोचनायें
बाग के बबूलों की!!
दिशियों के हाँथों से
छूट गये
सांधी सी
गंध के भगोने.......!!
59
नवगीत (सैंतालीस)
दरख़्त हमारे साथी
सहचर होते हैं।
देवदार की
बाहों में
हवा रही झूल!
गंध उलीचें
मौलसिरी के
खिलते फूल!!
खाना है आम
तो बबूल क्यों बोते हैं!
कश्मीर में
चार चाँद
लगाते चिनार!
आँखों में खड़ी है
स्वप्न की मीनार!!
मन में विचारों
को हर समय
बिलोते हैं......!!
60
नवगीत (अड़तालीस)
देहातों में
खुशहाली के
अंखुए उग आए।
झांझ-मजीरे नाच रहे
ढोलक की
थापों पर।
कड़े हुए प्रतिबंध अभी
दुःख संतापों पर।
टहल रहे हैं बागों में
गंधो के साए।
देहरहित इच्छाएँ
हो गईं साकार।
हृदय में उठ रहा
खुशियों का ज्वार।
नैनों में
सपनों का सुग्गा
डैने खुजलाए।
मौसम है सुहाना
मुरादों के दिन।
आए मनुहार
और वादों के दिन।
मैदानों में हौले-हौले
सांझ उतर जाए।।
61
नवगीत (उनचास)
मन में समा गया
रूप एक सलोना!
नयनों से
फूट रहा
रश्मिपुंज नेह का!
मतवाला कर देता
आकर्षण देह का!!
जुगनू सा
चमक उठा
है मन का कोना!
बिखर गया
चाहत का
सिंदूरी रंग।
नस नस में
भर देता
फागुनी उमंग!!
यौवन अंगीठी में
तपे देह सोना......!!
62
नवगीत (पचास)
नई भोर है
नये साल की
नई भोर है।
नव वर्ष के स्वागत में
हर पल महकेंगे।
आँगन, गली
चौराहों में
पंछी चहकेंगे।
गाँव शहर में
मचा शोर है।
खुशबू के
बादल घर
आँगन बरसेंगे।
छप्पर, छानी
मगरे मन
को परसेंगे।
जगी उमंगें
पोर-पोर हैं।।
63
नवगीत (इक्यावन)
हुआ समय में
फेर फार
त्यौहार हुये फीके!
रामलीला का
वो चाव नहीं,
और खुशियों
में ठहराव नहीं।
रुग्ण हो गये
रस्म रिवाज
तौर-तरीके।
बदचलनी की
होती पहुनाई,
बम की बाहों
में दीया-सलाई।
भग्न हुए
कानून-कायदे
ढहे सलीके।।
64
नवगीत (बावन)
पंख दिये हैं
कुदरत ने पर
कैसे भरुँ उड़ान!
अब खतरे में
परवाजें हैं!
गूँगी गूँगी
आवाजें हैं!!
इतने पर भी
आसमान सोया
है चादर तान!
चुप्पी ढोते
हुये ठहाके!
खेत कर रहे
बेबस फाँके!!
कष्टों का है
खड़ा हिमालय
कण कण में भगवान.......!!
65
नवगीत (तिरपन)
काट रही
नेह का बिरवा
स्वारथ की छैनी।
कहीं चली
बंदूक की गोली
उड़े शाख से पंछी।
सिसक रहे है
कोने बैठे
ढोल, मंजीरे, वंशी।
बैठ अहेरी
टीलों पर हैं
फांक रहे खैनी।
झूठ ने
पहना है किरीट
सच को झुटलाने।
मुजरिम ठहरा
आम आदमी
घूम रहा थाने।
चिंतन हुआ भोंथरा
कुत्सित बातें
हैं पैनी।।
66
नवगीत (चौवन)
सुख हुये
नदिया के कूल
दुःख हुये बबूल!
अंबर में/डाल लिये
बादल ने डेरे!
दादुर ने/पावस के
चित्र हैं डकेरे!!
हरीतिमा के
यत्र तत्र
उड़ते दुकूल!
देहों में/यौवन का
बाढ़ सा उफान!
हो गये
गुलाब फिर
फूल के सुल्तान!!
जेहन में/लहराये याद
के मस्तूल।।
67
नवगीत (पचपन)
किरणों की
देह हुई
कार्तिक की धूप!
दीवाली बना रही
खुश के
घरांदे!
निविड़
अंधकार में
बिजली सी
कांधे!!
दुर्दिन की
कंकड़
निबेर रहा
सूप!
दीवाली
उजाले का
मंडप सजाती!
बम औ
पटाखों की
फूल गई छाती!!
जेठ की
दुपहरी के
ढहते स्तूप........!!
68
नवगीत (छप्पन)
दहके अलावों से
टेसू के बाग।
कोकिला ने सुनी
फागुन की टेर।
नवयुवती उचक-उचक
तोड़े झरबेर।
मलो रंग ऐसा
छूटे न दाग।
वासंती गंध भरी
चैती हवायें।
फगुआरे होली में
सरस फाग गायें।
भौरों की हाला है
फूल के पराग।।
69
नवगीत (सतावन)
अपने हिस्से
आई कयामत
क्या देखें जलवा।
अपना पानी
पी जाती हैं
ऐसी झीलें हैं।
फलक है उजला
अवसादों की
उड़ती चीलें हैं।।
कोने पड़ा हुआ
आँखों के
सपनों का मलवा।
है रहबरी लुप्त
गोया गधे के
सिर से सींग।
करे खयानत
और ऊपर से
हांक रहे हैं डींग।।
चाहा था कि
अमन रहे पर
घटित हुआ बलवा।।
70
नवगीत (अठावन)
ख्यालों ने पहन लिये
टेसुई लिबास।
नीदों में स्वप्न जैसे
डाली में फल।
तालों की खामोशी
बुन रही हलचल।
गलियों में तैर रही
चाँदनी बातास।
होठों पर आ गई
मुस्कान चुलबुली।
जलती दुपहरी से
छाँव है भली।
भटकती उम्मीदों को
मिल गया आवास।।
71
नवगीत (उनसठ)
अगवानी हेमंत की
करती है शेफाली!
धूप गुनगुनी
सेंक रही
है देह!
रिश्तों की
गागर से
छलका नेह!!
यौवन फूलों
पे है,
अलि बजायें ताली!
चंपा, जूही, बेला
से महके
हैं सपने!
आजकल रिसाला
में गीत
लगे छपने!!
कौवे बैठे
मंगरे पर
गाते कव्वाली.....!!
72
नवगीत (साठ)
पतझर में
फूल रहे आक!
सूरज की किरणें
अंगार हो गई!
सुतली सी
नदिया की
धार हो गई!!
करती हवायें
ताक झांक!
तपती है धूप
गर्म तवा सी!
सूखे हैं कंठ
दिशायें प्यासी!!
मगरे पर बैठा
है काक.....!!
73
नवगीत (इकसठ)
सूरज धधक
रहा है उसके
तल्ख हुये तेवर!
किरने हैं
लावा सी
बरस रहीं!
प्यासी हिरनी
जल को
तरस रही!
लुटी पिटी
हरियाली उसके
बंधक हैं जेवर!
पतझर से
मुकरा है
हरा भरा नेह!
पत्तों की
पेड़ों से
छूट रही देह!!
गरम मिजाजी
मौसम का
भांडा हुआ कलेवर.......!!
74
नवगीत (बासठ)
हो रही है
संझा बाती
शाम ढले!
खुशनुमा मौसम
है सर्द
हवा है!
दरीचे का
खुलना जीवन में
रबा है!!
नखत फलक
पर मानो
दीप जले!
पेड़ों में कोटर
कोटर में
नीड़ है।
किस धुन
में चलती
शहरों की
भीड़ है।
खंजन से
नयनों में
स्वप्न पले......!!
75
नवगीत (तिरसठ)
अंबर पर
झूमती घटायें।
हरियाली है
मधुर रिश्तों
का नाम!
पोखर में
डूब गई
नीली सी शाम!!
पल्लव को
चूमती लतायें!
घुंघरू सी
बज रही
बरखा की बूँदें!
नहा रहे
आँगन नयनों
को मूंदे!!
लबालब अंधकूप
कजली गायें।।
76
नवगीत (चौंसठ)
मन की
अंगूठी में
याद का
नगीना।
नयनों में
उगी है
सपनों की
दूब।
मस्ती में
सराबोर
पल छिन की
ऊब।
मछली सी
तैर गई
झील में
हसीना।
पोखर पर
ललछौंही
शाम ज्यों
77
पड़ी।
भौरों की
कलियों से
आँख यों
लड़ी।
चंदन सा
महक उठा
देह का
पसीना।।
78
नवगीत (पैंसठ)
एक दूसरे
से मुँह फेरे
खेत औ खलिहान!
खुशियों के सपने
सब चूर चूर
हो गये!
छाँव की तलाश
क्ी तो वे
खजूर हो गये!!
आपस में खटपट
करते हैं
आँगन औ दालान!
बेलों ने
खींच दिये
पेड़ों पर मांडव!
खार ने
तक़दीर लिखी
दुःख करे तांडव!
ऋणी हो गये
गंध के अपनी
फूलों के बागान......!!
79
नवगीत (छियासठ)
ऋतु की
मड़ैया में
ठंड का बसेरा!
चकवा चकई
अब युगल
में मिलेंगे!
डेहलिया के
फूल बाग
में खिलेंगे!!
फेनिल झरने
रचता प्रकृति
का चितेरा!
नरम नरम
दूबों पर
शबनम बिखरी!
ताल औ
तलैयों की
रंगत निखरी!!
फेंक रहा
जाल नदी
में मछेरा।।
80
नवगीत (सड़सठ)
नव वर्ष की
हार्दिक शुभकामनायें!
हर घड़ी
खुशियों का
सजना संवरना!
मरूस्थल में
फूट पड़ा
पानी का झरना!!
चतुर्दिक वह रही
संदली हवायें!
चाँद चकोर
का साक्षी
है बाम!
गंध भीने
पल छिन हैं
आठों याम!!
ढेरों आशीष
देती है ऋचायें।।
81
नवगीत (अड़सठ)
मौसम की
आँखों में
कोहरे की झील!
चाँदनी सी
धूप लगे,
‘चिल्ड‘ हुये दिन!
मुश्किल है
रह पाना
सिगड़ी के बिन!!
सांझ हुई
जल उठे
याद के कंदील!
भाव भंगिमा
हेमंत की
विदू्रप हैं!
‘पुलोवर‘ पहने
हुये अब
धूप है!!
ऋतुओं की
बस्ती में
ठंड की फसील......!!
82
नवगीत (उनहत्तर)
जाड़े में
सुबह के
जल रहे
हैं पाँव!
झूठ के
होंठों पर
दूधिया हँसी है!
सच्चाई
मछली सी
जाल में फंसी है!!
कटखनी
लगने लगी
है नर्म
दूब सी छाँव!
लग गया
है कलंक
नेक इरादों में.....!!
83
नागफनी
दिखती है
रेशमी वादों में!!
हर मोड़ों पर
घात रचे
शकुनि
के दाँव.....!!
84
नवगीत (सत्तर)
माघ में
अल्हड़ वसंत
ऋतु आई।
सरसों पियराई
और गंदुम गदराया।
भाग्य खुले
खेतों के
बदल गई काया।।
ऋतुराज की
चाहत में
महके अमराई।
सूरज की किरनों से
चमक उठा गेह।
बिखराती गंध
मधुको की देह।।
कलियों ने
ली है
मादक अंगड़ाई।।
85
नवगीत (इकहत्तर)
बहुत याद आये
अड़हुल के फूल!
पगडंडी किनारे
खड़े हुए
कब से!
झाड़ियों कहती हैं
रहते हैं
ढब से!!
पंथी से बतियाये,
अड़हुल के फूल!
कहते है
जवां कुसुम
रंग लाल है।
इससे सुसज्जित
पूजा का
थाल है!!
औषधि बन जाये
अड़हुल के फूल.....!!
86
नवगीत (बहत्तर)
सुबह हुई
सूरज ने
आँखें खोली!
पल है रंगीन
और शहतूती
सी बातें!
दूब में
शबनम सी
चमकी मुलाकातें!
उड़ान भरने
पंछी ने
पाँखे खोलीं!
काँटों ने
फूलों का
दिल बहुत
दुखाया!
खिले खिले/बागों में
पतझर का साया!
सच हो/बेदाग यह
सलाखें बोली।।
87
नवगीत (तिहत्तर)
संध्या ने
फिर बिखराये
रेशम से गेसू!
किंशुक फूले
महके आमों
के बौर!
बहकती हवाओं
को मिला
नहीं ठौर!!
मधुऋतु की
तरंग में
अंगार हुये टेसू!
फूलों ने
खोल दिया
गंधों का जूड़ा!
फागुन में
उफनाया
रंगों का बूड़ा!!
उड़ा रहे
बादल गुलाल के
नटखट ‘केसू‘.....!!
88
नवगीत (चौहत्तर)
मुश्किल से आई
कर्फ्यू में ढील!
धारदार चाकू,
कट्टा और दराँनी है।
राष्ट्रधर्म की छलनी
होती छाती है।
नातों की खून से
लथपथ सबील!
कहाँ गुम हो गया
पंछियों का शोर!
दूर तक पसरी
चुप्पी चारों ओर!!
खंडहर का बाशिंदा
है अबाबील......!!
89
नवगीत (पचहत्तर)
वनों में पलास हँसे,
गुलमोहर मुस्काया।
लो नया साल आया।।
अंजुरी भर-भर दिये,
रश्मियां उलीच रहे।
होली के रंगों का,
नक्श एक खींच रहे।।
अंखियन में फागुन का
स्वप्न झिलमिलाया।
लो नया साल आया।।
खेतों में हल चले,
मेड़ों पर उगे फूल।
सोंधी सी गंध लिये,
सड़कों पर उड़े धूल।।
मीठा सा गाँव एक
सुधियों पर छाया।
लो नया साल आया।।
90
नवगीत (छिहत्तर)
सच है
झूठ के होते
नहीं हैं पाँव!
तनावों से
भरे दिन
और उदासी है!
झीलों में
तैरती हर मीन
प्यासी है!!
आखिर कहाँ
मिलेंगे अब
मस्तियों के गाँव!
नदिया की
मर्यादा है
दोनों कूल!
भौरों के
स्वागत में
खिलते हैं फूल!!
लहरों संग
अठखेलियाँ करती
है नाव.......!!
91
नवगीत (सतहत्तर)
क्या सुनहरा वक्त
निर्मम हो
गया है।
अराजकता की
मुट्ठी में
संविधान है!
आदमी अब
पहरू से
सावधान है!!
खंडहर को
बसने का
भरम हो गया है।
बस्तियों में
आँधियाँ इठला
रहीं है!
आपदाओं का
संदेशा ला
रहीं हैं!!
फूल, काँटों सा
बेरहम हो
गया है.......!!
92
नवगीत (अठहत्तर)
काका बैठे सोच रहे हैं
क्या ओसारे में !
रिश्ते बिखरे पड़े हुए हैं
टूटे काँच से!
दूषित होती लोक संस्कृति
भोंडे़ नाच से!!
पेड़ों पर लटके चमगादड़
बड़े भिनसारे में!
घोर तम से जूझ रहीं
जलती मशालें हैं!
सच्चाई का चीरहरण करतीं
चौपालें हैं!!
समझ नहीं आता
क्या कह दें
किसके बारे में.........!!
93
नवगीत (उन्नासी)
अपने फर्जों से मुकर गईं
आज दरांती हैं!
सत्व फसल का चूस
रही है खाद!
महानगर में
बलवे और फसाद!!
खून पसीना तेल पिये
दीपक की बाती है!
गाली देना बहुत सहज है
मुस्काना मुश्किल!
ऐसे में क्या खाक़ मिलेंगे
दिल से दिल!!
नफरतों की सिल्लियां
दुखों की
थाती है.......!!
COMMENTS