दशानन को छः शापों से मृत्यु का पूर्व संकेत था डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता ‘मानसश्री’ मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर रावण के दुष्कर्...
दशानन को छः शापों से मृत्यु का पूर्व संकेत था
डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता
‘मानसश्री’ मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
रावण के दुष्कर्मों, अत्याचार एवं अनाचार के कारण विभिन्न श्रीराम कथाओं में शापित होने का वर्णन है। इन कथाओं में उसे शाप देने का कारण स्पष्ट है। इन शापों में नंदीश्वर, राजा अनरण्य, अप्सरा पुञ्जिकस्थला, उमा, नलकूबर एवं वेदवती की कथाऐं प्रमुख महत्व रखती हैं। दशानन के जीवन के अन्त होने के संकेत इन शापों में स्पष्ट है यथा -
1. दशानन को नन्दी का शाप
दशानन ने अपने ही भाई कुबेर के राज्य को जीत लिया तथा शरवण नाम के प्रसिद्ध सरकण्डों के विशाल वन को जो कि कार्तिकेयजी की जन्मस्थली, था, उसको पुष्पक विमान से पार करता हुआ कैलाशपर्वत पर चढ़ने लगा। उस समय ही उसके पुष्पक विमान की गति रूक गई तथा विमान निश्चेष्ट (खड़ा) हो गया। दशानन को बड़ा दुःख एवं आश्चर्य हुआ कि स्वामी की इच्छानुसार चलने वाले विमान की ऐसी दशा क्यों हो गई। सम्भवतः इस पर्वत के ऊपर कोई रहता हो, उसी का यह कर्म हो सकता है। उस समय भगवान शंकरजी के पार्षद नंदीश्वर दशानन के पास पहुँच गये। नंदीश्वर दिखने में विकराल एवं बलवान थे। उन्होंने दशानन से कहा कि तुम यहाँ से लौट जाओ क्योंकि
निवर्तस्व दशग्रीव शैले क्रीडति शंकरः।
सुपर्णनागयक्षाणां देवगन्धर्व रक्ष साम्।।
सर्वेषामेव भूतानामगम्यः पर्वतः कृत।
(श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 16-10-1/2)
नंदीश्वर की बात सुनकर दशानन क्रोधित हो गया और पुष्पक विमान से उतरकर बोला कौन है यह शंकर? इतना कहकर पर्वत के मूल भाग में पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि भगवान् शंकर से थोड़ी ही दूरी पर चमचमाता हुआ शुल हाथ में लिये नन्दी दूसरे शिव की भाँति खड़े हैं।
तं दृष्ट्वा वानरमुखवज्ञाय स राक्षसः।
प्रहासं मुमुचे तत्र सतोय इव तोयदः।।
श्रीमद्. वा.रा. उत्तरकाण्डसर्ग 16-14
उनका मुँह वानर के समान था। उनके वानर मुख को देखकर दशानन तिरस्कार करते हुए बादलों की तरह गड़गड़ाहट करता हुआ ठहाका मारकर हँसने लगा।
यह देखकर शिव के दूसरे स्वरूप में भगवान् नंदी, क्रोधित होकर बोले - दशानन तुमने मेरे वानर रूप में मुझे देखकर अवहेलना की एवं ठहाका लगाकर वज्रपात किया है।
तस्मान्मद्वीर्यसंयुक्ता मद्रूपसमतेजसः।
उत्पत्स्यन्ति वधार्थं हि कुलस्य तव वानराः।।
श्रीमद.वा.रा. उत्तरकाण्ड सर्ग 16-17
अतः हे दशानन तुम्हारे कुल (वंश) का विनाश करने के लिये मेरे ही समान पराक्रमी एवं तेज से सम्पन्न वानर उत्पन्न होंगे। ये वानर एकत्र होकर तुम्हारे मंत्री और तुम्हारे पुत्रों सहित प्रबल अभिमान और तुम्हारे विशालकाय होने के गर्व को चूर-चूर कर देगें। नंदीजी ने यह भी कहा-
किं त्विक्षनीं मया शक्यं हन्तुं त्वां हे निशाचर।
न हन्तव्यो हतस्त्वं हि पूर्वमेव स्वकर्मभिः।।
श्रीमद. वा.रा. उत्तरकाण्ड सर्ग 16-20
अरे निशाचर! मैं तुम्हें अभी मार डालने की शक्ति रखता हूँ किन्तु तुम्हें मारना नहीं है क्योंकि अपने कुत्सित कर्मों द्वारा तुम पहले से ही मारे जा चुके हो। अतः मरे हुए को मेरे मारने से क्या लाभ?
2. दशानन द्वारा अनरण्य का वध एवं उससे प्राप्त शाप -
अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशीय राजा अनरण्य द्वारा भी दशानन शापित था। इस कथा का प्रसंग श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड के सर्ग 19 में वर्णित है। राजा मरूत को पराजित करने के पश्चात् दशग्रीव अन्य राजाओं के नगरों में युद्ध की इच्छा से जाकर कहता था कि राजाओं तुम मेरे साथ युद्ध करो अथवा यह कह दो कि‘हम हार गये’ कुछ बुद्धिमान तथा धर्मपूर्ण विचारवाले महाबली होते हुए भी राजा उसकी बात मान लेते थे। दुष्यन्त, सुरथो, गाधि, गय राजा, पुरूरवा ने दशानन के समक्ष अपनी पराजय स्वीकार कर ली। इसके बाद दशानन अयोध्यापुरी गया। वहाँ जाकर अयोध्या नरेश अनरण्य से मिलकर बोला राजन-तुम मुझसे युद्ध करने का वचन दो अथवा कह दो कि ‘मैं पराजित हो गया’। यह सुनकर अनरण्य को क्रोध आ गया तथा उन्होंने उसे युद्ध के लिये ललकारा। दोनों के मध्य घमासान युद्ध हुआ। अनरण्य की सेना युद्ध में नष्ट होने लगी। तब अनरण्य युद्ध में आये। उनको देखकर दशानन के चारों मंत्री मारीच, शुक, सारण और प्रहस्त उनसे परास्त होकर भाग खड़े हुए। इक्ष्वाकुवंशी अनरण्य दशानन से युद्ध में आहत होकर रथ से नीचे गिर पड़े। तब अनरण्य ने कहा कि मुझे सन्तोष है कि मैंने युद्ध से मुहँ नहीं मोड़ा युद्ध करता हुआ मैं तेरे हाथ से मारा गया हूँ। अन्त में उन्होंने दशानन को शाप देते हुए कहा-
उत्पत्स्यते कुले ह्यासिमन्निइक्ष्वाकूणां महात्मनाम्।
रामो दाशरथिर्नाम स ते प्राणान् हरिष्यति।।
श्री.वा.रा. उत्तरकाण्ड सर्ग 19-30
महात्मा इक्ष्वाकुवंशी नरेशों के इस वंश में ही दशरथनन्दन श्रीराम प्रकट होंगे जो तेरे प्राणों का हरण करेंगे।
3 अप्सरा पुञ्जिकास्थला (पुंजिकस्थला) द्वारा दशानन को शाप
इस शाप की कथा दशानन ने स्वयं महापार्श्व को उस समय बतायी। जब महापार्श्व ने उसे सीताजी से बलपूर्वक अनाचार-अत्याचार करने का परामर्श दिया। दशानन ने कहा - महापार्श्व बहुत दिन हुए पूर्वकाल में एक अत्यन्त ही गुप्त घटना घटित हुई थी। मुझे अप्सरा पुञ्जिकास्थला ने शाप दिया था। अपने जीवन के उस गुप्त रहस्य को आज मैं तुम्हें बता रहा हूँ। ध्यानपूर्वक उसे सुनो। एक बार मैंने आकाश में पुञ्जिकास्थला नाम की अप्सरा को देखा। जो कि पितामह, ब्रह्माजी के भवन की ओर जा रही थी। वह अप्सरा मेरे भय से लुकती-छिपती जा रही थी। मैंने बलपूर्वक उसका उपभोग किया। वह इसके बाद ब्रह्माजी के भवन में चली गई। मेरे द्वारा किया गया दुष्कर्म-दुर्व्यवहार-दुर्दशा पितामह ब्रह्माजी को ज्ञात हो गई। इससे वे अत्यन्त ही क्रोधित होकर मुझसे बोले -
अद्यप्रभृति यामन्यां बलान्नारीं गमिष्यसि।
तदा ते शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशयः।।
श्रीमद्. वा.रा. युद्धकाण्ड सर्ग 13-14
आज से यदि तू किसी दूसरी नारी के साथ बलपूर्वक समागम करेगा तो तेरे मस्तक के सौ टुकड़े हो जायेगें। इसमें संशय नहीं है।
4 उमा द्वारा रावण (दशानन - दशग्रीव) को शाप
रामायण तिलक में यह देखा गया है कि जिस समय रावण ने कैलाश पर्वत को उठाया था (कैलाशशिखरचालनबेलायाम्) तब उसे इस कार्य से क्रोधित होकर उमा ने भी यह शाप दिया कि तेरी (रावण की ) मृत्यु स्त्री के कारण होगी-रावणस्य स्त्री निमित्त मरणम्।
5 दशानन का रम्भा पर बलात्कार और नलकूबर का शाप
मधुपुर यात्रा करके रावण सांयकाल तक अपने भाई कुबेर के निवास स्थान कैलास पर्वत पर जा पहुँचा। वहाँ उसने सेना सहित पड़ाव डाल दिया। उसी समय अप्सराओं में श्रेष्ठ सुन्दरी चन्द्रमुखी रंभा दिव्य आभूषणों से विभूषित होकर दशानन जहाँ था वहाँ के उसी मार्ग से निकल पड़ी। उसके देखते ही दशानन ने रम्भा का हाथ पकड़ लिया। दशानन ने रम्भा से पूछा कि वरारोहे तुम कहाँ सज-धज के जा रही हो। तब रम्भा भय से काँप उठी और हाथ जोड़कर बोली - आप मेरे गुरूजन हैं - पिता के तुल्य हैं। यदि दूसरे कोई पुरूष मेरा तिरस्कार करने पर उतारू हो तो उनसे भी आपको मेरी रक्षा करनी चाहिए। मैं धर्मतः आपकी पुत्र वधू हूँ। मैं आज उनसे मिलने जा रही हूँ। दशानन ने इतना सुनने के बाद भी उसके साथ समागम (बलात्कार) किया। रम्भा लज्जा एवं भय से काँपती हुई कुबेर के पुत्र नलकूबर के पास गई और हाथ जोड़कर उनके पैरों में गिर पड़ी। नलकूबर ने सारा हाल जानकर दशानन को शाप दिया कि -
यदा ह्यकामां कामार्तो धर्षयिष्यिति योषितम्।
मूर्धा तु सप्तधा तस्य शकलीभविता तदा।।
श्री.वा.रा. उत्तरकाण्ड सर्ग 26-55
यदि वह कामपीड़ित होकर उसे न चाहने वाली युवती पर बलात्कार करेगा तो तत्काल उसके मस्तक के सात टुकड़े हो जायेंगे।
6 वेदवती द्वारा दशानन को शाप
यह प्रसंग श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड के सर्ग 17 में वर्णित है। रावण भूतल पर विचरता हुआ हिमालय के वन क्षेत्र में पहुँच गया। वहाँ उसने एक तेजस्वी तपस्विनी कन्या को मृगचर्म पर बैठे तथा सिरपर जटाधारण किये हुए देखा। तपस्यारत उस कन्या के सौन्दर्य को देखकर वह चकित रह गया। उसने उससे पूछा- भद्रे तुम किसकी पुत्री हो? यह कौनसा व्रत तुमने कर रक्खा है? तुम्हारा पति कौन है? यह सुनकर उसने बताया कि बृहस्पति के पुत्र ब्रह्ममर्षि कुशध्वज मेरे पिता थे। प्रतिदिन वेदाभ्यास करने वाले उन ब्रह्ममर्षि पिता से वाडंमयी कन्या के रूप में मेरा प्रादुर्भाव हुआ है। मेरा नाम वेदवती है।
जब मैं बड़ी हुई तब देवता, यक्ष, राक्षस और नाग मेरे पिता से विवाह हेतु आने लगे। पिताजी ने उनसे मेरा विवाह नहीं किया। इसका कारण यह था कि ‘‘पिताश्री की इच्छा थी कि त्रिलोक के स्वामी भगवान् विष्णु मेरे दामाद हो’’।
पिताश्री के इस निश्चय को सुनकर दैत्यराज शम्भु ने उनकी रात्रि में सोते हुए हत्या कर दी।
तब से मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि भगवान् नारायण ही मेरे पति हैं। उन नारायण को प्राप्त करने के लिये ही मैंने इस कठोर तपस्या का दृढ़ संकल्प कर लिया। तब दशानन ने कहा कि वह लंका का राजा है। उसने कहा कि तुम मेरी भार्या बनकर सुखपूर्वक उत्तम भोग भोगो। वेदवती ने दशानन के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया, इतना सुनते ही दशानन ने वेदवती के केश पकड़ लिये। वेदवती ने पकड़े गये केशों को तत्काल हाथ तलवार बनाकर मस्तक से अलग कर दिया। वेतवती ने अग्नि में प्रवेश करते हुए कहा
यस्मात् तु धर्षिता चाहं त्वया पापात्मना वने।
तस्मात् तव वधार्थं हि समुत्पत्स्ये ह्यहं पुनः।।
(श्री.वा.रा. उत्तरकाण्ड सर्ग 17-31-1/2)
तुझ पापात्मा ने इस वन में मेरा अपमान किया है। इसलिये मैं तेरे वध के लिये उत्पन्न होऊँगी।
तदनन्तर दूसरे जन्म में वह सुन्दर कन्या पुनः कमल से प्रकट हुई। दशानन पहले की तरह उस कन्या को वहाँ से अपने महल में ले आया। दशानन का मंत्री बालक-बालिकाओं के शुभ एवं अशुभ लक्षणों को जानने वाला था। उसे अच्छी तरह देखने के बाद दशानन से कहा कि यह कन्या आपके वध का कारण बनेगी। दशानन ने यह सुनकर उसे समुद्र में फेंक दिया। इसके पश्चात् वह कन्या भूमि को प्राप्त होकर राजा जनक के यज्ञमण्डप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुँची। वहाँ राजाजनक के हल के अग्रभाग से उस भूभाग को जोतने पर वह सती-साध्वी कन्या वेदवती ही ‘सीताजी’ जनक की पुत्री के रूप में प्रार्दुभूत हुई। इन प्रसंगों का सारांश यही है कि मनुष्य को परस्त्री को माता - बहिन के रूप में देखना चाहिये तथा पद-धन का अहंकार स्वप्न में नहीं करना चाहिये अन्यथा उसका अंत दशानन सा ही होना है। यहीं बात श्रीरामचरितमानस में श्रीराम ने बालिवध के समय कही थी -
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड 9-4
श्रीराम ने बालि से कहा - हे मूर्ख! सुन छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ पाप नहीं होता। श्रीराम ने रावण का उसकी राक्षस वृत्ति के कारण ही वध किया तथा त्रेता में राजाओं, ऋषि-मुनियों की रक्षा कर उन्हें सुखी-सम्पन्न रक्खा। श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में भी काम के बारे में कहा गया है -
न देशकालौ हि यथार्थधर्माववेक्षते कामरतिर्मनुष्यः।।
श्रीमद् वा.रा. किष्किन्धा 33-55
कामासक्त मनुष्य को देश, काल अर्थ और धर्म का भी ज्ञान नहीं रहता।
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प्रेषक
डॉ. नरेंद्र कुमार मेहता
‘मानसश्री’ मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
सीनि. एमआईजी - 103, व्यासनगर,
ऋषिनगर विस्तार उज्जैन, (म.प्र.)
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