" अंग्रेजवा आज रिटायर्ड हो रहा है। नौकरी में जब तक रहा तब तक तो अपने को वायसरॉय से कम नहीं समझा इसने ! खूब सताया सबको ! आज के बाद क्या ...
" अंग्रेजवा आज रिटायर्ड हो रहा है। नौकरी में जब तक रहा तब तक तो अपने को वायसरॉय से कम नहीं समझा इसने ! खूब सताया सबको ! आज के बाद क्या करेगा। अपनी बीबी को तो सता नहीं पाएगा। सिर कूट देगी इसका। कोई नहीं मिलेगा सताने को तो इसे नींद नहीं आएगी रातों में , फिर गाना गाता रहेगा..... मुझे नींद न आए ,नींद न आए, मुझे चैन न आए, चैन न आए ...." -- तरह-तरह की बातें और ही-ही हा-हा के हंसने की आवाजें शौचालय के भीतर से आ रही थीं । शौचालय हाल के ठीक पीछे था जहां विदाई समारोह का आयोजन चल रहा था। हाल में पीछे की तरफ बैठे कुछ लोग खुसूर-फुसूर करने लगे तो उनमें से बहुतों को समझने में देर नहीं लगी कि मंगलू चपरासी आज फिर शौचालय में बैठकर साहब के सम्मान में कसीदे पढ़ रहा है। उसे बार-बार शौचालय जाने की आदत थी। साहब के चेम्बर का काल बेल बजने पर भी वह वहां से जल्दी उठने का नाम नहीं लेता था। एक बार डायरेक्टर साहब ने उसे गुस्से में माँ-बहन की गाली देकर निलम्बित कर दिया था। बड़ी मुश्किल से यूनियन बाजी के बाद उसकी बहाली हो सकी थी। तब से मंगलू आए दिन शौचालय में बैठकर साहब को गाली देने लगता था। एक बार इसी चक्कर में उसे पुलिस पकड़कर भी ले गई थी और उसे थाने में दिन भर बैठा दिया गया था। उसके बाद साहब के प्रति उसके मन में विद्रोह और बढ़ गया था।
"काय करही निलम्बित तो करे सकही ,कर डारे साले हर ( क्या कर लेगा ,निलम्बित ही तो कर सकेगा , तो कर ले साले )" बात बात में मंगलू को कई बार ऐसा कहते हुए लोग सुनते।
वैसे मंगलू था बड़ा मजेदार।उसकी दिलेरी के किस्से भी कम मजेदार नहीं थे।
"आज मेरे बचपन के दोस्त रामखिलावन के घर नतनीन पैदा हुई है , मैं भी दादा बन गया !" - कहते कहते ठीक एक तारीख को अपनी तनख्वाह में से दो हजार रूपये की मिठाई मंगलू ने ऑफिस में बंटवा दिया था !उसके भीतर कुछ बातें घर कर गईं थीं इसलिए साहब के पास जाने से वह हमेशा परहेज करता| कहीं कोई मनहूसियत भरी बात वे न कर दें इसलिए उनके पास मिठाई लेकर वह आज भी नहीं गया ! मिठाई की भरी प्लेट रामकली के हाथों उसने भिजवा दी , साहब ने पहले तो गटागट सब पेट में डाल लिया फिर पूछने लगे " अरे ये मिठाई किस खुशी में रामकलीइइइ....... ?"पूछते-पूछते उनके चेहरे पर जो शरारती मुस्कान उभरी कि उसके अर्थ रामकली भलीभांति जान गई ! ढलती उम्र में भी उनकी आदत जस की तस बनी हुई थी ! कमसीन और सुंदर देहयष्टि वाली रामकली ने ठेठ छत्तीसगढ़ी में उन्हें कह दिया -" मैं का जानव साहब , मंगलू हर भिजवाय हे त लाय हव ( मैं क्या जानूँ साहब ,मंगलू भिजवाया है तो मैं लाई हूँ ) !" अपने गोल-गोल वृत्ताकार कूल्हों को मटकाती हुई जब रामकली वापस मुड़ी तो उनकी छेड़तीनजरें उसके कूल्हों से टकराकर भीतर ही भीतर उन्हें घायल कर गईं ! रामकली थी कि उनकी पकड़ में आती ही नहीं थी वरना वे तो कब से उसकी ताक में लगे थे । मंगलू के पास जाकर उसने बड़ी ढिढाई से कहा - "बड़ रसिया हे डोकरा (बड़ा रसिया है डोकरा) ! सब्बो दांत मन झड़त जात हे फेर मोला देखत-देखत जवान होय के भरम पाले हवे (दांत सब झड़ने लगे पर मुझे देख देख कर जवान होने का भ्रम पाल रखा है )!" रामकली की बातें सुन मंगलू ही-ही कर पहले तो जोर-जोर से हँसा फिर नतनीन के आने की खुशी का विस्तार कर रामकली को पूरे दो सौ रूपये का नोट देते हुए कहने लगा - "जाओ आज तुम भी अपनी पसंद का खाओ-पीओ !"
"मोर बाप असन सुघर लागथस कका तैंहर ( आप मेरे पिता जैसे अच्छे लगते हो काका ) !" रामकली की बात सुन इस बार मंगलू हँसा नहीं बल्कि थोड़ी गम्भीर मुद्रा में रामकली के सर पर हाथ रखकर एक बाप की तरह आशीर्वाद देते हुए कहने लगा " एकर से बच के रइबे बेटी नई तो तोरो जिनगी ए अंग्रेज हर बिगाड़ दिही ( इससे बच के रहना बेटी, नहीं तो यह अंग्रेज तुम्हारी भी जिन्दगी खराब कर देगा )!"
मंगलू की बातें रामकली खूब समझती थी। माला का किस्सा भी कईयों के मुंह से सुन चुकी थी रामकली। उसके इस ऑफिस में नियुक्ति के पहले की घटना थी वह । माला अब यहाँ नहीं है, पर उसके किस्से इस ऑफिस के जर्रे जर्रे में टंगे हुए लगते हैं। ऑफिस में क्लर्क थी माला। इस बात की खूब चर्चा थी कि वह बिनब्याही माँ बनने वाली थी। धीरे धीरे परिस्थितियाँ इस कदर होने लगीं थीं कि उसका ऑफिस आना असंभव हो गया। दबी जुबान में लोग कहने लगे थे कि माला, डायरेक्टर साहेब के बच्चे की माँ बनने वाली है।
"क्या साहेब! ये मैं क्या सुन रहा हूँ आपके बारे में ! माला मेडम के बारे में कुछ तो सोचिए ! बेचारी अब तो कहीं की नहीं रही ! आपने तो कहीं का नहीं छोड़ा उसे ! आठ महीने बाद बेचारी की शादी होने वाली थी और अब यह बच्चा ......!"- मंगलू ने सबकुछ खरी खरी कह दी थी साहेब को। इस बात का असर ठीक उल्टा हुआ। माला अब उन्हें गले की फांस की तरह लगने लगी।
"यह माला भी अब परेशानी का कारण बनते जा रही ! अब तो किसी न किसी तरह इसे यहाँ से हटाना ही पड़ेगा!"-साहेब के दिमाग में शातिराना बातें आने लगीं।
जिस माला से प्यार भरी बातें करते वे थकते नहीं थे वही अब उनकी दुश्मन हो चली थी। माला इनदिनों छुट्टी पर थी। भविष्य की दुहाई देते हुए उन्होंने उसे किसी तरह बहलाया -फुसलाया। फिर एक दिन एक निजी नर्सिंग होम में मोटी रकम अदा कर गुप्त रूप से उसका एमटीपी करवा दिया। उनके लिए बच्चे का रोना अब खत्म हो गया था फिर भी उन्हें लगा कि इसके बावजूद माला उनके लिए सरदर्दी का कारण बन सकती है। वे अब किसी तरह माला को इस ऑफिस से हटाना चाहते थे। एकदिन वे पुरानी फाइलें ढूँढने लगे। फाइलें तो उनकी कमीशनखोरी जैसे काले कारनामों के जीवंत दस्तावेज थे। ये गड़बड़ियाँ मातहतों पर दबाव पूर्वक वे खुद करवाते थे। इन फाइलों पर कलम तो पहले बाबुओं की ही चलती थी और सारी मलाई साहेब के हिस्से आता था। फंसे तो बाबू ही फंसे। इन्हीं फाइलों में से एक फ़ाइल को उन्होंने खोज निकाला था जिस पर नोटशीट में माला के दस्तखत थे। तीन लाख रुपयों की गड़बड़ी थी इस फ़ाइल में जो उन्होंने खुद करवाई थी। आज इसी फ़ाइल को आधार बनाकर माला पर कड़ी कार्यवाही हेतु उन्होंने मंत्रालय को लिख दिया था। माला तुरंत निलम्बित कर दी गई। वह रोज आकर उनसे विनती करती । अपने संबंधों की दुहाई देती। पर उन्हें तो उसे यहां से किसी तरह हटाना ही था। निलम्बन ही एक जरिया था उसे हटाने का। माला अब यहाँ से चली गई पर उसे लेकर ऑफिस में कुछ दिनों तक बातें होती रहीं। दो साल बाद विभागीय जांच खत्म होने के उपरान्त माला की किसी दूसरे शहर में बहाली की खबर भी एक दिन आई थी , उस दिन फिर माला इस ऑफिस में लोगों की जुबान पर ज़िंदा हो उठी थी। शौचालय में बैठ कर मंगलू ने साहेब के ऊपर उस दिन भी कसीदे पढ़े थे और अचानक लोग आज उसे भी याद कर बैठे थे।
हाल में विदाई समारोह अपनी समाप्ति की ओर था। औपचारिक समाप्ति उपरान्त ऑफिस से निकलते-निकलते एक सोच साहब के दिलों-दिमाग में अचानक आक्रमण करने लगी " तो मुझे सरकार की ओर से आज रिटायर्ड कर दिया गया ! " रिटायर्ड शब्द ने एक उथल-पुथल मचा दी उनके मन में ! उनके दिमाग ने एक अर्थ खोज लिया ,रि-टायर्ड याने फिर से थका हुआ, कभी सोचा ही न था उन्होंने इस तरह , सोचना शब्द उनके जीवन की डिक्शनरी में दरअसल था ही नहीं !
आज ऑफिस की गाड़ी उन्हें अंतिम बार उनके घर तक छोड़ने जा रही थी ! ड्राईवर भी वही शिवमंगल जो वर्षों से उन्हें घर से ऑफिस और ऑफिस से घर तक लाता ले जाता रहा था। उनके रिटायर्ड हो जाने से उसे कोई फर्क पड़ा हो ऐसा तो कतई उसके हाव-भाव से उन्हें लग नहीं रहा था। उसे भी उन्होंने कहाँ छोड़ा था कभी कि कोई आत्मीयता उसे उनकी तरफ खींचती ! अब जब अचानक सोचने की यह बीमारी आज उनके ऊपर आक्रमण करने लगी तो उन्हें याद आया कि शिवमंगल के पार्ट फाइनल की रकम के लिए भी उन्होंने उसे कितना तड़पाया था ! उसकी बेटी की शादी को बस 45 दिन बचे थे और वह बेचारा उन्हें अपना बॉस समझ पार्ट फाइनल की रकम निकल जाने के लिए सहायता करने की गुहार कई बार लगा चुका था ! वे बस इतना भर कहते "अरे जॉइंट डायरेक्टर साहब को इस सम्बन्ध में मैं कई बार कह चुका हूँ , वे ध्यान ही नहीं दे रहे हैं !" उन्होंने दरअसल हर बार उससे झूठ ही बोला। वे चाहते तो तुरंत ये काम हो जाता पर वे चाहते नहीं थे ! बिना पैसे के कभी उन्होंने किसी का काम कब किया था कि वे शिवमंगल का करते ! समय जब केवल 15 दिन रह गया और ये साहब उसे तब भी यही जवाब देते रहे तो शिवमंगल को थोड़ा गुस्सा आ गया। एक दिन गुस्सा और खिसियाने का भाव लेकर वह जॉइंट डायरेक्टर के ऑफिस में खुद पहुँच गया। जॉइंट डायरेक्टर उसे चेहरे से पहचानते तो थे , उनके ड्राईवर के छुट्टी में जाने पर एक दो बार उनकी गाड़ी की ड्राईवरी भी उसने कर रखी थी।
"साहब मैं क्या करूं बताइये ? मेरी बेटी की शादी 15 दिन बाद है और मेरा पार्ट फाइनल का पैसा अभी तक नहीं निकला !" बोलते-बोलते वह रूआंसा हो उठा। बड़े साहब जो दिन-दिन भर फाइलों में डूब कर बर्फ हुए जा रहे थे, उसका मजबूरी से सना हुआ चेहरा देख उनकी स्थिति भी पिघलती हुई बर्फ जैसी होने लगी। सारे फ़ाइल को उन्होंने एक तरफ इस तरह सरका दिया जैसे आज वे इन्हें छुएंगे ही नहीं। काटो तो खून नहीं , जैसे उनसे कोई अपराध हो गया हो। चाहते तो फोर्थ क्लास एम्प्लोयी को डांट कर भगा सकते थे पर उनकी भद्रता ने ऐसा करने से उन्हें रोके रखा ।
" अरे ! किसी ने बताया नहीं इसके बारे में , न ही तुम्हारी फ़ाइल पहुंची अब तक मेरे पास " एक गहरा अफ़सोस उनके चेहरे को भिगो गया !
वे भले आदमी थे इसलिए शिवमंगल का काम जल्द हो गया पर वह समझ गया कि सारा खेल अपने ही डायरेक्टर साहब का था ! उन्होंने ही उसकी फ़ाइल रोक रखी थी और हमेशा झूठ बोलते रहे ! रोज का साथ था, फिर भी उसने उनसे इस सम्बन्ध में कभी कोई शिकायत नहीं की , उनसे बोलने का कोई फायदा भी न था क्योंकि इतने सालों में अब वह पूरी तरह जान गया था कि वे ऐसे अहंकारी और खुदगर्ज आदमी हैं जिसे दूसरों के सुख दुःख से कोई लेना-देना ही नहीं है।
एक बार शिवमंगल, साहब के चक्कर में मार खाते खाते भी बचा था। हुआ यह था कि ये जनाब शाम को ऑफिस से लौटते वक्त आए दिन विनोदिनी झा के घर घंटों रूक जाते। घर के अन्दर घुसते तो फिर निकलने का नाम ही न लेते। विनोदिनी झा उन्हीं की स्टेनो थी। यही कोई चालीस-बयालीस की उम्र की खूबसूरत महिला। सुडौल और उजली देह। गठी हुई देहयष्टि। जनाब तो उस पर लट्टू थे ही। उन दोनों के किस्से कहानियाँ ऑफिस में कईयों की जुबान से वह सुन चुका था। मंगलू ने तो साहब को एक बार विनोदिनी प्रसंग में ही औरतखोर तक कह दिया था। उस दिन से साहब को वह फूटी आँख नहीं सुहाता था। विनोदिनी फ्लेट में अपने पति के साथ रहती थी। उसका पति शहर में ही प्राइवेट नौकरी पर था और रात दस के बाद ही घर लौटता था । आज भी जनाब दो घंटे बाद जब विनोदिनी के घर के दरवाजे को अड़ाते हुई सीढ़ी से वापिस उतर रहे थे कि अचानक विनोदिनी झा के पति से उनका आमना-सामना हो गया। वह आज अचानक समय से दो घंटे पहले आ धमका था। बहुत दिनों से वह इस ताक में था कि उसे रंगे हाथ पकड़ सके। विनोदिनी के पति से शायद उनकी पहले भी कभी कहा सुनी हुई होगी तभी तो वे जनाब से उलझ पड़े थे -- "तुम मेरे घर क्या करने गए थे, मैंने पहले भी तुमसे कहा है कि मेरे घर कभी मत आया करो ! " कहते कहते उन्होंने साहब को नीचे धकिया दिया था। जब जनाब को कुछ नहीं सूझा तो उनसे कह दिया कि मेरे ड्राईवर शिवमंगल ने विनोदिनी को लिफ्ट दिया है, मैं तो तैयार ही नहीं था आने को , जब आया तो विनोदिनी नहीं मानी , चाय पर उसने जबरदस्ती बुला लिया , कहते कहते उन्होंने जबरदस्ती वहीं से जोर की आवाज दी "क्यों भाई शिवमंगल सही कह रहा हूँ न मैं " सुनकर विनोदिनी का पति ड्राईवर की ओर लपका था। इस बीच उन्हें मौका लग गया और वे कार के भीतर जा बैठे। शिवमंगल ने उस दिन जाना कि यह आदमी बहुत झूठा और मक्कार भी है। किसी तरह मुश्किल से गाड़ी स्टार्ट कर दोनों वहां से रफू चक्कर हुए थे। जनाब के साथ शिवमंगल भी उस दिन मार खाते खाते बच गया था। पड़ती तो उस दिन दोनों को खूब पड़ती।
" भाग गया शाला, नहीं तो आज खूब सड़काया होता, सब आशिक मिजाजी निकाल देता, जब देखो मेरी पत्नी पर बुरी नजर रखता है !" विनोदिनी के पति की उग्र आवाज कुछ देर तक कार का पीछा करती रही जिसे सुन शिवमंगल उस दिन सहम गया था।
"आप तो अच्छा फंसा देते हैं साहब ! आशिक मिजाजी का शौक आप फरमाएं और मार किसी और को खानी पड़े !" आते आते शिवमंगल ने उस दिन उन्हें खूब खरी खोटी सूना दी थी।
"हद है यार ! ड्राईवर सामने हो और साहब को मार खानी पड़े, ये कहाँ का न्याय है बताओ भला !" वे अचानक गुस्से में आ गये थे। उनके इस अजीब तर्क को सुन शिवमंगल दंग रह गया था।
" हद है ,मार खाने में भी वर्ग भेद ! इस आदमी से तो बात करना ही बकवास है!" -वह मन ही मन कुढ़ते हुए उस दिन चुप रह गया था।
समारोह खत्म हो चुका था। ड्राईवर शिवमंगल गाड़ी ले आया ! वे विदाई समारोह में पहनाये गए माला गिनने में लगे थे। एक बैग में उन्हें इस तरह ठूंस रहे थे जैसे इन मालाओं को देख-देख कर ही उनके बाक़ी दिन कटेंगे। वे मनुष्यता की कसौटी पर कभी प्रेक्टिकल नहीं हो सके थे । उन्हें पता ही नहीं था कि उनके आने वाले दिनों की तरह माला में गुंथे हुए फूल भी कल मुरझा उठेंगे।
ऑफिस के लगभग सारे लोग अपने-अपने घरों को जाने लगे थे ! किसी के मन में यह इच्छा नहीं हो रही थी कि जाते-जाते औपचारिक रूप से ही सही ,अपने रिटायर्ड बॉस के जाते तक वे रूक जाएं ! जबसाहब के रूदबे का सूर्य उठान पर था तो उसकी पीड़ा देने वाली तपिस लोगों को रह-रह कर जलाती रही थी इसलिए डूबते सूर्य को जाते-जाते प्रणाम कर लेने की इच्छा किसी में नहीं बची थी ।
ड्राईवर ने आम दिनों की तरह कार का दरवाजा खोल दिया ! वे बैठ गये। अब कार सड़क पर दौड़ने लगी थी। उनका सरकारी बंगला ऑफिस से लगभग सात किलोमीटर दूर था !
घर जाते हुए वे फिर सोच में डूबने लगे थे ! तरह-तरह की बातें उनके दिलों-दिमाग में आने-जाने लगीं थीं !
जब लोग उनके यहाँ फरियाद लेकर आते और कहते कि साहब कभी हमारे बारे में भी सोचिए ... आपको सरकार ने असीमित अधिकार दे रखे हैं माय बाप ! हम कोई बड़ी समस्या लेकर भी नहीं आए हैं , बस छोटी-छोटी समस्याएं हैं हमारी , आप अगर मन से थोड़ा सोचेंगे तो हमारी आधी समस्याएं वैसे ही दूर हो जाएंगी !
उनकी बातें सुन वे मन ही मन कुढ़ते ,चिढकर वे उनके सामने ही उन्हें मूर्खकहकर गाली-गलौज पर भी उतर आते ! ऐसा कोई फरियादी नहीं था जो कभी खुश होकर उनके दरवाजे से लौटा हो !
"हूँह.....! सोचूँगा इस तरह इनके लिए फिर तो हो गया सब काम ! सोचते-सोचते मन के किसी कोने में इनके लिए अगर कहीं कोई सहानुभूति उत्पन्न हो गई फिर वह सख्ती इनके साथ कैसे बरत पाउँगा जिसे अब तक बरतता आ रहा हूँ , सख्ती और रूतबा ही तो अलग करती है मुझे इनसे , अगर वही नहीं बचेगी तो वजूद फिर क्या रहेगा मेरा ? कमाऊँगा कैसे ? कमाने के हथियार तो यही हैं। सख्ती दिखाओ , डराओ तो लोगों से पैसे निकलते हैं। कमाऊँगा नहीं तो मुंह फाड़े मंत्रियों तक क्या पहुचाउंगा? अपने बच्चों के लिए क्या रख पाउँगा?" उनके दिलों दिमाग में नकारात्मक बातें इसी तरह घर करती रहीं थीं।सोचने समझने को वे अपने लिए हमेशा खतरा मानते रहे थे।
एक बार उन्होंने अपनी पत्नी से मजाक करते हुए कहा भी था कि ज्यादा सोचने समझने से आदमी के भले और ईमानदार हो जाने का खतरा बढ़ जाता है !उसे इस रास्ते पर चलकर अपने लिए इतिहास में कोई जगह नहीं बनानी है , और इस नौकरी में लगने से पहले बाबूजी ने कहा भी था कि कुछ मत सोचो ! बस अच्छे से तैयारी में लग जाओ , बहुत रुतबा है ,सुविधाएं हैं, और बहुत पैसा है इस अफसरी में ! तब से उसका उद्देश्य सोचना नहीं बल्कि इस अफसरी को पाना ही रह गया !
घर लौटते हुए आज अचानक उन्हें लगा कि उनके हाथों से वह सब कुछ छूटने लगा है ...... सरकारी कार, सरकारी बंगला , रुतबा और चोर दरवाजे से जेब में आने वाला बहुत सारा रूपया !
कार अभी बंगले तक पहुँचने को ही थी कि अचानक उन्हें सोच-सोच कर पसीना आने लगा , गला सूखने लगा ! अफसरी का रूतबा खो जाने की मार उन पर बहुत भारी पड़ने लगी थी।
शिवमंगल गाड़ी रोको ....गाड़ी रोको !
"बस पांच मिनट की ही तो बात है साहब , घर तो आने वाला है !" आज इतने वर्षों बाद शिवमंगल ने एक तरह से उनकी बातों की अवहेलना की थी !
"अरे गाड़ी रोको नालायक !" कहते-कहते वे अपनी सीट पर लुढकने से लगे !
तब तक कार को घर के गेट पर लाकर शिवमंगल टिका चुका था ! उसने अचानक कार रोकी और क्या हुआ? क्या हुआ? कहकर उन्हें फिर पकड़कर संभालने लगा !
क्या हुआ ?क्या हुआ ? कहते-कहते उनकी पत्नी भी सुनकर बाहर आ गई
"इनकी तबियत ठीक नहीं , जल्द किसी डॉक्टर को दिखा दीजिए !"
"मैं भी साथ आती हूँ। उन्हें अभी मत उतारो। इसी कार में पास के डॉक्टर के यहाँ चलते हैं"-उनकी पत्नी ने शिवमंगल को लगभग आदेशात्मक लहजे में कहा ! तब तक वे भी किसी तरह कराहते हुए उठकर अपनी सीट पर बैठ गये थे !
उनकी पत्नी की बातें सुन एकबारगी शिवमंगल के मन में यह खयाल आया कि चलो आज भर के लिए ऐसा कर दूँ ,पर उनके साथ काम करने वाले सहकर्मियों के साथ-साथ उसे भी उनके अमानवीय रूतबे के बोझ तले दबने का जो एहसास अब तक होता आया था, उस बोझ से मुक्त होने का एक पहला और अंतिम मौका आज उसके हाथ लगा था ! ऐसा करे कि न करे एक उहापोह के बीच कुछ देर वह फंसा रहा फिर उस बोझ को एक झटके में उसने उठाकर फेंकते हुए जवाब दिया - " नहीं मेडम ! साहब अब रिटायर्ड हो चुके हैं ! इस सरकारी गाड़ी के उपयोग की पात्रता अब उन्हें नहीं रही ! लौटने में देर होगी तो मुझे ऑफिस में जवाब भी देना पड़ेगा ! कोई ओला या ऊबर का केब मंगा लीजिए, न हो तो मैं मंगा देता हूँ !"
"चुपकर बदतमीज!" उनकी पत्नी का यह जवाब उसके लिए अप्रत्याशित नहीं था ! वह कई बार बेवजह उसे डांट चुकी थी , आज वजह बड़ी थी, पर इस डांटने में एक अजीब तरह की हताशा थी। वे कार की सीट पर बैठे-बैठे उन दोनों की बातें सुनते रहे !
ड्राईवर के इस जवाब ने उनके रुतबे की हरी-भरी जमीन को अचानक किसी बंजर जमीन में बदल दिया था ! कार से उतरकर जब सरकारी बंगले के लोहे के विशालकाय गेट को उन्होंने छुआ तो उन्हें एक परायेपन का एहसास हुआ। इसी बीच घर के बागीचे में काम कर रहे माली ने अचानक उन्हें आवाज दी "इस बंगले को भी अब खाली करना पड़ेगा साहेब !" यह सुनकर गाड़ी बेक कर रहे शिवमंगल को थोड़ी हँसी आ गयी।माली की बातें सुनकर और ड्राईवर की हँसी देखरिटायर्ड साहब को ऐसा लगा जैसे उनके रूतबे की दीवार भरभरा कर अचानक ढह गई हो !
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92 श्रीकुंज ,बीज निगम के सामने , बोईरदादर, रायगढ़ (छत्तीसगढ़), 496001
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परिचय
नाम: रमेश शर्मा
जन्म: छः जून छियासठ , रायगढ़ छत्तीसगढ़ में .
शिक्षा: एम.एस.सी. , बी.एड.
सम्प्रति: ब्याख्याता
सृजन: दो कहानी संग्रह “मुक्ति” 2013 में तथा “एक मरती हुई आवाज” 2018 में एवं एक कविता संग्रह “वे खोज रहे थे अपने हिस्से का प्रेम” 2018 में प्रकाशित .
कहानियां: समकालीन भारतीय साहित्य , परिकथा, गंभीर समाचार, समावर्तन, ककसाड़, कथा समवेत, हंस, पाठ, परस्पर, अक्षर पर्व, साहित्य अमृत, माटी, हिमप्रस्थ इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित .
कवितायेँ: हंस ,इन्द्रप्रस्थ भारती, कथन, परिकथा, सूत्र, सर्वनाम, समावर्तन, अक्षर पर्व, माध्यम, मरूतृण, लोकायत, आकंठ, वर्तमान सन्दर्भ इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित !
संपर्क : 92 श्रीकुंज , शालिनी कान्वेंट स्कूल रोड़ , बोईरदादर , रायगढ़ (छत्तीसगढ़),
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