कहानी - नदी के लुटेरे - संदीप शर्मा

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(ऊपर का चित्र - डॉ. सुरेन्द्र वर्मा की कलाकृति) वे आ गए, वे फिर से आ गए हैं। धान के खेतों को तैयार करते उनको आते सबने देखा। उनको धान के खेत...

(ऊपर का चित्र - डॉ. सुरेन्द्र वर्मा की कलाकृति)


वे आ गए, वे फिर से आ गए हैं। धान के खेतों को तैयार करते उनको आते सबने देखा। उनको धान के खेतों के उस पार खाली रेतीली ज़मीन में फैले सरपड़ों के बीच कंधों पर बड़े बोरू उठाए सबने देखा। उन्होंने नदी के एक कोने के सरपड़ के बीच खाली ज़मीनों में अपना सामान रखा और तंबू लगाने शुरू कर दिए। उनके आते ही खेतों को धान रोपने से पहले तैयार करते गांव के मर्दों व औरतों में उनके बारे में चर्चा शुरू हो गई।

‘‘लो जी, इस बार भी धान लगाने के काम में उनकी मदद मिल जाएगी।’’ बैल हांकता जगतू अपनी पत्नी से बोला। ‘‘हां जी, पर हम तो अपने धान खुद ही लगाएंगे, कौन दे उनकी मजदूरी, हमारे पास तो दो ही खेत हैं। मैहरों व ठाकुरों के पास बथेरे खेत हैं, वही लगाएंगे इन्हें अपने खेतों में’’ जगतू की पत्नी खिल्लो बोली, ‘‘मैहरों ने ही बुलाएं होंगे ये लोग, पूरे गांव के आधे खेत तो उनके पास ही हैं। जगतू बैलों को रोककर बीड़ी सुलगाने लगा। ‘‘तुम्हें पता है ये लोग बड़े पागल आदमी हैं असली मकसद तो इनका नदी की बाढ़ में बहते सामान लूटने का है, धान तो ये गांव की ज़मीन में अपनी जगह बनाने के लिए लगाते हैं नदी से मोटे पत्थर भी इक्ट्ठा करते हैं, कुल्हें भी बना देते हैं नदी के पानी को खेतों तक भी मोड़ लाते हैं। वैसे हैं बड़े काम के आदमी। गांव में तो अब लोगों को इनकी आदत पड़ गई है।’’ पहले चार लोग आए। फिर शाम तक और चार लोग आ गए। अपने काम से थोड़ी फुर्सत के वक्त गांव इक्का दुक्का मर्द उनकी ओर हो लिए। गांव के नानकू ने जिज्ञासा वश उनके पास पहुंचते ही बोला, ‘‘आ गए भई ! अच्छा हुआ, कहां से आए हो? तुम्हारे बारे में गांव के लोग बात करते हैं मैं तो अमृतसर में हलवाई हूं, इस बार बरसात तक लंबी छुट्टी पर आया हूं, किस ईलाके के हो, कौन सी जात है तुम्हारी। और क्या - क्या कीता है तंबू गाड़ते सबसे उम्रदराज अधेड़ से व्यक्ति ने विस्मय सी आंखों से नानकू की ओर देखा और तंबू गाड़ते ही बोला,‘‘जी , दूर धार के उस पार के कोई पचास कोह में बसे गांव के झीर हैं हम, बरसात के मौसम में हमारे यहां कोई काम नहीं होता। न किसी के पास अच्छी खासी ज़मीन है और न करने के कुछ और, बस काम की तलाश में निकल आते हैं यहां। जहां से ये नदी अपना बहाव बढ़ाना शुरू करती है, वहीं है हमारा गांव। मैं ध्यानू हूं, ये मनोहर, श्यामू, शूंका, बलैतू और ये जो लकड़ियां फाड़ रहा है न, ये हममें सबसे छोटी उम्र का हीरू है। बड़ा बहादुर है यह लड़का हीरू। पिछले दो सालों से आ रहा हैं अभी सीख रहा हैं हुनर पर इसके इरादों में अलग ही पंख हैं। हीरू कुल्हाड़ी से नदी के इधर - उधर से किए सूखे गट्ठों को फाड़ता रहा।

नानकू बोला,‘‘ वैसे मैंने सुना है कि नदी में वहां सामान भी ईक्ट्ठा करते हो, चलो अच्छी बात है इस बार बरसात तो खूब होगी पर तुम लोगों को कुछ नदी में से मिलेगा कि नहीं यह तो भगवान ही जाने। पर मैंने सुना है कि तुम उफनती लहरों में से सब कुछ खींच लाते हो। क्या ये सच है।’’ ध्यानू बोला,‘‘ नदी की छोटी मोटी धाराओं में सीखते हैं मस्ती में चोबियां (डुबकियां) लगाना और फिर उस ख्वाजा की मर्जी से यहां तक पहुंच जाते हैं उफनती लहरों में अपनी जान जोखिम में डालने। बस मजबूरी ने ये काम भी सीख दिया है । हमारे बुर्जुगों ने भी किया है यही सब। जनाब! ये तो ख्वाजा पीर की मर्जी है कि वह हमारी झोली में कुछ सामान डालता है न भी मिलेगा तो भी उसकी मर्जी है। बरसात के आखिरी दिनों तक हम यहां रहेंगे ही। धान लगाएंगे, खेत तैयार कर दिए है सबने बांध बनाएंगे और नदी के बचे खुचे पानी को खेतों तक मोड़ लाएंगे। वर्शों से हमारे दादा पड़दादाओं के समय से यहां आते रहे हैं हम भी आ रहे हैं जब तक यह कीता चलेगा हमसे बस काम करेंगे, बाकी ख्वाजा की मर्जी। ’‘ हां! उसकी मर्जी! ठीक है भाईयों फिर मिलेगें। तुम्हारा अनोखा खेल इस बार मैं जरूर देखूंगा। कोई चीज की जरूरत हो तो बताना। वैसे मैं उसे छप्पर में रहूंगा। बुर्जुगों के टाइम का बना है। मेरे पिता का नाम जानकू है ।’’ ‘‘हां! हां! महाराज बड़े नेक इंसान है आपके पिता उनके खेतों में धान लगाते हैं हम और खाने पीने का सामान दिल खोल कर देते हैं। अधिया हैं वे इस गांव के। आधी ज़मीन है पूरे गांव की हमारे पास। भला हो उनका’’ ध्यानू बोला। नानकू बोला, ‘‘शुक्र है तुम आ जाते हो। वर्ना पूरे गांव की औरतों व मर्दों से धान रूपाने के लिए तरले करने पड़ते हमें।अच्छा भाईयो’’

कुछ ही दिनों में नदी में पत्थरों, आस पास की झाड़ियों व सबाल की मदद से बांध बनता। पानी भरने लगता खेतों में। मयान होता। मैहर के खेतों में उन प्रवासियों की टोली घुस जाती धान रोपने। पर इस सबके बावजूद वे अपने मनों में कई तरह के सपने भी रोपते रहते। जब धान रोपने का काम पूरे जोरों पर होता तो गांव की लड़कियां अपने ससुराल से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर अपने माइके पहुंचकर धान लगाने में मदद करती। कोई घर खाली न बचता। साथ में ये अद्भुत लोग भी सिर्फ उन्हीं के खेतों में रोपते जो उन्हें उनकी मजदूरी दे सकें।

जब तपते जयेश्ठ की धूप उनके जिस्मों के अंदर छुपी महीन जीवनदायनी खून के साथ घुल मिली पानी की बूंदों को सोखनी शुरू कर देती,तो वे भी बड़े खुश होते, इसलिए नहीं कि शरीर का भार खाली हो रहा है बल्कि इसलिए कि इस बार का सावन का अंधा घोड़ा उनके लिए कई नेमते लाएगा। दूसरी ओर गांव के किसान इसी जयेश्ठ की गर्मी में अपने शरीरों से सारी उर्जा को पसीने की बूंदों के साथ निचोड़ रहे होते। दिन की मेहनत के बाद हर रात को नदी की सारी मछलियों को वो लियाडे़ से मारने के लिए निकलते और जब पत्थरों के बीच से गोदल ‘लम्बी पूंछ वाली मछलियां’ पानी की कमी व आग की तेज लौ से चुंधया चुकी उनकी कोमल आंखों के कारण बाहर आती,तो वे लोहे के सख्त दराटों के प्रहार से उनकी आत्माओं को उनकी मामूली वसा से परिपूर्ण काया से अलग कर देते। फिर वे लम्बी पूंछ वाली मछलियां उन नासमझ मछुआरों या फिर शौकिया शिकारियों के लिए उर्जा दायक भोजन के रूप में परिवर्तित हो जातीं।

ज्येश्ठ की समाप्ति तक जब नदी हर ओर से सूखने लग जाती तो कुछ परेशान से बगुले भी वहां से पलायन कर जाते। सिर्फ नदी में जलीय जीव बचते जो अपने वसापूर्ण भोजन को एक अतिरिक्त व्यजंन के रूप में किसी के परोसे जाने का दुस्वप्न पाल बैठे हौं। जब आषाढ़ अपनी तपस से मेघ रूपी रथ के पहियों को दौड़ाने के लिए सुनियोजित कर रहा होता तो वे अपना काला मुंह करके ‘काली इंटे काला मुंह’ का खेल खेलने का प्रंपच भी करते ताकि मेघ उनकी प्रार्थना के झांसे में आकर उनके हिस्से के आर पार इतना मेघ बरसाए कि उस मेघ रूपी दानव के पीछे भागते लश्कर के साथ सब जीवन रूपी काया के मददगार पदार्थ बहते आएं और फिर वे अपनी हिम्मत ,मस्ती, स्वार्थ व कलापूर्ण मेहनत के दम पर बीस-तीस उंचे उठे बाढ़ के पानी से वो सब सामान इक्ट्ठा कर सकें या लूट सकें जिससे उनके लिए कुछ महीनों का सामान इक्ट्ठा हो सके और जो उनकी पहचान , उनके अस्त्तिव को बचा कर रख सके , जो वो करते आए हैं। वे न तो लुटेरे हैं न शिकारी , वे सिर्फ कलापूर्ण हुनर के दम पर नदी में बाढ़ के साथ बहने वाले सामान को सही दिशा की ओर मोड़ने वाले हिम्मती मर्द हैं जिसकी तुच्छ यांत्रिक जीवन की आदतों ने उन्हें रहस्यमयी इन्सान बनाने का जोखिम ले लिया है। यही यांत्रिक संसार उन्हें सब मर्दो से विभिन्न दर्जा दे रहा है और उनके अस्तित्व के कणों में नए कण जोड़ रहा है ताकि वे मानस पटल के सजाए दृश्यों में अपना नाम जोड़ सकें। दूर गांव से आए ये वे रहस्यमयी पुरूश समय के अंतराल के बाद अपनी उपस्थिती से गांव के मानसिक ताने बाने में दखल देते आ रहे हैं वे जिस विशेश स्थान से आते हैं पर न ही उनकी संख्या में कमी आती है। वे स्वर्णिम दिनों की रचना करके ही अपने ठिकानों को लौटते हैं वे अपने उर्जा से भरे शरीरों को गांव के किसानों के उन खेतों में धान लगाने के लिए भी झौंक देते, ताकि किसी को उनका आना खटके न। जब नदी के किनारे खाली पड़ी जमीन में उनके तंबू लग जाते तो गांव के लड़के ,बुर्जुग और अन्य तंबूओं के पास कभी - कभार मंडराना शुरू कर देते। नदी की मछलियां अब भागने की फिराक में गहरी पानी की कंधराओं में छुपने लग पड़ती पर उन्हें ये पता नहीं कि ये हिम्मती पगलाए आदमी उन्हें ज़मीन व पानी की सात तहों से भी बाहर निकाल लेंगे।

औरतें उनके तबूंओं की ओर नहीं जाती पर उनकी विशेष कर्मों की चर्चा एक दूसरे से जरूर करतीं वे सभी अपनी कल्पनाओं की एक अनोखी दुनिया जरूर सजाती जो उन्होंने उन प्रतापी मर्दा के बारे में अपने शांत व सूखे पड़े विचारहीन मस्तिष्कों में की होती । उनकी कल्पनाओं में विविधता पूर्ण लहरें होती। कुछ मन ही मन उन मर्दो की तुलना अपने मेहनती मर्दो से करतीं जो वर्शों से इन खेतों में जुते हुए होने के बाद कभी उन्हें गांव से बाहर का क्षितिज आज तक दिखा न पाए। कुछ उनके बारे में सोचती कि जो प्रतापी मर्द नदी के तीव्र वेग से भी जीवन उपयोगी चीजे़ निकाल लाते हैं वे कितने मज़ेदार व हसीन मर्द होंगे। वे अपनी स्वार्थी कल्पनाओं को भी अपने मन में सजातीं।

औरतों की नैपथ्य मानसिकता में अप्रत्याशित परिवर्तन ये मायवी लुटेरे चुपचाप किसी को बिना बताए कर चुके होते। उनका स्मरण सघन होकर उन लुटेरे मर्दों के नित्य कर्मों पर केंद्र निर्मित करता जाता। वे किसी भी बहाने उन मर्दों की चर्चा की खुमारी की अवस्था धारण कर लेतीं उन्हें उन दिनों सितारों में अधिक प्रकाश नज़र आता, उन्हें नीले आकाश में अधिक नील नज़र आता । उन्हें रातें अधिक स्वपनिल महसूस होती , उन्हें सूखती नदी एक मायावी जादूगरनी की तरह नज़र आती, उन्हें नीरस जिंदगी में ख्वाइशों की बेलों के फैलने और खिलते फूलों की अत्यधिक गंध महसूस होती। उनमें दिव्यता की मादकता को पीने की लालसा जागने लगती। वे समतल खेतों में शिखरों के उगने का आभास करतीं। उन्हें अपने कच्चे घरों के कमरों में एक रहस्यमय प्रकाश दौड़ता नज़र आता। उन्हें गांव की भूमि का हर हिस्सा रमणीय नजर आता। उन्हें ज्येष्ठ के उग्र सूर्य की प्राणदायक किरणें भी पृथ्वी के गुप्त आलिंगन में मदहोश नज़र आती। वे उनकी सुघड़ शक्तिशाली आकृतियों और प्रचंड इच्छा शक्ति की गुप्त भक्ति करने लगती। गांव के आभाविहीन सिर्फ देहाती किसान मर्दों के पास भी औरतों से विभिन्न विचित्र कल्पनाएं भी होती। वे अपनी मर्दानगी की उन बहादुर व रहस्यमय मर्दों के साथ तुलना में लगे रहते। कोई सोचता,‘‘मैंने इसी नदी से पांच - पांच मण के पत्थर अपने मजबूत कधों पर उठाए हैं पर क्या वे ऐसा कर सकते हैं?’’ कोई सोचता कि उसने जेठ की पूरी रातें इसी नदी के किनारे शमशान के करीब बिताई हैं क्या वे ऐसा कर सकते? कुछ अपनी मर्दानगी को अपनी सहवास की शक्ति के प्रदर्शन के साथ उनके साथ कल्पना करते।

इन सब कल्पनाओं व मन की तसल्ली की बातों को बावजूद गांव के मर्द फिर भी पीछे छूट जाते। कुछ की विचित्र कल्पनाएं उन्हें शंका में डालती कि कहीं उनकी पत्नियां रात के स्वप्नों में उन गैर मर्दां के साथ लिप्त न हों। कईयों के साथ जब यह भ्रम उनके मन के रथ के साथ दौड़ने लगता तो वे मन ही मन उनसे नफरत करने लग पड़ते। लेकिन वे उन्हें अपने क्षेत्र से भगा नहीं सकते और फिर मज़बूरी की चादर ओढ़ कर अपने घरों के बरामदों में चुपचाप जेठ की ठंडी हवा के साथ सोए रहते। कुछ अपनी मर्दानगी का प्रदर्शन तो चुपचाप बंद कमरे में कर आते पर उनकी शंकाएं उनका पीछा नहीं छोड़ती। वे अपनी पत्नियों के उन गैर मर्दो के साथ चर्चा से बचते , लेकिन कुछ इस चर्चा में जरूर फंसते जो सिर्फ उन्हें हताश व उनकी मूर्खता का प्रदर्शन ही करवातीं।

उधर तंबूओं में चर्चा चल रही है धयानू बोला,‘‘मैं कहता हूं हीरू इस बार तो उन कत्थे को भट्टियों को उजड़ना ही होगा जो हम देख कर आए हैं। खैर भी जो भट्ठी वालों ने खैर के कई मोछे रख छोड़े हैं काफी हैं, जो पानी के रास्ते आ सकते हैं। जंगलात वालों ने कई शहतीर भी नदी के किनारे रख छोड़े हैं, कुछ छप्पर भी उड़ जाएंगे। मैं कल तड़के उपर कोई पांच कोह तक गया था वहां फकीरू राम का घराट भी इस बार बह जाएगा, मुझे पक्का यकीन है, नदी की धारा घराट के करीब आ चुकी है। नदी का कभी कोई भरोसा नहीं और बाढ़ तो महाराश्रसी होती है। सभी हंस दिए। ‘‘बस इस बार मेघ खूब बरसे, सभी यही प्रार्थना करो, बाकी ख्वाजा पीर पर भरोसा रखो, वो हमें खाली हाथ घर वापिस नहीं भेजेंगे। दूसरा इलाके में हम चर्चा में आते हैं सब हमारे गुण गाते हैं। दूर - दूर से बाढ़ के समय हमारे कारनामे देखने आते हैं। अब जिसका घर बाढ़ में बह जाए वो तो हम जैसों को गालियां देता होगा। सौ - सौ मण की, पर आखिर किसी का सामान बहेगा तो ही हमारा काम चलेगा न।

उधर गांव में कुछ मन ही मन उनकी शिकायत गांव के पंच से करने की आधार विहिन योजनाएं बनाते लेकिन गांव का पंच उन्हें किस आधार पर नदी से भगाएगा , इस बात पर उन्हें कोई तर्क नहीं सूझता। नदी सरकार की है वे अपनी हिम्मत से उस जोखिम पूर्ण काम को अंदाज देते हैं इसमें पंच कुछ नहीं कर सकता, इस बात पर उनके मन में उठे अर्थविहिन विचार नदी की अथाह गहराई में डूब जाते। कुछ अपने मन में उन बहादुर लुटेरों की तरह नदी की बाढ़ में से कीमती सामान निकाल लाने के स्वप्न सजाते। लेकिन नदी की लहरों का वेग और बाढ़ का प्रचण्ड रूप जब हकीकत के आइने में धुंधला सा भी उनको नज़र आता तो उनकी आंखें फिर से बंद हो जाती और खेतों और खेतों , अपने कमजोर बच्चों, अपनी थकी हारी रोज के काम निपटाती व सिर पर गोबर उठाए खेतों की ओर दौड़ती पत्नियों व घर में बुज़ुर्गों के खांसने की आवाज़ों के साथ ही निम्न स्तर के सपने लेने लग पड़ते। कुछ इन सब के बीच कुछ हठ से पूर्ण रोमांचक सपने लेने से भी बाज नहीं आते।

गांव के पंच पुन्नू राम के जग में सब इक्ट्ठे हुए तो गांव के संगतू ने बात छेड़ दी, ‘‘पंच साहब! उन तबुओं वालों का कुछ करो, वो हर साल आ जाते हैं, सब कुछ लूट ले जाते हैं। कौन रोकेगा उन्हें गांव की मां बहनें हैं गैर प्रदेशियों को क्या भरोसा।’’ पंच बोले, ‘‘भई वश्रों से आ रहे हैं हमारे बुजुर्गों के समय से आते हैं, धान लगाने में हमारी मदद भी करते हैं। कभी किसी मां बहन पर नज़र नहीं डालते। मैं अब उन्हें क्या बोल सकता हूं। अब वो नदी के किनारे ही रहते हैं गांव में घुसते भी नहीं, हमसे ज्यादा मेल भाव नहीं करते बरसात के बाद चले जाते हैं।’’ संगतू फिर बोला, ‘‘अगर कहीं कुछ गलत हुआ तो फिर जवाब आपको ही देना होगा मुझे तो उन लोगों की नीयत में खोट दिखता है।’’ इस बात पर मंगतू भी बोल पड़ा, ‘‘अरे किसी का छप्पर बहे, खैर बहे कत्थे वाले ठेकेदारों की भट्ठियों उजड़े, तो वे खुश होते हैं लूट मचाते हैं।’’ अब सातूं राम बोला, ‘‘अरे इसमें उनका क्या कसूर है नदी में जो बह गया वो नदी का हो गया, अगर कोई लूट सके तो लूट लो, गांव के लड़के भी तो बाढ़ में उतरते हैं कभी कभार, याद नहीं है सबको बलैतू का लड़का बह गया था कोई पांच वर्ष पहले बाढ़ में से जंगलात के शहतीरों के लट्ठे पकड़ते वक्त। जिस साल बड़ी भयंकर बाढ़ आई थी और हम सब भी तो बाढ़ में से कई कुछ पकड़ कर लाए थे। अरे भई हिम्मत का काम है। रही बात उनकी हरकतों की तो हमें तो उनकी कोई बात बुरी नहीं लगती। हिम्मती मर्द है, कभी कोई शिकायत भी नहीं आई न कभी किसी औरत व लड़की के साथ बुरी नज़र की बात आई है। चलो फिर भी हमें चौकन्ना रहना होगा। अपनी सरहदों में रहते हैं, नदी के रोड़ों में भटकते फिरते हैं, कभी कभार अनाज के लिए आते हैं गांव में।’’पंच ने आखिरी बात कही, भई हमारे समाज, हमारी परम्पराओं से जुड़ गए हैं, वर्शों का सिलसिला है हमारे बुर्जुगों के समय से आते है, जब तक आ रहे हैं आते रहें। कभी दो चार बह गए तो फिर कभी न आएगा कोई।’’ सबने जोर से ठहाका लगाया।

धान लगने का काम खत्म होते ही जब मानसून की प्रथम छोटी किश्तों से नदी का प्रवाह बढ़ता तो नदी में कूदने, गहरी लहरों को पार करने का वे अभ्यास करते, वो चुपचाप ग्रनेड़, गहरी आल में फेंकते और डुबकियां मार मार कर हर मरी मछली को ढूंढ लाते। जब मछलियां उनकी झोली में भर जाती तो वे उन्हें भी आस - पास के गांवों के लोगों को बेच देते। बची हुई मछलियां शाम को अपने लिए पकाते ।

इसके बाद जब मेघ अपने अंदर पानी को इक्ट्ठा करके उनके आसमान में बरसाने अपनी अंतिम इच्छा का उद्घोष कर देते तो पूरा गांव उन लुटेरे मर्दों के प्रदर्शन को देखने की इच्छा को और अधिक अंकुरित करने के लिए अपने खाली समय की खाद डालना शुरू कर देते। प्रदर्शन का समय जब नजदीक आ रहा होता तो भी वे लुटेरे मजे़ से रात को नदी की मछलियों से कई खेल खेलते । वे इस बात की परवाह नहीं करते कि लोग उनके बारे में किस विचार धारा को अपने घरों के बाहर रखी पालकियों में सजा रहे हैं। वे अल्हड़, हिम्मती मर्द अपने ही नशे में खोए ,गांव वालों से उचित दूरी बना कर रखते ताकि गांव के स्त्री- पुरूष, बच्चे- बूढ़े उनकी कमजोरियों का ज़रा भी भान न पा सके और हमेशा उनके होते हुए या फिर चले जाने के बाद भी उनसे प्रभावित रहे और अपने नीरस व थके हारे जीवन के कुछ पलों की उनके लिए चर्चा में आहूति देते रहें। उनका दबदबा, उनका आभामंडिल व्यक्तित्व गांव की औरतों को सदा प्रभावित करता रहे वे अगर जब भी किसी गैर मर्द के बारे में सोचें तो उन हिम्मती मर्दों में से किसी एक को जरूर चुने।

सावन का अंधा घोड़ा उस नदी के ऊपर फैले आकाश में अपने ऊपर उठाया बादलों में जकड़ा अमोध जल का भार इधर - उधर फेंकने लगा और नदी का शांत स्वभाव तीन दिन की मूसलाधार बारिश के बाद प्रचंड और बर्बर स्वभाव बढ़ने लगा। लुटेरों की बड़ी एवं तीक्ष्ण आंखों में चमक बढ़ गई। उनके तबूं बरसात के मौसम में बेसुध होने लगे पर अब तबुंओं की परवाह किसे थी। अंधे घोड़े ने एक दिन अपना सारा भार फेंक देने की जिद् कर ली और नदी के किसी दूसरे हिस्से के किसी आकाश में बादल फूट उठे। लुटेरों ने ईश्वर की ओर मन में दुबके धन्यवाद भेजे। उम्मीद से बड़ी लहरें बाढ़ रूपी दानव की रंगरलियों में अपना आपा खो बैठीं और अपने साथ कई पेड,शहतीर,खैर के मोछे और नदी के किनारे कई तरह के कीमती सामान को बहाती हुई लाने लगी। गांव के मर्द अपनी बरसातियों और कई तो अपने बोरी से लिपटे सिरों से नदी की प्रचंड लहरों में गोते लगाते लुटेरों को एकटक कौतूहल से देख रहे थे। कुछ बच्चे भी उनके शरीरों से चिपके थे।

सभी पहाड़ी के कच्चे रास्ते पर अपने - अपने हिस्से के दृश्य अपनी इंद्रियों को मुफ्त में बांटने के लिए उतावले थे। ‘‘एक बड़ा शहतीर बहता हुआ आ रहा है।’’ नदी के एक हिस्से के एक मोड़ पर खड़े बाज की दृष्टि से लहरों पर नजरें टिकाए सबसे बड़ी उम्र के ध्यानू ने चिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘मोड़ खाती नदी शहतीर को किनारे से कुछ फासले पर बहाती हुई आगे निकल रही। कुद पड़ो ! समय सही है।’’ चार तैराकों ने नदी की प्रचंड लहरों में छलांग लगा दी। उनमें से कुछ शहतीर से कई फुट दूर नदी में लुप्त होते दिखाई दिए और फिर गांव के लोगों की सांसे रूक गई। ‘‘वे बह गए, उनका काम खत्म हो गया , प्रतापी मर्द अब फिर से यहां नहीं आएंगें।’’ गांव का कोई बूढ़ा चिल्लाया , ‘‘कोई उनकी मदद करो।’’ पलक झपकते ही उनमें से दो प्रतापी शहतीर को अपने अपने मजबूत कंधों में जकडे़ नजर आए और डूबे हुए तैराक फिर अपने काले सिरों के साथ नज़र आए।

गांव के लोग चिल्ला उठे , ‘‘जय हो! जय हो! ऐसे बहादुर मर्दों की।’’ चारों ने शहतीर को जकड़ लिया और उस पर सवार होकर नदी के एक किनारे तक उसे खींच लाए। गांव के कुछ युवा उनकी ओर दौड़ने को हुए तो उन्हें किसी ने रोक दिया। वे बेचारे अपनी कुछ बहादुरी को अपने अंदर दुबकने को मजबूर कर बैठे। मोड़ पर खडे़ बाज की आंखों वाले ध्यानू ने फिर आवाज दी, ‘‘शहतीरों का झुंड आ रहा है तैयार रहो।’’ इस बार पांच -छः लोगों ने लहरों में प्रवेश कर दिया , वे कंधों तक पानी में दौड़ते रहे, जैसे ही शहतीर उनके कुछ फासले से निकला वे उस पर बाज की तरह झपट्टा मारने को डूबकी लगा देते। गांव वालों की सांसें रूक जाती उनका मुंह खुला और आंखें फटी रह जाती। उनके इतनी बरसात में भी होंठ सूख रहे थे। अद्भुत साहस के आभामयी नजारों से उनकी इंद्रियों के सारे रोम खुल रहे थे। कईयों की स्वप्निल इच्छाएं उनके अंदर छिपे भीरूता के बादलों को दूर भगा रही थी। वे भी मन ही मन नदी के लहरों में गोते लगाने के दिव्य स्वप्न खुली आंखों से ले रहे थे। पर हिम्मत किसी से उधार में नहीं मिलती, ये बात शायद उन्हें पता चल चुकी है।

लहरों का प्रचंड वेग उन्हें अपने भीरू ख्यालों को पकने का स्वांग रचने को रोक रहा था। बाढ़ की लहरे निर्बाध गति से आगे बढ़ती जा रही थी और अपने साथ उजड़ी दुनिया के अवशेष उठा कर शान से अपनी प्रचंडता दिखा रही थी। उसे रोकने वाले नहीं बल्कि चाहिए , उसके साथ बहने वाले चाहिए। टकराने वाले नहीं बल्कि उसकी कल्पना से भौतिक ख्याल चुराने वाले चाहिए। बहुत सी चीजे़ं दूर वेग में बहती जा रही थी जिन्हें लुटेरे अपनी बुद्धि व चातुर्य कला से छोड़ देना नहीं चाह रहे थे। एक नया वेग लहरों ने अपनाया ,पानी की गंध में कीमती सामान की गंध को सबसे माहिर लुटेरे ने महसूस कर लिया। वह फिर चिल्लाया,‘‘ अपनी बाजुओं में फिर से जोश भर लो, कत्थे की किसी भट्टी की अंतिम यात्रा में शामिल होना है। तैयार रहो।’’ खैरों के मोछे भी आ रहे हैं बहते हुए कोई सप्ताह बाद फिर पूरा दिन व पूरी रात मूसलाधार बारिश ने रिकार्ड तोड़ दिया। इस बार बेचारे कई लोगों के नदी के किनारे के छप्पर बाढ़ में बह आए थे। एक तरफ मुसीबतों का पहाड़ गिरा था और दूसरी तरफ लूट का बाज़ार सजा था। जो एक बार बाढ़ में बह गया, भला उसको कौन रोक पाता। कई छप्पर 50 कोह पर उजड़, तो कई 30 कोह पर।

एक के बाद एक कत्थे की भट्टी से उजड़े कत्था बनाने वाले खांचे नदी में तैरते नजर आए। लुटेरों ने फिर से अपने अनुभव व जुनून को नदी के प्रचंड वेग के अहसान पर छोड़ दिया। काले बादलों ने इस दृश्य को देखकर अपना मुंह खोल दिया और छम - छम बारिश बरसने लगी। कभी प्रतापी शरीर लहरों में ओझल होते , तो कभी उनके काले सिर वाले शरीर फिर से नज़र आते तो देखने वाले दर्शकों की जान में जान आती। वे छम - छम बारिश में भी वे इन दृश्य को देखने का मौका खोना नहीं चाहते। नदी की खर - पतवार के गुच्छे ,बड़े पेड़ों की जड़ों के अवशेष नदी के प्रवाह में ऐसे नाचते जैसे वे अपनी ही जिंदगी की अंतिम यात्रा में शामिल होकर जश्न मनाते हुए किसी स्वर्ग के सागर की ओर भागे जा रहे हों। लेकिन कहीं न कहीं शायद उनकी किस्मत को रोकने वाले लुटेरे जरूर उन पर स्वार्थी निगाहें टिका कर नदी के अगले किसी मोड़ पर बैठे होंगे।

शाम को लुटेरों ने अपने - अपने हिस्से का बंटवारा कर डाला , सुबह लूट के सामान को कम दाम में उड़ाने वाले खरीददारों ने सब साफ कर दिया। नदी की लहरें अब कुछ शांति का पाठ जपने की तैयारी कर रही थीं। सबसे बड़े व दल के मुखिया ने सबसे कम उम्र के लुटेरे के हाथ कुछ कम माल थमाया और उसे आज ही दल छोड़ने को कहा। सबसे उम्रदराज लुटेरे ने उसके हिस्से में भी कुछ कटौती कर दी। छोटे लुटेरे के मन ने इस बंटवारे को नामंजूर कर दिया। लुटेरों में फूट की झाड़ियां अकुंरित हो गई जबकि नदी के किनारे के सारी खर - पतवार नदी की बाढ़ के पहले वेग में ही किसी दूरस्थ इलाके में अपने लिए छांव तलाशने निकल गई थी। सब लुटेरों के काले सिरों के अंदर छिपे चतुर मस्तिष्कों में अलग - अलग विचार कौंध रहे थे। पर वे दल के मुखिया से सहमत होने के लिए विवश थे। सबसे कम उम्र के जाबांज तैराक ने अपना तंबू उखाड़ लिया। वह जाते-जाते बोला ,‘‘अब मैं कभी हिस्सा न मागूंगा , चाहे तो अकेले ही नदी में कूदना पड़े।’’ उम्रदराज जाबांज ने उसकी जिद् को पिघलाना चाहा , उसे अधिक मेहनताना भी देना चाहा पर वह सिर्फ एक नियम के कारण नहीं माना।

उम्रदराज जांबाज ध्यानू ने अपने दल की ऐकता की दुहाई दी और अपने नियमों के जंजाल को भी समझाना चाहा। आखिर एक नियम ही उनके इस बिखराव का कारण था। नियम सबसे छोटे जांबाज हीरू ने तोड़ा था। जवानी के नशे में उसने गांव की एक युवती से गठजोड़ रात के अंधेरों में जोड़ा था और ये बात उम्रदराज जांबाज से नहीं छिपी थी। उसने कुछ दिन पहले अकेले में चेतावनी भी दी थी , इस बार सब के सामने ध्यानू ने फिर वही बात दोहराई‘‘हमारा दल गांव की मेहरबानी पर टिका है और हम भविष्य के लिए अपने हिस्से की नदी का क्षेत्र अपने हौसले से इन गांव वालों से उधार में मांगते आए हैं। हमें गांव की हर औरत को आदर भाव से देखना है हमें गांव के विश्वास को विश्वासघात में नहीं बदलना है हम सिर्फ यहां अपनी साहसपूर्ण अद्भुत कला से उन्हें अचंभित करते आए हैं और भविष्य में उनकी बस्तियों में अपनी छवि को आकाश तक ऊंचा बनाना चाहते हैं वे हमें हमेशा पूजनीय समझे , हमारी जांबाजी की तारीफ करे ना कि वे हमें विश्वासघाती समझें। तुम्हें यह प्रेम प्रपंच छोड़ना होगा, वर्ना तुम्हें दल छोड़कर अभी यहां से जाना होगा। हम यहां सिर्फ नदी का बहता सामान लूटने आते हैं दिलों में बहते प्रेम की लूट करने के लिए नहीं। हमें नदी के पत्थरों की तरह कठोर बनना होगा। हमारे दल का एक ही नियम साफ है कि गांव के किसी इंसान से न कोई रिश्ता होगा , चाहे वे तुम्हारी बहादुरी के आगे नतमस्तक होकर तुमसे प्रभावित होकर तुम्हारे लिए अपने दिलों में प्रेम वफा के सपने सजाए।’’ पूरा दल एक दूसरे को ओर अचंभित व आतंकित देख रहा था।

राह से भटके दिल के अंदर उठती लहरों में डूबे प्रतापी लुटेरे ने अपना तर्क दिया , ‘‘मैं उससे वादा कर चुका हूं , वे मेरे अदभुत अचंभित हैरत अंग्रेज कारनामों की बातें सुनकर व प्रभावित होकर मेरी ओर खिंची आई है , हम दोनों ने साथ रहने की कसमें खा ली हैं मैं बड़ी - बड़ी उफनती प्रचंड लहरों से आज तक नहीं हारा ,अब एक युवती की नजरों के सामने खुद को मृत नहीं घोषित कर सकता। उसका अस्तित्व अवर्णनीय रूप से मेरे शरीर के अंदर अथाह गहराई में डूब चुका है और मैं उसकी रमणीय व कोमल शरीर का गुलाम बन चुका हूं। प्यार का उपजाऊपन मैं अपने पत्थर जैसे सख्त शरीर में महसूस करने लगा हूं ।मैं यू ही उसे छोड़ कर नहीं भाग सकता। मुझे वह अंधेरे की काली उलझनों में मेरी पीछे भागती दिखाई देती है। उसने मुझ जैसे अनुरक्त युवा में विरक्ति पैदा कर दी है। वह मेरे प्रति अपनी प्रशंसनीय भक्ति के कारण मेरे दिल की डोर से बंधना चाहती है।’’

‘‘नहीं ! नहीं ! हम किसी भी शर्त पर गांव के लोगों के आगे अपनी छवि को बिगाड़ नहीं सकते। तुम अपनी उत्कंठा और युवती की गुप्त प्रेम मयी आराधना को छोड़ो,’’ दल के मुखिया ने अपने अंदर अपने बनाए नियम को जकड़ कर पकड़ते कहा , ‘‘अगर यह बंधन फलता फूलता है तो भविष्य के लिए हमारा अस्तित्व मिट जाएगा , पूरा गांव जो हमारी गुप्त आराधना में मग्न रहता है, वह हमें महत्वाकांक्षी, स्वार्थी व चरित्रहीन समझेगा , हम वर्षों से अपनी छवि को बचाते आए हैं सिर्फ तुम्हारे खातिर हम अपने दल की छवि पर आंच नहीं आने दे सकते।’’ लुटेरों के मुखिया ने आखिरी फरमान सुना दिया। सबसे कम उम्र के जांबाज ने अपना तंबू का सामान पीठ पर लादा और नदी के बहाव की उल्टी दिशा की ओर निकल गया।

ऊपर काले बादलों ने फिर से दस्तक देना शुरू कर दी थी। पूरा दल पानी की बहशी बूंदों के साथ दुख और अशांति से भर गया। सभी मन ही मन पूछता उठे कि आखिर उन्होंने अपना एक नया व सबसे कम उम्र का जांबाज साथी बीच मंझदार में खो दिया है। उन में कुछ ने जब अपनी चेतना में कई तरह दृश्य उभरते देखे तो वे अपने आप को रोक नहीं पाए। आखिर उसके गुनाह की इतनी बड़ी सजा क्यों मिल रही है, क्या उसे पत्थर जैसी जिंदगी में फूल खिलाने का हम नहीं है? क्या लुटेरों के भी कोई नियम होते हैं? पर यह विचार उनके मन की तहों में ही उभरते रहे, उन्हें दल के मुखिया के कानों तक पहुंचाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। बरसात में भीगता छोटा पुरुषार्थी योद्धा अपने प्यार की उत्कंठा में दल से निकाल दिया गया था। अपने प्यार को पाने की मूक लालसा के अकस्मात ढेर बन जाने से उसकी आंखों की रोशनी धुंधली और गीली हो रही थी। ऊपर काले आकाश ने फिर एक बार घमण्डी रोशनी को बिजली के रूप में परिवर्तित कर नदी के ऊपर फेंका। इस तेज आवाज से उसका मन दो फाड़ हो गया। एक हिस्से ने कहा- ‘‘रात के अंधेरों में घिरा गांव बरसात के थपेड़ों से अधमरा सा हो गया है , नवयुवती को अपने संग उड़ाकर वह नदी की उफनती लहरों से पार ले जाएगा।’’ दो फाड़ हुए दूसरे मन ने कहा , ‘‘लुटेरों का स्वाभिमान उसकी इस हरकत के बाद सदा के लिए प्रचंड नदी के वेग में बह जाएगा और उसे कई लुटेरों का दल कभी नहीं पकड़ पाएगा।’’ विचित्र कल्पनाओं का जैसा पूरा ब्रह्मांड उसके मस्तिष्क में संतुलन बनाने का नया प्रयोग कर रहा था। अशांत आंखें चहुं दिशाओं को छोड़कार एक रास्ते की तलाश में लगी थी। मन सिसक - सिसक कर रो रहा था।

वह नदी के किनारे -किनारे असंख्य झाड़ झगाड़ों को लांघता बहुत दूर निकला जा रहा था। पर उसका अतीत साया बनके उसके पीछे- पीछे दौड़ रहा था। उसके शरीर से सारा प्रताप बारिश की बूंदों में घुलकर निचुड़ चुका था , वह असंख्य ख्यालों के घेरे में फंस चुका था। उसका अस्तित्व नदी की लहरों में बहता जा रहा था ।

उसने ख्वाजा पीर से मन ही मन प्रार्थना की - ‘‘हे पीर , दिव्य देवलोक के वासी , तुम्हारा दिव्य घोड़ों का रथ इन्हीं प्रचंड लहरों पर सवार होकर निकलता है , तुम्हारी दिव्यता के गुण अभी भी इन वेगवान लहरों में समाया है , मेरे लिए कोई रास्ता दिखाओ, मैं तुम्हारी नेमतों से अपने अस्तित्व की नींव रखकर आगे बढ़ा हूं , मुझे अपनी प्रकाशमयी किरणों से मेरे मन में खुंबों की तरह उगती गहरी कंघराओं के सयाह अंधेरों को मेरे मन से भगाओ , मैं धैर्य का पुजारी रहा हूं पर मैं आज भीरूता के स्पप्नों में घिरा हूं , मुझ पर अपनी दया बख्शो। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुमने भी अपनी कृपा के हाथ मेरे सिर पर से उठा लिए हैं मुझ पर कृपा करो। मैं जिंदगी की एक विशाल विपत्ति में घिरा हूं। मेरा मन मुझे लहरों में आंखें मूंद कर समा जाने को कह रहा है। मेरा सब कुछ खो चुका है गोपनीय दुःख मेरे मन में कलुषित नृत्य कर रहे हैं। मैं विश्वासघात के दंश को महसूस कर रहा हूं। मैंने अपने दल और उस नवयुवती के ख्वाबों से भी विश्वासघात किया है। मैं भयावह व प्रचंड लहरों से लड़ सकता हूं पर अपने मन में संवेदना मयी छोटी लहरों के आगे भीरूता भरे इन्सान के समान खड़ा महसूस कर रहा हूं।’’

ख्वाजा पीर की नेपतों की झोली अभी खाली नहीं हुई थी। नदी का प्रवाह बढ़ता जा रहा था। मटमैले पानी के बीच लहरों से एक रोशनी उभरी ,कोई बड़ा सा संदूक नदी के खरपतवारों में जकड़ा लहरों के बीच बहता हुआ आया। चूर -चूर हृदय वाले लंबे चौड़े सबसे छोटे लुटेरे की आंखों में रोशनी की एक बेतरतीब पुंज प्रकट हुआ। रात में नहाती नदी के बीच और इस छोटे लुटेरे के मन के बीच एक गुप्त मंत्रणा हुई। आदमी जिस कार्य में पारंगत हो उसे न करने के लिए कभी नहीं कहता।

छोटे लुटेरे ने जैसे अपने मन के दुखों के बड़े झोले को वहीं फेंका जैसे नदी में उसकी प्रेमिका उसे पुकार रही हो। उसने प्रचंड लहरों में छलांग लगा दी । अंधेरे ने उसके साथ धोखा कर दिया वह जितना हाथ पैर मारे, वही संदूक उतना ही आगे बढ़ता जाए। अकेला लुटेरा कभी लुप्त हो जाए तो कभी नदी उसे उछाल कर बाहर फेंक दे। उसे सर्वाधिक इस मुश्किल क्षणों के वेग में भी अपने लक्ष्य उस बेजान संदूक को नहीं छोड़ा। जिंदगी भर चुनौतियों से खेलने वाला लुटेरा रात के भंवर में नदी के भंवर को नहीं जान पाया और न ही उसे कोई दिशा निर्देश देना वाला था। संदूक और उसका लुटेरा बीच भंवर घूमते जा रहे थे। वह भंवर वैसा ही था जिससे यह लुटेरा निकलना चाहता था। यह प्रेम और अपने दल को धोखा देने के घटनाक्रम से पैदा हुआ भंवर था। लेकिन प्रेम के भंवर ने उसे बच निकलने का एक मौका दिया था। यहां अंधेरा और गुस्सैल नदी दोनों ने मिलकर प्रपंच रच डाला था। वह भवंर के चक्रव्यूह में कुछ पल छटपटाता रहा , वह तब तक छटपटाता रहा ,जब तक वह अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं कर पाया था। बुरा यह था कि उसके सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का कोई दर्शक नहीं था। उसकी आंखों में धुंधली होती जा रही थी। परपरागंत परिभाषाओं को चुनौती देने वाला स्वयं को सम्बोधित तत्परता का परिचायक ,असाधारण चुनौतियों का संरक्षक एक अविमुक्त युवक नदी की अनभिज्ञता के जाल में फंस गया। प्रचंड नदी का पूरा क्षितिज उसे अपनी सीमाओं में रहने का ज्ञान बांटकर उसकी जिंदगी की कुछ सांसों को रोककर उसके लिए उसकी वीरता को नेपथ्य में ले जा रहा था। सारी पारंगतता पानी में डूब रही थी , पर हिम्मत वहीं की वहीं जिंदा थी। वह डूबना नहीं चाहती थी। फिर हिम्मती मन ने एक शिशु की तरह जिद् छोड़ दी और आखिरी सांस ने इस लुटेरे का अलविदा कहकर अंधेरे में पसरा कोई एक रास्ता अपनाकर अपना मुंह मोड़ लिया। उत्कंठा और वीरता का पुजारी इस जहान के उर्जामयी कणों द्वारा अवशोषित हो चुका था।

दूसरी ओर का उदास दल अभी भी अपने दल के जांबाज साथी की राह देख रहा था। दल का कोई सदस्य सुबह तड़के नदी के घटते प्रवाह को नापने निकला। नदी ने जैसे उसे आवाज दी , ‘‘ये लो अपने साथी को , संभालो इसे मैं इसे फिर से वापिस ले आई हूं मैंने इसकी जिद् को चकनाचूर कर दिया हैं ये अब कभी तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा मैंने इसके शरीर में पश्चाताप का रस घोल दिया है , यह कभी भी तुमसे विश्वासघात नहीं करेगा और न ही तुम्हारी परंपरागत परिभाषाओं को अपनी तीव्र ध्वनियों से चुनौती देगा। मैंने इसकी वीरता के श्रेष्ठ प्रदर्शन को देख लिया है। अब यह मेरी उर्जा के संग जीएगा और इस ब्रहमाण्ड की अथाह लहरों में अपनी वीरता का प्रदर्शन करेगा।’’ वह साथी चिल्लाया ,‘‘नदी मैं इंसानी लाश तैर रही है ,आओ ,दौडे़ आओ, ख्वाजा रहम करे ,ये लाश हमारे छोटे साथी की लग रही है।’’ पूरा दल भागा ,कुछ ही पलों में जांबाज लुटेरा नदी के किनारे बारीक पत्थरों के बिछौने पर आराम कर रहा था। पूरे दल की आंखों में आंसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सिर्फ एक ही सदस्य ऐसा था जिसकी आंखों में एक शुष्क रेगिस्तान फैल रहा था , वह दल का मुखिया था। उसकी आंखों में एक अजीब ही तरह की चमक थी , वह चमक उसकी किसी गुप्त जीत की ओर इशारा कर रही थी यह शायद उसके दल की प्रतिष्ठा इस भयावह हादसे के बाद और अधिक बढ़ने की जीत की चमक थी।

एक और जहां पूरा दल इस असमय हादसे से गहरे शोक में इसकी तह तक जाने को प्रत्यनशील था, वहीं दूसरी ओर दल का मुखिया मन ही मन इस घटना को अपनी दल की परंपरा की जीत में बदलने के लिए प्रबंधन में जुटा था। उसके मन ने यह युक्ति बनाई- दल का एक सबसे छोटा व जांबाज सदस्य रात के अंधेरे में किसी अन्जान चीज़ को कोई इन्सानी लाश समझ कर नदी में अकेला ही परिस्थिति अनुरूप कूदा और वह भंवर में फंस कर बड़ी बहादुरी निभाते हुए ,दल की प्रतिष्ठा बचाते हुए अपनी जिंदगी को अर्पित कर बैठा। दल का स्वाभिमान और जांबाज सदा उसकी अहसान मंद रहेगी। हम अगले वर्ष फिर आएंगे यही नदी की इच्छा है और यही ख्वाजा पीर की मर्जी। संताप दिवंगत जांबाज आत्मा को भव सागर में मिलने के बीच की मुख्य बाधा है।

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संदीप शर्मा

जीवन परिचय

नाम : संदीप शर्मा

शिक्षा : मास्टर इन बिजनिस मैनेजमैंट,पी. एच. डी. (रिसर्च स्कालर)

व्यवसायः शिक्षक, विज्ञान,डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, हमीरपुर (हि.प्र.) में कार्यरत।

प्रकाशन : कहानी संग्रह ‘अपने हिस्से का आसमान’ प्रकाशित।

निवासः हाउस न. 618, वार्ड न. 1, कृष्णा नगर, हमीरपुर।हिमाचल प्रदेश 177001

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रचनाकार: कहानी - नदी के लुटेरे - संदीप शर्मा
कहानी - नदी के लुटेरे - संदीप शर्मा
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