तेजपाल सिंह ‘तेज’ की दस ग़ज़लें -एक- पाँवों में नए दौर की रफ्तार ले चलो, कर मुट्ठियों में बन्द कुछ बयार ले चलो। सूखा हुआ दरिया है खाली आ...
तेजपाल सिंह ‘तेज’ की दस ग़ज़लें
-एक-
पाँवों में नए दौर की रफ्तार ले चलो,
कर मुट्ठियों में बन्द कुछ बयार ले चलो।
सूखा हुआ दरिया है खाली आसमां,
साथ में फिर भी कोई पतवार ले चलो।
स्वर दे सके तो वर्फ पे बिखरी स्याही को,
साथ में ऐसा कोई फनकार ले चलो।
छाँव में चलकर कहीं बैंठेंगे दो घड़ी,
साथ में कोई अनपढ़ा अखबार ले चलो।
रेत की दीवार पर लिखनी है रागिनी।
’तेज’ सा कोई साथ कलमकार ले चलो।
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-दो-
मैं रात को आँखों में भर पाया नहीं,
आना था उसका ख़त मगर आया नहीं।
सच कहूँ, जिसको खुदा समझा था मैं,
वो है कि वो कभी लौटकर आया नहीं।
नए दौर के चढ़ते हुए बाजार में,
सब कुछ है पर इंसाँ नज़र आया नहीं।
जिसके लिए थे उम्रभर संसद चली,
वो शख़्स ही कल काम पर आया नहीं।
सिलवटें बिस्तर पे कैसे पड़ गईं,
ख़्वाब भी कोई राजभर आया नहीं
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-तीन-
जीने की कोई बात हो, तो जीने का मन बने,
चौख़ट मेरी आबाद हो, तो जीने का मन बने।
साँझ हो ढलती हुई, और हों रौशन चिराग़।
ऐसे में तेरा साथ हो, तो जीने का मन बने।
धूप के साए में जब अपना कोई बातें करे,
ऐसे में जो बरसात हो,तो जीने का मन बने।
जब चाँद होके निर्वसन छत पे मेरी उतरे,
बिस्तर में सोई रात हो, तो जीने का मन बने।
है गर्ज कि हर ओर हो रस्मे-वफा का दौर,
दस्तूरे-इश्क आम हो, तो जीने का मन बने।।
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-चार-
पक्की ईंटों वाले घर की हालत ख़ासी ख़स्ता है,
आँगन-आँगन उठी दीवारें आँगन-आँगन रस्ता है।
दुनियावी गूंगे-बहरों की आँख तलक भी बन्द हुईं,
बुद्दि पर तहजीब के परदे सिर पर भारी बस्ता है।
अपन-चैन छीना धरती का हैफ़ सियासतदानों ने,
नेता और अफसर के दरम्याँ आम आदमी पिसता है।
महँगाई से लड़ते- लड़ते चूल्हा-चक्की हार गए,
गाँवों की छाती पर चढ़कर शहर हमारा हँसता है।
अनपढ़ धनिया की पाजेबें आज भी हँसती-रोती हैं,
मिट्टी वाले घर में अब भी कुछ तो बाकी रिश्ता है।
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-पांच-
पल-पल को बदला होगा,
बर्फ सा कोई पिघला होगा।
चढ़ी उमर में देख खिलौना,
शब-भर कोई मचला होगा।
तारों की बारात सजाकर,
चाँद सा कोई निकला होगा।
पत्थर खाकर भी हँसता है,
बेशक कोई पगला होगा।
‘तेज’ हवा से पाकर खुशबू,
गज़ भर कोई उछला होगा।
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-छ:-
सबके हाथों कें दरपन है,
ये भी कैसा पागलपन है।
तिनका-तिनका छान के ऊपर,
सोता-जगता मुक्त गगन है।
पानी-पानी को गहता है,
रेता-रेता छितरापन है।
नदिया-नदिया जीवनदायक,
सागर-सागर खारापन है।
व्यवसायी है ‘तेज’ ज़माना,
टुकड़ा-टुकड़ा अपनापन है।
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-सात-
जख्म बढ़ते रहे काफ़िलों की तरह,
खनखनाते रहे पायलों की तरह।
सब धरती-गगन से जारी रहे,
आँख मिल न सकी साहिलों की तरह।
लाज धनिया की महफिल में लुटती रही,
लोग बैठे रहे, गाफ़िलों की तरह।
ग़रीबी सड़्क पे खड़ी रह गयी,
लोग लोग छँटते रहे बादलों की तरह।
वक्त मरने का जब ‘तेज’ आया मिरा।
मौत मिल न सकी दाखिलों की तरह।
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-आठ-
आह अपनी जो सदा हो निकली,
सारी दुनिया ही ख़फ़ा हो निकली।
उनके मिलने से भरी महफ़िल में,
बात मुट्टःई की हवा हो निकली।
ऐसे बदला है जमाने का चलन,
खुलके मिलना भी ख़ता हो निकली।
चढ़के सीने से गुज़रना उनका,
उनके जीने की अदा हो निकली।
रफ़ता-रफ़्ता ही सही जिन्दगी अपनी,
उनके खाते में जमा हो निकली।
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-नौ-
दर्द उट्टे तो छिपाकर रखना,
गीत होठों पे सजाकर रखना।
ताकि सजधाज के जनाजा निकले,
यार दो चार बनकर रखना।
शायद ख़्वाबों में नींद आ जाए,
ख़्वाब दो-चार बचाकर रखना।
न जाने कब शब्द माँग ले कोई,
शब्द दो-चार बचाकर रखना।
‘तेज’ दुनिया है अखाड़ा जैसे,
दाँव दो-चार बचाकर रखना।
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-दस-
कुछ तो इस दुनिया से सीख,
लूट-मार और दंगे सीख।
क़दम-क़दम पर धीखा देना,
और सियासी नारे सीख।
चिकनी-चुपड़ी बात बनाना,
करना थोथे वादे सीख।
चोर उचक्की राजनीति से,
कुर्सी के हथकंडे सीख।
अ, आ, इ को छोड़ बावले,
अंग्रेजी के नुक्ते सीख।
( ‘ट्रैफिक जाम है’ (ग़ज़ल संग्रह) से प्रस्तुत)
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तेजपाल सिंह ‘तेज’ के कुछ दोहे
अन्दर-अन्दर द्वेष है, बाहर-बाहर नेह,
बिन बादल तुम ही कहो कैसे बरसे मेह।
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धीरे—धीरे धुल गई, चेहरे पसरी धूल,
आंखन में चुभने लगे शूल सरीखे फूल।
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पाकर बैरंग पत्र मै इतना हुआ निहाल,
प्रियतम से ज्यूँ मिला वर्षों बाद रुमाल।
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संसद निश-दिन गूंथती नए नए कानून,
धनिया भूखी मर गई मांगत-मांगत चून।
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जाना था जिनको गए ओढ़ तिरंगा यार,
बीवी भुट्टे भूनती नित संसद के द्वार।
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घर की कुन्दी खोलकर सो गए लम्बी तान,
गाली देकर चोर को शेखी रहे बखान।
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जीवन एक पहेली है इतना लीजे जान,
इतना भी कुछ कम नहीं बनी रहे पहचान।
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सत्ता के चौपाल पर लगी हुई टकसाल,
लोग निरर्थक भीड़ में बजा रहे खड़ताल।
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गली-गली नेता घने, गली-गली हड़ताल,
संसद जैसे बन गई, तुगलक की घुड़साल।
जनता बौनी हो गई नेता हुए खजूर,
भूखे पेटों चाकरी कब तक करें मजूर।
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पढ़ने लिखने का मुझे इतना मिला इनाम,
चोर-निक्कमें लोगन कू मारत फिरूँ सलाम।
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चोरों से है मोर मरावे राजनीति हर तौर,
राजनीति बौनी हुई चोर हुए सिरमौर।
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कौले-कौले बाज हैं, आँगन-आँगन लाल,
कोयलिया ओझल हुई, बिगड़ गया सुरताल।
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सरसों फूली खेत में घर में चूल्हा रोय,
संसद हुई बिचौलिया बैठ किसनवा रोय।
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चल धनिया कहीं और चल यहाँ नहीं अब खैर,
नेता जज और बानिया करत यहाँ अब सैर।
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लील गई चढ़ती नदी पका-पकाया धान,
भूख-प्यास की मार से टेढ़ा भया किसान।
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धनिया को नहीं भात है अब पीपल की छाँव,
सिर पे तीर कमान है पाजेब धरी हैं पाँव।
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धीरे-धीरे बिक गया घर का सब सामान,
रोजी-रोटी के लिए गिरवी धरा मकान।
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चोरों की पंचायत है, गीदड़ है प्रधान,
थाम हाथ उल्टी कलम, लिखते चोर विधान।
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तेजपाल सिंह ‘तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- ‘दृष्टिकोण ‘ट्रैफिक जाम है’, ‘गुजरा हूँ जिधर से’, ‘तूफाँ की ज़द में’ व ‘हादसों के दौर में’ (गजल संग्रह), ‘बेताल दृष्टि’, ‘पुश्तैनी पीड़ा’ आदि (कविता संग्रह), ‘रुन-झुन’, ‘खेल-खेल में’, ‘धमा चौकड़ी’ आदि ( बालगीत), ‘कहाँ गई वो दिल्ली वाली’ (शब्द चित्र), पाँच निबन्ध संग्रह और अन्य सम्पादकीय। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ‘ग्रीन सत्ता’ के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका ‘अपेक्षा’ के उपसंपादक, ‘आजीवक विजन’ के प्रधान संपादक तथा ‘अधिकार दर्पण’ नामक त्रैमासिक के संपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। सामाजिक/नागरिक सम्मान सम्मानों के साथ-साथ आप हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं। आजकल आप स्वतंत्र लेखन में रत हैं।
सम्पर्क :
E-mail — tejpaltej@gmail.com
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