(ऊपर का चित्र - डॉ. सुरेन्द्र वर्मा की कलाकृति) -- तालिब हुसैन रहबर 1. रात को थक हार कर जब जाता हूँ घर की ओर तो मिलते हैं आसमान की चाद...
(ऊपर का चित्र - डॉ. सुरेन्द्र वर्मा की कलाकृति)
--
तालिब हुसैन रहबर
1.
रात को थक हार कर
जब जाता हूँ घर की ओर
तो मिलते हैं
आसमान की चादर ओढ़े
जमीन की गोद में
लेटे हुए
कुछ कहे अनकहे किस्से
जिनकी फटी एड़ियाँ
और
पनियाई आंखें करती है बयां
उनकी आपबीती
नहीं उनका अनुभव
वहीं थोड़ी दूर
मेट्रो की सीढ़ियों के नीचे
बैठा है
नौ दस साल का "भविष्य"
ओढ़े किसी परोपकारी की उतरन
दो पल ठहर कर
सोचता हूँ
क्या नहीं आती इन्हें
पास की दीवार से पेशाब की बदबू
क्या नहीं खाती रात की सर्दी इन्हें
क्या नहीं लगता इन्हें डर
फुटपाथ पर सोने का
क्या नहीं खाता सन्नाटा इन्हें अंदर से
बन पाथेय
ये सवाल चले आते हैं मेरे साथ
मेरे अंदर
और देते रहते हैं
दस्तक
करते रहते हैं सवाल
क्या करोगे वह वादे पूरे
जिनसे जलता है तुम्हारा चूल्हा????
2.
सड़क सन्नाटे की गोद में
झूल रही है झूला;
चंद सवारियों को
अपने आँचल में छिपा कर
बस पहुँचा रही है
उन्हें
उनके गंतव्य स्थल तक,
सूरज भी ऊब रहा है
पता नहीं किन गहन विचारों में
डूब रहा है....
पास ही पेड़ पर
नम आँखें भरे
सुस्त लेटे हैं बंदर
सुबह देर से उठकर
बिस्तर पर ही
आराम फरमा
रहे हैं लोग
सवारी की तलाश में
माधव खाली रिक्शे को लेकर
लगा रहा है सड़कों के चक्कर
शायद देना होगा
उसे रिक्शे का किराया
वहीं थोड़ी दूर
एक चालीस-पैंतालीस साल का
पकोड़ी वाला
समेट रहा है बिन बोनी के ही अपना ठेला
न जाने क्या करेगा ?
वह इन पकौड़ियों और बेसन का
न चाय की दुकान पर
लगा है जमावड़ा`
हवाओं के साथ
मंद मंद बहती आ रही है
कहीं से
देशभक्ति गीतों की आवाज़
ओह्ह....!
आज आज़ादी का दिन है
नहीं
आज राष्ट्रीय दिन है
नहीं
आज राष्ट्रीय अवकाश है।
-तालिब हुसैन रहबर
हिंदी विभाग
जामिया मिल्लिया इस्लामिया
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हिंदी अनुवाद- विजय नगरकर
मूल मराठी कविता - पुनीत मातकर | गडचिरोली |
अपूर्ण कविता
स्कूल छूटने की घंटी की आवाज
हवा में गूँज ही रही थी तब
मैं मशीन की गति से
घर पहुंचा था,
पीठ पर लटका बस्ता फेंक
घोड़े जैसा दौड़ कर
पहुँच जाता था खेल के मैदान में
मस्तमौला बैल सा
धूल मिट्टी में नहाकर
इतराता था अपने मर्द होने पर
वो भी आती थी स्कूल से
घर के चार मटकियां पानी से भर
घर आंगन बुहारकर
देवघर में ज्योत जगाकर
वह बनाती थी रोटी
मां जैसी गोल गोल
और राह निहारती देहरी पर
माँ के लौटने तक जंगल से,
वह चित्र निकालती थी
और रंगोली सजाती
घर के आंगन में
मीरा के भजन और
पुस्तक की कविताएँ
गाती थी मीठे स्वर में
बर्तन मांजना, कूड़ा कचरा बीनना
आँगन बुहारना,
और न जाने कितने काम
वह करती रही
मैं हाथ पांव पसारकर
सो जाता था
वह किताबें लेकर बैठती थी
दीपक की रोशनी में देर तक
एक ही कक्षा में थे हम
गुरुजी कान मरोड़कर
या कभी शब्दों की फटकार से
मुझे उपदेश देते
" तेरी बड़ी बहन जैसा बनेगा तो
जीवन सुधर जाएगा तेरा "
मैं दीदी की शिकायत करता था माँ के पास
मैट्रिक का पहाड़
पार किया मैंने फूलती साँस लेकर
उसने अच्छे अंक हासिल किए थे
बापू ने कहा
मैं दोनों का खर्चा नहीं उठा पाऊंगा
आंख का पानी छुपाकर
उसने कहा था
भैया को आगे पढ़ने दीजिए
उसके बाद जन्मे भाई के
रास्ते से चुपचाप हटकर
वह बनाती गई उपले
माँ के साथ खेती का काम करती
काँटे झाड़ी हटाती गई
नारी बनकर अंदर ही अंदर
टूटती गई,
उसके भाग्य का कौर चुराकर
मैं आगे बढ़ता गया
किताबों की राह पर,
मैं बात जान गया
दिल में टीस रह गयी
उसने आंख का पानी
क्यों छुपाया था,
उसको ब्याह कर
बापू आज़ाद हुए
माँ की जिम्मेदारी खत्म हुई
अभी तक मेरा मन
अपराधी है अव्यक्त बोझ तले,
भैयादूज, रक्षा बंधन के दिन
दीदी मायके आती रही
सहर्ष सगर्व
छोटे भाई के वैभव देख कर
हर्ष विभोर होती रही
बुरी नजर उतारती रही
भारी आंखों से आरती उतारती रही
ससुराल लौटते हुए
छोटे भाई को देती रही अशेष आशीष,
उसके जाने के बाद
मेरा मन जलता रहा दीपक समान
जिसकी रोशनी में
वह पढ़ती थी किताबें
और कविताएँ
उसकी कविता
मेरे लिए
रही अपूर्ण।
■■
0000000000000
संजय कर्णवाल
इंसानियत की बात छोड़कर
लोग बातें करे मतलब की ।
लालच को छोड़ दो
ना तौहीन करो मजहब की ।
किसी की परेशानी की समझो
तुम दिल से जरा
छोड़ दो तुम सारी बुराई
यही मर्जी उस रब की
हम इतने भी बेदर्द न हो
जो समझे ना दर्द किसी का
दर्द बाट ले हम दूसरे का
बात सुने सब की
सारे ज़माने में कोई किसी का
क्यों नहीं बन सकता
क्यों हमें लगती है
सारी की सारी बातें गजब की
2.......
एक हो अपना मकसद सदा मदद का।
कदम बढ़ाओ तुम अपना छोड़ के हद का।
जान सके हम अगर तकलीफ किसी की
कोई मिसाल पेश करो,जो पता चले कद का
नेक राह पर चलते रहे हम हो के निडर
मन में रहे अपनी यूं ही हौसला बुलंद का
हम सबकी जिम्मेदारी, हम निभाए तो
समझे और जाने हम दुःख किसी के दर्द का
3..........
सच्चे इंसान बन के हम सच्ची राह दिखलाय।
आय जाय मौसम सदा हम ना बदल पाय।
कोई भी मुश्किल जो आए सामने हमारे
उनके आगे बन चट्टान हम डट जाय
पीछे हटे ना किसी भी सूरत में हम
आगे बढ़े हम और सबको आगे बढ़ाए
हर एक बुराई से खुद को बचा के रखे हम
सीखे सभी से अच्छाई और सबको सिखलाए
4.......
किसी के काम जो आए
वही बेहतर है।
जो सबको जिन सिखलाए
वही बेहतर है।
जब कोई कुछ समझ न पाय
और भटक जाय
दूर करो तुम देकर राहत
जो मन मे डर है
सहयोग मिले तो
हर एक आगे बढ़ जाय
दिलों में मिला जुला ही
तो कोई असर है
गिरने वालों को
तुम सम्भालो साथियों
तुम पर ही तो हम सब की नजर है
--
जनहित और राष्ट्रहित् की नींव मजबूत करने वालों को
तुम चुन कर भेजो
लोक लुभावन और लालच से बचकर मजबूत अपना
एक लोकतंत्र देखो।
बच के रहो ऐसी बातों से
जो समाज और मानवता को बांटें
ऐसे लोगों को तुम चुन भेजो
फैली अराजकता दूर करे
गहरी बनी खाई को पाटे ..
2देश को जन जन का सहयोग मिले तो
देश हमारा उन्नत होगा,
अच्छे लोक तंत्र में ही जीना सबका
मानो तुम जन्नत होगा
हम सब मिलकर ये कसम उठायें
बेहतर चुनकर भेजे अपना प्रतिनिधि
जो हक की आवाज उठाये
हम सब में ही है जनतंत्र की निधि
3...
देश की खातिर थोड़ा वक्त निकालो
अच्छे अपने तुम प्रतिनिधि चुन डालो
बात जो सबके हित की हो
इस पर ही तुम ध्यान करो
मिलकर सब कदम बढ़ाओ
काम ये महान करो
हम सब नागरिक
अपने अधिकार को समझे
अपने मत का प्रयोग करें
अपने जागरूक होने का
सही दिशा में हम
सब उपयोग करे
4
शुरू हुए इस पावन पर्व में
हमें जागरूकता दिखलानी है
लोकतंत्र की परंपरा को
मिलकर आगे बढ़ानी है
कदम रुके न अपने सथियों
ये ही कसम उठानी है
अच्छे हो अपने नेतृत्व कर्ता
ये बात सबको समझनी है
5 अपने अधिकारों को जान ले हम।
अपने कर्तव्यों को पहचान ले हम।
आओ आगे बढें और मतदान करे
अपने अधिकारों का सम्मान करें
खुद आगे बढें औरों को भी बढायें
जनतंत्र का सबको मूलमंत्र समझायें
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फूल कुमारी
झूठा समाज
दर्द नहीं दिखता किसी को ,
नहीं देती चीख सुनाई!
समाज में हर चेहरे के पीछे
एक दरिंदा हैं, झूठ है कि
उसे भी लज्जा आई!!
संभ्रांत कि आई ने कुछ को छिपाया,
न्याय ने भी सच नहीं आंका
सहती फैसला सुनाया !
रो-रो के बुरा हाल है परिवार का
समाज ने शर्म से चेहरा छिपाया |
रूह की तड़प नहीं दिखती उसे
क्यों जिस्म उसे इतना भाया,
क्या इन पर लागू नहीं होती
समाज की पाबंदियां
किस समाज ने इंसान को हैवान बनाया
और फैलाई ये कुरीतियां
ये सोच मैं घबराई
समाज में हर चेहरे के पीछे
एक दरिंदा हैं ,झूठ है कि
उसे भी लज्जा आई||
- फूल कुमारी
( गोड्डा , झारखंड )
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कल्पना गोयल
जज़्बात :: एक अनुभव
उम्र के इस कयास पर
रुके नहीं हैं कदम अभी
माना कि तन से थक गया
कार्यरत हूँ मगर अभी
आँसू नहीं ये आँख में
हकीकतें कह रहा अभी
मिट गई पन्नों से स्याही
लिख रहा हूँ अब भी बही
अनुभव ही देना नाम इसको
झुर्रियां ना गिनना कभी
ये तो बदला दौर है
फुरसत कहाँ होगी अभी
चलता रहूंगा जब तक है दम
जानता हूँ समझता सभी
राह तकते गुजरे हैं पल
लाया नहीं होठों पे कभी
हूँ अकेला कब से न जाने
पूछना ना मुझसे कभी
चलते रहना तय किया तो
हूँ सफर में अब भी वही
साथी छूटे, गई संगिनी
सब यादें हैं उनकी यहीं
यही है अनमोल खजाना
उकेरता मैं भी कभी
अब कौन होगा कल न जाने
सहेजेगा इन्हें कभी
फुरसत नहीं कुछ पूछने की
क्यूँ आस करता मैं अभी
पूछती और निबाहती हैं
साँसें ये बंधन उसी तरह
उखड़ती और बिखर भी जाती
कहता नहीं किसी से कभी
जाते अटक कभी शब्द तो
उठता, पानी पी लेता तभी
मौन हो जब आया जीना
सफर हुआ आसाँ तभी
पीर नहीं ये सच है, सुनो!
आस ना करना कभी
लगन रखना उस ईश की
जीवन सफल होगा तभी
कल्पना गोयल, जयपुर
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मंजू सोनी
मैं तो एक दरख़्त हूँ -----
दरख़्त की तरह खड़ा हूँ मैं,
इतने सालों से सह रहा हूँ, हर तूफान
झेल रहा हूँ लू के थपेड़ों को,
पतझड़ को, खड़ा हूँ अकेला
हमेशा सहने हर हालत |
पर मुझमें भी, तो जीवन है
एहसास मुझे भी होता है, दर्द मुझे भी होता है |
मैं भी चाहता हूँ कोई मुझे भी तो समझे,
मेरी तने से लिपटकर कोई तो हो पास मेरे,
कुछ प्यार की बौछार मुझ पर भी तो करे
जूझ रहा हूँ, लड़ रहा हूँ वक्त से
उसके हर फ़ैसले को कर स्वीकार |
खड़ा हूँ, पर मुझे भी तो चाहिये वो प्यार
एहसास वो अपनापन जिसमें कोई कहे
चिंता मत करो , मैं हूँ ना
कुछ नहीं होने दूँगा तुझे,
हर तूफान से हर मुसीबत से करुंगा
तेरी हिफाजत
पर मैं तो दरख़्त हूँ ना
अकेले ही खड़ा रहना पड़ेगा
तमाम उम्र यूँ ही अकेले सहते हुए सब कुछ------
पर मैं तो एक दरख़्त हूँ, मैं तो एक दरख्त हूँ न -------
रचयिता - मंजू सोनी
लेखिका एवं शिक्षिका - शास. मध्या- शाला
ग्राम / पोस्ट - जुहला, जिला कटनी
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पूजा कोहली
नारी शक्ति है बड़ी अनमोल ,
इसका नहीं चुका सकते हम मोल,
नारी तब भी शक्तिमान थी,
नारी अब भी शक्तिमान है ,
महिषासुर का वध करके ,
दिखा दिया मां दुर्गा ने ,
नारी शक्ति अपार है ,
उसकी माया अपरंपार है ,
नारी से यह जगत बना है ,
नारी का दूध पीकर हर बच्चा वाला है ,
फिर भी होते थे नारी पर अत्याचार,
पैदा होने से पहले घर में मार दिया जाता था,
जब इस पर रोक लगाई गई,
तो बनने लगी मानसिकता का शिकार,
जगत में थी पुरुषार्थ की भावना,
लड़की को कमजोर समझ कर, रोक दिया जाता था
पर फिर भी ना पड़ी नारी शक्ति कमजोर,
अपने आगे बढ़ने पर से हटाई उसने रोक,
अब है जमाना महिलाओं का ,
जहां महिलाएं पुरुष से कम नहीं ,
दिखा दिया है 21वीं सदी की महिलाओं ने,
कि हम भी किसी से कम नहीं ,
बहुत जी ली जिल्लत की जिंदगी ,
बहुत हो गया इसका अपमान,
अब बारी है इसकी ,
सब करे इसका सम्मान|
000000000
अजय अमिताभ सुमन
ना धर्म पर, ना जात पर
ना धर्म पर,
ना जात पर,
करना है मुझसे तो
रोटी की बात कर।
जाति धरम से कभी
भूख नहीं मिटती,
उदर डोलता है मेरा
सब्जी पर भात पर।
रामजी, मोहम्मद जी
ईश्वर होंगे तेरे,
तुझको मिलते हैं जा
तू ही मुलाकात कर।
मिलते हैं राम गर
मोहम्मद तो कहना,
फुर्सत में कभी देखलें
हमारी हालात पर।
अल्लाह जो तेरे होते
ये काबा औ काशी,
मरते गरीब क्यों
रोटी और भात पर?
थक गया हूँ चल चल के
मस्जिद के रास्ते,
पेट मेरा कहता है
अब तू इन्कलाब कर ।
--
लकड़बग्घे
लकड़बग्घे से नहीं अपेक्षित प्रेम प्यार की भीख,
किसी मीन से कब लेते हो तुम अम्बर की सीख?
लाल मिर्च खाये तोता फिर भी जपता हरिनाम,
काँव-काँव हीं बोले कौआ कितना खाले आम।
डंक मारना हीं बिच्छू का होता निज स्वभाव,
विषदंत से हीं विषधर का होता कोई प्रभाव।
कहाँ कभी गीदड़ के सर तुम कभी चढ़ाते हार?
और नहीं तुम कर सकते हो कभी गिद्ध से प्यार?
जयचंदों की मिट्टी में हीं छुपा हुआ है घात,
और काम शकुनियों का करना होता प्रति घात।
फिर अरिदल को तुम क्यों देने चले प्रेम आशीष?
जहाँ जहाँ शिशुपाल छिपे हैं तुम काट दो शीश।
अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
000000000
सपना पारीक 'स्वप्न'
------ अश्रु और मैं -------
मैं और अश्रु
इसके अलावा
ना था कोई और
हम दोनों थे
एकांत था
बहुत खुश थे
स्पर्श का अहसास था
गुफ्तगू की हमनें
कहा हमने उनसे
क्यों चले आते हो हरदम
क्या करूँ ?
तुम्हें महसूस करते है
लगता है जब तुम अकेले हो
हम दौड़े चले आते है
हमें तुम्हारी आदत सी हो गई
हमारे आने के बाद
हल्केपन का अहसास होता है
दिल का भार अश्रु संग बहाते है
इसलिए हम चले आते है।
अश्रुओं की व्यथा...
है ना स्वप्न...!
----- मुस्कुराहट-------
हवाएं गुनगुना रही
मधुर ध्वनि आ रही
कहना क्या चाह रही
खुशी की बू आ रही
संदेशा कुछ ला रही
संग किसी के आ रही
बहुत मुस्कान ला रही
एक राग अलाप रही
इतना क्यों मुस्कुरा रही
प्रतिध्वनि सी आ रही
बात कुछ तो हुई होगी
इतनी क्यों अकुला रही
खोलना अब चाह रही
दिल की रंगीन परत को
'स्वप्न' कहना चाह रही
बतलाने मुझे आ रही
खुशी के लम्हें आ गए
कुछ तो गुनगुना रही
खुशी की बात आ गई।
है ना स्वप्न...!
- सपना पारीक 'स्वप्न'
( विजयनगर, अजमेर )
000000000
संजय वर्मा "दृष्टि "
यादें
गुजर गए अपनों की
स्मृतियों को याद करके
सोचता हूँ ,कितना सूनापन है
उनके बिना
घर की उनकी संजोई
हर चीज को जब छूता हूँ
तब उनके जिवंतता का
अहसास होने लगता
डबडबाई आँखों /भरे मन से
एलबम के पन्ने उलटता
तब जीवन में उनके
संग होने का आभास होता है
उनकी बात निकलने पर
अच्छाईयाँ मानस पटल पर
स्मृतियों में उर्जा भरने लगती है
कहते है स्मृतियाँ अमर है
लेकिन यादों की उर्जा पर
इसलिए कहा गया है कि
करोगें याद तो हर बात
याद आएगी ।
संजय वर्मा "दृष्टि "
125 शहीद भगत सिंग मार्ग
मनावर जिला -धार (मप्र )
454446
000000000
बिलगेसाहब
तुम गए तो कुछ ऐसा लगने लगा।
जैसे आँखों से रौशनी
चेहरे से नूर
होठों से तबस्सुम और
जिंदगी से ख़ुशबू चली गई हो।
महसूस होने लगा।
तुम गए तो कुछ ऐसा लगने लगा।
तुम गए तो कुछ ऐसा लगने लगा।
मानो जिंदगी हो रेगिस्तान
साँस जैसे बदबू
पल पल एक साल सा और
चीनी जैसे नमक
महसूस होने लगा।
तुम गए तो कुछ ऐसा लगने लगा।
तुम गए तो कुछ ऐसे लगने लगा।
जैसे चुभ रही हो तन्हाईयाँ।
चिक रही हो धड़कने।
रो रही हो किस्मत।
जल रही हो हस्ति।
महसूस होने लगा।
तुम गए तो कुछ ऐसा लगने लगा।
तुम गए तो कुछ ऐसा लगने लगा।
साये में तुम्हारी तस्वीर हो जैसे।
धड़कनों में तुम्हारे स्वर हो जैसे।
साँसों में तुम्हारी महक हो जैसे।
दिल पर तुम्हारा नाम हो जैसे।
महसूस होने लगा।
तुम गए तो कुछ ऐसा लगने लगा।
तुम गए तो कुछ ऐसा लगने लगा।
सुरज ने जैसे रौशनी खो दी हो।
वक़्त ने जैसे रफ़्तार खो दी हो..!
गुलशन ने बहार..!
और कायनात ने रौनक खो दी हो!
महसूस होने लगा।
तुम गए तो कुछ ऐसा लगने लगा।
तुम गए तो कुछ ऐसा लगने लगा।
जैसे तुम बिन चल न पाउँगा।
जैसे तुम बिन बह न पाउँगा।
तुम बिन जिंदगी सह न पाउँगा।
तूम बिन कभी जीत न पाउँगा।
महसूस होने लगा।
तुम गए तो कुछ ऐसा लगने लगा।
Written by- बिलगेसाहब
[Dedicated to ambadas patare only]
000000000
ज्ञानेश्वरानन्द "भारती"
कह तो दो तुम उसको ये बात।
ध्यान रहे के उसे बुरा ना लगे।।
मत सताओ मुझको कर ज़ाया।
बात कहूं तो उसे बुरा ना लगे।।
पता था मुझको तेरी हर बात।
ज़ाहिर नहीं की के बुरा ना लगे।।
कद्र करता हूं तेरे वो जज़्बात।
सोचता हूं के उसे बुरा ना लगे।।
तेरी आंखों में छाई है कोई बात।
कह दूं तो कहीं उसे बुरा ना लगे।।
"भारती" करता है ख़ुलूस की बात।
सकूं से रहने दो मुझे बुरा ना लगे।।
कत्ल कर दिये उसने मेरे जज़्बात।
तिरछी नजरें ही कहीं छुरा ना लगे।।
ग़ज़लकार
ज्ञानेश्वरानन्द "भारती"
कर निरीक्षक
---------- Forwarded message ---------
From: Gyaneshwar Anand <gyaneshwar533@gmail.com>
Date: Sun, Mar 10, 2019, 6:50 AM
Subject: ग़ज़लें
To: <rachanakar@gmail.com>
कह तो दो तुम उसको ये बात।
ध्यान रहे के उसे बुरा ना लगे।।
मत सताओ मुझको कर ज़ाया।
बात कहूं तो उसे बुरा ना लगे।।
पता था मुझको तेरी हर बात।
ज़ाहिर नहीं की के बुरा ना लगे।।
कद्र करता हूं तेरे वो जज़्बात।
सोचता हूं के उसे बुरा ना लगे।।
तेरी आंखों में छाई है कोई बात।
कह दूं तो कहीं उसे बुरा ना लगे।।
"भारती" करता है ख़ुलूस की बात।
सकूं से रहने दो मुझे बुरा ना लगे।।
कत्ल कर दिये उसने मेरे जज़्बात।
तिरछी नजरें ही कहीं छुरा ना लगे।।
ग़ज़लकार
ज्ञानेश्वरानन्द "भारती"
कर निरीक्षक
000000000
डाँ. संतोष आडे
कहाँ पर बोलना है
कहाँ पर बोलना है
और कहाँ पर बोल जाते हैं।
जहाँ खामोश रहना है
वहाँ मुँह खोल जाते हैं।।
कटा जब शीश सैनिक का
तो हम खामोश रहते हैं।
कटा एक सीन पिक्चर का
तो सारे बोल जाते हैं।।
नयी नस्लों के ये बच्चे
जमाने भर की सुनते हैं।
मगर माँ बाप कुछ बोले
तो बच्चे बोल जाते हैं।।
बहुत ऊँची दुकानों में
कटाते जेब सब अपनी।
मगर मज़दूर माँगेगा
तो सिक्के बोल जाते हैं।।
अगर मखमल करे गलती
तो कोई कुछ नहीँ कहता।
फटी चादर की गलती हो
तो सारे बोल जाते हैं।।
हवाओं की तबाही को
सभी चुपचाप सहते हैं।
च़रागों से हुई गलती
तो सारे बोल जाते हैं।।
बनाते फिरते हैं रिश्ते
जमाने भर से अक्सर।
मगर जब घर में हो जरूरत
तो रिश्ते भूल जाते हैं।।
कहाँ पर बोलना है
और कहाँ पर बोल जाते हैं
जहाँ खामोश रहना है
वहाँ मुँह खोल जाते हैं।।
संपादक
डाँ. संतोष आडे
000000000
हरिओम गौड़
सैनिक ( भारत माता का राजदुलारा)
करत करत अभ्यास निरंतर ,
खुद का बलिदान करता है,
एक-एक जो क्षण है उसका,
व्यर्थ कभी नहीं जाता है,
वह दूसरों के लिए जीता है,
वह दूसरों के लिए मरता है,
खुद के लिए जीना उसे,
कभी भी नहीं अखरता है,
जो कफन सर पर बाँधता है,
दुश्मन को ललकारता है,
हाँ! वह सैनिक ही होता है,
जो सिर्फ वतन के वास्ते जीता है |
वो मौत को न्यौता देता है,
सीने पे गोली खाता है,
सांसों में दम रहे जब तक,
वह निरंतर लड़ता जाता है,
बस, लड़ता ही जाता है,
वह नयनों में नीर छुपाता है,
किसी को नहीं दर्शाता है,
कितना दर्द भरा है उसके सीने में,
कोई नहीं जानता है,
जो अपनों को छोड़ जाता है,
जो बचपन को भूल जाता है,
हाँ! वह सैनिक ही होता है,
जो केवल वतन के वास्ते जीता है |
वो न ठंड की परवाह करता है,
न गर्मी में से घबराता है,
न रात का विश्राम करता है,
न भोर की प्रतीक्षा करता है,
वो एक-एक क्षण जागता है,
खुद अनिद्रा में रहता है,
और हमें चैन की सांस दिलाता है,
वो भूख से भी लड़ जाता है,
केवल अंत में विश्राम करता है,
कमबख्त यह शरीर भी उसका,
यूँ ही नहीं लड़खड़ाता है,
जो वतन की लाज बचाता है,
तिरंगे का कफन पाता है,
हाँ! वह सैनिक ही होता है,
जो सिर्फ वतन के वास्ते जीता है ||
जय हिन्द
--
जिम्मेदारियां
उम्र आज 20 की हो चुकी है,
बचपन को अब भुला चुकी है,
बदल गया है अब सब कुछ मेरा,
दिखता ही नहीं खुशियों का सवेरा,
नयन के अश्रु सूख चुके हैं,
दुखों के बादल फूट चुके है,
बदल रही पल-पल में जिंदगी की घड़ी,
मगर होती नहीं दिख रही जिम्मेदारियों में कमी |
बचपन से लेकर बीता है समय अब तक,
सारा निरंतर संघर्ष ही संघर्ष में,
सोचा था मिलेगा सुकून कुछ,
अब होगी ख्वाहिश पूरी मन की,
आंखों में भी झलक रही थी खुशियों की कली,
फिर भी संघर्ष पर अंकुश न लगाया मैंने,
की न मैंने कोई इसमें कमी,
मगर होती नहीं दिख रही जिम्मेदारियों में कमी |
ताउम्र तड़पाएगी वो यादें आपकी,
गुजार लूंगा दिन मैं यादों में आपकी,
मिटेगी न अभिलाषा मेरे इस मन की,
आरजू रहेगी सदा आपके मिलन की,
वो प्यार भला मुझे कहां मिलेगा,
वो फूल सा चेहरा शायद ही खिलेगा,
देना चाहता था खुशियां अपार जिन्हें,
मगर पल भर में साथ छूटा,
जाने क्यों खुदा मुझसे रुठा,
फिर भी रहेगी आंखों में उस रोशनी की कमी ,
होती नहीं दिख रही जिम्मेदारियों में कमी ||
--
बचपन(खुशियों का संसार)
गुजर गए दिन पल में यूँ ही,
पता ही नहीं चला मैं कहाँ आ गया,
उस समय सोचता था,
कब आसमां की ऊंचाइयों को छूं लूँ ,
कब तितलियों जैसी उड़ान भरूँ,
कब बिन पिंजरे का पंछी बनूँ,
कब अच्छा और बुरा जानूँ,
लेकिन गुजरा समय ज्यों ज्यों मेरे नटखटपन का,
बोझ बढ़ता ही गया मेरे व्याकुल मन का,
फिर अन्दर से एक आवाज आई,
अंधेरे जैसी आहट छाई,
और मन बोल उठा-
कमबख्त उस समय को
इस कदर मुट्ठी में बाँधे रखता,
कि उसका एक क्षण भी मुझे गवारा न होता।
काश, मैं आज भी बच्चा ही होता,
उम्र में भले, कच्चा ही होता।।
वो दिन थे ही कितने निराले,
वो बात-बात में झगड़ना,
वो हर बात की हठ करना,
वो पल में रोना पल में हँसना,
वो इतनी सी मासूमियत,
अपनी हर बात को मनाने की काबिलियत,
वो कमल की पंखुड़ी जैसा कोमल चेहरा,
रातों की चाँदनी खुशियों का सवेरा,
सब कुछ कितना प्यार था,
जब मैं सबका राजदुलारा था।
लेकिन ज्यों ज्यों उम्र की सीढ़ियां बढ़ी,
सब खत्म होता गया,
पल-पल में सब कुछ इस कदर बदला,
कि कुछ पता ही न चला,
मैं सब नजरअंदाज करता गया,
और मेरा बचपन मुझसे बिछड़ता गया,
जब एहसास हुआ,
तो बहुत देर हो चुकी थी,
वो खुशियों की घड़ियां,
अब समाप्त चुकी थी।
अब मेरी आंखो में पानी था,
जो फूट फूट कर बरस रहा था,
और मैं खुद से,
बस एक ही बात कहे जा रहा था-
काश, मैं आज भी बच्चा ही होता,
दिमाग से भले, कच्चा ही होता।।
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Hariom Gaur
B.sc 4th sem(Cbz)
DBS PG College Dehradun
000000000
अन्नपूर्णा जवाहर देवांगन
नारी हूं मैं
पीड़ा हूं
वेदना हूं
दर्द हूं
संवेदना हूं
क्योंकि
नारी हूं मैं
संतान के लिए
ममता भरा आंचल हूं
भाई के लिए
राखी का सम्बल हूं
पति के लिए
आंखों का काजल हूं
पिता के लिए
सुख का बादल हूं
क्योंकि
नारी हूं मैं
बेटी का लाड़
बहू का दुलार
हर रिश्ते की
परिभाषा हूं
क्योंकि
नारी हूं मैं
त्रेता की सीता हूं
हारती रही
छल से
द्वापर की द्रौपदी हूं
जीतती गई
बल से
क्योंकि
नारी हूं मैं
भक्ति की मीरा हूं
छूट गई
द्वंद से
वीरंगना लक्ष्मी हूं
लूट गई
जंग से
क्योंकि
नारी हूं मैं
वर्तमान की निर्भया हूं
हार कर भी
हारी गई
और
जीत कर
भी हारी है
क्योंकि
नारी हूं मैं
जन्म से
मृत्यु तक
बंधी हूं
कभी संस्कार
के नाम पर
कभी धर्म
के नाम पर
कभी रिवाज
के नाम पर
कभी कर्तव्य
के नाम पर
क्योंकि
नारी हूं मैं
मेरा अस्तित्व
मेरा सम्मान
मेरा वजूद
मेरा नाम
सब छीना
फिर भी
जी रही हूं
क्योंकि
नारी हूं मैं
दुष्टों के लिए
आग हूं
नफरत के लिए
राग हूं
पतझड़ के लिए
बहार हूं
आशिकों के लिए
त्योहार हूं
सृष्टि की
वसुधा हूं
क्योंकि
नारी हूं मैं
0000000000
कवि मनीष
डाली बहार की थी मुस्कुरा रही,
जब हमारी निगाहें थीं मिल रही,
शबनम पंखुड़ियों पे थी बिखर रही,
डाली बहार की थी मुस्कुरा रही,
सरगम छेड़ रही थी राग बहार,
नदी चाहत की थी बेकरार,
साँसें साँसों में थी घुल रही,
डाली बहार की थी मुस्कुरा रही,
ग़ुलाबी-ग़ुलाबी थी फ़िज़ा सारी,
महक रही थी चाहत की फुलवारी,
फ़िज़ा में थी खुशबू बिख़र रही,
डाली बहार की थी मुस्कुरा रही,
डाली बहार की थी मुस्कुरा रही,
जब हमारी निगाहें थीं मिल रहीं,
शबनम पंखुड़ियों पे थी बिखर रही,
डाली बहार की थी मुस्कुरा रही
कवि मनीष
पानीं ने कहा घड़े से,
तुझे मुझे अपने भीतर है समाता,
और तू मुझे शीतल भी है बनाता,
पर धीरे-धीरे तुझसे जुदा होने से मन है मेरा घबराता,
न जानें क्यों हमारा रिश्ता है ऐसा,
प्यास जो बुझाता है सबकी वही रह जाता है प्यासा,
मैं सबकी हूँ प्यास बुझाती,
पर मैं हीं हूँ प्यासी रह जाती,
घड़े ने पानी से कहा,
जब तू घंटों रहकर भीतर मेरे शीतलता है पाती,
प्यास तेरी मेरी तभी ही है बुझ जाती,
और ये तो है नियम प्रकृति का कुआँ अपनी प्यास है नहीं कभी बुझाता,
पानी ने कहा घड़े से,
तू मुझे अपने भीतर है समाता,
और तू मुझे शीतल भी है बनाता,
पर धीरे-धीरे तुझसे जुदा होने से मन है मेरा घबराता
कवि मनीष
बोलती है जुबाँ जिनकी,
अक़्सर प्रेम की बोलियाँ,
वही लिखते हैं जीवन की दास्ताँ,
धरा मुस्कुराती है,
क़दम पड़ते हैं उसके जहाँ-जहाँ,
वही लिखते हैं जीवन की दास्ताँ,
हर डाल, हर शाख लहलहाती है,
नज़रें पड़ती हैं उसकी जहाँ-जहाँ,
वही लिखते हैं जीवन की दास्ताँ,
बोलती हैं जुबाँ जिनकी,
अक़्सर प्रेम की बोलियाँ,
वही लिखते हैं जीवन की दास्ताँ
कवि मनीष
ज़िन्दगी की है बाज़ी ग़र,
जीतनीं तुझे,
तो चल मुसाफ़िर बस चलता चल,
तो बढ़ मुसाफ़िर बस बढ़ता चल,
रास्ते में मिलेंगे शूल भी तुझे,
उन्हें बस तू उखाड़ता चल,
चल मुसाफ़िर चलता चल
बढ़ मुसाफ़िर बढता चल,
है हिमालय सा हौसला तेरा,
है नीला अम्बर सिरमौर तेरा,
तू बस अपनी धुन में बढ़ता चल,
चल मुसाफ़िर चलता चल ,
ज़िन्दगी की है बाज़ी ग़र,
जितनी तुझे,
तो चल मुसाफ़िर बस चलता चल,
तो बढ़ मुसाफ़िर बस बढ़ता चल
कवि मनीष
खड़ा था मौत की दहलीज पे मैं आज,
लेके सर पे ज़िन्दगी का ताज,
वो आँखें चढ़ा के मुझको देखती रही,
और सर पे मेरे बहार बिखरती रही,
मैं खून के घूंट कभी पीता नहीं,
बेवजह आँसुओं को कभी बहाता नहीं,
चढ़ के पर्वत पर मैं छूता हूँ आफ़ताब,
बगैर सर-पैर की बात मैं करता नहीं,
है दम तुझमें तो छू के दिखा मुझे,
आगे सूरज के बदलियाँ ज्यादा देर टिकती नहीं,
होता है भरोसा जिन्हें ख़ुद पर,
नामुमकिन उनके लिए कुछ भी होता नहीं,
खड़ा था मौत की दहलीज पे मैं आज,
लेके सर पे ज़िन्दगी का ताज,
वो आँखे चढ़ा के मुझको देखती रही,
और सर पे मेरे बहार बिखरती रही
कवि मनीष
रक्त की पिपासा लिये,
सामनें खड़ा हैवान था,
पर वो मूरख न समझ सका,
सामनें उसके अडिग चट्टान था,
वो सोचा मारकर उसे,
बुझा देगा वो क्रांति के मशाल को,
पर वो न सोंच सका ,
कि वो अपनी वीरता की भूचाल से,
गीदड़ो को निकाल बाहर करेगा शेरों की खाल से,
मरकर उसने क्रांति की ऐसी शम्मा जलाई,
जिसने ग़ुलामी की बेड़ियाँ निकाल दीं तोड़ के,
ऐ आज़ाद हिन्द में साँस लेने वाले,
जलाओ दीये आज़ादी के,
पर कभी कोई खुशी मनाना ना,
भगत, राज, सुखदेव की क़ुर्बानी को भूल के,
रक्त की पिपासा लिये,
सामने खड़ा हैवान था,
पर वो मूरख न समझ सका,
सामने उसके अडिग चट्टान था
कवि मनीष
लहराये शान से हमेशा तिरंगा हमारा,
रहे शान से खड़ा हमेशा झंडा हमारा,
शान से पताका इसकी हमेशा फहराती रहे,
लहराये शान से हमेशा तिरंगा हमारा
बुरे नज़रों से जो देखेगा इसे,
छटी का दूध याद हम याद दिला देंगे उसे,
है तिरंगा अभिमान हमारा,
लहराये शान से हमेशा तिरंगा हमारा,
नजरें उठा के जब देखता हूँ इसे,
आशाओं की उड़ान मन भरने लगता है जैसे,
पुलकित है हो जाता रोम-रोम सारा,
लहराये शान से हमेशा तिरंगा हमारा,
लहराये शान से हमेशा तिरंगा हमारा,
रहे शान से खड़ा हमेशा झंडा हमारा,
शान से पताका इसकी हमेशा फहराती रहे,
लहराये शान से हमेशा तिरंगा हमारा
कवि मनीष
पैर हैं बंधे हुए फिर भी उड़ रहा हूँ
गगन की ऊँचाई माप रहा हूँ मैं,
दिल ओ दिमाग हैं बंधे हुए,
फिर भी सोच रहा हूँ मैं
पैर हैं बंधे हुए फिर भी उड़ रहा हूँ मैं,
चल रही हैं आँधियाँ,
फिर भी अडिग खड़ा हूँ मैं,
जला रहीं हैं बिजलियाँ,
फिर भी ज़िन्दा हूँ मैं,
कोई नहीं है हमसफ़र,
फिर भी चल रहा हूँ मैं,
नहीं है कोई मीत मेरा,
फिर भी हँस-रो रहा हूँ मैं,
पैर हैं बंधे हुए फिर भी उड़ रहा हूँ मैं,
गगन की ऊँचाई माप रहा हूँ मैं,
दिल ओ दिमाग हैं बंधे हुए,
फिर भी सोच रहा हूँ मैं,
पैर हैं बंधे हुए फिर भी उड़ रहा हूँ मैं,
पैर हैं बंधे हुए फिर भी उड़ रहा हूँ मैं,
पैर हैं बंधे हुए फिर भी उड़ रहा हूँ मैं
कवि मनीष
Manish Kumar
S/O Satish Sharma
Purvi Nandgola Naga Baba Ka Bangla Malsalami Patna City.
Pin - 800008
0000000000
संध्या चतुर्वेदी
हे माँ धरती पर प्रचंड रूप धर आ जाओ।
हो रहा अत्याचार मासूमों पर माँ,
बिलख रही किलकारी है माँ।
ले कर के खड्ग और त्रिशूल माँ,
दुष्टों के शीश भेंट चढ़ा जाओ।
हे माँ प्रचंड रूप धर आ जाओ।।
तब कोख में मरती थी कन्या
अब तो जन्म के बाद उजड़ती है ।
पैदा करने वाला बन गया भक्षक
किस से अब रक्षा की गुहार करें माँ।
ले तलवार इन पिता रूपी दानव का सर
धड़ से अलग कर जाओ माँ।
हे माँ प्रचंड रूप धर आ जाओ।
भाई बहन की आबरू लुटे, कैसा कलयुग आया है।
पिता बन गया अब भक्षक देख माँ का दिल घबराया है।
कोई जगह बची नहीं अब जहाँ बेटी हो सुरक्षित
।
नन्ही कन्या रूप देवी का फिर क्यों बेबस होती है?
नन्हे नन्हे से कोमल बदन पर क्यों जख्मों को सहती है ?
अब धरती पर आ जाओ माँ
हे माँ प्रचंड रूप धर आ जाओ।।
संध्या चतुर्वेदी
अहमदाबाद, गुजरात
000000
सपना मांगलिक
आगरा
sapna8manglik@gmail.com
पुलवामा से बालकोट (कविता)
प्रेम दिवस की आड़ में छुप ,गीदड़ सा तुमने वार किया
धान कटोरे पुलवामा को ,लालों के लहू से लाल किया
भय नहीं उड़ी – पुलवामा से ,मजबूत हौसले पाए हैं
बांदला,पूँछ ,बालकोट तक , हम गाज गिराते आये हैं
कभी जेहादी नारों से तो ,कभी तुच्छ हथियारों से
बाल न बांका कर सकते तुम , पा शय चीनी मक्कारों से
तहजीब – अलिफ़ की चढ़ा बलि, बचपन अंगार बनाते हो
बच्चों को लालच हूरों का , देकर बन्दूक थमाते हो
उखाडेगा क्या जैश मोहम्मद, इमरान से नेता छक्के हैं
चीन अमेरिका भी अब अपने ,तेवर से हक्के बक्के हैं
ओ नक्सलियों की दुम सुन लो ,छुपकर न आघात करो
फटी जेब पहले सिल लो ,औकात में रहकर बात करो
तुम ऊँगली एक उठाओगे ,हम बाजू धड से गिराएंगे
तुम लाश एक गिराओगे ,हम कब्रिस्तान बनायेंगे
पिया गर दूध है माँ का तो ,मैदान में खुलकर आ जाओ
कश्मीर का दावा करने वालो ,लाहौर बचाकर दिखा जाओ
विभीषणों से मिला हाथ तुम ,समझौते जो करवाए हो
झाँक गिरेबान देख भी लो ,क्या धेले की इज्जत पाए हो ?
इतिहास गवाह है शूकर सा ,गैरों के मल को चखते हो
मज़हबी सुनो गद्दारों ,माँ का ही सौदा करते हो
माँ के दो टुकड़े कर डाले ,बदले में तुमने क्या पाया है ?
कुछ फैंकी रोटी तोड़ी हैं ,और सम्मान लुटाया है
-०-
00000000
चंचलिका
" सूखी झुर्रियां "
सूखी है काया
मगर हृदय का स्पर्श
अभी बाकी है
उम्र गुज़र गई
मगर एहसास
अभी बाकी है.....
ये घनेरी छाँव है
झुर्रियों का मोहताज़ नहीं
जन्नत इसी स्पर्श में है
बाकी और कहीं नहीं.....
रुपये पैसे ऐश ओ आराम
कुछ भी रास नहीं आते
जिनके घर में ऐसा स्नेह नहीं
वो घर सूने से रह जाते.....
जड़ जहाँ मज़बूत नहीं
डाल, पत्ते कुम्हला जाते हैं
घर की बुनियाद बुज़ुर्ग ही होते
बिन उनके सब अधूरे लगते हैं....
---- चंचलिका.
000000000
-अमरजीत टांडा
नजम सी बन जाते हो तुम
नजम सी बन जाते हो तुम
अँधेरी रात में भी
आपके बदन की ख़ुश्बू होती है जा एक आसमां होता है
तराशा हुया शफ़्फ़ाफ़ मरमर सा जिसम
अंगड़ाईओं में फैला देख कर
छुप जाती है गुलजार सहम जाते हैं नगमें
जब भी कभी तैरते हैं अरमां
आप के जिसम की गोलाईयों में
एक यात्रा सी हो जाती है तीर्थ-ऐ-जहाँ की
पर्दा उठा तो तबाही भी मच सकती है
कौन जाने
कैसा आलम-ऐ-हुस्न कैद हो हिजाब में
जब आती है याद तेरी गलियों की
एक वार तो फिर से दिल हो जाता है बेईमान
कि चूम लूँ तेरे गुलाबी से लब
ले लूँ तेरी सारी दुनिया इन बाँहों में
छोड़ कर सभी इबादतें
तेरी याद में साँसो को भी
ज़रा आहिस्ता से पाँव रखने को कहता हूँ
दिल-ऐ-धड़कनों से और आँख झपकने से भी
ख़लल सा पड़ जाता है तेरी बंदगी में
चलीऐ एक शरारत तो करें
होंटों पे होंट रख कर
ग़म में सोचते सोचते सो जाऐं
करें कोई करिश्मा सा
होंटों में होंट हों
तो बन सकते हैं सुकरात हम भी
चलीऐ छोड़ें बातें नींद में डूब जाऐंगे बाद में
पहले इन नर्म होंटों पे सजा लें अपने होंट
दिन की उदासी का भी हो जाऐगा इंतजाम
एक बार लबों को लबों से तो मिलने दो
नींद में जब भी होंट फरफराते होंगे
ख़्वाब आता होगा उनको भी मेरी तनहाई का
कौन पूछता है आजकल दिल की बात
सभी हसीं होता है
जो भी गिरे तेरे सुर्ख होंटों से बोल
तस्वीर बनाई थी उनकी एक वार
इस लिए इतने रंग दिखाई देते हैं
कायनात में उनकी अदाओं के
हमारा उनका मिलन ख़्वाबों में भी होता है
जैसे किताबों में मिल जाते हैं
उनके दिये मुरझाऐ गुलाब कभी कभी
हम तो निकले थे जिंदगी-ऐ-शमा बुझाने
आपके हुस्न-ऐ-दीदार हुऐ जिंदगी नसीब हो गई
चाँद सितारों से भी
मिला कर देखी आपकी तस्वीर
चाँद बुझ गया सितारे मिट गऐ आसमां से
जी तो चाहता था कि खींच लेता तेरी तस्वीर
मगर नजर में ज़ुबां ना थी लबों के हाथ न थे
महफिल में-अमरजीत टांडा
महफिल में
उन पर नजर गई
तो शब्दों की तलाश शुरू हुई
वो मुसकराऐ तो
अल्फाजों को जिंदगी मिली
होले से उन्होंने लव खोले
तो शब्द स्तर बने
शायर बना दिया उन की अदाओं ने
नहीं जानते थे पैगाम-ए-मोहब्बत
ईबारत-ऐ-आशिकी
हुसन-ऐ-आलम देखा
तो इश्क सा हो गया
प्रेम होता है जानते तो थे
मगर कैसे होता है ये नहीं मालूम था
जब उनसे मिलन हुआ
तो प्यार की परिभाषा मिली सीखने को
दोस्ती का रास्ता दिखाई दिया
अब ये नहीं मालूम था कि
क्या मांगते उनसे
दुआ में क्या कहते उनके लिए
अब तो इबादत सी बन गई है मोहब्बत
बंदगी सी हो गया है उनका नाम
अब वो इधर आते तो हैं मगर लौट जाते हैं
ना तो दिल बहलता है
न ही कोई नगमा बनता है
अंजाम-ए-मोहब्बत भी क्या हुआ
जीने की सज़ा मिली
मौत की दुआ करने पर
बता तो सही-अमरजीत टांडा
बता तो सही
क्या है इस दुनिया में
तेरी नजरों की शोख सी मस्तियों में
इनकी हर वक्त की शरारतों के सिवा
तेरी आँखों में और क्या क्या है
मैं ही जानता हूँ
इनकी पलकें उठतीं हैं
तो किसी सुबह को मिलती है जिंदगी
आगाज होता है दिन का
बंद हो जाऐं तो रात छा जाती है संसार में
ऐसा लगता है
मेरी शाम और रात इनहीं के साये में है
और जिंदगी भी अब इन्हीं की नजरों में
येहीं पुकारती हैं मुझे इधर उधर
जैसे इन्हें ज़ुबान लग गई हो
तेरी आँखें अब शाम का भीगा सा मंज़र लगता है
जो यादों से चुप नहीं होता
पलकें खुलती रहें तो साँस आता है मुझे
गिर जाऐं तो रूक जाते हैं चलते हुऐ कदम
इन की झपकी से अब आऐं बहारें
कलियां दिखलाऐं चाँद से चंचल मुखड़े
तेरी इन पलकों की छायों में
क्या क्या नहीं होता
उजड़ते घर वस जाऐं इन्हें देख कर
खिल जाऐं मुरझा रहे फूल
उदास चेहरे हँस लें फिर से
दो ख्वाब मिल जाऐं रातों को
वस जाऐं उजड़ती बसतीयाँ
इनमें मे से ही मेरी नई पेंटिंग की तकदीर बने
इनकी काजल की धारी
लिखती हैं तारीख-ऐ-आलम
इनकीं नज़रें बन कर चले साया मेरा
हमसफ़र बन गईं हैं मेरी आंखें ये तेरी
उनमें मेरा भी कोई तो ख़्वाब जागता होगा
इस लिए सोई नहीं होंगी अब तीक उनकी आँखें
मुझे डुबो दिया नदी की तरह
उनके एक आँसू ने
महफिल में तो गऐ थे नजम बन कर
पूरी हुई आँख की एक तो नाउम्मेदी
कि लालसा तो मिट गई
अश्रुओं में डूब जाने की
समझा था कि नैन देखने को हैं हुस्न-ए-यार
ये नहीं सोचा था कि ये कतल भी कर देते हैं
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सौरभ कुमार ठाकुर
(1)पुलवामा हमला(कविता)
पाकिस्तानी आतंकवादी बाद में,
पहले हिंदुस्तानी गद्दारों के छक्के छुड़ाएंगे ।
सिर्फ हिंदुस्तानी गद्दारों के छक्के छुड़ा दिए तो,
पाकिस्तानी आतंकवादी भी घुटने टेक जाएंगे ।।
(2)बेटी भी बेटा होती है(कविता)
कुछ लोग बेटा चाहते हैं,
जो कुल का मान बढ़ाता है ।
कुछ लोग बेटी चाहते हैं,
जो दूसरों के घर जाती है ।
पर बेटी भी बेटा होती है ।
कुछ लोग बेटा और बेटी को,
एक समान मानते हैं ।
कुछ लोग बेटा की चाहत में,
बेटी को गर्भ में मार देते हैं ।
पर बेटी भी बेटा होती है ।
कुछ लोग दहेज से बचने के लिए,
बेटी को बेच देते हैं ।
दहेज देना बंद करें हम,
क्योंकि बेटी घर की लक्ष्मी होती है ।
हाँ इसीलिए बेटी भी बेटा होती है ।
कुछ लोग समाज के कुप्रथा से डरकर,
बेटी की पढ़ाई बंद करवा देते हैं ।
इसीलिए कहता हूं यारों,
बेटी को पढ़ाइए,बाल विवाह से बचाइए ।
हाँ बेटी भी बेटा होती है ।
बेटी बेटा से कम नहीं है,
बेटी को शिक्षित बनाइए ।
बेटी को हर एक अधिकार दीजिए,
बेटी को जिम्मेदार बनाइए ।
इसलिए बेटी बेटा ही होती है ।।
(3)नेता जी की मौत पर (कविता)
नेताजी की मौत पर,
रोया सारा जहाँ,
रोया सारा देश ।
पर वही
उनके एक नौकर की मौत पर,
ना रोया कोई लोग,
ना रोया उसका परिवार ।
क्योंकि ?
नौकर की लाश भी नहीं मिली,
उसके परिजनों को ।
नेताजी के आदमियों ने,
उस लाश को फेंक दिया था ।
नदी में पहले ही ।
वह दुबला-पतला सा नौकर,
जो ठंड से ठिठुर कर मर गया ।
पर नेता जी के आदमियो ने,
नहीं दिया कभी उसे एक भी कंबल ।
निकला जब अंतिम यात्रा नेताजी का,
लाखों लोग थे जनाजे में उनके ।
पर यह क्या ?
नौकर की मौत तो हो ही गई थी ।
उसकी तो लाश भी नहीं मिली,
उसके परिजनो को ।
तो क्या निकलती,
अंतिम यात्रा उसकी ।
ऐसा क्यों ?
(4)शहरों की प्रदूषण(कविता)
शहरों में अब जाना दुश्वार है,
क्योंकि वहां प्रदूषण की मार है ।
शहरों में जीना मरने के बराबर है,
फिर भी लोग प्रदूषण फैलाते बार-बार हैं ।
शहरों में गाड़ियों की संख्या रोज लाखों हजार है।
शहरों में ग्रामीणो की संख्या बढती लगातार है ।
शहरों में गाड़ियों की संख्या भी बढती लगातार है ।
शायद इसी कारण वहां पर प्रदूषण की मार है ।
अब यह तो इस दुनिया का शायद अन्तिम कगार है ।
रोज गाड़ियां बनती लगभग करोड़ों के पार है ।
रोज गाड़ियां खरीदती जनता लाखों के पार है ।
शायद इसी कारण वहां पर प्रदूषण की मार है ।
अब तो प्रदूषण के कारण लोग मरते लगातार है ।
कचरों को जलाकर हम प्रदूषण फैलाते हर बार है ।
बन्द करें हम प्रदूषण फैलाना तभी दुनिया का उद्धार है ।
शायद तभी प्रदूषण से दुनिया का उद्धार है ।
(5)क्यों दिल मेरा तोड़ दिया ? (कविता)
क्या खता थी हमारी जो दिल हमारा तोड़ दिया ?
हमको तुमने क्यों तड़पता छोड़ दिया ?
तुम्हें देखा तो मेरे दिल ने कहा:-यही है महबूबा मेरी ।
पर मेरे ख्वाबों को तूने ऐसा क्यों मरोड़ दिया ?
मेरे दिल को तुमने ऐसा क्यों झकझोर दिया ?
तुमको हक नहीं है फिर तुमने क्यों मुझे छोड़ दिया ?
हमारा दिल तो इतना नादान था,ओ महबूबा मेरी ।
दिल को तूने इतनी बेरहमी से क्यों तोड़ दिया ?
मेरे प्यार इतना कोमल था फिर तूने क्यों मरोड़ दिया ?
हमको तुमने क्यों यूँ तड़पता छोड़ दिया ?
क्या जुर्म किया था,हमने ओ महबूब मेरी ।
एक बार पीछे मुड़कर बता तो दिया होता ।
मेरा दिल तोड़ा क्या तूने तेरा तो रास्ता ही बदल गया ।
तूने मेरे प्यार का क्यों ऐसा बदला लिया ?
क्या खता थी हमारी बता दे ?ओ महबूबा मेरी ।
मेरे दिल को तूने इतनी बेरहमी से क्यों तोड़ दिया ?
(6)डिजिटल दुनिया(कविता)
जिधर को देखो,
जिधर को ताको,
हर तरफ मोबाइल
दिखता है हमको ।
क्योंकि
यह तो डिजिटल
दुनिया ही हो गई है ।
अभी से 50 साल पहले,
ना था कोई सिस्टम,
ऐसा ।
कबूतर से संदेश भेजते थे,
सब
पर इस डिजिटल दुनिया
को तो देखो ।
बस एक बटन दबाया,
और हो गया मैसेज सेंड ।
पता नहीं
और क्या क्या होना बाकी है ?
इस डिजिटल दुनिया में,
लगता है कुछ ही सालों में,
हर चीज हो जाएगा डिजिटल ।
तो क्या करेगा आदमी ?
इस डिजिटल दुनिया में रहकर ।
केवल आराम,
और क्या ?
हर काम होगा रोबोटिक,
और इन्सान बन जाएगा,
एक पुतला ।
(7)इश्क़ (कविता)
इसके कर रहा है गुनाह है,
तो दे दो सजा ।
गर इश्क़ करना सही है,
तो ले लो मजा ।
नहीं तो तुम बाद में,
बहुत ही पछताओगे ।
इश्क़ किए बगैर तुम,
रह नहीं पाओगे ।
इश्क़ ही है जीवन का,
एकमात्र सहारा ।
इश्क के बिना ये जीवन है,
बिल्कुल अधूरा ।
इश्क़ है जीवन में तो,
जरूरत नहीं किसी चीज की ।
इश्क़ कर ली किसी से,
तो जरूरत नहीं किसी और की ।
इश्क़ से ही चलती है दुनिया,
इश्क़ से ही रूकती है दुनिया ।
गर फिर भी ।
इश्क करना गुनाह है,
तो दे दो सजा सजा ।
गर इश्क़ करना गुनाह है,
तो ले लो मजा !
(8)प्यार (कविता)
जब आँख खुली तो पास में,
लवर को अपने पाया था ।
उसका सुन्दर सा चेहरा मैने,
आँखों में बसाया था ।
रोज डे का दिन था वो,
जिस दिन आई लव यू बोला था ।
उसके चेहरे को सुन्दरता को,
निज अंतर में सदा सहेजा था ।
वो ऐसी लड़की थी,
जो पहली दफा में पसंद आई थी ।
मेरे आँखों में उसकी सुरत,
ही सदा समाई थी ।
पहली दफा में ही मैं उसको,
अपना दिल दे आया था ।
नहीं पता था प्यार क्या है ?
पर मैं प्यार कर बैठा था ।
(9)डर (कविता)
डर को डर लगता है डर से,
क्योंकि डर नीडर नहीं है ।
जिसे डर नहीं लगता डर से,
उसे डरने की जरुरत नहीं है ।
डर एक शब्द है जिससे,
हम किसी को भी डरा सकते हैं ।
डरते है बड़े-बुजुर्ग भी इस डर से,
तो आखिर यह डर क्या है ?
(10)गरीब (कविता)
बैठा हूँ मैं सिंहासन पर,
जैसे हूँ कोई राजा-अमीर ।
आज लगाया हूँ ईंट का सिंहासन,
लगता हूँ मैं कोई फकीर ।
एक दिन लगाऊंगा सोने का सिंहासन,
खींच कर कहता हूँ मैं लकीर ।
बोल रहा हूँ तुम्हें अमीरों,
सुन लो बात मेरा कान खोलकर ।
कभी बैठूंगा तेरी जगह पर,
लेकर तेरा अधिकार ।
आज लगाया हूँ ईंट का सिंहासन,
क्योंकि आज मैं हूँ गरीब ।
नाम-सौरभ कुमार ठाकुर
ग्राम-रतनपुरा,डाकघर-राम कृष्ण दुबियाही,थाना-सरैया,जिला-मुजफ्फरपुर,राज्य-बिहार,भारत,पिन कोड-843106
000000000
अविनाश तिवारी
ये महाप्रयाण कर के सन्धान
संकल्प वीरों ने ठाना था।
जो जख्म दिया नापाक
उसको सबक हमें सीखाना था।
तेरा धर्म यही तेरा कर्म यही
कर्म निरन्तर तेरा जारी रहे।
मा आदि भवानी की शक्ति से
तेरी भुजाओं में सौर्य रवानी रहे।
कर लिया सन्धान अब शस्त्रों का
तेरा पराक्रम निर्भीक रहे।
दुश्मन थर्राए तेरी आँखों से
दहाड़ तेरी सिंह का रहे।
हम नमन करते शहीदों का
शत शत शीश झुकाते हैं।
तेरे खून के बदले अब
पाक नख्शे से मिटाते हैं।
अब खत्म हो आतंकी
आतंकवाद का समूल नाश हो।
जय हिंद की सेना विजय हो तेरी
तुम हिंदुस्तान का विश्वाश हो।।
जय हिंद की सेना
अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
छत्तीसगढ़
[01/03 14:09] avinashtiwari766: #अभिनंदन है
^^^^^^^^^^^^^^^^
वह सौर्य ध्वज का वाहक
परचम उसे लहराना था।
है अभिनव अमिट नवीन भारत
अभिनंदन को वापस आना ही था।
गीदड़ नाहर को कैसे रोके
आंखों से निकले वो शोला है।
सर पर कफ़न बांध के निकला
पहना बासन्ती चोला है।
है गर्व हमें तेरी वीरता पर,
भारत के सिंह तुम नन्दन हो
गर्वित हिंदुस्तान की माटी
सपूत तुम अभिनंदन हो।
पर घाव अभी भी सूखे नहीं
जब तक आतंकी जिंदा है।
हाफिज मसूद के सिरों पर
अब लगे फांसी का फंदा है।
टुकड़े वाले गैंग देख लो
भारत का हर जवान अभिनंदन है
जय जय जय हिंद की सेना
गर्वित हैं हम तेरा वन्दन है
ये धरती माटी चन्दन है
हर वीर यहां अभिनन्दन है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
[04/03 12:18] avinashtiwari766: #हे महाकाल^^^
शिव प्राण है शिव वायु है
शिव सांसो में उठती ज्वालाहै।
शिव अनन्त कोटि ब्रम्हांड
शिव चन्द्रमौलि शिव डम डम डमरू वाला है।
शिव घट घट में रमण करे
शिव अनादि अनीश्वर प्राण है।
शिव परमपिता ब्रम्हात्मा
शिव जगत में बसा विश्वास है।
हे महाकाल जग पालनहार
करुणानिधे कल्याण करो।
जो भस्मासुर बैठे मेरे देश मे
प्रभु उनका अब संहार करो।
हे महाकाल हे महाकाल
शिव अनन्तकोटि विस्तार तुम्हारा
शमशान भूमि का रखवाला है
शिव गंगाधर शिव जराधरा
शिव बम बम भोले भाला है।
हे शिवशंकर कैलाश निवासी
भारत माँ तुझे पुकार रही
आतंकी कुचक्रों में घिरी
मां अपनी विलाप रही।
प्रभु धरो हलाहल नीलकण्ठ
अब संहारक बन प्रहार करो
आतंकी पाक देश का
जड़ मूल अब भोले साफ करो
प्रभु बनो विनाशक आतंक का
भारत का प्रभु उत्थान करो
पी हलाहल शमन विषों का
हे महाकाल सन्धान करो
हे महाकाल जय महाकाल
हे महाकाल जय महाकाल
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर छत्तीसगढ़
[07/03 11:05] avinashtiwari766: #अभिमान
नारी दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती अवतार है,
नारी जग जननी ममता और प्यार है।
नारी मां बन पोषण करती
संस्कार को देती है
प्रथम गुरु बन शिशु को
आकार नया वह देती है।
बहन बनकर नारी
भाल पर तिलक लगती है,
भैया के हर दुख में
ढाल बहन बन जाती है।।
पत्नी बनकर नारी
जीवन सम्पूर्ण करती है
जीवन संगनी साथ मे चलकर
सपने पूरे करती है।
नारी कल्पना मैरी साइना
गीता इंदिरा बन जाती है,
शक्ति की अवतार है नारी
नव युग की आगाज हो जाती है।
सीता सावित्री अनुसुइया जैसी ममता की सूरत है,
दुर्गावती लक्ष्मीबाई वीरता की मूरत है।
नारी तुम आगे बढ़ आओ
महिषासुर संहारक हो,
शस्त्रों का सन्धान करो
नवयुग की तुम वाहक हो।
तुमसे जगत की सृष्टि है
अपना अधिकार तुम जानो
गर्वित हो तुम जगजननी
मान तुम्हारी पहचानो।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
छत्तीसगढ़
[21/03 22:10] avinashtiwari766: नीला पीला हरा गुलाबी
रंग है सारे भीगे मन
प्रेम रंग में रंग जाये
तो देख बहारें होली का
सजनी की चूड़ियां खनकाई
नैन कटीले बान लगाई
पायल की जब रुनझुन बाजे
तो देख बहारें होली का।
राधा बोले रंग दे सांवरिया
प्रीत रंग भींग जाऊं मैं
मीरा की तान निराली
तेरी सांवरे बन जाऊं मैं
गोपी की अतरंगी छटा में
देख बहारें होली का
होली की नवरंगी बधाई
अविनाश तिवारी
[27/03 15:22] avinashtiwari766: विश्व रंगमंच दिवस की बधाई
ये दुनिया एक रंगमंच
हर चेहरे पर नकाब है,
जो मिलता है हमसे हंसकर
पीठ पीछे ख़ंजर भी तैयार है।
जो आंसू बहे वो एक अफसाना था,
अपने से खाते धोखा,किरदार वही पुराना था।
आओ रंगमंच का एक नया नाम रखें
हम बन जाएं किरदार वही चेहरा
अपना साफ करें।
नाटक के इस दौर में कठपुतली का ना हो वहम,
छोड़े आवरण झूठ का आओ इंसान बन जाएं हम
अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
[02/04 17:24] avinashtiwari766: जीवन साथी
तू प्रेम है श्रद्धा है मेरा विश्वाश है
प्रिये साथ तेरा हरपल मधुमास है।
कर समर्पण जीवन का पल
प्रतिपल मुझे सँवारा है
मान तू अभिमान मेरा ह्रदय तेरा सुवास है
प्रिये साथ तेरा प्रतिक्षण मधुमास है।
तू शीतल चांदनी तपती धूप में छांव है।
रिश्तों की कोमलता का तुझसे अहसास है।
प्रिये साथ तेरा हरघड़ी मधुमास है।
सम्मान है बुजर्गों का पालित तुझमें जो संस्कार है
अन्नपूर्णा तू नारायणी तू धरनी धरा सा प्यार है
प्रिये साथ तेरा हरपल मधुमास है।
सावन की फुहार हो बसन्त की बहार हो
जेठ की तपती धरनी में
अमरईया की छांह हो
स्नेहिल ममता का प्यार तुझमे
मेरी बिटियों का दुलार हो
आस यही रब से सात जन्म का साथ हो।।
जीवन की इस नैया की तु मेरी पतवार है।
प्रिये साथ तेरा प्रतिपल मधुमास है।।
अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
0000000000000
बलबीर राणा 'अडिग'
---: लोकतंत्र के पर्व पर :---
मजबूर नहीं मजबूत बनकर, देश का उत्थान करें
लोकतंत्र के पर्व पर निस्वार्थ होकर मतदान करें ।
चलो नित्य के काम धंधों को जरा तनिक बिराम दें
चलायमान उदर साधना को एक दिन का आराम दें
निकलो घर से आवाज दो चाटुकारिता पर चोट करें
हिंदुस्तान की मजबूती को मिलकर सब वोट करें
भागीदारी यह देश निमित राष्ट्रहित में श्रमदान करें
लोकतंत्र के पर्व पर निस्वार्थ होकर मतदान करें ।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के आप मतदाता हो
एक वोट अमोल है, आप राष्ट्र भाग्य विधाता हो
ये मत समझना मेरे न जाने से क्या होने जाएगा
आपके न होने से देश, असक्षम को ढोने जाएगा
सामर्थ्यवान को समर्थ करेंगे मिलकर आह्वान करें
लोकतंत्र के पर्व पर निस्वार्थ होकर मतदान करें।
मत बहकावे में आकर, अपने वोट को न व्यर्थ करें
अधिकार आपका जिसे चाहते हो उसे समर्थ करें
घपला घोटालेबाजों को लोकतंत्र मंदिर नहीं पहुंचाना
पीड़ी बंशावलियों को वोट देकर और नहीं पछताना
देश लूट कर तिजोरी भरने वालों का समाधान करें
लोकतंत्र के पर्व पर निस्वार्थ होकर मतदान करें।
स्व स्वार्थ की राजनीति से लोकतंत्र गर्त में जा रहा
राष्ट्रहित परे रखकर जन-जन में फर्क किया जा रहा
यही समझना और समझाना जिम्मेवारी का काम है
सक्षम व्यक्ति को चुनकर भेजना बफादारी का नाम है
जाति-धर्म से ऊपर उठकर संविधान का मान करें
लोकतंत्र के पर्व पर निस्वार्थ होकर मतदान करें।
2 अप्रैल 2019
रचना : बलबीर राणा 'अडिग'
चमोली उत्तराखंड
00000000000
अशोक बाबू माहौर
पता नहीं
पता नहीं
मेरे घर में क्या है?
कौन सा अंधेरा है?
सारे बीमार है
हताश हैं
उदास हैं
पैसों की कंगाली
कर्ज का सैलाब है।
जहर खा लूँ
किंतु खुदखशी करना भी पाप है
शाप है
आप ही बताओ
मैं क्या करूँ?
किसे पूँजू
या संघर्ष करुँ
ताकि मुक्ति मिल सके
अथाह गरीबी से
पेट की जलन से
भुखमरी से
पीड़ा से।
परिचय
अशोक बाबू माहौर
साहित्य लेखन :हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में संलग्न।
प्रकाशित साहित्य :हिंदी साहित्य की विभिन्न पत्र पत्रिकाएं जैसे स्वर्गविभा, अनहदक्रति, साहित्यकुंज, हिंदीकुुुंज, साहित्यशिल्पी, पुरवाई, रचनाकार, पूर्वाभास, वेबदुनिया, अद्भुत इंडिया, वर्तमान अंकुर, जखीरा, काव्य रंगोली, साहित्य सुधा, करंट क्राइम, साहित्य धर्म आदि में रचनाऐं प्रकाशित।
सम्मान :
इ- पत्रिका अनहदक्रति की ओर से विशेष मान्यता सम्मान 2014-15
नवांकुर वार्षिकोत्सव साहित्य सम्मान
नवांकुर साहित्य सम्मान
काव्य रंगोली साहित्य भूषण सम्मान
मातृत्व ममता सम्मान आदि
प्रकाशित पुस्तक :साझा पुस्तक
(1)नये पल्लव 3
(2)काव्यांकुर 6
(3)अनकहे एहसास
(4)नये पल्लव 6
अभिरुचि :साहित्य लेखन।
संपर्क :ग्राम कदमन का पुरा, तहसील अम्बाह, जिला मुरैना (मप्र) 476111
0000000000
डॉ सत्येन्द्र गुप्ता
तिरोहे तीन मिसरी शायरी
वोट का महत्व
कीमत जान गए हैं हम अब अपने मतदान की
आओ मिलकर शपथ लें हम अपने मतदान की
सारे जहाँ में जय जय होवे अपने हिन्दुस्तान की
सूरज चमका है भारत में अब नये विकास का
रश्मियां फैली हैं चारों ओर भारत की शान की
तैयारी कर रहे हैं सब इस उत्सव अभियान की
आओ सब मतदान करें दिल में यह चाह लिए
ताक़त हमें देखनी है शत प्रतिशत मतदान की
लाज़ बचाए रखनी है हमें मोदी के बयान की
निर्भय हो मतदान करें हम हर जन को ज्ञान दें
आने वाली है अब तो सुन्दर बेला मतदान की
चलो अलख जगाएं मिल हम इस मतदान की
नहीं जाने देंगे देश को हम गलत हाथों मे अब
रक्षा करेंगे हम इसकी आन बान और शान की
ताक़त दिखा देंगेहम सब को इस मतदान की
---डॉ सत्येन्द्र गुप्ता
नजीबाबाद
उत्तर प्रदेश
00000000
विजय मिश्र
----गीकिका---
जितनी ही ऊंची खोली है।
उतनी ही नीची बोली है।।
जितनी नियति पुलिस की डोली।
हां नहीं किसी की डोली है।।
थाने के आगे ही लुटती।
क्योंकर दुल्हन की डोली है।
छिपा छिपा के अपनी अपनी।
सबने ही नब्ज टटोली है।
कर्जा माफी लोन में बिकती।
ये जनता कितनी भोली है।
संसद से चलता है होली।
पर हमको मिलती गोली है।
वादा तो हमसे था लेकिन।
रब जाने किसकी होली है।
अभी अभी संदेह हुआ है।
वो कब किसकी से होली है।
हिन्दू मुस्लिम वो की बातें।
इक नाहक और टिठोली है
।
वो राम और अकबर मापें।
ये कैसा दामन चोली है।
राजनीति में राज कहां अब।
सब बडे बडों की पोली है।
पथ का कांटा लगे सभी को
क्यों टीका चन्दना रोली है।
तम्बाखू थूका था उसने।
वो किस साबुन ही धो ली है।
काटे से ना कटती ये तो
क्यों फस्ल ही ऐसी वो ली है।
"विजय" जगाये जब ना जागे।
तब मानो किसमत सो ली है।
-----पीना रोको अभियान-----
विश्व युद्ध की न बने निशानी
रोको. रोको रोको. पानी।
बूंद बूंद अमृत है बेटा ।
कह कर गइ थी अपनी नानी।
जगह जगह विज्ञापन लटके।
बात किसी ने कहां है मानी।
हिम्मत होतो नल पर मिलना
डिब्बा लेकर आना जॉनी।।
हाथ पैर तोडूंगा साले।
मुझे पडेगी पुलिस बुलानी।
हर नल में टोटी लग जाये।
सुनाो जनाना सुनो जनानी।
कम्पनियो और सरकारों की
नहीं चलेगी हाथ मिलानी।
दस रुपये में पाऊच चार
कहां चवन्नी प्यास बुझानी।
नया जमाना नयी सोच अब
सभी लिखें हम नयी कहानी।
आज विजय को बुलवा लेना
बातें करता बडी सुहानी।।
विजय मिश्र
(कान्य गंगा)
0000000000
मंजुल भटनागर
मार्च आया ,गया ,
बसंत भी आया, गया
यह सब आये
गए हो जायेंगे
मार्च में सभी बहुत व्यस्त हैं
बाल बढ़े हुए
कपडे अस्त व्यस्त हैं
भाई साल समापन दिवस है
सभी अधिकारी बहुत त्रस्त हैं .
साल दर साल मार्च
अप्रैल आ कर
मू र्ख बनाते हैं
हम भी किसी मूर्ख गोष्ठी में जा कर
फूले नहीं समाते हैं
सुना है जो कुछ
टूटी सडक बनवाने के लिए एप्रूव्ड होता है
वो हम सब मिल बाँट के खा जाते हैं.
वो बच्चो के खेल के मैदान पर
पट्रोल पंप कैसे बन जाता है
क्या इससे मार्च महीने का तो
नहीं कुछ नाता है ??
या मार्च के बाद फर्स्ट अप्रैल जो आता है
अब समझे हम कि
मुर्ख बनाने के लिए यही दिन
अप्रैल फूल क्यों कहलाता है ?
--
अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर महिला संबंधित दो रचनाएँ
रचना एक.
नारी जैसे वृक्ष ,
खुशी हों तो दोनों
फूलों से सजते हैं.....
दोनों ही बढ़ते
छंटते हैं,
इनकी छांव में कितने लोग पलते हैं.....
देना ही नियति है
औरों की झोली भरना प्रकृति धूप वर्षा सहना
पेड़ की शक्ति है
दुःख सह लेना नारी की भक्ति है..
नारी से पेड़ का
एक अबूझ रिश्ता है
पेड़ चाहता है कुछ पानी कुछ खाद,
नारी चाहती है सिर्फ प्यार और सम्मान......✍
मंजुल भटनागर
रचना दो.
डाल सरीखी कमनीय
प्रेम उढ़ेलती स्त्रियाँ
कभी माँ कभी बेटी बनी स्त्रियाँ
पानी भरती पनिहारन सी
दाल बीनती चौका चूल्हा करती
धान रोपती स्त्रियाँ .
मुस्कान पिरोती ताने सहती
दुखों में भी हंस लेती स्त्रियां
चुनरी ओढ़ कर भी
हजारों दोष ढोए रहती स्त्रियाँ .
कम पहने या ज्यादा
कपडो से भी ज्यादा
लांछन पहनती स्त्रियाँ.
नदी बनती हज़ारों रंग बुनती
झील झरना और उजली बरसात सी होती हैं स्त्रियाँ. मंजुल भटनागर
मंजुल भटनागर
0000000000000
सुनील गज्जाणी
दरवाजा है मगर दीमकों का घर हो चुका है
घर था जो विवाद मे अब मकान हो चुका है !
खानाबदोश वे बस्तियां है ,उनका रिवाज नहीं
इमारतो मे जाने क्या-क्या चलन हो चुका है !
बच्चा है ,मत बांटों इन्हे किसी इंसानी धर्म मे
पर आज ,वक़्त से पहले ये जवान हो चुके है !
मेरी सूरत, सवालों भरी नज़र से मत देखो
हर दौर देखा ,चेहरा वक़्त का गवाह हो चुका है !
लत लग चुकी है तुझसे मिलने की अब तो
मगर बन्दिशे यूँ मानो घर सरहद हो चुका है !
(२ )
यायावर हूँ साथ मनमौजी भी बस निकल पड़ता हूँ
फ़कड ज़ेब अपनी तो हर गली-मौहल्ले में विचरता हूँ !
गली-मौहल्ला,नुक्कड-चौराहा पूरा शहर मैं परखता हूँ
समाज सब धर्मो में रह मैं इनका मर्म समझता हूँ !
चप्पा-चप्पा मेरे शहर का जी भर कर मैं निरखता हूँ
शहर की सौंधी खुश्बू मेरे रगो में इसी दम पे जीता हूँ !
संतो-मुल्लो कि रूहानी बाते बस सत्संग में रम जाता हूँ
सब धर्म समान तभी अपने शहर पे इतराता हूँ !
@ सुनील गज्जाणी
--
Sunil Gajjani
President Buniyad Sahitya & Kala Sansthan, Bikaner
Add. : Sutharon Ki Bari Guwad
Bikaner (Raj.)
http://www.aakharkalash.blogspot.com
0000000000000
कृष्ण कुमार चन्द्रा
गीत
मरम दर्द का
दर्द ने पाला हमें
दर्द ने पोषण किया
घर से बेघर यात्रा
जान देने को अड़े
राज राजा कंस भी
कृष्ण के पीछे पड़े
किस-किस का नाम गिनें
सभी ने शोषण किया
कैकई को देखिए,
होलिका भी जल गयी
सब देखे सीता को
आग में भी चल गयी
तंज धोबी ने कसा
दोष आरोपण किया
दर्द देता साथ है
दर्द को सीने लगा
चल के काँटों पर ही
पाँव में छाले उगा
जो मिला वनवास भी
राम ने तोषण किया
दर्द छोड़े साथ तो
फिर कहाँ होता सृजन
दर्द मीठा भी लगे
और दे मीठी चुभन
दर्द को परखें सभी
ईश ने रोपण किया
--
पुलवामा की पीड़ा
चीख-चीख कर पुलवामा की
धरती करे पुकार।
छलनी-छलनी छाती मेरी
बहे रक्त की धार।
हृदय विदारक इस घटना की
मैं क्यों बनी गवाह
आते-जाते लोग कहेंगे
मुझे अभागिन राह
मुझको पीड़ा देने वाले
तुझको है धिक्कार
बिलख रही है आज सुहागिन
छाया है अँधियार
मुनिया पापा को पूछे तो
मुन्ना झाँके द्वार
सुध-बुध मात-पिता ने खोये
ममता रही निहार
लोट रहे सीने पर विषधर
यही कहानी रोज
रावण जैसा अट्टहास है
हर दिन उनकी मौज
सरकारें बँधुवा लगती हैं
फौजी हैं लाचार
बरस बरस कर बादल रोया
जतलाता अनुराग
बूँद-बूँद न्योछावर करके
धोता मेरी दाग
पर पीड़ा की परख किसे है
कौन करे मनुहार
कृष्ण कुमार चन्द्रा
00000000000
खान मंजीत भावड़िया मज़ीद
जब मैं
बहुत छोटा था
उस समय
मरे पडोस के
पास एक बकरी
थी जो बहुत सारा
दूध देती थी
पुरे परिवार के लिए चाय
का इंतजाम करती वो एक दफा
दूध देना बंद कर गयी
जो की बाद मैं वह गर्भवती भी
नहीं हो सकी लेकिन
मेरे पड़ोसी ने उसे बेचा नहीं
बल्कि गरीबी आने के
कारण उसने उस बकरी को
ही काट डाला
और उसका
मांस बेच दिया
जिससे उस घर का
गुज़ारा कई दिन
चला उस
परिवार ने उसे
भाग्यशाली माना
फिर वो और बकरी लाये
उन बकरियों को पल कर
अपना गुज़ारा करने लगे
और एक नयी जिंदगी
जीने का अवसर मिला
खान मंजीत भावड़िया मज़ीद
गांव भावड़ तहसील गोहाना जिला सोनीपत १३१३०२
00000000000
अनिल कुमार
'जिन्दगी का हिसाब'
चन्द लम्हा जिन्दगी
कुछ पल का साथ
खुशियाँ थोड़ी
मुश्किलें बेहिसाब
सुख-दुख के साथ
जीवन भागम भाग
जरुरतें अधूरी
ढेरों काम-काज
फुरसत कहाँ
भीड़ में भी तन्हा
हँसी चन्द लम्हा
दुख, दर्द बेहिसाब
फुरसत मिले
कुछ पल जीने की
तो सोचूँ
जिन्दगी चार दिन
मुश्किलें हर दम साथ
फिर क्यों भागम भाग
पर निरुत्तर
कुछ क्षण बाद
विचारों में
आवश्यकताएँ बेहिसाब
फिर भूल
चन्द लम्हा जिन्दगी
कुछ पल का साथ
लग गया गवाँने
जिन्दगी की
अनमोल साँस
छोटी-सी जिन्दगी
बहुत है नायाब
लगा रहा मैं बैठा
जिन्दगी का हिसाब।
अनिल कुमार, वरिष्ठ अध्यापक 'हिन्दी'
ग्राम देई, जिला बून्दी, राजस्थान
00000000000
सविता दास
---आगमन होता
डूबते सूरज के साथ
एक वादा सुकून का होता है
आपाधापी दिनभर की
इस कगार पर आकर
थोडा थम जो जाती है
नदी के सीने में
धीरे-धीरे आश्रित होता
मानो सुनहरे और लाल
रंग से पुलकित करता
लहरों को
डूबकर खुद को
समर्पित करता,
प्रणय का दृश्य रचता
इस बदलते प्रहर के साथ
तमस को ओढ़ लेता बरबस
पर एक प्रण ये भी लेता
की फिर आगमन होगा
जीवन में
मयंक का, जुगनुओं का
टहनियों में फिर सुर छेड़ती
आशाओं के पंछियों का
और फिर एक शाश्वत
रौशनी का।
--
निमित्त बनना है
-------------------
देखा जब पत्ते को
वृक्ष से अलग हो
ज़मीन पर गिरते हुए
असहज हुआ मन
यह सोचते हुए
की नाता अब टूट गया
इसका शाख से
क्या पछतायेगा
पत्ता या दुःखी होगा
तरु
पर नहीं, ऐसा नहीं
फागुनी हवा से
अटखेलियां कर
अपने पूर्णत्व को पाकर
माटी पर आया है
दर्प होगा इसे
सहायक रहा प्रकृति का
जीवन भर
अब शेष कर्त्तव्य निभाना है
धरा के कणों से मिलकर
निमित्त नवांकुरों
बनना है।
सविता दास
तेज़पुर, असम
000000000
लक्ष्मीनारायण गुप्त
अधूरापन
क्या तुम्हें भी कभी कभी ऐसा लगता है
कि तुम्हें किसी चीज़ की तलाश है
लेकिन क्या? कुछ कह नहीं सकते
कुछ अधूरापन जो कचोटता है
कहीं कुछ छूट गया है
या जिसे कभी नहीं पाया है
कुछ जो मिल पाता
जिससे जीवन सम्पूर्ण हो जाता
अन्तर्मन से पुकार आती है
किन्तु कुछ भी स्पष्ट नहीं है
चित्र धुँधला है
आवाज़ धीमी है
समय कम है
रास्ता मालूम नहीं है
चलते जाना है
लेकिन कहाँ और किधर
अब कदम लड़खड़ाने लगे हैं
धैर्य का बाँध टूटने को है
लेकिन खोज ज़ारी है
और जारी रहेगी
विकल्प स्थिरता है
और स्थिरता मौत है
इस लिये यदि कदम लड़खड़ायें
तो भी चलते ही जाना है
—-लक्ष्मीनारायण गुप्त
000000000
मंजुला राव
सुना है कोई चार लोग हैं,
जिन्हें बड़ी फिक्र है मेरी,
कभी देखा तो नहीं उन्हें,
लेकिन वे रखते हैं
मेरी हर बात का खयाल...
मेरे सोने से लेकर जागने तक
मेरे उठने से लेकर बैठने तक
मेरे खानपान से लेकर,
मेरे चालचलन तक,
हर बात का हिसाब है उनके पास,
मेरे हर काम पर रखते हैं नजर,
करते हैं विचार विमर्श,
फिर निकालते हैं निष्कर्ष
और देते हैं
प्रमाणपत्र मेरे केरेक्टर का
भले ही होंगे शायद..
वर्ना आजकल ऐसे लोग कहाँ
जो करें दूसरों की चिंता..
बड़ी तमन्ना है उनसे मिलने की
क्या होंगे कदाचित हम जैसे ही वे,
लोगों की व्यस्त भीड़ में
ढूँढना चाहकर भी
नहीं ढूँढ सकी मैं उन्हें..
आते कहाँ से हैं ये चार लोग
और यूँ इस तरह लोगों का
केरेक्टर एनालिसिस कर
कहाँ हो जाते हैं गुम...
अगर कभी कहीं आपको मिलें तो
मुझसे भी मिलवाना
क्योंकि मुझे उन्हें है बताना
कि
हर बार जो दिखता है
वो होता नहीं
और जो होता है
वह अक्सर दिखाई नहीं देता...
0000000000000
शिवम अतापुरिया "निमोही
निर्झरणी
निर्झरणी वो प्यार की
हर वक्त हर खुशी
सभी लहरें हो
सावन बहार की
निर्झरणी वो प्यार की
आसमान से टूटी
बूँद पर चौकसी
मिट्टी के हर सुकुमार की
निर्झरणी वो प्यार की
बादलों की बूंद को
गोद में लेने को
क्यों तरसती है
मिट्टी रेगिस्तान की
निर्झरणी वो प्यार की
हर वक्त पर गिरती रही
सामाँ सी झरती रही
फूलदानों की तरह
बनकरके वो फब्बार सी
निर्झरणी वो प्यार की
रचयिता
शिवम अतापुरिया "निमोही"
पता
अन्तापुर ,हथूमा ,कानपुर देहात
उत्तर प्रदेश (भारत)
shivamyadavsingh812@gmaïl.com
00000000
हरेन्द्र रावत
मैं दीवाना मस्तराम, शब्दों से शब्द मिलाता हूँ,
सभ्यता गंगा-यमुना की जन जन तक पहुंचाता हूँ,
धरती मां को शीश झुका कर कविता रोज बनाता हूँ,
परंपरा और संस्कृति की अमर ज्योति जलाता हूँ,
हर पंक्ति में जोश भरा है और जवान सीमा पे खड़ा है,
जब भी संग्राम हुआ पाक से हर बार वह पाँव पड़ा है !
ये है फितरत पाकिस्तान की आतंकी को पाल रहा है,
आर्थिक तंगी, इज्जत बचाने स्वयं कटोरा लिए खड़ा है !
मैं रहता मदमस्त सदा, अपनी सियत बनाता हूँ,
मैं दीवाना मस्तराम शब्दों से शब्द मिलाता हूँ ! 1 !
सुबह सबेरे लाली सूरज की नैनों में बसाता हूँ,
12 नामों की माला फेरकर जल अभिषेक कराता हूँ !
हर फूल को ग्रह बनाकर माला उसकी बनाता हूँ,
सुबह की आरती गागा करके त्रिदेव तक पहुंचाता हूँ !
तुलसी रचित हनुमान चालीसा, बजरंगी को सुनाता हूँ,
जरा अकल दे पाकिस्तान को अपनी इच्छा बतलाता हूँ !
जीवन के हर मोड़ पर, सावधानी से कदम बढ़ाता हूँ,
पाक के नापाक इरादों पर चिंगारी ही सुलगाता हूँ !
अपने देश को स्वर्ग बनाने रंग बिरंगे फूल खिलाता हूँ,
मैं दीवाना मस्तराम, शब्दों से शब्द मिलाता हूँ ! 2 !
कभी कभी ये मिले शब्द आइटम बम बन जाते हैं,
यही वजह है देश के दुश्मन नजर उठा नहीं पाते हैं !
की गुस्ताखी पाकिस्तान ने और पुलवामा कांड किया,
हमने पाक के भीतर जाकर आतंकी कैम्प को जला दिया !
उन्होंने छिपकर 40 मारे अपने तीन सौ गँवाए हैं,
अपने फ़ाईटर बम गिराके बालकोट से सकुशल लौट आए हैं ! ( बालाकोट आतंकियों का ट्रेनिंग कैम्प)
मिग 21 की दुर्घटना, यफ 16 हमने भी मार गिराया था,
हमारा वीर फाइटर अभिनन्दन को पाक ने बंदी बनाया था,
प्रधान मंत्री ने पाकिस्तान पर जब यूयनओ का प्रेशर डाला,
सीना तान के लौट आया, अभिनंदन पड़ी गले में माला !
रंगीन तबीयत चेहरे पर मुस्कान, हँसता और हँसाता हूँ,
मैं दीवाना मस्तराम शब्दों से शब्द मिलाता हूँ ! 3 !
हरेन्द्र रावत
00000000
हरीश सेठी 'झिलमिल'
जीवन का अंतिम पड़ाव
जीवन के
अंतिम पड़ाव पर
बैठी स्त्री
स्मरण करती है
बार बार
बचपन से
बुढ़ापे तक का सफर
संन्यास आश्रम की
इस पगडंडी पर
अनायास ही
प्रस्तुत हो
उठते हैं
चित्र
आँखों के सामने
पिता,पति ,पुत्र
के प्रतिबंध
मीठे, खट्टे, कड़वे पल
माँ, बहन, बेटी, बहू
संग बिताया
एक एक पल
बूढ़ी नज़र
बीनती कंकर
वृद्ध काया
करती मूल्यांकन
जीवन में
क्या खोया
क्या पाया।
0000000
महेन्द्र देवांगन माटी
परीक्षा की तैयारी
( सार छंद)
प्रश्न सभी तुम हल कर डालो , अच्छे नंबर पाओ ।
करो परीक्षा की तैयारी , अव्वल नंबर आओ ।।
पढ़कर जाओ प्रश्न सभी को , लिखकर पूरा आओ ।
कर लो अब उपयोग समय का , व्यर्थ नहीं गंवाओ ।।
उठ जाओ जल्दी सोकर के , आलस को अब त्यागो ।
लक्ष्य अगर हासिल करना है, झटपट जल्दी जागो ।।
अर्जुन जैसा लक्ष्य रखो तुम, अचुक निशान लगाओ ।
करो परीक्षा की तैयारी , अव्वल नंबर आओ ।।
घबराना मत प्रश्न देखकर, शांति पूर्वक विचारो।
समाधान चुटकी में होगा, जीवन फिर सँवारों ।।
तांक झांक मत करना बच्चों, अपने आप बनाओ ।
मिल जायेगी मंजिल तुमको , जग में नाम कमाओ ।।
नाम करो सब मातु पिता का , सच्चे पूत कहाओ ।
करो परीक्षा की तैयारी , अव्वल नंबर आओ ।।
देखो मत मुड़कर पीछे अब , आगे बढ़ते जाओ ।
नाम परीक्षा का लेकर के , कभी नहीं घबराओ ।।
कंटक पथ पर आगे बढ़कर , तुम पद चिन्ह बनाओ ।
इस माटी का कण कण पावन, माथे तिलक लगाओ ।।
भूलो मत संस्कार कभी भी , चरणों शीश झुकाओ ।
करो परीक्षा की तैयारी , अव्वल नंबर आओ ।।
महेन्द्र देवांगन माटी
पंडरिया (कबीरधाम)
छत्तीसगढ़
mahendradewanganmati@gmail.com
000000000000
अशोक गुजराती
।।कविता।।
अटकल
अशोक गुजराती
अपने प्रेमी या प्रेमिका से
पश्चात शुरुआती आकर्षण के
लेना मुंह मोड़
भष्ट-आचार है सरासर
डुबोयी न नैया एक की इसीने ?
असहनीयता जगायेगी ही
बाद मुहब्बत के
हो चुकने पर समागम
की गयी बेवफ़ाई
ले जा रहा यह बरबादी की राह
दूसरे को
क्या सच नहीं होगा यह भी ?..
0
सामर्थ्य
अशोक गुजराती
किस मायने में कम हो
तुम मुझसे
मैं तो महज़ मूड आने पर
लिखता हूं
तुम लगी रहती हो दिन.रात
कभी रसोई में
क्षण भर बाद धूल भरे
डाइनिंग टेबिल को करती साफ़
फिर स्टोर में ढूंढती यह.वह चीज़
बर्तनों.डिब्बों को रखती यथास्थान
कभी चादरें तह करती
बिछाती कभी पलंग पर
और तो और
कूड़े का एक तिनका या धब्बा
नहीं कर पाती तुम सहन
काटती सागए बघारतीए बेलती रोटियां
लगातार तुम कैसे रह लेती हो
इतनी व्यस्त घ्ण्ण्ण्
नहाने जाती हो
चौबीस घण्टों की चिपकी अदृश्य गर्द
ज्यों अलग.अलग अवांछित प्रसंग गुज़रे हुए
करता हूं मैं रद्द
हटाती हो अपने तन से याकि मन से
साफ़.सुथरी एक छवि न्यारी.सी
ठोस कथानक के माफ़िक़
निखर आती है नवीन व सुंदर
भिगोती हो कपड़े शुरू में
जैसे मैं घटनाओं को
अंतर्जल में करता हूं लथपथ
घिसती होए फिंचती होए पछाड़ती हो
बिलकुल मेरी तरहा
स्वच्छ जल से अब प्रक्षालन
मानो अभिषेक हो
किसी रचना का प्रज्ञा के मेह से
अंततः खंगाल कर निचोड़ना
गोया दिला रहा होता हूं मैं निजात
अपने लिखे को जल बूंदों.से व्यर्थ संदर्भों से
पश्चात इसके फैलाती अलगनी पर
ज्यों पाती हो रचना आख़िरी विस्तार
नहींण्ण्ण् वह भी मैं भूला नहीं हूं
बच्चे थे जब छोटे
चुरा लेते थे तुम्हारा अधिकांश समय
सुबह जगाकर उन्हें लाड़ से
स्नेह.भरी डांट की बौछारों बीच
तैयार कर भेजना स्कूल टिफ़िन के साथ
फिर शाम को कराना उनका होमवर्क
लगता लिख रहा हो कोई
छौनों के माथे पर
ममता.भरी कविताएं
स्वीकारता हूं मैं
तुम्हारा सजाना यह सुगठित संसार
भारी ही पड़ता है
तौल मेंए तुलना मेए भराव में
लेखन पर
कि परिवार को देता है भरपूर
सुख.सुविधा.समृद्धि वह
यह पहुंच ही नहीं पाता पास उसके
लिखा है जिसके लिए
000
मत कुढ़ो!
अशोक गुजराती
आने दो
बारिश को आने दो
चाहे निकाल लो
अपना छाता, अपना रेनकोट
या भीगो सर से पांव तक
पर न खीजो इससे
यह रोक सकती है
किसान की आत्महत्याएं
और सरकार की वर्जनाएं
इससे होगा मौसम ख़ुशनुमा
यह पहुंचायेगी रोटी
अन्नदाता तक
लहलहायेगी उसकी फ़सल
कर देगी तुम्हारा जीवन भी सरल
सुगंध इसकी बस जायेगी
तुम्हारे रोम-रोम में
खेत से बहकर सीधे
तुम्हारी सुबह, तुम्हारी शाम में
तुम्हारी तृप्ति
हो सकता है
सिद्ध हो प्रतिभूति
ऋण चुका दे खेतिहर का
गर वह, उसका परिवार
बच गया
बरसात के साथ देगा
तुम को भी दुआ!
0
।।कविता।।
काश !
अशोक गुजराती
उनको अक्सर ठसका लगता रहता है
हिचकियां भी आती हैं
इस उम्र में वे इसे स्वाभाविक मानते हैं
सुना-सुनाया है कि
कोई बेतरह याद करता है
तब ऐसा होता है
वे बारहा सोचते हैं
काश कि उन्होंने इतने
चाहने वाले न जुटाये होते...
0
।।कविता।।
बस, इतना ही
अशोक गुजराती
गुच्छे में पांच-छह
फूल सफ़ेद संग-संग
पत्ते भी पचासेक जुड़े-जुड़े
टहनी के अंतिम छोर पर
पता नहीं क्या नाम है
उस दस-बारह फ़ुट ऊंचे
छोटे-से पेड़ का
सच यह है ज़रा-सी हवा के
चलते ही झूम उठते थे सब के सब
सुहावना हो जाता था
मौसम वह उमस का थोड़ी देर के लिए
मुझे वहां सड़क के किनारे
बैठे हुए पुल पर लगा यह
वे फूल ज्यों चन्द बुद्धिजीवी
पत्तों का समूह जन-सामान्य
नहीं, नहीं, मैं क़तई पक्ष में नहीं
आंधी-तूफ़ान के उखाड़ दे जो
उस पेड़ की सुंदरता
मैं बस इतना ही था सोच रहा
वर्तमान असंवेदनशीलता, असहिष्णुता के
अराजक वातावरण में
हवा के झोंके आकर लगातार
क्रांति-सी जुम्बिश करते रहे पैदा
उन फूलों-पत्तों में करे जो बहाल
अहिंसा, सच्चाई, ईमानदारी, समानता का
असाम्प्रदायिक, अजातिवादी, धर्मनिरपेक्ष
ख़ुशनुमा माहौल
कि कोई गायों के बहाने
न करे क़त्ल किसी का
कि कोई दलितों-किसानों
के स्वत्व को ना कुचले
कि कोई तानाशाही के तहत
खाने-पीने-पहनने-ओढ़ने
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को न रखे रेहन
कि कोई माइक पर झूठे
वादों का मुलम्मा चढ़ा
बिना सोचे-समझे लागू न करे
नये-नये प्रावधान
कि कोई छल न करता रहे
मानव के मूलभूत अधिकारों के साथ...
0
प्रा. डा. अशोक गुजराती, बी-40, एफ़-1, दिलशाद कालोनी, दिल्ली- 110 095.
0000000000000000
बीरेंद्र सिंह अठवाल
बेटी बचाओ। बेटी पढ़ाओ।
-ढूँढ़ते रह जाओगे -
कोई उनसे तो पूछकर देखो, जिनकी शादी न हुई कैसे वो
अंधी हसीनों की आंखों में काजल ढूंढ़ते हैं।
बिन बारिश के जैसे बादल को ढूंढते हैं।
कैसे वो अपाहिज हसीनों के पैरों में पायल ढूंढते हैं।
जैसे अनाथ बच्चे मां के आंचल को ढूंढते हैं।
बे जुबान हसीनों के होठों पे वो ग़ज़ल ढूंढते हैं।
जैसे पशु - पक्षी जंगल को ढूंढते हैं।
बेटियों की हत्या न करो -ए -लोगों,
एक दिन बहुओं को ऐसे ढूंढोगे
जैसे डूबने वाले साहिल को ढूंढते हैं।
ये दुनिया रह जायेगी, खाली -खाली।
न बहू मिलेगी, न रहेगी साली।
न रहेंगे झुमके, न रहेगी बाली।
न रहेगा मेकअप, न रहेगी लाली।
बहू सुंदर देखने की,लड़के करते हैं गुजारिश।
मगर बेटियों का भ्रूण मिलता है,कचरे के डिब्बे में लावारिस।
फेंक जाते हैं समझकर,एक मिट्टी का खिलौना।
खुद के लिए कर लेते हैं तैयार,कांटों का बिछौना।
क्वारों का दिल धड़कता है, शादी के लिए।
बेटी हुई तो मां -बाप ने कुआं, खोद रखा है शहजादी के लिए।
भाई तरसते रह जाएंगे, राखी के लिए।
खुदा की अदालत में माफी नहीं, इस गुस्ताखी के लिए।
शर्म ओर दया की फैक्ट्री, सिल हो गई।
बेटियों के रक्त की, झिल हो गई।
भ्रूण हत्या की डॉक्टरों के साथ, डील हो गई।
ये सोचने का मौका भी न मिलेगा, कि फिल हो गई।
न कफ़न न जनाजा, ऐसी मौत मिले बे जुबां जानों को।
न चिता न आंसू ,किसी को आवाज तक भी सुने न कानों को।
इस गलत फहमी में न रहना -ए लोगों, खबर हो जाती है आसमानों को।
धीरे -धीरे मिलती है सजा,बेरहम बेईमानों को।
समाप्त
Birendar Singh अठवाल
जींद हरियाणा
00000000000000
नाथ गोरखपुरी
01- मंजिल
मंजिल मुझसे भले दूर है,
पांव तो मेरे अपने हैं।
अगर हकीकत कर न सके हम ,
तो बेकार वो सपने हैं।।
पंख मिले है पंछी तुमको
उड़ने से क्यों डरते हो?
ऊँचा आसमान देखकर,
डर डरकर क्यों मरते हो?
पंखों में है जान तुम्हारे,
हिम्मत बस दिखला जाओ।
आसमान से ऊँचा उड़कर ,
उसको सबक सिखा जाओ।।
बोलो कब किसी प्यासे की,
बिन पिये प्यास बुझ जाती है?
बेसुध सोने वालों को बोलो,
कब राह नजर आ जाती है?
छाले पड़े पांवो को सुन लो,
आखिर चलना पड़ता है।
मंजिल पाने की खातिर,
'नाथ' निकलना पड़ता है।।
02-चुनावी ग़ज़ल
वो देख्खो बुलेट ट्रेन आ रही है, सांसदों के गाँव से
सौ स्मार्ट शहरो से निकलेगी, छुपकै ही दबे पाँव से
सांसदो के गोद लिये गाँव, आखिर चलने ही लगे
दौड़गें अब तो वो और तेज, उन्नीस के चुनाव से
सूनो ! जनता जब खुद, बन ही गयी चौकीदार
तो कांपेगें भ्रष्टाचारी अब,काला धन के जमाव से
नाली के गैस से बेरोजगारों, तलो डिग्री के पकौड़े
प्यास बुझालो अविरल , स्वच्छ गंगा के बहाव से
जनतंत्र में जब जनता का , नेता होते हैं गुलाम 'नाथ'
तो करते नेता की गुलामी ,क्यों किसके दबाव से
03-गज़ल
बड़ा मुश्किल है दुनिया में जीना खुदा
पड़ता पग पग है विष को पीना खुदा
जख्म पर जख्म देते हैं अपने सभी
सब सह सहके पड़ता है सीना खुदा
आज तक है आया ,ना कुछ भी समझ
पढ़ते हैं मुद्दतों से सफीना खुदा
प्रेम में है गुजारा , ना इक पल कभी
कहते, है प्रेम का ये महीना खुदा
सच्चे बनते हैं दुनिया में वो भी सभी
नाथ आये तेरे दर कभी ना खुदा
मरा जो बेमौत आशिक सनम के वादों से
इश्क का था वो अनमोल नगीना खुदा
04- हाल-ऐ-संसद
सड़कें अब सुनसान हो गई संसद हुआ आवारा है
देखो दलके दलदल ने नेता नया उतारा है
काम सियासत थी जिनकी अपनी गरिमा भूल गये
सत्ता हाथ में आ जाये बस बेशर्मी पर तूल गये
नेता एक्टर बने हुये हैं एक्टर नेता बन जायेगा
तब इक एक्टर दूजे एक्टर को एक्टिंग करना सिखलायेगा
लोकतंत्र है जनता तो ,अब है ही दर्शक बनी हुई
राजनीति भी फिल्मों जैसी है आकर्षक बनी हुई
संसद फिल्मसीटि बन ही गई किसी नेता ने आँखे मारा है
सड़कें अब सुनसान हो गई संसद हुआ आवारा है
जब चुनाव में नये नये वादों को परोसा जाता है
नेताओं के बातों का करना, जनता को भरोसा आता है
पिछले वादों का हाल नहीं, कभी भी पुछा जायेगा
नये वादों में हर वोटर फंसके आपस में टकरायेगा
नेता आपस में मिलकर , सत्ता को हथिआयेंगें
वोटर चमचे बनकर के , आपस में लड़ जायेंगें
बोलो कब किसी वोटर ने पिछले वादों को ललकारा है
सड़कें अब सुनसान हो गई संसद हुआ आवारा है
मस्जिद मंदिर वोट की खातिर दौड़े भागे जायेंगे
जाति जाति के लोग मिलेंगें जातिवाद मिटायेंगें
दिल में तो गद्दारी होगी ,बोलेंगे हिन्दोस्तान हमारा है
सड़कें अब सुनसान हो संसद हुआ आवारा है
05-(तीन शे'र)
01
झूठ ने सच का कत'ल कर दिया,
इस खबर की शहर को खबर ना लगी।
02
'नाथ' तुमको ऐ शहर खबर क्या करें ?
सच ने सच में खुद को दफ़न कर लिया।
03
सच के खरीददारों को है आज लाले पड़े,
'नाथ' वो देखो झूठ फल फूल रहा।
06- सवैया छन्द
कल जो थी होलिका जग में जु प्यारे सुन
आज वही होलिका इक खाली आग है
कल जो गुलाल लाल प्रेममद से भरा
आज वही रंग बदरंग खाली दाग है
खुद ना घमंड करू वक्त को समझ प्रिय
'नाथ' तू ही शीर्ष है तो वक्त की ही मांग है
शाम ढलते ही सुर्य कुंभिलात प्रिय
चाँद डूब जात होत ज्यों ही प्रभात है
जिंदगी ही मौत है मौत में ही जिंदगी
जीव इस खेल में काहें घबरात है
वर्षो की रीति प्रीति पल में ही टुट जात
बाप बेटा 'नाथ' इक दूजे से डरात है
सच का ठिकाना नहीं दुनिया के जाल में
यहुं तो पग पग झूठ बढ़ि जात है
तोरे मुंह मीठ मीठ निक बोले बालन ही
पीठ पीछे तोरे मन भर गरियात है
झुठ सीनातान चले बीच ही बजारन में
चलत में काहें 'नाथ' सच सकुचात है
वकत ही राजा यहां हम सब सेवक ही
जवन चाहे गीत उ गाके चलि जात है
वकत की कीमत आजु जो नाहि जानै
वोहु कालि हाथ मिजि मिजि पछितात है
समय सचेत नाथ लीन्हि आशीष नाथ
'नाथ' के ही पीछे देखि नाथ चलि जात है
--
लहर मन्नतों की चली
फिर वो पैदा हुआ,
वो पैदा हुआ फिर,
चल पड़ी इक लहर ।
माँ के खुशी का
ठिकाना ना था,
बहन के पास
बहाना ना था,
पिता ने पास आके
गालो को छुआ था
दादा को वंश बढ़ा
ये महसूस हुआ था
वो बड़ा हुआ जिम्मेदारियाँ
संभाल लिया
कम उम्र में ही दुश्वारियां
संभाल लिया
माँ बाप भाई बहन
पत्नी और बच्चे
इन सब से उसके
रिश्ते थे सच्चे
उस परिवार में खुशी
गई थी ठहर
वो पैदा हुआ फिर
चल पड़ी इक लहर
वो सीधा सादा था
मगरूर ना था
पर विधाता को ये
मंजूर ना था
रोगरूप में काल
आ पड़ा था
परिवार की नईया
में ज्वार आ पड़ा था
एक रात को पुरजोर से
लगा छटपटाने
जैसे कोई कीड़ा लगा
अंदर से काट खाने
चार घंटे तक सहा
उस भयंकर दर्द को
काल भी कांप गया
देख ऐसे मर्द को
हालत गंभीर
काल भी समीप था
पर उससे पहले पत्नी का मरना
यमराज का टिप था
वो जूझने लगा
आर्थिक तंगी से
पिता को भी लकवा मार गया
जो जंगी थे
वो भी तड़प रहा था
मृत्यु के मुहाने पे
तब तक दादा गुजर गये
उम्र के बहाने से
यह भी दुख वो
जब तक करता सहन
खबर आई रिश्ते से कि
गुजर गई बड़ी बहन
उस परिवार पर काल का
था अनोखा कहर
वो पैदा -------------------
एक छोटा बच्चा था
जिसका सब कुछ लूट चुका
और इधर उसका भी
दाना पानी छूट चुका
तीन महीने बीत गए मौत
के इंतजार में
अक्सर शाम को रोना शुरु
होता था परिवार में
एक शाम उसकी आंखे
उलटने लगी
काया था सुख चुका
मुसीबत पलटने लगी
उसने अपनी माँ से कहा
बच्चे का ख्याल रखना
अब मैं ना बचूगाँ
पर ना कोई
मलाल रखना
एक पल में उसकी
सांसें थी रुक गई
वो होश में आया तो
उसकी दादी थी झुक गई
एक मौत और उसके
हो गई थी सामने
धैर्य देने लगे लोग
लगे हाथ थामने
उठ के बैठने में उसे
लग गई थी इक पहर
वो पैदा हुआ
फिर चल पड़ी इक लहर
माँ भाई मिलके घर को
चलाने लगे
रूखी सुखी खाके
पैसे बचाने लगे
भाई को उम्मीद थी
भईया बच जायेंगे
जब पैसे देके
डॉक्टर को दिखायेंगे
कुल सात या आठ
दिन बीते थे
माँ भाई मिलके
कपड़े को सीते थे
रोजाना की तरह काम में
भाई उस दिन उलझा था
यमराज का काम भी
अभी तक ना सुलझा था
घर से दुर इक पुराना
कुआं था
भीड़ लगी थी शायद
कुछ हुआ था
देखा जब उसने तो
काम धाम छोड़कर
जा पहुँचा भीड़ पास
तेजी से दौड़कर
सर फटा रक्तरंजित
कुयें में गिरने का नतीजा था
चेहरा देखा तो
वह उसी का भतीजा था
उसे इस हाल में देखकर
रोने लगा
पानी से भतीजे के सर को
धोने लगा
हालत गंभीर थी अस्पताल
लाया
पैसे लाओ डॉक्टरों ने
फरमाया
किसी पड़ोसी ने अपना हक
जता दिया
कुयें वाली घटना उसकी माँ
को बता दिया
कि तुम्हारा नाती कुयें में
गिर गया
खून में डूबा है फट उसका
सिर गया
हालत बड़ी नाजुक है
खून जादा गिर गया
देखते उसे डॉक्टरों का
माथा फिर गया
ऑपरेशन करना होगा
जो बड़ा जरूरी है
बिन पैसे होगा नहीं
ये हमारी मजबुरी है
ये सब सुनकर उसकी माँ
सदमें में आ गयी
बस कुछ पल में ही
इस दुनिया से परा गयी
बिस्तर से उठ न सका
जो था कोने लगा
माँ को देख वहीं से जोर
भर रोने लगा
उधर भाई भतीजे खातिर
परेशान था
घर की घटना से वह
बिल्कुल अन्जान था
डॉक्टरों को पैसे कैसे
दें सोच रहा
मन में विचारते वह घर की
तरफ लौट रहा
सोच रहा कह दूंगा
माँ से सब ठीक है
बाबू वहीं खेल रहा
बागीचा जो नजदीक है
भईया पूछेंगें तो बातों
को टाल दूंगा
चुपचाप जमा पैसे
बक्से से निकाल लूंगा
माँ से बोल दूंगा दवा
लेना है भईया का
इधर ला के पैसा दे दूंगा
भतीजे की दवइया का
यही सब सोचते हुये
तेजी से जा रहा था
ट्रक ने उसे रौंद दिया
जो पीछे से आ रहा था
हे प्रभु कैसा ये तेरा
इंसाफ है
उसके माँ भाई बेटे
तीनो ही साफ हैं
- नाथ गोरखपुरी
एम एड्-प्रथमवर्ष
दी द उ गो वि वि गोरखपुर
सभी रचनाकारों को जितनी आत्मीयताओर समर्पण भाव से आप प्रोत्साहित कर प्रकाशित करते हैं,उतनी संजीदगी से रचनाओं के लेखन में सुधार-संशोधन कर पुनर्लेखन की कोशिश जरुरी है.कथ्य में अनावश्यक विस्तार,दुहराव और त्रुटियों पर नवागतों को ध्यान देना श्रेयस्कर है. सभी नामी रचनाकारों और नवागत कवि मित्रों को हार्दिक शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंरचनाओं में सुधार-संशोधन और पुनर्लेखन तो रचयिता ही कर सकता है. ऑनलाइन संपादन में जहाँ त्वरितता और प्रचुरता है, वहाँ समयाभाव से यह संभव ही नहीं है. लेखन प्रक्रिया निरंतर उत्कृष्ट, उन्नत होती रहने वाली प्रक्रिया है, अतः स्वयमेव सुधार अपेक्षित ही है. अलबत्ता पठन पाठन में त्रुटियों और अनपेक्षित स्तर की रचनाओं से बाधा होती ही है, मगर यहाँ भी सामग्री प्रचुर है. शुद्ध, स्तरीय और मनोरंजक का अभाव कहीं भी नहीं झलकेगा. :)
हटाएंMujhe desh bhakti song chiye
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