कहानी "मतदान" सोकर उठते ही सबेरे-सबेरे पारुल अपनी छोटी बहिन प्रिया को लगातार थप्पड़ पर थप्पड़ मारती चली जा रही थी और जो...
कहानी
"मतदान"
सोकर उठते ही सबेरे-सबेरे पारुल अपनी छोटी बहिन प्रिया को लगातार थप्पड़ पर थप्पड़ मारती चली जा रही थी और जोर-जोर से डांट रही थी कि पहली बार वोट डालने की मेरी बारी आई, तो तूने मेरी आलमारी से मेरा आधार कार्ड ही निकाल कर फाड़ डाला। तेरी उम्र तो अभी 18 वर्ष हुई नहीं, इसलिए तू तो मतदान कर नहीं सकती, तो मैं भी मतदान न करूँ। यही सोंचकर तूने मेरा आधार कार्ड फाड़ दिया।
प्रिया रोती हुई बार-बार कहे जा रही थी–दीदी सुनो तो, मैंने तुम्हारी आलमारी छुई तक नहीं और न ही तुम्हारा आधार कार्ड निकाला और न ही उसे फाड़ा है, भला मैं उसे क्यों फाडूंगी ? दीदी प्लीज़ मेरी बात पर यक़ीन करो।
तेज़-तेज़ आवाज़ों को सुनकर माँ सरिता हड़बड़ाकर पारुल के कमरे में आई। जब उन दोनों को आपस में लड़ते हुए देखा, तब वह हैरान रह गई, क्योंकि पारुल और प्रिया ,दोनों बहनों में अथाह प्यार था। एक -दूसरे पर जान देती थीं, पर आज ये सब क्या हो गया ?
जो पारुल अपनी छोटी बहिन प्रिया के लिए कुछ भी कर गुज़रने के लिए हरदम तैयार रहती थी, उसी पारुल ने प्रिया को थप्पड़ मारे ! और इतना ही नहीं, आधार कार्ड फाड़ने का आरोप भी लगा दिया।
सोंचते-सोंचते माँ सरिता ने आगे बढ़कर बड़ी मुश्किल से पारुल को शान्त करके पारुल और प्रिया को अपनी बाहों में भर लिया।
फिर माँ ने बताया कि किसी ने भी किसी का आधार कार्ड नहीं फाड़ा है। सभी के आधार कार्ड मेरे पास बॉक्स में रक्खे हैं और बॉक्स के ताले की चाबी भी मेरे पास है।
पारुल बेटा, तुमने सपने में प्रिया को आधार कार्ड फाड़ते देखा होगा , जिसे तुम हक़ीक़त समझ कर झगड़ा करने लगीं और अगर हक़ीक़त में भी फट गया होता, तब भी आधार कार्ड नया बन जाता। फिलहाल तुम अपने वोटर कार्ड या DL से वोट डाल देतीं। कोई भी एक पहचान पत्र से मतदान किया जा सकता है।
बेटा, सपना और हक़ीक़त में काफ़ी फ़र्क़ होता है। वैसे भी किसी समस्या का हल लड़ाई-झगड़ा नहीं होता। सोच-समझ और प्यार से जटिल से जटिल समस्या सुलझाई जा सकती है।
पारुल को अब अपनी गलती और नासमझी का एहसास हो चुका था। वो अपने अन्दर ग्लानि का अनुभव कर रही थी। प्रिया को अपने गले से लगाकर पारुल फूट-फूटकर रोने लगी।
तभी प्रिया बोल उठी-क्या दीदी ? जल्दी तैयार हो चलकर। अपना कीमती वोट डालने नहीं चलना है क्या ? अगर देर हो गई,तो कड़क धूप में लम्बी कतार में खड़े होकर अपनी बारी आने का इंतज़ार करना पड़ेगा।
पारुल, प्रिया और माँ सरिता तीनों तेजी से खिलखिलाकर हँसती हुई मतदान करने के लिए मतदान केंद्र पर जाने की तैयारी करने लगीं।
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कहानी
"संकल्प"
अपने मन में विचारों की उधेड़बुन में लगी हुई मैं रास्ते पर चलती चली जा रही थी। अचानक मुझे हलका सा कुछ शोर सुनाई दिया,जिससे मेरा ध्यान भंग हो गया। मैंने घूम कर चारों तरफ देखा, तो मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दिया। मैं शान्त मन से धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। अभी थोड़ी दूर ही पहुँची थी कि फिर से मुझे ज़ोर-ज़ोर की आवाज़ें सुनाई दीं। ऐसा लगा कि जैसे कोई ऊँचे स्वर में करुण क्रन्दन करता हुआ अपने प्राणों की रक्षा की गुहार लगा रहा हो कि रुक जाओ मुझे मत मारो , मुझे मत काटो, मुझे प्राणदान दे दो,कोई तो मुझे बचाओ, मुझ पर दया करो,
मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है, पर उस करुण पुकार को कोई सुनने वाला, महसूस करने वाला नहीं था।
अचानक मैंने गनेसी बाबा को उधर से ही आते हुए देखा, जिधर से आवाज़ें आ रहीं थीं। वहीं पास के गाँव में काफी पुराने समय से गणेश शंकर जी रहते हैं, उनकी काफी जमीन – जायदाद और सम्पत्ति है , उनको सभी लोग आदर और प्यार से गनेसी बाबा कहकर पुकारते हैं। मैंने अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए उनसे पूछा-गनेसी बाबा ये आवाज़ें कैसी आ रही हैं ? बाबा कुछ नहीं बोले चुप ही रहे,पर उनके चेहरे पर मौज़ूद दर्द, चिन्ता, परेशानी सब कुछ चीख-चीख कर बयां किये जा रही थी। मैंने पुनः पूछा-गनेसी बाबा क्या हुआ आप कुछ बोलते क्यों नहीं , परेशान क्यों हैं ?
मेरे बार-बार पूछने पर गनेसी बाबा ने कहा-क्या बताएँ बिटिया हमारे गाँव वाले वो रामदीन की बगिया क्या थी, उसके अच्छे पैसे लग गए तो उस रामदीन ने बगिया बेच दी। कहता था उन पैसों से शहर जाकर फैक्ट्री लगाएगा, अच्छा कारोबार चलेगा,तो खूब पैसा कमा लेगा, बच्चों की अच्छी पढ़ाई के लिए विदेश भेजेगा। इसलिए उस बगिया के पेड़ कटवा रहे हैं वो लोग। इतना कहते-कहते गनेसी बाबा रुआँसे हो आये और अपने घर की तरफ चलने लगे , मैंने उन्हें फिर से रोककर कहा-बाबा आप सब गाँव वालों ने मिलकर रामदीन को ऐसा करने से रोका क्यों नहीं ? समझाया क्यों नहीं ? पेड़ों ने कभी किसी को क्या नुकसान पहुँचाया है भला? वो तो हमेशा दूसरों का हित ही करते हैं। पेड़ तो सभी के लिए सब कुछ निस्वार्थ भाव से प्रसन्नतापूर्वक लुटाते रहते हैं–छाया,लकड़ी,पत्ते, फूल,फल,ऑक्सीजन सब कुछ,वो भी बिना किसी भेदभाव के।
पेड़ों में भी प्राण हैं, दर्द है, अश्रु हैं, इंसान इतना निर्दयी, भावना-शून्य क्यों है? इतना ख़ुदग़र्ज़, इतना स्वार्थी क्यों है? जो पेड़ इंसान को जीवन देते हैं , सुख-साधन-सम्पन्न बनाते हैं , वो भी बिना किसी स्वार्थ के, और इंसान उन्हीं पेड़ों को इतनी निर्ममता से, इतनी कठोरता से उनकी हत्या करता जा रहा है,वो भी सिर्फ चन्द सिक्कों के लिए, अपनी बड़ी-बड़ी आकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए। वह एक बार भी नहीं सोचता कि पेड़ उजाड़ कर हम स्वयं अपने जीवन के अन्त का आह्वान करते चले जा रहे हैं।
तभी गनेसी बाबा मुझे बीच में ही रोकते हुए बोले-बिटिया परेशान न हो । इस धरती पर फिर से हम सब मिलकर पेड़ लगाएँगे। मैं उनको एकटक आश्चर्य से निहारती रह गई ।
मुझे पता ही नहीं चला कि मुझमें इतना जोश कब आ गया, इतना तैश कब आ गया कुछ पता ही नहीं।
अब तक गनेसी बाबा की आँखों से आँसू ढुलक कर झुर्री पड़े गालों को गीला कर चुके थे। निर्मल हुई आँखों में आशा की एक नई किरण जगमगाने लगी थी, उनकी आवाज़ में दृढ़ता और विश्वास की झनक मुझे आश्वस्त कर रही थी। मुझे अत्यन्त आश्चर्य के साथ साथ अद्भुत आनन्द की भी अनुभूति हुई। जब 70 वर्ष के गनेसी बाबा आशा, इच्छाशक्ति, प्रयास, दृढ़ता और विश्वास से ओतप्रोत हैं, तो हम युवा लोग निराशाओं, समस्याओं के भँवर से बाहर क्यों नहीं निकल सकते ?
ऐसा सोचकर मैंने भी पूर्ण दृढ़ता , विश्वास, से यह संकल्प लिया कि हम सब मिलकर अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाकर अपनी धरती माँ का हरे-भरे वस्त्रों से श्रृंगार करते रहेंगे। धरती माँ को कभी भी निर्वस्त्र नहीं होने देंगे, यही हम सभी का संकल्प है।
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कहानी
"महापर्व"
पूरे गाँव में उत्साह का वातावरण छाया था, चारों तरफ खूब चहल-पहल थी। क्या बच्चे, क्या बूढ़े, सभी खूब मौज-मस्ती कर रहे थे। कच्चे घरों की दीवारों पर मनमोहक कलाकृतियाँ बनाई गयीं थीं। चबूतरे को गोबर से लीप-पोतकर किरण सुन्दर रंगोली बनाने में जुटी थी। समूचा गाँव अत्यन्त भव्यता लिए हुए अलौकिक आनन्द की अनुभूति करा रहा था जैसे कि मानों कोई त्योहार हो, जिसमें प्रत्येक घर झूम-झूम कर अपनी खुशियाँ बिखेर रहा हो।
मैंने रंगोली बनाती हुई किरण से कहा– रंगोली तो बहुत सुन्दर बनाई है तुमने, पूरे गाँव में भी जश्न मनाया जा रहा है, क्या ग्रामप्रधान जी किसी कार्यक्रम का आयोजन कर रहे हैं, या कोई खास त्योहार आने वाला है, जिसे सब लोग मिलकर एक साथ मनाने वाले हैं ?
मेरे द्वारा इतना पूछने पर किरण के घर के सभी लोग बाहर निकल आये, सारे पास-पड़ोसी भी आ गए। तभी किरण की दादी रमैया, जिनकी उम्र करीबन 98 वर्ष की थी, बड़े उत्साह से मेरे पास आयीं और मेरा हाथ अपने हाथ में थामकर बोलीं-
तुम कौन हो?कहाँ से आई हो? कुछ पढ़ी-लिखी हो या ठेठ अनपढ़, गंवार ही हो, जो ये सब पूछ रही हो?
चलो मैं ही तुम्हें बताती हूँ। ये त्योहार ही नहीं, महात्यौहार है, महापर्व है, वो भी हमारे देश का सबसे बड़ा त्योहार है, चुनाव का महापर्व है और हमारे गाँव का बच्चा-बच्चा ये जनता है।
इस महापर्व में शामिल होने के लिए ही तो हम सब लोग एक माह से सारी तैयारियां कर रहे हैं। गाँव में स्वच्छता अभियान चला रहे हैं, जिससे हमारा गाँव साफ-सुथरा रहे, किसी बीमारी का संक्रमण न हो, जिससे हम लोग स्वस्थ रहें और मतदान करने में कोई दिक़्क़त न आये। पूरे गांव की सजावट मन को आनन्दित करके उत्साह का संचार करती है, जिससे सोचने-समझने की शक्ति मिलती है और फिर कोई भी उचित निर्णय लेने में हम सक्षम हो पाते हैं।
हर पाँच वर्ष बाद यह महापर्व आता है,तो इसमें हम कोई चूक क्यों होने दें? हम सब लोग एक साथ मिलकर अपना बहुमूल्य मतदान करने ज़रूर जाएंगे, वो भी बिना किसी प्रलोभन में आये।
हम खूब सोच-समझकर अपनी बुद्धि का प्रयोग करके सच्चा नेता चुनकर लाएंगे, जो हमारे अपने देश के हित के लिए कार्य करे, जो जनता के दुख-दर्द को समझे, जनता की बात सबके सामने रक्खे तथा जन-जन की समस्याओं का भली-भाँति निराकरण कर सके।
सरकार बनाने की ज़िम्मेदारी हम सबकी ही तो है, हमारा मत अनमोल है। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने मत को व्यर्थ मत जाने दें। इस महापर्व को सार्थक बनाएँ, सफल बनाएँ अपना कीमती वोट देकर, लोकतन्त्र का महापर्व मनाएँ।
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डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
114, महराज-नगर
लखीमपुर-खीरी (उ0प्र0)
कॉपीराइट–लेखिका डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
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