हरियाणा के ऐतिहासिक शहर पानीपत के रहने वाले थे हाली उर्दू के शायर व प्रथम आलोचक के तौर पर प्रख्यात थे 'हाली' साहब का जन्म 11 नवम्बर...
हरियाणा के ऐतिहासिक शहर पानीपत के रहने वाले थे हाली उर्दू के शायर व प्रथम आलोचक के तौर पर प्रख्यात थे 'हाली' साहब का जन्म 11 नवम्बर 1837 ई. में हुआ। इनके पिता का नाम ईजद बख्श व माता का नाम इमता-उल-रसूल था। जन्म के कुछ समय के बाद ही इनकी माता का देहान्त हो गया। 'हाली' जब नौ वर्ष के थे तो इनके पिता का देहान्त हो गया। इन हालात में 'हाली' की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध नहीं हो सका। परिवार में शिक्षा-प्राप्त लोग थे, इसलिए ये अरबी व फारसी का ज्ञान हासिल कर सके। हाली के मन में अध्ययन के प्रति गहरा लगाव था। हाली के बड़े भाई इम्दाद हुसैन व उनकी दोनों बड़ी बहनों इम्ता-उल-हुसेन व वजीह-उल-निसां ने हाली की इच्छा के विरूद्ध उनका विवाह इस्लाम-उल-निसां से कर दिया। अपनी पारिवारिक स्थितियों को वे अपने अध्ययन के शौक को जारी रखने के अनुकूल नहीं पा रहे थे, तो 17 वर्ष की उम्र में घर से दिल्ली के लिए निकल पड़े, यद्यपि यहां भी वे अपने अध्ययन को व्यवस्थित ढंग से नहीं चला सके। इसके बारे में ‘हाली की कहानी हाली की जुबानी’ में बड़े पश्चाताप से लिखा कि ‘डेढ़ बरस दिल्ली में रहते हुए मैंने कालिज को कभी आंख से देखा भी नहीं’। 1956 ई. में हाली दिल्ली से वापस पानीपत लौट आए। 1956 में हाली ने हिसार जिलाधीश के कार्यालय में नौकरी कर ली। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान अन्य जगहों की तरह हिसार में भी अंग्रेजी-शासन व्यवस्था समाप्त हो गई थी, इस कारण उन्हें घर आना पड़ा।
1963 में नवाब मुहम्मद मुस्तफा खां शेफ्ता के बेटे को शिक्षा देने के लिए हाली जहांगीराबाद चले गए। 1869 ई. में नवाब शेफ्ता की मृत्यु हो गई। इसके बाद हाली को रोजगार के सिलसिले में लाहौर जाना पड़ा। वहां पंजाब गवर्नमेंट बुक डिपो पर किताबों की भाषा ठीक करने की नौकरी की। चार साल नौकरी करने के बाद ऐंग्लो-अरेबिक कालेज, दिल्ली में फारसी व अरबी भाषा के मुख्य अध्यापक के तौर पर कार्य किया। 1885 ई. में हाली ने इस पद से त्याग पत्र दे दिया।
फरिश्ते से बेहतर है इन्सान बनना,
मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज़्यादा।
यही है इबादत यही दीन व ईमां।
के काम आये दुनिया में इन्सां के इन्सां।।
मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ हरियाणा के ऐतिहासिक शहर पानीपत के रहने वाले थे। पानीपत शहर की ख्याति दो कारणों से रही है। एक तो यह तीन ऐसी लड़ाइयों का मैदान रहा है जिसने की हिन्दुस्तान की तकदीर बदली। दूसरे, इसलिए कि साझी संस्कृति के प्रतीक मशहूर सूफी कलन्दर व उत्तर भारत के नवजागरण के अग्रदूत मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ का संबंध इस शहर से था। हाली उर्दू के शायर व प्रथम आलोचक के तौर पर प्रख्यात हैं। हाली को उर्दू तक सीमित न करके हिन्दुस्तानी का कवि व आलोचक कहना अधिक उपयुक्त है। हाली ने आम लोगों की भाषा यानी हिन्दुस्तानी भाषा में कविताओं की रचना की।
तुम अगर चाहते हो मुल्क की खैर।
न किसी हम वतन को समझो गैर।।
उन की कविताओं की भाषा से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘यदि हिन्दुस्तानी का कोई नमूना है तो वह हाली की ‘मुनाजाते बेवा’ कविता की भाषा है।’
हाली के दौर में समाज में बड़ी तेजी से बदलाव हो रहे थे। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम ने भारतीय समाज पर कई बड़े गहरे असर डाले थे। अंग्रेज शासकों ने अपनी नीतियों में भारी परिवर्तन किए थे। आम जनता भी समाज में परिवर्तन की जरूरत महसूस कर रही थी। समाज नए विचारों का स्वागत करने को बेचैन था। महात्मा जोतिबा फूले, स्वामी दयानन्द सरस्वती, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, सर सैयद अहमद खां आदि समाज सुधारकों के आन्दोलन भारतीय समाज में नई जागृति ला रहे थे। समाज में हो रहे परिवर्तन के साथ साहित्य में भी परिवर्तन की जरूरत महसूस की जा रही थी। इस बात को जिन साहित्यकारों ने पहचाना और साहित्य में परिवर्तन का आगाज किया, उनमें हाली का नाम अग्रणी पंक्ति में रखा जा सकता है।
जान जब तक न हो वतन से जुदा,
कोई दुश्मन न हो वतन से जुदा।।
कौम पर कोई जद न देख सके।
कौम का हाले बद न देख सकें।।
मेज कुर्सी अगर लगते हैं आप।
कौम से पूछिए तो पुन है न पाप।।
सीना कोबी में रहे जब तक के दम में दम रहा।
हम रहे और कौम के इक़बाल का मातम रहा।।
कौम से जान तक अजीज ने हो।
कौम से बढ के कोई चीज न हो।।
देश-कौम की चिंता ही हाली की रचनाओं की मूलचिंता है। कौम की एकता, भाईचारा, बराबरी, आजादी व जनतंत्र को स्थापित करने वाले विचार व मूल्य हाली की रचनाओं में मौजूद हैं। यही वे मूल्य हैं जो आधुनिक समाज के आधार हो सकते हैं और जिनको प्राप्त करके ही आम जनता सम्मानपूर्ण जीवन जी सकती है।
हाली ने शायरी को हुस्न-इश्क व चाटुकारिता के दलदल से निकालकर समाज की सच्चाई से जोड़ा। चाटुकार-साहित्य में समाज की वास्तविकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। रचनाकार अपनी कल्पना से ही एक ऐसे मिथ्या जगत का निर्माण करते थे जिसका वास्तविक समाज से कोई वास्ता नहीं था। इसके विपरीत हाली ने अपनी रचनाओं के विषय वास्तविक दुनिया से लिए और उनके प्रस्तुतिकरण को कभी सच्चाई से दूर नहीं होने दिया। हाली की रचनाओं के चरित्र हाड़-मांस के जिन्दा जागते चरित्र हैं, जो जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष में कहीं जूझ रहे हैं तो कहीं पस्त हैं। यहां शासकों के मक्कार दलाल भी हैं,जो धर्म का चोला पहनकर जनता को पिछड़ेपन की ओर धकेल रहे हैं,जनता में फूट के बीज बोकर उसका भाईचारा तोड़ रहे हैं। हाली ने साहित्य में नए विषय व उनकी प्रस्तुति का नया रास्ता खोजा। इसके लिए उनको तीखे आक्षेपों का भी सामना करना पड़ा।
हर तरफ बीच में दलाल है,कुछ छूट रहे हैं।
दोनों हाथों से ग़रज मन्दों को लूट रहे हैं।
अहलकारों का कचहरी मेजो देखा ब्योहार।
समझें दीवाने अदालत को के है एक बाजार।।
पेट पकड़े हुए वाँ फिरते हैं हाजत वाले।
रवा मुंह खुले हुए बैठे हैं अदालत वाले।।
क्या पूछते हो क्योंकर सब नुक्ताचीं हुए चुप,
सब कुछ कहा उन्होंने पर हमने दम न मारा।
कोई मरहम नहीं मिलता जहां में।
मुझे कहता है कुछ अपने जुबा में।।
हाली का महिलाओं के प्रति नजरिया बहुत खास किस्म का था।वह उनके श्रम,पीड़ा,संघर्ष,दुभांत को अपनी रचनाओं में लेकर आए।
ऐ माओं,बहनों,बेटियों दुनिया के जिन्नत तुमसे है।
मुद्रकों की बस्ती हो तुम्ही,कौमों की इज्जत तुमसे है।।
ये गोश्त का एक लोथड़ा परवाना चढ़ता किस तरह,
छाती से लिपटाए न हर दम रखती गर बच्चे को मां।
हाली ने स्त्री को बोझ मानने वाले पितृसत्तात्मक समाज को खूब लताड़ा और उनके विचारों को मानने से इंकार किया तथा स्त्री के महत्व को स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि यह संसार सुंदर है तो स्त्री के कारण है।स्त्री के कारण ही दुनिया में ईमान बचा हुआ है। हाली ने स्त्री को जीवन का पर्याय कहा है जो हर स्थिति में पुरुष की सहयोगी है ना कि उस पर बोझ।
हाली ने अपने रचनाओं ने समाज के विकास में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रेखांकित करते हुए उसके श्रम के वास्तविक मूल्य को पहचाना। स्त्री बच्चों का पालन पोषण करके उसे इंसान कहलाने लायक बनाती है। हाली ने स्त्री के श्रम को गरिमा प्रदान करते हुए कहा कि यह स्त्री का हुनर ही है कि वह मांस के लोथड़े को इतना ताकतवर बना देती है कि वह संसार के समस्त संकटों का सामना करने के लिए तैयार रहता है। मां की गोद सीढ़ी की तरह है जिसके माध्यम से व्यक्ति इतनी बुलंदी तक पहुंच सके हैं। जहां यह बात सच है कि संसार में जितने महान पुरुष हुए हैं उनके महान बनने में स्त्री की भूमिका महत्वपूर्ण रही
है वहीं यह बात भी सच है की समाज में जिस भी स्त्री ने आगे बढ़ने की बात सोची है उसे पहले परिवार व रिश्तेदारों से ही संघर्ष करना पड़ा है। यहां तक कि जहां वह काम करती है अपने सहयोगियों तक एक स्त्री को संघर्ष करते हुए पायदान दर पायदान आगे बढ़ना पड़ता है।
ऐब लगने लगे नज्जारी ओ हद्दादी को
बेचते फिरने लगे जौहरे आज़ादी को
नौकरी ठहरी है ले दे के अब औक़ात अपनी
पेशा समझे थे जिसे, हो गई वो ज़ात अपनी
अब न दिन अपना रहा और न रही रात अपनी
जा पड़ी गै़र के हाथों में हर एक बात अपनी
हाथ अपने दिले आज़ाद से हम धो बैठे
एक दौलत भी हमारी सो उसे खो बैठे
इस से बढ़ कर नहीं जि़ल्लत की कोई शान यहाँ
के हो हम जिन्स की हम जिंस के कब्जे में इनाँ
एक गल्ले में क़ोई भेड़ हो और कोई शुबाँ
नस्ले आदम में कोई ढोर हो कोई इन्साँ
अल्ताफ हुसैन को ‘हाली’ इसलिए कहा जाता है कि वे यथार्थवादी रचनाकार थे वे रचनाओं में अपने वर्तमान को अभिव्यक्त करते थे। उन्होंने अपने समाज की सच्चाइयों का पूरी विश्वसनीयता के साथ वर्णन किया। समसामयिक वर्णन में हाली की खासियत यह है कि वे अपने समय में घटित घटनाओं के पीछे काम कर रही विचारधाराओं को भी पहचान रहे थे। विभिन्न प्रश्नों के प्रति समाज में विभिन्न वर्गों के रूझानों को नजदीकी से देख रहे थे,इसलिए वे उनको ईमानदारी एवं विश्वसनीयता से व्यक्त करने में सक्षम हो सके। अपने लिए ‘हाली’तखल्लुस चुनना उनके समसामयिक होने व अपने समाज से गहराई से जुड़ने की इच्छा को तो दर्शाता ही है, साथ ही उनके व्यक्तित्व की विनम्रता व उदारता को भी दर्शाता है। कोई भी साहित्यकार अमर हो जाना चाहता है, इतिहास में शाश्वत होने की लालसा भारतीय साहित्यकारों में तो विशेष तौर पर रही है। इसके लिए साहित्यकार क्या-क्या पापड़ नहीं बेलते? यदि कोई साहित्यकार अपनी रचनाओं के बल पर ऐसा कर सकने में कामयाब न भी हो तो कम-से-कम कोई शाश्वतता का आभास देने वाला तखल्लुस लगाकर तो वह संतुष्ट हो ही सकता है। हाली अमर होने के लिए इस तरह की तिकड़मों में नहीं पड़े। वे अपने समय और समाज से गहराई से जुड़े। उन्होंने अपने समय व समाज के अन्तर्विरोधों-विसंगतियों को पहचानते हुए प्रगतिशील व प्रगतिगामी शक्तियों को पहचाना। अपने लेखन से उन्होंने इस सच्चाई को कायम किया कि साहित्य के इतिहास में उसी रचनाकार का नाम हमेशा-हमेशा के लिए रहता है जो अपने समय व समाज से गहरे में जुड़कर प्रगतिशील शक्तियों के साथ होता है। अपने समय व समाज से दूर हटकर मात्र शाश्वतता का राग अलापने वाले अपने समय में ही अप्रासंगिक हो जाते हैं तो आने वाले वक्तों में उनकी कितनी प्रासंगिकता हो सकती है?इसका अनुमान लगाना किसी बुद्धिमान व्यक्ति के लिए कठिन कार्य नहीं है।
'हाली’ ने अपने जीवन में जैसा देखा उसको अपने विचारों कि कसौटी पर कसकर अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के बीच लेकर आए। हाली जमीन से जुड़े हुऐ प्रगतिशील रचनाकार थे। हाली केवल एक नाम नहीं बल्कि पूरी एक विरासत है किसान के जीवन को हाली ने अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। किसान के जीवन को जिस प्रकार अपनी रचनाओं में लेकर आए हैं वो किसी अन्य साहित्यकार की रचनाओं में ढूंढने पर भी नहीं मिलते। किसान का पूरा परिवार व कारोबार उनकी कविताओं में मौजूद है न उसके पालतू पशु छूटे हैं और न ही खेती में काम आने वाले औजार। मौसम की मार झेलता किसान भी यहां मौजूद है। हाली ने किसान-मजदूर,महिला के जीवन की सरलता के साथ जीवन से जुड़ी हुई समस्याओं के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया और उनसे निपटने की अपनी लेखनी के जरिए एक नई राह दिखाई। जिसे हाली जैसा प्रगतिशील रचनाकार ही कर सकता था। हाली साहब ने समाज के हर पहलू पर अपना रचनाकर्म किया वह सच्चे एवं ईमानदार लेखक थे। उनकी करनी और कथनी ने फर्क नहीं था।
लिखे,जब तक जिए, सफर नामे।
चल दिए हाथ में कलम थामे।।
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