पुस्तक समीक्षा : जीवन की वास्वविकता उद्घाटित करती कहानियां समीक्षक : रूपसिंह चन्देल

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(ईशकुमार गंगानिया) ईशकुमार गंगानिया जी को मैं सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और आर्थिक विषयों पर बेबाक और तार्किक विचार प्रस्तुत करने वाले एक ऊर...

(ईशकुमार गंगानिया)

ईशकुमार गंगानिया जी को मैं सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और आर्थिक विषयों पर बेबाक और तार्किक विचार प्रस्तुत करने वाले एक ऊर्ज्वसित लेखक के रूप में जानता रहा. उनके पास चीजों को समझने, परखने और अभिव्यक्त करने की पारदर्शी दृष्टि है और बिना किसी पूर्वाग्रह के वह तथ्यों के आधार पर अपने आलेखों में विषय को व्याख्यायित करते हैं. लेकिन वह कहानियां भी लिखते हैं, यह मुझे तब ज्ञात हुआ जब उन्होंने अपने इस संग्रह की भूमिका के लिए चर्चा की. मेरा सदैव यह मानना रहा है कि हर व्यक्ति के अंदर एक कलाकार उपस्थित होता है. स्थितियां मिलते ही वह सतह से ऊपर आ जाता है. लेकिन जो कलम की कला,विशेष रूप से गद्य, के कारीगर होते हैं वे अध्ययन,चिन्तन और मनन के बाद गद्य के अनेक क्षेत्रों में सफलता पाने में सफल होते हैं. गंगानिया जी के पास जिस प्रकार की भाषा मैंने उनके आलेखों में पायी थी उसे एक दिन कथा साहित्य की ओर उन्मुख होना ही था. हिन्दी साहित्य के लिए एक कथाकार के रूप में उनका अभ्युदय वरेण्य है. वह आंबेदकरवादी साहित्य के प्रखर प्रवक्ता हैं. डॉ. तेज सिंह ने जिस आंवेदकरवादी साहित्य की अवधारणा को जन्म दिया था गंगानिया जी ने उनके रहते हुए और उसके बाद उसे निरंतर आगे बढ़ाया है. उनकी प्रस्तुत कहानियां इस बात को प्रमाणित करती हैं.

यद्यपि गंगानिया जी के संग्रह की सभी कहानियां बिना किसी वाद के व्याख्या की अपेक्षा करती हैं, लेकिन इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि लेखक की विचारधारा उसके साहित्य में प्रस्फुटित अवश्य होती है. मुझे जब उनकी पहली कहानी ’इंट्यूशन’ पढ़ने को मिली, मैं उनके रचनात्मक कौशल से आप्लावित हो उठा. एक सधी हुई भाषा और सशक्त शिल्प के साथ गज़ब की पठनीयता ने मुझे अपने में ऎसा बांधा कि कहानी को अपने दो मित्रो को पढ़वाने का मोह संवरण नहीं कर पाया. कहानी के पात्र अत्यंत जीवंत हैं. उन्होंने उस वास्तविकता को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जो प्रायः सम्पादकों में देखने को मिलती है. एक सम्पादक का जिस प्रकार गंगानिया जी ने चरित्र निरूपण किया है वैसा इससे पहले मैंने किसी अन्य कहानी में नहीं पढ़ा था. ऎसा तभी संभव हो सकता था जब लेखक के अनुभव में गहनता होती है और होती है स्थितियों की सूक्ष्म ग्राह्य क्षमता. दलित और स्त्री विमर्श के नाम पर किस प्रकार राजनीति की जाती है, कहानी में बेलाग भाव से चित्रित किया गया है. कहानी से उद्धरण दृष्टव्य है:

“राघव जी, उनके जाने के बाद ऑफिस में अकेले थे। पुनः कवरिंग लैटर को पढ़ने लगे। जाहिर है उनकी दिलचस्पी कहानी से अधिक डा. कुसुम के कवरिंग लैटर में थी। और कवरिंग लैटर में ही क्यूं, डा. कुसुम में थी। कवरिंग लैटर से गुजरता बुढ़ापा, वापस जवानी की रंगीनियों में छलांगे लगाने लगा।“

इंट्य़ूशन कहानी में सम्पादक राघव जी के दलित और स्त्री विमर्श पर गंगानिया बहुत ही साफगोई के साथ उस सत्य को उद्घाटित करते हैं जो एक हकीकत है. इसे कहानी के निम्न उद्धरण से समझा जा सकता है.

“जहां तक राघव जी के दलित व स्त्री लेखन को ‘नया जमाना’ में प्रोत्साहन का मामला था, उसकी सच्चाई कुछ और है। दरअसल, राघव जी, माक्र्सवादी व प्रगतिशील विचारधारा के पैरोकार हैं। माक्र्सवादियों पर यह इलजाम हमेशा से रहा कि वे अपने संगठन में दलितों को सिर्फ यूज करते हैं। उनके हितैषी नहीं हैं। राघव जी को भी अलग-अलग मंचों पर ऐसे आरोपों को झेलना पड़ता था। इसलिए उन्होंने ‘नया जमाना’ के बहाने इस आरोप से मुक्त होने का विकल्प तलाशा।“

जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं गंगानिया जी की पहचान आंबेदकरवादी साहित्य के विचारक और चिन्तक की रही है. स्वाभाविक है कि उनकी कहानियों में वह किसी न किसी रूप में आया है और आना भी चाहिए. ’काश’ एक विचारधारा प्रधान कहानी है. उनका मुख्य पात्र दलित शब्द पर अपनी राय देता हुआ कहता है, “ ‘दलित’ शब्‍द अस्मितापरक नहीं है। यह हम पर थोपा हुआ है। यह एडजैक्टिव हो सकता है...नॉउन नहीं। लेकिन हमारे महान दलित चिंतक इसे संज्ञा की तरह प्रयोग करते हैं। कुछ हमारे मित्र दलित अस्मिता के नाम से पत्रिका भी निकालते हैं। इस मुद्दे पर मेरी सदैव ही उनसे असहमति रही है।...’’ यह साक्षात्कार शैली में लिखी गयी कहानी तो है ही, साथ ही वैचारिक प्रधान होने के कारण इसके शिल्प में एक प्रकार की नवीनता है. हिन्दी में ऎसी कहानियां विरल हैं, जहां तार्कितता संवादों के माध्यम से प्रस्तुत होकर विषय को समझने में सहायता करती है. गंगानियां जी इस बात को आलेख द्वारा भी व्यक्त कर सकते थे, लेकिन उन्होंने पाठकों को अपनी बात समझाने के लिए कथा का एक बेहतर ढंग चुना.

गंगानिया जी के पास छोटे-बड़े सभी प्रकार के अनुभव हैं और उन अनुभवों को सहजता से कहानी में ढाल लेने की कला भी है. ’वापसी’ कहानी इसका एक उदाहरण है. वापसी में साधुराम जैसे सरल, सीधे और कॉलोनी में सभी की सहायता करने वाले अध्यापक के जेल जाने की पीड़ा को अभिव्यक्त किया गया है. साधुराम को ईर्ष्या-द्वेष का शिकार होना पड़ता है. ऎसे पात्रों को हम अपने आसपास खोज सकते हैं. साधुराम पत्नी से जिस प्रकार अपनी पीड़ा साझा करता है वह किसी अन्य से नहीं की जा सकती . गंगानिया जी की कहानियों की यह विशेषता है कि उनकी कहानियों में परिवार अपनी पूरी गंभीरता से उपस्थित मिलता है. भारत में पुरुषों की मानसिकता किस प्रकार की है इसका जीता जागता उदाहरण गंगानिया जी की ’सफ़र’ कहानी में प्राप्त होता है. विश्व पुस्तक मेला में एक प्रकाशक के स्टॉल पर एक महिला प्रोफेसर को लेकर जिस प्रकार उसके परिचित अपनी प्रतिक्रिया देते हैं वह आम पाठक को चौंकाता है. चौंकाता इसलिए है कि प्रतिक्रियाएं बौद्धिक लोगों द्वारा व्यक्त की जाती हैं. आम पाठक की सोच से बाहर की बात है इसलिए आम पाठक का उस पर चौंकना स्वाभाविक है, जबकि वह आम आदमी से ऎसा सुनने का आदी होता है. लेकिन बौद्धिक वर्ग के प्रति उसकी धारणा को गंगानिया जी की यह कहानी ध्वस्त करती है. उन्होंने बौद्धिक वर्ग की उस वास्तविकता को आम पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करके बौद्धिक वर्ग के प्रति उसके भ्रम को तोड़ने का स्तुत्य प्रयास किया है. कहानी स्वयं महिला प्रोफेसर द्वारा आत्मकथ्य के रूप में प्रस्तुत की गई है. एक उदाहरण :” डा. दर्शन सिंह भी वहां आ पहुंचे। वे जू एन यू में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। जब वे मुद्दों पर बात करते हैं तो गंभीरता झलकती है। लेकिन वास्तव में होती नहीं है। वे हर मुद्दे को सामने वाली महिला की पर्सनल लाईफ यानी उसकी शक्ल-सूरत, कपड़े और न जाने क्या-क्या बीच में घसीट लाते हैं। एक तरह से हंसी-मजाक के बहाने वे उसकी पर्सनल लाईफ में झांकने लगते हैं।“ यही आजके बौद्धिक वर्ग की वास्तविकता है, खासकर डॉ. दर्शन जैसे बुद्धिजीवियों की, जिसे गंगानिया जी के लेखक ने गंभीरता से पकड़ा और उद्भाषित किया है.

हमारे देश में आरक्षण प्रायः मुद्दा बनता रहा है. इसे लेकर सवर्णों द्वारा समय-समय पर धरना-प्रदर्शन किए जाते रहे हैं. गंगानिया जी डाक्टरों द्वारा जंतर-मंतर में किए गए एक ऎसे ही आन्दोलन से कहानी उठाते हैं और उसे ’मेरिट’ में शब्दायित करते हैं. यह अभीष्ट सत्य है कि आरक्षण विरोधी समाज दफ्तरों में भयानक राजनीति करता है और कहानी का नायक एक अभिशप्त की भांति उनके व्यंग्य वाणों को झेलने के लिए विवश होता है. इस सबके बावजूद उनके छोड़े काम को उसे ही निपटाने के लिए उच्चाधिकारी द्वारा कहा जाता है. निश्चित ही यह कहानी यह प्रश्न उत्पन्न करती है कि ’मेरिट’ वाला कौन है---वह या वे जो उसके विरुद्ध बोलते रहते हैं और इससे लेखक तब बहुत खूबसूरती से पर्दा उठाता है जब पाण्डे नामक पात्र को प्रमोशन मिलता है. पाण्डे के घर हुई प्रमोशन की पार्टी के दौरान पाण्डे उस वास्तविकता को उद्घाटित करता है जिस के कारण उसे प्रमोशन मिला था. अर्थात अपने बॉस की बेटी के विवाह में टेण्ट लगवाने के डेढ़ लाख रुपयों के भुगतान के कारण उसे वह पदोन्नति मिली थी. गंगानिया जी ने इस कहानी के माध्यम से सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को बहुत खूबी के साथ चित्रित किया है. आरक्षण विरोध और धार्मिक कर्मकांड पर लेखक की महत्वपूर्ण टिप्पणी उल्लेखनीय है – “इनके पास दो ही काम है। एक-आरक्षण का विरोध और दूसरा तथाकथित धार्मिक कर्मकाण्डों और भगवानों का महिमामंडन करना।“ कर्मकांड ने इस देश को रसातल में पहुंचा दिया है और कर्मकांडियों को आरक्षण गले से नीचे कैसे उतर सकता है, जिन्होंने समाज के एक बड़े वर्ग का हक सैकड़ों सालों से छीन रखा था.

संग्रह की अंतिम कहानी है ’टीस’ . कहानी गांव की खाप पंचायतों, जमींदारों के अत्याचारों और दबंगों के काले कारनामों को केन्द्र में रखकर लिखी गयी है. कहानी का मुख्य पात्र सी.पी. सिंह अपने मित्र के पुत्र सुरेन्द्र को गांव में किसी भी जमींदार की लड़की के फेर में न पड़ने की नसीहत देता है. नसीहत के पीछे स्वयं का अनुभव छुपा हुआ था, जिसके कारण डाक्टर बनने के बजाए वह बाबू बनने के लिए अभिशप्त हो गया था. दलित जीवन की भीषण पीड़ा का बखान है सी.पी. की कहानी. लठैतों के अत्याचार पहलवान के बहाने गंगानिया बहुत ही खूबसूरती के साथ बयान करते हैं. यह कहानी कल की जितनी वास्तविकता उद्घाटित करती है उससे अधिक आज की हकीकत इसमें उभरती है. आज की यही वास्तविकता है गांवों की. ’दर्द का रिश्ता’ भी दलित जीवन की त्रासदी को बखूबी चित्रित करती है.

गंगानियां जी का लेखक बार-बार घूम-फिरकर गांव पहुंचता है. शहर में रहकर भी लेखक गांव से अपने को बचा नहीं पाया और गांव की भाषा वह जिस सजगता और खूबसूरती से प्रयोग करता है वह उन्हें एक अच्छा आंचलिक कथाकार के निकट ला खड़ा करता है. उनका कहानी कहने का सधा हुआ अंदाज, पात्रानुकूल भाषा, पानी की तरह बहता कथा प्रवाह और प्रभावी शिल्प उन्हें एक सशक्त कथाकार की श्रेणी में उपस्थित करता है.

महान रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय का उपन्यास ’युद्ध और शांत” प्रकाशित होने के पश्चात जर्मन और रूसी आलोचकों ने प्रतिकूल आलोचना की थी. एक मित्र से बातचीत के दौरान तोल्स्तोय ने कहा था, "मुझे आलोचकों की नहीं पाठकों की चिन्ता है. पाठकों की प्रतिक्रिया किसी भी लेखक के लिए महत्वपूर्ण होती है." गंगानिया जी भी यह मानते हैं और मेरा स्वयं का भी यही मानना है. आज आलोचना का जो स्वरूप है उससे समग्र हिन्दी साहित्य परिचित है. ऎसी स्थिति में किसी राजनीतिक उठा-पटक, संगठनों और मठाधीशों से दूर रहने वाले लेखक के पास पाठक की पूंजी ही उसके साहित्य के लिए सबसे बड़ा संबल है. पाठक रचना देखता है, उसे साहित्यिक राजनीति से कुछ लेना देना नहीं होता. वह उसे जानता भी नहीं. उन सभी छल-छद्म से दूर वह केवल और केवल रचना पर बात करता है. एक निरपेक्ष लेखक को उस पर ही भरोसा करना चाहिए.

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किताब का नाम : इंट्यूशन (कहानियां)

प्रकाशक : पराग बुक्स

पृष्ठ संख्या : 112

मूल्य : 150/-

संस्करण : 2018

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ईश कुमार गंगानिया: संक्षिप्‍त परिचय

प्रकाशित रचनाएं :

  • हार नहीं मानूंगा (कविता संग्रह)
  • अम्‍बेडकरवादी साहित्‍य विमर्शZ
  • अम्‍बेडकरवादी साहित्‍य के प्रतिमान
  • आजीवक : कल आज और कल
  • अस्मिताओं के संघर्ष में दलित समाज (आजीवक इतिहास के झरोखे से)
  • अम्‍बेडकरवादी साहित्‍य आन्‍दोलन और भारतीय समाज
  • एक वक्‍त की रोटी (कविता संग्रह)
  • अन्‍ना आन्‍दोलन: भारतीय लोकतंत्र को चुनौती
  • अम्‍बेडकरवादी आईने में भ्रष्‍टाचार
  • स्‍वाधीनता संग्राम में डा. अम्‍बेडकर
  • अम्‍बेडकरवाद एक समसामयिक विमर्श
  • इन्‍ट्यूशन (कहानी संग्रह)
  • इक्‍कीसवीं सदी में अस्मिता संघर्ष
  • मुख्‍यधारा के आईने में अम्‍बेडकरवादी साहित्‍य

· कौन जाएगा पाकिस्‍तान (कविता संग्रह)

पूर्व उप-संपादक : अपेक्षा (अम्‍बेडकरवादी साहित्‍य का त्रैमासिक मुखपत्र)

संपादक : आजीवक विजन (मासिक)

अंग्रेजी व हिन्‍दी की विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, पुस्‍तक समीक्षा व आलोचनात्‍मक लेखन

सम्‍पर्क : बी- 912, एम आई जी फ्लैट्स, ईस्‍ट आफ लोनी रोड़, दिल्‍ली- 110093

ई-मेल % ikgangania@gmail.com

ब्‍लाग – आजीवक

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: पुस्तक समीक्षा : जीवन की वास्वविकता उद्घाटित करती कहानियां समीक्षक : रूपसिंह चन्देल
पुस्तक समीक्षा : जीवन की वास्वविकता उद्घाटित करती कहानियां समीक्षक : रूपसिंह चन्देल
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