पता नहीं कब, कहां, कैसी अनहोनी घट जाए ! अनहोनी का कोई भरोसा थोड़े ही है। वह तो अदृश्य घोड़े पर अदृश्य रूप से सवार रहती है और लोगों का दुर्भा...
पता नहीं कब, कहां, कैसी अनहोनी घट जाए ! अनहोनी का कोई भरोसा थोड़े ही है। वह तो अदृश्य घोड़े पर अदृश्य रूप से सवार रहती है और लोगों का दुर्भाग्य उसे नजर आया नहीं कि वह उसे किसी बिल्ली की तरह चट से दबोच लेती है। जिन्दगी की ऐसी बहुत-सी घटनाओं ने मुझे विभिन्न तरह के सवालों से हमेशा रूबरू कराया है। इसीलिए मैं हमेशा सतर्क रहता हूं। यही वजह थी कि मैं ट्रेन में पूरे सफर तक सावधान रहा कि मेरी अटैची में ब्लेड या उस्तरा मारकर कोई मेरी दस हजार की गड्डी न निकाल ले। यात्रियों के बीच कौन क्या है, किसे पता होता है।
बहरहाल मैं थोड़ी देर बाद सुरक्षित संतोषपुर स्टेशन पर ट्रेन से उतर गया। मैं जानता हूँ कि कोलकाता में चलने वाली ट्रेनों या बसों में पाकेटमारी बहुत होती है। आदमी का ध्यान इधर-उधर जरा-सा भटका नहीं कि उसकी जेब, अटैची, बक्से या गठरी-मोटरी से माल गायब। हालांकि मेरी गड्डी के बारे में मैं इतना निश्चिंत तो था कि कोई उस पर इतनी आसानी से हाथ नहीं फेर सकता, और अगर कोई हाथ साफ कर भी दे तो मुझ पर विशेष कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। कौन-सी मेहनत की कमाई है ! मेरी तनख्वाह के अलावा ऐसी कमाई तो अक्सर होती रहती है। आखिर एक पत्रकार हूँ। एक सेठ की काली कमाई का सबूत मुझे मिल गया था। उसने मुझसे कहा था कि उसके बारे में किसी अखबार में नहीं लिखूं या किसी टीवी चैनल पर उसे न दिखाऊं तो दर-मोलाई के बाद मैं दस हजार पर राजी हो गया था। तुम स्साले गलत काम करोगे तो तुम्हें कौन छोड़ेगा ! थोड़ा हमें भी दे दो।
ट्रेन से उतरने के बाद अन्य यात्रियों की भीड़ के साथ मैं भी निकासी गेट की ओर चल पड़ा। इस दौरान भी मैं सतर्क रहा, आखिर रुपया तो रुपया ही होता है। जिन्दगी की खुशियां देता है तो मुसीबतें भी ढोकर लाता है। लोग पांच-दस रुपया के लिए दूसरों की जान तक ले लेते हैं तो मैं किस खेत की मूली हैं। और मैं उन्हीं सवालों से फिर घिर गया कि पता नहीं कहां, कब .........
और चलते हुए मैं उसी अजीबो-गरीब एहसासों से भी घिर गया जिससे मैं कई बार रूबरू हो चुका हूं। कई बार की तरह इस बार फिर कई तरह की आशंकाएं मेरे मन-मस्तिष्क को घेरने लगीं और किसी अज्ञात खतरे का डर मुझ पर हावी होने लगा। मैं सोचने पर बाध्य हो गया कि आखिर मेरे साथ कभी-कभी ऐसा क्यों होता है ! ऐसा जब भी होता है तो उसका प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष प्रभाव कई दिनों तक मुझ पर हावी रहता है।
हालांकि जीवन के अन्य व्यवहारों के समानांतर मेरा यह डर धीरे - धीरे कम भी होने लगता है लेकिन कई तरह के सवाल मुझे भीगे कपड़े की तरह निचोड़ने लगते हैं। अब भीगे कपड़ों से सारा पानी भले ही निकल जाये लेकिन उसका भीगापन तो उसमें काफी देर तक मौजूद रहता ही है जबकि मेरे अंदर का मौजूद डर मुझे कई आशंकाओं से सताने लगता है कि क्या कोई भूत-प्रेत, आत्मा या मेरा कोई दुश्मन मेरे पीछे तो नहीं लग गया है ! ऐसे कई सवालों से मैं घिर जाता हूँ लेकिन मेरी बेबसी यह होती है कि मैं अपनी परेशानी किसी को बयां नहीं कर सकता। पता नहीं लोग मेरे बारे में क्या सोच बैठें या हो सकता है कि मेरी खिल्ली ही उड़ाने लगें !
रात में ग्यारह बजे मैं संतोषपुर स्टेशन पर ट्रेन से उतरा था। उस दिन देर हो गयी थी। स्टेशन से मेरे घर की दूरी पैदल लगभग आधे घंटे की है मगर मैं प्रायः रिक्शा या ऑटो से घर जाता हूं। वैसे रात में दस बजे तक रिक्शे, ऑटो या टोटो वाले मिल जाते हैं लेकिन उसके बाद बहुत कम ही मिलते हैं। उस दिन कोई रिक्शा या ऑटो वाला नहीं मिला सो पैदल ही घर की ओर चल पड़ा।
ट्रेन से बहुत सारे लोग उतरे थे। स्टेशन से बाहर आते ही सभी अपने - अपने रास्ते हो लिए। मैं जिस रास्ते से होकर रोज घर लौटता हूँ, उस रास्ते में मेरे आगे-पीछे और भी बहुत सारे लोग थे। कुछ चहरे जाने - पहचाने थे तो कुछ अपरिचित। सभी को अपने - अपने घर पहुंचने की जल्दी थी। उस रास्ते से और भी कई रास्ते निकलते थे। सहयात्री छूटते-छूटते अपने रास्ते मैं अकेला रह गया। दस मिनट के बाद स्टेशन बाजार का इलाका खत्म और फिर दूर-दूर तक पसरी खाली सड़क थी। अब आबादी उतनी घनी नहीं थी। थोड़ी-थोड़ी दूर पर जो घर थे, उनमें रहने वाले लोग शायद टीवी देख रहे थे या घर के किसी सदस्य का नौकरी से लौटने का इंतजार कर रहे थे। कुछ लोग खाना खा रहे थे या खाकर सो चुके थे। रास्ते के किनारे निर्धारित दूरी पर लगी ट्यूब लाइट की दूधिया रोशनी अंधेरे के प्रभाव को अपनी क्षमता भर मिटाने का प्रयास कर रही थी। जीवन की गति स्वाभाविक-सी लग रही थी लेकिन मैं हवा को अस्वाभाविक रूप से महसूस कर रहा था।
मैं इधर-उधर देखते हुए चल रहा था कि मुझे फिर अजीब-सा एहसास हुआ। मेरे कई कदमों की दूरी पर संदिग्ध पदचाप-सी उभरी। मैं मन ही मन सतर्क हो उठा। क्या कोई मेरा पीछा कर रहा है या कोई खतरा है ! ट्रेन में भले ही पाकेटमारी या छिनताई हो लेकिन इस रास्ते में तो चोरी या छिनताई जैसे अपराध नहीं होते। इलाके के लोग ऐसे किसी गलत आदमी को ऐसा कोई अपराध करते पकड़ लेते हैं तो उसकी अच्छी-खासी तीमारदारी कर देते हैं लिहाजा चोर-उचक्के जानते हैं कि इस रास्ते में किसी गलत काम की सोचना भी आत्महत्या करने के समान है। फिर यह एहसास कैसा ! मैंने चोर नजरों से एक बार बाएं तो दूसरी बार दाएं से पीछे की ओर देखा। कोई नज़र नहीं आया।
मैं एक अंजाने डर से सिहर उठा। आखिर मेरे कदमों के साथ ताल मिलाकर चलने वाले बूटों की आवाज कैसी थी ! मैंने अपने अंदर साहस बटोरा। अचानक रुककर पीछे मुड़ा। दूर - दूर तक कोई नहीं था। रात होने के बावजूद ट्यूब लाइट की पर्याप्त रोशनी में किसी का तुरंत कहीं छिप पाना संभव भी नहीं था। मैं सोचने लगा, क्या यह मेरा वहम है या कोई शातिर दुश्मन मेरे पीछे लग गया है ? आने दो साले को देख लूंगा। मैं भी कभी जुडो - कराटे का माहिर खिलाड़ी रह चुका हूँ। साले को पता चल जायेगा कि किससे पाला पड़ा है। चलते हुए कान, आंखें, शरीर और दिमाग से मैं सतर्क हो गया था। जो भी हो मुझे डरना नहीं है। जो डर गया, वो मर गया। मैं चलता रहा।
कई पलों बाद मुझे फिर लगने लगा कि मेरे पीछे कोई आ रहा है। इस बार उसके चलने का आभास थोड़ा नजदीक से महसूस हुआ। मैंने पलटकर देखा। कहीं कोई नहीं था। मैं घोर आश्चर्य में घिर गया। आखिर कोई नहीं है तो मुझे ऐसा आभास क्यों हो रहा है। कहीं कोई भूत - प्रेत तो नहीं ! यह ख्याल आते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए। ‘हे रामजी, जय बजरंगबली ! मेरी रक्षा करना।’
मैंने मन ही मन ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करना शुरू कर दिया। घर की ओर मेरी चाल तेज हो गयी थी। चलते हुए इधर - उधर देख लेता और जल्दी घर पहुंचने की बेचैनी परेशान करने लगी। अपनी कॉलोनी तक पहुंचते - पहुंचते कई दुकानें खुली नजर आयीं और दो - चार लोग भी दिखाई दिए तो डर थोड़ा कम हो गया। थोड़ी देर में मैं अपने घर में था।
माया ने मेरा चेहरा देखते ही चिंता भरे स्वर में पूछा, ‘ क्या बात है, कुछ परेशान लग रहे हैं ? तबीयत तो ठीक है ना !’
‘नहीं, वैसी कोई बात नहीं है, ‘मैं सयंत होते हुए रोज की तरह उसे अपनी अटैची पकड़ाकर बोला, ‘आज थकावट बहुत है। काम बहुत था।’
माया ने अटैची लेकर टेबल पर रख दिया। मैं निढाल होकर सोफे पर बैठ गया। मेरी थकावट देखकर वह चुपचाप सामने वाले सोफे पर बैठ गयी। कुछ ही पलों में मैं संतुलित हो चुका था। रास्ते में घटी घटना के बारे में ख्याल आते ही मुझे अपने ऊपर हंसी आ गयी। मैं भी कितना डरपोक हूँ ! अगर कोई मुझे वैसी हरकतें करते देख लेता तो क्रेक या पिद्दू अवश्य समझ लेता। खैर, वैसी कोई बात नहीं हुई थी।
‘क्या बात है, अपने आप मुस्कुरा रहे हो ?’ माया ने मेरी ओर गौर से निहारकर पूछा।
‘अरे, आज मैं रास्ते में बहुत डर गया था,’ और मैंने उसे सारी घटना सुनाई तो वह हंस पड़ी, ‘आप तो हैं भी डरपोक। अंधेरी जगहों पर जाते नहीं, घर में अकेले रहने में आपको डर लगता है। मैंने कई बार देखा है और आप के घर के लोग भी कहते हैं। यह कौन-सी नई बात है।’
‘नहीं, मैं बचपन में डरपोक था। और बचपन में तो सभी डरपोक होते हैं।’ मैं भीतर से चिढ़ गया था, ‘अब नहीं हूँ। अगर रास्ते में सचमुच कोई होता तो आज उसके बुरे दिन होते।’
‘अच्छा छोड़िये, ‘माया गंभीर होते हुए बोली, ‘सुनिये, परसों शनिवार है। हमलोगों को बेहला जाना होगा। उमेश भैया का श्राद्ध है।’
‘हाँ,’ मैं भी गंभीर हो उठा, ‘असमय उनकी मौत हो गयी, अच्छा नहीं हुआ। वे मेरे मित्र ही नहीं, बड़े भाई जैसे भी थे। हमलोग शनिवार को निकल जायेंगे क्योंकि भाभी ने कहा था कि मुझे भी थोड़ी जिम्मेदारी संभालनी होगी।’
‘हाँ, हमें अपनी तरफ से भी सहयोग करना होगा,’ माया ने सहमति में सिर हिलाया।
‘अच्छा, मैं फ्रेश होकर आ रहा हूँ,’ और मैं उठकर बाथरूम की ओर बढ़ गया।
उमेशजी की मौत को लेकर मेरे मन में हमेशा ही एक बात उभरती है, भगवान बड़ा ही निष्ठुर है। उमेशजी और मेरी उम्र में दो-तीन साल का ही फर्क था। वे मुझसे बड़े थे। फिर भी यह कोई उम्र होती है किसी की मौत होने की ! मगर इंसान का वश हर जगह नहीं चलता। उन्हें कोई गंभीर बीमारी भी नहीं थी। बुखार आया। दूसरे दिन डॉक्टर को दिखाया। दवा लेनी शुरू की। तीसरे दिन बुखार कुछ कम हुआ। चौथे दिन रात को सोये तो अगले दिन पता चला कि उनकी नींद अब कभी नहीं खुलने वाली। एक हंसते-खेलते परिवार पर पहाड़ टूट पड़ा था।
उनकी आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी। वे एक छोटे-से अखबार में सह-संपादक थे। अब उनकी विधवा पत्नी और बीस साल की सयानी बेटी बेसहारा हो गयीं। उनके दाह-संस्कार के बाद जब मैं घर लौटा तो मुझे बीते दिन रह-रहकर याद आने लगे थे।
उमेशजी से मेरा परिचय कुछेक साल ही पुराना था। उस समय मैं कोयलांचल नगरी रानीगंज में रहता था। मेरे कोलकाता आने से साल भर पहले उनसे मेरी जान-पहचान ट्रेन में हुई थी। लगभग पांच साल पहले एक बार कोयला माफियाओं को लेकर एक न्यूज कवर करने मैं धनबाद गया था। धनबाद से लौटते समय ब्लैक डायमंड ट्रेन में हमदोनों अगल - बगल बैठे थे। बातों ही बातों में हम दोनों इतने घुल-मिल गये थे जैसे वर्षों पुराने मित्र हों। वहीं जब हमदोनों इस बात से भी परिचित हुए कि हम हमपेशा भी हैं तो हमारे अंदर अपनापन का एहसास-सा पैदा हुआ। धनबाद से रानीगंज आते-आते ट्रेन में ही हमने एक-दूसरे को अपना अता-पता और फोन नंबर दिया। अपने यहां कभी आने का आमंत्रण देते हुए मैं रानीगंज में उतर गया था।
इसके बाद हमलोगों में कई बार फ़ोन पर बातचीत हुई थी। मैं काम से दो-तीन बार कोलकाता आया था तो उनसे मिला था। वे बेहला में रहते थे। रात में कभी ठहरना होता तो उनके यहां ठहर जाता था। वे भी दो बार धनबाद गये थे तो लौटते वक्त रानीगंज होते हुए कोलकाता आये थे।
वहीं मैं रानीगंज में रहते हुए इस प्रयास में था कि कोलकाता के किसी बड़े अखबार या टीवी चैनल में मुझे रिपोर्टर की नौकरी मिल जाये। संयोग से मुझे कोलकाता के एक अच्छे टीवी चैनल में नौकरी मिल गई। मैं कोलकाता चला आया। उन दिनों मैं उनके घर पंद्रह-बीस दिन रहा था। बाद में महेशतला के संतोषपुर में मुझे अच्छा फ्लैट मिल गया था तो मैं वहां शिफ्ट कर गया।
उन पन्द्रह-बीस दिन जो मैं उनके यहां रहा तो उन्होंने मेरी आवभगत सगे भाई जैसी की थी। आज भी सोचता हूँ कि वे मेरा सहयोग नहीं करते तो मुझे काफी परेशानी उठानी पड़ती। उनके सहयोग से कई बार मेरा मन संकुचित हो जाता था। मैं कभी-कभार बाजार से सब्जी, मिठाई या फल वगैरह खरीदकर लाता तो वे प्यार से डांटते हुए कहते, ‘औपचारिकता छोड़ो। जब घर मिल जायेगा और उसके बाद मेरे यहां मेहमान की तरह आओगे तो यह दिखावा करना।’
उनकी आत्मीयता देखकर मैं सोचने लगता, दुनिया में क्या इतने अच्छे लोग भी हैं ! और मैं ही क्या, उनके परिचित सभी लोग यही कहते कि उमेशजी जैसे अच्छे लोग विरले ही धरती पर पाये जाते हैं। कोलकाता आने पर जितना सहयोग उन्होंने मेरा किया था, लोग तो परिचितों को भी उतना सहयोग नहीं करते हैं। मैं भी हमेशा यही कामना करता कि वे हमेशा सपरिवार सुखी रहें।
वे जिस तरह मुझे अपने छोटे भाई की तरह मानते थे, उसी तरह कभी-कभार मेरी समस्याओं में मुझे सलाह और सहायता भी किया करते थे। एक बार इसी तरह डर कर मेरी तबियत थोड़ी खराब हो गई थी तो वे खबर पाते ही मेरे घर पहुंच गये थे। उन्होंने मेरा हालचाल पूछने के बाद कहा था, ‘कोई गलत काम मत किया करो, उसका प्रभाव आदमी के जीवन पर जरूर पड़ता है।’
मैं भीतर ही भीतर सतर्क हो गया था कि कहीं उन्हें खिदिरपुर की बुढ़िया वाली खबर तो नहीं मिल गई। और उन्होंने कह भी दिया था, ‘मैं भी मीडिया में हूं और तुम भी मीडिया में हो। कुछ खबरें दूसरे पत्रकारों के बारे में भी मुझे मिलती रहती हैं। तुमलोगों ने नेता को सपोर्ट देने के लिए बुढ़िया के साथ अन्याय किया है। देखो कहीं उसकी हाय न लग जाये !’
मैंने तुरंत कहा था, ‘नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।’
उन्होंने आत्मीयता से हल्की हंसी के साथ कहा था, ‘खैर, नहीं है तो अच्छी बात है। जानते हो उस बुढ़िया के साथ बहुत अन्याय हुआ है। वह जहां झोपड़ी बनाकर रहती थी, उस जगह को एक नेता कब्जा करना चाहता था। उसने बुढ़िया को भगाने के लिए धमकी दी थी तो बुढ़िया ने कई अखबारवालों से अपनी सहायता की गुहार लगाई थी। लेकिन पत्रकारों ने नेता से पैसा खा लिया था और बुढ़िया का साथ नहीं दिया था। मैंने उसकी खबर छापी थी लेकिन मेरा अखबार तो ज्यादा बिकता नहीं है सो उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। पुलिस ने भी बुढ़िया का साथ नहीं दिया। आखिर नेता ने अपनी ताकत के बल पर उसे वहां से भगा दिया। अब पता नहीं बेचारी कहां-कहां भटकेगी। बुढ़िया की तो उम्र भी काफी हो गई थी। दो-चार साल और जीती, जब वह मर ही जाती तो जिसे वह जगह लेनी होती, ले लेता। कम से कम हम पत्रकारों को उसका साथ देना चाहिये था। हमारा तो धर्म ही यही है।’
मैं कुछ बोल नहीं पाया था। कैसे कहता कि मैंने भी नेता से पांच हजार लिये थे और इसीलिए बुढ़िया की समस्या की खबर को चैनल पर नहीं दिखाया था। दिखाता ही क्या जब मैंने उसकी खबर ही नहीं बनाई थी। मैंने बात को इधर-उधर घुमाने की कोशिश की थी और सफल हो गया था। उमेशजी मेरी भलाई और अच्छे की कामना करते हुए थोड़ी देर बाद चले गये थे।
वे सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि अपने आसपास के क्षेत्र में किसी के दुःख-तकलीफ के बारे में सुनते ही तुरंत वहां पहुंचकर अपनी क्षमता भर उसका सहयोग अवश्य करते। लोग कहते कि महानगरीय तंग जिन्दगी ने उन्हें तंगदिल बनने नहीं दिया था। मैं अक्सर उस घड़ी के बारे में सोचता जब उनसे मेरी जान-पहचान हुई थी तो मुझे अपने सौभाग्य पर गर्व होने लगता।
वही उमेशजी बेवक्त दुनिया से चले गये। ऐसे में मैं यही सोचने पर बाध्य हो जाता कि भगवान भी अच्छे लोगों को दुनिया में रहने नहीं देता है। उनकी तबियत खराब होने की सूचना मिलते ही मैंने उन्हें मोबाइल पर बता दिया था कि मैं उनसे मिलने आ रहा हूँ। उन्होंने हंसकर उत्तर दिया था, ‘ अरे भाई, हल्का बुखार है ! चिंता करने की कोई बात नहीं। कल तक ठीक हो जाऊंगा।’
और दूसरे दिन सुबह ही उनकी मौत की सूचना मिली थी। खबर मिलते ही मैं और माया तुरंत घर से निकल पड़े थे। उनकी पत्नी कमला भाभी और बेटी रोशनी को पछाड़े मारकर रोता देख भला किसका कलेजा न फट जाये। एक ऐसा इंसान जिसने कभी किसी को दुःख न दिया हो बल्कि दूसरों की समस्यायों में उनका साथ देता आया हो, उसके परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। मैं वहां दो दिनों तक रहा। कमला भाभी को मैं और माया दिलासा देते रहे कि अब उन्हें उमेशजी की जगह लेनी होगी। परिवार को संभालना होगा। अनहोनी को कोई टाल नहीं सकता। उन्हें अपनी बेटी का मुंह देखकर जीना होगा और हमलोग तो उनके साथ हैं ही।
कई रिश्तेदारों और पास-पड़ोस के लोगों ने भी अपने-अपने ढंग से कमला भाभी और रोशनी को संभाला-समझाया। उमेशजी के कार्यालय से आये कई सहकर्मियों ने कहा कि उसी अखबार की कंपनी में भाभीजी या रोशनी की नौकरी के लिए प्रयास किया जायेगा। उमेशजी की मौत तो दुर्भाग्य है मगर अब उनलोगों को आगे के लिए सोचना होगा। लौटते वक्त मैंने भी कमला भाभी को कहा था कि जब भी कोई जरूरत पड़े, वे मुझे तुरन्त खबर दें।
और अब अगले दिन रविवार को उनका श्राद्ध है। माया का विचार है कि शनिवार के दिन वहां पहुंच कर कई तरह के कार्यों में उनलोगों की सहायता करना जरूरी है। मैंने भी ऐसा ही कुछ सोच रखा था। माया तो बीच में दो बार वहां हो आयी थी। उसने मुझे बताया कि उमेशजी की मौत के बाद उनका परिवार बुरी तरह टूट गया है। ऐसे में हमलोगों को भी उस परिवार की हर संभव सहायता करनी होगी। माया तो उमेशजी को बड़े भाई की तरह मानती थी।
वहीं शुक्रवार को जब मैं अपने चैनल के ऑफिस में था तो दोपहर में हर रोज की तरह माया का फोन आया। फोन पर घरेलू बातें करते हुए माया ने बताया कि वह जाने की सारी तैयारी कर चुकी है और कल सुबह हमलोग बेहला के लिए निकल जाएंगे। मेरा मन आश्वस्त हुआ कि अब मुझे तैयारी को लेकर उतनी चिंता करने की जरूरत नहीं। माया ऐसे में लेन-देन या काम-काज संभालने के मामले में मुझसे ज्यादा आइडिया रखती है। बातें समाप्त होने के बाद मैं टेबल पर अपनी न्यूज की स्क्रिप्ट लिखने में मशगूल हो गया।
और संयोग कहें या दुर्भाग्य, शनिवार को मैं उमेशजी के घर नहीं जा सका था। मजबूरी ऐसी थी कि मुझे माया को ही भेजना पड़ा था। दरअसल शुक्रवार के दिन जब दफ्तर में माया का फोन आया था, उसके कुछ देर बाद ही मेरे संपादक महोदय ने आकर मुझे कहा था कि कोयला और लोहा माफियाओं की एक खबर को कवर करने के लिए मुझे दो दिनों के लिए आसनसोल जाना होगा। मैंने उन्हें उमेशजी की घटना और उनके श्राद्ध के बारे में बताया मगर पता नहीं क्यों आसनसोल जाने से इंकार नहीं कर सका। शुक्रवार की रात ऑफिस से घर पहुंचा तो मैंने माया को अपनी मजबूरी बताई और कहा कि वह बेहला खुद चली जाये। मेरी और से माफी मांग ले क्योंकि चैनल के एक जरूरी काम से मुझे आसनसोल जाना होगा, रविवार से पहले लौट नहीं पाऊंगा। माया ने कुछ कहा नहीं मगर उसकी आंखों में आंसू डबडबा आये थे।
मैं रविवार को आसनसोल से सीधा घर लौटा। चाहता तो रास्ते में तारातला होते हुए बेहला भी जा सकता था। मुझे पता था कि माया उमेशजी के यहां है मगर मैं जा नहीं पाया। आसनसोल से कोलकाता तक बस में सफर करने की थकावट थी इसलिए सोचा कि पहले घर जाकर फ्रेश हो लूँ, उसके बाद बेहला जाऊंगा। घर पहुंचा तो वहां एक खालीपन पसरा हुआ था। वह खालीपन मुझे बड़े अजीब तरह से खल रहा था।
मैं सोफे पर बैठ गया और अपनी अटैची खोली। कपड़े और कागजातों के नीचे से सौ के नोटों की दोनों गड्डियों को देखकर मन को काफी तसल्ली मिली। चलो, असली माल तो सुरक्षित है। आसनसोल जाना नुकसानदेह साबित नहीं हुआ। मुझे जब भी ऐसी जगहों पर भेजा जाता है तो मैं इंकार नहीं कर पाता। ऊपरी अच्छी कमाई हो जाती है। मैं तो चाहता हूँ कि महीने में एक-दो बार की जगह सप्ताह में दो-तीन बार मुझे ऐसी जगहों पर भेजा जाये ताकि मैं साल भर में जिन्दगी भर की कमाई कर लूं। गोद में रखी खुली अटैची में नोटों की गड्डियों को मैं बड़े प्यार से सहलाने लगा।
‘हा-हा-हा,’ मानो कमरे में कोई अट्टहास गूंज उठा।
मैं सिहर उठा। चट से अटैची बंदकर मैंने चारों तरफ नजरें दौड़ाई, फिर उठकर पूरे घर को छान मारा। कहीं कोई नहीं था। मेरे अंदर एक डर समानांतर फैल गया। सारे दरवाजे-खिड़की बंदकर मैं फिर सोफे पर आ बैठा। दिमाग परेशानियों के जाल में उलझ गया था। मैं अपलक अटैची को निहारने लगा था। लगा नोटों की गड्डियों की आंखें, नाक, मुंह मिलाकर एक चेहरा मेरी ओर देखकर मुस्कुरा रहा हो। मैंने चट से अटैची बंद कर दी।
‘हा-हा-हा !’ फिर वही अट्टहास।
इस बार मैं सतर्क हो उठा। मैं जानता हूँ, मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है लेकिन इस बार मुझे लगा कि सचमुच मेरे आसपास कोई है और वह मुझे मार डालेगा। अब मैं घर में अकेला नहीं रह सकता। क्या करुं, क्या करुं, मैं परेशान हो उठा।
मैंने मोबाइल उठाया और माया को फोन लगाया, ‘मैं आसनसोल से आ गया हूं। फ्रेश होकर बेहला आ रहा हूँ। भाभीजी को बोल देना।’
फोन पर माया की आवाज में एक खुशी की झलक-सी महसूस हुई , ‘आ जाइये, आयेंगे तो अच्छा रहेगा। सभी लोग आपके बारे में पूछ रहे थे।’
‘हां-हां-हां, मैं आ रहा हूं,’ मैंने फोन रख दिया। अब थोड़ा-थोड़ा अच्छा लगने लगा था। मैं समझ गया कि मेरा डर अब थोड़ी देर में खत्म हो जायेगा।
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विजय शंकर विकुज
द्वारा - देवाशीष चटर्जी
ईस्माइल (पश्चिम), आर. के. राय रोड
बरफकल, कोड़ा पाड़ा हनुमान मंदिर के निकट
आसनसोल - 713301
ई-मेल - bbikuj@gmail.com
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