(सोनम सिकरवार की कलाकृति) हिन्दुस्तान के पश्चिम भाग में भी नारी आन्दोलनों और नारी विमर्श से अगर हम तुलना करते हैं तो कई बार हमारे सामने योग्...
(सोनम सिकरवार की कलाकृति)
हिन्दुस्तान के पश्चिम भाग में भी नारी आन्दोलनों और नारी विमर्श से अगर हम तुलना करते हैं तो कई बार हमारे सामने योग्य विद्वान हिन्दुस्तान के परिपेक्ष्य में नारी संघर्ष की उपेक्षा की जा सकती है। इसके साथ साथ जितना कष्ट नारी ने हिन्दुस्तान में झेला है शायद ही किसी और मुल्क में झेला होगा। हिन्दी के विमर्शात्मक लेखन पर भी इसी तरह का एक खास नजरिया चस्पा दिया है। और उसका मूल्यांकन चंद लेखिकाओं ने अपने आधार पर बनाया है। और उसका एक सामान्य निष्कर्ष निकाल दिया है। बदलते समय में अनेक नारी से मिलते जुलते अनेक सवाल आकर हमने चारों ओर से घेर रहे हैं। आज भी उन सवालों का हमारे पास काई जवाब नहीं है नारी को आज भी समाज रूपी कटघरे में खड़ा किया हुआ है। जो चिंता का विषय बना हुआ है। ऐसे में हिन्दुस्तान के नारी-संघर्ष के इतिहास को पुनः दोहराया जा रहा है। हमने इस पर दोबारा से विचार करने की जरूरत है। नारी विमर्श एक वैश्विक विचारधारा है लेकिन दुनियाभर में नारियों का संघर्ष अपने समाज के प्रति सापेक्ष है। इस सन्दर्भ में नारी संघर्ष और नारी विमर्श को दोनों को थोड़ा अलग कर देखने की जरूरत है। दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं। इसलिए किसी एक मुल्क में किसी खास वजह से चलने वाला नारी संघर्ष एक मात्र सार्वभौमिक सच नहीं हो सकता है।
हर मुल्क का अपना अपना एक सामाजिक ढांचा है और बुनियाद भी एक अलग तरीके की है। ऐसे आन्दोलन दुनिया स्तर पर अपनी विचारधारा का विकास करने में सहायक है परन्तु यह जरूरी नहीं कि वह हर क्षेत्र के आन्दोलन इस दुनिया की विचारधारा सैद्धान्तिक रूप से आधार बनाकर चले यह जरूरी तो नहीं कहीं पर भी किसी एक मुददे को लेकर हुआ आन्दोलन अपनी चेतना में कई स्तर तक पर न्याय की लड़ाई हो समेटे रहता है। ऐसा मेरा मानना है। हिन्दुस्तान में नारी संघर्ष और नारी अधिकार के आन्दोलन को इसी रूप में स्वतन्त्रता आन्दोलन के परिपेक्ष्य के रूप में देखने की जरूरत है।
राष्ट्र के स्तर का नारी आन्दोलन
हिन्दुस्तान के आजादी के आन्दोलन का मूल ढांचा पितृसत्तात्मक का रहा है। हिन्दुस्तान में नारी आन्दोलन भी इसी ढांचे के साथ उभर कर आया है। इसके साथ साथ विकसित होता हुआ भी दिखाई दिया। 19वीं सदी के अन्त और 20वीं सदी की शुरूआत के दौरान विकसित होते दिखाई दिये। नारी का आन्दोलन को भारत के पूर्व मुल्कस्तरीय या कौमी आन्दोलन को अलग करके नहीं देखा जा सकता है। कई स्तरों पर उनके अपने संघर्ष भी रहे हैं। इस आन्दोलन की शुरूआत वहीं से स्पष्ट होने लगती है। जब कौमी आन्दोलन के अगुआ नारी की पूर्व दशा में सुधार तो लाना चाहते है। उसे परम्परागत परिवार के दायरे में सीमित रखकर और सामाजिक स्तर पर नारी की राष्ट्रमाता की छवि का निर्माण करके जहां न तो नारी का जम्हूरियत का रूप अस्तित्व में आया है। न ही उसकी सस्मिता ।
नारी आन्दोलन की भूमिका अंग्रेजों के लड़ने तक
रमाबाई जैसी नारी इस परम्परागत खांचे में फिट नहीं हो सकती और न ही हो पाई है। उन्हें केवल और केवल अपने हाशिये पर धकेल देने का काम किया है। तत्कालीन परिस्थिति में नारी संघर्ष को इसी कौमी आन्दोलन की जमीन से खुद को अभिव्यक्त करना पड़ा। ऐसी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए हिन्दुस्तान के कौमी आन्दोलन और नारी आन्दोलन को आपस का सहारा भी कहा जा सकता है परन्तु दुनिया की विचारधारा के अनुसार कौमी और नारीवाद एक दूसरे पर सहारा नहीं है। जिस प्रकार नारी आन्दोलन को कौमी आन्दोलन के बीच से ही अपना स्वरूप तलाशना पड़ा और अपना आधार बनाना पड़ा उसी प्रकार कौमी स्वतन्त्रता आन्दोलन को भी अंग्रेजों के खिलाफ आधी आबादी के संघर्ष की जरूरत थी कौमी आन्दोलन के अगुआओं के लिए नारियों के संघर्ष की भूमिका अंग्रेजों के लडने तक ही सीमित नहीं थी न कि उसके साथ नारी के अपने सामाजिक और सांस्कृतिक व्यक्तित्व और पहचान के सन्दर्भ में स्वतन्त्रता के बाद भी नारी का पूरा व्यक्तित्व और उसकी परिस्थिति पितृसत्तात्मक परिवार दमघोटू माहौल से बन्धे रहने के लिए ही काफी नहीं है बल्कि नारी के स्तर से इन नेताओं के पास न तो कोई विकल्प था न ही उस विकल्प की कोई अवधारणा है यह फेर सदियों से आता रहा है आज के नेताओं ने भी इस काम का उपर उठा रखा है जो कि एक प्रकार से दिखावटी है।
नारी पुरूषवादी मानसिकता के खिलाफ
19 वीं सदी तक समाज सुधारक और कोमीवाद की ओर उन्मुख होता हुआ नारी संघर्ष 20 वीं सदी के आरम्भ तक चलता रहा और नारी आज भी अपने अधिकारों के लिए लड़ रही है। खुद नारी ने भी अपने अधिकारों के प्रति गम्भीर होना पडेगा और अपने आप को पुरूषवादी मानसिकता के खिलाफ अपनी आवाज को बुलन्द करना होगा। एक समय ऐसा आ गया था कि सभी नारी एक मंच पर दिखाई दो और अपने संगठन को मजबूत किया। नारियां अनेक मंचों पर पहुँचीं और अनेक स्थानीय संगठन भी बनाये और उनसे नारियों को जोड़ने का काम भी किया गया। चाहे वह 1908 की कांग्रेस का पहला नारी सम्मेलन हो चाहे वह 1917 का विमेन इण्डियन एशोसियशन हो ऐसे ही बडे संगठन महिलाओं को जोडने का कार्य कर रहा है। इसके बाद जनवादी महिला समिति हो या कोई ओर संगठन सभी को नारियों को जोड़ने का काम किया है। हिन्दुस्तान में नारियों के इतने संगठन है। इन नारी संगठनों की सबसे बडी विडम्बना यह है कि हिन्दू धर्म और उस समय के पुनरूत्थानवादी राष्ट्रीय विचार धारा एक ओर तो रमा बाई जैसी हिन्दू नारी को हिन्दू धर्म छोड़ना पड़ा वहीं दूसरी ओर होमरूल जैसे आन्दोलन का हिन्दूत्व से ओत प्रोत धार्मिक स्वरूप जिसमें नारियाँ बडे स्तर पर अपनी जोरदार भूमिका अदा कर रही हैं। यही सबसे बड़ा कारण रहा है कि दलित आन्दोलन और नारी आन्दोलन की संवेदनात्मक स्तर पर दूरी बनाये हुए है। फिर भी सघंर्ष की इस लम्बी परम्परा को एक तरह से नकार भी नहीं सकते जहाँ नारी अपने अधिकारों के लिए सघंर्ष कर रही है। और अपनी मांगों के साथ खडी हो रही है। सरला देवी जैसी महान नारी इस समाज में नहीं हो सकती क्योंकि इस नारी ने पुनरूत्थानवादी नारी ने भी विधवाओं को पढाने का और उनको अधिकार दिलाने का कार्य किया है। इस रूप से उस नारियों की हक की लड़ाई दोहरे स्तर पर चल रही थी एक तरफ से उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ लड़ने का कार्य बड़ा सराहनीय रहा है। दूसरे अपने घर में उनकी नियति निर्धारित करने वाली पुरूषवादी मानसिकता के खिलाफ आवाज उठाने का कार्य किया है।
अधिकारों की मांग
कांग्रेस बैठक में नारियों के मताधिकार को भी कौमी स्तर पर आन्दोलन की अपनी जरूरत महसूस की और उसमें से उभरते नारी आन्दोलन के सन्दर्भ में देखने की आवश्यकता है कौमीवाद अपनी जरूरतों से तात्पर्य साम्राज्यवादियों की उस समय अपनी विचारधारा से लड़ने की जरूरत रही और परिपेक्ष्य में मैं इतना ही कहना चाहूंगा नारियों के अपने अधिकारों की मांग और साम्राज्यवादी ताकतों से लड़ने में उनकी भूमिका अहम रही है इस मताधिकार को अपना आधार बनाया है। और कहा कि नारी का अधिकार भी नारी के हक और न्याय की उन तमाम मांगों को लेकर अपना आन्दोलन तेज किया जिसके लिए सावित्री बाई फूले, रमाबाई काशीबाई कानितकर आंनदीबाई मैरी भौरे गोदावरी समस्तर पार्वतीबाई सरलादेवी भगिनि निवेदिता से लेकर भिकाजीकामा कुमुदनी मित्रा लीलवती मित्रा जैसी नारियों ने अनेक स्तरों पर सघंर्ष किया और आज के समय ऐसे हजारों नाम है एनी बेसेंट ने मागरेटकुंजिस सरोजीनी नायडू आदि नारियों की मांग की थी कांग्रेस की राष्ट्रवादी विचारधारा का पूरा प्रभाव ऐनी बेसेंट और सरोजीनी नायडू जैसी नारियों के ऊपर था।
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि साम्राज्यवादी से लड़ने के लिए नारी कौमीवाद के अन्तर्गत गढी जा रही है। जो एक ओर तो उपनिवेशवाद के खिलाफ अपना र्स्वस्व को झोंक दें लेकिन दूसरी नारियों के लिए बनाये गए नियमों के आधुनिक रूप में बंधी रहे नारी लोकतन्त्र व्यक्तित्व की धणी है। अस्मिता से इसका कोई लेना देना नहीं है। यही कारण रहा है क सरोजिनी नायडू जैसी महिला ने अपने हिन्दुस्तान की नारियों के आन्दोलन को तेज करने में पूरी भूमिका अदा की है। उन आन्दोलनों को नारीवाद आन्दोलन नहीं माना गया और मगरिब में चल रहे नारीवादी आन्दोलनों से अलगाव रहा तो भी नारियां अपने हकों को पाने के लिए अपनी लड़ाई लड़ती रही और हमेशा आगे की ओर कदम बढाया पीछे मुड़कर कभी भी नहीं देखा नारी अपने हकों और न्याय को पाने के लिए तत्पर प्रयास करती रही है। कोई आन्दोलन कुछ अपनी नीति निर्धारक तत्वों के आधार पर जीवित नहीं रहता बल्कि खासतौर से तब जब उस आन्दोलन कर लड़ाई का मायना अनेक स्तरीय या बहुस्तरी हो कौमीवादी विचारधारा के आग्रहों के बावजूद नारी सामाजिक अधिकारों के प्रति ऐनी बेसेंट जैसी नारी की जागरूकता को नजरअन्दाज नहीं कर सकता। जिस प्रकार नर का अधिकार एक स्वीकार्य बन गया है। और इसका सिद्धांत बन गया है। ठीक इसी प्रकार नारियों का भी सिद्धांत भी बनना चाहिए परन्तु हमें अफसोस है कि दुर्भाग्यवश विश्व के विश्व कि विशेष दृष्टिकोण में वह केवल पुरूषों का अधिकार है ये अधिकार लैंगिक अधिकार है न कि मानवीय अधिकार और जब तक ये मानवीय अधिकार और जब तक ये मानवीय अधिकार नहीं बनते तब तक समाज एक औचित्यपूर्ण सुरक्षित नींव खड़ा नहीं कर सकता यह बात लेखक राधा कुमार ने अपनी किताब में नारी आन्दोलन का इतिहास से लिया गया है।
अधिकारों के लिए हर कदम आगे रहेगी नारी
यह बात सब जानते है कि मगरिब में नारी के मताधिकारों के लिए अनेक आन्दोलन हुए और ये आन्दोलन काफी लम्बे समय तक चला था। उस रूप में देखे तो हिन्दुस्तान में इस प्रकार का कोई आन्दोलन नहीं चला है। यह भी उतना ही सत्य है जितना कि कोई आन्दोलन गहराई तक जाकर लोगों की चेतना को झकझोरता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि हिन्दुस्तान में मताधिकार आन्दोलन नहीं हुआ है। इसलिए यहां कि नारियां में अपने अधिकारों को लेकर उतनी चेतना हासिल नहीं है या गम्भीर नहीं है। उनको जागरूक करना होगा और एक प्रकार से नई दिशा देनी होगी। हिन्दुस्तान में भी नारियों को कदम कदम पर आन्दोलन करना पड़ा है। यह तभी सम्भव हुआ जब उनके भीतर का अधिकारों का लावा फूटने लगा और स्वाधिकार की चेतना का विकास हुआ। यह भी सकारात्मक सोचने की इच्छा जाहिर करने लगी। खुद को एक ओब्जेक्ट की बजाए एक संवेदनात्मक इंसान समझने की चेतना पैदा हुई। अपने देह को किसी के उपभोग की वस्तु न बनने की चेतना पैदा हुई यह तक कि नारियों को अपना शरीर ढंकने तक का आन्दोलन करना पड़ा और इसी हिन्दुस्तान में शुचितावाद और सुधारवाद के नाम पर जहां पुराने परम्परागत लोकतन्त्र महिला समूहों को तोड़कर उन्हें वेश्या की श्रेणी में शामिल कर दिया और वेश्याओं के सुधार के नाम पर नारी देह और नारी अस्मिता को किस तरह प्रताडित किया गया अभी भी नीतिनिर्माताओं का उनके प्रति क्या रवैया है यह छुपा हुआ तथ्य नहीं है। वहीं दूसरी ओर मसरिक में निम्न तबकों की नारियों के शरीर के उपरी हिस्से और उससे छेड़छाड़ करने का जन्मसिद्ध अधिकार जो प्राप्त था। हिन्दुस्तान की बहुस्तरीय समाज की व्यवस्था में नारी आन्दोलन का इतिहास एक स्तरीय नहीं हो सकता है।
लेखन आन्दोलन में नारी की भूमिका
जहां तक मैं लेखन का जिक्र करूं ओैर लेखन विमर्श की बात करूं जो उसका मूल ढांचा भाषा और उससे जुडे हुए समाज से है। हर भाषा के अदबी या कलमकार विमर्श का अपना सामाजिक आधार अपनी समस्यायें और अपना स्वरूप होता है। यह सम्भव है कि कुछ मुददो को लेकर उसका एक वैश्विक स्वरूप निर्मित होता है। लेकिन धरातल के स्तर पर वह अपने समय और समाज के सापेक्ष ही होता है। इसलिए समझना जरूरी है कि हिन्दुस्तान के अनेक आधार पर सामाजिक ढांचे में नारी का सिर्फ देह स्वतन्त्रता या लिंग की लड़ाई तक ही सीमित नहीं है यहां तक कि नारी ने अनेक मोर्चों पर भी एक साथ लड़ाई लड़नी है और यौनिक उसका स्वतन्त्रता का अधिकार है। और यह भी एक प्रकार से आन्दोलन का हिस्सा रहा है। यह जरूरी भी है। हिन्दी भाषा की लेखिकाएं हो या अन्य हिन्दुस्तानी भाषाओं की, उनका लेखन हिन्दुस्तानी भाषाओं और हिन्दुस्तानी समाज और संस्कृति में रूढिवादी पुरूशसत्तात्मक ढांचे के अनेक स्तर पर विद्रूपताओं को उजागर करते हुए सामने आता है कि ऐसे में उसका मूल्याकंन किसी एक विचार के आधार पर करना उचित नहीं होगा हिन्दी में नारीवादी विमर्श की भी अपनी विचारधारा है और यह विचारधारा अचानक से एक दिन में विकसित नहीं हुई है इसके लिए अनेक आन्दोलन करने पडे हैं। यह सब एक लम्बे आन्दोलन और समझ का परिणाम है। इसके साथ ही यह विचारधारा विकसित होती हुई विचारधारा है न कि जड हो चुकी , अनेक आयामों में हो रहा है कि नारी लेखन इसका प्रमाण है आन्दोलन लेखन को प्रभावित करता है। लेखन आन्दोलन को । यह दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे है। इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि हमें संगठित होना पडेगा ओैर अपनी लड़ाई को कागज पर उतारना पडेगा। इसके साथ यह भी विचार करने की जरूरत है यह वैचारिक रूप स्पष्ट होना चाहिए कि जिन संगठनों की विचारधारा का एक निश्चित तौर पर संगठित होने की जरूरत है साथ ही अपने विचार रखने की जिन संगठनों की विचारधारा एक निश्चित प्रारूप है उनकी सक्रियता किसी भी आन्दोलन का प्रारूप तय करने में एक अहम भूमिका निभाता है कई साल पहले 16 दिसम्बर के आन्दोलन की बात देखी जा सकती है साहित्यिक की भी अपनी वैचारिक होती है और उस विचार का मसौदा तैयार होता है। यह बात तो साफ तौर पर जाहिर है कि कोई भी भाषा में किस तरह की सैद्धांतिक किताबें आ रही हैं। इसके साथ यह भी देखने को मिला है कि किसी भी भाषा के रचानात्मक लेखन ओैर वैचारिक लेखन की आवश्यकता होती है। वह किताब हमें यह भी बताती है कि उस कि रचनात्मक दिशा क्या है। खास तौर पर विमर्शात्मक आयामों में क्या हो रहा है। क्या उस किताब के लिखने वाले की विचारधारा है। विचारधारा के भी अपने आयाम होते है। लेखिका के भी अपने आयाम होते है यह स्पष्ट तब होगा जब वह उस लेखिका की किताब पढ़ लें।
नारी आन्दोलन का लम्बा इतिहास
नारी देह की स्वतन्त्रता उसे अपने सौन्दर्यबोध, अपनी अनुभूति और संवेदनाओं के आधार पर समझने और महसूस करने में है। हिन्दी का नारी लेखन इस स्तर पर आ गया है कि जहां हिन्दुस्तानी समाज और वर्चस्वशाली संस्कृति द्वारा नारियों पर थोपा गया यौन शुचिता का आवरण तार तार हो गया है इस यौन शुचिता के पीछे पितृसत्तात्मक समाज की लिंग भेद और नारी दे हके दमन का अवधारणा है और हिन्दी के नारी लेखन में इस अवधारणा की पहचान की जा सकती है और नारी लेखन का योगदान भी नारी की अवधारणा को समझना और पहचान को पैदा किया है। कभी यौन मुक्ति का आन्दोलन तो कभी पुरूषवादी अवधारणा में फंसती नजर आती दिखाई देती है। जब यौन मुक्ति की बात करते है तो फिर उस पुरूषवादी सौन्दर्यबोध की कसौटी पर स्वयं को कसने लगती है लेकिन हिन्दुस्तान के सन्दर्भ में जहां मुख्य धारा में भी अभी तक सामाजिक स्वतन्त्रता का कोई स्वरूप नहीं है। वहाँ लैंगिक स्वतन्त्रता बार बार उसी सांस्कृतिक वर्चस्व वाले जाल में फंसते नजर आए तो यह बहुत ही आश्चर्यजनक नहीं है। एक मशहूर लेखिका सुमन राज ने यह स्पष्ट लिखा है कि आज तक हम राजनैतिक सामाजिक स्वतन्त्रता की ही व्याख्या नहीं कर सके है। और स्वतन्त्रता की बात उसी परिपेक्ष्य में की जा सकती है। निरपेक्ष स्वतन्त्रता जैसी कोई चीज नहीं हो सकती स्वतन्त्रता का मूल प्राय है निर्णय की स्वतन्त्रता और नारी स्वतन्त्रता का रूप क्या होगा यह खुद नारी तय करेगी यह निर्णय कुछ विशिष्ट महिलाओं द्वारा नहीं लिया जा सकता हिन्दी साहित्य में भी कुछ नारी लेखकों को नारी विमर्श का नेतृत्व करने वाला समझना ऐसी ही भूल है किसी भी लेखक की मुखरता नहीं बल्कि उसका लेखन उनकी पहचान साहित्यिक जिम्मेदारी का सबूत होता है। साहित्य किसी भी सैद्धान्तिकी या अवधारणा विचारात्मक पर आधारित होता है और वह प्रभावित भी करता है ओैर प्रभावित भी हो सकता है नया सिद्धांत भी गढा जा सकता है। जिससे नये विचार उत्पन्न होंगे लेकिन साथ ही उसका सबसे बड़ा सामाजिक सरोकार यह भी है कि यहीं से नारी ओैर नर के बदले मनुष्यता की जमीन तैयार की जा सकती है। ऐसा करने से ही मानवता को बढावा मिलेगा। हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श पितृसत्ता के खिलाफ मुखर होते हुए अब इस जगह पर पहुंच गया है जहां नारी अपने लोकतन्त्र व्यक्तित्व की पहचान कर पाने में सक्षम है यही वह आधार है जहां से लैंगिक विभाजन के स्थान पर मनुष्यता की पहचान शुरू होती है। यह आधार नारियों के लम्बे आन्दोलन से ही निर्मित हुआ है। यदि हिन्दुस्तान में नारियों के आन्दोलन का लम्बा इतिहास नहीं होता तो किसी विचार से या अवधारणा या सैद्धान्तिकी पर आधारित लेखन का अनेक स्तरीय हिन्दुस्तानी समाज के सन्दर्भ में न तो खास प्रासंगिकता होती है और न ही उसका ठोस देशी स्वरूप से निर्मित हो पाता। न्याय की लड़ाई के लिए होने वाले किसी भी आन्दोलन का प्रभाव किसी भी जिम्मेदार लेखक की लेखनी पर पड़ता है। चाहे वह प्रत्यक्ष रूप से आन्दोलन का हिस्सा हो या अप्रत्यक्ष रूप से। आन्दोलन का नेतृत्वकर्ता न भी रहा हो तो भी ऐसी परिस्थिति में उसकी जिम्मेदारी बनती है कि उनकी परिस्थितियों में कई सवाल उठाया जा सकता है। लेकिन उसकी लेखनी पर किसी भी प्रकार से नकारा नहीं जा सकता है।
हिन्दी साहित्य में नये आयाम की तलाश
हिन्दी में नारी विमर्श मात्र पूर्वाग्रहों या व्यक्तिगत विश्वासों तक ही सीमित नहीं है उसके और भी कुछ आयाम हैं और इन आयामों को तलाशने कर जरूरत हमारे आलोचक की रही है। न सिर्फ चन्द नामों के आधार पर एक खास दायरे को बांधने की कला साहित्य के हर विचारधारात्मक सघंर्ष के पीछे अपने समय और समाज के परिवर्तनों को भी ध्यान में रखना जरूरी समझता हूं यहां तक की नारी की स्थिति को निर्धारित करने वाले संस्थाओं में आए परिवर्तन को भी लक्ष्य करना जरूरी है। जैसे 16 दिसम्बर की घटना के बाद आने वाली वर्मा कमेटी की रिपोर्ट ऐसे ही परिवर्तनों का परिणाम है जहां भारत में संस्कृति को बदलने की लड़ाई के शुरू होने की बात है तो उसी दिन से षुरू हो गई होगी जिस दिन पहली नारी ने अपने अधिकारों की मांग करके वर्चस्ववादी संस्कृति के समक्ष प्रतिरोधात्मक संस्कृति की शुरूआत की होगी हम नहीं जानते कि वह नारी कौन थी या उसकी क्या मांग थी हो सकता है उसकी पहली लड़ाई अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को लेकर ही रही हो 16 दिसम्बर के बाद उठने वाला आन्दोलन सांस्कृतिक वर्चस्ववादी के खिलाफ हुए संघर्षों के लम्बे इतिहास का एक बड़ा अध्याय है और इस अध्याय कर रूप में लिखा जाना तभी सम्भव हो सका जब उसकी मजअूत पृष्ठभूमि निर्मित हो चुकी थी चाहे मथुरा का रेप केस हो या माया त्यागी का रेप केस हो चाहे मनोरमा देवी का रेप केस हो चाहे उकलाना का रेप केस हो चाहे रोहतक का रेप केस हो और आज के समय में हर रोज हो रही रेप की घटनाओं के जीते जागते उदाहरण हैं। आज के समय में अखबार में हर रोज इस तरह की समाचार देखने को मिलती है। यहाँ के पुरूषवादी सता विमर्श कर विद्रूपता को दिखाने के लिए ऐसे हजारों नाम लिए जा सकते हैं। उनके विरोध में उठाने वाले छोटे से छोटे स्वर को भी सांस्कृतिक वर्चस्व का प्रतिरोध माना जा रहा है।
इज्जत जानलेवा है
देश दुनिया में आए तेजी से बदलाव की वजह से सामाजिक संबंधों और विवाह संबधों में भारी टकराहटें व द्वन्द्व बढ़ रहे हैं। एक तरफ तो अपनी पसंद से जीवन साथी चुनने वाले युवाओं की संख्या में दिन प्रति दिन बढोतरी देखने को मिल रही है। दूसरी ओर इज्जत की रक्षा के नाम पर हिंसा के क्रूर व जघन्य रूप सामने आ रहे है। स्थिति इतनी भयानक पैदा हो गई है कि आतंकवादी घटनाओं में मारे गए लोगों से 6 गुणा ज्यादा लोग अपनी पसंद से जीवन साथी चुनने के अधिकार के प्रयोग करते मारे गए टाईम्स आफ इण्डिया में 2 अप्रैल 2017 को छपी खबर के मुताबिक सरकारी आकडों के अनुसार 2001 से 2015 के बीच में अपनी पसंद से शादी करने वाले या शादी की चाह रखने वाले 38585 युवाओं की निर्मम हत्याएं हुई है। 79188 युवाओं ने आत्महत्याएं की हैं और 2.6 लाख अपहरण के मामले दर्ज हुए है। जबकि इसी अर्से में आतंकवादी हमलों में सुरक्षाबलों व आम आदमी समेत कुल मिलाकर 20000 लोग मारे गए है यह सोचने वाला आंकड़ा है। पूरे देश में इज्जत के नाम पर हत्यायें व अपराध बढ़ने के साथ साथ लापता जोडों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है। हरियाणा में भी इस साल इज्जत के नाम पर 20 युवा लड़के लड़कियां को मारा जा चुका है। ये केवल वो घटनाएं हैं। जो अखबारों में रिपोर्ट हुई है। हमारे समाज में आमतौर पर नारियों को परिवार जाति व समुदाय की इज्जत माना जाता है। ऐसा मुझे लगता है जबकि सच्चाई यह है कि एक लड़की अलग जाति या धर्म के लड़के के साथ शादी करती है या करना चाहती है तो वह तथाकथित इज्जत की मर्यादाओं का उल्लंघन करती है। इसलिए अपनी इज्जत की रक्षा करने के लिए लड़की के परिवार व समुदाय के रिश्तेदार जाति पंचायतों के दबाव से युवाओं को मौत के घाट उतारा जाता है। ऐसा करने से वो बिल्कुल नहीं हिचकिचाते है। ये अपराध व हत्याएं योजनाबद्ध तरीके से पूरे समुदाय के कुछ वर्गों द्वारा अंजाम दिए जाते हैं परन्तु इन्हें सामुदायिक हत्याओं के रूप में नहीं देखा जाता है। इन अपराधों में शिकायतकर्ता व गवाह मिलने के कारण अपराधी आसानी से बच जाता है। हमें ऐसी घटनाओं को भी उठाना होगा ओैर एक नये समाज का उत्थान करेंगे।
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मनजीत सिंह
एम. ए. उर्दू पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला
गांव भावड तहसिल गोहाना जिला सोनीपत
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