नेमीचंद मावरी ' निमय' ...
नेमीचंद मावरी ' निमय'
1.-एक ग़ज़ल
ओ हसीं मेहरबां हो ,जरा देख मुझको
इबादत में तेरी ,मैं ग़ज़ल गा रहा हूँ ,
बहुत दिन गुज़ारे वास्ते ज़माने ,
अब वास्ते सिर्फ तेरे ,ख़ुशी के पल ला रहा हूँ ।
ओ हसीं मेहरबां हो .........
जिन्हें खोजते जुगनू प्रेम में रजनी के पड़ा ,
उन्हीं चन्द लम्हों को ,मैं दोहरा रहा हूँ,
कली भी तो लूट जाती है प्रेमी भँवरे के लिए ,
ओ जाने तमन्ना उसी प्रेम में मैं लुटने आ रहा हूँ ।
ओ हसीं मेहरबां हो........
सयानी तो थी पहले भी तू बहुत ,
तुझ पर जमाने का रंग चढ़ाने आ रहा हूँ ,
खोल मत देना दरवाजा बेहया सी ,
मैं हवा बनके घूँघट उठाने आ रहा हूँ ।
ओ हसीं मेहरबां हो ..........
मझधार सी तू लगती है मुझको ,
गागर प्रेम की मैं भरने आ रहा हूँ ,
तू वाह-वाह कहे या वाह-वाह कहे ,
बस तेरे ही लफ्जों से संवरने आ रहा हूँ ।
ओ हसीं मेहरबां हो ,जरा देख मुझको
इबादत में तेरी ,मैं ग़ज़ल गा रहा हूँ ।।।
(वाह-वाह यमक अलंकार युक्त शब्दावतरण हैं ,जिसमें व्यक्ति की बड़ाई और आलोचना दोनों का उपागम है )
2. ~~~~~~~~पिता------------------
खुशियों का व्यापक संसार हैं पिता ,
हिम्मतों का विस्तृत आगार हैं पिता ,
गुरुत्व की झलक पुरुषत्व का अवतार हैं पिता ,
संतान के स्वप्ननिर्माता और प्रगति के आधार हैं पिता ।
हर दुःख को हँस कर सहना
केवल पिता के ही बस में है
पिता की हर ख़ुशी तो केवल
बच्चों के ही यश में है।
अपने स्वप्नों को कर ओझल
बच्चों का स्वर्ग बनाते हैं
उन पिता को बच्चे जवां हो
खुद पर बोझ बताते हैं ।
जिस पिता ने चुपड़ी देने के खातिर
खुद रूखी सूखी खाई थी
आज उसी पिता संग खड़े होने में
तुझको लाज आई थी ।
वृक्ष बनके छाया देना पिता का सहज स्वभाव है
पिता के बिना जीवन में सब कुछ होकर भी
लगता सदैव अभाव है ।
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3. चाँद की सच्चाई
भोर तक चलना है सपने लिए अकेले
तुम कुछ बात तो तन्हाई में भी करना
ऐ चाँद क्यों छुपा रहे हो अपना चेहरा
अभी तो शुरुआत हुई है बौरायेपन की ।
नजर भर के हमने देखा ना नूर तुम्हारा
तुम कितने जल्दी अमावस के पास चले गए
शिद्दत से मिलते गर अपना हमें समझकर
अकेले में भी महफ़िलों सा जाम पिला देते ।
अक्सर कहानियों में सुनी थी तुम्हारी बेवफाई की बातें
सच और झूट का पैमाना ना होता था तब
आज लगी सच्चाई पता कि डरते हो तुम भी किसी से
वरना भोर तुम्हारे विरह में व्याकुल न होती ।
4. शराबी
(Alcoholic)
उस पहली किरण से चन्द्रिका तक
नश्वरता के प्रतीक एक मानव को अमरत्व का मिथ्या भ्रम लिए भटकते देखा है मैने
कई बार निर्बाध,अनंतिम पगडंडियों पर ।
कई बार खोजने की ललक लिए उसके विस्तीर्ण स्वप्नों को सुना है मैने
अपूर्ण था उसका हर स्वप्न
भिद चुका था हृदय
मगर वो नाशवान तत्व को अविनाश मान
अभी भी संघर्षरत है
अम्बर तक दृष्टि है उसकी
पाताल स्वामी बनना चाहता है वो ,
केवल धरती की तह पर चलते चलते ।
और एक क्षण पर,
गिर पड़ता है उस निर्जन ,अंधियारी
पगडण्डी पर ।
भूख और प्यास में छटपटा रहा होता है
स्वप्न छोड़ चकाचोंध आती है उसे
आकाश पाताल धरती की सतह पर
दृष्टित होते हैं ।
वो कभी पूरे होने वाले नश्वरी स्वप्न नगरी में चन्द्रिका से प्रभात किरण तक
उसी पगडण्डी पर
बेजान सा पड़ा दिखता है ।
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5. अंतर
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ना तो अपने आप से ,ना किसी के दाब से ,
दुनिया में डरना तो केवल,आस्तीन के सांप से ।
ना सूरज की आग से ,ना सज्जनों के शाप से ,
दुनिया जल रही है केवल ,अपने अपने पाप से ।
ना औरों की बात से,ना औरों की औकात से ,
मतलब रखना इस दुनिया में, अपनों के जज़्बात से ।
ना बरसों के जाप से ,ना जंगल के वास से ,
मुक्ति मिलती है केवल ,झूठ कपट के त्याग से ।।
6. -----चेतन---------
अपना कहके फिर मुकरना
मेरे बस की बात नहीं
आसमान से तारे लाने की
मेरी खुद औकात नहीं ।
मैं मिट्टी में पला बढ़ा
बस बात जमीं की करता हूँ
आबाद बस्ती का बंजारा हूँ
मजबूर हूँ थोड़ा ,बर्बाद नहीं ।
छोटे छोटे खुशियों के पल
समेट अंजुलि में रखता हूँ
गुर्जी बन चेहरे की मुस्कानों का
पल पल आगे बढ़ता हूँ ,
रंगमंच की अदला बदली का
पास मेरे कोई राज नहीं ,
एक वजीर हूँ केवल अपने खेल का
कोई राजा का ताज नहीं ।
मन की मानूँ बस मन की करता हूँ
ये मनमानी है कोई चाल नहीं
फक्कड़ सा सतरंगी मेरा मौसम
जिसमें बिजली की कड़कड़ाहट नहीं
मीठी मीठी बारिश पीता हूँ
सैलाबों की कड़वाहट नहीं ।
आदम हूँ आदम की जाति का
उखड़ा हुआ शैतान नहीं ,
अपनी आदत रोज बदलना
मेरे बस की बात नहीं ।
7. ड़ूबता हुआ सूरज
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वो दूर तक परंतु अनंतिम
अपनी प्रखर रश्मियों से
धरा को नहलाता हुआ
जा रहा होता है
और तरू मही के आँचल में
छुपने लगते है
एकाकार होने लगती है
सम्पूर्ण प्रकृति .
व्योम तक इस एकीकृत झंकार से
नादित हो सृष्टी
अपना मुखारविन्द खोल
सहज ही प्रेममय और आह्लादित
हो उठती है
तब लगता है मानो
डूबते सूरज को
आदेश हो रहा हो
कि
हे भानु ! तुम्हें केवल
नवीनता के लिए आज
जाना होगा
क्योंकि इस क्षण के दोहराव में
मुझे ओर इंतजार अंगीकार नहीं
और सूरज मुस्कुराता हुआ
मदमाता हुआ
उस अंतिम छोर पर
नये उत्साह और विश्वास की
उम्मीद छोड़
ड़ूब जाता है .............
8. अनन्य है
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रात के आगोश में
जब छिपा चला जाता है मन
तो धीरे से हवा का झोंका बन
यूँ जगा जाना
अनन्य है
अश्कों के झरनों से जब लबालब हो जाती हैं आँखें
तो तृषित हिरनी की तरह तुम्हारा उनसे प्यास मिटाना
अनन्य है
कौतुहल से जब पूँछ रहा होता हूँ प्रश्न कभी
तो तुम्हारा इशारों में समझाना
अनन्य है
जब नफरतों की पृष्ठभूमि पर क्षणिक जीवन की भी आस न हो
तो तुम्हारा प्यार की हरियाली उपजाना
अनन्य है
तुम्हारी हर बात अनन्य है
तुम्हारा हर साथ अनन्य है
दूर तक चल रही भीड़ में
जब हाथ तुम्हारा पकड़ चलता हूँ
तो दुनिया में वो खुशनसीबी अनन्य है
दुखों के बोझे को जब अकेला उठा रहा होता हूँ
तो तुम्हारा हिम्मत बँधाना अनन्य है
तुम्हारी आँखों में आँखें डालने से सकुचाता हूँ जरा भी
तुम्हारा पास आकर नजरें मिलाना
अनन्य है ।
9. शीर्षक :-
कभी विस्तृत होता है
तो कभी संक्षिप्त
कभी अटपटा लगता है
तो कभी जाना पहचाना
कोई इसे बहुत सोच समझकर रचता है
तो कोई धड़ल्ले में ही
बुन लेता है ।
मगर कुछ भी कहो
कविता ,कहानी, उपन्यास ,व्यंग्य
समस्त विधाओं की जान होता है
ये प्यारा सा छोटा सा
दिल की गहराइयों तक
उतर जाने वाला
शीर्षक ।
कभी आक्रोश में जन्म लेता है
तो कभी खुशियों की फुलवारी में
कभी कभी तो उथल पुथल मचा देता है
और कभी तूफानों में भी सहसा कौंध जाता है
रचनाकार के भेजे में ।
एक शीर्षक दमदार हो तो
महफिलें जम जाती है
मुशायरे हो जाते हैं
और अगर शीर्षक में दम न हो तो राह चलता समझ लोग
सुनना और पढ़ना ही पसन्द नहीं करते
मगर कुछ भी कहो साहब
इस छोटी सी जान को
अगर सोच समझकर रचा जाये
तो तेवर कविता के
और सलीका कहानी का
पूरा समझ आ जाता है ।
कई शीर्षक देख रचना लिखते हैं
और कई रचना से शीर्षक बनाते हैं
मगर दोनों ही तरीकों में
सवाई तो शीर्षक ही होता है
हस्तियां मिट जाती है
मगर उनके शीर्षकों के दम पर
वो अमर हो जाते हैं
उनके शीर्षक के दम पर
उन्हें सदियों तक जाना जाता है ।
पीड़ा,काम ,ख़ुशी
मल्हार,वेदना,साहस, क्रूरता,धैर्य,प्रेम
और भी कई असंख्य गुणों अवगुणों
मानव ,दानव,पाशविक ,
मार्मिक,ऐच्छिक और अनैच्छिक प्रवृत्तियों को भी
अपने निज में समा लेता है
और देता है परिचय
विविधता में एकता का ,
एक शीर्षक ।।।।।।।
10. बिसरे शब्द बनाम नये शब्द
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मैं बोझिल हो चला हूँ
बेबुनियाद शब्दों की गठरी ढोते ढोते
जो अक्सर ही नहीं अपितु अब हर बार मेरे विनम्र शब्दों पर
बारी बारी से नर्तन करने लगे हैं
और मेरे विनम्र शब्द असहाय सा महसूसने लगे हैं
हर एक नया शब्द बिन बुलाये मेहमान की तरह
घुसा चला रहा है
मेरी गठरी में ।
और मैं बोझ उठाये जा रहा हूँ
शब्द छिछोरा था जो आया था आदिवासियत से
या पूहड़पन से
जिसे गाली दर्जा दिया गया
या फिर कलमकारों से सरस्वती दूर चली गयी थी
जो लिख डाला ,
या फिर कहीं पूरी दुनिया की
किसी अनजान नगरी से आया था वो शब्द
ये नहीं पता मुझे
मगर इन ''गाली '' उपनाम वाले महाशय ,
जो शब्द कहे जाते हैं
कुछ विद्वानों द्वारा
उन शब्दों से मैं बोझिल हो चला हूँ ।
ये शब्द मिलते थे कभी
किसी भी चौराहे पर शहर के किसी रेस्तरां में ।
या गांव में अक्सर हमारे
बुजुर्गों की चौपालों में
या फिर जिंदगी से हारे
किसी गमगीन शराबी के पास ।
मगर तब बोझ कम था
क्योंकि वो शब्द दायरे के बाहर न थे
मगर अब द्रुत गति इतनी हो गयी
कि मार्ग में आने वाला
हर वर्ग
बच्चा बूढ़ा नौजवान
इनकी चपेट में है
न विद्या के मन्दिर में
निषिद्ध
ना कान्हा के में ,
अब आक्रामक हो
मेरे शिष्ट और सभ्य
शब्द भी न चाहते हुए
शायद समझौता करने लगे है
और मैं
दिनोदिन
और भी
बोझिल हो चला हूँ ।
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नेमीचंद मावरी ' निमय'
अन्य नाम - काव्य
शोधार्थी, रसायन, MNIT, जयपुर
सदस्य, हिंदी साहित्य समिति, बूंदी राजस्थान
निवासी - तालेडा, बूंदी राजस्थान
पुस्तक - काव्य के फूल
500 से अधिक काव्यात्मक रचनाएँ यथा ग़ज़ल, मुक्त छंद , छंदबद्ध कविताएँ (श्रृंगार, वीर, वात्सल्य, करुणा, व्यंग्य, छायावाद व समाज से उद्धृत रचनाएँ)
1000 से अधिक हाइकु लेखन
* विज्ञान का छात्र हूँ, नए नए invention करना भाता है,
विषय चाहे कुछ भी हो, दिल मेरा लग जाता है,
रोम रोम में कविताएँ बसी है पूज्यवर,
हिंदी से मेरा बचपन से ही नाता है। *
कक्षा -३ से कविताएँ लिख रहा हूँ, बच्चा बने रहने में आनंद की अनुभूति होती है इसलिए आज भी कक्षा-३
का अबोध बालक बनके लिखना मेरा स्वभाव हो गया है। सकुशल हूँ, आशा है आप भी हों।
bahut sundar
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