ई बुक पाप का घड़ा [एक सच्चे संत की गाथा] लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित राजवीणा मारवाड़ी साहित्य सदन, अंधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, जोधपुर ...
ई बुक
पाप का घड़ा
[एक सच्चे संत की गाथा]
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
राजवीणा मारवाड़ी साहित्य सदन, अंधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, जोधपुर [राजस्थान].
भगवान के घर देर है, मगर अंधेर नहीं। बुरे काम करके इंसान ख़ुश हो जाता है, मगर जब उसका पाप का घड़ा भर जाता है तब अपने-आप उसके बुरे दिन आ जाते हैं और उसे किये गए पापों का हिसाब देना पड़ता है।
समीक्षा
इस पुस्तक में श्री दिनेश चन्द्र पुरोहित ने एक सच्चे संत के जीवन में आये कई उतार-चढ़ावों का वर्णन किया है, वह तारीफ़े-काबिल है। सच्चा संत वही है, ‘जो इन्द्रियों को अपने काबू में रखता है, और वह उनका गुलाम नहीं बनता।’ पुस्तक ‘पाप का घड़ा’ में इन्होंने तर्क के साथ यह सिद्ध किया है कि, “मंदिर में भक्तों के अधिक जमाव हो जाने से ईश्वर की सेवा में केवल बाधा आती है, इसलिए न तो लोगों के बीच प्रसिद्धि प्राप्त करनी और न इच्छा रखनी कि सांसारिक लोग यहां आकर उनके चमत्कार की प्रशंसा करे। क्योंकि, ये सांसारिक लोग अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रख सकते। ये लोग तो बड़े-बड़े साधु-संतों के चोले बदल देते हैं! अत: सांसारिक लोगों से, दूर ही रहना अच्छा है।” यह व्याख्या, आज़ के भौतिक युग में काफ़ी सार्थक है। मैं इनके लेखन कार्य की सराहना करता हूँ, मुझे आशा है आगे भी ‘श्री दिनेश चन्द्र पुरोहित अपने रचनात्मक लेखन कार्य द्वारा, हिंदी-साहित्य के विकास में नियमित सहयोग देते रहेंगे।’
रविवार 3 मार्च 2019
रवि रतलामी
[संपादक, रचनाकार]
“यह ख़िलक़त, स्वार्थी लोगों से भरा है। अभी चल रहा है, कलियुग। इसमें कहीं भी लोगों में, प्रभु की भक्ति दिखाई देती नहीं। लोगों को बुरे काम करना, और परनिंदा करना ही बहुत अच्छा लगता है।”
दिनेश चन्द्र पुरोहित [लेखक]
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पाप का घड़ा
[एक सच्चे संत की गाथा]
लेखक एवं अनुवादक दिनेश चन्द्र पुरोहित
किसी ज़माने में निर्ज़न स्थान में, काली माता का मंदिर था। जो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था। उस मंदिर के महंत थे, बाबा भौम दास। इनका नाम, समाज में बहुत सम्मान के साथ लिया जाता था। धूनी के चमत्कारों की महिमा सुनकर, बहुत दूर-दूर से श्रद्धालु लोग बाबजी के दर्शन के लिए आते थे।
बाबजी के चार चेले थे, इन चार चेलों में नारायण भक्त उनके ख़ास चेले थे। नारायण भक्त की एक-एक बात, बाबा के दिल को छू जाती थी, जिसका एक ही कारण रहा..नारायण भक्त का निर्मल दिल। नारायण भक्त किसी का बुरा नहीं करते, और न किसी केलिए अपने दिलमें बुरा ख़्याल रखते! बस, वे तो ख़ाली बाबा की सेवा में लगे रहते। वे बाबजी को ईश्वर का रूप मानकर, उनकी सेवा में लगे रहते। इस मंदिर में जब बाबा महंत बने थे, तब ये “चारों भक्त” माताजी के दर्शन के लिए नियमित आया करते थे। उस वक़्त मंदिर में कोई ज़्यादा चहल-पहल नहीं थी, बाबजी अपना काफ़ी वक़्त योग और ध्यान में बितादिया करते। मगर जब से यह धन-दौलत की भूखी ठेकेदार खींवजी की चांडाल-चौकड़ी ने इस मंदिर में अपने क़दम रखे, तभी से इस मंदिर की शांति ख़त्म हो गयी। इनके आने के बाद, बेचारे बाबजी के पास योग, ध्यान और समाधि में बिताने के लिए बिल्कुल वक़्त नहीं रहा। जिसका मुख्य कारण रहा, बाबजी का लिहाज़ी होना। इनके पदार्पण के बाद तो ऐसा समय आ गया, बेचारे बाबजी चातक पंछी की तरह इंतज़ार करने लगे, कि ‘कब ये भक्त अपने घर जायें, और वे अपनी योग-साधना में बैठें..!’ लिहाज़ी होने के करण वे किसी से यह कह नहीं पाते, कि “भक्तों, अब तो आप लोग अपने घर की ओर प्रस्थान करो, और मुझे प्रभु के नाम की माला जपने दो..!” मगर कहां ऐसे भाग्य, बाबजी के..वे थोड़ा वक़्त दे सकें, उनकोमाला जपने के लिए..?
इस तरह बाबजी की दिनचर्या पहले की तरह बनी नहीं, और बेचारे तरसने लगे प्रभु का नाम लेने के लिए..! वक़्त बीतता गया, हमेशा की तरह एक दिन बाबजी मंदिर के पूजा-पाठ व प्रवचन काम से फ़ारिग़ हुए और उन्होंने सोचा, कि ‘आज़ ज़रूर कहीं एकांत में बैठकर, प्रभु का नाम स्मरण करेंगे..!’ मगर मालिक जाने, कहां से कैसे आ गया यह भक्तों का टोला..जयकारा लगाता हुआ ? और आकर बैठ गया, मंदिर की साळ [गलियारे] में..व भी, बाबजी के बहुत समीप..! फिर यह बेरहम भक्तों की टोली, ज़ोर-ज़ोर से गाने लगी भजन। इन लोगों में कहीं दिखायी नहीं दे रही थी, प्रभु की भक्ति..? बस इन लोगों में से कोई तो दिखला रहा था अपनी गायकी, कोई ढोलकी बजाकर दिखलाने लगा अपनी वादकी। किसी ने पकड़ ली हारमोनियम की पेटी, तो कोई निकला इतना क़ाबिल भक्त..कि, उसने उठा लिए बाबजी के पास रखे मंजीरे..! भले अब बाबजी बैठे-बैठे, वाद्य-यंत्र की जगह तालियाँ ही पीटते रहें..? ऐसे बेचारे कई भक्त थे, जिन्हें बजाने के लिए कुछ नहीं मिला..तब वे, बाबजी की संगत में तालियाँ ही पीटने लगे। बस, अब यह भक्तों की टोली भक्ति को एक तरफ़ रखकर वाद्ययंत्र बजाने की क़ाबिलियत दिखलाने लगी। इधर तो ताबड़-तोड़ मर्दूद साज़ की आवाज़, और उधर इन भक्तों की बेसुरी आवाज़..! किधर तो जा रहे हैं ताळ, और किधर है उनके सुर..? भक्तों को क्या करना, सुर और ताळ की संगत का..? संगीत के ताळ और लय से क्या मतलब, इन भक्तों का ? बस, वे तो ताबड़तोड़ साज़ बजाने में हो गए मस्त।
आख़िर बाबजी के कान पक गए, इन कर्कश आवाजों को सुनकर। उन्होंने सोचा कि, “इन भक्तों को चाय की प्रसादी दे दी जाय तो, शायद ये रुख़्सत हो जायेंगे।” ऐसा सोचकर बाबजी ने अपनी धर्म-पत्नि को आवाज़ देकर कहा “अरी सुनती हो, भागवान..? भक्तों के लिए, चाय की प्रसादी तो लाइए।” इतना कहकर बाबजी उठे, और सोचा ‘अब भक्त चाय पी रहे हैं, तब-तक वे कहीं एकांत में बैठकर प्रभु के नाम की माला जपते रहेंगे..!’ मगर, उनका उठकर जाना अब उनके हाथ में रहा नहीं। उनके पहलू में बैठे भक्तों ने बाबजी की बांह थामकर, उनको वापस बैठा दिया और वे उनसे विनती कर बैठे “बाबजी यों जुल्म मत कीजिये, हम यहां अकेले बैठकर कैसे चाय पियेंगे..? बैठिये बाबजी, आपके साथ बैठकर चाय पियेंगे।” अब इसके आगे बाबजी ने कुछ कहना चाहा, मगर इन भोले भक्तों को कहां पसंद, कोई बाबजी की बात सुनें..? उन्होंने तो झट कह दिया कि, “बाबजी, जब तक चाय नहीं आये तब तक, एक भजन और गा लिया जाय।” फिर क्या ? उन्होंने कुछ सुनने की कोशिश नहीं की, भले बाबजी कुछ भी कह रहे हों..? वे तो ताबड़-तोड़ वाद्य-यंत्र बजाते हुए, भजन गाने लगे। आख़िर बेचारे बाबजी ने सोच लिया कि,“मालिक की इच्छा के बिना, कोई काम सरता नहीं। बस, अब यही मालिक की इच्छा है। मालिक की इच्छा से ही, इस ख़िलक़त के सारे काम होते हैं.. उनकी इच्छा के आगे इंसान की क्या बिसात ? क्या करें, आज़ भी माला जपने का जोग बना नहीं।” इतना सोचकर, बाबजी भक्तों का साथ देते हुए भजन गाने लगे। तभी उनकी धर्म-पत्नि एक हाथ में चाय से भरी बड़ी केतली और दूसरे हाथ में सिकोरों से भरी बाल्टी लिए, सामने आती दिखायी दी। अब चाय के मसालों की सुगंध चारों ओर फ़ैल गयी, भक्तों के नथुनों में यह सुगंध जा पहुँची। अब भक्तों के दिल में उतावली मच गयी कि, ‘कब गुरुआइणसा इनको, गरमा-गरम चाय से लबालब भरा सिकोरा थमा दें ?’ चाय भरे सिकोरे हाथ में आते ही, भक्तों ने भजन गाना बंद कर डाला। फिर क्या ? साज़, एक तरफ़ रख दिए गए। खींवजी ज़ोर से जयकारा लगा बैठे ‘बोलो रे बेलियों, अमृत वाणी।’ पीछे-पीछे, उनके साथी ज़ोर से बोल उठे ‘हर हर महादेव।’ सत्संग के क़ायदे के तहत, जयकारे तीन बार लगाए जाते हैं..इस कारण इन भक्तों ने दो बार और जयकारे लगाए। इधर पीछे बैठे भक्तों ने, अलग से जयकारा लगा दिया ‘बोलो, अम्बे मात की जय।’ अब सभी भक्त मुंह से सुड़क-सुड़क की आवाज़ निकालते हुए, मसाले वाली चाय पीने लगे। मगर बाबजी, नारायण भक्त के बिना चाय कैसे पी सकते थे ? उनको नारायण भक्त की याद सताने लगी। उनको नारायण भक्त पर दया आने लगी “बेचारे नारायण भक्त सुबह से मंदिर के काम में जुटे हैं..न तो उन्होंने अभी तक, चाय का एक घूँट चाय पीया, और न उन्होंने एक निवाला रोटी का मुंह में डाला।” उनकी इच्छा हुई कि, ‘नारायण भक्त को यहीं बुला लिया जाय..ताकि, वे यहीँ बैठकर चाय का सेवन कर ले।’ यह सोचकर उन्होंने झट नारायण को आवाज़ दी “ए रे नारायण, आकर चाय पीले रे। थकावट, दूर हो जायेगी।’ इतना कहकर, बाबजी ने चाय न पीकर चाय का सिकोरा वहीँ नीचे रख दिया।
मगर, नारायण भक्त क्यों आये..? उन्होंने तो बाबजी की सेवा को अमृत मानकर, मंदिर के आँगन और चौक में झाडू-पोचा लगाकर उसे कांच की तरह चमका दिया। चाय के लिए वहां न आकर, अब उन्होंने मंदिर का दूसरा काम हाथ में ले लिया। इस तरह, वे तो गुरु-भक्ति में ऐसे लीन हो गए..कि, उन्हें तो चाय-नाश्ता कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। आख़िर नारायण भक्त का कोई जवाब न पाकर, बाबजी ने वापस आवाज़ लगाई ‘अरे, आ रे नारायण। चाय ठंडी हो रही है। चाय को ठंडी करके, तूझे क्या मिलेगा रे..?’
अब पोचा और बाल्टी एक तरफ़ रखकर, नारायण भक्त ज़ोर से बोल उठे ‘बाबजी, आप अरोगिये, चाय। मेरी फ़िक्र आप मत कीजिये बाबजी, मैं तो रसोई-घर में जाकर पी लूंगा चाय।’ इतना कहकर, वे तो वापस अपने काम में व्यस्त हो गए। काम करते-करते वे मीरा बाई का भजन गाने लगे “म्हने चाकर राखोजी, प्रभुजी म्हने चाकर राखोजी। चाकर रेस्यूं भोग लगास्यूं नित उठ दरसण पास्यूं..प्रभुजी म्हने चाकर राखोजी।” इस भजन को गुनी बनाकर, वे गाते-गाते काम करते गये। आख़िर, यह सफ़ाई का काम निपट गया। अब वे चौक के नल के नीचे, अपने हाथ-पाँव धोने बैठ गए। हाथ-पांव धोने के बाद, वे परिंडे के पास चले गए। वहां जाकर उन्होंने, वहां सूख रहे पानी छानने के कपड़े को पानी में डूबाकर उसे साफ़ किया। फिर वहां रखा चरू, डोलची और पानी छानने का कपड़ा लिए गागर भरने के लिए, कुए की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा दिए। पेय-जल की व्यवस्था का काम निपट जाने के बाद, उन्होंने अपने क़दम गौशाला की तरफ़ बढ़ा दिए। वहां आकर उन्होंने सभी गायों को स्नान करवाकर, उनके लिए चारा-पानी की व्यवस्था की। फिर, गौशाला की सफ़ाई व दूध दुहने का काम पूरा किया।
उधर भक्त-गण आराम से बैठकर, सुड़क-सुड़क की आवाज़ मुंह से निकालते हुए चाय पीते रहे। चाय पीते-पीते वे, पराई-पंचायती करने लगे। बाबजी को, इन लोगों की पराई-पंचायती से क्या लेना-देना..? उनको तो एक ही फ़िक्र, ‘नारायण भक्त की..जिसने अभी तक एक कप चाय को मुंह न लगाया, और वह सुबह से करता जा रहा है मंदिर के काम।’ नारायण भक्त, यहाँ आना क्यों चाहेगा...? यहाँ आना, और पराई पंचायती के निंदा-पुराण में फंसना..और, इसके सिवाय है क्या ? इसलिए नारायण भक्त तो इस परायी पंचायती में न फंसकर, बाबजी की सेवा में लगे रहने को ही श्रेयस्कर समझ लिया। गुरु तो ईश्वर का रूप है, इस बात को ह्र्दयगम कर वे सुबह से काम करते जा रहे थे। उन्होंने एक बात समझ ली कि, “गुरु-सेवा अमृत समान है।” आख़िर नारायण भक्त को आते न देखकर, उन्होंने चाय का सिकोरा उठा लिया। और फिर उस ठंडी चाय को, सुड़क-सुड़क की आवाज़ निकालते हुए पीने लगे। बाबजी तो चुप-चाप बैठे चाय पीते गए, मगर मुंह से पर-निंदा का एक शब्द उनके मुंह से बाहर नहीं निकला। उनकी पेशानी पर उभरती फ़िक्र की रेखाओं को देखकर भी, इन भक्तों के ऊपर कोई प्रभाव नहीं...? बस, फिर क्या..? वहां बैठे भक्त-गण, नारायण भक्त की बुराई करने में वे पीछे क्यों रहने वाले....? उनमें एक को शैतानों का चाचा कहें, तो ग़लत न होगा। वह बाबजी को भड़काता हुआ, कह उठा कि “बाबजीसा, काहे फ़िक्र कर रहे हैं आप..? पड़े रहने दो, इस नारायण को। करमठोक है, यह। जो चाय जैसी अमृत समान प्रसादी को, ठुकराता जा रहा है।” वह शैतान चुप ही नहीं हुआ, इतने में दूसरा ईर्ष्यालु भक्त बीच में बोल पड़ा “बाबजीसा, आज़कल सावधानी रखनी बहुत ज़रुरी है। ज़माना ख़राब है, बाबजी। आज़कल, इन बदमाशों का क्या कहना..? घर वालों की सेवा करते-करते, वे उनका घर साफ़ करके निकल जाते हैं दूर। अरे राम राम, ये लोग तो ऐसे कमीने हैं..जो एक लंगोट भी, छोड़कर नहीं जाते।” इतने में, तीसरा भक्त बोल उठा कि “बस.... बाबजीसा। आप तो सावधानी बरतिए आज़ से ही, अभी के अभी इस नारायण को मंदिर से बाहर निकाल दीजिये। कमबख़्त का चेहरा कितना भोला है, मगर अन्दर से यह पाप भरा गोला है।” उसकी बात सुनकर, वहां बैठे सारे भक्त ठहाके लगाकर हंसने लगे। नारायण का निंदा-पुराण सुनते-सुनते बाबजीसा के कान पक गए, अब वे बेचारे लिहाज़ी संत उन भक्तों को आँखें तरेरकर कर देखें, या नाक सिकोड़कर अपनी नाराज़गी दर्शाए.? मगर, इन भक्तों पर कोई असर होने वाला नहीं। आख़िर, बाबजी ने इस निंदा-पुराण बंद करने की कोशिश कर डाली। और इस गुफ़्तगू का मुद्दा बदलते हुए, कहने लगे कि “क्या कहें, आपको..? आप तो अपने साथी मूल सिंहजी को, बिल्कुल ही भूल गए..? आपको पत्ता नहीं, कई दिन से वे दिखायी नहीं दे रहे हैं..? ज़रा उनकी ख़बर लीजिये, बेचारे बीमार तो नहीं हैं..?”
मगर यहाँ, बाबजीसा के पूछे गए प्रश्न को सुने कौन..? बरसात में इन मेंढ़कों की टर्र-टर्र की आवाज़ के आगे, कोयल की मीठी आवाज़ किसी को सुनायी दी नहीं..बस अब इन बरसाती मेंढ़कों को केवल निंदा-प्रवचन ही अच्छा लगा, तो फिर वे क्यों दूसरे मुद्दे पर गुफ़्तगू करना चाहेंगे ? इस कारण, ये सारे भक्त खा-पीकर उस नारायण भक्त की इज़्ज़त की बख़िया उधेड़ने में लग गए। बस वे किसी तरह, बाबजीसा की नज़रों से नारायण भक्त को गिराने का सतत प्रयास कर बैठे।
पर-निंदा करते-करते भक्तों को मालुम नहीं हुआ कि, ‘वक़्त काफ़ी बीत गया और सुर्यास्त भी हो गया..मगर इन भक्तों का, वहां से उठने का कोई सवाल नहीं...?’ इस तरह बाबजी को, रविवार की छुट्टी का दिन यूं ही व्यतीत होता अहसास होने लगा। अब तो गायों के खुरों से उड़ी धूल नभ में छा गयी...गोधूली का वक़्त भी आकर, चला गया। तभी नारायण भक्त काम से निपटकर, रुई लेकर निज मंदिर में आ गए। फिर नीचे बैठकर, रुई से बाटें बनाने लगे। बाटें बनाते हुए, वे गोस्वामी तुलसी दासजी का पद “परोपकार पुण्याय, पापाय पर पीड़ नम” गाते रहे। बाटें बन जाने के बाद, उन्होंने उठकर आले में रखी घी की बरनी उतार लाये। फिर नीचे बैठकर, इन बाटों में घी डालकर आरती की ज्योतें तैयार कर डाली। ज्योतें तैयार होने के बाद, नारायण भक्त ने बाबजीसा को आवाज़ लगाई। वे उन्हें आवाज़ देते हुए,ज़ोर से कहने लगे “बाबजीसा, सिंझ्या आरती की ज्योतें तैयार हो गयी है। अब आप निज मंदिर में पधारिये..माताजी की आरती कर लेते हैं।”
बाबजीसा झट उठकर, निज मंदिर में चले आये। साळ में बैठे भक्त उठकर मंडप में आ गए, और सिंझ्या-आरती में सम्मिलित होने के लिये वहां खड़े हो गये। खींवजी पीतल के घंटे के पास आकर खड़े हो गए, और उन्होंने घंटे को बजाना चालू किया..उधर दूसरे भक्त छमछमिया लेकर उसे बजाने लगे। कोई भक्त नगाड़े के पास चला गया, और ज़ोर-ज़ोर से नगाड़ा पीटने लगा। बाबजीसा माताजी की मूरत के पास खड़े होकर आरती “जय अम्बे गौरी मैय्या..” गाने लगे, और उनके साथ सभी भक्त आरती गाने लगे। नारायण भक्त, सिंझ्या आरती उतारने लगे। आरती पूरी होने के बाद, नारायण भक्त सभी भक्तों के सामने आरती का थाल ले गए। इधर बाबजीसा पंच-पात्र के पवित्र जल को अंजलि में लेकर भक्तों पर छिड़काव करने लगे, और कहते गए “छांटा लागा नीर का, पाप गया शरीर का।” आरती पूरी हो जाने के बाद, सभी भक्तों ने श्रद्धा से ज्योतों के ऊपर हाथ रखा। फिर, उसे अपनी आँखों पर लगाया।
आरती हो जाने के बाद, भक्त वापस साळ में आकर बैठ गए। इधर बाबजी ऐसा सोचने लगे कि, “अब आरती का काम पूरा हो गया, भक्त अपने-आप अपने घर चले जायेंगे..तो फिर, बगीचे में चला जाय...और, प्रभु के नाम की माला फेर ली जाय।” तभी दूसरा विचार उनके दिमाग़ में आया कि, “पूरे दिन इन भक्तों ने माला फेरने नहीं दी, अब भी कोई बहाना बनाकर हफ्वात हांकने बैठ जायेंगे..और इस तरह, माला जपने देंगे नहीं। इससे तो अच्छा है, इन भक्तों को खाना खिलाकर इन्हें रुख़्सत किया जाय।” यह सोचकर, उन्होंने नारायण भक्त से कहा “नारायण, सभी भक्तों को भोजनशाला ले जाकर, तू उन्हें प्रसादी खिला दे।”
ये सारे भक्त ठहरे, भोजन-भट्ट। बाबजी की भंडारा करने की आदत ने, इन भक्तों को बिगाड़ डाला। बस यही वज़ह ठहरी, भक्त इस मंदिर को छोड़ते ही नहीं...सुबह देखो या शाम, बस यहीं जमे रहना..बस यही, इनकी मज़बूरी बन गयी। मगर, बाबजी आगे क्या कहते, यहाँ तो कोई भी नारायण भक्त पर भरोसा करने वाला नहीं... कि ‘नारायण भक्त भोजन-व्यवस्था में हाथ डाले ?’ तब, खींवजी कहने लगे “क्या कर रहे हो, गुरुदेव ? नारायण बहुत सेवा कर चुका है, अब प्रसादी वितरण वाली सेवा अब हम सब मिलकर कर लेंगे। बाबजीसा आप फ़िक्र मत कीजिये, यह काम हम अच्छी तरह से निपटा लेंगे।” इतना कहकर, खींवजी सभी भक्तों को लेकर भोजनशाला की तरफ़ चले गए। इसके सिवाय, और क्या हो सकता था ? आज़ के आधुनिक चेले काहे गुरूजी की बात सुनेंगे, कि “गुरूजी, ख़ुद क्या चाहते हैं ?”
भक्तों के चले जाने के बाद, बाबजी विचार करने लगे ‘अब बगीचे में जाकर किसी शांत स्थान पर आसन जमाकर बैठ जायेंगे, और वहां बैठकर प्रभु के नाम की माला जपते रहेगे।’ मगर बेचारे बाबजी की यह किस्मत, कहां..माला जपने की ? मंदिर के सारे का निपटकर नारायण भक्त वहां आ गए, और बाबजी से ज़िद्द कर बैठे कि, ‘आपको कहीं नहीं जाना, आप बहुत थक चुके हैं।” इतना कहकर, वे ज़बरदस्ती उनका हाथ थामकर ले गए विश्राम-कक्ष में। वहां रखी खाट सीधी करके, उस पर बिस्तर बिछा डाला। फिर, बाबजीसा को उस खाट पर लेटा दिया। बाद में उनके पास बैठकर, वे उनके पाँव दबाने लगे। थोड़ी देर बाद, आले में रखी तेल की कटोरी उठाकर बाबजी के तलवों की मालिस करने लगे। मालिस करते-करते नारायण भक्त, उन्हें अख़बार में छपी खबरें सुनाने लगे।
ख़बरे सुनाते-सुनाते उन्होंने आले में रखा अख़बार उठाया, और उसे बाबजी के सामने रखकर कहने लगे “बाबजी, कैसा ख़राब ज़माना आया है ? कहां से ऐसे साधु चले आये, इस ख़िलक़त में ? जिन पर ये भक्त आँखें बंद करके उन पर भरोसा करते हैं, और ये साधु उन्ही भक्तों की बहू-बेटियों को ग़लत नज़र देखते हैं। आप ख़ुद देख लीजिये, इस अख़बार में छपे हैं बापू आसा राम के क़ारनामें। इनके भक्त इन्हें ईश्वर का अवतार मानकर इन्हें पूजते हैं, और इन्होने अपने किसी भक्त की नाबालिक छोरी के साथ दुष्कर्म कर डाला। ऐसे साधु-संतों की छाया पड़ने से पाप लगता है, बाबजी।” उनकी बात सुनकर, बाबजी कहने लगे “नारायण, यह ख़िलक़त अब कलियुग के कई रूप दिखला रहा है। बस सच्चे-संतों को चाहिए, वे कंचन और कामिनी से दूर रहें। नारायण, अब मैं भी अख़बार की ख़ास-ख़ास ख़बरें पढ़ लेता हूं, आख़िर इस में छपा क्या है ?” इतना कहकर बाबजी उठकर बैठ गए, और अख़बार लेकर उसे पढ़ने लगे। जैसे वे बापू आसा राम के जीवन के बारे में पढ़ने लगे, और उनको अपनी ख़ुद की ज़िंदगी में बीते वाकये याद आने लगे। उनकी आँखों के आगे अब यह संगमरमर के पत्थर का बना माताजी का मंदिर, भोजनशाला, धर्मशाला, बाग़-बगीचे और चारों ओर बसी हुई कोलोनी वगैरा के मंज़र घूमने लगे। ये सभी, पन्द्रह साल पहले कहां थे ? उस वक़्त यह मंदिर, खण्डहर बनता जा रहा था! ठौड़-ठौड़ टूटा-फूटा, दरारे खाया हुआ वह जीर्ण-शीर्ण मंदिर अब कहां है..? इन बातों को सोचते–सोचते, बाबजी पुरानी यादों के समुन्द्र में गौता खाने लगे। अब ये बीती हुई यादें, चित्र-पट की तरह उनकी आँखों के आगे घूमने लगी। यह जीर्ण-शीर्ण मंदिर और पंद्रह बीघा कृषि ज़मीन, बाबजी को अपने पिताजी से वृति में मिली थी।
बाबजी का मूल नाम था, भौम दास। इनके पिताजी जोधपुर राजघराने के माने हुए ज्योतिषी थे, उनका नाम था पंडित शंकर लाल। पण्डित दस लड़कियों और पांच लड़कों के पिता थे। इनको जोधपुर महाराजा से, वृति में कई बीघा ज़मीन और कई मंदिर सेवा-पूजा के लिए मिले थे। इनकी म्रत्यु के पश्चात सारी ज़मीन और मंदिर, वृति के लिए सभी लड़कों में बंट गयी। इस तरह भौम दासजी के हिस्से में, एक काली माता जीर्ण-शीर्ण मंदिर और पंद्रह बीघा कृषि ज़मीन मिली। इस बंटवारे के पहले, भौम दासजी कोषागार में लेखाधिकारी के पद पर नौकरी करते थे। नौकरी करते रहने से, घर में पैसे की पूरी आमद थी। किसी तरह की कोई कमी नहीं थी। इस तरह भगवान की मेहरबानी से पतिव्रता पत्नी और आज्ञाकारी बच्चों का सुख भोगते हुए, उनकी उम्र पच्चास के नज़दीक पहुंच गयी। इस वक़्त तक, वे अपने सभी बच्चों के ब्याव आदि काम से फारिग़ हो चुके थे। और सभी बच्चें अपने पांवों पर खड़े हो गए, इन सबके पास अच्छी नौकरी, ज़मीन-ज़ायदाद सभी सुख देखते हुए हुए भौम दासजी सेवानिवृत हो गए। अब उन्हें एक ही धुन लग गयी कि, अब शेष ज़िंदगी प्रभु की सेवा-पूजा में ही बितानी है। यह निर्णय लेने के बाद, दोनों सदगृहस्थ सांसारिक वस्त्र त्यागकर सफ़ेद वस्त्र धारण कर लिए। फिर, उस जीर्ण-शीर्ण काली माता के मंदिर में आकर रहने लगे। भौम दासजी की पेंशन और वृति में मिली कृषि ज़मीन की आय, उनके जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त थी। उस वक़्त इस मंदिर में माताजी के दर्शन करने के लिए, चार भक्त नियमित आया करते थे। इन चारों के नाम थे, नारायण दास, शान्ति लाल, अमर चन्द और किसन लाल बोहरा। ये जब भी आते, तब बाबजी की सेवा मन लगाकर किया करते। बाबजी इन चारों को योग, भक्ति और समाधि का ज्ञान देते रहते। ये चारों भक्त, बाबजी से प्रभावित हुए बिना रह नहीं सके। बाबजी से गुरु-मन्त्र लेकर, वे सभी उनके शिष्य बन गए। इनके आते रहने से, बाबजी को किसी तरह का व्यवधान नहीं हुआ। ये चारों व्यक्ति नियम-क़ायदे वाले थे। इस कारण बाबजी योग, समाधि और स्वाध्याय में,बराबर वक़्त देते रहे। मगर जब से यह खींवजी की चाण्डाल-चौकड़ी आनी शुरू हुई, तब से बाबजी को योग, समाधि और स्वाध्याय में वक़्त निकालना दूभर हो गया। अब तो स्थिति यह हो गयी, वे कभी एकांत में बैठकर, प्रभु के नाम की माला जप नहीं पाते। खींवजी जब भी आते, तब वे कभी अकेले नहीं आते..इनके साथ कंदोई मूल सिंह, दलाल पप्पू लाल और नक्शानवीस माणक मल को साथ ज़रूर लाते। बेचारे बाबजी, करते भी क्या ? जैसे ही वे नित्य कर्म निपटकर, स्वाध्याय या समाधि में बैठने की सोचते...तभी ये कुतिया के ताऊ खींवजी, अपनी चाण्डाल-चौकड़ी लेकर वहां आ जाते और बाबजी को बातों में लगा देते। बाबजी ठहरे लिहाज़ी आदमी, वे उनको रुख़्सत दे नहीं पाते..क्योंकि, बाबजी के लिये हर आगंतुक उनका मेहमान था। फिर इस लिहाज़ के करण, वेअपने मुंह से कैसे कहे कि, “तुम लोग जाओ, अपने घर और मुझे माला जपने दो।” यहा तो यह चाण्डाल-चौकड़ी इतनी होशियार ठहरी कि, ‘ये लोग अपने धंधे का वक़्त कभी ख़राब नहीं करते, ख़ुद का काम पूरा करके ही यहाँ आया करते।’ ये लोग यहाँ आकर बाबजी के पास बैठकर, भजन गाने शुरू कर देते या फिर गपें हांकनी शुरू कर देते। इस तरह यह मंदिर, उनके लिये निक्कमाई करने का स्थान बन गया। बाबजी अपने लिहाज़ी स्वाभाव के कारण कुछ बोल नहीं पाते, नारायण भक्त ठहरे गऊ सामान..सीधे सज्जन इंसान। वे किसी से बेकार की बातें करते नहीं, काम से काम की बात...बस वे तो आते ही, मंदिर के सेवा-कार्य में लग जाते। मंदिर में उनके लायक कई सेवा कार्य थे, जैसे सफ़ाई, जल-व्यवस्था आदि..इन कामों में लगकर, वे बाबजी के कामों में हाथ बंटाया करते।
यहाँ तो इस चांडाल चौकड़ी को इनके द्वारा की जा रही सेवा, अच्छी नहीं लगती। ये लोग कई बार कोशिश करते रहे कि, “नारायण भक्त की फ़ितरत भी, उनकी जैसे बन जाए।” मगर नारायण भक्त पल्ला झाड़कर, इन लोगों से दूरी बनायी रखते। आख़िर, इन कुदीठ इंसानों का काम बना नहीं। तब वे, नारायण भक्त को बिना कारण परेशान करने लग गए। कभी ये लोग पोचा लगाए गए आँगन पर कीचड़ से भरे पांव रख देते, या कभी चुपचाप आकर बाल्टी, झाड़ू या डोलची छुपाकर कहीं चले जाते। सारी तरक़ीबे काम में लेने के बाद भी, नारायण भक्त को गुस्सा नहीं आया..वे शान्ति से काम करते रहे। चाहे कितना ही परेशान करें, मगर नारायण भक्त को क्या फ़र्क पड़ता ? वे बाल्टी, डोलची, झाड़ू आदि ढूँढ़ लाते और लबों पर मुस्कान बिखेरकर, वापस अपने काम में जुट जाते। बस, वे तो अपने हाल में मस्त रहते। इस तरह इन लोगों की सारी तरक़ीबें बेकार सिद्ध हुई, संत स्वाभाव के नारायण भक्त को वे गुस्सा दिला नहीं पाये। अब उनकी यह मंशा, पूरी हुई नहीं। क्योंकि, नारायण भक्त के सरल-स्वाभाव में बदलाव आने का कोई सवाल नहीं। फिर क्या ? इस तरह उन्होंने निश्चय कर डाला कि, “किसी तरह, यह नारायण भक्त यहां आना ही बंद कर दे।” मगर, इन कुदीठ इंसानों की एक भी कुचाल क़ामयाब नहीं हुई। बस, उन लोगों की आशा पर घड़ो पानी गिर गया। नारायण भक्त अच्छी तरह से जानते थे, “बुरे लोगों के पल्ला लग जाने से, सफ़ेद उज़ले वस्त्र भी दाग़दार हो जाया करते हैं। मक़बूले आम बात यही है, “दारु की दुकान के बाहर बैठने वाले आदमी, लोगों की नज़र में दारुखोरे ही होते हैं।” ऐसे विचार रखने वाले नारायण भक्त के दूसरे मित्रों के लिए, नारायण भक्त जैसी स्थिति में रहना उनके लिये नाक़ाबिले बर्दाश्त था। इसिलिय्रे इन बुरे आदमियों को यहाँ रोज़ आते देखकर, उन्होंने यहाँ आना बंद कर दिया। मगर नारायण भक्त की बात थी, दूसरी।“ वे तो बाबजी को, ईश्वर का रूप समझते थे....वे कैसे उनके दर्शन किये बिना, रह पाते ? उनके विचार से, सदगुरु ख़ुद ईश्वर के साक्षात दर्शन करवाने में समर्थ है..फिर जगह-जगह क्यों भटका जाय ? उनका मानना था कि, ‘गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, किसको लागू पाय। गुरु बलिहारी आपकी गोविन्द दियो बताय।’ फिर गुरूजी ख़ुद सब-कुछ जानते हैं, वे स्वयं अंतर्यामी है। उनसे इन बुरे लोगों की शिकायत करके, क्यों अपनी ज़बान ख़राब करनी ? गुरुदेव से कुछ पूछना है, तो पूछिए ज्ञान। उस ज्ञान के सहारे, हम भवसागर पार उतर सकते हैं....फिर किसी की निंदा करके, क्यों अपना और गुरुका वक़्त ख़राब करना ?”
एक दिन का जिक्र है, नारायण भक्त नित्य-कर्म से निपटकर रसोई में गए। वहां चूल्हा जलाकर, उन्होंने भगोला भर कर चाय बना डाली। उस चाय को बड़ी केतली में भरकर, ले आये मंदिर की साळ में। जहां बाबजीसा और उनके भक्त बैठे थे। इस वक़्त उनके एक हाथ में चाय से भरी केतली, और दूसरे हाथ में मिट्टी के सिकोरे से भरी बाल्टी थी। बाबजीसा के चारों तरफ़, खींवजी और उनके दोस्त बैठे थे। बाकी के भक्त, जिनकी संख्या करीब होगी १५ या २५ होगी....वे सभी शेष जगह पर, आराम से बैठे थे। सबको चाय से भरे सिकोरे थमाकर, वे बाबजीसा के निकट आकर खड़े हो गए..आगे का आदेश लेने। बाबजीसा ने इशारे से, नारायण को वहीँ बैठने का आदेश देते हुए कहा “नारायण। अब तू यहीं बैठकर, चाय पीले। तेरी सारी थकावट, दूर हो जायेगी।” हुक्म पाकर, नारायण भक्त वहीँ बाबजीसा के पास आकर बैठ गये। फिर वे सुड़क-सुड़क की आवाज़ मुंह से निकालते हुए, चाय पीने लगे। अब चाय पीते-पीते, खींवजी बोले “बाबजीसा, यह मानव जीवन मिलना बहुत कठिन है। ८४ लाख योनियों से गुज़रने के बाद, यह मानव-जीवन मिलता है। अब इंसान होकर हम पुण्य कार्य नहीं करें और ना लोगों का भला करें, तो फिर यह मानव-जीवन किस काम का ? मैं यह चाहता हूं, माता अन्नपूर्णा की भक्ति हेतु भूखे लोगों की क्षुधा-पूर्ति करनी चाहिए। नहीं तो फिर, यह कमाया हुआ धन किस काम का ?” फिर उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए, नक्शानवीस माणक मल आगे बोल उठे “बाबजीसा, खींवजी ठेकेदार साहब का काम बहुत बढ़ गया है। आपकी मेहरबानी से, इन्होंने बहुत रुपये कमाए हैं। अरे बाबजीसा, आपको क्या कहूं ? इन्होंने हवेलियाँ खड़ी कर दी है। मगर अभी तक नेक कार्य हेतु, इनकी जेब से एक पैसा बाहर नहीं निकला। इतने में इनके इनके मित्र दलाल पप्पू लाल कुछ अलग ही बोल उठे “बाबजीसा, आपके मंदिर का जीर्णोद्धार इनसे करवा लीजिये। भोजनशाला, धर्मशाला, बाग़-बगीचे वगैरा जो भी जन हित में निर्माण करवाना आप चाहें..वो निर्माण, आप इनसे करवा लीजिये।” इतना कहकर मुस्करा रहे कंदोई कान सिंह की तरफ़ देखते हुए, आगे कहने लगे “इधर देखिये, बाबजीसा। ये कान सिंहजी, कैसे मुस्करा रहे हैं ? मैं तो यही कहूंगा कि, भोजनशाला बनने के बाद आप भोजन बनाने की पूरी जिम्मेदारी इन पर डाल दीजिये। ये बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाकर, भूखे इंसानों का पेट भर देंगे। वे अपनी क्षुधा-पूर्ति करके, आपको खूब दुआएं देंगे। फिर क्या ? माता अन्नपूर्णा तुष्ठमान हो जायेगी।”
आख़िर इनकी गुफ़्तगू का,राज़ क्या था ? वास्तव में, ये लोग चाहते क्या थे ? बिना स्वार्थ, कोई इन्सान जंजाल में फंसना भी नहीं चाहता। और यह तो फिर, कुदीठ व्यक्तियों की चाण्डाल-चौकड़ी ठहरी। ऊपर वाला जाने, ये लोग अपने दिल में क्या पाप पाल रहे थे ? बेचारे बाबजीसा को, क्या मालुम ? उनको तो भूखों को भोजन खिलाने वाली बात बहुत पसंद आयी, मगर इसके लिए मंदिर का जीर्णोद्धार, धर्मशाला, भोजनशाला आदि का निर्माण भी बहुत आवश्यक ठहरा। बाबजीसा की एक कमज़ोरी “भूखों को भोजन खिलाना” को लेकर, इस चांडाल-चौकड़ी ने समझ लिया कि, ‘उनका प्लान, सफल होता जा रहा है।’ प्लान सफ़ल होते देखकर, खींवजी ने कहा “मैं तो तैयार बैठा हूं, पैसे ख़र्च करने के लिए। मगर इसके पहले आप, अपने मर्ज़ीदान नारायण से आप पूछ लीजिये कि, “वह इस प्रस्ताव से सहमत है, या नहीं ? आप उससे सलाह ले लीजिये, ना तो यह ईर्ष्यालु बाद में लोगों को भड़काता रहेगा कि, बाबजी अपने भक्तों को लुट रहे हैं। आख़िर, इस नेक काम के लिए आपके भक्त भी चन्दा देंगे।”
इतना सुनते ही बाबजी ने, नारायण भक्त की तरफ़ देखते हुए उनसे कहा “नारायण, तुझको खींवजी की बात मंजूर है, या नहीं ?” बाबजी की बात सुनकर, नारायण भक्त विचारमग्न हो गए। वे चारों ओर आशंकाओं से घिर गए, एक तरफ़ भूखों को भोजन कराना पुण्य का काम...मगर दूसरी तरफ़, इस माया जाल में फंसकर बाबजी पाठ-पूजा आदि हेतु वक़्त कैसे निकाल पायेंगे। अभी भी यह चांडाल-चौकड़ी, इनके नित्य-नियम में बाधक बनती जा रही है। और बाद में, यह चांडाल-चौकड़ी न जाने क्या-क्या करेगी ?
बेचारे नारायण भक्त कुछ नहीं बोले, तब पप्पू लाल “सर पर हथोड़ा मारते हुए” जैसा जुमला कह बैठे “क्यों रे, नारायण। तूझे हां कहने से, मुंह में दर्द होता है ? भूखों को भोजन खिलाना भी, तूझे अच्छा नहीं लगता ? वाह रे, वाह। कैसा इंसान है, तू ? पुण्य कार्य में, बाधक बनता जा रहा है ?”
इस तरह बेचारे नारायण भक्त को सारे भक्त इस तरह देखने लगे, ‘मानो वे पुण्य-कार्य में बाधक बनते हुए, कोई पाप कार्य कर रहे हैं ?’ अब सब भक्तों के सामने हो रही दुर्दशा से त्रस्त होकर, बेचारे बोल उठे “भाइयों, आप लोग मुझसे ज़्यादा समझदार हैं। अब आप जानो, और आपका काम जाने। मैं क्यों किसी भलाई के काम में, बाधक बनूंगा ? मगर आप जो भी काम करें, वह कार्य जन-हित से जुड़ा हो तो मुझे क्या करना ? बस, आप दीन-दुखियों की भलाई का ही कार्य करें।” इतना कहकर, नारायण भक्त चुप हो गए। फिर क्या ? इस अभिव्यक्ति को यह चांडाल चौकड़ी, नारायण भक्त की सहमति समझ बैठी। तब हर्षित होकर, माणक मल ज़ोर से बोल उठे “बाबजी सा, नारायण सहमत हो गया है। अब सभी भक्तों की सहमति है, इस काम शुरू कराने में। अब काम का श्री गणेश कीजिये, बाबजी।” इतना कहकर साळ में बैठे भक्तों की तरफ़ देखते हुए, जनाब ज़ोर से कहने लगे “भक्तों। जीर्णोद्धार का काम होना चाहिए, या नहीं ? अब चारों तरफ़ से भक्तों की आवाजें गूंज़ने लगी “बाबजी सा, जीर्णोद्धार कार्य शुरू कीजिये।” इन आवाजों की गूंज के साथ, जीर्णोद्धार कार्य कराने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया। अब आगे क्या कार्य कराना है, यह चाण्डाल-चौकड़ी जाने ? बस, फिर क्या ? अब यह कार्य, बड़े ज़ोश से यह चांडाल-चौकड़ी देखनी लगी। अब आगे क्या कहना, जनाब ? मंदिर का जीर्णोद्धार कार्य, ज़ोरों से होने लगा। मंदिर में ठौड़-ठौड़, मकराने के पत्थर जड़े गए। भोजन-शाला, पाख़ाने, स्नाना-घर आदि सभी ठांव तैयार होने लगे। अब इतना काम होते ही, खींवजी ने अपना हाथ खींच डाला। और जनाब, फ़रमाने लगे बाबजी से, “बाबजी सा। अब मेरे पास पैसे बचे नहीं, ख़र्च करने के लिए। भाई-लोगों से लिए गए चंदे के पैसे भी ख़त्म हो गए हैं, मगर अभी-तक काम पूरा हुआ नहीं। क्या कहूं बाबजीसा, अभी-तक तो मंदिर का शिखर भी बनवाना बाकी है। मकराने के पत्थरों पर कारीगरी होना, बहुत ज़रूरी है। आप तो जानते हैं, आज़ के ज़माने में कारीगरी का काम कितना महँगा है ? केवल मज़दूरी चुकाते-चुकाते ही, टाट कूट ली जाती है। राम राम। यह मज़दूरी कितनी महंगी है, आपसे क्या कहूं? अरे बाबजी सभी मंदिर के खम्भों, शिखर और दीवारों आदि पर कारीगरी करवानी अब कोई सस्ता काम नहीं रहा। यह सब काम पूरा होने के बाद ही, शिखर पर कलश चढ़ेगा और ध्वज़ा फ़हरायेगी। कमठा का क्या कहना ? जिसके बारे में मालुम कम होता है, वही कमठा कहलाता है। यानि जितना बज़ट सोचा जाता है, उससे ज़्यादा ही पैसे ख़र्च होते हैं।” इतना कहकर खींवजी चुप हो गए। अब बाबजी के चेहरे पर, फ़िक्र की रेखाएं दिखाई देने लगी। फिक्रमंद होकर, बाबजी कहने लगे “भाई खींवजी, तू कोई रास्ता जानता है तो बोल, कलश और शिखर के बिना तो मंदिर की प्रतिष्ठा होना संभव नहीं। इतना काम छेड़ दिया, और अब उसे पूरा नहीं करें..खींवजी, यह बात अच्छी नहीं होगी। तू अब कुछ कर, भाई।” बाबजी के लाचारगी से बारे शब्द सुनकर, खींवजी ख़ुश हो गए..उन्होंने समझ लिया, अब परिंदा बहेलिया के ज़ाल में फंसता जा रहा है। जैसे परिंदा बहेलिया के ज़ाल में फंसता दिखाई देता है, तब बहेलिया ज़ाल की तरफ़ दबे पांव आगे बढ़ता है..उसी तरह खींवजी धीरे-धीरे, बाबजी से कह बैठे “बाबजी सा, इस छोटे मुंह सेबड़ी बात कह दूं....तो आप इस ग़रीब पर नाराज़ मत होना। आप आदेश देते हैं तो, मैं कोई अच्छी सलाह आपको दे दूं ? सलाह माननी या नहीं माननी, आपके हाथ में है। बस, आप सोच-समझकर निर्णय लीजिएगा।” खींवजी की बात सुनकर, बाबजी को कोई आशा की किरण आती हुई नज़र आने लगी। अब उनके चेहरे पर छायी फ़िक्र की रेखाएं, धीरे-धीरे अदीठ होने लगी। बाबजी बोले “भाई खींवजी। तू इस मंदिर का भक्त है, इस कारण तू मंदिर की भलाई ही चाहेगा। आख़िर, तू ग़लत सलाह देगा क्यों ?” अब खींवजी मींई स्याणा आदमी की तरह, टसकाई से बोले “बाबजी आपके पास कई लाखों रुपये की कृषि ज़मीन है, इसको जुताई में देने से ज़्यादा फ़ायदा होता नहीं। न आपके बच्चे, इस ज़मीन की ओर ध्यान दे रहे हैं ? मैं आपसे कहता हूं, आप कब-तक इसे संभालते रहेंगे ? मुझे तो यही कहना है, नकद पैसा हाथ में आता है तो उसकी होती है कीमत। नकद पैसे हाथ आने पर, आप चाहें तो उन पैसों को किसी व्यापार में लगा सकते हैं। या फिर उन रुपयों को आप ब्याज के धंधे में लगा सकते हैं, ब्याज का धंधा बहुत ही अच्छा..मूल आपके पास ही रहता है और ऊपर से हर माह ब्याज के राशि आपको अलग से मिलती रहती है। मैं आपसे यही कहूंगा, ब्याज का धंधा सबसे अच्छा..क्योंकि, मूल राशि ख़त्म होने का सवाल ही नहीं..और सारे काम, ब्याज से ही निपट जाते हैं। अरे बाबजी सा, यह काम ऐसा है इसमें हींग लगे न फिटकरी...मगर, रंग अच्छा आता है। मेहनत करनी नहीं, और घर बैठे पैसों की आमद। ब्याज का धंधा, स्थायी आमदानी का ज़रिया बन सकता है।” इतना कहकर, खींवजी चुप हो गए और बाबजी के चेहरे पर आने वाले भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगे। अब बाबजी का दिमाग़ इसके आगे चल नहीं रहा, बस उनका दिल तो मन्दिर के ऊपर ध्वज़ा फ़रुखती हुई देखने के लिये उतावला हो रहा था। उनकी प्रबल इच्छा यही रही, किसी तरह माताजी के मंदिर का जीर्णोद्धार कार्य पूरा हो जाय। उनको एक बार भी, खींवजी की मंशा पर संदेह पैदा नहीं हुआ।
खींवजी को चुप पाकर, बाबजी बोले “चुप कैसे हो गया रे, खींवजी ? आगे बोल, यह काम अब पूरा कैसे होगा ? अब तू ज़ाल मत देख, ज़ाल को छोड़ दे और मकड़ी को दे मार।” फिर क्या ? खींवजी बाबजी पर अहसान जताते हुए, कह बैठे “बाबजी आपकी इस कृषि-ज़मीन पर आपके नाम की एक कोलोनी बसा दी जाय, तो कैसा रहेगा ? प्लोट काटकर आपके भक्तों को बेच दीजिये, आपके सभी भक्त ख़ुश होकर आपका गुणगान करेंगे। जब भी आप इन भक्तों को याद करेंगे, तब ये भक्त दौड़कर आपकी ख़िदमत में हाज़िर हो जायेंगे। मंदिर का काम पूरा होने के बाद भी, आपके पास काफ़ी रुपये बचे रहेंगे। आप चाहें तो अपने बच्चों में बांट दीजिये, या फिर किसी बैंक में जमा करवा दीजिएगा। ताकि, हर माह आपके पास ब्याज आता रहे। बस बाबजी, यह सौदा फ़ायदे का ही है।”
बाबजी को अब यह काम, पूरा होते लगने लगा। इस बारे में उन्होंने खींवजी के चाल-चलन की जांच की नहीं, और न दो-चार आदमियों से पूछने की ज़रूरत समझी कि, “यह खींवजी कैसा आदमी है, और इसकी नीयत कैसी है ?” मगर ये बातें बाबजी के ध्यान में कैसे आती ? उनको तो बस, एक दिवास्वप्न पूरा करना था के “किसी तरह इस मंदिर के शिखर पर कलश चढ़ जाय, और पर ध्वज़ा फ़रुखती रहे।” बाबजी रहे भोले, सरकारी विभागों में जब तक लेखाधिकारी बने रहे तब-तक वे ईमानदारी से काम करते रहे। कभी भी ग़लत आदमियों के साथ रहने का, तुज़ुर्बा हुआ नहीं। इस कारण इस ख़िलक़त में, उन्होंने धोखा-धड़ी की ठोकर कभी खाई नहीं। बस उनके दिल में एक ही उमंग रही, ‘किसी तरह इस मंदिर के शिखर पर कलश चढ़ा दिया जाय, ताकि उस पर ध्वज़ा लहराती हुई नज़र आये। बस इसी कारण बाबजी ने खींवजी को, खेत के प्लोट काटकर बेचने की मौखिक इजाज़त दे दी।
इजाज़त मिलते ही, पूरी चांडाल-चौकड़ी के बदन में नया खून बहने लगा। फिर क्या ? चारों तरफ़, पैसों की बरसात होने लगी। माणक मल ने झट, कोलोनी बनाने के लिए नक्शा बना डाला। और साथ-साथ उस नक़्शे को, नगर निगम के दफ़्तर से पास करवा डाला। अब फटा-फट प्लोट बिकने लगे, रुपयों की आमद बढ़ने लगी। प्लोटों को बेचने से, आय होती गयी। मगर खींवजी ने उसका हिसाब-किताब, बाबजी को बताने की ज़रूरत नहीं समझी... कि, किन-किन आदमियों को प्लोट बेचे गए और प्लोट बेचने से कितनी आय हुई ? ये सारी बातें, केवल तीन व्यक्ति ही जानते थे – एक ख़ुद खींवजी, दूसरे माणक मल और तीसरे पप्पू लाल। बेचारे कंदोई कानसिंह मित्र होते हुए भी, उनको इस जानकारी से दूर रखा गया। कारण एक यह भी था, ‘खींवजी के ठेकेदारी के धंधे से, माणक मल और पप्पू लाल जुड़े हुए रहते थे..मगर कान सिंह इनके धंधे से कोई ताल्लुकात नहीं रखते थे, क्योंकि उनका धंधा तो मिठाइयां बनाकर बेचने का था। जानकारी नहीं मिलने से, कान सिंह खींवजी से नाराज़ हो गए। तब वे खींवजी की साख़ बिगाड़ने के लिए, लोगों को उनके ख़िलाफ़ भड़काने लगे। कान सिंह का मुंह बंद रखने के लिए, खींवजी ने उनको सरकारी ऋण दिलवा दिया। उस ऋण राशि से, उन्होंने एक पर्यटन बस ख़रीद ली। इस तरह थोड़े वक़्त के लिए खींवजी ने, कान सिंह को चुप रखने का क़दम उठा लिया। आख़िर वह दिन भी आ गया, जब मंदिर पर कलश चढ़ाया गया, और उस पर पताका फ़हराने लगी। अब इस नए मंदिर के दर्शनार्थ, कई दर्शनार्थी आने लगे। मारवाड़, मेवाड़, गुजरात, हरियाणा और नज़दीकी प्रदेशों से टोले के टोले, मंदिर के दर्शनार्थ आने लगे। खींवजी ठहरे ठौड़-ठौड़ के पानी पिए हुए, अब वे मंदिर की आय बढ़ाने में पीछे कैसे रहते ? झूठी-सच्ची मंदिर की महिमा का प्रचार करने लगे, जिससे भक्तों की संख्या बढ़ती जा रही थी।
अगर खींवजी का पिछला इतिहास उठाया जाय, उसे सुनकर लोग अपने मुंह में उंगली डाल बैठते। खींवजी अपने मोहल्ले में नाम कमाने के लिए, सबसे पहले छुट्टपुटिया नेता बन गए। जैसे ही इन्होंने ठेकेदारी के धंधे हाथ डाला, तब से इनकी अक्ल काम करने लगी। खींवजी बनते गए ऐसे नामी नेताओं के चेले, जिनका सितारा सियासत के दायरे में चमकता जा रहा था। फिर क्या ? उन नेताओं को अपने वश में करने के लिए, वे “साम, दंड, दाम व भेद” के दाव-पेच काम में लेते रहे...और, अपना काम निकलवाते रहे। ये प्रभावी नेता इनके वश में हो जाने के बाद, खींवजी उन ख़ालसा ज़मीनों पर नज़र गड़ाने लगे..जो काम में नहीं आ रही थी, या ऐसी ज़मीने जिनके मालिक का कोई अता-पत्ता न था....या वे उन ज़मीनों पर, ध्यान नहीं दे रहे थे। बस ऐसी ज़मीनों पर खींवजी लोगों की अनुपस्थिति में, एक बड़ा पत्थर लाकर रख देते, और उस पर माली-पन्ना चढ़ाकर उसे भैरूजी का रूप दे देते या फिर कहीं से किसी देवता की मूरत को लाकर रख देते। इसके बाद वे चारों तरफ़ लोगों में झूठी अफ़वाह उड़ा देते कि, “भैरूजी या अमुख देवता ज़मीन फाड़कर प्रगट हुए हैं, जो बहुत चमत्कारी है।” इस तरह वे उस ज़मीन पर कब्ज़ा जमा लेते, और वहां के चढ़ावे से अपनी जेबें भर लिया करते। यदि कोई खड़ूस आदमी आपत्ति उठाता, तब वे अपने सियासती दाव-पेच काम में लेकर उसे चुप कर दिया करते। यहाँ तक कि, ‘कोई सरकारी ओहदेदार भी, इनके किये गए अतिक्रमण को हटा नहीं पाता...? उस पत्थर या देवता की मूरत को हटाना तो दूर, यहां तो ये ओहदेदार इनको छू भी नहीं सकते। इसका कारण यह रहा, इनका धार्मिक नेताओं और कट्टरपंथियों के साथ इनका गठजोड़। पत्थर या मूरत हटाने पर ये नेता और कट्टरपंथी, लोगों के बीच जाकर धार्मिक उन्माद फैला देते थे। कभी-कभी यह धार्मिक उन्माद, मज़हबी-दंगे का रूप धारण कर लेता। इस तरह ये स्वार्थी लोग जनता की निरक्षरता, धार्मिक-अंधविश्वास और कूप-मंडूकता का फ़ायदा उठाकर अपनी स्वार्थ-पूर्ति कर लिया करते। धीरे-धीरे, मूरत की प्राण-प्रतिष्ठा हो जाती। जनता से चन्दा लेकर, खींवजी मंदिर का निर्माण कर देते। खींवजी के जरिये फैलायी गयी झूठी अफ़वाह से मूरत को चमत्कारी बताया जाता, जिसके कारण दूर-दूर से लोग मन्नत माँगने आया करते। आख़िर, झूठ कितनी अवधि तक रहता ? वैसे भी, झूठ के पांव होते नहीं। चमत्कार न होते देख,धीरे-धीरे लोगों की आस्था मंदिर के प्रति ख़त्म हो जाती। और इसके साथ, खींवजी की आमदानी स्वत: ख़त्म जाती। तब खींवजी येन-केन तरीक़े अपनाकर, नगर पालिका/परिषद्/निगम से उस ज़मीन के अपने नाम झूठे पट्टे बनवा लेते। इस तरह मालिकाना हक़ हासिल करके खींवजी प्लोट काट दिया करते, या उस पर मकान और दुकानें तैयार करवाकर ऊंचे भावों में लोगों को बेच देते। इस तरह खींवजी मंदिर के न रहते भी, अपनी जेबें भर लिया करते...उनके लिए तो यह मंदिर हाथी के समान था, कहते हैं ‘ज़िंदा हाथी लाख का, और मरा हाथी सवा-लाख का।’ इस तरह उस ज़मीन पर, कोलोनी बनाने के बाद भी पैसे बना लेते..और जनाब अपने दोनों हाथ में लड्डू रखकर, फ़ायदे में रहते। इस तरह लाखों रुपये कमाकर, अचानक उनकी बुरी नज़र इस निर्जन स्थान पर आये बाबजी के खेत की ज़मीन पर आकर गिरी। अब वे इस ज़मीन को, मुफ़्त में हासिल करने के लिए सतत प्रयास करने लगे। भोम दासजी रहे, भोले संत आदमी। वे इस कुबदी आदमी की नीयत को पहचान नहीं सके। उस पर विश्वास करके मंदिर का जीर्णोद्धार कार्य, इस कुबदी खींवजी को सुपर्द करके ख़ुद फ़ारिग़ हो गए। अब वे इस मंदिर के जीर्णोद्धार कार्य करते हुए वे, हर तरफ़ से चांदी कूटने लगे। अब तो खींवजी की पांचों उंगलियाँ घी में तिरने लगी। फिर क्या ? वे अपने दोस्तों को साथ लिए, मंदिर का निर्माण कार्य करते रहे। मंदिर की व्यवस्था में यह चण्डाल चौकड़ी, ट्रस्टी की हैसियत से काम करने लगी। अब ये लोग कभी मुख्य मंत्री को बुलाते, तो कभी किसी नामी मंत्री को बुला दिया करते। इन सारे कामों के लिए भाई-लोगों से चन्दा भी ले लिया करते, चंदे की राशि कम ख़र्च होती इस तरह शेष राशि ये लोग हड़प जाते। इस तरह दर्शन, उदघाटन आदि करवाते-करवाते खींवजी के दिल में, कहीं बाहर यात्रा करने की इच्छा पैदा हुई। इनकी मंशा थी, बाबजी और भक्तों को ज्योतिर्लिंग की यात्रा करवा दी जाय और भाड़े पर कंदोई कान सिंह की बस ले ली जाय..तो यह ईर्ष्यालु कान सिंह थोड़े वक़्त तक, ईर्ष्या के मारे अपना दिल नहीं जलाएगा। और ज्योतिर्लिंग की यात्रा करके, बाबजी और भक्त भी ख़ुश हो जायेंगे। मन में खींवजी इस ईर्ष्यालु मूल सिंहजी को दिया करते थे, गालियां। और उनकी यही इच्छा रहती कि, ‘किसी तरह इस ईर्ष्यालु इंसान से, उनका पिंड छूट जाए।’ उनके दिमाग़ में एक यही बात बस गयी, कि “यह साला मूल सिंह कैसा है, हमारा दोस्त ? इसे समझाएं तो यह बेवकूफ़ समझता ही नहीं, नालायक हर मामले में, अपनी फाडी फंसाता रहता है ? हर मामले में यह गधा बीच में बार-बार बोलकर, अपनी हानि तो करवाता ही है...और साथ में, अपने साथियों के बने-बनाये काम को बिगाड़ देता है।” यहां तो दोस्तों के साथ जनाब के विचार भी नहीं मिलते, मगर फिर भी अपने स्वार्थ के कारण कंदोई मूलसिंह इन लोगों का साथ भी नहीं छोड़ते। आख़िर इस आदमी से परेशान होकर, खींवजी ने इस मूर्ख से छुटकारा पाने की योजना बना डाली। बस, फिर क्या ? उनका कुबदी दिमाग़ काम करने लगा। इस योजना का पहला स्टेप था, ज्योतिर्लिंग की यात्रा। जो उन्हें वाज़िब लगने लगी। आख़िर उन्होंने अपनी योजना को क्रियान्वित करते हुए, सबसे पहले बाबजी को यात्रा पर चलने के लिए तैयार किया। उनके तैयार होते ही शहर में रहने वाले उनके कई भक्त, अपने परिवार के साथ चलने के लिए तैयार हो गए। थोड़े वक़्त में ही, बस की सभी सीटों के टिकट बिक गए। इन भक्तों में बोहरा किशन लालसा के दिवंगत पुत्र सरेश की बेवा सुशीला और उसका विकलांग पुत्र हनुमान भी साथ चलने के लिए तैयार हो गए। सुशीला बाबजी को ईश्वर का रूप मानती थे, क्योंकि बाबजी उसके ससुरजी के गुरु थे। फिर, वह ऐसा बढ़िया यात्रा का साथ कैसे छोड़ती ? बाबजी की सेवा की सेवा, और साथ में तीर्थ करने का पुण्य। मगर, खींवजी को क्या कहें ? उन्होंने तो ऐसे आदमियों को यात्रा में साथ ले लिया, जो बाबजी और बाबजी के भक्तों के लिए अनजान थे। उन्हें खींवजी के अलावा, कोई नहीं पहचानता कि, “वे लोग क्या काम करते हैं ? और वे किस जाति से सम्बन्ध रखते हैं, और उनका स्वाभाव कैसा है ?” यह बात सच्च है कि, ‘शक्ल-सूरत से, वे सभी एक नंबर के छंटेल लगते थे।’ इस ख़िलक़त में ऐसे कई आदमी होते हैं, “जो लोगों के बीच, अपनी असली जाति को छिपाये रखते हैं। ये तो ऐसे मर्दूद हैं, जो अपने नाम के पीछे ऐसा गौत्र या सरनेम लगाते हैं, जिनके गौत्र या सरनेम उच्च जातियों के गौत्र या सरनेम से काफ़ी मिलते-जुलते लगते हैं। इससे कई लोग, उनके उच्च जाति का होने की ग़लती कर बैठते हैं। अगर इन्हें उच्च जाति के गौत्रों से मिलते-जुलते गौत्र नहीं मिलते, तब ये लोग नाम के पीछे “आर्य” लगा दिया करते हैं। “आर्य” लगा देने से यह सिद्ध नहीं होता कि, “आर्य लगाने वाला आदमी, किस जाति का है ? वह उच्च जाति का है, या नीच जाति का ? बस यही मालुम होता है, वह छद्मजाति का है..जिसको अपनी जाति बताने में शर्म आती है। या फिर वह, स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों को पसंद करता है।” ऐसे कई उदाहरण मिल जाते है, जहां आदमी अपनी नीची जाति को छिपाने के लिए पहनावा और भाषा भी बदल लेता है। उदाहरण स्वरूप मानो कोई जाति का जोगी हो, तब वह भगवा पगड़ी के स्थान पर अपने सिर पर बाँध लेता है..’जोधपुरी राठौड़ों की पगड़ी।’ और जबान पर मिश्री घुले हुए शब्दों को इस्तेमाल करता हुआ “भंवरसा, दाता, खम्मा घणी, बाईसा, बाईजी लाल” आदि आदर सूचक शब्दों से सबको सम्बोधन करता रहता है। तब ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह किसी उच्चे ठिकाने का ठाकुर है ? उस आदमी को मीठे सुर में बोलते देखकर, किसी को उसके नीची जाति का होने का भ्रम नहीं होता। इस तरह वह अपने-आपको, उच्च जाति का दिखलाने का ढोंग करता रहेगा। मगर ऐसे आदमी की पोल तब खुलती है, जब कोई खोजी आदमी ऐसे ढोंगी आदमी के रहने के ठिकाने या डेरे पर चला जाय। वहां ऐसे लोगों को अश्लील गालियां वाली भाषा में बात करते हुए पाकर, वहबेचारा सकपका जाता है...और तब उसके सामने आयी इन लोगों की असलियत को, वह बर्दाश्त नहीं कर पाता। बस ऐसे कई लोगों को, खींवजी ने यात्रा के टिकट बेच दिए। जिसमें ख़ास-तौर पर, इन्होंने कान सिंह परिहार के परिवार को साथ में लाये। ऐसे आदमियों को न तो बाबजी जानते थे, और न इनका कोई भक्त। बात यह थी, कंदोई मूल सिंह कभी इनके असली धंधे में साथ रहे नहीं....बेचारे मूल सिंह की हालत तो यह रही है कि, उनके इस मिठाई के धंधे में पड़ जाने से उनके पास माक़ूल वक़्त रहा नहीं...जिससे वे अपने न्यात वालों से मिल नहीं पाते। फिर उनका सभी न्यात वालों को पूरा पहचानने का तो, सवाल ही नहीं। तब वे कान सिंह परिहार के बारे में, जानकारी, कैसे रख पाते ? इनके कई रिश्तेदारों ने कह रखा था कि, “अपनी न्यात में कई लोग बाबजी के भक्त हैं, और वे सभी यात्रा में जायेंगे। फिर आप भी अपने परिवार के साथ इस यात्रा में चले जाइए, शायद भगवान की मेहरबानी से आपको किसी अपनी बिरादरी वाले की सुन्दर और सुशील बेटी दिख जाये...और तब, आप अपने इकलौते बेटे मोती सिंह का सम्बन्ध तय हो सकते है। यहां तो आप धंधे में व्यस्त रहते हैं, वक़्त मिलता नहीं सम्बन्ध ढूँढने का। फिर क्या ? आपकी यात्रा भी हो जायेगी, और आप छोरे मोती सिंह के लिए वधु भी ढूंढ लेंगे। अब आप ऐसा मौक़ा मत चूकिए, जब चल रही है घर की गाड़ी ?”
आख़िर नियत दिन और समय पर, मूल सिंह ने अपनी बस लाकर मंदिर के पास खड़ी कर दी। मंदिर की सीढ़ियों पर सामान लिए कई यात्री बैठे थे। इतनी देर गाड़ी का इंतज़ार करते-करते उनके पांवों में दर्द होने लगा, इसलिए वे सभी सीढ़ियों पर बैठकर विश्राम कर रहे थे। जैसे ही इन लोगों ने बस के होरन की आवाज़ सुनी, तपाक से यात्रियों के टोले के टोले सामान ऊंचाये बस में चढ़ने लगे। धीरे-धीरे सभी सीटों पर आकर, यात्री बैठ गए। बाबजी तो अपने दंड-कमंडल लिए, ड्राइवर के पास वाली सीट पर जम गए। यहां तो, इनके सामान रखने की अच्छी ठौड़ थी। सुशीला अपने विकलांग छोरे हनुमान को लेकर, आगे की सीट पर आकर बैठ गयी। हनुमान के एक हाथ का पोलियो था, इसलिए उस हाथ की उंगलियां ज़्यादा काम नहीं करती, मगर फिर भी मालिक की दया से उसकी अंगुलियों में ढोलक बजाने का कमाल का जादू भरा था। वह इन उँगलियों से, क्या तबले पर थाप देता ? उसकी थाप सुनकर, बड़े-बड़े उस्ताद उसकी कला की तारीफ़ किये बिना नहीं रहते। सुशीला के गोरे-रंग और कटीले नक्श पर, पप्पू लाल मोहित हो गए। भले यह बच्ची उनकी बेटी की उम्र के बराबर थी, मगर फिर भी वे उस पर खोटी नीयत रखने लगे। बेचारी सुशीला भरी जवानी में बेवा हो गयी, इस कारण पप्पू लाल का विचार था कि “छोरी भरी जवानी में बेवा हुई है, इस कारण इसके बदन में काम की ज्वाला धधकती होगी ? बस थोड़ा सा मर्द का स्पर्श पाकर, इसकी काम-ज्वाला भड़क जायेगी। और, छोरी झट पट जायेगी।” ऐसे गंदे विचार इनके दिमाग़ में आते ही, उन्होंने हाथ में आया मौक़ा छोड़ना नहीं चाहा। तब अब वे, उसके पास बैठने की प्लानिंग करने लगे।
अब वक़्त बीतता जा रहा था, घड़ी के दोनों कांटे दोपहर के बारह बजने का वक़्त बताने लगे। अब इस तेज़ धूप ने गर्मी अलग से बढ़ा दी, लोगों को प्यास सताने लगी। इधर हनुमान के लिए यह गर्मी नाक़ाबिले बर्दाश्त हो गयी, उसका कंठ सूखने लगा। उसने सुराही और लोटा संभाल डाला, मगर कहीं भी पानी की एक बूँद उसे नज़र नहीं आयी। सुशीला भी लापरवाह ठहरी, उतावली के कारण वह सुराही में पानी भरना भूल गयी। आख़िर बेचारा प्यासा हनुमान दयनीय दृष्टि से, अपनी मां की ओर देखने लगा। सुशीला से उसकी यह हालत, देखी नहीं गयी। फिर क्या ? सुशीला झट सुरायी और लोटा लिए, बस से नीचे उतरी...और उसने, अपने क़दम प्याऊ की तरफ़ बढ़ा दिए। पानी भरकर बेचारी जैसे ही वह बस में चढ़ी, और उसने क्या देखा ? कि, “पप्पू लाल उसकी ख़ाली सीट पर आकर, बैठ गए हैं।” उनको देखकर, वह ज़ोर से गरज़कर बोली “काकोसा उठिए.! यह सीट मेरी है।” मगर पप्पू लाल ठहरे, धीट और अड़ियल स्वाभाव के। वे खिल-खिलाकर हंसते हुए, उस छोरी से कहने लगे “छोरी। क्या तेरा नाम, इस सीट पर लिखा हुआ है ? तेरे छोरे को थोड़ा खिसकाकर बैठ जा, मेरे पास। बैठने में, आख़िर चाहिए कितनी जगह ?” सुनकर सुशीला आँखें तरेरती हुई, कड़े लफ़्ज़ों में बोल उठी “औरतों के पास बैठना, क्या आपको अच्छा लगता है ? काकोसा अब आप चुप-चाप उठ जाइए मेरी सीट से, नहीं तो आपके खोपड़े में..”
इतना बेइज्ज़त होने के बाद भी, पप्पू लाल जैसे धीट आदमी में कहां शर्म...? वे तो अपने लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, धीरे-धीरे अलग से कहने लगे “छोरी, एक तरफ़ तू मुझे काकोसा कह रही है..? तब फिर, फ़िक्र करने की क्या बात ? आ जा, आकर बैठ जा मेरी गोद में..भतीजी बनकर।” पिछली सीट पर बैठे इनके दोस्त माणक मल को सुनायी दे गयी, उनकी बात। उनकी बात सुनकर, ठहाका लगाकर वे हंसने लगे। फिर हंसी थमने पर, वे उनसे कहने लगे “भाया, तू तो भाग्यशाली रहा। थोड़ी देर मुझे भी, बैठने दे...अपनी सीट पर। भगवान तेरा भला करे, तेरी मेहरबानी से मुझे भी टोनिक मिल जाएगा ?” माणक मल की ऐसी बेहूदी बात सुनकर, आस-पास बैठी औरतों के सिर लज्जा के माँरे नीचे झुक गए। मगर, पप्पू लाल जैसे बदतमीज़ आदमी पर कोई असर पड़ने वाला नहीं था। वे तो ठहरे, चिकने घड़े। वे तो कोमेंट कसते गए, और इनके साथी ठहाके लगाने का लुत्फ़ उठाते रहे ? बाबजी के पास बैठे नारायण भक्त ने जैसे ही यह मंज़र देखा, और उन्हें क्रोध आने लगा। इधर इस सुशीला की आँखें गुस्से से लाल हो उठी, वह तो अब ज्वालामुखी के लावे की तरह उबलती हुई कहने लगी “अरे, ए हितंगिये। तेरे घर में तेरी मां-बहन नहीं है, क्या ? बैठा दे उनको, तेरी गोद में। या तो अब तू उठ जा मेरी सीट से, नहीं तो मेरे पाँव की आठ नंबर वाली जूती करेगी तेरा इलाज़।” वह तो सचमुच, हाथ में जूती लेकर खड़ी हो गयी। और फिर, ज़ोर से चिल्लाती हुई कहने लगी “ले तू उठता है, या नहीं ? नहीं तो अभी मारती हूं, तेरे भोगने पर..मेरी आठ नम्बर वाली जूती।”
बात बिगड़ने लगी। एक तो पप्पू लाल ठहरे, मंदिर के ट्रस्टी। दूसरी बात, ये जनाब ठहरे खींवजी की छंटेल टोली के सदस्य। फिर भी कुछ कह भी दिया इनको, मगर इन पर असर पड़ने वाला नहीं। मगर ये शैतान, लोगों के बीच भले आदमियों का पानी ज़रूर उतार लिया करते हैं। यह सोचकर, नारायण भक्त ने सुशीला को चुप रहने का इशारा किया। उन दोनों को ले जाकर, बाबजी के पहलू वाली सीटों पर बैठा दिया। बाबजी ने भी अपने दंड-कमंडल उठाकर, अपनी गोद में रख दिए। इस तरह, उन दोनों को बैठने की सीट मिल गयी। आख़िर संतो को बैठने के लिए, ठौड़ चाहिए भी कितनी ? ठौड़ तो इंसानों के दिल में मिल जाए तो, बेहतर है।
इन दोनों के बैठ जाने के बाद, नारायण भक्त के बैठने का स्थान रहा नहीं। इधर वे बाबजी से ज़्यादा दूर जाकर, बैठना भी चाहते नहीं। उनका मत था कि, “कहीं जाओ तो, भले आदमी का साथ करके जाना चाहिए...अन्यथा कुदीठ इंसानों का साथ करने से, आदमी को तक़लीफ़ें ही देखनी पड़ती है।” फिर बाबजी जैसे संत आदमी का साथ तो, बिरले इंसानों को ही मिलता है। फिर क्या ? नारायण भक्त तो गाड़ी के मशीन कवर के ऊपर गुदड़ी बिछाकर बैठ गए, और गुरु-प्रेम में डूबकर बाबजी से हरि-चर्चा करने लगे। हरि-चर्चा सुनते-सुनते छोरे हनुमान को ईश्वरीय-भक्ति के भाव आने लगे। फिर क्या ? वह झट थैली खोलकर, ढोलकी बाहर निकाल बैठा....और, अपनी मां से कहने लगा “क्यों फ़िक्र करने बैठ गयी, मां ? आप तो भगवान का नाम लेते हुए, कबीर दासजी का भजन सुनाओ....और मैं आपको संगत देने के लिए, ढोलकी पर थाप देता हूं..अभी आपका चित्त ठिकाने आता है।” इतने में, बाबजी बोल उठे “बाईसा, बहुत दिन बीत गए, आपका भजन सुनने में नहीं आया।” फिर क्या ? उसने बाबजी के हुक्म को, सर ऊपर लिया। उनका हुक्म मानकर, उसने दिल में जल रही क्रोधाग्नि को शांत कर डाली। फिर वह, मधुर सुर में कबीर दासजी का भजन “मैली चादरिया ओढ़ के..” गाने लगी।
सुशीला और हनुमान के उठ जाने से ख़ाली हुई सीट पर, पप्पू लाल ने कान सिंह को लाकर बैठा दिया। जो पिछली सीट पर, अपनी पत्नि के साथ बैठे थे। पति के आगे जाकर बैठ जाने से, अब उनकी पत्नि रुलियार माणक मल के पास अकेली बैठना चाहती नहीं थी। तब वह भी उठकर, अपने पति के पहलू में बैठ गयी। दोनों के चले जाने से दोनों सीटें ख़ाली हो गयी, तब माणक मल ने कान सिंह की ख़ूबसूरत जवान छोरी को बुलाकर अपने पहलू में बैठा दिया..और उसके पास बैठा दिया, मूल सिंह के जवान छोरे मोती सिंह को। मोती सिंह के आ जाने से वह छोरी कमलकी इन दोनों के बीच ऐसी फंसी, मानो चक्की के दोनों पाट के बीच अनाज पीसा जा रहा हो ? आराम से न बैठ पाने से, वह पीछे मुड़कर ख़ाली सीटें देखने की कोशिश करने लगी। तब पीछे बैठे खींवजी के छंटेल दोस्त, उस छोरी को आंख मारने लगे। अब इन लोगों से नज़रें मिलते ही, छोरी कमलकी आँखें मटकाती हुई उनको टका-टक देखती गयी। इसके साथ वह सांकेतिक भाषा में, वहशी बातें करती रही। इसका स्वांग देखकर समझदार आदमियों ने, शर्म के मारे अपनी आंखें झुका ली। अब वे पछताने लगे कि, ‘टिकट लेने के पहले, उनको मालुम पड़ जाता कि, बुरे लोग भी उनके साथ चल रहे हैं....तब वे किसी हालत में, इनके साथ इस यात्रा में कभी नहीं चलते।’ मगर, अब बेचारे क्या कर सकते ? अपनी आंखें झुकाए रखने के सिवाय, और इनके पास क्या चारा रहा ? फिर क्या ? बेचारे भले आदमियों ने, ऐसे बदमाशों से दूरी बनाये रखने का विचार कर लिया। थोड़ी देर बाद, बस रवाना होने लगी, बस के ड्राइवर ने गाड़ी का होरन बजाकर गाड़ी रवाना होने की इतला यात्रियों को दे दी। बस से उतरे यात्री झट बस में चढ़कर, अपनी सीटों पर आकर बैठ गए। बस को रवाना करने के लिए, बाबजी माताजी के नाम का जयकारा लगाने लगे। जिसके जवाब में, सभी यात्री एक साथ ज़ोर से बोल उठे “अम्बे मात की जय।” अब बस रवाना हुई, थोड़ी देर में वह हवा से बातें करने लगी। रास्ता कठिनाइयों से भरा पड़ा था, ठौड़-ठौड़ आये पत्थर, कंकर, धूल, कांटे वगैरा से बचती हुई बस उबड़-खाबड़ मार्ग पर सरपट दौड़ रही थी। ऐसे रास्ते में बस के चलने से बस में बैठे अधबूढ़े आदमी खाते गए ओझाड़ा, मगर जवान मर्द-औरतों को ये हिचकोले डोलर-हिंडे के माफ़िक लगने लगे। एक-दूसरे पर गिरे बदन कहीं तो तकलीफ़ पा रहे थे, तो कहीं जयकारा लगाते हुए आनंद की अनुभूति लेते जा रहे थे। बाबजी तो भजनों के रस में डूब गए, उस वक़्त कभी नारायण भक्त भजन गाते तो कभी सुशीला। पीछे बैठी औरतें तालियाँ पीटती हुई, गीत गाती जा रही थी। मगर यहाँ तो इन हिचकोलो के कारण, कमलकी का कोमल बदन माणक मल के बदन को स्पर्श करता जा रहा था। जिससे माणक मल के बदन में, काम-ज्वाला बढ़ने लगी। अब तो कमलकी के मध्य, गज़ब का खेल पैदा हो गया। क्योंकि छोरी कमलकी के बदन का स्पर्श पाकर, माणक मल के बदन में बिजली की तरंग उठ गयी। उनका दिल, अब ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। मन में, वासना का ज्वार उठने लगा। काम भावना बेकाबू होती गयी, उसके वशीभूत होकर माणक मल उस छोरी के बदन को सहलाते हुए काम रस का पान करने लगे। फिर भगवान जाने, उनके दिमाग़ में ऐसी कौनसी स्कीम आयी ? झट उन्होंने आइस बोक्स खोलकर कोल्ड ड्रिंक की चार बोतलें बाहर निकाल ली, दो बोतलें थमा दी कमलकी को और..एक पकड़ा दी उस छोरे मोती सिंह को। शेष बची बोतल का ढक्कन खोलकर, वे ख़ुद पीने बैठ गए। इन बोतलों के कोल्ड ड्रिंक में, भगवान जाने कौनसी नशे की चीज़ मिली हुई थी ? राम जाने, बीयर मिलाया गया या अंग्रेजी शराब ? यह जानकारी तो, केवल माणक मल के पास ही थी। बस, उसके पीते-पीते उनको नशा आने लगा। दो घूँट पीकर, उन दोनों को देखते हुए कह बैठे “क्या मुंह देख रहे हो, मेरा ? इस अमृत को, झट पी जाओ। पीते ही तुम्हें ऐसा लगेगा, मानो तुम्हारे कंधों पर पंख निकल गए हैं ? फिर तुम दोनों करते रहना, जन्नत की सैर।” इधर खिड़की से आ रही तेज़ धूप के मारे जीव व्याकुल हो रहा था, और उनका दिल चाह रहा था “यह दिल को ख़ुश करने वाला, यह शीतल पेय पीते रहें।” अब यह शीतल पेय पीते-पीते, उन दोनों के दिमाग़ में नशा चढ़ने लगा। इसे पीते ही छोरी कमलकी के दिल में उमड़ती जवानी, हिल्लोरे लेने लगी। इस अधेड़ माणक मल के बार-बार पास आकर उसकी रानो को सहला दिए जाने से, उसका दिल काम रस का आनंद लेने को उतावला होता जा रहा था। इस अधेड़ माणक मल पर मोहित होने का तो, सवाल ही पैदा नहीं होता। जब उसके पास बैठा था, उसके कोमल बदन को स्पर्श करता हुआ सुन्दर बांका जवान मोती सिंह। मोती सिंह के बदन की गरमी का आभास पाते ही, वह करमज़ली कमलकी बार-बार ओझाड़ा खाती हुई उसके बदन पर गिरती गयी। मोती सिंह का पहला अनुभव, किसी जवान छोरी के पास इस तरह बैठने का। अब तो, उन दोनों की सो रही कामेंद्रियां जग गयी। यह बढ़ता मद, अब दिमाग़ में छाने लगा। एक तो शीतल पेय में नशे की कोई चीज़ का मिली होना, और दूसरी इनकी चढ़ती जवानी का मद। उन दोनों को, कैसे चुपचाप शांत बैठने देता ? बस वे दोनों भूल गए, वे इस वक़्त कहां बैठे हैं ? बस, फिर क्या ? मोती सिंह तो उसके रानो को सहलाता हुआ, अपनी उंगलियां उसके निजी अंग पर बार-बार ले जाता रहा। कामाग्नि धधकने लगी, कमलकी आत्म-नियंत्रण खो चुकी थी। वह पूरी तरह से काम रस में डूब गयी, कामदेव के वशीभूत होकर वह छोरे की जांघों को सहलाती हुई अपने हाथ और आगे ले जाती गयी। यह बेशर्म छोरी तो बार-बार ओझाड़ा खाती हुई, जान-बूझकर उस छोरे पर गिरती जा रही थी..और साथ-साथ, वह निर्लज्ज छोरी उस छोरे के रुख़सारों पर चुम्मा देती जा रही थी। अब आस-पास वाली सीटों पर बैठे खींवजी के छंटेल दोस्त इस मंज़र को देखकर, मुंह से दबी आवाज़ में सिसकारियां भरते हुए उससे नज़रें मिलाने की कोशिश करने लगे। नज़रें मिलते ही, वे हवाई चुम्मा छोड़ने के भद्दे इशारे करते गए।
यह स्वांग देखकर, समझदार लोगों का कलेज़ा हलक़ में आ गया। ये लोग अपनी बहू-बेटियों के साथ बैठे, अपनी नज़रें झुकने लगे। इस मंज़र को देखते, इन लोगों की क्या हालत हुई होगी ? यह तो, रामापीर ही जाने। बेचारे पछताते हुए अपने दिल में कह रहे थे कि, “ए रामा पीर। कहाँ लाकर फंसा दिया हमें, इन कुदीठ आदमियों के बीच में...?” अब तो स्थिति इसी हो गयी, न तो वे इन बदमाश हवश में डूबे लोगों को कुछ कह सकते थे... और न परिवार सहित पीछे जा सकते थे ? क्योंकि, पीछे की सभी सीटें भरी हुई थी। फिर क्या ? पीछे बैठे भले आदमियों को आगे बुलाकर, उनकी ठौड़ अपनी बहू-बेटियों को बैठा दिया। इसके अलावा, वे बेचारे और क्या कर सकते थे ? वे भले आदमी मन में धमीड़ा लेते हुए, होंठों में कहते जा रहे थे “कहां फंस गए, रामा पीर ? हम तो बाबजी का नाम सुनकर आये थे, कि ‘साधु पुरुष का साथ मिलने पर, यात्रा में प्रभु का स्मरण करते चलेंगे।’ मगर, यहां तो कोई दूसरा ही खेल चल रहा है ?” इधर दूसरी तरफ़ कान सिंह और उनकी घरवाली दोनों अपनी बेटी के ये क़ारनामों को देखकर, ख़ुश हो रहे थे। वे तो कुछ अलग ही सोचते जा रहे थे कि, “छोरी चतुर है। वह इस पैसे वाले मूल सिंह के इकलौते छोरे को अपने ज़ाल में फंसाती जा रही है, भगवान करे इस छोरे के साथ इसका घर मंड जाए। अपनी छोरी तो भाग्यशाली है, जिसने ख़ुद ने किसी मालदार का घर ढूंढ लिया है।” यह ख़िलक़त है, केवल स्वार्थ का पुतला। “कौन, क्या करता है ?” इससे लोगों को कोई मतलब नहीं, कौन ख़्याल रखें...इस समाज की बनायी गयी मर्यादा का ? बस ऐसे मामले से दूर ही रहना, अच्छा। यहां तो ख़ाली अपने परिवार का ही ख़्याल करना चाहिए। इस कारण ही समझदार लोगों ने अपनी बहू-बेटियों को पीछे की सीटों पर बैठने के लिए भेजकर, अपने दिल में संतोष धारण कर लिया। इसके सिवाय, वे बेचारे क्या कर सकते थे ? बस उनके पास, उनको पीछे भेजने का ही विकल्प शेष था।
इस तरह मार्ग में कहीं तो डामर की बनी पक्की सड़के आ रही थी, तो कहीं पगडंडी या अबके मार्ग। अब यह बस किसी तरह उन कच्ची या पक्की सडकों पर सरपट दौड़ती हुई बैजनाथ ज्योतिर्लिंग की तरफ़ बढ़ती जा रही है। रास्ते में जो भी ज्योतिर्लिंग या मंदिर आ जाता, तो बाबजी वहीँ बस रुकवाकर भक्तों को भगवान के दर्शन करवा देते। उस वक़्त इस कमलकी को मिल जाती, काफ़ी छूट। मंदिर के पास आये निर्जन स्थान या बाग़-बगीचे का मनोरम स्थान, जो चारों तरफ़ पेड़ों से आच्छादित हो...वही स्थान कमलकी को, बहुत ज़्यादा अच्छा लगता। उस स्थान पर इस मोती सिंह को ले जाकर, वह छोरी अपनी काम-पिपासा शांत करने लगी। इन दोनों की निगरानी के लिए, वहां माणक मल और पप्पू लाल पहरेदार की तरह तैनात हो जाते थे। वे बराबर ध्यान रखते कि, उन दोनों के काम में व्यवधान पहुंचाने वहां कोई आ न जाय ?
इस तरह ठौड़-ठौड़ मंदिरों के दर्शन करता हुआ यात्रियों का संघ अंतिम स्थान झारखंड पहुंच गया। अब यह बस ने, बैजनाथजी जाने का रास्ता पकड़ लिया। रास्ते में चारों तरफ़ घने वृक्षों से आच्छादित ज़ंगल, नदियों और नालों को पार करती हुई गाड़ी बैजनाथ की तरफ़ बढ़ने लगी। वृक्षों को छूती हुई ठंडी-ठंडी पवन की लहरें यात्रियों के बदन को स्पर्श करती हुई उनके दिल को आनंदित करने लगी। इधर कोयल की कुहुक-कुहुक की मधुर आवाज़, सुशीला के दिल में जा समाई। उसका दिल, भजन गाने को उतावला होने लगा। अब इस क़ुदरत की छटा को देखती हुई, वह मीरा बाई के भजन मधुर सुर में गाने लगी। उसके सुरों पर, स्वत: हनुमान की उंगलियाँ तबले पर थाप देती हुई सप्तम ताल के सुर निकालने लगी। इन मधुर सुरों को सुनकर यात्री गण आनंदित हो उठे, वे भूल गए कि ‘इस वक़्त, वे कहां बैठे हैं ?’ वक़्त गुज़र जाने का कुछ भी मालुम नहीं पड़ा, सूर्यास्त होने लगा और आभा में लालिमा छाने लगी। संध्या आरती का वक़्त हो गया, बाबजी ने अब भजनों को विश्राम दे दिया और अब वे माताजी की आरती गाने लगे। आरती के ख़त्म होते ही, अचानक गाड़ी रुकी। रुकने से, ज़ोर का धक्का लगा। इस धक्के से कई यात्रियों के सिर जाकर, सामने की सीट के डंडे से टकरा गए। उनको क्या मालुम, बैजनाथजी का मंदिर आ गया ? वे बेचारे तो भजनों के आनंद में डूबे हुए थे, उनको वक़्त का ख़्याल कैसे रहता ? तभी बस रोककर, ड्राइवर बोल उठा “भक्तों, पहले जाकर आप बैजनाथजी की संध्या आरती के दर्शन कर लीजिये, इसके बाद मैं आपको विश्राम करने की ठौड़ ले जाकर आपको छोड़ दूंगा। और कल आपको भोजन करके, वापस रवाना होना है।”
सुनते ही, बाबजी ने ज़ोर से लगाया, “जयकारा“ बोलो रे बलियों अमृत वाणी।” उनके पीछे-पीछे सारे भक्त ज़ोर-ज़ोर से बोले “हर हर महादेव।” इस तरह दो बार, और उन्होंने जयकारे लगाए। उसके बाद सभी गाड़ी से नीचे उतरकर, बैजनाथजी के दर्शनार्थ मंदिर में दाख़िल हो गए। यात्रियों की क़िस्मत अच्छी थी, सभी यात्रियों को काफ़ी नज़दीक से आरती के दर्शन हो गए। दर्शन करने के बाद, सभी यात्री गाड़ी में आकर अपनी-अपनी सीटों पर बैठ गए। सभी यात्रियों के बैठ जाने के बाद, खींवजी एलान करने लगे, “भक्तों, रात्रि विश्राम हेतु, एक हवेली का इंतज़ाम हो गया है। यह हवेली, यहां के ठाकुर साहब की है। यहां यात्रियों को ठहराने के लिए मेरे ससुरजी ने, ठाकुर साहब के पी.ए. साहब से बात पक्की कर ली है। आप लोगों को, वहां कोई तकलीफ़ नहीं आएगी। बस एक बात ज़रूर है, यह हवेली निर्जन स्थान पर आयी हुई है।” इतना कहकर, वे ड्राइवर को हवेली तक पहुँचने का मार्ग बताने लगे। खींवजी का मार्गदर्शन पाकर, ड्राइवर ने बस चालू की। आधे घंटे तक उबड़-खाबड़ मार्ग पर चलती हुई गाड़ी, आख़िर सुनसान इलाके में पहुँच गयी। वहां बड़े-बड़े वृक्षों से घिरी हुई, ठाकुर साहब की हवेली दिखाई दी। गाड़ी से उतरकर, यात्रियों ने चारों तरफ़ नज़रें दौड़ायी। कई यात्री ज़ंगल को देखते ही, घबरा गए। वे डरते हुए, बाबजी के पास आकर, कहने लगे “बाबजी यह हवेली तो, पूरी सूनी लगती है। यह तो भयानक ज़ंगल से घिरी हुई है, न मालुम कोई नक्सलवादी या डाकूओं का गिरोह आकर हमें मारकर चला गया तो किसी को मालुम भी नहीं होगा।” बाबजी सभी यात्रियों समझा-बुझाकर, उनका डर कम करते हुए कहने लगे “क्यों डरते हो, भक्तों। हम सभी भगवान बैजनाथजी के शरण में आये हैं, फिर डर किस बात का ? भगवान शिव, ख़ुद हमारी रक्षा करेंगे। आप बताइये, भोले शिव शम्भू कहां निवास करते हैं ? वे ख़ुद, श्मसान में रहते हैं। इसलिए आप इस नीरव स्थान को सुनसान मत कहिये, यह तो एकांत हैं..जहां बैठकर, हम लोग ईश्वर के नाम की माला जप सकते हैं।” इतना समझा-बुझाकर बाबजी ने अपने दंड-कमण्डल लेकर, हवेली में घुस गए। उनके पीछे-पीछे दूसरे यात्री भी, अपना सामान उठाये हुए हवेली में दाख़िल हो गए।
उधर जैसे ही खींवजी अपने पांव हवेली में जाने के लिए बढ़ाने लगे, तभी उनको माणक मल की आवाज़ सुनायी दी। कुछ ही दूर स्थित नीम के वृक्ष के तले, वे और पप्पू लाल खड़े थे। माणक मल का एक हाथ, पप्पू लाल के कंधे पर रखा हुआ था। उनके निकट आकर, खींवजी बोले “भले आदमी, अब क्या बात है ? कोई कसर बाकी रह गयी क्या, इंतज़ाम में ? भले आदमी, क्यों देरी करते जा रहे हो ?” तब माणक मल ने लबों पर, शैतानी मुस्कान बिखेरते हुए कहा “भाई खींवजी यह जवान हसीन चिड़िया जवान ख़ूबसूरत चिड़े के साथ फुर्र फुर्र करती उड़ती जा रही है ? और हम दोनों रहे एक नंबर के बेवकूफ़, जो इस चिड़िया के आजू-बाजू इसकी पहरेदारी करते बेफ़िजूल तैनात हैं।”
इतने में मुंह-फट पप्पू लाल बोल उठे “इस छोरी को ऐसा क्या निर्देश दे रखा है, आपने ? जो इस मोत्ये को पटाती हुई, हम जैसे पुराने यारों को भूलती जा रही है ?” यह सुनते ही खींवजी ने झट उन दोनों को चुप रहने का इशारा किया, और धीरे-धीरे फिर उनसे कहने लगे “आप दोनों को कुछ मालुम नहीं, कहां क्या बोलना ? दूसरे यात्रियों का भी, ख़्याल रखो भाई। आप दोनों धैर्य रखो, आधी रात के बाद आप दोनों आ जाना होल में..बस, फिर क्या ? जो तुम दोनों चाहोगे, वह काम तैयार मिलेगा।”
हवेली की पोल में घुसते ही, पोल के कमरे में बैठे मुनीमजी झट बाहर आये। इस वक़्त मुनीमजी के माथे पर केसरिया जोधपुरी पाग बांधी हुई थी। और उनके बदन पर, सुनहरी शेरवानी और सुनहरी किनार वाली धोती पहनी हुई थी।
आगंतुकों के स्वागत-सत्कार हेतु वे झट बाहर आये, यात्रियों को हाथ जोड़कर उनके पास आकर खड़े हो गए। सभी यात्रियों को जय माताजी कहकर, वे झट बाबजी के निकट आये और उन्हें दंडवत प्रणाम करके....सबको ले जाकर, पोल के दरी खाने पर बड़े प्रेम से बैठा दिया। फिर उन्होंने, कामदार सांवारिये को बुलाया। सांवरिया उनकी आवाज़ सुनकर झट आया, और बाबजी को देखते ही उन्हें दंडवत-प्रणाम करके आदेश लेने के लिए झट मुनीमजी के निकट आकर खड़ा हो गया। उसे सामने पाकर, मुनीमजी बोले “जा रे, सांवरिया। रसोई में जाकर, चाय-पानी का इंतज़ाम कर।” तब, वह बोला “खींवजीसा का फ़ोन पहले आ गया, तभी मैंने चाय का पानी भगोने में भरकर चूल्हे पर चढ़ा दिया। हुज़ूर अब चाय तैयार हो गयी है, अभी अदरक और मसाले वाली चाय लेकर आता हूं।” इतना कहकर, सांवरिये ने बाबजी का चरण-स्पर्श करके, झट हवेली के रसोड़े की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा दिए। थोड़ी देर में ही, वह चाय से भरी केतली और मिट्टी के सिकोरे से भरी बाल्टी लेकर आ गया। केतली और बाल्टी को दरी-खाने पर रखकर, पानी लाने चल दिया। जैसे ही वह शीतल जल से भरी बाल्टी लेकर आया, नारायण भक्त ने उससे बाल्टी और लोटा ले लिया..और, उससे कहा “सांवरिया तू तो सबको चाय पिला दे, यह जल-सेवा का काम तो मैं ख़ुद कर लूंगा।” अब थोड़ी देर बाद, सभी चाय की चुस्कियां लेते हुए, अपनी थकावट दूर करने लगे। चाय की चुस्कियां लेते हुए, मुनीमजी ने बाबजी से कहा “बाबजी, हवेली के अन्दर एक बड़ा होल है। कई कमरों में जाने का मार्ग, इसी होल से ही गुज़रता है। होल के बाहर एक बड़ा चौक है, जहां मीठे पानी का एक कुआ है। इसी चौक में कई घुसलखाने बने हैं, और ठौड़-ठौड़ नहाने के नल भी लगे हैं। इस कुए के निकट ही, पानी पीने का पइंडा है। कुए की जगत पर, पानी खींचने की डोलची रखी हुई है। चौक के पास ही, रसोई है। हर कमरे में यात्रियों के विश्राम के लिए, बिस्तर, तकिये और लिहाफ़ वगैरा की व्यवस्था की जा चुकी है। अभी भोजन की व्यवस्था, होल में की गयी है। बाबजीसा, आपको कोई तक़लीफ़ नहीं होगी।” इतना कहकर, मुनीमजी मुंह से सुड़क-सुड़क की आवाज़ निकालते हुए चाय पीने लगे। चाय पीकर मुनीमजी ने ख़ाली सिकोरा नीचे रखा, फिर होंठ साफ़ करते हुए उन्होंने बाबजी से कहा “चौक में नल से हाथ-मुंह धो लीजिये, और तैयार होकर आप सभी होल में पधार जाइए। वहां आकर, आप सभी प्रसादी ले लीजिये।” इतना कहकर मुनीमजी और सांवरिया, रसोई की तरफ़ अपने क़दम बढ़ाने लगे। इनके पीछे-पीछे, सभी यात्री भी रवाना हुए।
चौक में आकर उन्होंने देखा, ‘कुए के जगत पर पानी निकालने की डोलची और बाल्टी रखी हुई है, यहां नल में चौबीस घंटे पानी आ रहा है।’ ऐसी अच्छी व्यवस्था देखकर, सभी यात्रियों का दिल ख़ुश हो गया। अब सभी यात्री हाथ-मुंह धोकर, हो गए तैयार। और थोड़ी देर में ही, सभी होल में पहुंच गए। वहां कतार में चौकिया और बैठने के लिए आसन लगे हुए थे, और हर चौकी पर रखी थाली, कटोरियां और पानी पीने की ग्लास देखकर यात्रियों को भूख सताने लगी। सभी अपने आसन पर आकर, बैठ गए। सांवरिया और नारायण भक्त यात्रियों को भोजन कराने के लिए, भोजन-सामग्री और पानी से भरी बाल्टी लेकर होल में आ गए। सभी यात्रियों को, भोजन परोस दिया गया। मगर बिना मन्त्र बोले बाबजी भोजन करना शुरू करते नहीं, इसलिए सभी यात्री आँखे बंद करके बैठ गए। अब बाबजी मन्त्र उच्चारण करने लगे, और उनके पीछे सभी यात्री मन्त्र बोलते गए। मन्त्र पूरा होने के बाद, बाबजी ने गौ-ग्रास अलग से निकाला। फिर, भक्तों को भोजन प्रारंभ करने का इशारा कर डाला। अब सभी भोजन करने लगे। भोजन करने के बाद, सभी अपने जूठे बरतन मांजने के लिए चौक में ले गए। फिर बरतन साफ़ करके, उन बरतनों को सांवरिये को संभला दिए। बाद में, सभी वापस होल में आ गए। अब कई भक्तों का दिल वहां बैठकर हरि-भजन करने का था, वे सभी मिलकर बाबजी से निवेदन कर बैठे, कि ‘बाबजी, यहीं इस होल में बैठकर सत्संग किया जाय, कैसा शांत वातावरण है यहां ?” फिर क्या ? बाबजी की सहमति पाते ही, वहीँ जाजम पर बैठकर, भजन गाने लगे। सांवरिया झट केतली में गरमा-गरम चाय ले आया, उसे सिकोरों में भरकर भक्तों को थमाने लगा। और उधर, सत्संग का रंग ज़मने लगा। सुशीला ने मीठे सुर में एक के बाद, दूसरा भजन गाने लगी। इधर हनुमान ढोलकी पर थाप देता जा रहा था, अब तो सत्संग बंद होने का सवाल ही पैदा नहीं होता..? यह हाल इन भक्तों का देखकर, पप्पू लाल के चेहरे की रंगत बिगड़ने लगी। आख़िर हताश होकर पप्पू लाल और माणक मल, खींवजी को पकड़कर होल के बाहर ले आये। वहां ले जाकर, वे उनसे कहने लगे “यह क्या रासा चल रहा है, खींवजी ? रात के दो बज गए हैं, और इन साधुड़ों ने राग अलापनी बंद नहीं की...भाई खींवजी, अब हमारा क्या होगा ? अब हम दोनों को, बर्दाश्त नहीं हो रहा है। हम इस फुर्र फुर्र कर रही इस चिड़िया के परों को, झट पकड़ना चाहते हैं।” तब उनको समझाते हुए खींवजी, गंभीर होकर कहने लगे “भाया, थोड़ा धीरज रखिये। अभी मैं जाकर, इन सबको शयन के लिए रवाना करता हूं।” इतना कहकर खींवजी तो वापस दाख़िल हो गए, होल में। और जाकर, बैठे सभी भक्तों से कहने लगे “भक्तों, अब आप सभी शयन के लिए अपने कक्ष में तशरीफ़ रखें। मध्यरात्रि बीत चुकी है, अब बाबजी को भी आराम करने दीजिये। अब ज़्यादा देर यहां बैठ गए, तब आप नींद कब लेंगे ? अगर नींद नहीं ली तो, कल आप यहीं पड़े खर्राटे लेते रहेंगे।” अब झपकी ले रहे भक्तों को, खींवजी की राय बहुत अच्छी लगी। वे भले पुरुष झट उठ गए, और उन्होंने बाबजी से इज़ाज़त लेने की भी ज़रूरत नहीं समझी..कि, “बाबजी, अब आप हमें शयन कक्ष जाने की इज़ाज़त दीजिये।” वे तो झट, शयन कक्ष की तरफ़ क़दम बढ़ाने लगे। दूसरे भक्त बाबजी का हाथ थामकर, उन्हें उनके शयन कक्ष में पहुंचा आये। और वे भी मन मसोसकर, अपने शयन कक्ष में सोने चले गए। अब सबके जाने के बाद, खींवजी रसोई में जाकर, मुनीमजी और सांवरिये को रुख़्सत दे दी। वे भी, अपने कमरे में सोने चले गए। अब कमलकी के पांवों में पहनी पायलों की झंकार, मधुर आवाज़ सुनायी देने लगी। वह झट दो बिस्तर लेकर आ गयी, होल में। होल की ट्यूब-लाईट का स्वीच बंद करके खींवजी ने, झीनी रौशनी देने वाले बल्व का स्विच ओन किया। मगर, पप्पू लाल से तेज़ रौशनी के बिना रहा नहीं गया। उन्होंने झट जाकर, वापस ट्यूब-लाईट का स्वीच ओन कर दिया। इस होल में एक तरफ़, मुंडेर पर जाने की सीढियां बनी थी। अब चारों तरफ़ शान्ति का अहसास करते हुए..उन्होंने झट, पप्पू लाल और माणक मल को रासलीला शुरू करने का इशारा किया। और ख़ुद मोबाइल लेकर जाकर बैठ गए, ऊपर वाले स्टेप पर। कुदीठ इंसानों को, कभी अपने साथियों पर भरोसा होता नहीं। वे तो रासलीला करते साथियों की फोटूएं, लेने का मानस बना चुके थे। ताकि कभी काम पड़े तो, वे अपने इन साथियों को फोटू दिखलाकर अपना काम निकाल सके। सीढ़ी के ऊपर वाले स्टेप पर बैठे खींवजी, नीचे का नज़ारा देखने लगे। यहां बैठे खींवजी को, नीचे का नज़ारा साफ़-साफ़ नज़र आ रहा था। अब वे अपना मोबाइल ओन करके, तड़ा-तड़ रासलीला करते हुए उन तीनों की फोटूएं खींचने लगे। थोड़ी देर में, मींई-मींई सिसकारियां और चुम्मे लेने की वहशी आवाज़े इस होल में गूंज़ने लगी।
उधर कमरे में बैठे बाबजी, माला जपने बैठ गए। और थकावट से चूर नारायण भक्त को, गहरी नींद आ गयी। वे आराम से, नींद लेने लगे। यहां शान्ति छायी हुई थी, नित्य-नियम की माला जपने के बाद बाबजी को प्यास लगी, उन्होंने कमंडल संभाला। ईश्वर जाने, आज़ भाग-दौड़ के कारण वे उसमें पानी भरना कैसे भूल गए ? कमंडल भरने के लिए, अब उन्हें नारायण भक्त को जगाना वाजिब नहीं लगा। ख़ुद उठकर, पानी लाने का विचार कर डाला। उनका विचार था, ‘अभी जाकर कुए से पानी सींचकर कमंडल भरकर ले आयेंगे...फिर किसी को,तक़लीफ़ देने की, क्या ज़रूरत ? पानी लाने में, तक़लीफ़ है क्या ? क्योंकि, वे कुए के जगत पर रखी पानी सींचने की डोलची..पहले, देख आये थे। बस, अब पानी सींचकर ही लाना है।’
आख़िर, बाबजी कमंडल लेकर उठे, और कुए की तरफ़ अपने क़दम बढ़ाने लगे। कुए के पास जाने का रास्ता होल से गुज़रता था, और अब इस वक़्त इस होल में क्या रासा चल रहा है ? बाबजी को, क्या मालुम ? बेचारे बाबजी पहुंच गए होल के दरवाज़े के पास, जहां चिड़िया के पर पकड़ने की उतावली में ये वहशी लोग होल का कूठा लगाना भूल गए। यह दरवाज़ा केवल सटा हुआ था, बाबजी के थोड़ा सा धक्का देते ही, वह खुल गया। इस होल में, कौन क्या कर रहा था ? बाबजी को, क्या मालुम ? सभी जानते हैं, कामदेव को भस्म करने की ताकत केवल महादेवजी के पास है...इन पप्पू लाल और माणक मल जैसे संसारिक-प्राणियों के पास कहां ? वे दोनों इस काम-रस में ऐसे डूब गए, कि ‘उन दोनों को चारों तरफ़ कमलकी के अलावा, कुछ नज़र नहीं आ रहा था।’ अब यह लज्जाजनक नज़ारा बाबजी को दिखाई दिया, जिसमें कोई महानुभव तो कमलकी के होंठ भंवरे की तरह चूसता जा रहा था, तो कोई उसकी नग्न रानों को सहलाता जा रहा था। ये दोनों कामदेव के ज़ाल में ऐसे फंसे हुए थे कि, ‘इनको बिल्कुल भी होश नहीं...कौन इस होल में दाख़िल हो रहे हैं ?’
होल में दाख़िल होने के बाद, बाबजी ने ट्यूब-लाईट की तेज़ रौशनी में इस महसूद काम को होते देखा। गुस्से के मारे, उनकी भौएं तन गयी। बाबजी ख़ुद, इस क्रोध रूपी चाण्डाल के वश में आ गए। इस वक़्त उनकी अक्ल ने काम करना बंद कर दिया, वे बिना सोचे-समझे आगे बढ़ने लगे। आगे क़दम बढ़ाते हुए बाबजी, ज़ोर से चिल्लाते हुए बोल उठे “नालायकों। तीर्थों पर आकर, ऐसे महसूद काम करते हो ?” बाबजी की तेज़ आवाज़ सुनकर कमलकी झट उठकर खड़ी हो गयी, और अपने कपड़ों को सही करती हुई वह बाबजी की तरफ़ बढ़ी। और बोली “बाबजी वहीँ रुक जाइए, एक क़दम आगे मत बढ़ाना। नहीं तो, आपकी खैर नहीं।” मगर बाबजी तो इस वक़्त उस क्रोध रूपी चांडाल के वश में थे, बस वे तो इन लोगों को सज़ा देने में तुले थे। वे आगे बढ़ते गए, तभी वह कमलकी रूपी ज़हरीली नागिन आकर, उनके बदन से लिपट गयी। और साथ ही, उसने अपना ब्लाउज फाड़ डाला। फिर, वह कमज़ात चिल्लाने लगी “बचाओ, बचाओ। यह साधुड़ा, मेरी इज्ज़त लूट रहा है।” बोलती-बोलती उसने, सीढ़ियों पर बैठे खींवजी को इशारा अलग से कर डाला। अब ऐसा लगा कि, “खींवजी तो, पहले से ही तैयार बैठे हैं तड़ा-तड़ फोटूएँ खींचने...?” इस तरह उन्होंने, इस अवस्था में कमलकी और बाबजी की कई फोटूएं तड़ा-तड़ खीच डाली। फिर, वे अनजान बने हुए उसके पास आये। फिर उस निर्लज्ज कमलकी के गाल पर धब्बीड़ करता थाप जमाकर, उसे बाबजी के बदन से दूर किया। बाद में, उसे फटकारते हुए कहा “ए निर्लज्ज छोरी, तू ऐसे साधु पुरुष पर मिथ्या इलज़ाम लगाती है ?” इतना कहकर खींवजी ने, बाबजी के अस्त-व्यस्त वस्त्र को ठीक किया। ऐसे संत पुरुष, जिनके पांवों की धूल पाकर लोग भवसागर पार उतर जाते थे..उनके कंधे पर बेशर्मी से हाथ रखकर, खींवजी बोल उठे “बाबजी इस छोरी को माफ़ कीजिये, यह नादान है..आपकी महिमा जानती नहीं। आगे से, इस छोरी से ऐसी ग़लती कभी नहीं होगी।”
अब बाबजी अपने कंधे पर हाथ रखने वाले खींवजी को, आश्चर्य से देखने लगे। जहां इस संत पुरुष की चरण-रज प्राप्त करके, लोग उस रज को लोग माथे पर लगाते थे, और आशा करते कि ‘उनके किये सारे पाप नष्ट हो गए..’ अब ऐसे महापुरुष पर अहसान जतलाता हुआ यह नराधम प्राणी, उनके कंधे पर हाथ रखा हुआ न मालुम क्या-क्या बके जा रहा था ? मगर इस विचार-धारा से, खींवजी जैसे नराधम प्राणी को कोई लेना-देना नहीं। वे बाबजी को सहारा देकर, उन्हें कुए तक ले गए। अब धीरे-धीरे बाबजी, उस क्रोध रूपी चांडाल के ज़ाल से मुक्त हो गए। वे कुए में डोलची डालते हुए, शान्ति से कहने लगे “यह संसार में फ़ैली माया है, भाया। इसमें, किसका दोष..? जो जैसा करेगा, वह वैसा ही भरेगा।” इतना कहकर, बाबजी कमंडल में जल लेकर अपने शयन कक्ष की तरफ़ चले गए।
अब पप्पू लाल और माणक मल का पूरा जोश ठंडा हो गया, उन दोनों ने अपने वस्त्र पहन लिए। तभी खींवजी वापस आये, और आकर खींवजी ने, उन दोनों को फटकारते हुए कहा “करमज़लों। कूठा लगाना, कैसे भूल गए ? तुम लोगों को, केवल मस्ती लेना ही सूझता है। आज़ तो बच गए, अगर यह साधुड़ा चिल्लाकर लोगों को यहां इकठ्ठा कर लेता तो..? तुम्हारा और मेरा, क्या होता ? मेरी सारी कमायी हुई इज्ज़त, धूल में मिल जाती। अब फूटो, यहां से। मुंह बहुत काला कर लिया, तुम दोनों ने।” मुंह नीचे करके, पप्पू लाल और माणक मल वहां से चले गए। उनके पीछे-पीछे कमलकी भी जाने के लिए क़दम बढ़ाने लगी। मगर, यह क्या ? अब कुदीठ खींवजी, उसे जाने कैसे देते ? झट खींवजी ने उसका हाथ पकड़कर, कहा “अरी छमकछल्लो, मुझे क्या तूने पागल समझ रखा है ? मुझे जीने पर बैठाकर, मेरी पूजा की क्या ? यह ऐसा मंज़र दिखलाकर, तूने मेरे एक-एक रोम को खड़ा कर डाला। अब यह मेरा दिल, तूझे गले का हार बनाने को उतारू है। आ जा मेरे पास, अब यह मौक़ा चूक मत। कहीं यह साधुड़ा, वापस न आ जाय ?” सुनकर, कमलकी मुस्करा उठी और झट खींवजी के बदन से लिपट गयी। फिर, कहने लगी “इस तरह ताने मत दिया करो, बस आप भी ख़ुश हो जाइए। आख़िर यह तो नाशवान शरीर है, चाहे किसी के काम आये। मगर एक बात कह दूं, आपको। आगे से आप इस तरह मेरे गालों पर थप्पड़ ज़माना मत, नहीं तो..” इसके आगे खींवजी उस कमलकी की बात सुनने वाले नहीं, उस नागिन के मुंह पर हाथ रखकर उसे बंद करके कह डाला “प्यारी, चुप हो जा अभी। वापस चलेंगे, तब तूझे खूब सोपिंग कराऊँगा।” फिर झट उसे, अपनी बाहों में झकड़ डाला। अब खींवजी और कमलकी के बीच, काम लीला होने लगी। इस तरह दोनों निर्लज्ज वासना के पूतले, बेचारे ठाकुर साहब की हवेली को नापाक करने लगे।
और उधर बाबजी दिल में यह वाकया शूल की तरह चुभने लगा, वे पछताने लगे “क्यों ऐसे लम्पट आदमी के बहकावे में आकर, इसके साथ यह यात्रा की ? ऐसे इंसान तो साधु-सरीखे पाक आत्माओं को भी झूठा क़रार कर दिया करते हैं, इन लोगों में इतनी सारी कुबदी कलाएं भरी हुई है..जिसके ज़रिये वे किसी भी आदमी के चरित्र पर दाग लगा सकते हैं।” पूरी रात पछताते हुए, बाबजी ने नींद आँखों में निकाली। सुबह चार बजे दड़बे में मुर्गे ने ज़ोर से बांग दी, बांग को सुनते ही बाबजी उठे और उन्होंने पास सो रहे नारायण भक्त को जगाया। फिर दोनों ने पाख़ाने के डब्बे में पानी से भरकर, मुंह से “हरे कृष्णा हरे कृष्णा, कृष्ण कृष्ण हरे हरे..” बोलते-बोलते वे दोनों, ज़ंगल की तरफ़ दिशा-मैदान के लिए चले गए। वापस आकर हाथ-मुंह धोये, फिर दातुन-कुल्ले करके कुए की जगत पर बैठकर स्नानादि से निवृत हो गए। इसके बाद दंड-कमंडल लेकर बाबजी जाकर बैठ गए, पोल के दरीख़ाने पर। दरीख़ाने पर बैठे बाबजी का चेहरा, उदास दिखाई देने लगा। इस वक़्त वे मौन धारण करके बैठ गए, वे किसी से बात करना नहीं चाहते थे। बेचारे नारायण भक्त कई बार उनसे पूछकर चले गए कि, “बाबजी कुछ तो कहिये, कहीं आपकी तबीयत ख़राब तो नहीं है ?” मगर, उनसे भी बाबजी कुछ नहीं कहा। बस, लबों पर उंगली रखते हुए उन्हें चुप रहने का इशारा कर डाला। बेचारे तब नारायण भक्त वहां खड़े रहकर, क्या करते ? बेचारे वहां से चले गए, और रसोईघर में जाकर चाय-नाश्ते की व्यवस्था में जुट गए। अब बाबजी वहां अकेले बैठे रह गए, बाबजी को यों अकेला पाकर खींवजी अपना मोबाइल लेकर वहां आ गए। फिर मोबाइल ओन करके, रात को खींची गयी बाबजी व कमलकी की फोटूएं बाबजी को दिखलाने लगे। उन फोटूओं में कमलकी, बाबजी के बदन पर नागिन की तरह लिपटी हुई दिखाई दे रही थी। कमलकी के ब्लाउज का फटा होना और उसके टूटे हुए बटन कोई और ही किस्सा बयान कर रहे थे। ये सारी फोटूएं ऐसी लग रही थी, मानो किसी कुशल फोटोग्राफ़र ने कई एंगल से ये तमाम फोटूएं खींची हो ? इन फोटूओं को देखते ही, बाबजी को अपने नीचे की धरती खिसकती नज़र आने लगी। इन फोटूओं को दिखलाकर, खींवजी ने मोबाइल बंद करके अपनी जेब में डाला। फिर, कुटिल हंसी हंसते हुए बाबजी से कहने लगे “बाबजी फोटूएं कैसी लगी, आपको ? कितनी बढ़िया आयी है, आपकी फोटूएं। कितना अच्छा रहे इन फोटूओं की एक-एक प्रति तैयार करके आपके भक्तों के बीच बांट दी जाय, तो आपके भक्त सुबह-शाम आपके दर्शन कर लेंगे। फिर भक्तों के मध्य आपकी क्या शान बढ़ेगी, बाबजी ? यह तो मैं, बयान नहीं कर सकता।” खींवजी की बात सुनकर, बाबजी की आंखें भभकते अंगारों की तरह लाल-लाल नज़र आने लगी। उनकी सूरत देखकर, खींवजी ज़ोर के ठहाके लगाकर हंसने लगे। फिर अपनी हंसी रोककर, हिदायत देते हुए बाबजी से कहने लगे “अब आप, मंदिर में चुप-चाप बैठे रहना। जैसा मैं कहूं, वैसा ही आपको काम करना है। मंदिर की व्यवस्था के काम में, दख़ल देना मत। नहीं तो ये सारी फोटूएं सबके सामने आ जायेगी, सबके सामने आने के बाद ये आपके भक्त आपकी क्या गत बनायेंगे ? आप जानते ही होंगे।” इतना कहकर खींवजी ने ज़ोर का ठहाका लगाया, इस हंसी के ठहाके के साथ पप्पू लाल और माणक मल के हंसी के ठहाके भी सुनायी दिए। दूसरे ही पल, दीवार के पीछे छिपे पप्पू लाल और माणक मल हंसी के ठहाके लगाते हुए बाहर निकल आये। फिर एक बार और हिदायत देकर खींवजी, बोल उठे “बाबजी ध्यान रखना, आपको अब मंदिर के किसी भी काम में दख़ल नहीं देना है। अब हम चलते हैं, बाबजी। बस रवाना करने की तैयारी, जो करनी है।” इतना कहकर खींवजी, पप्पू लाल और माणक मल को साथ लेकर, वापसी की तैयारी करने चले गए।
काफ़ी वक़्त बीत गया, सभी यात्री तैयार होकर बस में आकर बैठ गए। सब यात्रियों के आने के बाद, बस रवाना हो गयी। बैद्यनाथजी के दर्शन तो भक्तों को पहले ही हो गए थे, अब सभी यात्रियों को घर पहुँचने की उतावली होने लगी। इस कारण कई यात्री जाकर ड्राइवर से कह आये कि, “भाई, अब गाड़ी कहीं रोकने की ज़रूरत नहीं, सीधे घर की ओर जाने वाला रास्ता पकड़ लीजिये।”
आख़िर ड्राइवर ने बस माताजी के मंदिर के पास लाकर, रोक दी। सभी यात्री गण सामान लिए, बस से नीचे उतरे। बाबजी भी नीचे उतरे, नीचे उतरने के बाद उन्हें नारायण भक्त कहीं दिखाई नहीं दिए। तब बाबजी वहीँ खड़े होकर, ज़ोर से नारायण भक्त को आवाज़ दे डाली “ए रे नारायण, कहाँ गया रे।” आवाज़ देते ही बाबजी के पास एक बिस्तर आकर गिरा, और पीछे-पीछे उस बिस्तरपर कूदते हुए नारायण भक्त प्रगट हुए। उनके ऐसे कूदने के अंदाज़ से, बाबजी का कलेज़ा हलक में आ गया। और चमकते ही, बाबजी विचारों के सागर से बाहर निकलकर वर्तमान में लौट आये। आंखें मसलकर, उन्होंने सामने देखा नारायण भक्त को। जो घबराकर, बाबजी से कह रहे थे “क्या हुआ, बाबजी ? आप बार-बार, मुझे क्यों पुकारते जा रहे हैं ? कहीं आपकी तबीयत ख़राब तो नहीं है ?”
बाबजी ने मुस्कराकर कहा ‘नहीं, नहीं। कोई बात नहीं है रे, नारायण। थोड़ी ऊंघ आ गयी रे, मुझे।’
बाबजी ने इतना ही कहा, तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई और बाहर किसी की करुण पुकार सुनायी दी। नारायण भक्त उस पुकार को सुनकर, ज़ोर से बोले ‘कौन है, भाई?’ जवाब में रोवणकाली आवाज़ सुनायी दी ‘बाबजी, मैं हूं मूल सिंह पंवार। मेहरबानी करके, दरवाज़ा खोलिये।’
इसके बाद फिर, मूल सिंह के रोने की आवाज़ सुनायी दी। ऐसी करुण पुकार सुनकर, दोनों उठकर मंदिर के गलियारे में आ गए। नारायण भक्त ने जाकर, पोल का दरवाज़ा खोल दिया। सामने मूल सिंहजी के पूरे परिवार को खड़े देखा। दरवाज़ा खुलते ही, सभी अन्दर दाख़िल हो गए। सभी की आंखें नम थी, आँखों से आंसू गिराते हुए वे सब बाबजी के चरणों में गिरे। मूल सिंह को छोड़कर, सभी उनके चरण-स्पर्श करके खड़े हो गए। मगर मूल सिंह के दिल में, पछतावे की अग्नि की ज्वाला भभकती जा रही थी। वे तो बाबजी के चरणों को छोड़ नहीं रहे थे, वे उन चरणों को पकड़कर उन्हें अपने आंसूओं से धोते जा रहे थे। कंधा थामकर, बाबजी ने उनको उठाया। तब आंसूओं को पोंछते हुए, मूल सिंहजी बोले ‘बाबजीसा, मैं बड़ा पापी हूं। आपकी भोजनशाला में कार्य करते वक़्त मैंने, हिसाब मे कई झूठे-सच्चे आंकड़े दर्शाये। इस तरह, मैंने बहुत सारे रुपयों का गबन किया बाबजी।’ इतना कहने के बाद, मूल सिंहजी आगे कुछ नहीं बोल पाए। बस हिचकी आती गयी, और ज़बान खुल न पायी। तब बाबजी उनके सर पर हाथ रखते हुए, बोले “मानव शरीर से ग़लती हो जाया करती है, मूल सिंहजी। मगर, आपके इस पछतावे ने आपके सारे पाप धो डाले।” इतना कहकर, बाबजी ने नारायण भक्त को ठंडा शीतल जल लाने का हुक्म दे डाला। नारायण भक्त झट उठकर, जल ले आये। अब बाबजी ने अपने हाथ से मूल सिंह को जल पिलाया, जल पीते ही मूल सिंह की हिचकियाँ आनी बंद हो गयी। हिचकी बंद होते ही, मूल सिंह बोले “बाबजी, भगवान ने मुझे इस पाप की सज़ा दे दी है। यह लड़का मोती सिंह हैं ना, वह उस कमलकी की ज़ाल में फंस गया। मज़बूर होकर हमें, इस छोरे की शादी उस छोरी कमलकी के साथ करनी पड़ी। शादी होने के बाद उस निखेत छोरी ने, इस लडके की बुद्धि भ्रष्ट कर डाली। क्या कहूं बाबजी, आपसे ? इन दोनों ने, हमारी ज़िंदगी को नर्क-समान बना डाली। आख़िर हम दोनों को मज़बूर होकर, वृद्धाश्रम जाकर शरण लेनी पड़ी। हमारे चले जाने के बाद उस छोरी ने इस छोरे को ऐसी पट्टी पढ़ाई कि, इसने पूरी ज़ायदाद उस छोरी कमलकी के नाम लिख दी। फिर क्या ? मतलब निकलने के बाद, उस छोरी ने इसकी क़द्र कुत्ते के समान कर डाली। फिर, क्या हुज़ूर ? रोज़ के रोज़ उसके आशिक घर आने लगे, और नाच-गाने की महफिलें चलने लगी। इसके द्वारा विरोध जतलाने पर, एक दिन उसने क्रोधित होकर अपने आशिकों से इसकी पिटाई करवा डाली। फिर, इसे घर से बाहर निकाल दिया। घर से बाहर निकाले जाने के बाद, यह बेचारा जाता कहां ? यह रोता हुआ, वृद्धाश्रम चला आया। मगर, हम उसको वहां कैसे रखते ? जहां हम भी उन लोगों के आसरे वहां रह रहे हैं, फिर इसको वहां कैसे रखते बाबजी ? और कहाँ हमारे पास, इतने रुपये-पैसे ? जो इसका धंधा वापस चालू करवा दें ?” इतना कहकर, मूल सिंह चुप हो गए।
उनके चुप होते ही, नारायण भक्त बोले “भाई मूल सिंहजी, यह तो बताइये ज़नाब कि आपके समधीजी कान सिंहजी ठाकुर ही निकले या फिर कम केरेट के...?” इतना कहकर, नारायण भक्त चुप हो गए। यात्रा के वक़्त कान सिंह के परिवार का चाल-चलन इनको अच्छा नहीं लगा, उन्हें ऐसा लगा कि, शायद इनका परिवार नीची जाति से सम्बन्ध रखता है ? सत्य यही है, उन लोगों की बोली-चाली नीची जाति के लोगों जैसी लगती थी। उनकी बात सुनकर, मूल सिंह बोले “मेरी क़िस्मत ही खोटी निकली, नारायणजी। मैं इस बदमाश खींवजी के झूठे बहकावे में आ गया, इस नालायक ने कहा था मुझसे कि ‘कान सिंजी ऊंचे ख़ानदान के ठाकुर हैं।’ और उनको, झूठ-मूठ के ठिकाने का ठाकुर भी बता दिया। और मैंने उस खींवजी की बात पर, भरोसा कर लिया। मगर अब वृद्धाश्रम के निकट बसी हुई उस जोगियों की बस्ती को जबसे मैंने देखा है, तब इनका झूठ पकड़ में आया। मैंने इन आंखों से उस कान सिंह के पूरे परिवार को, वहां झुग्गी झोपड़ी में रहते देखा है। देखते ही, मेरी आंखें खुली की खुली रह गयी नारायणजी। मगर अब कुछ नहीं हो सकता, चिड़िया चुग गयी खेत। अरे राम, राम। यह लम्पट तो, नीची जात का निकला।” इतना कहकर, मूल सिंह चुप-चाप बैठ गए और बाबजी के हुक्म की प्रतीक्षा करने लगे। अब चारों ओर शान्ति छा गयी, थोड़ी देर बाद उस सन्नाटे को तोड़कर बाबजी नारायण भक्त से बोले “सुन रे, नारायण। अब तू विश्राम कक्ष में जाकर, वहां रखी काठ की संदूक से बीस हज़ार रुपये बाहर निकालकर ले आ।” बाबजी का हुक्म पाते ही, नारायण भक्त उठे और जाकर संदूक से बीस हज़ार रुपये निकालकर ले आये। उन रुपयों को बाबजी के सामने रखकर, उनके अगले हुक्म की प्रतीक्षा करने लगे। उन रुपयों को देखकर, बाबजी बोले “इन रुपयों को मेरे पास क्यों रखे, नारायण ? इन रुपयों को दे दे, मूल सिंहजी को। इन रुपयों से, ये वापस अपने व्यापार को खड़ा करेंगे।” फिर बाबजी मूल सिंह की ओर देखते हुए, बोले “मूल सिंहजी। मालिक ने आपको हाथ-पांव दिए हैं। और सरस्वती माता ने दी है, आपको व्यापार करने की बुद्धि। फिर आपको निराश होने की, कहां है ज़रूरत ? इन रुपयों को उठाइये, और अपने धंधे को वापस खड़ा कीजिएगा। आदमी गिर जाता है, तो फिर वापस खड़ा होता है और अपनी अक्ल और अनुभव से आगे बढ़ता है।” फिर क्या ? मूल सिंह ने झट रुपयों का बण्डल उठाकर, अपनी जेब में रख लिया।
उन्होंने बाबजी के साथ क्या किया, और बाबजी सब कुछ जानते हुए विपत्ति के वक़्त वे मूल सिंह के काम आये। इस तरह, दोनों के बीच में क्या अंतर रहा ? इस सदपुरुष की महानता देखकर, मूल सिंह को पछतावा होने लगा और उनके आंखें नम हो गयी। इन नम आँखों से पछतावे की गंगा-यमुना बहने लगी, इन आंसूओं को अंगोछे से पोंछकर बाबजी के चरणों में गिर गए और अवरुद्ध गले से कह बैठे “बाबजी सा। आप महान हैं। इस ख़िलक़त में मेरा जैसा और कोई पापी नहीं, जिसने अपने काले कारनामों से आप जैसे साधु पुरुष को कितने कष्ट दिए..? फिर भी आप सब कुछ जानते हुए, आपने मेरी मदद की। बाबजी सा, आपको ये सारी तकलीफ़ें इस खींवजी के काले कारनामों के कारण मिली है। इस ख़िलक़त में आप जैसे साधु पुरुष, बिरले ही मिलते हैं।” मगर इसके आगे, बाबजी ने उनको आगे बोलने नहीं दिया। बाबजी अपने लबों पर मुस्कान बिखेरकर, बोले “मूल सिंहजी। मुझसे कोई बात गुप्त नहीं हैं, मैं सब जानता हूं। अब आप पधारिये, रात काफ़ी बीत चुकी है...ब्रह्म मोहर्रत होने वाला है।” आख़िर, हुक्म पाकर मूल सिंह का परिवार वहां से चला गया।
उन लोगों के जाने के बाद, बाबजी बोले “नारायण। यह ख़िलक़त, स्वार्थी लोगों से भरा है। अभी चल रहा है, कलियुग। इसमें कहीं भी लोगों में, प्रभु की भक्ति दिखाई देती नहीं। लोगों को बुरे काम करना, और परनिंदा करना ही बहुत अच्छी लगता है।”
इतने में, दीवार घड़ी के टंकोर बजने लगे। बाबजी घड़ी की ओर देखकर, नारायण भक्त से बोले “नारायण। अब ब्रह्म मोहर्रत हो गया है, अब तू माताजी का नाम लेकर दिया-धूप कर। और, मैं जप करने बैठ रहा हूं।” फिर क्या ? बाबजी निज मंदिर में पदमासन लगाकर बैठ गए, और उनके उच्चारित हो रहे मंत्रों से वातावरण पवित्र होने लगा। अम्बे मात की मूरत के आगे दीपक प्रज्वलित करके, नारायण भक्त ने धूप-अगरबत्ती जला दी। फिर आकर वे बरामदे में दीवार का सहारा लेकर, बैठ गए। दरवाज़े के बाहर लगे पेड़ों की पत्तियां हवा के झोंकों से हिलने लगी, और इन पत्तियों को स्पर्श करती हुई सुगन्धित वायु बरामदे में बैठे नारायण भक्त को छूने लगी। इस ठंडी वायु का अहसास पाकर, नारायण भक्त की आंखें भारी होने लगी और थोड़ी देर में ही वे निंद्रा देवी के आग़ोश में चले गए। कुछ वक़्त बीता होगा, वहां एक अलौकिक नज़ारा सामने आया। अचानक, चारों ओर प्रकाश फ़ैल गया...तेज़ प्रकाश नारायण भक्त की पलकों पर गिरा। जिससे नारायण भक्त घबराकर, आंखें खोल बैठे। चेतन होते ही, उनको सामने से आ रहे एक तेज़स्वी साधु महाराज दिखाई दिए। बुगले के पंखों के समान उज्ज़वल धवल वस्त्र पहने जटाधारी साधु महाराज की सफ़ेद दाढ़ी घुटनों तक पहुंची हुई थी, और उनके बदन से निकल रहे प्रकाश से ऐसा लग रहा था कि मानों ख़ुद भास्कर देव का वहां आगमन हुआ हो। उनके बदन से निकल रहे प्रकाश से, नारायण भक्त की आंखें चौंधिया गयी। इस तेज़ को वे सहन नहीं कर सके, और वे चेतना खो बैठे। कुछ वक़्त बीत जाने के बाद, उनके चेहरे पर ठंडे जल की बूंदे गिरी, और वे चेतन हो गए। आंखें खोलकर उन्होंने सामने क्या देखा कि, ‘बाबजी ठन्डे जल से भरा कमंडल लिए खड़े हैं, और वे उन पर जल का छिड़काव करते जा रहे हैं।’ नारायण भक्त आंखें खोलकर, बोले “बाबजी। मुझे दर्शन हुए...” इसके आगे, नारायण भक्त बोल नहीं पाए। तब बाबजी अपने लबों पर, मुस्कान बिखेरते हुए बोले “नारायण। तू तो बड़ा भाग्यशाली निकला रे, तूझे ध्यान हैं ? जिस महान विभूति के दर्शन तूझे हुए, वे मेरे गुरुदेव थे। और उन्होंने यहां आकर मुझे याद दिलाया है, अब मेरा वानप्रस्थ-आश्रम का वक़्त पूरा हो गया है..अब मुझे, सन्यास आश्रम अपनाना है।’ इतना कहने के बाद, वे आगे बोले “अब सुन, नारायण। संन्यास के लिए, मुझे बद्रीकाश्रम जाना ज़रूरी हो गया है। गुरूजी वहां मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं।” यह सुनते ही, नारायण भक्त बोले “बाबजी। गुरूजी थोड़ी देर और रुक जाते तो..” नारायण भक्त की बात काटते हुए, बाबजी बोले “नारायण, उनको मैं कैसे रोक पाता ? वह तो उनका सुक्ष्म रूपथा।” अब नारायण भक्त को समझ में आ गया कि, ‘उस वक़्त, उनको बाबजी के गुरूजी की आत्मा के दर्शन हुए थे। ऐसे महपुरुषों के दर्शन तो, किसी भाग्यशाली इंसानों को ही होते हैं।’
बाबजी ने सोचा, कहीं यह नारायण सोचता-सोचता वापस ऊंघ न ले ले ? वे उनका कंधा झंझोड़कर, आगे बोले “किस सोच में बैठ गया, नारायण ? सोचने के लिए काफ़ी उम्र पड़ी है, तेरी। अब तू सुन, सुबह हरिद्वार जाने वाली रेलगाड़ी में...मैं और तेरे गुरुआइनजी बैठकर हरिद्वार चले जायेंगे। फिर हरिद्वार पहुंचकर, ऋषिकेश के लिए रवाना हो जायेंगे। फिर वहां से हम, बदरिकाश्रम जाने के लिए निकल पड़ेंगे। अब तू उठ, और चला जा तेरे घर। सुबह तू जब यहां नित्य कर्म करने के लिए यहां आयेगा, तब हम-दोनों यहां नज़र नहीं आयेंगे।”
इतना सुनते ही नारायण भक्त बाबजी से होने वाले बिछोह को सहन नहीं कर पाए, बरबस उनकी आँखों से अश्रु-धारा बह चली। रोते हुए उनका गला अवरुद्ध हो गया, वे किसी तरह बाबजी से इतना ही कह पाए कि “बाबजी, आप मुझे छोड़कर मत जाइए। आप यहां नहीं रुक सकते, तो मुझे भी आप बद्रीकाश्रम साथ ले चलें। आपके बिना, मेरा मन यहां कैसे लगेगा ?” बाबजी नारायण भक्त के सर पर हाथ फेरते हुए, आगे बोले “नारायण, अभी-तक तेरा गृहस्थाश्रम का वक़्त पूरा नहीं हुआ। तूझे अभी इस संसार में रहकर, गृहस्थाश्रम की जिम्मेदारी निभानी हैं। मगर मैं तूझे एक मन्त्र देकर जा रहा हूं, तू उस मन्त्र का रोज़ जप करना।” इतना कहकर, बाबजी झट निज मंदिर में जाकर आले में रखी एक हस्तलिखित पुस्तक उठा लाये। उस पुस्तक को नारायण भक्त को सौंपते हुए, वे आगे बोले “इस किताब के अन्दर इस मन्त्र के जप करने की पूरी विधि लिखी है, तू आराम से बैठकर इसे पढ़ लेना। पूरी रात तू जागता रहा, अब तू अपने घर चला जा, और जाकर आराम कर। तेरी घरवाली तेरी प्रतीक्षा कर रही है।” इतना कहकर, बाबजी विश्राम करने वाली कोठरी में चले गए। नारायण भक्त अपनी थैली उठाकर, मंदिर से बाहर आ गए...वहां दीवार के सहारे रखी अपनी साइकल उठायी, और अपने घर की तरफ़ चल दिए। +++
आभा में, सूर्य देव का प्रकाश फ़ैल गया। चारों तरफ़ सन्नाटा था, नारायण भक्त साइकल से उतरे, फिर उन्होंने साइकल स्टेण्ड पर खड़ी की। फिर, मंदिर के सटे हुए दरवाज़े को खोला। दरवाज़ा खुलते ही अन्दर बैठा कबूतरों का झुण्ड फ़रणाटे की आवाज़ करता हुआ एक साथ उड़कर बाहर आया, और आकाश में उड़ गया। आकाश में उड़ते परिंदों का कलरव, इंसानों को प्रेम और शान्ति का सन्देश देने लगा। मंदिर में दाख़िल होने के बाद, नारायण भक्त को कहीं बाबजी और गुरुआइनजी नज़र नहीं आये। बाबजी के बिना यह मंदिर, सूना-सूना लगने लगा। बाबजी के साथ बीते उन पलों की यादें, अब बार-बार उभरकर उनकी आँखों के आगे छाने लगी। आख़िर, बेमन से अपने नित्य-कर्म पूरे करके नारायण भक्त अपने घर चले गए।
न तो अब मंदिर में बाबजी, और न दिखाई देते चमत्कार..बस ख़ाली वहां माताजी की मूर्ति भक्तों को दिखाई देती थी...जिसमें बाबजी की आत्मा बसती थी, अब वह आत्मा कहाँ ? मां ख़ुद अपने भक्तों के वश में है, जब उनके सच्चे भक्त यहां है नहीं। जब यहां वे थे तब इन संसारी लोगों ने उनकी कद्र की नहीं, और अपने स्वार्थ की पूर्ति करते उनको बहत दुःख पहुंचाए। तब अब, अम्बे मां यहां कैसे विराजमान होगी ? फिर क्या ? भक्तों की संख्या कम होती गयी, भक्त इस मंदिर में दर्शानार्थ आते तो, उनके दिए चंदे से मंदिर में कई सुविधाएं उपलब्ध होती ? अब भक्तों ने आना बंद कर दिया, तो फिर मंदिर में चन्दा कहाँ से आता ? बिना रुपये-पैसे अब यह भोजनशाला, धर्मशाला कैसे चलती ? अब तो भोजनशाला, धर्मशाला आदि के दरवाज़े बंद ही रहे, अब उनके खुलने का कोई आसार नहीं रहा। अब कुछ फ़ायदा न होते देख, खींवजी, पप्पू लाल और माणक मल का इस मंदिर में आना स्वत: बंद हो गया। भूले-चूके अब कोई आदमी इस मंदिर में आ जाता तो, उसे चारों तरफ़ शान्ति का अहसास होने लगा। शान्ति होने के कारण, यहां स्थान-स्थान पर, कबूतरों ने घोंसले डाल दिए। बस अब यहां कबूतरों की घुटर-गूं घुटर-गूं की आवाज़ और ठंडी हवा के झोंकों के बहने की सर-सर आवाज़ के सिवाय, कुछ सुनायी नहीं देता। अब माहौल बदल जाने से, नारायण भक्त के मित्र गण वापस नित्य कर्म करने मंदिर में आने लगे।
इस तरह, वक़्त बीतता गया। एक दिन ऐसा भी आया, जब नारायण भक्त सरकारी नौकरी से सेवानिवृत हो गए। इस तरह नारायण भक्त को, ईश्वर के ध्यान-पूजा के लिए काफ़ी वक़्त मिल गया। अब उनको इस दुनिया के मोह-मायासे, क्या लेना-देना ? उन्होंने संसारिक वस्त्रों का त्याग करके, सफ़ेदवस्त्र पहन लिए। इधर उम्र के साथ-साथ इनके मित्र शान्ति लाल, अमर चंद और बोहरा किसन लाल के दिल में बैराग उठ गया। वे संसारिक बंधन छोड़कर, इसी मंदिर में ही रहने लगे। प्रति दिन गुरु महाराज के दिए गए मन्त्र का जाप करते, नारायण भक्त को योगिक सिद्धियों का अहसास होने लगा। अब उनको भूत, भविष्य, और वर्तमान की जानकारी अपने-आप होने लगी। सफ़ेद दाढ़ी, सफ़ेद जटाएं और बदन पर धवल उज्ज़वल वस्त्र पहने नारायण भक्त अब, “नारायण स्वामी” के नाम से पुकारे जाने लगे। अब नारायण भक्त ने, भौम दासजी की गद्दी संभाल ली। इनके तीनों मित्र भी, घोर तपस्या में लीन हो गए। अब इन चारों को एक बात समझ में आ गयी, कि “मंदिर में भक्तों के अधिक जमाव हो जाने से ईश्वर की सेवा में केवल बाधा ही पड़ती है, इसलिए न तो लोगों के बीच प्रसिद्धि प्राप्त करनी और न इच्छा रखनी कि संसारिक लोग यहां आकर उनके चमत्कार की प्रशंसा करे। क्योंकि, ये संसारिक लोग अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रख सकते। ये लोग तो, बड़े-बड़े साधु-संतों के चोले बदल देते हैं। ऐसे संसारिक लोगों से, दूर ही रहना अच्छा है।”
भगवान के घर देर है, मगर अंधेर नहीं। यह बात शास्त्रों में लिखी हुई है कि, ग़लत काम करने का बुरा परिणाम होता है। इधर खींवजी और उनके दोस्तों ने अपनी बुरी आदतें छोड़ी नहीं, इसके साथ वे बुरे काम करते-करते वे समाज में काफ़ी बदनाम हो गए। पर-स्त्री रमण करते रहने से, इन सबको एड की बीमारी लग गयी। यह एक ऐसी बीमारी है, जिसके मिटने की कोई गारंटी नहीं। इनके कमज़ोर बदन में इतनी प्रतिरोध शक्ति रही नहीं, जिससे वे दूसरी बीमारियों से अपने-आपको बचा सके। इस तरह ये तीनों साथी, कई तरह की बीमारियों के शिकार हो गए। जब-तक पैसे और धन की ताकत इंसान में होती है, उस वक़्त वह अपने शत्रुओं को दबा सकता है...मगर जब पैसा और धन ज़वाब दे जाता है, तब इंसान शत्रुओं से घिर जाता है। इन तीनों को कमज़ोर पाकर, कई अख़बारों में इनके किये कारनामों के लेख क्रमशः छपने लगे। इस तरह ये तीनों, समाज में पूरी तरह से बदनाम हो गए। इधर, इनके धंधा-पानी सब ठप्प। धंधा करे भी, कैसे ? बदन की सारी ताकत, इस बीमारी ने ख़त्म कर डाली। धंधा-पानी बंद हो जाने से, घर पर पैसे की आमद बंद हो गयी। और चिकित्सको के बिल का ख़र्चा, बढ़ता गया। इधर सरकार के पास इनकी शिकायतें पहुँचने लगी कि, इन तीनों ने मंदिर के पास बसी कोलोनी के नाजायज़ प्लाट काटे थे। यह सारी ज़मीन मंदिर की होने के कारण, इसका मालिकाना हक़ देवस्थान महकमें के पास था..फिर इनका प्लोट काटकर बेचना, ग़ैर-कानूनी साबित हुआ। इस तरह इनको, ज़मीन बेचने का कोई हक़ नहीं था। सरकार ने इनके बेचाननामे को ग़ैर कानूरी क़रार करके, इस पूरी ज़ायदाद को सरकारी क़रार कर दी। फिर क्या ? जांच कमेटी बैठी, और उस कमेटी ने अपना निर्णय सरकार के समक्ष रखकर आगे की कार्यवाही करने की मांग कर डाली। इस निर्णय के अनुसार सभी ट्रस्टी दोषी क़रार हुए, काग़ज़ात में सभी जगह इन तीनों के हस्ताक्षर मिले। फिर क्या ? सरकार कोई पैसा छोड़ने वाली नहीं, इन तीनों की ज़ायदाद कुर्क करके सारी वसूली कर ली गयी। इस तरह उस की गयी वसूली से प्लाट ख़रीदने वालों को मुआवज़ा देकर, वह कोलोनी सरकार ने ख़ाली करवा डाली। फिर इस पूरी कोलोनी को, फौज़ी प्रशिक्षण हेतु केंद्र सरकार को लीज़ पर दे दी।
अब क्या ? फौज़ी ट्रेनिंग चलने से, वह पूरा क्षेत्र सैनिक क्षेत्र घोषित कर दिया गया। अब आम आदमी का, मंदिर की तरफ़ रुख़ करना दूभर हो गया। इस तरह नारायण भक्त और इनके मित्र बिना किसी व्यवधान, ईश्वर की भक्ति करने लगे।
अब खींवजी और उनके मित्रों के पास न तो रहा पैसा, और न रहा मान। ऊपर से बीमारियों का इलाज़ कराते-कराते दवाइयों और चिकित्सकों के बिल बढ़ते गए, आख़िर इनके पत्नि और बच्चों ने अपने हाथ खींच लिए, और इन तीनों को घर से बेदख़ल करके उन्होंने घर पर कब्ज़ा कर लिया। ऐसे भी इनके घर के सदस्यों को इनसे प्रेम होने का कोई सवाल नहीं, क्योंकि “जो आदमी अपनी धर्म पत्नि केहोते परस्त्री रमण करता है, ऐसे आदमियों की सेवा कोई नहीं करता। क्योंकि, यह यह दुनिया ख़ाली स्वार्थ की है।” अब घर से निकाले जाने के बाद, ये तीनों शहर की गली-गली में भीख माँगते नज़र आने लगे। उधर उस कमलकी के भी बुरे दिन आ गए, उसका एक प्रेमी ऐसा जबरा निकला कि, ‘उसने उसका सारा धन-माल लुट लिया, और जाते वक़्त उसका गला दबाकर उसे मार डाला। फिर मकान के दरवाज़े पर ताला लगाकर, वहां से नौ दो ग्यारह हो गया।’ कई दिनों बाद, उसकी लाश की बदबू, मुहल्ले में फ़ैल गयी। तब मोहल्ले वालों की शिकायत पर, पुलिस वहां आयी। मकान के दरवाज़े का ताला तोड़कर, पुलिस-दल अन्दर दाख़िल हुआ। फिर क्या ? उन लोगों ने उस कमलकी की सड़ी-गली लाश बाहर निकाली, फिर उस लाश को पोस्ट-मार्टम के लिए भेज दी।
जब बाबजी के भक्तों ने अख़बारों में खींवजी और उनके मित्रों की दास्तान पढ़ी, तब बरबस उनके मुख से यह वाक्य निकल गया “आख़िर, पाप का घड़ा भर गया।”
लेखक की बात -: यह पूरी कहानी पढ़कर यही सीख मिलती है, बुरे काम नहीं करने चाहिए। भगवान के घर देर है, मगर अंधेर नहीं। बुरे काम करके इंसान ख़ुश हो जाता है, मगर जब उसका पाप का घड़ा भर जाता है तब अपने-आप उसके बुरे दिन आ जाते हैं और उसे किये गए पापों का हिसाब देना पड़ता है। मुझे आशा है, यह कथा आपको ज़रूर पसंद आयेगी ? आप समीक्षाकार की तरह इसकी समीक्षा करेंगे, और मुझे अपने विचारों से अवगत करेंगे। मेरा ई मेल है -dineshchandrapurohit2@gmail.comऔरdineshchandrapurohit2018@gmail.com
दिनेश चन्द्र पुरोहित [लेखक एवं अनुवादक]
“राजवीणा मारवाड़ी साहित्य सदन” अंधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, वीर-मोहल्ला, जोधपुर [राजस्थान].
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