कविताएँ- औरत में तब्दील होने से पहले - देवेन्द्र कुमार पाठक

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कविता-- औरत में तब्दील होने से पहले देवेन्द्र कुमार पाठक असुरक्षा सर उठाती है सुरक्षित समझी गई दीवारों के बीच सबसे पहले कहीं बाहर ...


कविता--

औरत में तब्दील होने से पहले

देवेन्द्र कुमार पाठक


असुरक्षा सर उठाती है
सुरक्षित समझी गई
दीवारों के बीच सबसे पहले
कहीं बाहर नहीं घर में.....
जब मां की चप्पलें
लड़की के पांव में
आने लगती हैं
जब वह महावर से रचती है
मां की तरह समूची एँड़ियां
बावजूद मां की उस हिदायत के
'नहीं रचतीं महावर से
पांवों की पूरी एँड़ियां
कुंवारी लड़कियां......'
लड़की की हरकतों को लेकर
क्या-कुछ है जाने कितना
जो किसी की समझ में नहीं अँटता
घर भर को है खटकता
जाने क्या गुनगुनाती-गाती है
देख-देख आईना लजाती है
खुद से कभी कुछ बतियाती
कहीं खो सी जाती पढ़ते हुये कोई किताब......
कभी खिलखिलाती बेवज़ह
जब-तब द्वार-देहरी तक जाकर
बाहर झांकती........
. घर भर की फ़िक्र बनती
माँ-पिता की नीदें उड़ाती
घर की हवा में उड़ती कानाफूसियाँ
शक-शुबहा की लिजलिजी छिपकलियाँ
दीवारों पर सरकती
भाई की बाहें
जैसे चाबुक फटकारतीं
पिता की सशंकित निगाहें
अबोले ही सवालों के तमाचे मारतीं
मां की शक्ल पर ग्लानि की स्याही...........
लड़की का खुलता कद
निखरता रंग चमक चेहरे पर
किताबें चुप्पियाँ उदासी खिलखिलाहटें
सपनीली आँखें आइना खुमारी गुनगुनाहटें
सब के सब करते मुखबिरी
एक अदना सी लड़की के खिलाफ
एक ब एक साफ समझ आने लगा
घर की सोच-समझ में सच
ऊग आये हैं इस कुलक्षिन के पर
औरत में हो जाती है तब्दील किसी दिन लड़की
अविश्वाश का शिकार होती लड़की
सबसे पहले अपनों के विश्वास के घर में
बोझ बनती चुभती गड़ती खटकती
अपनों की ही नज़र में
अब क्यों कोई गुस्सा मलाल
जब घर से बाहर
पड़ोस गली सड़क बाजार में अक्सर
कोई कह देता है उसे माल
चाहता करना कोई न कोई हलाल.......
तब इस असुरक्षा,अविश्वाश शक सख्ती से
पाने को निजात
लड़की दिखा देती है
किसी दिन अपनी औकात
देहरी लांघकर
करती है वह दुस्साहस
छोड़कर तुम्हारा गांव कस्बा शहर
वह एक दिन आती है नज़र
किसी दूकान दफ्तर के स्वागत -द्वार पर
सड़कों गलियों घरों के द्वार पर
बेचती प्रोडक्ट किसी कंपनी का
या किसी का विज्ञापन करती पोस्टर पर
किसी रैली सभा धरना प्रदर्शन या मंच पर
अपने बदले हुए नए तौर-तेवर लेकर......
लगाती नारे मुट्ठियाँ भींचकर
करती पुतला दहन
आती नज़र अखबारी सुर्ख़ियों में
वह एक लड़की निकलकर
तुम्हारी बनायीं दुनिया
और बसाये घर के कायदों-रवायतों को तोड़कर
माफिक हवाओं के खिलाफ
बढ़ती चढ़ती है वह स्वयंसिद्धा
अपने अनुकूल रुख रास्तों के मोड़कर
सिरजती है अपने और
अपने जैसी लड़कियों के लिए
अपनी नई अबाध मुक्त दुनिया
घर अपना बेदीवारो-दहलीज
बिछाकर समूची पृथ्वी
ओढ़कर सारा आसमान
यहाँ इस घर में बाख रखी है जगह
अब भी उस लड़की ने तुम्हारे लिये
ओ पिता, भाई मेरे
वह अब भी रहेगी पहले की तरह
जैसे रहना-जीना चाहती है हर लड़की
अपने विश्वास के घर में
औरत में तब्दील होने से पहले.......


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गीत

गणतन्त्र दिवस

देवेन्द्र कुमार पाठक


गणतंत्र दिवस,गणतंत्र दिवस
मत दर्द छुपाकर यूँ न विहँस!

मेहनतकश अब भी फंसे हुये
जबरों के जुल्मों-जबड़ों में,
अगुये-शासक मशगूल हुये
अपने विद्वेषों-झगड़ों में;

है लोकतंत्र कितना बेबस!


अब जाति-धर्म,मजहब-जमात के
के उन्मादी शीर्षस्थ हुये,
संकल्प-ध्येय के पांव चले
कुछ दूर, थके और पस्त हुये;

आदर्श हो रहे तहस-नहस!


उपदेश-सबक,दावे-दलील,
भाषण पर भाषण झाड़ रहे;
फल-फूल रही इस बगिया को
माली ही स्वयं उजाड़ रहे;

बढ़ रही त्रासदी बरस-बरस!


अब राष्ट्रधर्म के अस्त्र हुये,
उत्पीड़न-हिसा,द्वेष-दमन;
हो गई असहमति देशद्रोह
अब अंधभक्ति ही नेक चलन;


ढह रहे पुरातन कीर्ति-कलश!


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गीत

चिलम की तोप

देवेन्द्र कुमार पाठक


रात रहते पहर भर महुहार जागे,
बीनेंगे वे महुआ-फूल बिलानागे.

तयशुदा हक़भाग इसमें भी हैं उनके,
पीढ़ियों से नामजद महुहार जिनके;

और पहले ही लिये-खाये उधारी को चुकाने
भाव मनमाने मुआ बनिया है मांगे!

शेष कटकर जो लगेगा हाथ जितना,
भूख की लंबी सड़क नापेगा कितना;

जब की तब सोचेंगे-सुलझेंगे अभी तो
वह तंबाख़ू भर चिलम की तोप दागे.

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गीत (कविता)

सावनी धूप


यूँ बारिश के बाद
सावनी धूप खिले-फूले
ज्यों पीले कनेर-फूलों से
लड़ी कोई टहनी झूले

थका-थका सा सूरज
आ बैठा पर्वत के काँधे पर
चढ़ी जवानी ज्वार खड़ी है
मौरी सी बाँधे सर
कीचसने पांवों पर गतिमय
गीतों के झूले



रक्तिम डोरे गहरा गये
क्षितिज की आँखों में
प्राण पखेरू आ दुबके
खपरैली शाखों में

जले क्षोभ के चूल्हे
मंडराएं निश्वांस बगूले


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कविता-

हम कहाँ जायें?



देवेन्द्र कुमार पाठक

हम कहाँ जायें
जहाँ हम रह सकें वैसे
रहना चाहते जैसे

बोझ लादे पीढ़ियों का
हम जो हाँके जा रहे हैं
भागते इस प्रगति रथ की
धूल फाँके जा रहे हैं
हम कहाँ जायें
जहाँ हम बढ़ सकें वैसे
बढ़ना चाहते जैसे

कायदे पद दबदबे
छल छाँव के नीचे रहे
बीच दुपहर पेड़ के ही
पाँव के नीचे रहे
हम कहाँ जायें
जहाँ हम चढ़ सकें वैसे
चढ़ना चाहते जैसे

बह रही कैसी हवा
जो खेत पीले पड़ रहे
जंगलों से बारिशों के
अनुबंध ढीले पड़ गये
हम कहाँ जायें
जहाँ सुख गढ़ सकें वैसे
गढ़ना चाहते जैसे

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
गीत-

स्याहीभरी दवात : बरसाती रात




देवेन्द्र कुमार पाठक

आकाशी आले से
धरती के पन्ने पर
उलट गई मानो

स्याही भरी दवात : बरसाती रात

टिपिर-टिपिर मेह झड़ी
घर की खपरैल -पीठ पर

ताबड़तोड़ पड़ी
बिजुरी बेहया बड़ी
चमक-चौंध दाँत फाड़
हँसती है तिड़ी-बिड़ी

हड़-हड़ हड़काती
दीये को हवा हठी
निंदियाती आँखों के
दरवाजे पर मानो
करती उत्पात : बरसाती रात

दिन भर के थके-पके
कथरी में अटे-सटे
साझे की बीड़ी सुटकारते
करवट में दबे-रखे
सपने कुछ कटे-छंटे
मन को पुचकारते

भीतर की दाह-दहन
बनने को बड़वानल
मार रही हौंस-हुलक
हुये बरस-बरसों
अंतस में धुंधुआत : बरसाती रात

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गीत

भक्तिभाव से सुनें मरभुखे


देवेन्द्र कुमार पाठक

चूल्हा देशी आग विदेशी
तेल-कढ़ाही भी उधार की
भिखमंगी के मिर्च-मसालों से

वे अपनी दाल बघारें
भक्तिभाव से सुनें मरभुखे
नामवरों की मस्त डकारें

एक गिलहरी की भी प्यास
बुझाने में जो अक्षम
खुद को संवेदन सागर
मनवाने वे लहराते परचम
विभ्रम कालजयी रचने का
सम्मानित होने पुजने का
चढ़े चौधराहट-चौरे पर
भांजें लफ्फाजी तलवारें

इनकी ऊब-थकन पर ही इति
प्रगति इन्हीं की सम्मति पर
हर सौंदर्यबोध के स्वामी
सद् गति इनकी सहमति पर
सिद्ध-सन्त की आँख फोड़कर
उनकी उतरन पहन-ओढ़कर
शिखर-सुशोभित हो ऊँचे स्वर
फतवे पर फतवे उच्चारें


हर सम्वाद विवादग्रस्त पर
निर्विवाद निष्कर्ष निकालें
अपनी जात-जमात चीह्नकर
ध्वजवाहक का नाम उछालें
क्या तीखा क्या मीठा-फीका
सब पर इनकी टीपें-टीका
पद-कद के मदमातों को ये
दें लंगोट मैदान उतारें


दृष्टि सदा चिकनी-चुपड़ी पर
खरी कहन पर झाड़ू मारें
काई-कीच काँस-कुश चकवँड़
काँटों को आमूल उखाड़ें
वर्णसंकरी बीज-खाद से
इनके बंजर भी हरियाये
मंतर पढ़ते टोटके करते
राई-नून ले नज़र उतारें

==============================
आत्मपरिचय-देवेन्द्र कुमार पाठक

म.प्र. के कटनी जिले के गांव भुड़सा में 27 अगस्त 1956 को एक किसान परिवार में जन्म.शिक्षा-M.A.B.T.C. हिंदी शिक्षक पद से 2017 में सेवानिवृत्त. नाट्य लेखन को छोड़ कमोबेश सभी विधाओं में लिखा ......'महरूम' तखल्लुस से गज़लें भी कहते हैं....................
. 2 उपन्यास, ( विधर्मी,अदना सा आदमी ) 4 कहानी संग्रह,( मुहिम, मरी खाल : आखिरी ताल,धरम धरे को दण्ड,चनसुरिया का सुख ) 1-1 व्यंग्य,ग़ज़ल और गीत-नवगीत संग्रह,( दिल का मामला है, दुनिया नहीं अँधेरी होगी, ओढ़ने को आस्मां है ) एक संग्रह 'केंद्र में नवगीत' का संपादन. ...... ' वागर्थ', 'नया ज्ञानोदय', 'अक्षरपर्व', ' 'अन्यथा', ,'वीणा', 'कथन', 'नवनीत', 'अवकाश' ', 'शिखर वार्ता', 'हंस', 'भास्कर' आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित.आकाशवाणी,दूरदर्शन से प्रसारित. 'दुष्यंतकुमार पुरस्कार','पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार' आदि कई पुरस्कारों से सम्मानित....... कमोबेश समूचा लेखन गांव-कस्बे के मजूर-किसानों के जीवन की विसंगतियों,संघर्षों और सामाजिक,आर्थिक समस्याओं पर केंद्रित......
सम्पर्क-1315,साईंपुरम् कॉलोनी,रोशननगर,साइंस कॉलेज डाकघर,कटनी,कटनी,483501,म.प्र. ईमेल-devendrakpathak.dp@gmail.com

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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रचनाकार: कविताएँ- औरत में तब्दील होने से पहले - देवेन्द्र कुमार पाठक
कविताएँ- औरत में तब्दील होने से पहले - देवेन्द्र कुमार पाठक
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