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Dashavtar - Vishnu Ke Dashavtaron Par Vigyan-Sammat Aatmkathatmak upanyaas by Pramod Bhargava
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ख्यात कथाकार और विविध गद्य विधाओं के लेखक प्रमोद भार्गव की नई औपन्यासिक कृति 'दशावतार' पाठकों को हिंदु पौराणिक कथाओं में वर्णित अवतारों के स्वरूपों की जीव वैज्ञानिक व्याख्या देकर अवतारों की वैज्ञानिकता सिद्ध करती है। अवतारवाद और विकासवाद में क्या संबंध है, इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास इस उपन्यास में किया गया है। ऐसा स्पष्ट होता है कि इस प्रयास में लेखक ने जीव विज्ञान का गहन अध्ययन किया है।
'दशावतार' में मत्स्यावतर से लेकर कल्कि अवतार तक सभी को भगवान विष्णु का अवतार कहा गया है। आर्यों और हिंदुओं के प्रधान देवता विष्णु का ऋग्वेद और दूसरे वेदों में गौण स्थान है। ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों में इनका महत्व बढ़ा और विष्णु के दस अवतार कहे गए, जिनमें राम और कृष्ण की उपासना होती है। पहला है मत्स्यावतार अर्थात मछली के रूप में ईश्वरावतार। अवतार का अर्थ है उतरना, उतरकर धरती पर आना। यह उतरना सीढ़ियों से उतरने जैसा नहीं है। यह किसी श्रेष्ठ महिला के गर्भ में आना है। यहां प्रश्न उठता है कि मत्स्यावतार किसके गर्भ से हुआ ? इस प्रश्न का उत्तर लेखक ने जैविक विकास में खोजा है। महा विस्फोट (बिग बैंग) के बाद मायातीत काल तक पानी भरा रहा। उस पानी में काफी समय के बाद जीवाणु विकसित हुए। चाल्र्स डार्विन और जैविक विकासवाद वैज्ञानिकों के साक्ष्य देकर लेखक ने विस्तार के साथ जैविक विकास का विमेचन किया है। इसके साथ ही विष्णु भगवान के दशावतारों में मत्स्यावतार का उल्लेख कर लेखक पाश्चात्य जीव वैज्ञानिकों की खोज को कोई नहीं बात नहीं मानता। हिंदू या भारतीय चिंतकों ने पाश्चात्य जीव वैज्ञानिकों के शोध के बहुत पहले सृष्टि के विकास के बारे में वैसा ही चिंतन किया था, किंतु भारतीय चिंतन की उपेक्षा की गई।
ब्रह्माण्ड के विवेचन में लेखक मछली को थोड़ी देर के लिए अपनी कलम से ओझल कर देता है। उसके पश्चात मछली अपना परिचय देने लगती है। वह एक कथा सुनाती है, जिसके द्वारा भौतिक-अभौतिक शरीरों की रहस्यमयी लैकिक एवं पारलौकिक यात्राओं की बात लेखक महर्षि वशिष्ठ की साक्षी से कहता है। बुद्ध का चिंतन, शतपथ ब्राह्मण की कथा, श्रीमद् भागवत पुराण की कथा, नरसिंह पुराण, महाभारत आदि के उल्लेख द्वारा भगवान विष्णु के अवतारों की बात कहते हुए प्रथम मत्सयवतार का परिचय दिया है। मत्स्यावतार के प्रसंग में जीव-विज्ञानियों, ऋषियों, विविध कथाओं और विचारों का सारांश लेखक के शब्दों में इस प्रकार है, 'विष्णु की मत्स्यावतार की ये मिथकीय कथाएं यू ही नहीं हैं, प्रयोजन सिद्ध हैं और प्रयोजन सिद्धि के लिए हैं। ये नैतिक मूल्यों की स्थापना हेतु धर्म-संहिता के लोक-अनुशासन के लिए सृजित की गई हैं।' प्रलय कथा में संकेत है कि मनु की रक्षा और धर्म-संस्थापन की दृष्टि से मत्स्यावतार हुआ था। इसके साथ ही लोक-जीवन के कल्याण से जुड़ा पहला यह संदेश भी प्रसारित हुआ कि धर्म और नैतिकता के सुरक्षित रहने से ही जीव-जगत की व्यापक रक्षा संभव है। सृष्टि विकास के पहले चरण में इस अवतार कथा का महत्व इसलिए भी है कि यदि शुरूआती मनुष्य जाति को उचित मार्ग दर्शन नहीं मिलता तो वह अधर्म, अज्ञानता और अनैतिकता के निविड़ अंधकार में भटककर समाप्त हो सकती थी।
उपन्यास का दूसरा अध्याय है, कूर्मावतार। कूर्म के रूप में भगवान विष्णु ने अवतार लिया था। इस अध्याय के प्रारंभ में ही लेखक आत्मकथात्मक श्ौली को बाधित कर देता है। आरंभ के दो वाक्य आत्म कथात्मक हैं। तीसरा वाक्य है 'इतनी धीमी कि आदमी को धीमी चाल या कार्यप्रणाली को 'कछुआ चाल' की उपमा देकर उस बेचारे का उपहास तक उड़ाया करते हैं।' इस वाक्य में उस के स्थान पर मुझ होना चाहिए था। यह असावधानी है। समुद्र मंथन की कथा में कूर्मावतार का विशेष स्थान है। यह भी कहा जा सकता है कि कूर्म का आधारभूत स्थान है। समुद्र मंथन की तर्कपूर्ण बौद्धिक व्याख्या का प्रयास सराहनीय है। इसी प्रकार शंख, चक्र, पद्म आदि की भी बौद्धिक व्याख्या की गई है।
समुद्र-मंथन के पूर्व लेखक ने भौतिक विज्ञान का विवेचन कर ब्रह्माण्ड के परिवर्तनशील स्वरूप की चर्चा की हैं, जिसमें यह माना गया है कि शून्य में ऐसी कोई शक्ति है, जो सर्वव्यापी, अदृश्य, अमूर्त और सृष्टा है। समुद्र-मंथन में निकलने वाले कालकूट या भयंकर विष को शिव पी लेते हैं और मंथन में संलग्न देव-दानवों की प्राण रक्षा करते हैं। शिव के विभिन्न रूपों की विवेचना भी की गई है, जिनमें अर्धनारीश्वर और त्रिनेत्रधारी स्वरूपों की व्याख्या उल्लेखनीय है। तमाम पौराणिक कथाओं और जीव वैज्ञानिक तथा भौतिक वैज्ञानिक अन्वेषणों का जिक्र करने में लेखक यह नहीं भूला है कि उपन्यास एक कथाकृति हुआ करता है। यह ध्यान रखते हुए लेखक ने बीच-बीच में कथाएं भी दी हैं।
मत्यावतार हो या कूर्मावतार लेखक ने दोनों में जीववैज्ञानिक विकासवाद, भारतीय पुराण कथा और धर्म-शास्त्रों में जो अवतारवाद हैं, उनकी जीव वैज्ञानिक विकासवाद के तत्वों से समानता का विवेचन किया है। ऐसी विवेचनात्मक व्याख्या मत्यस्यात्वार में अधिक है। उपन्यास के तीसरे अध्याय में विष्णु के तीसरे अवतार 'वराहवतार' की कथा है। आत्मकथा सुनाते हुए वराह कहता है, 'लो मैं सूकर भी मोह-माया के उपदेश देने लग गया। जबकि अभी पृथ्वी की उत्पत्ति ही नहीं हुई।' यदि पृथ्वी की उत्पत्ति नहीं हुई थी तो जल प्लावन का आधार क्या था ? पानी क्या शून्य में भरा था ? पृथ्वी की उत्पत्ति नहीं उसकी जलमुक्ति ? अर्थात प्रकट हुई थी पृथ्वी। हिंदुओं के पुराण साहित्य के अनुसार भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर पृथ्वी को जल से बाहर निकाला। सूअर अपने थूथन से जल में डूबी किसी भी वस्तु को बाहर निकाल लेता है, तो पृथ्वी का कुछ भाग ऊपर आ जाता है।
पृथ्वी पर निवास करने वालों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए विष्णु की नाभि से एक कमल पैदा हुआ और उस कमल पर ब्रह्मा विराजे हुए निकले। ब्रह्मा चतुर्भुज हैं। उनकी चार भुजाएं चार दिशाओं की प्रतीक हैं। उनके चार मुख भी हैं। ब्रह्मा की बहुमुखता या कई सिर होने की पौराणिकता को लेखक ने अपने जीव वैज्ञानिक अध्ययन और समाचार चैनल में प्रसारित बहुसिर वाले कोबरा सर्प से सिद्ध किया है। भगवान विष्णु जिस श्ोषनाग की श्ौया पर सोते हैं, वह हजार फनों वाला है। सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा ने नर और नारी की रचना की। नर का नाम स्वयंभू मनु और नारी का नाम शतरूपा रखा गया। इन दोनों के समागम से पृथ्वी पर रहने वाले मानव उत्पन्न हुए और मानव सृष्टि का विकास हुआ। मानव समाज के विकास की एक बहुत लंबी सूची मनु के वंशवृक्ष के नाम से उपन्यास में दी गई है। सूची में 136 पीढ़ियां दी गई हैं। ब्रह्मा की पुत्री थी सरस्वती, उसके रूप पर ब्रह्मा रीझे थे। इस कथा को लेखक ने विष्णु का छल प्रवंचन माना है। अन्यत्र यह भी कहा गया है कि शिव इस कृत्य का दण्ड देने के लिए चारपाई का मचेवा (एक पैर) लेकर ब्रह्मा की और दौड़े थे। तब ब्रह्मा ने सरस्वती को अपनी पकड़ से मुक्त कर दिया था। लेखक ने ब्रह्मा-सरस्वती प्रसंग को भ्रष्ठ पाठ कहा है।
उपन्यास के गर्भरहस्य शीषर्क के अंतर्गत चिकित्सा विज्ञान के आधार पर मैथुनी सृष्टि का विकास-क्रम दिया है। पराग्रही या एलियंस का उल्लेख लेखक ने विख्यात वैज्ञानिकों के शोधों के साक्ष्य देकर प्रस्तुत किया है। रसातली पृथ्वी का यथार्थ रूप देकर लेखक ने वराह अवतार नामक अध्याय को समाप्त किया है। वराह अवतार के बाद नरसिंह अवतार हुआ। पुरुष सिंह को भी नरसिंह कहा जाता है, मादा सिंह को सिंहनी या श्ोरनी। अवतार के प्रारंभ में नरसिंह का अर्थ है। आधा नर और आधा सिंह अर्थात मनुष्य और सिंह का जोड़।
नरसिंह अवतार के मिथक के वर्णन के पूर्व कृत्रिम मानव (एंड्राइड) और मशीनी मानव (साईबॉर्ग) की चर्चा कर लेखक ने आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति का परिचय दिया है। लेखक का शोध निष्कर्ष है कि अटल, सुतल, वितल, महातल, श्रीतल और पाताल देशों व क्षेत्रों के नाम हैं। नरसिंह के मुख से रचनाकार ने कहलाया है कि अदिति के पुत्र ने बलि के नेतृत्व में देवों से लड़ने वाले दैत्य व दानवों को बड़ी चतुराई से भारत से बाहर निकाल दिया और भारत के बाहर ऐसे कई पश्चिमी देश हैं, उनमें यही निष्कासित दैत्य-दानवों की संतानें रहती हैं।
चाल्र्स डार्विन के विकासवाद से हटकर नरसिंह अवतार की अवधारणा को उपन्यास में अधिक तार्किक माना गया है। जानवर से मनुष्य विकसित हुआ, यह नरसिंह अवतार की अवधारणा डार्विन के विकासवाद की विरोधी नहीं है। जैसे नरसिंह जानवर है, वैसे ही बंदर भी जानवर है। लेकिन यह निश्चय से नहीं कहा जा सकता है कि मनुष्य सिंह से विकसित हुआ या बंदर से ? अब तक के समस्त जीव वैज्ञानिक अनुसंधानों का उल्लेख कर लेखक कहता है कि पुराण कथाओं में कही गई पृथु और कौरवों की जन्म कथाएं नए जीव वैज्ञानिक शोधों से सत्य सिद्ध होंगी।
मानवेतर जीवों के रूप में अवतरित होने के बाद भगवान विष्णु मनुष्य के रूप में अवतार लेने के लिए युगीन परिस्थितियों को देख कर प्रेरित हुए। पांचवां अवतार हुआ 'वामन' अर्थात लघु आकारीय मनुष्य के रूप में। विरोचन का पुत्र दैत्यराज बलि अत्यंत बलशाली हो गया था और देवों तथा ब्राह्मणों को परेशान करता था। पौराणिक कथा के अनुसार बलि एक यज्ञ का आयोजन कर रहा था। लघु वामन यज्ञ स्थल की ओर चले तो असुर, गुरू शुक्राचार्य ने बलि को सावधान किया कि वामन की मांग पूरी नहीं करें। किन्तु असुरराज बलि ने शुक्राचार्य की सलाह नहीं मानी और उसने वामन का स्वागत किया। बलि ने वामन से जानना चाहा कि दान में उन्हें क्या चाहिए। तब वामन ने यज्ञशाला बनवाने के लिए तीन पग भूमि की मांग की। बलि ने वामन की बात स्वीकार कर ली, तो वामन ने विराट आकार धारण कर पहले पग में पूरी पृथ्वी नाप ली, दूसरे पग में अन्य सभी लोक नाप डाले, तीसरे पग के लिए कोई स्थान नहीं था तो बलि के सिर पर पैर रखा और उसे पाताल लोक में भेज दिया। इस पौराणिक कथा में अन्याय, अनाचार, अत्याचार आदि से पीड़ित प्रजा को अन्यायी शासन से मुक्त करने का संदेश है।
पौराणिक कथा के बाद लेखक ने लकड़हारे की कहानी देकर भी शासक के अन्यायी होने की बात कही है। फिर जैविक विकास-क्रम का विवेचन किया है और यह सिद्ध किया है कि पाश्चात्य विकासवादियों की तुलना में भारतीय ऋषि-मुनि वैज्ञानिक विकास को अच्छी तरह और उनसे बहुत पहले के युग से जानते थे और कथाओं के माध्यम से वैज्ञानिकता को समझाते थे।
वामन अर्थात लघु मानव के पश्चात पूर्ण पुरुष परशुराम का अवतार हुआ। महर्षि भृगु वैदिक ऋषि थे और उन्होंने अनेक वेद-मंत्रों की रचना की थी। भृगु ऋषि की कृपा से जमदग्नि का जन्म सत्यवती की कोख से हुआ। जनदग्नि कुशाग्र बुद्धि के थे। इसलिए थोड़े समय में ही वे वेदों के परम ज्ञाता हो गए। उनकी विलक्षण प्रतिभा से वे सभी प्रभावित होते थे, जो उनके संपर्क में आते थे। फलतः उनके अनेक अनुयायी हो गए। इक्ष्वाकु वंश के राजा जमदग्नि के बहुत निकट हो गए। इक्ष्वाकु राजा रेणु की पुत्री रेणुका से ऋषि जन्मदग्नि का विवाह हो गया। उस युग में ब्राह्मण और क्षत्रियों से विवाह संबंध हो जाते थे। ऐसी समाज व्यवस्था के कारण ही परशुराम, विश्वामित्र के भानजे थे। उस समय ब्राह्मणों और क्षत्रियों में रोटी-बेटी के संबंध थे।
हैहयवंशी क्षत्रिय राजा सहस्त्रवाहु अर्जुन की हत्या के साथ जितने हैहयवंशी क्षत्रिय थे, उन सबको परशुराम द्वारा मृत्यु के घाट उतार देने की कथा लोक विख्यात है। लेखक ने इस कथा को समाज विज्ञान के आधार पर प्रस्तुत किया है। नई बात यह भी है कि महिलाओं की प्रतिष्ठा परशुराम द्वारा हर स्तर पर की गई थी। सहस्त्रवाहु अर्जुन की विधवा को राज्य सौंप देना ऐसा ही काम था। जबकि महारानी महामाया अन्य विधवाओं के साथ सती होना चाहती थीं। सती प्रथा का विरोध परशुराम ने किया और सबको अभय दान दिया। महामाया के साथ हुई चर्चा में परशुराम के जिन विचारों को प्रस्तुत किया है वे आधुनिक युग के विचार हैं।
युद्ध की थकान मिटाने के लिए परशुराम ने पहली यात्रा भारत के पर्वतीय क्षेत्र की झील मानसरोवर तक पूरी की। मानसरोवार के पास ब्रह्मकुंड में स्नान किया और ब्रह्मपुत्र नदी के प्रवाह के लिए मार्ग का निर्माण किया। पूर्वोत्तर भारत से लौटकर उन्होंने दक्षिण-पथ की यात्रा की और अनेक क्षेत्रों के विकास को संभव बनाया। भूमि को उर्वरा बनाया। इसको मिथक के रूप में प्रचारित किया गया है। समुद्री तट से चलकर परशुराम ने दक्षिण भारत के विकास का कार्य संपन्न किया। लेखक ने एक नई बात यह कही है कि तकनीकि विकास से दूर और अछूत कहे जाने वाले शूद्रों का यज्ञोपवीत संस्कार कर उनको ब्राह्मण बना दिया।
मातृहंता परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन कर माता रेणुका का वध किया, किंतु पिता के द्वारा रचे गए रहस्य का उद्घाटन करते हुए पिता ने कहा कि परशुराम का मोहभंग करने के लिए यह नाटक किया गया था। परशुराम ने देखा की उनकी मां और भाई सब जीवित हैं, किंतु प्रचलन में महर्षि जमदग्नि द्वारा की गई संजीवनी विद्या के प्रयोग की सफल कोशिश है। इस प्रसंग में संजीवनी बूटी से जुड़े अनेक चिकित्सा वैज्ञानिक शोधों की चर्चा विस्तार से की गई है। यह भी कहा गया है कि परशुराम के पिता ने अग्नि, लोहा और रथ का आविष्कार किया था। परशुराम का आत्मकथन इन वाक्यों से समाप्त होता है, 'हमारे पितृ पुरुषों ने यह भी ज्ञात कर लिया था कि वायु के बिना अग्नि प्रज्जवलित नहीं होती है। पवन के घर्षण से बिजली एवं अग्नि उत्पन्न करने की जानकारी व तकनीक भी हमारे पूर्वजों को ज्ञात थी। अर्थात अग्नि, जल और वायु में परस्पर समन्वय के वैज्ञानिक महत्व को हम भली-भांति जानते थे।
भगवान विष्णु के सांतवें अवतार राम हुए। रामावतार का प्रारंभ लिखते हुए लेखक ने राम के मर्यादा पुरुषोत्तम की बानगी इस वाक्य में दे दी, 'अब मैं अपने बारे में क्या कहूं ? कितना कहंू ?' अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के ज्येष्ठ राजकुमार थे राम। उनके समय तक समाज-व्यवस्था लड़खड़ा गई थी। परशुराम ने जो सुधार कार्य किए थे, विश्रृंखलित हो गए थे। वे लोग जो परशुराम की सेना में शामिल हुए थे, या तो काल-कवलित हो गए थे या अशक्त बूढ़े हो जाने के कारण समाज-व्यवस्था में कुछ करने योग्य नहीं रहे थे। अयोध्या अवध प्रदेश या राज्य की राजधानी थी। इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रिय अयोध्या के राजा थे। सूर्यवंशी क्षत्रियों के पूर्व पुरुष थे। इसलिए इस दौर में पैदा हुए राजा इक्ष्वाकुवंशी भी कहलाते थे। इस वंश की परंपरा उपन्यास में दी गई है। महा प्रतापी सम्राट दशरथ इसी वंश के थे। उनके चार पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्रों के नाम लोक विख्यात हैं। एक पुत्री शांता थी, जो अपने भाइयों से 10 वर्ष बड़ी थी। शांता शौश्व में ही मौसी की गोद चली गई थी। वह जब बड़ी हो गई तो परशुराम ने ऋषि श्रृंग से उसका विवाह करा दिया। परशुराम को क्षत्रीय विरोधी और विनाशक माना जाता है। लेखक ने इस मान्यता का खंडन किया है। परशुराम हैहयवंशी क्षत्रियों और उनके सहायकों के विरोधी थे। सभी क्षत्रियों के विरोधी नहीं थे। सूर्यवंशी क्षत्रीयों ने तो युद्ध में परशुराम की सहायता की थी।
राम-कथा अत्यंत लोकप्रिय है। साधारण जनता के साथ बुद्धिजीवियों और कवियों में समान रूप से रामकथा के प्रति लगाव है। राम के समकालीन आदि कवि बाल्मीकि से लेकर आधुनिक युग के कवियों की रचनाओं का उपजीव्य है, रामकथा। भारत की लगभग सभी सजीव भाषाओं में राम-काव्य लिखा गया है। राम और उनके भाइयों की जन्मकथा, सीता के साथ राम का विवाह, सीताहरण, हनुमान, सुग्रीव, जामवंत आदि राम से संबंधित पात्रों की कथाओं के साथ राक्षस-राज रावण आदि के बारे में पाठकों को कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। उपन्यास में जो नया कहा गया, वह है जीव वैज्ञानिक और भौतिक विज्ञान के विकास का परिचय और विवेचना।
सम्राट दशरथ का पुत्रेष्ठि यज्ञ वास्तव में जीव वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग था, जिसमें दशरथ के शुक्राणुओं में से श्रेष्ठ गुणवत्ता के शुक्राणुओं को छांटा गया था और इन्हें क्रमशः तीनों महारानियों के गर्भाशय में रोपा गया था। ऋषि विश्वामित्र जब राम, लक्षमण को मांगकर ले गए थे, तब उन्होंने दोनों को 'बला' और 'अतिबला' जैसी योग क्रियाओं की शिक्षा दी थी। सीता जन्म की जीव वैज्ञानिक व्याख्या की गई है। इसी प्रकार अभिशप्त अहल्या कार्बन डाई आॅक्साइड पानी और सौर ऊर्जा से जीवित रहीं। धनुष भंग के समय परशुराम पहुंंचे, किंतु वे क्रोधाविष्ट नहीं थे। परशुराम ने राजा दशरथ को शब्दबेधी बाण चलाने की शिक्षा दी थी। दशरथ की विजय ने उनके क्रोध को शांत कर दिया था। परशुराम विलक्षण वैष्णवी धनुष राम को देकर महेंद्र पर्वत की ओर चले गए।
वन-गमन प्रसंग में महाकवियों ने महारानी कैकेयी के चरित्र को निंदनीय रूप में चित्रित किया है। इसके विपरीत इस उपन्यास में उनका उत्तम चरित्र चित्रित किया गया है। राम खुद कैकेयी को वह वर राजा दशरथ से मांगने का अनुरोध करते हैं, जिसके कारण वह लांछित हुईं। वास्तव में दक्षिण भारत में रक्ष-संस्कृति के फैलाव से कैकेयी खुद चिंतित थी। यह कारण राम को चौदह वर्षं का वनवास वर के माध्यम से देने की पृष्ठभूमि में था।
वनवास में राम ने आदिवासियोंं, कोल-भीलों, अछूत कही जाने वाली जातियों, वानर, असि, रीछ और अन्य मानव समुदायों से मैत्री संबंध बनाकर उनके स्वभाव में उपेक्षा को सहते हुए, जो हीनभाव था उसे दूर किया। लेखक ने वनवास के वर्णन में कुछ नई उद्भावनाएं दी हैं। एक तो यह है कि सीता हरण दो बार हुआ था। एक बार विराध नाम के राक्षस ने किया था, जिसे राम ने मार डाला था। दूसरी बार लंका के राक्षस राजा रावण द्वारा सीता हरण किया गया था, जिसके कारण भयंकर युद्ध हुआ। दूसरा नया कथन यह है कि ऋषि अगस्त्य ने राम को अनेक दिव्यास्त्र दिए थे। तीसरा नई उद्भावना यह है कि तत्कालीन ऋषि यज्ञ के बहाने शस्त्र-शोधन और ब्रह्मचारियों की सेना का संगठन कर रहे थे।
हनुमान सीता की खोज में वायुयान से गए थे और अपने साथ आग्नेयास्त्र ले गए थे। नल और नील पुल बनाने की तकनीक के विशेष इंजीनियर थे। विभीषण के साथ दूर संवेदी यंत्र मधुमक्खी था, जिसे उसने सीता को दिया था। अणुशक्ति से संचालित विभिन्न प्रकार के हथियार, टैंक और वाणरूपी तोपें उस समय राम-रावण युद्ध में प्रयुक्त हुई थीं।
उपन्यास के 351 पृष्ठ पर 'ब्रह्मक्षत्र’ शीर्षक से नगरीय सुरक्षा कवच का उल्लेख है। लंका में भी ऐसा था। लेखक ने इसे कोटा के रावत भाटा परमाणु संयंत्र में इसी तरह के किए जा रहे प्रयोग का उल्लेख करके सिद्ध किया है। इसका विवरण दैनिक भास्कर के दिनांक 20-8-17 के अंक में प्रकाशित हुआ है। रामावतार के साथ यह कितना प्रासंगिक है, यह सोचने की बात है। विभिन्न पात्रों के चरित्र- चित्रण, नई तकनीक और वैज्ञानिक खोजों, लंका और अन्य द्वीपों के भौगोलिक अस्तित्व का समर्थन और मंदिरों के निर्माण का विवरण देकर रामावतार का अध्याय समाप्त किया गया है।
भागवान विष्णु ने आठवां अवतार लिया बलराम के रूप में। बालराम कृष्ण के बड़े भाई थे। आत्मकथन के प्रारंभ में कहा गया है, 'श्रावकों’, कथा-वाचकों और श्रद्धालु श्रोताओं के अनंत देश भारत और अन्यान्य देशों में बसे भारतीयों में पुरातन आख्यानों के महीन रेशों से बने अवचेतन में तथ्य से अधिक महत्व ग्ल्प का है। गोया, कल्पना यथार्थ पर भारी पड़ती है, क्योंकि कथित दशावतार तो केवल श्री हरि विष्णु के देखे जा रहे सपनों के पात्र हैं। यह मिथक व्यक्ति के साथ जुड़ा है कि वह आजीवन स्वयं को ठीक से समझ नहीं पाता। मैं भी कब स्वयं को समझ पाया हूं ?’
बलराम अपने छोटे भाई कृष्ण को सही अवतार मानते हुए उनके सभी छल-प्रपंचों में साथ रहते हैं। बलराम को हलधर भी कहा जाता है, क्योंकि वे खेती का आधुनिकीकरण कर उसे व्यवस्थित रूप देते हैं। लेखक ने बलराम को अनुवांशिक रूप से परिवर्धित अभियांत्रिकी में दक्ष कहा है। रेवती से बलराम का जब विवाह हुआ था, तब वे कद-काठी में बलराम से बहुत बड़ी थीं। बलराम ने अपनी पत्नी की कद-काठी को अपने अनुसार करने का उपचार किया। यह उनकी नई खोज थी। इसी प्रकार कृषि क्षेत्र में उन्होंने वर्णसंकर बीजों का आविष्कार किया।
राम के युग में जो विकास हुआ था, उसका पतन कृष्ण युग आने तक होने लगा था। बलराम और कृष्ण यदुवंशी थे। यदु-वंश की उत्पत्ति चंन्द्रवंश के राजा यदु से मानी गई है। यदु के वंशज ही पौरव और फिर यदु अथवा यादव कहे गए। यादवों को एक लंबी वंश परंपरा दी गई है। उसके बाद कौरवों की एक बहुत लंबी वंश परंपरा का वर्णन है। गुरु द्रोणाचार्य, शांतनु, गंगा पुत्र भीष्म आदि महामंडल के प्रमुख व्यक्तियों के परिचय के साथ राज परिवार की अविवाहित महिलाओं और ऋषियों के समागम से संतानोत्पत्ति का वर्णन है। ऐसे स्त्री-पुरुष समागम को नियोग समागम कहा गया है। कौरवों और पांडवों की जन्म-कथाओं का भी विस्तृत वर्णन है, जो महाभारत में वर्णित है।
तत्कालीन समाज व्यवस्था में स्त्री-पुरुष संबंध की विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर संतानों का वर्गीकरण करते हुए कहा गया कि पहला पुत्र वह है, जो उसी पति से उत्पन्न हो, जिसके साथ स्त्री का विवाह हुआ है। ऐसे पुत्रों को 'स्वयंजात' कहा गया है। पौनर्भव वह कहलाया जाता था, जो दूसरी बार ब्याह गई पत्नी से उत्पन्न हुआ हो। प्रणीत पुत्र वह होता है जो अपनी पत्नी के गर्भ से किसी अन्य पुरुष द्वारा उत्पन्न किया गया हो। कानीन पुत्र वह कहलाता था, जो विवाह से पहले ही स्त्री के गर्भ में ठहर गया हो और उसका विवाह इस शर्त पर किया गया हो कि विवाह से पूर्व गर्भवती हुई इस कन्या की संतान जिस पुरुष से विवाह हुआ है उसी की कहलाएगी।
बलराम अध्याय में महाभारत के प्रसंग और जन्म की कथा के बाद अवंतिका के संदीपनि आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने की कथा अंत में दी गई है। बलराम और कृष्ण ने एक साथ आश्रम में प्रवेश किया था। उस समय मानव तस्करी होती थी। गुरू संदीपनि के पुत्र पुनर्दत्त को पुनर्जन जाति के समुद्री लुटेरों ने अगवा कर लिया था। बलराम और कृष्ण ने संकल्प लिया कि गुरूदक्षिणा के रूप में गुरूजी के पुत्र को लुटेरों से छुड़ाकर वापस लाएंगे। दोनों भाईयों ने पोरबंदर जाकर बड़ी चतुराई से गुरूजी के पुत्र को लुटेरों के चंगुल से छुड़वाया और गुरू संदीपनि को सौंप दिया।
कृषि कार्य में हल का प्रयोग तो त्रेता युग में हो गया था, फिर भी बलराम को हलधर कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने हल को नया रूप दिया था। हल के फल को लोहे का बनाकर लकड़ी के खांचे में बलराम ने ही बिठाया। इस प्रकार के हल अधिक समय तक खराब नहीं होते थे और जमीन की जुताई अधिक गहरी करते थे। बलराम के इस आविष्कार की बहुत प्रशंसा हुई थी। उस काल-खण्ड में गेहूं, चावल, जौ, ईख, दलहन आदि की फसलें होने लगी थीं, किंतु उनकी पैदावार धीमी और अल्प होती थी। हलधर ने खेतों के लिए नई तरह की खाद, गोबर, मल-मूत्र आदि से तैयार की। इसे खेतों में डालने से कृषि-उत्पादन में वृद्धि हुई। ऐसे ही कृषि संबंधी अन्वेषण और प्रयोगों से बलराम ने अपना हलधर नाम सार्थक सिद्ध किया।
विष्णु ने नवम् अवतार कृष्ण के रूप में लिया, जो बलराम के छोटे भाई थे। एक ही घर में दो अवतार, वह भी साथ-साथ हुए। उनमें छोटी सी ज्येष्ठता और कनिष्ठता थी। बलराम की जननी रोहिणी और कृष्ण की देवकी थीं। दोनों वसुदेव की पत्नियां थी। पौराणिक साहित्य में वसुदेव की दो से अधिक पत्नियों का भी उल्लेख है। इस समय बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी। कृष्ण के जन्म लेते ही वसुदेव उन्हें गोकुल के गोपनंद के घर छोड़ आए थे। उसी दिन और उसी समय नंद की पत्नी यशोदा का प्रसव हुआ और एक पुत्री का जन्म हुआ। वसुदेव ने उस कन्या को उठा लिया उसके स्थान पर कृष्ण को लिटा दिया। उस कन्या को लेकर वसुदेव कारागार में पहुंच गए जहां कंस देवकी के प्रसव का समाचार मिलने पर आया और उसने उस कन्या को मार डाला।
कृष्ण को पाकर नंद और यशोदा प्रसन्न हुए और उनका पालन-पोषण करते हुए बहुत प्रसन्नता और गर्व का अनुभव करने लगे। नंद और उनके परिवार-समाज के लोग गोकुल में रहते थे, जो यमुना नदी के किनारे एक छोटा गांव था। जब असामाजिक तत्व उत्पात करने लगे तो नंद के नेतृत्व में सभी ग्रामवासियों ने पलायन कर वृंदावन में अपने निवास बनाए और वृंदावन में रहने लगे। वृंदा का अर्थ है तुलसी। तुलसी का जंगल था, जहां गांव बसाया गया था, इसलिए उसका नाम वृंदावन पड़ गया। यहां कृष्ण ने अनेक लीलाएं कीं, जिसमें माखन चुराने वाली लीला अधिक लोक विख्यात हुईं।
कृष्णावतार की सभी लीलायें या घटनाएं लोक विख्यात हैं। लेखक ने उनकी व्याख्या आधुनिक विज्ञान और मनोविज्ञान के आधार पर की है। तृणावर्त द्वारा कृष्ण को उठाए जाने की कथा को लेखक ने ज्वाला और उसके धुएं के द्वारा उड़ने वाले विशाल गुब्बारे की कल्पना द्वारा समझाया है। इसी तरह पूतना के प्रसंग में कहा गया है कि पूतना नाम की राक्षसी जब छह दिन की आयु वाले कृष्ण को आंचल का दूध पिलाने की कोशिश में लग गई। तभी किसी अज्ञेय-अलक्षित शक्ति ने गदा का जोरदार प्रहार उसके सिर पर किया, जिससे वह ढेर हो गई। इसी प्रकार वत्सासुर और बकासुर आदि राक्षसों के विनाश की कथाएं दी गईं हैं। कालिय नाग के दमन की कथा में कालिय नागवंशी दैत्य था, जिसने यमुना की दह पर कब्जा कर लिया था। वह अनेक विषधर नागों को अपनी विशाल नौका में पाले हुए था। उसने नागों के विष से यमुना की दह का पानी विषैला कर दिया था। इसके अतिरिक्त यह नागवंशी दैत्य वृंदावन की किशोरियों का अपहरण कर उनके साथ व्यभिचार कर उन्हें मार डालता था। यह सब बातें वृंदावन के निवासियों ने नंद बाबा को सुनाई थीं, जिन्हें सुनकर कृष्ण ने उस नागवंशी के विनाश का निश्चय किया था। यह नागवंशी असुर और उसके साथी काले सांप का मुखौटा लगाते थे, इस कारण इन्हें कालिय नाग कहा जाता था। कृष्ण और बलराम ने अपनी साथियों के साथ बड़ी चतुराई से इन सबका विनाश कर दिया था। यह नई तरह की प्रस्तुति है कृष्ण चरित्र की।
कृष्ण ने इंद्र पूजा बंद कराकर प्रकृति के विभिन्न रूपों की पूजा का प्रचलन गोवर्धन पर्वत की पूजा से कराया। कृष्ण ने कहा कि गोवर्धन ब्रज की अर्थव्यवस्था का आधार है, इसलिए वे इंद्र से बड़े देवता हैं। अक्रूर के साथ कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम सहित मथुरा पहुंचे और दोनों भाईयों ने कंस के सैनिकों और मल्यों के साथ ही कंस का भी काम तमाम कर दिया। कंस मगध सम्राट जरासंध का दमाद था। उसने जब कंस की मृत्यु का समाचार सुना तो वह अपनी विशाल सेना लेकर मथुरा की ओर चल दिया। उसके आक्रमण को कृष्ण-बलराम ने संगठित यादव सेना के माध्यम से असफल कर दिया। ऐसा अठारह बार हुआ। बाद में जरासंध ने अपनी सहायता के लिए वाहलीक सम्राट कालयवन को भी बुला लिया था। कालयवन को कृष्ण ने इक्ष्वाकु वंशीय राजा मुचकुंद से मरवा दिया। अठारह युद्धों की विभीषिका से पीड़ित मथुरा की जनता की पीड़ा का मूल कारण स्वयं को मानकर कृष्ण ने मथुरा से पलायन कर द्वारका को अपना निवास बनाया। दूसरा कोई युद्ध से पीठ कर जाता तो कापुरुष कहलाता, किंतु कृष्ण को रण-छोड़ कहा गया। कालांतर में यह कृष्ण का एक नाम भी हो गया।
द्वारका जाते समय मार्ग में गोमांत पर्वत पर कृष्ण-बलराम की मुलाकात परशुराम से हुई जो एक गाय के साथ थे। परशुराम ने कृष्ण को अनेक शस्त्र दिए और उनके निर्माण की जानकारी प्रदान की। इसे उपन्यासकार की एक नई उद्भावना के रूप में देखा जा सकता है। द्वारका में कृष्ण का बहुत स्वागत हुआ। उनके साथ पहुंचे यादवों ने जल्द ही अपने निवास स्थान बना लिए। कृष्ण अविवाहित थे। उन्हें पता चला कि विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मणी के विवाह का आयोजन हो रहा है। रूक्मणि कृष्ण के प्रति आकर्षित थी। उसने कृष्ण का संदेश भेज कर उसे ले जाने का आग्रह किया। क्योंकि इस स्वयंवर में भीष्मक ने कृष्ण को आमंत्रित नहीं किया था। रूक्मणी के निवेदन को स्वीकार कर कृष्ण ने उसका अपहरण कर लिया और एक संघर्ष के बाद द्वारका पहुंच गए। कृष्ण के संघर्ष में बलराम ने उनका पूरा साथ दिया। रूक्मणी से कृष्ण के दो पुत्र उत्पन्न हुए थे, प्रद्युम्न और सांब। रूक्मणी के साथ विवाह करने के बाद कृष्ण ने अनेक महिलाओं से विवाह किए थे। इन पत्नियों से कृष्ण की अनेक संतानें भी थीं।
कुरुवंशी कौरवों, पाण्डवों, भीष्म और महाभारत के सभी प्रमुख पात्रों के बारे में पाठक जानते हैं। द्वापर युग के महानायक कृष्ण के होते हुए भी द्वारका और उस क्षेत्र के यादव आपस में लड़ मरे। एक शिकारी मारे गए वाण से कृष्ण का भी प्राणांत हो गया। उपन्यास लेखक ने तत्कालीन कुरीतियों, नैतिक पतन और विश्रृंखलित समाज के चित्रण के साथ अभिमन्यु के प्रसंग में गर्भस्थ शिशु-शिक्षा का वैज्ञानिक विश्लेषण भी किया है।
दसवां अवतार वह है, जो हुआ नहीं है। इसे कल्कि अवतार कहा गया है। क्योंकि वह कलियुग में होगा। यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में जो कल्पना है, वह भविष्य में यथार्थ का रूप ले सकती है। सांसारिक जीवन के ऐसे अनेक यथार्थ हैं, जो पहले कल्पना ही थे। 'कलियुग में मनुष्य का आचरण’ प्रसंग में शुकदेव ने राजा परिक्षित को जो कथा सुनाई उसे संक्षेप में दिया गया है। आचरण के स्खलन, स्त्री पुरुष संबंधों की स्वचारिता आदि के बाद कहा गया है कि जिसके हाथ में शक्ति होगी वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल कर लेगा। इस युग को कल्कि अवतार द्वारा बदला जाएगा। अर्थात इस प्रसंग में लेखक आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति का उल्लेख करना अपना दायित्व समझता है। कहा गया है कि वैज्ञानिक खोजों में सिद्ध किया है कि सैद्धांतिक रूप से व्यक्ति की मेघा इस तथ्य पर निर्भर रहती है कि व्यक्ति के मस्तिष्क में स्नायु कोशिकाएं किस रूप में विकसित हैं।
कल्कि अवतार कथा के अंतिम पैराग्राफ में अवतार का प्रतीकार्थ दिया गया है। कहा गया है कि कल्कि अवतार की सवारी सफेद अश्व शांति का द्योतक है। यह अवतार अहिंसा का समर्थन और प्रचारक होगा। फिर भी हाथ में जो तलवार है, वह ऐसे ज्ञान का प्रतीक है, जिससे अतिवादियों का मानसिक शमन होगा। यह सब बातें अप्रासंगिक हैं, इसलिए उपन्यास में अंतिम वाक्य में कहा है, कलियुग में पौराणिक रूप में प्रस्तुत कल्कि अवतार के होने की संभावना मेरे सोच के अनुसार सच ही नहीं है। उपन्यासकार ने सभी अवतारों की पौराणिक कथाओं के जीव वैज्ञानिक विकास क्रम के विवेचन, उसके प्रतीक विधान का परिचय, भौतिक विज्ञान और तकनीकि प्रगति के ब्यौरे के कारण पाठकों में ऊब पैदा न हो यह ध्यान रखा है, इसलिए अनेक अवांतर कथाएं भी दी हैं।
उपन्यास को सही परिप्रेक्ष्य में पढ़ा-समझा जाए, यह बात कहने के लिए लेखक ने कालिदास का श्लोक उपन्यास के आरंभ में दिया है, जिसका अर्थ है कि पुराना ही सब सही है, ऐसा माना उचित नहीं है और नया ही सब कुछ सही है, ऐसा मानना भी अनुचित है। विद्वान लोग उन सबकी परीक्षा करके, उनका जो अंश सही है उसे ही परखने के पश्चात स्वीकार करते हैं, जबकि मूर्ख लोग दूसरे के बताए हुए पर ही विश्वास करते हैं। अतः ज्ञान परंपरा का इस प्रकार का अनुकरण रूढ़िवादिता का परिचायक है।
उपन्यास में अनेक प्रसंगों में संस्कृत ग्रंथों के श्लोक दिए गए हैं। उन्हें देखकर यह भ्रम होता है कि यह शोध-ग्रंथ है। इसमें शोध तो है, किंतु यह औपचारिक शोध है, आलोचना शोध नहीं है। उपन्यास की भाषा प्रांजल, संस्कृतनिष्ठ हिंदी है। मनुष्य ने अब तक जो आविष्कार किए हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण, सबसे क्रांतिकारी, सबसे उपयोगी और सबसे रहस्यमय आविष्कार भाषा का है। भाषा की रहस्यमयता का एक उदाहरण इस उपन्यास में यह है कि 'प्राण' को भी इंद्रिय माना गया है। प्राण तो वायु का नाम है। कभी-कभी प्राण को इंद्रिय समझ लिया जाता है। मनुष्य शरीर में दस इंद्रियां मानी गई हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कमेन्द्रियां। नेत्र, कान, नासिका, जीभ और त्वचा ज्ञानेन्द्रियां है। हाथ, पांव, वाक्, गुदा और उपस्थ कर्मेन्द्रियां हैं।
लेखक ने जिस तरह की सृष्टियों की चर्चा की है। वे हैं मैथुनी सृष्टि, यांत्रिक सृष्टि और काल्पनिक सृष्टि। इनमें मैथुनी सृष्टि की प्रधानता है। उपन्यास की संस्कारित भाषा में कुछ स्थानीय बोली के शब्द भी पिरोये गए हैं। उनमें बेगरे, मूत, गिरमा (पशु बांधने की रस्सी) छींका, अरई (बैल हांकने की पैनी छड़ी) प्रमुख हैं। लेखक ने कुछ पृष्ठों में वर्णनात्मक श्ौली, कुछ में विवरणात्मक, किंतु अधिकतर में विश्लेषणात्मक और गवेषणात्मक श्ौलियों का प्रयोग किया है। यह कहकर इस समीक्षा का अंत करता हूं कि मैंने अपनी दीर्घायु (92 वर्ष) में लंबे समय तक महाविद्यालयीन अध्यापन कार्य किया। अनेक पीएच-डी की उपाधियों का निदेशक रहा। आज भी मैं निरंतर साहित्य के पठन-पाठन से जुड़ा हूं। किंतु मैनें पहली बार इस प्रकार के उपन्यास को पढ़ा है, जो एक साथ रोचक शोध एवं कथा ग्रंथ है। हिंदी का यह उपन्यास मेरी दृष्टि में एक अद्वितीय कृति है।
पुस्तक ः दशावतार, लेखक प्रमोद भार्गव, प्रकाशक-प्रकाशन संस्थान, 4268-बी@3 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य ः रू. 900.00 (सजिल्द), पेपरबैक रू. 300.00
समीक्षक - डॉ. परशुराम शुक्ल 'विरही’ देवीपुरम् कॉलोनी,
भारतीय विद्यालय रोड, शिवपुरी (म.प्र.) 473-551
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