कहानी - “ख़िलक़त का, क्या भरोसा...?” लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित

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“ ख़िलक़त का, क्या भरोसा...? ” लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित गाँव बुछेटी से क़रीब आधा फलांग दूर, वानरा की ढाणी है। कई सालों पहले, वहां नेक-दिल ठाक...

ख़िलक़त का, क्या भरोसा...? लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित


गाँव बुछेटी से क़रीब आधा फलांग दूर, वानरा की ढाणी है। कई सालों पहले, वहां नेक-दिल ठाकुर रणजीत सिंह गाँव बुछेटी के रावले में रहते थे। एक बार ठाकुर रणजीत सिंह अपने साथियों के साथ धाड़ा मारने गए थे, और वापस संध्या तक लौटे वे नहीं। ठकुराइन साहिबा रावले की मुंडेर पर खड़ी-खड़ी, उनका इन्तिज़ार कर रही थी। बहुत दूर अपनी नज़रें दौड़ाती हुई वह घोड़ों की टापों से उड़े धूल के गुब्बार को देखने की अभिलाषा लिए, न मालूम कब से खड़ी थी? मगर ठाकुर साहब और उनके साथियों के घोड़ों की टापें सुनाई नहीं दी, और न कहीं घोड़ों की टापों से उड़ते हुए धूल के गुब्बार नज़र आये। रफ़तह-रफ़तह, आख़िर सुर्यास्त हो गया। नभ में चन्द्रमा अपने सितारों रुपी साथियों को लिए नज़र आने लगे। धीरे-धीरे, ठाकुर के आने की संभावना कम होती गयी। जिससे ठकुराइन साहिबा के दिल में उथल-पुथल मचने लगी, वह फ़िक्र करने लगी ‘बहुत ज़्यादा देर हो गयी, उनके आने में। माताजी उनको राजी-ख़ुशी रखे।’ उसका दिल ठाकुर साहब को शुभ सामाचार देने के लिए भी, आकुल हो रहा था कि “कब ठाकुर साहब रावले पधारें, और वह उनको अपने पाँव भारी होने की ख़बर दे दें अपने मुख से?” वह पेड़ों की तरफ़ अपनी नज़र दौड़ाने लगी, शायद कहीं उसे शकुन देने वाली सोहन चिड़िया दिखाई दे जाय? मगर, वह क्या जाने? अब इस रात में, सोहन चिड़िया का दिखाई देना संभव नहीं। फिर क्या? वह दिल में उठ रहे बिछोव के दर्द को बर्दाश्त करती हुई, दर्दीला गाने लगी “सोन चिड़ी भायली, सीली रात गवाह। म्है रातड़ली जागती, मदछ किये री चाह।! कुरजा कुण औगण करिया, कुण बिसरायो पीव। भूल्या मरुधर देस नै, बिसरिया नैणा-सींव।!”

न तो कहीं दूर से धूल के गुब्बार नज़र आये, और न सुनायी दी घोड़ों की टापें। अब बेचारी ठकुराइन साहिबा विरह में तड़पती, अपने इस कलेज़े को कैसे ठंडा करें? बस, बेचारी अपने पति ठाकुर रणजीत सिंह को याद करती हुई आगे गाने लगी “धरती दड़क्यां सब लखै, सूक्यां सरवर-पाळ। टुकड़ा बिहरण काळज़ो, किण नै कह अहलाव।!”

इतने में किसी के पांवों की आहट उसे सुनाई दी, “खम्मा घणी ठकुराइन साहिबा। जुहारजी ने हरकारे [सन्देश वाहक] के साथ सन्देश भेजा है कि, वे रात को आयेंगे नहीं। वे कल तड़के पधारेंगे। अत: आपसे अर्ज़ है, आप नीचे चलकर आराम कीजिएगा।” इतना कहकर, खवासन [नाइन] ठकुराइन साहिबा को हाथ का सहारा देती हुई उन्हें नीचे ले आयी।

यह वाकया, कई वर्षों पहले का है। देश स्वतन्त्र होने के पहले, इस देश में ठौड़-ठौड़ रजवाड़ों और नवाबों का राज़ था। बैल-गाडी, ऊंट, और घोड़ों पर सवार होकर लोग यात्रा करते थे। उस वक़्त अवाम बुछेटी गाँव के ठाकुर साहब रणजीत सिंह का नाम, बहुत सम्मान के साथ लिया करती थी। ग़रीबों के प्रति वे दयावान रहे, इसी गुण के ख़ातिर उन्होंने लोगों का दिल जीत लिया। उनसे किसी ग़रीब का दुःख, देखा नहीं जाता था। इन दीन-दुखियों के लिए, उनका खज़ाना चौबीस घंटों खुला था। इनके इस गुण के रहते, इनकी प्रजा बहुत सुखी थी। मगर, इनके ईर्ष्यालु साथी ख़वासजी [नाई] को, इनका यह गुण अच्छा नहीं लगता था। कारण यह था, उन्होंने बचपन में ग़रीबी बहुत नज़दीकी से देखी थी। अत: बेफ़ालतू रुपये-पैसे ख़र्च करना, उनको बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। अगर कोई दूसरा रुपये-पैसे ख़र्च करता, वह भी इन्हें पसंद नहीं था। इनके लिए, रुपये ही माई-बाप थे। जाति-स्वाभाव से ख़वासजी बातूनी ज़रूर थे, और उनको बातों-बातों में दूसरों को सलाह देने की आदत अलग से पड़ गयी। पैसे न ख़र्च करने की अपनी बात रखाने के लिए, वे टसकाई से ठाकुर साहब को सलाह दिया करते थे। मगर, ठाकुर साहब को इनकी दी गयी एक भी सलाह अच्छी नहीं लगती थी। भले इनकी सलाह ठाकुर साहब को पसंद नहीं आती, मगर ख़वासजी हार मानने वाले प्राणी नहीं थे। वे तो ठाकुर साहब को दूसरे ठाकुरों के रहन-सहन के तरीक़े बताया करते, और साथ में उनको समझाये भी करते कि, “ठाकुर साहब। लक्ष्मी का आदर कीजिये, इस तरह आप पैसे ख़र्च करते रहे तो यह आपका कारू का खज़ाना भी एक दिन ख़ाली हो जायेगा। यह धन-दौलत जब-तक आपके पास है, तब-तक ही लोग आपका सम्मान करेंगे। इसके न रहने से, स्वजन भी आपसे मुंह मोड़ लेंगे। आप जानते नहीं, माया के तीन रूप है। परसा, परस और परस राम।”

इस तरह वे ठाकुर साहब को कई तरह से समझाया करते, मगर वे ठाकुर साहब के स्वभाव को बदल नहीं पाए। उल्टे ठाकुर साहब हंसी-हंसी में, इनको यह सलाह दे बैठते “ख़वासजी। आप भी मेरी तरह दान-पुण्य किया करो, अगले जन्म में यह किया हुआ दान-पुण्य ही काम आएगा। ज़रा सोचिये ख़वासजी, मेरे जाने के बाद पीछे खाने वाला है कौन? कौन है, ख़र्चने वाला? कहिये, मैं किसके ख़ातिर पैसे बचाऊं?” ख़वासजी को, ठाकुर साहब की दी गयी सलाह कैसे पसंद आती? उनको तो इस जन्म का भी भरोसा नहीं, फिर वे अगले जन्म के लिए दान-पुण्य की महिमा कैसे समझ पाते? उनको तो सपने आया करते थे कि, उनके चारों तरफ़ हीरे-पन्ने, माणक-मोती की बरसात हो रही है..और वे दोनों हाथ से इस धन-दौलत को इकट्ठी करते जा रहे हैं? उनका यह ख़्याल था कि, आदमी की इज़्ज़त ज़्यादा रुपये-पैसे होने से होती है। ठाकुर रणजीत सिंह असली ज़िंदगी में धाड़ायती [डकैत] ठहरे, मगर वे कभी अपने इलाके में डाका नहीं डाला करते थे। वे दूसरे ठाकुरों के इलाके में जाकर, वहां दुष्ट अमीरों के घर डाका डाला करते थे। वे उन्ही दुष्ट अमीर सेठ-साहूकारों को लुटा करते थे, जो ग़रीबों को सताया करते थे। लुटे हुए माल पर ख़वासजी की बुरी नीयत रहती थी, मगर उनके दिल पर ठाकुर साहब का भय इस क़दर छाया हुआ था कि ‘वे सपने में भी उस माल को पार करने की मंशा पूरी न कर पाते। यहाँ तो उनके दिल पर ठाकुर साहब का ऐसा भय छाया रहता था कि, वे जीवित ठाकुर साहब को सामने देखते ही उनका बदन धूजने लगता। तब वे कैसे उस माल को, पार करने की हिम्मत जुटा पाते?’ दुष्ट अमीर और शैतान सूदखोर महाज़नों के ज़ाल से ग़रीबों छुटकारा दिलाकर, ठाकुर साहब इन ग़रीब लोगों के मध्य मसीहा के रूप में पूजे जाते थे। इन दुष्ट सूदखोरों से लुटे हुए धन को, ठाकुर साहब इन गरीबों में बाँट देते थे। ठाकुर रणजीत सिंह दूसरे ठाकुरों की तरह, लाटा के नाम रैयत को लुटा नहीं करते थे, मगर वे क़ायदे के अनुसार राजा का हिस्सा राजा को ज़रूर भेज दिया करते थे। इस तरह राजा और रैयत, दोनों ठाकुर साहब से ख़ुश रहते।

वानरों की ढाणी के बाहर, दर्जी तुलसी राम का घर था। उनके चार साल की कन्या थी, जिसका नाम था तीजा बाई। वह अपने पिताजी की तरह, सुबह तड़के उठ जाया करती थी। तीज़ा बाईसा थे बहुत ख़ूबसूरत, रानी पदमावती की तरह सुन्दर..मगर उनमें एक ख़ामी ऊपर वाले ने डाल दी, आँखों से उन्हें दिखाई नहीं देता..मगर फिर भी, थोड़ा पलका ज़रूर पड़ता था। मक़बूले आम बात है, ‘ऊपर वाला एक कमी रखता है, तो दूसरी ऐसी ख़ासियत उसमें डाल देता है..जो उस कमी को पूरा कर देता है।’ उनके आँखों में जो ‘पलका’ ज़रूर पड़ता था, इस पलके के सहारे वे दिमाग़ का इस्तेमाल करते हुए घर के कई काम वे चुटकियों में पूरा कर लेते थे। काम करते-करते, इनको किसी की मदद की ज़रूरत नहीं होती। इस बचपन में उनको पूरा भरोसा था कि, उन पर ‘तीज़ा माता’ तुष्ठमान हैं। लोगों को भी पूरा भरोसा था कि, ‘बाईसा तीज़ा बाई के मुख से निकली भविष्यवाणी, हमेशा सच्च हो जाया करती है।’

एक बार ऐसा हुआ की, मंगला की वेळा [तड़के] सुबह चाय बजे, घर के दरवाजे पर दस्तक हुई। तीज़ा बाई ने जाकर, सटे हुए दरवाज़े को खोला। आगंतुक के पांवों की आहट पाकर, वह उन्हें हाथ जोड़कर कहने लगी “मालिक। चौक में पलंग रखा है, आप उस पर बैठिये..तब-तक मैं दाता [पिता] को बुला लाती हूँ।” तीज़ा बाई ने इतना कहकर, आगंतुक को पाँव-धोक दी, और फिर वे घर के अन्दर अपने पिता तुलसी राम को इतला देने चली गयी। चौक में बिछाए गए पलंग पर ठाकुर साहब आकर बैठ गए, और उनके साथी बाहर उनका इन्तिज़ार करते रहे। पलंग पर बैठे ठाकुर साहब सोचने लगे कि, “ऐसा क्या कारण है? इस कन्या की आँखों में रौशनी न होते हुए भी, यह कन्या लोगों को कैसे पहचान लेती है..? इस कन्या में तुलसी राम ने ऐसी तहज़ीब सिखाई है, जो तारीफ़े-क़ाबिल है। वाह, इस छोरी को कितने बढ़िया संस्कार दिए हैं तुलसी रामजी ने..?” थोड़ी देर बाद, तुलसी राम ठाकुर साहब का तैयार किया हुआ कमीज़ लेते आये। उनके नज़दीक आकर उन्होंने पाँव-धोक दी, फिर वे उनसे कहने लगे “खम्मा घणी, अन्नदाता। मैं ख़ुद आपके रावले में हाज़िर हो जाता, हुकूम ने काहे का कष्ट उठाया?”

“तुलसी रामजी। मैं तो ख़ुद इधर से अपनी पलटन के साथ गुज़र रहा था, और मुझे याद आ गया कमीज़..जो आपने अपने हाथों से सिलाई करके तैयार किया है। जब मैं यहाँ से गुज़र ही रहा था, तब मुझे आपके घर से सिला हुआ कमीज़ लाने में काहे की शर्म? फिर क्यों इस छोटे से काम के लिए, किसी कामदार को कष्ट देता? मुझे तो कोई शर्म आती नहीं, अपना काम करने में।” ठाकुर साहब बोले।

इतने में, तीज़ा बाईसा लकड़ी के ग्लास में ठंडा तुलसी जल लेकर आ गए। ठाकुर साहब ने अंजली में थोड़ा पानी लेकर, अपने हाथ साफ़ किये, फिर तीज़ा बाई से ग्लास लेकर ऊपर से पानी पीया। फिर ग्लास वापस तीज़ा बाई को थमाकर, तुलसी राम से सिला हुआ कमीज़ लेकर उठे। तीज़ा बाई के सर पर हाथ फेरते हुए, ठाकुर साहब तीज़ा बाई से बोले “बाईसा। आपको बहुत तक़लीफ़ दी, अब आप हमारा एक और काम कर दीजियेगा।”

“फ़रमाइए, हुज़ूर। आपका हुक्म मेरे सर पर, अन्नदाता।” तीजा बाई नम्रता से बोले।

“आप तीज़ा माता का स्मरण करते हुए, हमारे लिए शगुन बताइये।” ठाकर साहब बोले।

तीज़ा बाई ने आले में ग्लास रखकर, अपने दोनों हाथ जोड़े आकाश की तरफ दोनों हाथ ले जाकर तीज़ा माता का स्मरण करते हुए, बोले “माताजी की कृपा से आपकी हवेली में ख़ानदान का चिराग रौशन होगा। मगर, कुंवर साहब का जन्म....” आगे कहते-कहते तीज़ा बाई की ज़बान रुक गयी, और उनके शरीर के रोम-रोम खड़े हो गए। तब ठाकुर साहब ने ताली बजायी, उनकी ताली बजने की आवाज़ सुनकर सिपाही की वेश-भूषा में उनका भतीजा राम सिंह अन्दर तशरीफ़ लाया। अन्दर दाख़िल होकर वह सीधा झट ठाकुर साहब के पास चला आया, और बोला।

“हुक्म कीजिये, काकाजी।” राम सिंह बोला।

“कुंवर साहब, ज़रा ख़वासजी के साथ कलदारों की थैली भिजवाइये।” ठाकुर साहब ने, राम सिंह से कहा।

राम सिंह के जाते ही, थोड़ी देर बाद ख़वासजी कलदारों की थैली लिए ठाकुर साहब के नज़दीक आये। ठाकुर साहब को कलदारों की थैली थमाकर, ख़वासजी पास खड़े तुलसी राम को ज़हरीली नज़रों से देखने लगे। उनको अखरने लगा, ‘अभी इस नामाकूल को चांदी के कलदार देने के लिए, यह थैली खुल जायेगी..? क्यों नहीं ठाकुर साहब थैली खोलते हैं, मुझे कलदार देने के लिए?’ उनको इस तरह तुलसी राम को टकटकी लगाए देखकर, ठाकुर साहब मुस्कराते हुए कहने लगे “यह क्या कर रहे हो, ख़वासजी? क्या छीपोजी को पूरा गटकने का इरादा है, आपका?”

ठाकुर साहब का यह कथन सुनते ही, ख़वासजी झेंप गए और उनको ऐसा लगा मानों ठाकुर साहब के मुख से यह जुमला नहीं निकला..बल्कि उनके मुख से कई सांप निकल आये हो? बस, यह ख़्याल उनके दिमाग में आते ही ख़वासजी डरकर चार क़दम पीछे हटे। सहसा उनके मुंह से, ये बोल निकल पड़े “मर गया, मेरी मां।”

तभी उनको, ठाकुर साहब का ठहाका सुनायी दिया। और वे चेतन हो गए, चेतन होते ही ठाकुर साहब की आवाज़ उनके कानों में पड़ी..वे हंसते हुए कह रहे थे “यों कैसे डर रहे हो, ख़वासजी? कहीं आप, सपना तो नहीं देख रहे हैं कोई? मुझे तो ऐसा लगता है, आपने अपने बदन पर कई सापों को लिपटते देख लिया हो? अब सुनिए, ख़ुशी की बात। सुनते ही, आपका सारा डर ख़त्म हो जायेगा। अब सुनिए, तीज़ा बाईसा ने अभी रावले में कुंवर साहब के जन्म होने की भविष्यवाणी की है।” सुनते ही, ख़वासजी ने खंखारते हुए अपना गला साफ़ किया। मगर, इस तरह उनके खंखारने से क्या फर्क़ पड़ा? सच्च तो यही था, यह ख़ुश-ख़बरी सुनकर उनको दिल में लावा उमड़ता हुआ नज़र आने लगा। दिल में आये इन भावों को छिपाना भी उनके लिए ज़रूरी हो गया, तब वे बनावटी मुस्कान अपने लबों पर लाकर बोल उठे “मालिक, शुभ काम होंगे अब तो। रावले में, कुंवर साहब की किलकारियां गूंज़ेगी।” इतना कहकर, ख़वासजी झट बाहर चले गए। उनके जाने के बाद, ठाकुर साहब ने झट थैली में हाथ डालकर मुट्ठी भर कलदार बाहर निकाले। फिर उन चांदी के कलदारों को मुट्ठी में थामे, तीज़ा बाई से बोले “बाईसा। पल्ला मांडिये।” उनका हुक्म मानकर, तीज़ा बाई ने अपने ओढ़ने का पल्ला फैलाकर आगे किया। उनके पल्ला मांडते ही, ठाकुर साहब ने मुट्ठी-भर चांदी के कलदार उनकी झोली [पल्ले में] में डाल दिए।” फिर वे तीज़ा बाई से पूछ बैठे “बाईसा। आप कुछ और आगे कह रहे थे, ना..? आप निर्भय होकर कहिये, किसी से डरने की कोई ज़रूरत नहीं।”

मगर तीज़ा बाई इस बात को टालते रहे, मगर ठाकुर साहब के ज़्यादा ज़ोर देने पर आख़िर तीज़ा बाई को कहना पड़ा अन्नदाता। कुंवर साहब का जन्म होने के बाद, मुझे आपके जीवन की डोर पर ख़तरा मंडराता हुआ दिखाई दे रहा है। क्या कहूं, आपका दिल-दरियाव होने का स्वभाव छुपे हुए दुश्मनों को आप पर वार करने का मौक़ा देता रहेगा। मेरी आपसे प्रार्थना है, आप किसी कुपात्र पर दया न करें। यह सुनकर, ठाकुर साहब खिल-खिलाकर हंसने लगे...फिर किसी तरह अपनी हंसी पर क़ाबू पाकर, उन्होंने आगे कहा “बाईसा। शरणागत आदमी पर, दया रखनी पड़ती है। यह तो राजपूतों का धर्म है, बस मैं तो माताजी से यही प्रार्थना करता हूँ ‘वे मेरा धर्म बनाए रखें।’ बस, एक बार हवेली कुंवर की किलकारियों से गूंज़ उठे..यही मेरी इच्छा है, भले बाद में मेरा कुछ भी हो।”

काफ़ी वक़्त बीत जाने के बाद, बाहर खड़ा ठाकुर साहब का घोड़ा हिनहिनाने लगा। उसका हिनहिनाना सुनकर, ठाकुर साहब ने तुलसी राम से विदा लेनी चाही। झट तुलसी राम से सिला हुआ कमीज़ लेकर, उन्होंने मुट्ठी भर चांदी के कलदार उन्हें थमाये। फिर, वे रुख़्सत हो गए।

ठकुराइन साहिबा ने जैसे ही पाँव भारी होने के शुभ समाचार ठाकुर साहब को दिए, और यह शुभ समाचार पूरे रावले में फ़ैल गए..फिर क्या? रावले में ख़ुशियाँ छा गयी। ठौड़-ठौड़, गुलाब के पुष्पों की वंदन-हार लटकते नज़र आने लगे। रावले की दासियाँ नए वस्त्र और गहने पहनकर, रावले की साज़-सजावट में लग गयी। रावले में आये मेहमानों को, ये दासियां आदर-सत्कार से आसनों पर बैठाकर भोजन कराने लगी। उन मेहमानों का मनोरंजन करती हुई, ढोलनियां मीठे सुर में मंगल गीत गाती हुई ढोलकी पर थाप देती जा रही थी। थोड़ी देर बाद, जनानी ड्योडी की ज़ालीदार जाफ़रियों के पीछे ठकुराइन साहिबा को गद्दे पर सम्मान के साथ बैठाया गया। उनके आस-पास खड़ी दासियां चंवर डुलाने लगी। ठकुराइन साहिबा के आस-पास गद्दों पर, ठाकुर साहब के मेहमानों की बहू-बेटियाँ बैठी नज़र आ रही थी। कई दासियाँ, उनकी सेवा में वहां खड़ी थी। थोड़ी देर बाद ठाकुर साहब और उनके मेहमान दीवान ख़ाने में तशरीफ़ लाये, और आकर अपने-अपने आसनों पर आकर बैठ गए। उनके आने के बाद नौकर-चाकर उनको ठंडा केवड़ा जल पिलाने लगे, कई साकी दाखों का बना दारु चांदी की सुराही में लिए खड़े थे। उन मेहमानों को, वे दारु के ज़ाम थमा रहे थे। ठाकुर साहब का इशारा पाते ही साज़ बजाने वालों ने अपने साज़ छेड़ दिए, साज़ से निकले मीठे सुर पर ताल-मेल मिलाती हुई गाँव बोडूंदा की मुन्नी पातुर घूमर लेकर नाचने लगी...और साथ में, मीठे सुर में “रातड़ल्यां रंग चुनरी” का गीत इस तरह गाने लगी –

“राता फूला रंग कोई, धोळाजी जायळ रा फूल। रातड़ल्यां रंग-चुनरी।१! घर आया सूरजजी पूछे, गोरी ए थानै व्हालो कुण? रातड़ल्यां-रंग चुनरी।२! घर आया चंदरमाजी पूछे, गोरी ए थानै व्हालो कुण? रातड़ल्यां-रंग चुनरी।३! घर आया विरमाजी पूछे, गोरी ए थानै व्हालो कुण? रातड़ल्यां-रंग चुनरी।४! घर आया गजाननजी पूछे, गोरी ए थानै व्हालो कुण? रातड़ल्यां-रंग चुनरी।५! घर आया सगळा देवता पूछे, गोरी ए थानै व्हालो कुण? रातड़ल्यां-रंग चुनरी।५! घर आया पीवजी पूछे, गोरी ए थानै व्हालो कुण? रातड़ल्यां-रंग चुनरी।६! बाळपणे म्हारी मायड़ प्यारी, पीछे जी म्हारा जळहर बाप। रातड़ल्यां-रंग चुनरी।६! इण बातां सें गोरी ख़ारा लागौ, देस्यां ए थानै पीहर पुगाय। रातड़ल्यां-रंग चुनरी।७! भर जोबन केसरिया प्यारा, गोद्यांजी जडूलौ पूत। रातड़ल्यां-रंग चुनरी।८! आणे-टाणे बीरौजी प्यारा, भावजजी लुळ लागै पाँव। रातड़ल्यां-रंग चुनरी।९! इण बातां सूं गोरी प्यारा लागौ, लेस्यां थानै हिवड़े लगाय। रातड़ल्यां-रंग चुनरी।१०!

रावले के बाहर घोड़ा हिनहिनाया, बाहर खड़ा पहरेदार रावले के अन्दर दाख़िल हुआ। और उसने गाँव गंगाणी सेठ मुल्तान मल की हवेली से, हरकारा आने की इतला दी। ये सेठजी, ठकुराइन साहिबा के धर्म भाई ठहरे। इस कारण हरकारे को, मेहमानों के कमरे में बैठाया गया। थोड़ी देर बाद ठाकुर साहब का हुक्म पाकर, वह हरकारा ठाकुर साहब के सामने हाज़िर हुआ। हाथ जोड़कर, उसने सेठ साहब का ख़त ठाकुर साहब को थमाया। फिर वह, ज़वाब पाने के इन्तिज़ार में खड़ा रहा।

ख़त पढ़ते ही ठाकुर साहब के चेहरे की रंगत उतर गयी, नाच-गानें बंद करवाकर उन्होंने पलटन को गाँव गंगाणी की और कूच करने का हुक्म दे डाला। जब-तक ठाकुर साहब सेठ साहब की हवेली न पहुंचे, तब-तक वह हरकारा उनकी हवेली पहुँच गया...और जाकर सेठ साहब को सन्देश दे डाला कि, बुछेटी से ठाकुर साहब के रवाना हो चुके हैं। समाचार पाकर, सेठ साहब के चेहरे पर संतोष छाने लगा। इस तरह ख़बर पाकर, वे अब बेखौफ़ हो गए।

आख़िर बात यह थी, सेठ मुल्तान मल की दोनों छोरियां कमला और विमला विवाह-योग्य हो गयी थी। उन दोनों बहनों की सगाई, बिराई गाँव के सेठ मख्तूर मल और उनके अनुज सुगन मल के पुत्र श्याम लाल और घनश्याम लाल के साथ तय की गयी। सेठ साहब की दोनों लड़कियां बहुत सुन्दर और समझदार थी, इनके रूपवती होने की चर्चा, अड़ोस-पड़ोस के गाँवों में चलती रहती थी। दिल्ली सल्तन के सूबेदार सैय्यद अनवर अली का भाणजा रमजान खां, इसी इलाके में रहता था। इस इलाके में गुंडा-गर्दी और शैतानी हरक़तें करता, वह काफ़ी कुख़्यात हो गया था। लोगों के बीच उसने भारी आंतक मचा रखा था, इस कारण लोग उसका नाम सुनकर धूजते थे। बहादुर आदमी भी इस गाँव में रहे होंगे, वे भी इसके मामू सैय्यद अनवर अली के रिश्ते से खौफ़ खाते थे।

सेठ साहब के दुर्भाग्य की बात है, किसी कुटनी ने रमजान खान के पास जाकर सेठ साहब की दोनों ख़ूबसूरत छोरियों की सुन्दरता की बहुत तारीफ़ कर डाली। फिर क्या? झट उसने छोरी कमला से शादी करने की मंशा से, सेठ साहब की हवेली में नारियल भिजवा दिया। मगर सेठ साहब थे, कड़े नियम वाले। वे कैसे विधर्मी के साथ, अपनी पुत्री का विवाह होने देते? फिर क्या? नारियल वापस लौट आया, अब वह इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाया। वह शैतान इन दोनों छोरियों का ज़ोर-ज़बरदस्ती से, अपहरण करने की योजना बनाने लगा।

कहते हैं, भले आदमियों के मध्य दोस्ती सहजता से नहीं हो पाती..मगर, एक साथ दारु पीने और तवायफ़ों का नृत्य देखने वालों के बीच दोस्ती हो जाना स्वाभाविक है। रमजान खां और गंगाणी सेठ लेख राज का कपूत पुत्र तेज़ राज रोज़ बोडूंदा गाँव की तवायफ़ मुन्नी बाई के कोठे पर जाकर उसका नृत्य देखा करते थे, वहीँ बैठकर वे दोनों मिलकर दारु के ज़ाम ख़ाली करते थे। इस तरह दोनों दोस्त बन गए, और एक दिन वे दोनों कहीं बैठकर आपस में अपने दुःख-सुख की बातें करने लगे। बातों के सिलसिले में, वे दोनों कमला और विमला की सुन्दरता पर चर्चा कर बैठे। रमजान खां ने तेज़ राज को बताया कि, ‘किस तरह उसका भेजा गया सगाई का नारियल, सेठ मुल्तान मल ने लौटाया?’ फिर क्या? दोनों शैतान कुबदी चालें चलने पर विचार करने लगे कि, ‘इन दोनों छोरियों को, उनकी शादी के पहले कैसे उठाया जाय?’ दोनों कुबदी मित्रों ने आपस में यह भी तय कर लिया कि, बड़ी लड़की कमला के साथ रमजान खां निकाह करेगा और छोटी विमला के साथ तेज़ राज शादी करेगा।

बात यह भी थी, सेठ लेख राज का सारा धन-माल, उसके कपूत पुत्र तेज़ राज ने दारु और तवायफ़ों के कोठे पर उड़ा दिया। इस तरह सेठ लेख राज हो गए, कंगाल। इधर सेठ साहब उस छोरे की ग़लत हरक़तों के कारण, वे किसी को मुंह दिखलाने लायक नहीं रहे। छोरे की गंदी आदतों के कारण, उन्होंने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया। एक दिन ऐसा भी आया, इस छोरे की हरक़तों से परेशान होकर वे अपना मानसिक संतुलन खो बैठे और गले में फंदा डालकर उन्होंने अपनी जीवन-लीला समाप्त कर डाली। इनकी मौत के बाद तो छोरा तेज़ राज पूरी तरह से आज़ाद हो गया, जो थोड़ी-बहुत पिता की आँख की शर्म थी वह भी उनकी मौत से ख़त्म हो गयी। अब तो सोते-उठते गाँव की जवान बहू-बेटियों के दिल में, उनकी इज़्ज़त जाने का खौफ़ पैदा हो गया। यह इज्ज़त जाने का खौफ़ उनके दिल में इस क़दर छा गया कि, वे घर से बाहर अकेली पनघट पर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी। किदवंती है, ‘भले आदमियों का मिलना सयोग से होता है, मगर बुरे आदमियों के बीच दोस्ती झट हो जाया करती है।’ इस तरह, ठाकुर साहब के आतंरिक दुश्मन ख़वासजी भी आकर इन दोनों से मिल गये। अब इन तीनों की दोस्ती रंग ज़माने लगी। फिर क्या? ये तीनों मिलकर, सेठ मुल्तान मल की छोरियों को उठाने की योजना बनाने लगे। यह छोरियों को उठाने की ख़बर जैसे ही सेठ साहब को मिली, वे फिक्रमंद हो गए। उन्होंने झट हरकारा ठाकुर साहब के पास भेजकर मदद के लिए गुहार लगाई, ताकि इन दोनों छोरियों की सगाई का समारोह शान्ति से निपट जाय। इस तरह सेठ साहब की चतुराई काम आ गयी, और इन दोनों को ठाकुर साहब के आने की सूचना न मिल पायी। अत: ये दोनों पूर्व कार्यक्रम के अनुसार इन दोनों छोरियों के अपहरण की योजना को क्रियान्वित करने के उद्धेश्य से हरजी बा के खेत में बातें कर रहे थे, जहां इनके नए मित्र ख़वासजी भी मौजूद थे। जग में यह किदवंती है कि, पियक्कड़, आदतन-बदमाश, वहशी रसिक और लालची आदमियों के बीच दोस्ती जल्द हो जाया करती है।

गाँव नगरिया के बाहर स्थित रामा पीर के मंदिर के पास सन्नाटा छाया हुआ था, वहां चारों तरफ़ खेतों में लगी बाज़रे की फ़सल हवा के झोंकों से लहरा रही थी। मंदिर के सामने आये हरजी बा के खेत में कहीं दूर, हिलते हुए बाज़रे के पौधे इंसान या जानवरों की उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। मंदिर के बाहर नीम के चबूतरे पर बैठे दो कृषक सुरजा राम और खेता राम, बैठे हफ्वात हांक रहे थे।

“कौन देख रहा है आदमी के अन्दर, इस धरती को कड़ी नज़रों से? सामने हरजी बा के खेत में बाज़रे के पौधे या तो हवा के झोंके से हिल रहे हैं, या फिर इन पौधों के बीच आदमी या जानवर अपनी मौज़ूदगी बता रहे हैं?” सुरजा राम ने, खेता राम से सवाल किया।

“शायद कोई बुरे इंसान ग़लत नीयत से खेत के अन्दर दाखिल हो गए हों, या फिर और कोई...?” खेता राम ने, ज़वाब दिया।

“फिर क्या? तू जाकर मालूम कर खेता भाई, इस खेत में आख़िर दाख़िल हुआ कौन है?” सुरजा राम कहने लगा।

“मुझे बता, खेता भाई। तूझे क्या नज़र आ रहा है?” सुरजा राम ने ज़वाब न देकर, वापस खेता राम से सवाल किया।

कुछ सोचता हुआ, खेता राम बोला “मुझे तो इंसान चरित्र से गिरा हुआ नज़र आ रहा है, राक्षसी प्रवृति बढ़ती जा रही है और धरती पर विपदा अपने पांव पसारती नज़र आ रही है।”

“हाँ भाई, तू सच्च कह रहा है। इस बार धरती हार जायेगी, क्योंकि बुरे लोगों की बुरी निग़ाह इस धरती पर जमती जा रही है। इन बुरे लोगों को नज़र-अंदाज़ करता हुआ, यह संसार अंधा हो चुका है।” सुरजा राम लम्बी सांस लेता हुआ बोला। तभी उसकी नज़र सामने से आते हुए हरजी बा पर पड़ी, जो दिशा मैदान जाकर इधर ही हाथ-मुंह धोने आ रहे थे। चबूतरे के पास आते ही उन्होंने दिशा-मैदान निपटने का डब्बा नीम के नीचे रखा, फिर उन्होंने सुरजा राम को लोटे में पानी लाने का कहा। सुरजा राम झट उठकर, मटकी में लोटा डूबाकर पानी ले आया। फिर उनके हाथ-मुंह धुलाकर, लोटा यथा-स्थान रख दिया। हरजी बा ने कंधे पर रखे अंगोछे से, अपने हाथ-मुंह पोंछ डाले, और फिर चबूतरे पर आकर बैठ गए। फिर, वे बोले “सत्य बात कह रहे हैं, आप दोनों। अब तो यह आदमी इस दुनिया को खा जाने में तुला हुआ है, अब कहाँ रहा ईमान? देखो खेता रामजी, एक ही गाँव के जवान छोरे और छोरी के बीच क्या रिश्ता होता है..बोलिए? तह रिश्ता भाई और बहन का हुआ या नहीं, बोलो खेता रामजी। मगर, कहूं क्या? भाई, अब तो कलयुग आ गया।”

“बा’सा। कोई नयी बात सुनकर आ गए, क्या?” चबूतरे पर बैठे खेता राम ने, हरजी बा से सवाल किया।

“इन आँखों से देखा, और अभी-अभी इन कानों से सुनकर ही आया हूँ। कहने में मुझे लज्जा आती है, वाह भाई वाह..क्या ज़माना आया है?” हरजी बा बोले।

“कह दीजिये, बा’सा। वैसे भी आपके पेट में बात छुपती नहीं, न कहने पर आपके पेट में दर्द होगा..और मरोड़े पैदा होंगे आपके पेट में। फिर क्या? डब्बा लेकर बार-बार आप दिशा-मैदान जाते, भूंडे लगोगे। फिर, कह ही दो ना बात...आख़िर बात क्या है?” खेता राम मुस्कराकर, बोला।

तभी हरजी बा की मज़हाक़ उड़ाता हुआ सुरजा राम बोल पड़ा “यह क्या बा’सा, भरी दोपहरी में बार-बार आपको दिशा-मैदान जाते देखकर लोग आपके बारे में न मालुम क्या-क्या बातें बनायेंगे ? फिर क्या? सारी बात कहकर, मामले को यहीं निपटा दीजिये ना।

आख़िर, बेचारे हरजी बा को कहना ही पड़ा “क्या कहूं, आपको? ऐसी बात कहने में, पाप लगता है। इन हरामखोरों की बात, क्या कहनी? कहने से केवल अपनी ज़बान ही ख़राब होती है, और क्या?” इतना कहकर हरजी बा ने अपने अंगोछे से मुंह वापस साफ़ किया, और फिर बोले “लीजिये सुनिए, ऐसी बात सुनने के पहले मेरे ये पापी कान फूटे ही क्यों नहीं? बात यह सुनी, जैसे ही मैं शौच जाने के लिए खेत में बैठा ही था...और ये तीनों लंगूर आ गए वहां। एक तो था सेठ लेख राज का कपूत बेटा तेज़ राज, दूसरा था यह कमबख़्त रमजानिया और तीसरा इन कमीनों का बाप..यह ठाकुर साहब का ख़वास। यह कमबख़्त ख़वास तो ऐसा कमीना निकला, यह जिस थाली में खाता है उसी में छेद करता है। यह पापी उन दोनों को, ठाकुर साहब को मारने की योजना समझा रहा था।” इतना कहकर, हरजी बा ने लम्बी सांस ली। पूरी बात सुने बिना सुरजा राम से रहा नहीं गया, वह झट उचक-लट्टू की तरह बीच में बोल पड़ा “बा’सा। पहले आप यह बात तो समझाइये कि, यह रमजान खां और तेज़ राज वहां इकट्ठे हुए ही क्यों? इस ख़वास को क्या पड़ी, जो इन पापियों का साथ देने के लिए वह तैयार हो गया? विस्तार से समझाकर कहिये, बा’सा।”

“ठाकुर साहब तो है, सेठ मुल्तान मलजी के रक्षक। ठाकर साहब मर जाए तो, सेठ साहब अपने-आप मर जायेंगे..ठाकुर साहब के बाद, उनको बचाने वाला रहेगा कौन? फिर क्या? सेठ साहब की दोनों छोरियां, कमला और विमला..” इतना कहकर, हरजी बा ने लम्बी सांस लेकर थोड़ा विश्राम किया। फिर, वे आगे बोले “कमला को तो ले जायेगा, यह रमजान खां..और, यह विमला इस कपूत तेज़ राज के हाथ लग जायेगी।”

“यह बात तो समझ में आ गयी, बा’सा। मगर मेरे समझ में न आया कि यह ख़वास क्यों नमकहरामी कर रहा है, ठाकुर साहब के साथ?” खेता राम बोला।

“बिना स्वार्थ कौन करता है, काम? ठाकुर साहब की दौलत पर, इस कुबदी की बुरी नज़र है। और तुम दोनों को यह तो ध्यान है कि, ठाकुर साहब की कोई औलाद नहीं है। फिर ठाकुर साहब के मरने के बाद, यह जागीर किसकी होगी? बोल, खेता राम।” यहाँ तो हरजी बा ने खुद ने पूछ लिया सवाल, खेता राम से।

इतने में घोड़े हिनहिनाये, थोड़ी देर बाद बाज़रे के पौधे हिलते नज़र आये। यह मंज़र देख रहे हरजी बा बोले “लीजिये, ये तीनों हरामी जा रहे हैं। भगवान जानें, अब ये तीनों कहाँ जायेंगे अपना मुंह काला कराने?”

तीनों कृषक खंखारकर मुस्कराने लगे, थोड़ा वक़्त बीता ही होगा...सामने के मार्ग में, घोड़ो की टापों से धूल उड़ती नज़र आयी। इस नीले आसमान में, इस उड़ रही धूल छा जाने से वह पीला नज़र आने लगा। कुछ ही वक़्त बाद, घोड़ों पर सवार ठाकुर रणजीत सिंह और उनकी पलटन सामने से आती नज़र आने लगी। कुछ ही देर बाद, वे लोग मंदिर के पास आकर घोड़ों से उतरे। ठाकुर रणजीत सिंह के घोड़े से उतरते ही उनका एक साथी उनके पास आया, और उनके घोड़े को पानी पिलाने के लिए उसे अवाले के पास ले गया। ठाकुर साहब को देखते ही तीनों कृषकों ने उठकर, उन्हें धोक लगाई। फिर वे तीनों, हाथ बांधकर खड़े हो गए। हरजी बा ने झट पास पड़ी खटिया को बिछाकर, ठाकुर साहब को बैठाया। फिर हाथ जोड़कर, ठाकुर साहब से पूछने लगे “हुकूम। कैसे पधारे, मालिक?”

“सेठ मुल्तान मलजी ने बुलाया था, चौधरीजी। पहले आप मुझे यह बताएं, आप तीनों यहाँ कैसे बैठे हैं? किस मुद्दे पर, आप चर्चा कर रहे हैं?” इतना कहकर, ठाकुर साहब ने अपने अंग-वस्त्र से ललाट का पसीना पोंछ डाला। हरजी बा बोले “मालिक आप हैं बड़े जागीरदार, और हम ठहरे ग़रीब कृषक..हमारी कहाँ हिम्मत, जो आपके किसी मर्ज़ीदान आदमी के खिलाफ़ आपसे शिकायत करें? और कहाँ है हममें, आपको सलाह देने की योग्यता? मगर मालिक, हमने इन पापी कानों से सुना है कि...” इतना कहकर, हरजी बा हो गए चुप। मगर ठाकुर साहब के मन में वहम के कीड़े को रेंगने का मौक़ा मिल गया, अब बिना पूछ-ताछ किये ठाकुर साहब से रहा नहीं गया। उनको ऐसा लगने लगा कि, ये कृषक उनसे कोई बात छुपा रहे हैं। आख़िर उनका भय दूर करते हुए, ठाकुर साहब बोले “बा’सा। आप निर्भय होकर कहिये, वैसे आप तो जानते ही हैं कि..न्याय की तराज़ू सभी समान है, कोई छोटा-बड़ा नहीं। आप उस आदमी के खिलाफ़, निसंकोच शिकायत कर सकते हैं...भले वह आदमी, मेरा कितना ही मर्ज़ीदान हो?”

“तब सुनिए, मालिक। आपके ख़ास मर्ज़ीदान ख़वासजी, आपके साथ छल कर रहे हैं। उन्होंने रमजान खां और लेख राज के कपूत बेटे तेज़ राज के साथ हाथ मिलाकर, आपको मारने की पूरी योजना बना ली है।” हरजी बा बोले।

“हुज़ूर। अभी-अभी ये तीनों कपटी लोग, अपने साथियों के साथ गंगाणी गाँव की ओर गए हैं।” खेता राम ने कहा।

“मालिक। इन तीनों ने मिलकर ऐसी योजना बनायी, जिसे सुनकर मुझे बहुत अचरच हुआ।” इतना कहकर, हरजी बा ने नज़दीक आकर ठाकुर साहब के कान में फुसफुसाकर पूरी योजना उनको बता डाली।

फिर क्या? पूरी बात सुनते ही, ठाकुर साहब के बदन के रोम-रोम खड़े हो गए। फटके से उन्होंने, पलटन को गंगाणी की ओर कूच करने का हुक्म दे डाला। थोड़ी देर में ठाकुर रणजीत सिंह की पलटन गंगाणी की तरफ़ कूच करती नज़र आने लगी, अब घोड़ों की टापों से उड़ी धूल से आसमान पील-पीला दिखाई देने लगा।

सेठ साहब की हवेली के निकट जैसे ही ठाकुर साहब की पलटन पहुँची, वहां चारों ओर घेरा डाले रमजान खां के आदमी अस्त्र-शास्त्र लिए खड़े थे। फिर क्या? अचानक ठाकुर साहब की पलटन ने, धावा बोल दिया। रमजान खां के कई आदमी लड़ाई में मारे गए, और कई आदमियों को बंदी बना लिया गया। मगर, मौक़ा मिलते ही, रमजान खां और तेज़ राज जान बचाकर भाग खड़े हुए। दुश्मन की हार हो गयी, मगर दुर्भाग्य से ये दोनों ख़बती इनके हाथ आने से रह गए।

फिर क्या? ‘जय माताजी’ का विजयनाद करती हुई, ठाकुर साहब की पलटन सेठ साहब की हवेली में घुसी। विजयनाद सुनते ही, सेठ साहब ने आगे बढ़कर ठाकुर साहब का स्वागत किया।

ख़वासजी तो इस हवेली में पहले से मौज़ूद थे, और यहाँ आकर वे सेठ साहब को उल्टी पट्टी पढ़ा रहे थे कि, आप लुगाई-टाबरों को साथ लेकर पीछे के दरवाजे से बाहर निकल जाओ। और, उधर उनके दिल में पाप समाया हुआ था कि, ‘जैसे ही सेठजी अपने परिवार सहित पिछवाड़े के दरवाजे से बाहर निकलेंगे..उसी वक़्त वहां खड़ा रमजान खां और उसके आदमी इन लोगों को अपने क़ब्ज़े में ले लेगा।’ मगर, सेठजी ने ख़वासजी की कोई सलाह नहीं मानी, इससे ख़वासजी की योजना धरी रह गयी।

अब अपने सामने यमराज-समान ठाकुर साहब को खड़े देखकर, बेचारे ख़वासजी की गिग्गी बंध गयी। उनके हाथ-पाँव, डर के मारे धूजने लगे। अब वक़्त का फेर देखकर, ख़वासजी ठाकुर साहब को पाँव-धोक देने लगे। फिर क्या? हमेशा की तरह, वे अपनी-चिकनी-चुपड़ी बातों से ठाकुर साहब को लुभाने की कोशिश करने लगे। उनका कहना था कि, ‘उन्होंने सबसे पहले यहाँ आकर, सेठ साहब की मदद की है।’ मगर ठाकुर साहब, कहाँ उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आने वाले? वे तो ख़वासजी का भेद पहले से ही जानते थे, उनको ख़वासजी कैसे बरगला सकते थे? ठाकुर साहब रहे, चतुर। उन्होंने बाहर से यह बिल्कुल भी नहीं जताया कि, ‘वे ख़वासजी के सारे भेद जान गए हैं।’ बस, वे मुस्कराते हुए ख़वासजी से बोले “ख़वासजी। मैं आपको एक बड़ा इनाम ज़रूर दूंगा, आप रावला पहुँचने पर इस इनाम को लेना भूलना मत।” ख़वासजी तो ठहरे निरे बेवकूफ, वे समझ न सके ‘इसके कहने के पीछे, ठाकुर साहब की बात का क्या अर्थ है?’ बस, वे मूर्ख की तरह बोल उठे “खम्मा घणी, बाबजी। आप देते रहें, और यह आपका दास आपकी दया से लेता रहेगा। मेरा तो अहोभाग्य है, आप जैसे मालिक की दया मुझ ग़रीब पर बनी हुई है। मगर एक सत्य बात आपसे ज़रूर कहूँगा, आख़िर मैंने आपका नमक खाया है हुज़ूर। अगर आप नहीं आते तो, मैं अब-तक इस पापी रमजानिया का माथा काटकर आपके चरणों में रख देता हुज़ूर। अब भले आप पधार ही गए, तो अब...” ख़वासजी की चिकनी-चुपड़ी बात को सुनकर ठाकुर साहब हंस पड़े, और कहने लगे “कुछ नहीं, ख़वासजी। मैंने युद्ध किया, या आपने किया..बात तो एक ही है। बस, अब आप रावला चलिए..वहां एक बड़ा इनाम आपका इन्तिज़ार कर रहा है।”

ठाकुर साहब का दिल तो दया से भरा होने से, यह बात ‘आयी-गयी बात’ बनकर रह गयी। लम्बे वक़्त से, ख़वासजी की लुगाई ठकुराइन साहिबा की सेवा-चाकरी मन लगाकर कर रही थी। अब गर्भवती होने के दौर में, उनको सेवा की बहुत ज़रूरत थी। इस कारण ठकुराइन साहिबा ने बीच में पड़कर, ख़वासजी को माफ़ी दिलवा दी। ख़वासजी के ये दो रूप, भोले इंसानों को कैसे समझ में आते? उन्हें क्या मालुम, घाव खाए हुए सांप को यों खुला छोड़ा नहीं जाता..अगर छोड़ भी दिया जाय, तो वह आदमी को डसे बिना नहीं रहता। ठाकुर साहब के सामने हमेशा वफ़ादार बने रहने का वादा करके, ख़वासजी ने वापस ठाकुर साहब को अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों में ठाकुर साहब को फंसाकर उनकी पुरानी बीती यादें भूला दी। फिर क्या? उनका वापस पहले की तरह, ठाकुर साहब के साथ उठना-बैठना शुरू हो गया।

कई महीने बीत गए, ठकुराइन साहिबा को नमा महिना लग गया। उनका गजाननी पेट उभरकर, बाहर आ गया। ख़वासजी की पत्नि ने दावे के साथ उनको कह रखा था कि, ‘ठकुराइन साहिबा। आप कुंवर साहब को ही, जन्म देंगी।’

वक़्त बीतता गया, एक दिन सेठ मुल्तान मल के भेजे गए समाचार ठाकुर रणजीत सिंह को मिले। ख़त में लिखा था कि, ‘छोरियोँ का विवाह आखातीज को तय हुआ है, आपको कन्यादान के वक़्त गंगाणी आना है।’ अब यह आखातीज तो, चार दिन बाद ही आने वाली..और इधर ठकुराइन साहिबा पूरे दिनों में...न जाने कभी भी, वह अपने संतान को जन्म दे सकती थी। ऐसी स्थिति में, उनको गंगाणी साथ ले जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं। ठकुराइन साहिबा को यहाँ छोड़कर गंगाणी जाना, ठाकुर साहब का दिल नहीं मान रहा था। इसी उधेड़बुन में फंसे, ठाकुर साहब कोई निर्णय कर नहीं पा रहे थे। आख़िर, ठकुराइन साहिबा ने उनको अपनी कसम देकर उनको गंगाणी जाने के लिए तैयार किया।

विवाह के पहले सेठ साहब के पास ख़बर आयी कि, ‘विवाह के वक़्त रमजान खां और तेज़ राज विवाह-स्थल पर आकर रंग में भंग डालेंगे।’ अत: उन्होंने हवेली की सुरुक्षा हेतु, आठ-दस लठैतों को हवेली के आस-पास तैनात कर दिया। यह इंतज़ाम करने के बाद भी उनको आशंका रही कि, ‘ये लठैत युद्ध-कला में निपुण नहीं है, कहीं हमें पराजय का मुख तो न देखना पड़े? अगर ऐसा हो गया तो, सारी कमाई हुई इज्ज़त धूल में मिल जायेगी।’ ऐसी स्थिति में उनको केवल ठाकुर साहब पर ही भरोसा था, आख़िर उन्होंने अपना हरकारा भेजकर उन्हें कहला दिया कि, गंगाणी आते वक़्त वे अपनी पलटन साथ लेते आयें।’

इस तरह ठाकुर साहब ने सेठ साहब की बात का मान रखते हुए, उन्होंने अपनी पलटन के साथ गंगाणी की और कूच किया। मार्ग में गाँव नगरिया के पास उन्हें एक हरकारा मिला, उसने इनको वहां रोककर सूचना दे डाली कि, ‘ठाकुर साहब। रमजान खां के आदमियों ने सेठ साहब की हवेली को चारों ओर से घेर रखा है, अत: सेठ साहब ने कहलाया है कि आप पलटन के साथ शीघ्र हवेली की ओर कूच करें।’ हरकारे द्वारा दिए गए सन्देश को सुनकर, ठाकुर साहब को कतई संदेह नहीं हुआ कि यह हरकारा सच्चा है या दुश्मन का भेजा हुआ झूठा आदमी है..जो उनको मार्ग से भटकाकर सही जगह जाने से रोक रहा है..?’ बस, फिर क्या? बिना सोचे-समझे ठाकुर साहब सरवरे-पाल वाले मार्ग को छोड़कर, वे पलटन सहित हवेली की ओर बढ़ गए। हवेली में पहुंचते ही, उन्होंने क्या देखा? हवेली पूरी तरह सुरुक्षित है, और उनको कहीं भी रमजान खां के आदमी नज़र नहीं आये। केवल आठ-दस सेठ साहब के लठैत, हवेली की सुरुक्षा में तैनात ज़रूर नज़र आये। सेठ साहब को ठाकुर साहब के आने की इतला मिलते ही, वे झट उनके स्वागत हेतु बाहर आये। तब ठाकुर साहब ने, सेठ साहब से पूछा “सेठ साहब। आज़कल आप मज़हाक़ काफ़ी कर लिया करते हैं? कहिये, कहाँ है रमजान खां के आदमी?” इसके बाद, उन्होंने हरकारे की कही हुई सारी बात विस्तार से कह डाली। सुनकर, सेठ साहब को बहुत अचरच हुआ। उन्होंने कहा “हुज़ूर। मैंने किसी हरकारे को आपके पास नहीं भेजा, और ख़ास तौर उस हरकारे को तो भेजा ही नहीं..जिसने रमजान खां द्वारा हवेली घेरे जाने की बात, आपसे कही है..? मुझे तो लगता है, यह रमजान खां की कोई सोची-समझी चाल है।” सेठ साहब की बात सुनकर, ठाकुर साहब को फ़िक्र होने लगी ‘शायद यह सच्च हो, यह रमजान खां की सोची-समझी चाल हो..?’ वे फ़िक्र करते हुए, वहम मिटाने के लिए, झट सेठ साहब से सवाल कर बैठे “सेठ साहब। दोनों छोरियां कहाँ है? जहां कहीं भी है, उनके साथ रक्षकों को साथ भेजा या नहीं?”

“दोनों छोरियां अपनी सहेलियों के साथ, मंदिर गयी है। ग़लती हो गयी हुज़ूर, किसी एक भी लठैत को भी साथ भेजा नहीं मैंने।” सकुचाते हुए, सेठ साहब बोले।

“यह आपने क्या कर डाला, सेठ साहब? आप जानते नहीं, वह सरवरे-पाळ वाला मंदिर सुनसान जगह पर आया हुआ है। उनको वहां जाने की इजाज़त, आपने कैसे दे डाली? उनकी सुरुक्षा में आपने एक भी आदमी साथ नहीं भेजा, ऐसी मूर्खता कैसे कर डाली आपने?” ठाकुर साहब झुंझलाते हुए बोले। अब सेठ साहब अपनी ग़लती पर पछताने लगे कि, ‘आख़िर उन्होंने बिना पहरेदार, उनको कैसे जाने दिया?’ फिर क्या? वे निग़ाहें नीची करके, चुपचाप खड़े रहे। उन दोनों को फिक्रमंद पाकर, ठाकुर साहब के पास खड़े ख़वासजी ख़ुश नज़र आने लगे। मगर उन्होंने अपने दिल में छाई ख़ुशी ज़ाहिर नहीं होने दी, और ऊपर से ठाकुर साहब को सलाह देते हुए कहने लगे “मालिक। आप काहे फ़िक्र कर रहे हैं, हुज़ूर? अब आप ऐसा कीजिये हुज़ूर कि, कुंवर राम सिंहजी को पूरी पलटन के साथ यहीं हवेली में रोक दीजिये, और फिर अपुन दोनों चलते हैं सरवरे-पाळ।”

ठाकुर साहब को ऐसा लगा, ‘वास्तव में ख़वासजी को भी, उन दोनों छोरियों की फ़िक्र है।’ मगर उनके दिल के अन्दर छिपे कपट को, कौन जान सकता था? फिर क्या? ठाकुर साहब ने उनके साथ सरवरे-पाळ चलने की मंजूरी दे डाली, और वापस घोड़े पर सवार होकर वे ख़वासजी से बोले “चलिए, चलिए ख़वासजी। अब काहे की देर करनी।’ मगर सेठ साहब निकले चतुर, उन्होंने झट घोड़े की लगाम पकड़कर ठाकुर साहब को रोकते हुए कहा “ज़माना ख़राब है, आप अकेले कैसे जा रहे हैं ठाकुर साहब? इस रमजान खां की कुचालों को, कौन समझ सकता है? आप तो मालिक पंद्रह-बीस हथियार-बंद साथियों को साथ लेकर जाएँ, न मालुम क्या मुसीबत आ जाय?”

अपना काम बिगड़ते देख, ख़वासजी सेठ साहब को ज़हरीली नज़रों से देखने लगे, वे होठों में ही सेठ साहब के लिए गालियों की पर्ची निकालने लगे ‘न मालुम कहाँ से आ गया, यह खोड़िला-खाम्पा? नालायक मेरी मेहनत पर पानी डालता जा रहा है?’ फिर क्या? अपना स्वार्थ साधते हुए, ख़वासजी मीठे सुर में ठाकुर साहब से कहने लगे “मालिक। इस पलटन को क्यों तक़लीफ़ देते हैं, आप? हमला होगा, तो हवेली पर होगा। उस मूर्ख गंवार रमजानिये को क्या पत्ता, शादी के पहले वधु पूजा के लिए मंदिर जाया करती है? अपुन तो झट चलते हैं, सरवरे-पाळ। अगर दुश्मन आ गए तो अपुन-दोनों काफ़ी हैं, उनसे लोहा लेने के लिए।”

ठाकुर साहब ने तो ख़वासजी की दी गयी सलाह मान ली, मगर उनका भतीजा राम सिंह माना नहीं। उसने ज़बरदस्ती दस-पंद्रह हथियार-बंद साथियों को, उनके साथ भेज दिए। वहां से ये लोग रवाना हुए, मार्ग में पेट पकड़कर ख़वासजी ठाकुर साहब से बोले “ठाकुर साहब। आते वक़्त बासी राबोड़ी के साथ बाज़रे की रोटी खाकर आया हुज़ूर, अब इस पेट में मरोड़े उठ रहे हैं। हुज़ूर, अब क्या करूँ? बर्दाश्त नहीं होता..दीर्घ-शंका रोकी न जा रही है हुज़ूर। मैं तो अब निपटकर ही आ जाऊंगा, सरवरे-पाळ। आप आगे चलिए, मालिक।” इतना कहकर, ख़वासजी ने घोड़ा रोककर, उसे पेड़ से बाँध दिया। फिर थैली निकालकर, उसमें से लोटा बाहर निकालने का अभिनय करने लगे। दिशा-मैदान जाने की तैयारी करते देख, ठाकुर साहब और उनके साथियों ने अपने घोड़े आगे बढ़ा दिए। पीछे से उन घोड़ों के टापों से उड़ी धूल को देखकर, ख़वासजी मुस्कराने लगे। फिर क्या? उनको कहाँ जाना था, दिशा-मैदान? झट लोटे को थैली में रखकर उस थैली को उन्होंने वापस यथास्थान रख दी, फिर पेड़ से रस्सी खोलकर वे झट घोड़े पर सवार हो गए। फिर वे मुस्कराते हुए कहने लगे मैं वह बोरटी का काँटा हूँ, जो पूरी चमड़ी को लेकर ही बाहर निकलता हूँ। अरे ए ठाकुर, तू मुझे क्या जानता है? मैं तो हूँ, सियासती शतरंज का बेताज़ बादशाह। अब देखना, मेरी सियासती शतरंज की नयी चाल। इतना कहकर, ख़वासजी ने अपने मुंह से बजायी ज़ोर से सीटी। सीटी सुनकर पेड़ों पर बैठे रमजान खां और उसके दो-चार साथी पेड़ों से कूद-कूदकर उनके पास आने लगे।

“ख़वासजी, मुज़रो सा। क्या हाल हैं, आपके?” इतना कहकर, रमजान खां ने थैले से बन्दूक बाहर निकालकर उसे ख़वासजी को थमायी। ख़वासजी ने उस बन्दूक को हाथ में लेकर, उसके कल-पूर्जों की जांच करने लगे। जांच करते-करते, वे रमजान खां से बोले “मेरे हाल तो ठीक है, खां साहब। मुझे तो इस बन्दूक की हालत देखनी होगी, काम पड़े तब यह गोली दागेगी या नहीं..या टांय-टांय फिस्स होकर रह जायेगी?”

“लाहोल विल कूव्वत। कैसी बात कर रहे हो, ख़वासजी? क्या आपको मुझ पर, इतना भी भरोसा नहीं? अरे जनाब, ख़ालिस माल है। फिरंगी से ख़रीदकर लाया हूँ।” रमजान खां बोला।

“इस बात को आप जानते हैं, खां साहब। आपको ऐसी चीज़ें इस्तेमाल करने का अच्छा-ख़ासा तुज़ुर्बा ठहरा। मैं बेचारा भोला जीव क्या जानूं?” खंखारकर, ख़वासजी आगे बोले “आपको क्या मालुम, मैं तो बेचारा दोनों तरफ़ से मारा जाऊंगा? पोल खुल गयी तो यह ठाकुर बाज़ की तरह एक ही झपट्टा मारकर, मुझे बेमौत मार डालेगा। नहीं तो, ठाकुर के मरने के बाद इसका भतीजा राम सिंह मुझे किसी हालत में छोड़ने वाला नहीं।”

“अब इन बातों को दोहराने से कोई मतलब नहीं, ख़वासजी। आपको मालुम नहीं कि, मैंने कई चांदी के कलदार आपको नज़र किये हैं, मुफ़्त में मैं आपसे काम नहीं करवा रहा हूँ। अब चलिए, यहाँ से। मंदिर अगर देरी से पहुंचे तो, यह ठाकुर इन छोरियों को सेठ की हवेली में पहुंचा देगा।” इतना कहने के बाद, रमजान खां मुंह से लम्बी सीटी बजाई। सीटी की आवाज़ सुनकर झाड़ियों के पीछे घास चार रहे घोड़े दौड़कर नज़दीक आ गए, और हिनहिनाने लगे। फिर क्या? सभी घोड़ों पर सवार होकर, सरवरे-पाळ जाने वाली पगदंडी पर अपने घौड़े दौड़ाने लगे।

सरवरे-पाळ पर बने मंदिर की घंटियाँ बज रही थी। मंदिर के बाहर स्थित पेड़ों पर बैठी कोयलें कुहुक-कुहुक के मीठे सुर निकालती हुई, इस शांत वातावरण को संगीत-मय बना रही थी। कोयलों के मीठे सुरों के साथ, मंदिर में पूजा करने आयी जवान छोरियों की किलकारियां गूंज़ रही थी। छोरियों के हाथ में थामे पूजा के थाल लेकर पुजारी ने देवता की पूजा की, फिर उसने उनके थाल में प्रसाद डालकर थाल वापस छोरियों को लौटाए। पुजारी ने सभी छोरियों को आशीर्वाद देकर, उन्हें रुख़्सत दी। मंदिर की सीढ़ियां उतरते वक़्त, कमला और विमला की सहेलियां उनसे मज़हाक़ करती जा रही थी। वे उन दोनों को छेड़ती हुई गीत गाने लगी “लोग कैवै सासरो जैळ हुवे। पण म्हारा सासरा मायं म्हारी सास मां जैड़ी हेज़ करै। म्हारा ससुरोजी म्हने देख’र, घणा राज़ी होवै। म्हने कदेई बेटा कैवै, नै कदेई घर री लिछमी। बींद, म्हारी जीवन री जोत घणो ई लाड करै। म्हारी जेठाणी, म्हने बैन ज्यूं समझे सागै जिमावे, कवा देवै ननंद म्हारी सखी री ज्यूं, सागै रमै हंसे नै हंसावै। सगळा आस-पड़ोसी घणा ई आसिरवचन देवै मै तौ कैवूं, म्हारो सासरियो जैळ नहीं लागै, सुरग लागै।”

मंदिर की आख़िरी सीढ़ी उतरते ही उन छोरियों को ऐसा लगा कि, ‘पास पेड़ पर बैठा कोई इंसान या जानवर, डालियों के पत्तों को कोई झकझोड़ रहा है।’ तभी उनको बड़ी डाली पर बैठा, तेज़ राज नज़र आया। वह उन पेड़ के पत्तों से मुंह बाहर निकालकर, छोरियों को सुनाता हुआ ज़ोर से वहशी बात कहने लगा “ससुराल स्वर्ग लगता है..तो आ जा रमकूड़ी-झमकूड़ी मेरे घर, तूझे गहनों से लाद दूंगा।”

ये वहशी सुर सुनते ही इन छोरियों की आँखें गुस्से से भभकते अंगारे की तरह लाल हो गयी, वे सभी तेज़ राज को घृणा से देखने लगी। मगर इन सुनसान स्थान पर इस कमबख़्त के बोल सुनकर, उनके दिल में वहम का कीड़ा रेंगने लगा। वे सभी छोरियें सोचने लगी ‘अब हम अबला नारियां, इस सुनसान में इस कुदीठ राक्षस से अपनी इज्ज़त की रक्षा कैसे कर पायेंगी? यह सुन्दर बालाओं का ज़िंदा मांस नोचने वाला गीद अकेले इस जगह आने पर वाला नहीं, ज़रूर यह पापी रमजान खां और उसके शैतान साथियों के साथ आया होगा?’ सोचती-सोचती चिंता में डूबी इन छोरियों की आँखें नाम हो गयी, और आंसू उनके रुख़सारों पर बहने लगे। फिर वे हिम्मत करके, उन आंसूओं को पल्ले से पोंछती हुई माता रानी को याद करती हुई गुहार करने लगी “ए माता रानी। हमारी रक्षा करती हुई, इस दुश्मन को मार गिरा। हम सभी अबला नारियां, तेरी शरण में हैं।”

माता रानी से प्रार्थना क्या की, इन छोरियों ने? तत्काल चमत्कार हुआ, ईश्वर जानें न मालुम कहाँ से एक काला नाग सरकता हुआ उसी डाल पर आया जहां वह दुष्ट बैठा था। फिर क्या? धबाक करता, उसकी पिंडी काट खाया। दर्द के मारे वह पापी ज़ोर से चिल्लाया, और उसके बदन में नाग का ज़हर चढ़ने लगा। बिना पानी की मछली की तरह, वह तड़फ़-तड़फ़कर मर गया। तत्काल उसका मृत शरीर, धड़ाम से ज़मीन पर गिरा। उस पापी का शरीर जैसे ही नीचे गिरा, और उसके गिरने की आवाज़ गूंज़ उठी। यह आवाज़ सुनते ही, पेड़ की डालियों और पत्तों के झुरमुट में छिपा रमजानियां घबराकर ज़ोर से चिल्लाता हुआ बोला “या अली। यह सेठ का छोरा गया, काम से।”

पेड़ों के नज़दीक आ रहे ठाकुर साहब और उनके साथियों ने जैसे ही रमजान खां की चीत्कार सुनी, तत्काल उन्होंने अपने घोड़े रोके और यह देखने के लिए अपनी निग़ाहें दौड़ाने लगे कि, ‘दुश्मन के आदमी, कहाँ-कहाँ छुपकर बैठे हैं?’ मगर ठाकुर साहब थे चतुर, और युद्ध में निपुण..जिस ओर से रमजान खां की आवाज़ आयी उन्होंने उसी दिशा में तेज़ी से जम्भिया फेंका। जो पेड़ की डाल पर बैठे रमजान खां के कंधे को छूता हुआ, पास बैठे उसके एक साथी की छाती के अन्दर जा घुसा। वह किलियाता हुआ, आकर ज़मीन पर गिर पड़ा। अब शत्रु के छिपने का स्थान मालुम होते ही, ठाकुर साहब और उनके साथी हो गए सावधान। उधर अपने दो आदमियों के मारे जाने से, रमजान खां के गुस्से का कोई पार नहीं। उसने आव देखा न ताव, और झट तरकश निकालकर बाणों की बौछार कर बैठा। उसके बाणों की बौछार से बचते हुए, ठाकुर साहब एक और खड़े हो गए। और उनके साथी, चुपचाप पेड़ों पर चढ़ गए। फिर क्या? उन्होंने झट वहां छिपे रमजान खां के आदमियों को, पेड़ों से नीचे गिराना शुरू किया। जैसे ही रमजान खां के आदमी ज़मीन से उठते, और उसी वक़्त ठाकुर साहब की नंगी तलवार तैयार रहती उनका खून पीने। अचानक झाड़ियों में छुपे ख़वासजी को वार करने का मौक़ा मिल गया, उन्होंने ठाकुर साहब को निशाना बनाते हुए, अपनी पूरी ताकत लगाकर तेज़ी से जम्भिया फेंका। मगर, यह क्या? वह जम्भिया तो ठाकुर साहब को स्पर्श करता हुआ रमजान खां के पाँव पर जा लगा..जो पेड़ से उतरकर नीचे आ रहा था। इस जम्भिये का वार खाकर रमजान खां सीधा आकर गिरा, ज़मीन पर। वहां ठाकुर साहब तैयार खड़े थे, उससे लोहा लेने। झट उन्होंने तलवार की नोक उसकी छाती पर लगाकर, गरज़ते हुए सिंह की तरह बोल उठे “अब बोल, पापी। अब तेरा क्या करूँ? बोल, तेरी बलि यहीं दे दूं माताजी को?”

ठाकुर साहब की गूंज़ती आवाज़ सुनकर, वे भयभीत छोरियां ठाकुर साहब के नज़दीक आने लगी। ठाकुर साहब ने उन छोरियों को देखकर, अपने दो घुड़सवार साथियों को हुक्म दे डाला “बहादुरों, इन छोरियों को सेठ साहब की हवेली में पहुंचाकर आ जाओ।” सभी छोरियां ठाकुर साहब के साथियों के साथ जाने के लिए तैयार हो गयी, मगर सेठ साहब की छोटी बेटी विमला चलने से इनकार करती हुई वह कहने लगी “अन्नदाता। मेरी एक सहेली बदन कौर सरवरे-तट पर पानी भरने गयी है, उसको आने दो..फिर मैं उसके साथ हवेली जाऊंगी।” आख़िर, विमला को छोड़, सभी छोरियां सिपाईयों के साथ चली गयी। तब-तक ठाकुर साहब का पूरा ध्यान इन छोरियों की ओर था, इसका फ़ायदा उठाकर रमजान खां अपनी छाती पर रखी तलवार की नोक को दूर करके...वह झट उठ खड़ा हो गया। फिर चतुराई से उनके पीछे जाकर, उनकी पीठ पर कटारी चुभाता हुआ अपने साथियों को हुक्म दे डाला “देख लो, साथियों। अब यह ठाकुर तो अपने नियंत्रण में आ गया, अब तुम इस विमला को बैठाओ घोड़े पर और सभी चलो सेठ की हवेली की तरफ़। वहां मार्ग में, उस दूसरी छोरी कमला को भी उठा लेंगे।”

यह सुनते ही ठाकुर साहब का खून खौलने लगा, क्रोध के मारे उनकी आँखें भभकते अंगारों की तरह लाल-लाल दिखाई देने लगी। फिर क्या? उन्होंने चुभती कटारी की, बिल्कुल परवाह न की। तत्काल उन्होंने धबाक करता अपनी कोहनी का वार उसके पेट में ऐसा किया कि, उसकी कटारी उसके हाथ से छूटकर ज़मीन पर जा गिरी...और वह पापी, चारों खाना चित्त होकर धूल चाटने लगा। अब तो ठाकुर साहब हनुमान की तरह ज़ोर-ज़ोर से गरज़ने लगे, और उन्होंने अपने दोनों हाथों से पहलवान की तरह ज़मीन पर पड़े रमजान खां को उठाया..फिर उसे कई क़दम दूर, गेंद की तरह उछाल दिया। जो जाकर झाड़ियों के पीछे, छिपकर बैठे ख़वासजी के ऊपर गिरा। यह सवा-मन का बोझ, बेचारे दुबले-पतले ख़वासजी कैसे संभाल पाते? बेचारे दर्द से किलियाते हुए, नीचे गिरकर धूल चाटने लगे। इस दुष्कृत्य को ख़वासजी बरदाश्त नहीं कर पाए, क्रोध से उनका बदन कांपने लगा। अपने-ऊपर नियंत्रण खो बैठे..फिर यह भी नहीं देखा, उन पर गिरने वाला आदमी आख़िर है कौन? फटाक से उन्होंने रमजान खां को ठाकुर साहब का आदमी समझकर, उसका गिरेबान पकड़ लिया। मगर यह सूरमा रमजानिया था, कोई लल्लू-पंजू नहीं। यह तो ठहरा बादशाह की फौज़ का खूंखार योद्धा, जिसने कई लड़ाइयां लड़ी थी अपने मामू के रसाले में रहते हुए। वह एक मामूली ख़वास के हाथ, कैसे मार खाता? उसने झट ख़वासजी के पेट में घुद्दा मारकर, अपना गिरेबान छुड़ा लिया। फिर गुस्से से, धबो-धब ख़वासजी को मुक्कों और लातों से पीटने लगा। तभी हवा का झोंका आया और झाड़ियों पत्तियां हिलने लगी, सूरज की किरणें आकर रमजान खां के चेहरे पर गिरी। उसका चेहरा अब साफ़-साफ़ नज़र आने लगा। उस चेहरे को देखते ही, ख़वासजी उसे पहचान गए। और दर्द के मारे, चिल्लाकर बोल उठे “मालिक। यह क्या कर रहे हैं, आप? मुझे क्यों कूट रहे हैं, आप? मैं तो हुज़ूर, आपका सेवक हूँ।” फिर क्या? पीटना छोड़कर, रमजान खां अपने लबों पर मुस्कान फैलाता हुआ बोला “मार खाने के पहले बोल देते, ख़वासजी। तो, आपका क्या जाता? यों तो रुपये-पैसे लेते आपकी ज़बान थकती नहीं, तब आप यही कहते रहते हैं ‘रुपये कम है, और दीजिएगा’ और मार खाकर आप यह कैसे कह रहे हैं कि, आपको ज़्यादा मार पड़ी है? अब भी आप रुपये लेते वक़्त जैसे कहते थे, उसी तरह कहिये ‘और पीटीए, हुज़ूर।’ समझे, ख़वासजी?” इतना कहकर, रमजान खां ठहाका लगाकर हंसने लगा। अपने दिल में, यह सोचने लगा कि यह कैसा इंसान है, जिसे लक्ष्मी के सिवाय कुछ नज़र नहीं आता? फ़रिश्ते जैसे ठाकुर का नमक खाकर, उनके साथ नमक-हरामी करता जा रहां है यह इंसान। इस प्राणी के लिए, रब्त की कोई क़ीमत नहीं? विचार कर रहे रमजान खां का कंधा झंझोड़कर, ख़वासजी कहने लगे “क्या कर रहे हो, मालिक? यहाँ खड़े रह गए आप, तो फिर सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। अभी ठाकुर साहब उस छोरी को लेकर यहाँ से निकल जायेंगे, तब आप अपने हाथ मलते रह जायेंगे।” यह सुनते ही, रमजान खां चेतन हुआ। फिर क्या? झट उसने झाड़ियों के पीछे छुपे हुए अपने साथियों को बुलाने के लिए, लम्बी सीटी बजाई। सीटी सुनकर झाड़ियों के पीछे छिपे उसके साथी झट निकलकर बाहर आये, और रमजान खां का इशारा पाकर एक साथ उन लोगों ने ठाकुर साहब पर धावा बोल दिया। अब ठाकुर साहब चारों तरफ़ से, रमजान खां के आदमियों से घिर गए। फिर क्या? नंगी तलवार लिए रमजान खां, ठाकुर साहब के सन्मुख आकर खड़ा हो गया। इतने सारे शत्रुओं को एक साथ अपने ऊपर हमला करते देखकर भी, ठाकुर साहब घबराए नहीं...क्योंकि, उन्होंने तो धर्म का बीड़ा उठा रखा था..तब उनको ऐसा लगा..देवी भवानी उनके साथ है। बस, वे मां भवानी को आव्हान करते हुए शत्रुओं से ऐसे टूट पड़े, मानों उनके बदन में भैरव देव आकर बस गए हो। बस, फिर क्या? वे ज़ोश में आकर, भैरव देव की तरह पापियों को धाराशायी करने में जुट गए। अब तो चारों तरफ़ दुश्मनों की लाशें बिछने लगी, और उनके रक्त से मार्ग लाल हो गया। गिनती में ठाकुर साहब के सिपाही पहले ही कम थे, और अब झाड़ियों से बाहर निकले इन रमजान खां के आदमियों से वे थोड़े सिपाही कब-तक लोहा लेते? धीरे-धीरे ठाकुर साहब के आदमियों की संख्यां घटती-घटती, दो पर आकर टिक गयी। अब संजोग की बात, विमला की सहेली सरोवर से घड़ा भरकर वहां आ गयी। बस, फिर क्या? उन्होंने झट, उन दोनों बचे अपने आदमियों को हुक्म दे डाला “बहादुरों। जाओ, इन दोनों छोरियों को सेठ साहब की हवेली में पहुंचा दो।” मगर यह पापी रमजानियाँ, यों कैसे उन छोरियों को वहां से रवाना होने देता? वह उनके साथियों का रास्ता रोककर खड़ा हो गया, और हूंकारकर ज़ोर से कहने लगा “अरे ए ठाकुर। छोरियों को, कहाँ भेजता है? पहले तू, मुझसे वीरों की तरह लोहा ले।” इतना सुनते ही, ठाकुर साहब ने घाव खाए हुए केसरी सिंह नाहर की तरह गरज़ते हुए माताजी का जय-नाद किया। फिर उन्होंने अपनी तलवार से, दुश्मनों पर ऐसे टूट पड़े मानों अकेला घायल शेर ज़रखों [हाईना] के झुण्ड पर टूट पड़ा हो? उनके तगड़े वार से डरकर, दुश्मन के आदमी बीस क़दम पीछे हट गए। फिर क्या? मौक़ा हाथ में आते ही, वे उस पापी के ऊपर शेर की तरह छलांग लगा बैठे। ऐसा लगा, मानों चामुंडा माताजी का सिंह महिषासुर राक्षस के ऊपर झपट पड़ा हो..? बेचारे रमजान खां को ऐसा वसूक नहीं था कि, घाव खाया हुआ ठाकुर सिंह की तरह उछलकर उस पर आक्रमण कर बैठेगा? भयाक्रांत होकर वह कुछ न कर पाया, और उसके हाथ में थामी तलवार ज़मीन पर गिर पड़ी। अब ठाकुर साहब के आदमियों के जाने का रास्ता खुल गया, और ठाकुर साहब झट रमजान खां को नीचे ज़मीन पर गिराकर उसकी छाती पर पाँव रखकर खड़े हो गए। फिर तलवार को हवा में लहराकर, ठाकुर साहब ने अपने दोनों साथियों को दोनों छोरियों को यहाँ से ले जाने का इशारा किया। मगर, वे टस-से मस न हुए। और हाथ जोड़कर, उनसे कहने लगे “अन्नदाता। आपको अकेले छोड़कर जाने में, हमारी आत्मा नहीं मानती। हमारा यह धर्म नहीं कि, हम आपको युद्ध में अकेले छोड़कर यहाँ से चले जाए।” तब ठाकुर साहब ने, माताजी की कसम डालते हुए उनसे कहा ‘यह धर्म का काम है, इसमें मेरे बलिदान की ज़रूरत है। अगर मैं धर्म का काम पूरा करता मर गया तो, मुझे कोई ग़म नहीं। तुम दोनों को चामुंडा माताजी की कसम है, तुम दोनों इन छोरियों को लेकर इसी वक़्त यहाँ से सेठ साहब की हवेली की ओर कूच करो। इन दोनों छोरियों को सेठ साहब को संभलाकर, धर्म का काम करो।” फिर क्या? उन दोनों छोरियों को लेकर, वे दोनों चले गए। उनके चले जाने के बाद, ठाकुर साहब ने धीरज धारण किया कि ‘अब धर्म का काम हो गया। अब उनको, अपनी इस जान की की कोई परवाह नहीं।’ जोश में आकर, ठाकुर साहब की भुजाएं फ़ड़कने लगी, उनका खांडा खड़कने लगा। अब चारों ओर से, रमजान खां के आदमी उनको घेरते हुए आगे बढ़ने लगे। इधर जान हथेली पर लिए ठाकुर साहब, माताजी के केसरी सिंह नाहर की भांति रमजान खां के आदमियों पर टूट पड़े और उनकी खून की प्यासी तलवार से शत्रुओं के मुंड कटते गए, थोड़ी देर में ही रमजान खां के आदमियों की लाशें बिछ गयी। ठाकुर रूपी केसरी सिंह नाहर का यह रूप देखकर, रमजान खां के बचे हुए आदमी रणक्षेत्र छोड़कर भाग गए। अब खून से भरे खांडे को लिए ठाकुर साहब, गंगाणी जाने वाले मार्ग के बीच में खड़े हो गए। अब शेष ज़िंदा रहे रमजान खां और ख़वासजी, इस घाव खाए केसरी सिंह नाहर से कैसे मुक़ाबला करते? ठाकुर साहब तो उनको, साक्षात यम राज ही नज़र आ रहे थे। इस तरह इन कुदीठ आदमियों का ताकत के ज़ोर पर, ठाकुर साहब से लोहा लेना असंभव लगने लगा। तब दोनों छल-कपट से, ठाकुर साहब को ख़त्म करने की चाल चलने लगे। फिर क्या? झाड़ियों के पीछे छुपा हुआ रमजान खां, तरकश से तीर छोड़ने लगा। मगर ठाकुर साहब का डर उसके दीमाग़ पर ऐसा छा गया कि, वह ठाकुर साहब पर सही निशाना लगा नहीं सका। उसके छोड़े गए तीर ठाकुर साहब के स्थान पर, पेड़ों के पत्तों को भेदते गए। पत्तों के झुरमुट में बैठी चिड़ियाएँ, घोंसलों को छोड़कर सरणाटे से उड़ने लगी...और आसमान, उनके चीं चीं करती गगन-भेदी आवाज़ों से गूंज़ उठा। इस तरह, रमजान खां का वार ख़ाली चला गया। अब यह छली रमजान खां, क्या करता? वह छुपता-छुपता झाड़ियों से बाहर निकला, और बिना आवाज़ किये उसने ठाकुर साहब की पीठ पर जम्भिया फेंका। मगर वह जम्भिया उनकी पीठ पर न लगकर, उनके कंधे पर जा लगा। जम्भिया लगते ही, ठाकुर साहब सिंह की तरह ज़ोर से दहाड़ते हुए बोले “यह कैसा सियार है, जो पीछे से वार कर रहा है? अपनी मां का दूध पीया हो तो, सामने आकर युद्ध कर।” इतना कहकर ठाकुर साहब ने, कंधे में चुभे जम्भिये को इस तरह बाहर निकाला...जैसे वे किसी कांटे को, बदन से बाहर निकाल रहे हो? जम्भिये को बाहर निकालकर, उसे तुरंत उसी दिशा में वापस फेंका...जिस दिशा से वह जम्भिया आया था। फिर क्या? वह जम्भिया सीधा आकर, रमजान खां के पाँव पर तेज़ी से आकर ऐसे लगा, लगते ही उसके पाँव से खून के फ़व्वारे छूट गए। इस तरह वह चोटिल होकर, कराह उठा। फिर क्या? रमजान खां दर्द के मारे किलियावता हुआ वहां से भागा, और वापस जाकर झाड़ियों के पीछे छुप गया। अब ठाकुर साहब अपने घोड़े पर सवार हो गए, और उन छोरियों के हवेली पहुँच जाने का इन्तिज़ार करने लगे। वे सोचने लगे “शायद राम सिंह पलटन के योद्धाओं को यहाँ भेजता हो, मदद के लिए..तो मुझे अब मदद आने की प्रतीक्षा करनी होगी।”

काफ़ी वक़्त बीत जाने के बाद ठाकुर साहब को दूर से घोड़े की टापों की आवाज़ सुनाई देने लगी, आसमान में धूल के गुब्बार देखकर ठाकुर साहब ने यही समझा कि ‘शायद राम सिंह ने, मदद के लिए आदमी भेजे होंगे..?’

आसमान में धूल के गुब्बार को देखकर, रमजान खां ने ख़वासजी के कंधे पर धोल जमाकर कहा “यह बन्दूक मैंने, आपको आख़िर दी क्यों? इससे आप पालतू-पशुओं के रेवड़ को हाकेंगे, या चिड़िया का शिकार करेंगे? या फिर, इसे चलाने के लिए आपको अलग से रुपये दूं...क्या?’ यह सुनते ही, ख़वासजी अपने लबों पर मुस्कान फैलाते हुए कहने लगे “खां साहब, क्यों पागलों जैसी बातें करते हैं आप? इस ठाकुर को मारने के लिए, मेरी लाठी ही बहुत है। फिर काहे बन्दूक की गोलियां ख़र्च करनी, जानते नहीं कारतूस कितने महंगे हैं? ये गोलियां तो तब काम आयेगी, जब हमारा सामना राम सिंह से होगा।” ख़वासजी की बात सुनकर, रमजान खां अपना सर धुनने लगा, और बोला “या ख़ुदा। क्यों तूने इस कंजूस का साथ करवाया, मुझे? सामने मौत नज़र आ रही है, और यह मूर्ख बन्दूक की गोलियां बचाने की बात कर रहा है? यह पागल इतना भी नहीं समझ रहा है, अपने सभी आदमी युद्ध में काम आ गए। हाय अल्लाह, अब यह पागल ख़ुद भी मरेगा..और मुझको भी, मौत के मुंह में डाल देगा। अब यह मेरी, क्या मदद करेगा?”

आख़िर रमजान खां परेशान होकर ख़वासजी के हाथ में थामी बन्दूक को छीन ली, और उससे एक हवाई फायर कर बैठा। पेड़ों की डालियों पर बैठे परिंदे, फर्र-फर्र करते एक साथ आसमान में उड़े। आवाज़ सुनकर ठाकुर साहब अपनी निग़ाहें इधर-उधर डालते हुए, गरज़ना करते हुए बोल उठे “इधर सामने आ, कायरों की तरह पीछे से बन्दूक काहे चला रहा है, नाज़र?” ठाकुर साहब की गरज़ती आवाज़ सुनकर, रमजान खां के पाँव धूजने लगे...और वह सोचने लगा कि, इस सूरमा के सामने आख़िर जाएँ कैसे? उसके पास जाना तो केवल मौत के मुंह में जाना है।” फिर क्या? झट उसने ख़वासजी को बन्दूक थमाकर, उनको दिया एक ज़ोर का धक्का। जिससे बेचारे ख़वासजी, झाड़ियों से बाहर आकर ओंधे-मुंह गिरे। फिर लड़खड़ाते हुए, ठाकुर साहब के समीप आकर खड़े हो गए। उनके हाथ में बन्दूक देखकर, ठाकुर साहब को हंसी आ गयी। तब वे किसी तरह, अपनी हंसी पर क़ाबू करके बोले “अरे मेरे बाप। आप हो क्या? क्या कर रहे हो, ख़वासजी? अभी क्यों चांदमारी कर रहे हो, बन्दूक से? चिड़िया का शिकार कर रहे हो, क्या? या कुंवर साहब के जन्म होने की खुशी में, अभी से पहले हवा में गोलियां दाग रहे हो? अरे ख़वासजी आप इतना भी नहीं जानते, अभी-तक कुंवर साहब का जन्म नहीं हुआ है?’

कुंवर साहब के जन्म होने की बात याद दिलाकर, ठाकुर साहब तो ठहाके लगाकर हंस पड़े। इन ठहाकों से, ख़वासजी का दिल जल उठा। उनके दिमाग़ में यह बात चक्कर काटने लगी कि, ‘अरे रामा पीर, यह क्या? अभी-तक ठाकुर साहब, मेरे द्वारा किये गए छल-कपट से अनजान हैं? अच्छा हुआ, मेरे द्वारा किया जा रहा छल-कपट इनको मालुम नहीं..फिर क्यों नहीं, ठाकुर साहब का ध्यान अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों में लगा दिया जाय? तब रमजान खां को भी मौक़ा मिल जाएगा, ठाकुर साहब पर वार करने का।’ इतना सोचकर, ख़वासजी ने अपना दिल मज़बूत किया। फिर, वे ठाकुर साहब से कहने लगे “ठाकुर साहब। मुझे आपकी बहुत फ़िक्र लगी रहती है, बाबजी। उस डाल पर बैठे काणे कौए पर निशाना लगाकर मैंने गोली दागी थी, हुज़ूर। मुझे डर था, कहीं वह कौआ बीट करके आपके उज़ले धवल वस्त्रों को ख़राब न कर डाले..? गोली दागते ही वह कमबख़्त तो उड़ गया, मगर मेरे जैसे भोले आदमी के ऊपर बीट डालकर मेरे कपड़ों को ख़राब करता गया।” ख़वासजी की भोली-भोली बात सुनकर ठाकुर साहब को फिर हंसी आ गयी, इस दफ़े वे खुलकर ज़ोर से हँसे। फिर उन्होंने गंभीर होकर, ख़वासजी से कहा ख़वासजी। वस्त्र मैले हो जाए तो वस्त्र धोकर साफ़ किये जा सकते हैं, मगर आदमी का दिल मैला नहीं होना चाहिए। क्या पत्ता? मैला दिल रखने वाला आदमी, कभी भी धोखा दे सकता है।इतना कहकर ठाकुर साहब वापस मुद्दे पर आ गए, और उनसे कहने लगे “ख़वासजी। अब आप ऐसा कीजिये, यहाँ खड़े-खड़े देखते रहिये ‘यह रमजान खां कहाँ छुपा हुआ है?’ क्या करें, ख़वासजी? आज़कल तो दुश्मन माया-मच्छेन्द्र बन गए हैं..एक पल में नज़र आता है, दूसरे पल में गायब।” इतना कहकर, ठाकुर साहब ठहाका लगाकर ज़ोर से हंस पड़े।

बेचारे ठाकुर साहब को, क्या मालुम? ‘यह हंसी उनकी ज़िंदगी की अंतिम हंसी होगी। यहाँ तो स्थान-स्थान पर छल-कपट करने वाले इंसान हैं, वहां भोले-भाले और क़ायदे से चलने वाले इंसानों की ज़िंदगी को इन दुष्ट लोगों ने दूभर बना दी है।’ फिर क्या? ख़वासजी पर भरोसा करके ठाकुर साहब ने पीछे देखना बंद कर डाला, उनको वसूक [भरोसा] था ख़वासजी पर..फिर, पीछे क्या देखना? वे तो पूरा ध्यान, सामने से आ रहे घुड़सवार पर दे रहे थे। उधर उस पापी रमजान खां से, रहा नहीं गया। झट झाड़ी से मुंह बाहर निकालकर, वह ख़वासजी को ज़हरीली नज़रों से देखने लगा। जैसे ही उसकी नज़रें ख़वासजी से मिली..उसी वक़्त उसने ख़वासजी को लालच में डालने के लिए, उनकी ओर चांदी के कलदारों से भरी थैली फेंक दी। थैली फेंककर, उसने ठाकुर साहब को ख़त्म करने का इशारा कर डाला।

खनक-खनक की आवाज़ करती जैसे ही थैली ख़वासजी के पास आकर गिरी, उस आवाज़ को सुनकर ठाकुर साहब बोले “ख़वासजी। क्या गिरा, देखना तो..!”

ख़वासजी ने झट थैली उठाकर, अपनी कमीज़ पर लगे कमर-पेटी में छिपा दी। फिर, वे बोले “कुछ नहीं, ठाकुर साहब। मैं मुस्तेदी से खड़ा हूँ हुज़ूर, आप फ़िक्र न करें। आम के पेड़ से, पका हुआ आम गिरा है।” सुनकर, ठाकुर साहब बोले “तब आम आप ही खा लीजिये, ख़वासजी। आप पीछे खड़े ही हैं, फिर मुझे पीछे क्या देखना? मुझे किस बात की फ़िक्र...”

मुंह से इतना ही कहा ठाकुर साहब ने, और अगले शब्द उनके मुख से बाहर निकल न पाए। ख़वासजी की बन्दूक से छूटी गोली उनकी कमर में जा लगी। गोली लगते ही उनके मुख से दर्द के बोल निकल पड़े। पीछे मुड़कर ठाकुर साहब ने हरामी ख़वासजी को घृणा से देखा, और अब उनको समझ में आ गया कि, ‘इस ख़िलक़त में कौन दोस्त है, और कौन दुश्मन? मगर, अब इसकी पहचान कैसे करें? इस ख़िलक़त, का क्या भरोसा? यह विचार उनके मानस में, हिलोरे लेने लगा। आगे से इस ख़िलक़त में ऐसा नमकहराम न पैदा हो, और न कोई करेगा थाली में छेद। यह सीख देने के लिए उन्होंने कमर-पेटी से तत्काल कटारी बाहर निकाली, और उस कटारी को ख़वासजी की एक आँख का निशाना बनाकर फेंकी। तुरंत वह कटारी, ख़वासजी की दायी आँख में जा घुसी। उस आँख से, तत्काल झर्रर-झर्रर करता लोही बहने लगा। तभी ठाकुर साहब की गरज़ती हुई दहाड़, उनको सुनायी दी “रे नमकहराम। आज़-तक मैं तुझको माफ़ करता आया, तेरी औरत के कारण। उस बेचारी ने ठकुराइन साहिबा की सेवा निस्वार्थ भाव से की है, और आगे भी वह करती जा रही है। तेरी सभी करतूतों से मैं वाकिफ़ था, मगर तेरी औरत को सुहागिन रखने के ख़ातिर तुझको आज़-तक माफ़ करता आया। अब भी मैं तूझे जान से नहीं मार रहा हूँ, मगर तूझे सीख देकर इस ख़िलक़त से जा रहा हूँ, जब भी तू इस काणी आँख पर हाथ फेरेगा...तब तुझको, तेरी की गयी सारी करतूतें आँखों के सामने दिखाई देगी।” दर्द के मारे, ठाकुर साहब आगे बोल न पाए। फिर वे वापस पीछे मुड़कर, सामने से आ रहे घुड़सवार को देखने लगे। बस यही मौक़ा ख़वासजी को मिल गया, गोलियां दागने का। उनको वहम हो गया, ‘अगर ठाकुर अपने वादे से मुकर गया तो, वह उसकी जीवन-लीला भी समाप्त कर सकता है।’ यह सोचकर उन्होंने ठाकुर साहब के ऊपर बन्दूक से तड़ा-तड़ गोलियां दाग दी, ये सारी गोलियां ठाकुर साहब की पीठ को भेदती गयी। ऐसा लगा, मानों इस कलयुग में भी ठाकुर रणजीत सिंह रूपी भीष्म पितामह मौज़ूद है..जो ख़वासजी रूपी शिखंडी की छोड़ी गयी गोलियों को पीठ पर झेलते हुए, अब मृत्यु-शैय्या पर सोने जा रहे हैं। तभी लोही से लथपथ ठाकुर साहब को, सरवरे-पाल से आ रहे घुड़सवार की धुंधली-धुंधली सूरत नज़र आने लगी।

“बधाई हो, जुहारजी। ठकुराइन साहिबा ने सुन्दर पुत्र को जन्म दिया है। खम्मा घणी, बाबजी।” ठाकुर साहब को बधाई-सन्देश देने के लिए, वह घुड़सवार उनके नज़दीक आया...और घोड़े से उतरकर, उसने झुककर उनको सलाम किया। घुड़सवार से यह शुभ-समाचार पाकर ठाकुर साहब के लबों पर मुस्कान छा गयी, मगर उनमें अब बोलने की ताकत नहीं रही। उनके नयनों के आगे तीज़ा बाई का चित्र छा गया, और उनके कानों में तीज़ा बाई के कहे बोल गूंज़ने लगे - अन्नदाता। कुंवर साहब का जन्म होने के बाद, मुझे आपके जीवन की डोर पर ख़तरा मंडराता हुआ दिखाई दे रहा है। क्या कहूं, आपका दिल-दरियाव होने का स्वभाव छुपे हुए दुश्मनों को आप पर वार करने का मौक़ा देता रहेगा। मेरी आपसे प्रार्थना है, आप किसी कुपात्र पर दया न करें। अब ठाकुर साहब को भान होने लगा कि, तीज़ा बाई की भविष्यवाणी सत्य साबित होने जा रही है। इस कुपात्र की काली करतूत देखकर, उनके दिल में एक यही विचार उठने लगा ख़िलक़त का, क्या भरोसा?पहले इस ठाकुर के वंश को आगे चलाने वाला कोई न था, मगर अब इस वंश को आगे बढ़ाने वाले का जन्म हो गया है। अब सही वक़्त है, इस ख़िलक़त से विदा लेने का।” ये विचार मानस में आते ही, उनके प्राण-पखेरू उड़ गए। अचानक उनका निष्प्राण शरीर नीचे गिरने लगा, मगर उनके वफ़ादार घोड़े ने उस बेज़ान शरीर को पीठ से गिरने नहीं दिया। उसके क़दम, बुछेटी गाँव की ओर चल पड़े। वह घोड़ा हिनहिनाता हुआ, उनके निष्प्राण शरीर को लिए सरपट दौड़ पड़ा। उसके पीछे वह घुड़सवार भी, घोड़ा दौड़ाने लगा। रमजान खां दूर से उस वफ़ादार घोड़े को बहादुर ठाकुर की लोथ को ले जाते देखता रहा, यह मंज़र देखकर उसकी भी आँखें नम हो गयी। उधर सरवरे-पाल पर दानी-धर्मी इंसानों के डाले गए अनाज के दानों को चुग रहा कबूतरों का झुण्ड, फरणाटे की आवाज़ की आवाज़ निकालता एक साथ आसमान में उड़ गया। आसमान में इन उड़ रहे कबूतरों का गूंज़ता कलरव, इस तरह सुनायी दे रहा था...मानों वे कबूतर भी, ऐसा कह रहे हो ख़िलक़त का, क्या भरोसा..? वे भी समझ गए, इस ख़िलक़त में धर्मी और पापियों की पहचान करना आसान नहीं, कोई धर्मी पुण्य कमाने के लिए अनाज भौम पर डालता है तो कोई पापी उनका शिकार करने के लिए ज़हरीले अनाज के दानें भौम पर बिछा देता है। अनाज के दाने दिखने में एक से, मगर उनकी पहचान करना मुश्किल..कौनसा दाना खाने योग्य है, और कौनसा दाना उनकी जीवन-लीला समाप्त कर सकता है? यह कबूतरों का झुण्ड भी अब समझ गया कि ‘ख़िलकत का, क्या भरोसा?

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पाठकों। सोमवार, 25 मार्च 2019

मुझे पूरा भरोसा है, आपको यह ठाकुर रणजीत सिंह की शौर्यगाथा ज़रूर पसंद आयी होगी। आपसे निवेदन है, आप निम्न दिए जा रहे ई मेल पर अपने विचार प्रेषित करें। बेहिचक होकर, आप इस गाथा से सम्बंधित टिप्पणी करें।

आपके ख़त की प्रतीक्षा में

आपका शुभचिंतक

दिनेश चन्द्र पुरोहित [लेखक एवं अनुवादक]

dineshchandrapurohit2@gmail.com

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रचनाकार: कहानी - “ख़िलक़त का, क्या भरोसा...?” लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
कहानी - “ख़िलक़त का, क्या भरोसा...?” लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
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