हमारे मुहल्ले का प्राचीन नाम कोठिया हुआ करता था। पुरानी जगह थी, खांटी पुरातन स्वरूप जैसा, मगर बेहद खुली-खुली। स्वच्छ...
हमारे मुहल्ले का प्राचीन नाम कोठिया हुआ करता था। पुरानी जगह थी, खांटी पुरातन स्वरूप जैसा, मगर बेहद खुली-खुली। स्वच्छंद आबोहवा के मोह में हम वहीं जाकर बस गए। उस जगह का विकास होने लगे, इसके लिए सबसे पहले हमलोंगों ने नए बाशिंदों के साथ मिलकर उस जगह का नया नाम, ‘विकासनगर’ रखवा दिया। गलियां संकरी थीं। उनकी चौडी़करण के लिए प्रयास शुरू हुआ। जो नए लोग आकर बसने लगे उनसे कम-से-कम पांच-पांच फीट जमीन छोड़ने का दबाव बनाया गया। उनमें कुछ दबे तो कुछ अड़े। परिणाम यह आया कि गलियां कहीं दस फीट की निकली तो कहीं छः फीट की बनकर रह गईं।
एक पुराने बाशिंदे थे। उन्होंने अपने आगे महज तीन फीट की गली बनने दी थी। वे तो ऐसे अड़ गए जैसे एक इंच भी अतिरिक्त जमीन छोड़ने पर उनके पूर्वजों की आत्माएं अशांत हो जाएंगी। दरअसल उनकी वह संकुचित गली ही नए विकासनगर का प्रवेश मार्ग थी। उस प्रवेश-मार्ग के चौड़ा होने से ही नव-निर्माणाधीन विकासनगर का वास्तविक विकास हो पाता। सालों-साल निकल गए। मगर उस गली की कमर वैसी ही रही। इस अहम त्रुटि का कालांतर में फल यह आया कि उस अति महत्वाकांक्षी विकासनगर का आशानुरूप विकास नहीं हो पाया। अच्छे पढ़े-लिखे लोगों ने वहां आकर बसना छोड़ दिया। निम्न तबके के लोग आने लगे। उनका वर्चस्व बढ़ने लगा। धीरे-धीरे अपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों का वहां बसना सुविधाजनक होने लगा। विकास ठप्प पड़ गया। पक्की सड़कें नहीं बन सकीं। पानी की पाइपें नहीं बिछ सकीं। स्ट्रीट लाईट नहीं लग सकीं। सफाई का काम भी हो नहीं पाता था। लब्बोलुआब यह था कि ‘विकासनगर’ एक स्लम एरिया के स्वरूप की तरफ बढ़ चला।
हम नए बाशिंदे बड़े दुखी और हताश थे। पतली कमर वाली गली को चौड़ा करने के लिए पुराने बाशिंदें के दरवाजे पर कईक बार मत्थे टेके गए। अर्जियां लगाईं गईं और धन का भी वजन दिया गया। लेकिन उस बाशिंदे को यह समझ में आ चुका था कि जबतक यह पतली कमर रहेगी, उनकी इज्जत और शान रहेगी। लिहाजा वे टस-से-मस नहीं हुए।
विकासनगर विकास की भूख से तड़पता रहा। तभी एक चमत्कार हुआ। एक नए बाशिंदे की पुरानी बोरिंग फेल हो गई। हितैषियों ने सुझाया कि नई जगह पर दूसरी मोटी बोरिंग करा लें और सबमर्सिबल पम्प-मोटर लगवा लें। मगर वे नहीं माने। बोले, ‘‘इस पुरातन मुहल्ले के लिए कुआं ठीक बैठेगा।’’
कुएं की खुदाई शुरू हो गई। बस यही चमत्कार का क्षण था। पन्द्रह फीट की खुदाई होते-होते काम रुक गया। उस गहराई पर एक बड़ी मूर्ति गड़ी हुई दिख गई। जल्दी-जल्दी मिट्टी हटाई गई तो मालूम पड़ा कि यह किसी देवी की मूर्ति है। आनन-फानन में पंडित-पुरोहित बुलाए गए। उन्होंने देख-परखकर बताया, यह सोलहवीं शताब्दी की मूर्ति मालूम देती है। यह बेहद विलक्षणकारी मूर्ति है। इस मूर्ति का यूं गड़ा रहना ठीक नहीं है। इसे तुरंत स्थापित किया जाना चाहिए। अन्यथा ‘विकासनगर’ का विकास रुक जाएगा और घोर अनिष्ट होगा।
जिन महाशय के अर्द्धनिर्मित कुएं से यह मूर्ति निकली, उन्हें ही अपनी जमीन का एक हिस्सा देना पड़ा और अगले ही दिन मंत्रोच्चार एवं हवनादि अनुष्ठानों के बीच वे देवी स्थापित हो गईं।
विकासनगर के विकास के लिए बनाए गए चंदा-फंड में शायद ही कभी अच्छी रकम आई हो मगर इस मूर्ति के मंदिर के विकास के नाम पर बनाई गई नए विकास-निधि में धन की वर्षा होने लगी। छः माह बीतते-न-बीतते मनोहारी छवि वाली एक विशाल मंदिर बनकर खड़ी हो गई। कहना न होगा कि विकासनगर के इस चमत्कारिक और अद्भुत घटना का उसके विकास पर साकारात्मक प्रभाव पड़ना शुरू हो गया।
मंदिर पर भक्तों का तांता लगा रहता। हवन, मुंडन, यज्ञोपवीत संस्कार जैसे अनुष्ठान होने लगे। हमेशा भीड़ उमड़ी रहती। गलियां कई जगह पतली थीं। भक्तों को तकलीफ होने लगी तो दबाव बना और कुंभकरण की वंशज, नगर निगम की भी नींद खुली। सफाई शुरू हो गई। गलियां चौड़ी और पक्की होनी शुरू हो गईं। स्ट्रीट लाईट का इंतजाम हो गया। इन सबका असली और चिरप्रतीक्षित प्रभाव पड़ा पतली कमरवरली गली पर। उस महाशय की एक न सुनी गई और एक दिन बुलडोजर चलाकर उनके कंपाउंड की जिद्दी दीवार ढहा दी गई। सारा माहोल ही बदलता चला गया। हम गद्गद् हुए जा रहे थे। हमारा विकासनगर विकास की डगर पर चल पड़ा था। हम श्रेय लेने लगे कि आखिर हमने ही कभी कोठिया नामक इस प्राचीन मुहल्ले का नाम विकासनगर रखा था।
तभी एक दिन एक ऐसा क्षण भी आया कि श्रेय लेने की हमारी खुशी रेत में तब्दील हो गई। मंदिर के पंडित-पुजारियों ने एक सभा बुलाई और एक स्वर में यह निर्णय लिया कि इस तथाकथित विकासनगर का नाम त्याग दिया जाए और चूंकि सारा नया उत्थान देवीमां की कृपा का फल है, अतः इसका सही नाम देवीनगर होगा।
कोठियां देवीनगर हो गया। कोठिया और देवीनगर के बीच कभी कोई विकासनगर भी था या कोई विकासनगर वाले भी थे, इसका कोई जिक्र ही न रहा। यह बात इतिहास में जाने से रह गई। हमारा कोई नामलेवा भी नहीं रहा।
- ज्ञानदेव मुकेश
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