सुख अमृत मिले --(01) --------------------- सुख अमृत मिले सभी को , दुख गरल न दृश्यमान हो , उत्साहित , उल्लासित सभी , प्रगति पथ पर गतिमान हों ...
सुख अमृत मिले --(01)
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सुख अमृत मिले सभी को ,
दुख गरल न दृश्यमान हो ,
उत्साहित , उल्लासित सभी ,
प्रगति पथ पर गतिमान हों ,
ऐसा हो नववर्ष सभी के लिए ,
पग - पग पर दीप दिव्यमान हो ।
शुभ बसंत सम दिवस बीते ,
तो क्षण तृप्ति अशेष समाहित ,
उषा अलौकिक करे स्वागत ,
संध्या अपूर्व शांति अर्पित ,
एकता- सूत्र अटूट रहे सदा ,
सर्वत्र प्रेम प्रवाहमान हो ।
घर - घर, सीता - राम की छवि ,
घट - घट, राधे -श्याम हों ,
हाँ आनेवाला वर्ष मेरे प्रिय ,
भारत देश के नाम रहे
सारे यश विभुतियों का
बस यहीं विश्राम हो ।
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हरा सोना (02)
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धरती माँ पहनती हैं ,
गहने...हरे सोने के ,
सभी गहने सुन्दरता बढ़ाते हैं ।
छोटे , बड़े सभी आकार के ,
सुगंध प्रदायक ,
वायु शुद्ध करनेवाले ।
दूब , तुलसी ,नीम ,पीपल ।
नागफनी और बबूल भी ।
विचित्र बात है न!
हम धरती माँ की ,
इन्हीं हरे गहनों के बीच
जन्म लेते और जीवन बिताते हैं ।
फिर भी इन्हें समझने में ,
कितनी देर लगाते हैं ।
धरती माँ के निर्दोष हरे गहने ,
निर्दयतापूर्वक तोड़ते , नोचते ,
काटते , छाँटते , टुकड़े - टुकड़े कर देते हैं ।
इतने से भी जी नहीं भरता तो ,
जला कर संतुष्ट होना चाहते हैं ।
पर नहीं , अभी तो इन्हें समूल नष्ट करना है ।
और सभ्य होने का भ्रम पालना है ।
दिखने दो धरती माँ को ,
कुरूप ..... पीड़ित ,
हम तो प्रसन्न रहेंगें ।
नष्ट कर गहने ,
हरे सोने के गहने ।
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चौपाई:--- मित्रता (03)
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राम ने मित्र की आन बचाई ।
बालि हनन कर राज दिलाई ।।
हम पर भी प्रभु कृपा कीजै ।
भक्ति वर दे शरण अब लीजै ।।1।।
कृष्ण सुदामा की प्रिय है जोड़ी ।
मित्रता ये जाए न तोड़ी ।।
निर्धन मित को कण्ठ लगाया ।
अतूल धन दे कष्ट मिटाया ।।2।।
वो नर जग में है बड़भागा ।
जिसके हृदय प्रेम है जागा ।।
मित्र की महिमा वरणी न जाई ।
इसमें जल सी है शीतलाई ।।3।।
छल बल कपट मोही न भावे ।
स्वारथ त्याग परम पद पावे ।।
संकट में जो साथ न छोड़े ।
मित है जो नाता हित जोड़े ।।4।।
सुख के क्षण का साथी बनता ।
जो संकट में देख पलटता ।।
उनसे न मित्रता निभाओ ।
जीवन से भी दूर हटाओ ।।5।।
माखन चोरी कान्हा करते ।
इत उत देखें भाग निकलते ।।
मित्रों के संग खेलें होली ।
ले गुलाल भर भर के झोली ।।6।।
सच्चा साथी राह दिखाता ।
आगे बढ़ के दीप जलाता ।।
उससे नहीं किनारा करना ।
दुख म़े पड़े सहारा बनना ।।7।।
हिय संताप हरे प्रिय बोले ।
राज कभी न मित्र का खोले ।।
निभती है कब छल से यारी ।
है विश्वास पर रिश्तेदारी ।।8।।
कंटक मध्य पुष्प हैं रहते ।
पर भयभीत न खुलकर खिलते ।।
संगत ऐसी करना भाई ।
सदगुण वृद्धि जग में बड़ाई ।।9।।
जल अग्नि की कैसी मिताई ।
एक जारे दूजा बुझाई ।।
विपरीत गुण वालों को जानो ।
पुरब और पश्चिम है मानो ।।10।।
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ऊन के गोले (04)
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एक सुहाना दौर था वो ,
जब घर की महिलाएँ ,
रोजमर्रा के काम से निवृत हो ,
ठण्ड के मौसम में ,
धूप में बैठकर ,
ऊन सुलझाती थी ,
हँसते , चुहल करते ,
स्वैटर , टोपी , मफलर , मोजे ,
बुनती भी जाती थी ।
नयीं डिजाइनें सीखने को ,
होड़ मची रहती थी ,
अपने नन्हें - मुन्नों को पहना कर ,
अतीव आनंद का अनुभव करती थीं ।
अब अतीत बन गया
सलाइयों का आपस में टकराकर ,
प्रेम और अपनत्व बिखेरना ,
रंग - बिरंगे गोलों का ,
आँगन में लुढ़ककर ।
खुशियाँ समेटना ।
अब सिर्फ़ यादें बची हैं ,
उस सुहाने दौर की ,
वे भी धीरे - धीरे शायद ,
लुप्त हो जाएँगीं ।
क्या जिंदगी भी ?
ऊन को गोलों सी ,
लुढ़कती नहीं है , कभी - कभी ,
उलझती भी है ।
हम समेट लेते हैं ,
सुलझा भी लेते हैं ।
उलझे पल , उलझे रिश्ते ।
और बुनने लगते हैं ,
आनंद और उल्लास ।
रंग - बिरंगे ऊन की तरह ,
ऊन के गोलों की तरह
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तू मुझे देख मैं तुझे देखूँ (05)
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तू मुझे देख मैं तुझे देखूँ ,
तू मुझे सोच मैं तुझे सोचूँ ,
जनम सफल हो जाए कान्हा ,
तेरे हृदय में जो जगह ले लूँ ।
तेरे चरण जहाँ भी पड़ें ,
वहाँ मैं अपना शीश रखूँ ,
रहे प्रसन्न मुझपर सदा ,
ऐसे सारे जतन करूँ ।
अपनी मुरली परे रखकर ,
कभी मेरी सुध भी ले लेना ,
छोड़ कभी ब्रजधाम कन्हैया ,
मेरी कुटिया में रह लेना ।
पर अकेले नहीं क्योंकि ,
राधा भी मुझे प्यारी हैं ,
श्याम साँवरे उनको मेरा ,
ये संदेश दे देना ।
धन्य - धन्य वे लोग हैं ,
जो तुझे नित ध्याते हैं ,
मैं मूरख जड़ अज्ञानी ,
दया कर दर्शन दे देना ।
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मुझे भी जीना है (06)
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इस संसार में आनेवाला हर जीव जीना चाहता है । वह कभी मृत्यु की कामना नहीं करता । जब तक कि उसे किसी असहनीय पीड़ा से न गुजरना पड़े । पर मानसिक पीड़ा ही अधिक कष्टदायी होती है ,शारीरिक पीडा़ से । एक स्त्री शिशु -जन्म के समय, घण्टों असहनीय पीड़ा से गुजरती है । पर उसके बाद शिशु का मुँह देख , सारा कष्ट भूल जाती है । वो अलौकिक आनंद में डूब जाती है । कोई फर्क नहीं पड़ता ......शिशु पुत्र है या पुत्री । पर सदियों से ये मान्यता भी चली आ रही है कि बेटा ही कुल का दीपक है । बुढ़ापे का सहारा है । और भी बहुत कुछ ....... । पर इस वजह से बेटियों के प्रति नकारात्मक रवैया अपनाना कतई उचित नहीं । क्योंकि बेटियों के बिना भी घर , घर नहीं रह जाता । बेटियाँ भी माता - पिता को सुख देती हैं , उनका नाम रौशन करती हैं । फिर भी आज के सभ्य समाज में , उन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए अनवरत संघर्ष करना पड़ता है । ये सोंचकर ही हृदय दहल उठता है कि जिसने अभी जन्म भी नहीं लिया , उसके अंत की तैयारी हो जाती है। तब मानवता कहाँ खो जाती है । तब धर्म कहाँ तिरोहित हो जाता है । आइये , हम सब चिंतन करें । समाज की इस दुषित मानसिकता को दूर करने को , दृढ़ संकल्प हों । तभी , बेटी का अस्तित्व सुरक्षित रहेगा और उसे कभी कहना नहीं पड़ेगा । मुझे भी जीना है ...... माँ मुझे भी जीना है ।
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क्या नाम दूँ उसे (07)
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एक शक्स कल मेरे पास ,
मुस्कुराते हुए आया,
थोडी़ देर में उल्टे पाँव ,
उसे जाते हुए पाया ।
जल्दी से आईना देखा ,
चेहरा तो ठीक -ठाक था ,
शायद उसने अपने जैसा ,
स्वभाव नहीं था पाया ।
न टीका न टोपी थी ,
जो आकर्षित कर जाते ,
भारतीयता का क्या करूँ ,
जो जन्म से ओढ़े आया ।
मैने भीे उसे रोका नहीं ,
नहीं वो अपना भाई था ,
पर जेहन में अटका रहा ,
कैसा उन्माद था छाया ?
मेरे जैसे ही दो हाथ ,
दो पाँव उसके भी थे ,
पर गंध नफरत की थी ,
जिसे वो त्याग न पाया ।
दो - चार पत्थर चलाता ,
या गोलियाँ बरसा लेता ,
तभी उसे मिलती शांति ,
था आतंक का जाया ।
चाहता हूँ ऐसे लोगों का ,
अंत करूँ चुन - चुन कर ,
उन्हें जलाने को दिल में ,
अनल धधकता पाया ।
सोने जैसे मेरे देश में ,
ऐसे लोगों का काम नहीं ,
सच कहूँ तो उसका जाना,
मुझे रास बहुत है आया ।
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मनहरण घनाक्षरी (08)
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मेरे घर आओ कान्हा , होली खेल जाओ कान्हा ,
आना ना अकेले पर , राधा प्यारी साथ हों ।
मन में उमंग भर , सातों रंग सजाकर ,
नीली -पीली पगड़िया , तुम्हरे ही माथ हो ।
अबीर - गुलाल लिये , खड़ी हूँ मैं द्वार पर ,
होली का आनंद तभी , जब तेरा साथ हो ।
ऐसा क्षण नित रहे , गहरी ये प्रीत रहे ,
जानती हूँ श्याम तुम , सबके ही नाथ हो ।
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गीता द्विवेदी
C/o अनुज पान्डेय
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भठ्ठीरोड़ केदारपुर अम्बिकापुर
सरगुजा (छत्तीसगढ़)
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