-एक- की जो हमने वाहवाही देर तक, लड़ता रहा इकला सिपाही देर तक। तय था जिसका जीतना, जीता वही, हमने यूँ दी थी गवाही देर तक। गो वो अपने वा...
-एक-
की जो हमने वाहवाही देर तक,
लड़ता रहा इकला सिपाही देर तक।
तय था जिसका जीतना, जीता वही,
हमने यूँ दी थी गवाही देर तक।
गो वो अपने वायदे से टल गए,
पर दोस्ती हमने निभाई देर तक।
वो कि अपनी बात पर ही जम गए,
हमने यूँ दी थी सफाई देर तक।
‘तेज’ की गो उम्र चुक्ता हो गई,
उसने मगर बैठक जमाई देर तक।
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-दो-
ज़िंदगी से अब मैं विदा चाहता हूँ,
यूँ जानिए कि अब मैं मरा चाहता हूँ।
चलते-चलते न जाने कहाँ खो गया,
अब थोड़ी-बहुत मैं धरा चाहता हूँ।
क्या-क्या किया मैंने, क्या कुछ नहीं,
अब उसी जुर्म की मैं सजा चाहता हूँ।
है बचपन का मुझको पता कुछ नहीं,
बचपन का कुछ-कुछ पता चाहता हूँ।
उल्टा-सीधा बहुत हो लिया आजतक,
अब सौदा मैं कोई खरा चाहता हूँ |
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-तीन-
मैं भी शातिर, तू भी शातिर,
ये सारी दुनिया भी शातिर।
कैसे हो फिर मेल-मिलापा,
मैं भी शातिर, तू भी शातिर।
सब अपनी खातिर जीते हैं,
ना तेरी, ना मेरी खातिर।
सब कुछ आखिर है यां आखिर,
मैं भी आखिर, तू भी आखिर।
नादिरशाही खत्म हो कैसे,
मैं भी नादिर, तू भी नादिर।
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-चार-
यूँ हादसा-दर-हादसा है शहर में,
फिर भी इंसा बामजा है शहर में।
तुम न जाने किस कदर चलते रहे,
यूँ इम्तिहां-दर-इम्तिहां है शहर में।
धरती वही, सूरज वही, अम्बर वही,
बदलाव लेकिन है निरंतर शहर में।
गो नाप मेरी जेब का छोटा सही,
फिर भी अपना दब-दबा है शहर में।
गाँवों में पसरी है गजब की तीरगी,
पर रोशनी का कहकहा है शहर में।
है शब्दों में उसके टीस भी, रफ्तार भी,
पर ‘तेज’ फिर भी गुमशुदा है शहर में।
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-पाँच-
आमदन कुछ हो न हो खर्चा तो है,
भुखमरों का शहर में चर्चा तो है।
वो आदमी हो न हो लेकिन उसका,
बस्तियों की भीड़ में दर्जा तो है।
माना कि सत्ता मेरे संग-साथ नहीं ,
हो न हो, लेकिन मिरी परजा तो है।
जो थाम लेता है मुझे एतबार से,
वो शख्स मेरे जहन में उतरा तो है।
‘तेज’ गो इंसान चुक्ता हो गया,
पर हंसने-हंसाने के लिए बच्चा तो है।
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-छ:-
आड़ी तिरछी खड़ीं लकीर,
कुछ औंधे मुंह पड़ीं लकीर।
जैसी भी हैं रहने भी दो,
दिलों में खींचो मती लकीर।
सूई धागा मांग रहा है,
भूखा नंगा एक फकीर।
लाल चुनरिया लाल लकीर,
फिर क्यूँ गौरी भई अधीर।
भाल-भाल पर ‘तेज’ खिंची हैं,
गूंगी-बहरी थकी लकीर।
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-सात-
जब-जब खुद से मिला किया मैं,
तब-तब तारे गिना किया मैं।
आमद में उनकी सच हरदम,
रह-रह कविता लिखा किया मै।
कल के कल की आमद में,
अनहद सपने बुना किया मैं।
उनकी बातों को बिसराया,
केअपनी बातें गिना किया मैं।
‘तेज’ तन्हाई में घर-भर की,
वल चौखट गिना किया मैं।
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-आठ-
तुम क्या जानो कैसे गुजरी,
जब भी गुजरी जां पे गुजरी।
शब तो मैखाने की जद में,
सहर तिरे सदके में गुजरी।
सुबह सवेरे फाका-मस्ती,
दोपहरी सहरा में गुजरी।
जीस्त यूं समझो आवारा है,
कुछ रोते, कुछ हँसते गुजरी।
‘तेज’ तुझे मालूम नहीं कि
उम्र बड़े सस्ती में गुजरी।
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-नौ-
जीने का सामान मिला कब,
अपना दामन चाक सिला कब।
मुझको बस इतना बतला दो,
भारत अपना पाक मिला कब।
दूषित राजनीति के चलते,
जनता को इंसाफ मिला कब।
हमको अपनी मजदूरी का,
पूरा-पूरा दाम मिला कब।
हैं कल के राजा आज भी राजा,
उनका तख्तो-ताज हिला कब।
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-दस-
चांद पे आँख रखेंगे फिर—फिर,
बात अपनी ही करेंगे फिर—फिर।
आदमी कितना ही बड़ा हो निकले ,
पांव धरती पे रहेंगे फिर—फिर।
रिश्तों- नातों की बात जो ठहरी,
रार लाजिम है, सहेंगे फिर—फिर।
बुद्ध ठहरे कि सिख या ईसाई,
गीत उलफत के लिखेंगे फिर—फिर।
दूरियाँ रखने से कुछ नहीं हासिल,
पास बैठेंगे, लड़ेंगे फिर—फिर ।
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- ग्यारह-
मेरे तुम्हारे बीच में, कुछ-कुछ हुआ सा है,
इसीलिए कोई तीसरा, कुछ-कुछ ख़फा सा है।
है कहाँ मुझमें असर कि तकरार कर सकूं,
तकरार का ये फलसफा, कुछ-कुछ नया सा है |
संभलकर बैठने-उठने की जरूरत है तुझे,
कोना तिरे आँचल का, कुछ-कुछ दबा सा है।
वो जो कभी चलता था तीर की माफ़िक,
कुछ बात है कि आज वो, कुछ-कुछ थका सा है।
गो सबकी छत पर चांदनी छिटका करी लेकिन ,
पर मेरी छत पे आज भी, कुछ-कुछ धुआँ सा है।
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-बारह-
सूरज ने की जो बात मुझसे देर तक,
तो चन्दा रहा नाराज मुझसे देर तक।
बादलों से आब क्या माँगा किया,
रूठी रही बरसात मुझसे देर तक।
मैं तितलियों से क्या मिला कल ख्वाब में,
कि भँवरों ने किया संग्राम मुझसे देर तक।
दिन की बाहों का सहारा क्या मिला,
बतियाती रही कल, रात मुझसे देर तक।
‘तेज’ कल कुछ हाथ में कागज लिए,
चिपका रहा गुस्ताख मुझसे देर तक।|
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लेखक: तेजपाल सिंह तेज (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हैं- दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से, तूफाँ की ज़द में व हादसों के दौर में (गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन-झुन, खेल-खेल में, धमा चौकड़ी आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), पाँच निबन्ध संग्रह और अन्य सम्पादकीय। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा के उपसंपादक, आजीवक विजन के प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक के संपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं।
ई-3/ए-100 शालीमार गार्डन, विस्तार –2 ( साहिबाबाद), गाजियाबाद (उ. प्र.) - 201005
: ईमैल—tejpaltej@gmail.com
बहुत बढ़िया श्रीमान जी ।
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