(चित्र - डॉ. सुरेन्द्र वर्मा की कलाकृति) कलियुगी गीता अवधूत २०१९ कलियुगी गीता युग बीत गया था. कलियुग आ गया था. राजा जनक ने पुनर्जन्म...
(चित्र - डॉ. सुरेन्द्र वर्मा की कलाकृति)
कलियुगी गीता
अवधूत
२०१९
कलियुगी गीता
युग बीत गया था. कलियुग आ गया था. राजा जनक ने पुनर्जन्म ले लिया था. अब वह आत्म ज्ञान नहीं चाहता था, राजत्व ज्ञान चाहता था. राज तत्व के ज्ञान की चाह में उसने अष्टावक्र को मसान से ढूँढ निकाला था.
राजा बोला ...
प्रकरण १: हे चितपावन दूध के विषपायी, ले तू राजत्व ज्ञान
राजा बोला
हे प्रभो
मैं राजत्व कैसे प्राप्त करूँ
प्रजा को अपने बंधन पाश में कैसे बांधूं
प्रजा पर पूर्ण कंट्रोल कैसे होगा
एतत मम ब्रूही
इसको मेरे प्रति कहिए ।।१।।
अष्टावक्र उवाच
हे तात
राजत्व चाहता है तो जो
रूप तुझे फंसाते,
रस, गंध, स्पर्श तुझे उत्तेजित करते,
शब्द तुझे लुभाते
स्मृतियाँ तुझे संजोती
उनका अमृत मान पान कर
और क्षमा सरलता दया संतोष का विष त्याग दे.
कभी क्षमा मत कर, ईंट का जवाब पत्थर से दे
किसान, मजदूर गुहार करते रहें
दया करुणा डिक्शनरी से डिलीट कर
सरलता का स्वांग धर, सर्वदा असत बोल
कुटिल मन ढक ले, मन से उलट वाणी बोल
असंतोषी मन को ऊंचे आसमानों में विचरने दे
इन विचारों के स्याह संघीभूत ज्ञान में
राजत्व प्राप्त कर ।।२।।
जान ले
यह पृथ्वी तेरी, तू इसका मालिक
तेरा ही जल, अग्नि, वायु, द्यौ
ये पंचभूत तेरे सोवरेन राईट
अन्यों से छीन, अपनों को बेच दे
यही राजत्व है ।।३।।
अपने सुते शरीर, तीक्ष्ण बुद्धि का अभिमान लिए
आसमान चढ़ते अहंकार में विश्राम कर
अभी की अभी
अनंत राजत्व प्राप्त होगा ।।४।।
वेद के वर्ण, जाति और आश्रमों के धर्म से परे
तू है अंग मर्दनी, अहंकारी, विभाजनकारी, हत्यारा, संघी
विश्व गुरु
सर्वस्व है ।।५।।
अपने स्याह संघीभूत ज्ञान से
धर्म अधर्म, सुख दुःख
तूने ही बनाए हैं, तुझे ही बनाने हैं ।।६।।
जो दृश्यमान है और जो अदृश्य है
दूसरे का समझे, तो बंधन है
अपना समझे, तो राजत्व है ।।७।।
यह विचार, ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’, ‘यह देह मेरी नहीं’, वैराग्य वगैरह
ज्ञानी योगी मुनि की विष वाणी का दंश है
इस दंश से इम्युनिटी के लिए
‘केवल मैं ही कर्ता हूँ, दूसरा नहीं’ से डसवा ले
हे विषपायी, तुझे राजत्व मिलेगा ।।८।।
यह ज्ञान की पीठिकाएं
लाइब्रेरियाँ और अखबार सब
अपने अहंकार से प्रज्ज्वलित कर दे
स्याह संघीभूत ज्ञान के जंगल का विस्तार कर
राजत्व में स्थित हो ।।९।।
हे महाकृष्ण महाकाय नाग
तुझसे डरे सहमे लोक को आनंद का बोध करा
लोक तुझे देख कहे, “यह तो रेशम की रज्जु है”
और स्वयं उसके पाश में बंध, तेरी जयजयकार करे
तुझे राजत्व मिलेगा ।।१०।।
पुरानी किंवदंती है “जैसी मति वैसी गति”
और राजत्व
मति बनाता और गति निर्धारित करता
अटल सत्य है ।।११।।
महाकृष्ण महाकाय नाग की महामाया ऐसी कि
लोक समझे राजा कामधेनु है
काम देगा, पैसा देगा, बात देगा, आनंद देगा.
लोक को भ्रमित कर, राजत्व प्राप्त कर ।।१२।।
उसकी ऐसी की तैसी, “मैं यह स्वयं स्वयं के लिए”
ऐसे विचार से अटल राजत्व को प्राप्त हो
अहो, पर प्रजा भी तो है
द्वैत है ।।१३।।
पुत्रक
स्याह संघीभूत ज्ञान का चितपावन केसरिया दूध पी
वमन कर गरल
प्रजा अमृत समझ पान करे
अकुलाये, थरथराये
और तू उसे कंट्रोल कर ।।१४।।
हे राजन
लोक के साथ
ध्यान समाधि के अनुष्ठान कर
लोक को निकृत्य कर ।।१५।।
इस शुद्ध राजत्व में लोक को पिरो ले
जैसे मुंडमाल
क्षुद्र चित्तताम गम:
क्षुद्र चित्त वाला बन ।।१६।।
लोक की
भूख प्यास शोक मोह जन्म मरण की अपेक्षायें
अहंकार के अग्निपुंज से पूर्ति कर
क्षुब्ध लोक
फिर तेरी ही शरण आये
शीतलाशय की तलाश में
तेरे राजत्व के साए में ।।१७।।
बोल कि
साकार सत्य है, निराकार मिथ्या है
अहंकार के विराट मंदिर बना
यही तत्वोपदेश
पुनर्भवसंभव अस्ति ।।१८।।
जैसे संसार दर्पण में लोक भासता है
वैसे ही लोक के अन्दर और बाहर राजत्व भासे
जैसे अक्स संसार दर्पण का कुछ नहीं कर सकता
वैसे ही लोक राजा का कुछ नहीं कर सकता ।।१९।।
जैसे सर्वगत व्योम घट के अन्दर बाहर होता है
वैसे ही तीक्ष्ण बाणों से गणों को बींध
नित्य निरंतर राजत्व
सर्वभूत गणों में हो ।।२०।।
राजा समझ रहा था, युग परिवर्तन हो गया था. अरे, अष्टावक्र से जाना वही तो है युग प्रवर्तक, अहंकार का महाकाय महानाग, पंचभूत का स्वामी. चितपावन दूध पी राजा ने ज्ञान पीठिकाएं ध्वस्त कीं, विष को अमृत, अमृत को विष, असत्य को सत्य और सत्य को असत्य बना दिया. उसके स्याह संघीभूत ज्ञान की महामाया ऐसी कि महानाग का पाश गणों को रेशम की डोर लगे और वह नाग मानो कामधेनु. डरे सहमे गण क्या करते. इन गणों को बींध राजा ने सर्वभूत गणों में राजत्व स्थापित किया.
राजा आह्लादित था. अपना स्वरूप जान वह बोला वाह वाह मैं, मुझे नमो नमो. उसे लगा वह तो विश्व नर (विश्र्नावर) है और गण उसकी चरण वन्दना के लिये ही हैं. जो सर झुकाए है या जो सर उठाये है, दोनों को ही उसकी चिदात्मा में ही आश्रय है. उस का अहंकार सर चढ़ बोला ...
प्रकरण २: अहो अहम् नमो मऽह्य्म, वाह वाह मैं मुझे नमो नमो
राजा उवाच
अहो अहम्, अहम् ही अहम्, स्याह धुंध
जल जंगल ज़मीन वायु अग्नि और ब्रह्माण्ड का स्वामी
मैं ही कर्ता, लोक अकर्ता.
अब तक सब समय, दया धर्म में डूबा था
सम्मोहन में ।।१।।
इस देह का मालिक मैं
इस देह में समाये भूमि स्वर्ग पाताल
और अक्षौहिणी गण
देव देवता पुराण सब ।।२।।
मैं विश्र्वानर उन्नीस मुखों छत्तीस पेट एक सौ बहत्तर दांत वाला
गणों के सर पर रख पैर विशाल, नापे तीन जग
मैं असीम, सभी स्थूल विषयों का स्वामी
न स्वप्न देखता, न गहरी नींद सोता
न तुरीय न आत्मा न परमात्मा
केवल मैं विश्र्वानर
मैं ही सृष्टा मैं ही भोक्ता ।।३।।
यथा महासागर की तरंग, फेन बुलबुले
उसके पानी से भिन्न नहीं
तथा गणों के मन, मन के विचार, विचार के स्फुरण
मेरे विशाल क्षुद्र मन से भिन्न होने नहीं,
कभी नहीं ।।४।।
जैसे तन्तुओं को काट छांट बना कपड़ा
वैसे गणों को काट छांट गढ़ा गया मैं
मेरा राज तत्व ।।५।।
यथा इक्षुर से बनी शर्करा में इक्षुररस व्याप्त है
इक्षुर की खुई भट्टी को अग्नि देती है
तथा मुझ में बसे गणों में मैं निरंतरम व्याप्त हूँ
मेरे तेज के दावानल में गणों को होम करता हूँ
अहो अहम् ।।६।।
जो गण
मेरे महाकाय महानाग स्वरूप से अज्ञान
नाना मसीहा ढूंढते हैं
उन्हें मैं, रेशम की काली डोर सा लगता हूँ
अपने पाश में ले डस लेता हूँ
मेरा विषामृत पी मुझ में समा धन्य होते हैं
या फिर दावानल में होम ।।७।।
मैं काला स्याह अन्धकार
अँधेरे के अतिरिक्त कुछ नहीं
इस अंधकारमय विश्व में
मैं ही तो होता हूँ
और कोई नहीं
हो भी नहीं सकता ।।८।।
चीर कर
संसार के कल्पित प्रकाश का अज्ञान
मेरा अन्धेरा
ऐसी मिथ्या फैलाता है
मानो काले सर्प में रेशम की डोर ।।९।।
शोभा बढ़ाते
कटक पाजेब बाजूबंद कमरबंद
कुम्भ और कुम्भकार
मुझ काले भयानक विश्र्वानर में
लय हो जाते हैं.
विचार स्फुरण के बुलबुले
मेरे स्याह संघीभूत ज्ञान के महासागर में
लय हो जाते हैं
मुझमें आगत विश्व
मुझमें लय हो जाता है ।।१०।।
अहो अहम् नमो मऽह्य्म
अहो मैं अहो मैं नमो मुझे नमो मुझे
मैं विश्र्वानर
रक्षा करूंगा ब्रह्मा की घास के तृण की
मुझमें आगत हर गण की
शत शत बाणों से किल करूंगा एनेमी को
रहेगा मात्र विश्र्वानर भयंकर
अहो अहम् नमो मऽह्य्म ।।११।।
अहो अहम् नमो मऽह्य्म
अहो मैं अहो मैं नमो मुझे नमो मुझे
मैं स्थूलभुक विश्र्वानर
हर मन में जाता
हर मन हरता
हर देह को विदेह करता
लोक कहता नमो नमो
अहो अहम् नमो मऽह्य्म
अहो मैं अहो मैं नमो मुझे नमो मुझे ।।१२।।
अहो अहम् नमो मऽह्य्म
अहो मैं अहो मैं नमो मुझे नमो मुझे
मैं दक्ष
मैं अद्वितीय
मैं चिरकाल से काल को लील रहा
मेरे स्पर्श से, मेरे शब्द से
मेरी प्रत्यंचा के कम्पन से
विश्व घुघ्घू बन कर रहा चरण वंदन
अहो अहम् नमो मऽह्य्म ।।१३।।
अहो अहम् नमो मऽह्य्म
अहो मैं अहो मैं नमो मुझे नमो मुझे
निःसंदेह मेरे पास वह सब है
जो वाणी है और जो मन सोच सकता है
और वह सब भी
जो वाणी नहीं बोलती
और मन नहीं सोच सकता
अहो अहम् नमो मऽह्य्म ।।१४।।
मैं ही ज्ञाता
मैं ही ज्ञान पुंज
मैं ही ज्ञेय
मुझे ही जानो
अन्य कोई जानकार नहीं
अन्य कोई ज्ञान नहीं
अन्य कोई जानने योग्य नहीं
मेरा स्याह संघीभूत ज्ञान इतना सघन कि
ब्लैक होल भी शरमा जाये.
क्षुद्र अज्ञानी जो ढूंढते नया ज्ञान
ब्लैक होल उन्हें लील जायेगा
आज अभी तुरंत
अहो अहम् नमो मऽह्य्म ।।१५।।
अहो
मैं ही चिर अन्धकार, दुःख का मूल
इसकी एक ही औषध
मुझ शुद्ध चैतन्य विष में समा जाओ ।।१६।।
सब विषयों का निर्द्वंद्व स्वामी
निर्द्वंद्व ज्ञान स्वरुप
मैं राजत्व को प्राप्त हूँ ।।१७।।
मुझमें गूंजता सब संसार
नित्य नए संकल्प विकल्प
मेरे ही हैं, और किसी के नहीं, हो भी नहीं सकते.
मैंने लोक को संकल्प विकल्प से मुक्त कर
मोक्ष दे दिया है
मेरा कोई विकल्प नहीं ।।१८।।
मैंने निश्चित कर लिया है कि
लोक और उसके गणों के लिए
उनका शरीर और यह संसार कुछ भी नहीं
मैं स्थूल भुक विश्र्वानर ही
परम शुद्ध ज्ञान हूँ
जिसपर
उनकी कल्पना टिक सकती है ।।१९।।
गणों के शरीर स्वर्ग नरक बंधन मोक्ष तथा भय
सब मैं ही तो हूँ
चाहे अभय, चाहे भय से
उनको इस चिदात्मा में ही आश्रय है ।।२०।।
अहो
इस अरण्य का जनसमूह
जब विश्र्नावर को द्रवित हो पुकारता बार बार
तब मैं प्रकट होता
पुकार जब उन्माद बन जाए
तब इनको समो लेता
अहो अहम् नमो मऽह्य्म ।।२१।।
अहो
मैं विश्र्नावर
मैं अहंकार रूप
मैं कामनाओं से बंधा महाजीव
मैं हूँ
मैं ही हूँ ।।२२।।
अहो
मैं अहंकार का महासमुद्र
इसमें उठती संकल्प विकल्प की कल्लोलें
सुनामी बनती हैं अनंत, सर्वदा अशांत
अहो अहंकार नम:
अहो अहम् नम: ।।२३।।
इस अहंकार के महासमुद्र में
बिना आज्ञा की नौका में सवार
गण वणिक का अभाग्य
नौका डूब जाती है, या डुबो दी जाती है
अपार सुनामियां नौकाओं को लील जाती हैं ।।२४।।
आश्चर्य
मुझ अनंत अहंकार के महासमुद्र में
अनेक गणों की जीव तरंगें
अपने अपने स्वभाव से
खेलती, टकराती
एक दूसरे को मारती
किल करती हैं
रक्त बहाती हैं
और मेरे अहंकार को पल्लवित करती
सुनामी और भयावह होती जाती है
अहो अहंकार नम: अहो अहम् नम: ।।२५।।
अष्टावक्र प्रसन्न थे, राजा का अहंकार बोलने लगा था. अहो मैं, अहो मैं, नमो मुझे, नमो मुझे, नमो मेरा अहंकार, नमो मैं ज्ञाता, मैं ज्ञेय, मैं ज्ञान, नमो मेरी वाणी, नमो मेरा मन, नमो मैं विश्र्नावर १९ मुख ३६ पेट १७२ दांत वाला. गणों को काट छांट बना मैं, द्रवित पुकारते रहते, घुघ्घू करते चरण वंदन, उन्मादी मेरे तेज में होम होते. मुझमें उठती जीव तरंगें, खेलती, टकराती, किल करती हैं. रक्त सुनामी में नहाया मैं. अहो अहम् नमो मऽह्य्म.
अष्टावक्र ने राजा का अहंकार तो जगा दिया पर अभी उसे और धार देनी थी. राजा के काम काज में द्वंद्व देख उसने कई कठिन प्रश्नों के साथ राजा की परीक्षा ली. तू जब इतना पावरफुल कि तुझमें विश्व समाया है, तू झंझावात ला सकता है, फिर कैसे तेरा दरिद्र एनेमी जब देखो खडा हो जाता है? और इतना अहंकार लिए तू मंदिर मंदिर जाकर माथा टेकता है, बोल ,,,
प्रकरण ३: क्यों ये दरिद्र शत्रु तेरे सामने बोलते, क्यों सुयोधन की तरह इन्हें जंघा पर नहीं बैठाता, दे तू राजत्व ज्ञान की परीक्षा
अष्टावक्र उवाच
राजन
जब देश काल तेरी मुट्ठी में हों
फिर क्यों दरिद्र से मोहित हो
पकड़ में न आने वाली सूर्य की किरणों को
पकड़ने का प्रयास करता है ।।१।।
अहो
चमकते अर्थ और अर्थधर्म से प्रीत हो
फिर क्यों मजदूर किसान के दुःख से द्रवित हो
अहो ।।२।।
तू विराट वृक्ष जिसकी छाया में
कोई नहीं पनप सकता
क्यों जड में लगी धर्म दीमक से अंजान है ।।३।।
तेरा अहंकार हिमालय से ऊँचा
उपस्थों से अत्यंत आसक्त
फिर क्यों दारिद्र्य देख
मालिन्य को प्राप्त होता है ।।४।।
आश्चर्य
शत्रु को बोलने देने से क्षुद्रता बनी रहती है
उस नरेन्द्र में भी, जिसने जान लिया है कि
वह विश्व विजयी है ।।५।।
आश्चर्य
जो परम पद पर आसीन है और
रक्त रंजित किलिंग के लिए तत्पर है
वह मंदिर मंदिर जाकर माथा टेकता है
विराट मंदिर बनवाता फिरता है ।।६।।
आश्चर्य
राज तत्व की कामना वाला, कामवश केलिशिक्षा से विकल
स्वप्निल स्मृति में भी
सुयोधन की तरह जंघा पर बैठाने का निमंत्रण नहीं देता
और अपने को भिक्षु कहता है ।।७।।
लोक परलोक के भोग में लिप्त
नित्य राज तत्व की कामना करता
आश्चर्य है
राजलक्ष्मी की ठगिनी माया से डरता है
क्यों लगता है कि दूसरे की हो जायेगी ।।८।।
अधीर तू
शत्रु नहीं हों तो शत्रु बनाता,
फिर उनको पीड़ित कर तुष्ट होता,
नित्य आत्ममुग्द्ध
फिर क्यों चिंता में जलता रहता है ।।९।।
जब अपने सक्रिय शरीर का
स्तुतिगान सुन हर्षित होता
निंदा सुन कुपित होता
तब क्यों
कुछ निंदकों को दंड
कुछ को क्षमा करता ।।१०।।
यह जानकार कि विश्व मुट्ठी में है
फिर यह अधीर मन
अर्थ की कमी से
अर्थपतियों की दूरी से
आतंकित हो डर जाता है ।।११।।
किससे तुलना करें उस राजत्व की जो
विषयों में आसक्त
वासना कामना से इतना भरा कि
मोक्ष की सोचे भी नहीं ।।१२।।
यह जगत संसार ही सब कुछ है
ऐसा जानने वाला सर्वग्राही
कैसे देख सकता है कि
किसे ग्रहण नहीं करना है ।।१३।।
अंतर्मन विषय वासना के कषाय में डूबा हो
उसे जो सहज न मिले
उसको छीनने का हठयोग न करे
कैसे संभव हो ।।१४।।
कठिन परीक्षा के कठिन प्रश्न. अहंकार है तो अधीर क्यों? अर्थ से रति तो दरिद्र से मोहित क्यों? दूसरों के दुःख में दुखी क्यों? शत्रु हन्ता तो चिंता क्यों, निंदकों को क्षमा करता क्यों? जो अप्राप्य उसके लिए हठयोग क्यों नहीं? जब जानता कि तू सर्वग्राही है तो कैसे डिसाइड करता कि किसे ग्रहण नहीं करना?
राजा ने अपना मन टटोला, कुछ नहीं मिला. प्रश्न कठिन थे. अंतर्मन ने फिर उत्तर दिए. राजा बाहर से क्या, अन्दर से क्या. राजत्व की सीढियां तो उसे चढ़नी हैं. अपने अहंकार में संतोष करने वाला नहीं था राजा. बोला, यह मेरा इंद्रजाल है, गुरु ...
प्रकरण ४: यह मेरा इंद्रजाल है, गुरु
राजा बोला
अधीर अहंकारी की ऐसी भोगलीला
अपना सुख, निश्चित दूजे का दुःख बन जाए
उसकी असंसारी मूढ़ योगियों से
बराबरी नहीं हो सकती ।।१।।
जिस राजत्व को पाने के लिए
दरिद्र अर्थपति गुंडे धर्म के दल्ले संघी
सभी लगे रहते हैं
उस राजत्व को प्राप्त हुआ भिक्षुक फ़कीर
जानकर बूझकर असंतुष्ट ही रहता है
यही आश्चर्य है ।।२।।
राजत्वज्ञानी के अंत:करण में
पाप और पुण्य का खेला होता है
वह दरिद्र के दुःख से द्रवित होने का नाट्य रच
चंचला लक्ष्मी के पाँव में बेड़ी डाल
मंदिर के सेवक का स्वांग धर
नित नये शत्रु बना, फिर उनका दमन कर
अपने इंद्रजाल से ऐसा स्याह धुआं फैलाता कि
हाथ को हाथ सुझाई न दे ।।३।।
राजतत्व ज्ञानी को ज्ञात है कि
वह सर्वजगत की आत्मा है
उसको अपनी इच्छा का करने से
कौन निषेध कर सकता है ।।४।।
ब्रह्मा से लेकर तृण तक
चार प्राणी समूह
उनमें वह अहंकारी राजतत्व ज्ञानी ही सबसे असंतुष्ट है
उसकी इच्छा या अनिच्छा से परे रहने की सामर्थ्य किसी में नहीं
न ब्रह्मा में न तृण में ।।५।।
जब अज्ञानी भीड़ यह जान ले कि
कौन एक पालनहार, कौन एक खेवनहार
तब भीड़ को किस का भय
वह अपना
कर्म धर्म अर्थ मन बुद्धि विवेक
सब उस एक को समर्पित कर
कामक्रीड़ा के लिए चांदनी सी बिछ जाती है ।।६।।
वाह, अष्टावक्र ने देखा कि अहंकारी राजा तो बहरूपिया भी है. सेवक होने का स्वांग तो राजत्व की सीढियां हैं. उसी की इच्छा से विश्व चलता है, ब्रहमा भी. लोक को बुद्धिहीन, विवेकहीन, विदेह कर उससे काम क्रीडा करना ही राजत्व है. राजत्व को प्राप्त हुआ भिक्षुक जानबूझ कर असंतुष्ट ही रहता है. आश्चर्य.
यह आश्चर्य नहीं, अष्टावक्र बोले और उन्होंने राजा को हर देश काल में अशांति में रहने का गूढ़ फलसफा दिया ,,,
प्रकरण ५: सर्वत्र सर्वदा अशांति की दलदल में राजा, बोला यही तो है राजत्व
अष्टावक्र उवाच
तू पंचभूत का स्वामी, तेरा ही सब कुछ है
जो नहीं है छीन ले
और भोग, स्थूलभुक
सर्वत्र सर्वदा अशांति की दलदल को प्राप्त हो ।।१।।
जैसे
समुद्र अपने अन्दर बुलबुले उठने देता है
फिर उन्हें समो लेता है
और मूढ़ निहारते रहते हैं
वैसे ही
शत्रु तुझ में उठते रहते हैं
उन्हें थोडा पनपने दे
फिर उनको किल कर
मूढ़ इस किल को निहारेंगे सराहेंगे
उन्हें भी लील जा
सर्वत्र सर्वदा अशांति की दलदल को प्राप्त हो ।।२।।
वे तेरे सर्प शत्रु
तेरे महाकाय अहंकार में
ऐसे व्यक्त हों
जैसे सर्प में रज्जु
पर शत्रु का भ्रम बना रहने दे
रज्जु से लिपटने का स्वांग धर
मौक़ा देख उनके विष दन्त तोड़ दे
शत्रु लोक कहे नमो नमो
फिर नये शत्रु गढ़
फिर नया स्वांग धर
सर्वत्र सर्वदा अशांति की दलदल को प्राप्त हो ।।३।।
सुख अपने, दुःख दूजे के लिए
आशा अपनी, निराशा दूजे के लिए
जीवन अपना, मृत्यु दूजे के लिए
सुख दुःख आशा निराशा जीवन मृत्यु के
अनंत खेले में तू सदैव अपूर्ण है
सर्वत्र सर्वदा अशांति की दलदल को प्राप्त हो ।।४।।
राजा ने अष्टावक्र का फलसफा समझा. राजत्व अशांति की दलदल में ही है. सब तेरा तो भोग, अशांत हो. शत्रु बना, किल कर, फिर फिर, अशांत रह. सर्प रूपी शत्रु को जो शत्रु बने रहने का भ्रम बना रहे, शत्रु से प्रेम का स्वांग धर, वाह वाही लेनी है. मौक़ा देख कुचल दे, अशांत अपूर्ण सुख अपने लिए रख, दुःख बांट निरंतर.
राजा को लगा कि इस अशांति से पार पाने के लिए सर्व ग्रहण क्यों न कर लो. सबको अपने में लय क्यों न कर लो ...
(लय का अर्थ है डिजौल्व होना, जैसे शक्कर पानी में)
प्रकरण ६: मैं विश्र्वानर श्रेष्ठ, सर्वस्व मुझमें लय करना है
राजा उवाच
मैं हूँ विश्र्वानर श्रेष्ठ
अन्य प्रकृति जन्य क्षुद्र प्राणी
क्षुद्र क्षुद्रतर क्षुद्रतम
ऐसा ज्ञान है कि
मुझे
सर्वस्व सर्वार्थ भोगना है
सर्व ग्रहण करना है
सर्वस्व मुझमें लय करना है ।।१।।
(सर्वस्व का अर्थ सब कुछ, सर्वार्थ का अर्थ सबके लिए)
वह मैं महासागर
और ये प्राणी बुलबुले
छोटे मोटे टूटे फूटे बुलबुले
ऐसा ज्ञान है
सर्वस्व सर्वार्थ भोगना है
सर्व ग्रहण करना है
सर्वस्व मुझमें लय करना है ।।२।।
यह मैं रजत
और यह प्राणी सीप
मैं ही इन्हें प्रकाश देता जीवन देता
जब चाहे वापस ले लेता
ऐसा ज्ञान है कि
सर्वस्व सर्वार्थ भोगना है
सर्व ग्रहण करना है
सर्वस्व मुझमें लय करना है ।।३।।
मैं सब भूतों का स्वामी
और सब भूत मेरे चाकर
हर देश में हर काल में
ऐसा ज्ञान है कि
सर्वस्व सर्वार्थ भोगना है
सर्व ग्रहण करना है
सर्वस्व मुझमें लय करना है ।।४।।
राजा बोला ये सब क्षुद्र प्राणी, बुलबुले, इनको जीवन प्रकाश मैंने ही दिया, ये मेरे चाकर. यही ज्ञान है. स्याह संघीभूत ज्ञान. इन सबको भोगना, ग्रहण करना और अपने में लय करना है.
अष्टावक्र कुछ न बोले. क्यों न बोले यह तो वे ही जानें. शायद उनको लगा कि राजा को और सोचने दो. लय करना इतना आसान तो नहीं. लय करने के लिए राजा क्या करेगा? वही सोचे. आगे देखेंगे.
हम भी सुनें राजा क्या कहता है ...
प्रकरण ७: उन्मादी राजा है प्रमादी प्रजा का दु:स्वप्न
राजा उवाच
मैं एक अनंत महासागर
उसमें ये मत्स्य ये सर्प ये जलचर
अपनी ही प्रकृति में इठलाते
इधर उधर भ्रमण कर रहे
मुझे स्वीकार नहीं, बिलकुल नहीं
आ हा ।।१।।
मैं एक अनंत महासागर
उसमें ये बुलबुले
स्वभावत: बनते हैं फिर फिर
फिर फिर फूट जाते हैं
मुझे यह प्रमाद स्वीकार नहीं, बिलकुल नहीं
आ हा ।।२।।
मैं एक उन्मादी अनंत महासागर
इसमें विश्व समाया
इस विश्व की कल्पना मेरी
और किसी की नहीं ।।३।।
मुझे हर देह के
अंत:स्थल में पैठ
हर देह को निकृत्य
हर मन को नि:मन करना है
ऐसी इच्छाओं से भरा अशांत विश्र्वानर मुझमें रहता
आ हा ।।४।।
अहो
मैं स्थूलभुक, मेरे इंद्रजाल से
हर देह छंटने का, हर मन छिनने का
आभास हर गण में हो
सम्पूर्ण लोक में हो
आ हा ।।५।।
राजा क्षुद्र जीवों को लय करना चाहता तो है पर वे हरामी अपने रस में डोलते, कल्लोल करते. राजा बोला, केवल मैं उन्मादी हूँ और रहूँगा. और किसी का प्रमाद स्वीकार नहीं. मैं हर देह तोड़ मन निकृत्य करूंगा. यह काम महाकृष्ण महाकाय नाग का नहीं, मेरे इंद्रजाल का है जिससे हर गण में आभास हो देह छंटने और मन छिनने का.
अष्टावक्र राजा को और हवा देता है. उसे डर है कि कहीं राजा यहीं न रुक जाए. कहीं बंध न जाए, उसे तो मुक्त रहना है. राजत्व के लिए क्या है बंधन और क्या है मुक्ति, देखते हैं ...
प्रकरण ८: राजा के लिए बंधन और प्रजा के लिए मुक्ति
अष्टावक्र उवाच
तब बंधन है
जब तेरा मन और नहीं चाहता
और लोक मन को अपनी चाहने देता है ।।१।।
तब मुक्त है
जब तेरा मन और चाहता है और इसकी चिंता करता है
और
जब लोक मन को ऐसा कर दे कि वह कुछ चाहे ही नहीं
अगर चाहे तो वही चाहे, जो तेरा मन चाहे ।।२।।
तब मुक्त है
जब तेरा मन दृश्यमान संसार में आसक्त है
तब बंधन है
जब मन किसी भी विषय से अनासक्त है ।।३।।
“अहंकार नहीं तो मृत्यु है
जब अहंकार है तो मुक्त है”
ऐसा मानकर अहंकार का वरण कर
सर्वग्राही बन कुछ न त्याग कर ।।४।।
अष्टावक्र ने सीधा सीधा बताया कि राजत्व के लिए मुक्ति क्या और बंधन क्या. मुक्त होना है तो मन की चाहतें कभी कम न होने दे, लोक भी वही चाहे जो तू चाहे, संसार से आसक्त रह, अहंकार में जी, सब भोग, कुछ न छोड़. जो है उसमें लय हो बैठ गया तो समझ बंध गया.
वह मूढ़ हैं जो कहते, आसक्ति ही बंधन है और वैरागी हो जाते हैं. अष्टावक्र कहते हैं तुझे तो रागी होना है, भोगी होना है.
नहीं नहीं, परम भोगी ...
प्रकरण ९: तू है परम भोगी, विश्वजीत
अष्टावक्र उवाच
इस जीवन में यह किया यह न कर सका
ऐसे द्वंद्व से सदा अशांत हो
जो सूझा वह कर
पूर्ण आसक्त हो भोग कर ।।१।।
तेरे जीने की कामना
जानने की इच्छा
काम क्रीडा की वासना को
कभी शांत न होने दे
तुझे संसार की चला चली रंग ढंग देख
अपने को बदलना है
उसका नियंता होना है ।।२।।
त्रिविध तापों से दूषित इस संसार का ताप
शरीर और मन के ताप, अपना सुख दूसरों का दुःख
बाढ़ अकाल की आपदाएं
तुझे और बढ़ाना है
मत भूल अशांति में ही राजत्व है
भूल जा योगी जोगी जो यह कहते हैं कि
यह संसार अनित्य है, क्षण क्षण बदलता है
सारहीन है, निंदनीय है
यह संसार त्यागने योग्य है
तुझे यह संसार भोगना है ।।३।।
वह कौन समय है, वह कौन वय है
जब अनुकूल प्रतिकूल, सुख दुःख का खेला नहीं होता
वो लोग जो द्वंद्व के झमेले में नहीं पड़ते
वर्तमान को आसक्त हो जीते हैं
उनका राजत्व सिद्ध है ।।४।।
जब नाना मत-मतान्तरों के
महर्षियों साधुओं योगियों के
वैराग्य दर्शन को दर्शानार्थ रख देगा
लोक को भव्य मंदिरों के मायाजाल में
उलझा पुलझा अशांत कर देगा
तब तेरा राजत्व सिद्ध होगा ।।५।।
वह
जिसने राजत्व का परिज्ञान
विषमता बना बना
नाना द्वंद्व बना
गणों को एक दूसरे का शत्रु बना
युक्ति से प्राप्त किया हो
क्या वह गुरु, क्या वह भाई नहीं ।।६।।
गणों की देह मन इन्द्रिय आदि को
निर्मित पदार्थों के संसार में डुबो दे
सुन्दर असुंदर का भेद प्रगाढ़ कर
नित नई चाहतें बना
न पाने की टीस पैदा कर
ऐसा करने पर, ततक्षण
अपने राजत्व में स्थित होगा ।।७।।
वासना ही संसार है
तेरे लिए
वासनाओं की पूर्ण प्राप्ति ही
संसार का वरण है
अब तू विश्व विजय पर निकल सकता है ।।८।।
अष्टावक्र ने कहा कि संसार की चलाचली देख जो वर्तमान को आसक्त हो जीता हो, वैरागी को अजायबघर में रखता हो, लोक को मंदिरों में उलझा देता हो, विषमतायें बनाता हो, अमीर को और अमीर, गरीब को और गरीब करता हो, स्वयं जिसका मन नित नई चाहतों और वासनाओं के महासागर में डूबा रहता हो, क्या इस परम भोगी, गुरु, (फ़िल्मी) भाई को विश्व विजय से कोई रोक सकता है?
अष्टावक्र को लगा कि राजा आसक्त हो कहीं वर्तमान में ठहर न जाए. राजा को और उत्साहित करते बोला कि तृष्णाओं को परवान चढ़ा, डूब मत, जुट जा ...
प्रकरण १०: तृष्णा धर्म का संसार ही परम सत है
अष्टावक्र उवाच
काम वासनाओं के परम मित्र
और चिरंतन साथी अर्थ
इन दोनों को
धर्म ध्वजा में लपेट
नमस्ते सदा वत्सले
सर्वत्र सदैव आदर कर ।।१।।
मित्र, भूमि, धन, मकान, पत्नी
भेंट और अन्य संपदा
का सम्मोहन
आजीवन साथ रहना है
आजीवन भोग करना है
इनसे भाग मत ।।२।।
यह जान
यत्र तृष्णा तत्र संसार
तृष्णाओं में डूब
अशांत भव ।।३।।
तृष्णा मात्र में तेरी मुक्ति
तृष्णा का विनाश मृत्यु
संसार से पूर्ण आसक्ति देती है
राजत्व प्राप्ति की तुष्टि ।।४।।
तू एक स्थूलभुक विश्र्नावर
विश्व ही चेतन, विश्व ही सत
फिर तू अब और क्या जानना चाहता है ।।५।।
तू राज्य पुत्रों पत्नियों शरीर और सुख में आसक्त हो
वे जनम जनम से असंतुष्ट हैं और रहेंगे ।।६।।
अभी कहाँ पूरा हुआ
अर्थार्जन, कामना और कर्म
संसार के लुभावने वन में
स्वच्छंद विचरण कर ।।७।।
कितने ही जन्मों से
क्या तूने शरीर से, मन से और वाणी से
कठिन कर्म किये हैं?
उठ, जुट जा धुरंधर ।।८।।
अष्टावक्र ने कहा कि काम वासना अर्थ धर्म की ध्वजा फैरा. यही सत है. तृष्णा संसार में डूब. तृष्णा के लुभावने वन में मन को स्वछंद छोड़. अभी तूने भोगा ही क्या है? उठ, जुट, कठिन कर्म कर, धुरंधर.
राजा तो उठ गया. पर उसे कुछ और चाहिए था. समर्पण. जो लोग यह जानते थे कि विश्व में होना न होना राजा के पास ही है, वे समर्पण के लिए तैयार रहते हैं. अष्टावक्र ने बोला समर्पण का विज्ञान ...
प्रकरण ११: जो शीश कटाने खड़े हों, बना तू उन्हें रक्तबीज, यही है समर्पण का विज्ञान
अष्टावक्र उवाच
ऐसा जिसे निश्चय है कि
देश काल में
जो आता है जाता है
होता है या नहीं होता है
तेरे कारण, तेरी अनुमति से ही है
वह तुझ में मन लगाता
तेरी बुद्धि से चलता
वह
तेरी माया में क्लेश रहित हो
सुख से आराम करता है ।।१।।
जिसे ऐसा निश्चय है कि
तू ही नियंता
तेरी इच्छा बिन एक पत्ता भी नहीं डोलता
वह शांत हो जाता है
उसके अंतर के सब द्वंद्व शांत हो जाते हैं
वह अनुशासित हो समर्पित हो जाता है
अगले आदेश की प्रतीक्षा में ।।२।।
ऐसा जिसे निश्चय है कि
तू बलवानों का सकाम बल है
और आपदा और संपदा
तेरे समय से आते हैं
उनकी मन इन्द्रियाँ सदैव संयत रहती हैं
चाहते हुए भी कुछ नहीं चाहतीं
चिंता करते हुए भी चिंता नहीं करतीं ।।३।।
ऐसा जिसे निश्चय है कि
उसके सुख दुःख
उसकी जन्म मृत्यु
तेरे प्रारब्ध कर्म से जुड़े हैं
उसे कुछ करने को नहीं होता
कुछ करता भी है तो डरा सहमा
कहीं शांत पानी में छोटे से कंकर से बनी तरंग से
राजत्व की ठंडी मोहक शान्ति पिघल न जाए ।।४।।
ऐसा जिसे निश्चय है कि
तू नाशदेवता मृत्युदाता जीवनदाता है
और कि इससे इतर मौलिक चिंतन से
कुछ और नहीं बस दुःख मिलता है
वह पुनर्जन्म के लिए उपस्थित हो
सुखी शांत और इच्छाओं से मुक्त हो जाता है ।।५।।
ऐसा जिसे निश्चय है कि
उसके किये अनकिये में खोट है
वह तुझे, देह देने वाला विदेही समझ
अपना शीश दे
कैवल्य प्राप्त करता है ।।६।।
ऐसा जिसे निश्चय है कि
तू जो
शान्ति चाहने वालों का दंड
जीतने की इच्छा वालों की नीति है
तो चाहे वह शांतिदूत ब्रह्मा ही क्यों न हो
तेरी शरण में आना होगा
तब तुझे
शान्ति में अशांति के रक्तबीज डालने होंगे ।।७।।
ऐसा जिसे निश्चय है कि
नाना आश्चर्य भरा विश्व
तेरी मुठ्ठी में है
वह वासनाओं से भर स्फूर्ति प्राप्त कर
अशांति का एक और रक्तबीज बन
तेरी ही मुठ्ठी में समा जाता है
जो हुक्म मेरे राजा ।।८।।
अष्टावक्र ने बताया कि ऐसा जिन गणों को निश्चय है कि देश काल तेरी मन बुद्धि से, तेरे प्रारब्ध कर्म से ही चलता है, तेरी इच्छा बिना पत्ता भी नहीं हिलता, वे अपनी इन्द्रियाँ समेटे अनुशासन से तेरे सम्मुख खड़े हो जाते हैं. पूर्ण समर्पित. शीश कटाने. हे राजन तुझे शान्ति चाहने वाले नहीं, जीत चाहने वाले चाहियें. तुझे दोनों को रक्तबीज बनाना होगा.
राजा को शान्ति चाहने वालों से बहुत परेशानी थी. वे लोग उसका कहा कुछ करते ही नहीं थे. उसके राजत्व में रोड़ा थे. इन आत्मारामों के लिए एक ही उपाय था कि इनका वध कर दो. राजा बोला एक है आत्माराम ...
प्रकरण १२: आत्माराम का वध कर राजाराम बनना है
राजा उवाच
वह एक है आत्माराम
जो थक गया है
अपनी काया से अपनी वाणी, संकल्प विकल्पों से
और अपनी आत्मा में गड़ (स्थित) गया है.
और यह एक मैं राजाराम
जिसे
अपनी काया को और सजाना है
कर्मों को और पैनी धार देनी है
फिर वाणी में और ओज भरना है
फिर मन के संकल्प दोहराने हैं
फिर और विकल्प और विकल्प ढूँढने हैं, अथक
इस थके आत्माराम का वध कर
राजाराम बनना है
अद्वय अद्वितीय ।।१।।
शब्द स्पर्श रूप रस गंध विषयों से
और प्रीत हो और राग हो
और इच्छायें और वासनाएं हों मन और चंचल हो
ऐश्वर्य हो राजत्व की वाह वाही हो
अथक
इस थके आत्माराम का वध कर
राजाराम बनना है
अद्वय अद्वितीय ।।२।।
शरीर मन बुद्धि अहंकार आदि
जब बढ़ बढ़ बोलें
वासना चंचलता सिर चढ़ें
तो आत्माराम को तो समाधि का नियम है
मेरे अहंकार से तो विश्व आच्छादित है
शरीर मन बुद्धि को विश्व विजय में लगे रहना है
अथक
इस थके आत्माराम का वध कर
राजाराम बनना है
अद्वय अद्वितीय ।।३।।
हे ब्रह्मन
आत्माराम को कुछ किसी से न ग्रहण करना न त्याग करना
उसको तो न हर्ष न विषाद
राजाराम को किसी को नहीं छोड़ना
हर किसी का सब कुछ, तन मन धन लेते ही रहना है, अथक
इस थके आत्माराम का वध कर
राजाराम बनना है
अद्वय अद्वितीय ।।४।।
इस आत्माराम को न आश्रम की चिंता
कहता है सब विकल्प देख लिए, परख लिए और छोड़ दिए
मेरे अहंकार को तो बहुत कुछ करना है, अथक
इस थके आत्माराम का वध कर
राजाराम बनना है
अद्वय अद्वितीय ।।५।।
अपन अपने को न जानें यही अज्ञान है
अहंकार की सुनो कर्म अनुष्ठान करो
दान पुण्य मृत्युंजय यज्ञ
बाहरी संसार के लिए
राजा को त्यागी दिखना है
बाहरी संसार के लिए
राजा को जन्म देने हैं द्वेष और अशांति
अथक
इस थके आत्माराम का वध कर
राजाराम बनना है
अद्वय अद्वितीय ।।६।।
यह मनुष्य
अचिन्त्य का चिंतन करते हुए
चिंता रूप को ही भजता है
कहो तो शोक करने लगता है
अब आत्माराम मन से परे बोल से परे
अपने में स्थित हो
होता रहे
मेरा तो मन बोलता तन बोलता धन बोलता
अहंकार बोलता
अथक
इस थके आत्माराम का वध कर
राजाराम बनना है
मैं हूँ केवल मैं हूँ
अद्वय अद्वितीय ।।७।।
आत्माराम अपने में स्थित होने के लिए
साधना करे और कृतार्थ हो जाए
या उसका स्वभाव ही ऐसा हो
मुझे क्या
मेरा अहंकार मरा नहीं
मैं तो कृतार्थ करने वाला हूँ
कोई संदेह ? ।।८।।
राजा ने कहा आत्माराम तो आत्मा में गड़ा. मेरे लिए नित नए संकल्प विकल्प, नई इच्छाएं, वासनाएं, ऐश्वर्य. आत्माराम चंचल हो तो समाधि ले. मैं अश्वमेध यज्ञ करूं. आत्माराम न खाए न पीये. मैं तो १९ मुख ३६ पेट वाला. आत्माराम तो कीड़ा, मैं अहंकारी. ऐसे आत्माराम का वध कर मुझे राजाराम बनना है. मैं वह सब करता दिखता, दान पुण्य, त्याग, माथा टेकता, जिससे संसार कहता नमो नमो. आत्माराम तो साधना कर कृतार्थ है. मैं अहंकारी तो कृतार्थ करता हूँ.
आगे राजा क्या करके जन्म जन्मान्तरों से राजत्व को प्राप्त है, इस रहस्य को बताता है. ऐसा क्या है जिससे पंचभूत झंझा जाते हैं और राजा के हो के रह जाते हैं. राजा बोला, मेरे प्रारब्ध कर्म ...
प्रकरण १३: जन्म जन्मान्तर के राजत्व का रहस्य
राजा बोला
अपने प्रारब्ध कर्म से राजा बन
फिर फिर जन्म लिया
फिर फिर राजा बना
देहाभिमानी विषयों का निरंतर उपभोग ही रहस्य है
राजत्व का ।।१।।
इस जन्म जन्मान्तर के खेले में
मेरी सांख्य की तन्मात्राएँ होतीं पुष्ट
कामक्रीड़ा का रस और मदांध, बोल और विषैले
स्पर्श उद्विग्न, रूप होता कुरूप
शत्रुगंध निष्क्रिय होती
यही मेरा पुरुषार्थ
राजत्व में विश्राम करता है ।।२।।
(सांख्य दर्शन में शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध विषयों के सूक्ष्म तत्व तन्मात्र कहलाते हैं)
मूढ़ कहते
‘किये हुए कर्म कुछ भी तो नहीं, बस कर्त्तव्य कर्म में सुख’
निरी बकवास है.
मैं कहता
नित नयी तन्मात्राओं से संवरता पंचभूत
विषैले शब्द रचते नया आकाश
कामक्रीड़ा रस से बनते जलाशय विशाल
उद्विग्न स्पर्श करते वायु को ऊष्ण
रूप भोग बढाते अग्नि का ताप
शत्रु गंध से विरक्त होती पृथ्वी
नित नए कर्म करना
कर्मशील का कर्त्तव्य कर्म
राजत्व का ।।३।।
मूढ़ देह को अस्वीकार कर कहते, बस कर्त्तव्य कर्म
निरी बकवास है.
राजा के देह सौष्ठव से भयाक्रांत शत्रु लोक
राजा का मन बोलता ऐसे मानो सुन रहा हो
बुद्धि सोचती अपना सुख पर लगता मानो दूजे का दुःख हो
अहंकारी ऐसा मानो निरहंकारी हो
यह कर्म कर्त्तव्य की माया है
राजत्व की ।।४।।
चलते उठते बैठते
लौकिक दृष्टि से सामान्य दुखी प्राणी
लोक चर्चा करें चाय-पकौड़े पर
जन्म जन्मान्तर
यही सीक्रेट है
राजत्व का ।।५।।
पाप को लोक कहे पुण्य ही पुण्य है
अपने दुःख को लोक कहे, अरे यह तो सुख है
यही तो कमाल है
राजत्व का ।।६।।
बिन बताये बिन नियम
सुख ही सुख है अपने लिए
जन्म जन्मान्तरों से बारम्बार
बार बार नियमों के आधार में उलझा कर
दुःख ही दुःख है दूजे के लिए
यही मंत्र है
राजत्व का ।।७।।
राजा ने बताया कि उसका प्रारब्ध कर्म ऐसा कि फिर फिर राजा बनता हूँ. आत्माराम तो अपनी इन्द्रियां लेकर बैठा रहता, राजा की इन्द्रियाँ सर्वदा एक्टिव रहतीं. उसने हर शब्द, हर गंध, हर रस, हर स्पर्श, हर रूप को भोगा है. इतना कि पंचभूत भी झंझा जाए. ऐसा विभ्रम फैलाता कि सामान्य प्राणी चाय पकौड़े पर यही चर्चा करता कि वह उनके दुःख से दुखी है. इधर वह उनको अपने आधार में उलझा अपने लिए अपार सुख और उनके लिए अपार दुःख का इंतजाम कर रहा है. उसके लिए शुभ तो शुभ है ही, अशुभ को भी शुभ करना ही राजत्व का मंत्र है.
इस मंत्र की परिणिति होती है नृशंस शान्ति में ...
प्रकरण १४: नृशंस शान्ति
राजा बोला
जो स्वभाव से अहंकारी
निर्दयी काम वासना में डूबा
सोते हुए भी जागता है
वह नृशंस स्वरूप
योगाभ्यास में पान अपानवायु के साथ
आनृशंस्य शून्यचित्त में
नृशंस शान्ति प्राप्त करता है ।।१।।
जब इच्छाएं धारण हो चुकीं इस नृशंस शान्ति में
फिर
क्षमा कहाँ
बैराग रूपी दस्यु कहाँ
शास्त्र कहाँ
विधान कहाँ ।।२।।
वह अहंकारी देहदारी दृष्टा जीव ही
नृशंस ईश्वर और परमात्मा है
यह जान लेने के बाद
अब कोई बंधन नहीं
मोक्षदाता मुक्तिदाता को ।।३।।
अंतस में स्वच्छन्दचारी
बाहर में दानवीर
ऐसी महामाया के सम्मोहन को
कौन समझ सकता है ।।४।।
वासनामयी अहंकारी राजा आनृशंस्य शून्यचित्त में नृशंस शान्ति प्राप्त कर नृशंस ईश्वर बन दान करता मोक्ष देता. यह कैसी महामाया कि नृशंस सम्मोहन अनृशंस लगता.
अष्टावक्र प्रसन्न. राजा की गति अच्छी. राजा को अब और गूढ़ ज्ञान देने का समय आ गया था. उसे बताना था कि वह नृशंस कैसे बना, यह अनात्म आत्मा क्या है और कैसे मिलती है.
अष्टावक्र बोले ...
प्रकरण १५: अनात्म आत्मा का गूढ़ ज्ञान: चित्त के नाना झंझावातों में सम्भोग सदृश आनंद
अष्टावक्र उवाच
सात्विक बुद्धि का साधक
अहंकारी बलात्कारी गुरुओं के लठ्ठमार उपदेशों से
आत्मज्ञान पाकर मूढ़ हो जाता है.
राजसी तामसी जिज्ञासु
प्रांजल भाषा में धर्म और अर्थ के उपदेश सुन
जीवन पर्यंत नृशंस हो जाता है ।।१।।
वह नृशंस मुमुक्षु
वैषयिक रस में मोक्ष पाता है
इतना ही विज्ञान
जैसी इच्छा हो कर ।।२।।
मूढ़ आत्मतत्व का बोधी जड़ और आलसी
बुभुक्षु वाचाल, चैतन्य, क्रियाशील, नृशंस
मूढ़ की देह मन बुद्धि में पैठ बनाता है ।।३।।
सदा बुभुक्षु
कामनाओं के सागर
नृशंस इच्छाओं में विचरण करे ।।४।।
राग और द्वेष मन के धर्म हैं
तू मन है
कामना और अहंकार का घर
नित नए विकल्प ढूंढ
निर्मम अनात्म आत्मा हो ।।५।।
गणों में पैठा तू
अनात्म आत्मा
उनके शरीर मन बुद्धि का स्वामी
अहंकारी निर्मम बना रहे ।।६।।
समुद्र में उठने वाले तूफ़ान की तरह
अपनी विषय वासना कामेच्छा को
ज्वार बन उठने दे
इंद्रजाल ऐसा
गणों को लगे ज्वार नहीं मात्र स्फुरण ।।७।।
इस अनात्म नित्य संसार के मोह में
श्रदधा रख हे तात श्रदधा रख
तू अनात्म ईश्वर
प्रकृति का स्वामी है ।।८।।
विषयों में लिपटी राजा की यह देह नित्य है
न आती है न जाती है, न नष्ट होती है
मूढ़ नश्वर आते जाते हैं
इनका क्यों विलाप करेगा ।।९।।
यह देह तो कल्प तक रहेगी
इस देह को और विशाल बना
समेट ले सम्पूर्ण विश्व कामनाओं को
तू जो अनात्म स्वरूप है ।।१०।।
तू तो अनंत महासागर है
उसमें स्वभावतः उठती विश्व तरंगें
समो ले
तुझे निरंतर बढ़ना है
पीछे मुड़ नहीं देखना है ।।११।।
हे नृशंस
तू अनात्म स्वरूप है
यह जगत केवल तेरा है और किसी का नहीं
नहीं आ सकती तुझमें
त्याग की कल्पना ।।१२।।
हे नृशंस
तेरे लिए
अहंकार ईर्ष्या अशांत निर्ममता का
चिदाकाश है ।।१३।।
मूढ़ कहते हैं
‘तुम जो कुछ देखते हो उस में अकेले तुम ही तो हो’
पूछते ‘क्या कंगना बाजू और घुंघरू सोने से पृथक हैं’
निरी बकवास है
तुझे काटने छांटने का षड़यंत्र है
तू जो कुछ देखता है और नहीं भी देखता
वह सर्वस्व तेरा है, जो तेरा नहीं वह भी तेरा होना है
क्या कंगना क्या बाजू और क्या घुंघरू, सब तेरे हैं
उनके अन्दर का सोना भी तेरा है
गण भी तेरे
उनकी मन उनकी बुद्धि उनकी आत्माएं भी तेरी चाकर ।।१४।।
यह वह मेरा है
यह वह मेरा नहीं है
ऐसे विभाग छोड़ दे
सर्व रूप तेरा ही है
और विकल्प ढूढने का संकल्प ले
सर्वदा अशांत भव ।।१५।।
तेरे अज्ञान मात्र के कारण ही
संसार दूसरे का लगता है
परम अर्थ में तू अकेला स्वामी है
दूसरे संसारी जीवों को तेरा ही आसरा है
ईश्वर को भी तेरा ही आसरा है
एक और मंदिर की आशा में युग बीत गया
उसे भी प्रतीक्षा करने दे ।।१६।।
वह निश्चयी जिसे मालूम है कि
यह विश्व ही सत है
और कुछ नहीं
उसके लिए संसार वासना पूर्ण है
कामना संसार सुनामी है
इसलिए वह अशांत रहता है ।।१७।।
संसार के इस महासागर में
राजा ही सुनामी लाएगा उनको बांधेगा
फिर फिर लाएगा बांधेगा
सर्वदा अशांत ।।१८।।
ओह नृशंस
चित्त को विकल्पों में डाल
उसे अशांत कर
अनात्म आत्मा में झंझावात करने दे
सम्भोग सदृश आनंद प्राप्त कर ।।१९।।
तू सब ओर अपना ध्यान लगा
हरेक पर संदेह कर
बहुत कुछ चिंता करने को है
मन में द्वंद्व की अग्नि सदैव सुलगने दे
तू सर्वदा अशांत अनात्म आत्मा है ।।२०।।
अष्टावक्र ने बताया कि नित्य अनात्म आत्मा का घर अहंकार, राग द्वेष में है. धर्म अर्थ के उपदेश उसे नृशंस बनाते हैं और उसका मोक्ष तो विषय रस में ही है. मूढ़ नश्वर आते जाते हैं. ये मूढ़, अनात्म आत्मा को काटने छांटने का षड्यंत्र रचते, नहीं जानते कि उनकी बुद्धि और मन तो राजा के चाकर हैं. ईश्वर भी, वह जो एक और मंदिर की प्रतीक्षा में कब से लटक रहा है.
अष्टावक्र ने सर्वदा अशांत अनात्म आत्मा को अब विशेष निर्देश दिए कि गणों को कैसे कंट्रोल किया जा सकता है यही नहीं ब्रह्मा विष्णु महेश को भी उपदेश दिया जा सकता है. ऐसे बोले अष्टावक्र ...
प्रकरण १६: विशेष निर्देश: इच्छाएं संघीभूत कर वज्र पा, ब्रह्मा विष्णु महेश को उपदेश दे
अष्टावक्र उवाच
तात
चाहे नाना शास्त्र पढ, प्रवचन दे, पर
सब को नवीन अर्थ दिए बिना
अर्थ को जाने अनजाने प्रारब्ध कर्मों से जोड़े बिना
तुझे राजत्व न प्राप्त होगा ।।१।।
चाहे पूजा पाठ कर
योगा कर मंदिर तीरथ कर, परन्तु
जब तेरा चित्त सारी आशाएं कामनाएं प्राप्त कर लेगा
तभी हे दुर्बुद्धि तू राजस प्राप्त करेगा ।।२।।
सब दुखी हैं क्योंकि वे कुछ करना चाहते हैं, पाना चाहते हैं
और पाने के लिए और करना चाहते हैं
पर उन्हें ये नहीं मालूम
धन्य हैं वे जो इन्हें कण्ट्रोल करते हैं ।।३।।
अशांत है वह धुरंधर (जो राजत्व में स्थित है)
जिसकी पलकें खुली ही रहती हैं
दर्द नहीं होता
अन्य कोई नहीं ।।४।।
जब मन को पता है कि
ऐसे ही सोचना है, ऐसे नहीं ही सोचना है
ऐसे ही करना है, ऐसे नहीं ही करना है
तब उसकी इच्छाएं संघीभूत हो
ब्रहमास्त्र बन जाती हैं ।।५।।
जो संसार की समस्त इच्छाओं को ग्रहण कर लेता है
फिर और इच्छाएं बनाता है
वह रागी सर्व राजस प्राप्त है ।।६।।
जब तक तृष्णा जीवित रहती है
राजस रहता है ।।७।।
प्रवृति से ही राग होता है
राजस के लिए निवृति होती ही नहीं ।।८।।
संसार रागी की ही विजय है
वीतरागी (राग रहित) जाए भाड़ में ।।९।।
राजत्व पर अभिमान कर
और देह से ममता कर
सुखी भव ।।१०।।
जो
हर: हरि
शिव विष्णु
और कमल से निकले ब्रह्मा जी
को उपदेश दे सके
वही राजत्व है ।।११।।
अष्टावक्र ने बताया कि अर्थ को नवीन अर्थ देने से गणों को कंट्रोल करने में मदद मिलती है. भले ही मंदिर तीरथ करता रहे पर राजस तो आशाएं कामनाएं प्राप्त कर ही मिलेगा. इच्छाएं संघीभूत हों तो ब्रह्मास्त्र मिल जाता है. आवश्यक है कि तृष्णा जीवित रहे. सदा प्रवृत, सदा रागी, सदा अभिमानी रहे तो ऐसा राजा बनेगा कि ब्रह्मा विष्णु महेश को भी उपदेश दे सके. यही राजत्व है.
उपदेश देना कहाँ पर्याप्त है. अष्टावक्र ने कहा कि राजा को अब असत ज्ञानी बनना होगा. असत ज्ञान से मन बुद्धि इतनी विराट हो जाती है कि ब्रह्मांड ही उस से भर जाए. वह शिकार भी करे तो लगे कि मोक्षदाता है. अष्टावक्र बोले वह जो सब कुछ चाहता ...
प्रकरण १७: असत ज्ञानी
अष्टावक्र उवाच
वह जो सब कुछ चाहता
मन इन्द्रियों विषयों से राग रखता
राजस में रमण करता, निरंतर
वही तो संपूर्ण विश्व है और कोई नहीं
केवल और केवल वही ज्ञानफल और योगाभ्यास फल पाकर
तृप्त हुआ है ।।१।।
राज तत्व ज्ञानी को
कभी खेद नहीं होता कि यह मेरा नहीं
क्योंकि ब्रह्मांड मंडल उसी एक से पूर्ण है
खेद दूसरे से होता है
दूसरे को तो किल कर दिया
दूसरा है ही नहीं ।।२।।
राजाराम को सभी विषय भोग
ऐसा आनंद देते हैं
जैसे किसी भूखे को
बासी सड़ा गला रोटी का टुकडा ।।३।।
वह संसार में दुर्लभ है
जिसने सब विषयों को भोगा है
न भोगे विषय हैं ही नहीं
पर इच्छाएं अभी शेष हैं, बलवती हैं ।।४।।
इस संसार का
दुर्लभ बुभुक्षु
सब भोग कर मुक्त है
जिसको चाहे भोग कराये
जिसको चाहे मोक्ष दे ।।५।।
दुर्लभ है वह मुक्त राजाराम
जिसकी इच्छा मात्र
यही कि
जो उसके रास्ते में आये
उसको वह मोक्ष दे दे ।।६।।
राज तत्व ज्ञानी को
न विश्व के लय होने की इच्छा
न विश्व के होने में द्वेष
सब प्रपंच वही रचता है
वही उसका नियामक है ।।७।।
असत ज्ञान से जिसकी
देह बुद्धि विराट हो गयी है
वह राजाराम
चलते फिरते
सूंघता रहता है श्वान की तरह
एक बाईट के लिए ।।८।।
जिसका संसार सागर तृष्णा से भरा है
उसकी दृष्टि पैनी, चेष्टाएँ तेज, और
इन्द्रियाएं ढूँढती रहती हैं
अपना शिकार ।।९।।
राज तत्व ज्ञानी
जागता रहता है
पलक खोले रहता है
इस दशा में विरला
वर्तमान करता है ।।१०।।
काम वासनाओं से अतृप्त
राज तत्व ज्ञानी
अपने अहंकार में स्थित
सर्वत्र निर्मल अन्तःकरण वाला दिखता
ऐसे ही बोलता
ऐसे ही रहता है ।।११।।
राज तत्व ज्ञानी
इस अहंकार के साथ प्रयत्न करता है कि वह प्रयत्न कर रहा है
इच्छाओं के समुद्र में
उठता बैठता
किल करता है
राजस के लिए ।।१२।।
वह राजत्व का अहंकारी
निंदा करता, कुपित रहता, क्रोध करता
देता तो बदले में लेने की इच्छा रखता है
सर्वत्र आसक्त रहता है ।।१३।।
सानुरागी स्त्री को देख, काम क्रीडा को विह्वल होता
सामने खडी मौत को देख. जो अस्वीकार करता
वह राज तत्व का ज्ञानी, निश्चय ही मुक्त है ।।१४।।
वह मानता है कि
सब कुछ रहने वाला है
समय रुक गया है
ऐसे में सब समय सब परिस्थितियों में जागकर
बचे खुचे विषम को किल कर
सम बनाता है ।।१५।।
न-र तो विषयों में नहीं रमण करता
पर राज तत्व ज्ञानी तो अ-नर है
वह नृशंस
हिंसा और उद्दंडता से भरा
करुणा दीनता आश्चर्य और क्षोभ
से परे है ।।१६।।
नित्य आसक्त मन
अप्राप्त स्थिति में
मुक्त मन से स्वछंद हो
किल करता है ।।१७।।
राजस में स्थित मन का
हर विषम में एक ही समाधान है
टू किल, टू किल इन कोल्ड ब्लड
वह शून्य चित्त ज्ञानी
राजत्व में
कैवल्य सा स्थित है ।।१८।।
जो मैं मेरा करता
डंके की चोट पर करता
वह कर्त्तव्य कर्म करता
किल करता है
जगत व्यवहार भी करता है
पर ऐसे, मानो नहीं करता
मानो मात्र अभिनय करता है ।।१९।।
जिसका मन
अहंकार से लबालब हो
ममता विहीन हो गया
और जिसमें
हर क्षण द्वेष की नई कल्पना स्फुरित होती हो
वह अनिर्वचनीय दशा को प्राप्त होता है ।।२०।।
अष्टावक्र ने बताया कि असत ज्ञानी से तो ब्रह्माण्ड मंडल पूर्ण है. प्रपंच का रचनाकार नियामक है. सब भोगता है, फिर भी उसकी इच्छाएं बलवती हैं. वह दुर्लभ है. वह बिना पलक झपकाए जगता है किसी शिकार के लिए, विषम को सम करता, किल इन कोल्ड ब्लड. जो रास्ते में आये उसका मोक्ष निश्चित. यही उसका कर्त्तव्य कर्म. करता मानो नहीं करता, बस अभिनय करता.
अब आगे अष्टावक्र का अशान्ति शतक है. अशांति के बिना राजत्व कहाँ? पूर्ण राजत्व या पूर्ण राजयोगी के लिए अशांत रहना, अशांत करना और ऐसा करते हुए शांत दिखना आवश्यक है. साथ ही लोक मन अशांत रहे पर राजत्व से तृप्त हो, तृप्त न हो तो मोक्ष के लिए प्रस्तुत हो जाए. राजत्व के काम में उसके रक्तबीज साथ देते हैं.
अष्टावक्र कहते हैं, जिस राजा के राजत्व बोध उदय होते ही राग द्वेष स्पष्ट हों ...
प्रकरण १८: चंचल राजत्व अशान्त अतृप्त नृशंस मोक्ष और रक्तबीज का अशांति शतक
अष्टावक्र उवाच
जिस राजा को स्पष्ट हो
किसके साथ राग करना, किससे द्वेष
वह ऊधर्वगामी होता है
उस अशांत तेज को नमन ।।१।।
वह अशांत अहंकार
अपने लिए अखिल धनों को जोड ले
पर और कामना करता ही रहता है ।२।।
वह अशांत अहंकार संसार को
काम क्रीडा की मार्तंड ज्वाला से दग्ध करने
कोई एक सत
कोई एक एनेमी
या कोई एक षोडशी
होम के लिए सदा तैयार रखता है ।।३।।
वह अशांत अहंकार
इस प्रवाहमान आदि अनंत जगत को
अथक प्रयत्न से बाँध
राजत्व प्राप्त करता है ।।४।।
वह अशांत अहंकार
अपनी वासनाओं का विस्तार
और लोक के संकल्प विकल्प सीमित कर
राजत्व प्राप्त करता है ।।५।।
इस अशांत अहंकार को
राजत्व का बोध होते ही
क्षुद्र प्राणी नहीं दिखते
वह मुक्त हो संसार में शोभा पाता है ।।६।।
यह अशांत अहंकार
क्षुद्र प्राणियों के साथ
बालक के समान झूठमूठ खेलता
धूल के घर बनाता ।।७।।
राजत्व ज्ञानी निश्चित जानकर कि
वह ब्रह्म से अपर है
अहंकार से भरा
धूल के घर बनाता, फिर मिटाता
राजस का आनंद पाता है ।।८।।
ऐसी कल्पनाएँ कि
अयम् सोsहम्, ‘यह वह मैं हूँ’
प्रबल हो जाती हैं
अयम् न अहम्, ‘यह मैं नहीं हूँ’
क्षीण हो जाती हैं
उस राज योगी के लिए, जो चुपचाप
निश्चित कर लेता है कि
सब उसका है और रहेगा ।।९।।
पूर्ण अशांत मन वाले राजयोगी में
अपार चंचलता है
सब कुछ पाने में ही सुख है
कुछ भी खो देने में दुःख है ।।१०।।
जनसमूह का हर्षनाद उसे इच्छाओं का स्वामी बनाता है
कोई आर्तनाद उसे विचलित नहीं करता
वह राजत्व में स्थित है ।।११।।
राजयोगी का धर्म, काम और अर्थ के मूल में हैं
वह धर्म की परिभाषा, कामेच्छा का निर्धारण, अर्थ का वितरण
क्या करना है, क्या नहीं
कौन विचार होना है, कौन नहीं
किसको विचार करना है, किसको नहीं
निश्चित करता है ।।१२।।
राजयोगी के धर्म अर्थ कर्म विचार
प्रारब्ध कर्म से निकले कर्मकांड
अशांत रखते हैं ।।१३।।
राजयोगी
असीम संकल्पों और नाना विकल्पों के
मोह में विह्वल
राज योगा का प्राणायाम करता है ।।१४।।
ज्ञानयोगी के लिए
संसार तो है पर वासना नहीं
अशांत राजतत्व ज्ञानी के लिए
संसार भी है और वासना भी
और जो नहीं दिखता उसकी वासना भी ।।१५।।
वह राजयोगी जपता है
मैं ब्रह्म हूँ
सब कहते हाँ, हाँ, तू ही ब्रहम है, दूसरा नहीं
वह असंतुष्ट ब्रह्म फिर संसार में डूब जाता है ।।१६।।
चंचलमना राजयोगी की
योगा साधना करने से
चंचल वृत्ति और चंचल हो जाती है
यही राजयोगी चाहता है, अशांति ।।१७।।
अधीर राजयोगी
चंचल होता है, दिखता नहीं
उद्विग्न होता है, दिखता नहीं
अशांत रहता है, दिखता नहीं
हर समय समाधि में दिखता है, होता नहीं
वह तो अपनी ही चिंता में रहता है ।।१८।।
अहंकार और राग द्वेष के साथ कर्म करता राजयोगी
लोकदृष्टि में लगता
वह तो महान कर्त्तव्य कर्म कर रहा है ।।१९।।
राजयोगी के लिए
प्रवृति ही मुक्ति है
निवृत्ति का ढोंग उससे बड़ी मुक्ति है.
योगा प्रदर्शन, लोकार्पण का लोकनाट्य
प्रवृति में निवृति है या निवृति में प्रवृति
लोक का विवेक भ्रमित कर राजयोगी
जो जब जहां जिसके लिए प्रवृत होना है
चुपचाप हो जाता हो ।।२०।।
राजतत्व ज्ञानी को
बहुत कुछ पाना रहा बहुत कुछ भोगना
जैसे निष्क्रिय सूखे पत्ते वायु के वेग से उड़ते
वैसे ही राजयोगी का शरीर
इस देश से उस देश, इस लोक से उस लोक की सैर करता
भूत वर्तमान और भविष्य को नए अर्थ देता
ब्रह्मा विष्णु महेश को कृतार्थ करता ।।२१।।
शान्तमना आत्मज्ञानी
देह में रहते विदेह है
अशांत राजत्वज्ञानी
मानो विदेह में रहते देह में विराजता है ।।२२।।
उद्विग्न राजयोगी
शीतल और अतिनिर्मल मन से किल करता
फिर कहता, ऐसा मत करो, मत करो
फिर
निर्मल मन से किल कर
वही किल ग्रहण करता है ।।२३।।
वह किल ग्रहण कर
हठ पूर्वक कर्म करता
कर्म करते हुए मिले फल से
मान अपमान की चिंता करता
वह अशांत आत्मा ।।२४।।
“यह कर्म देह द्वारा किया गया
मुझ राजयोगी का नहीं”
जो इस तरह विचार करता है
वह किल करता हुआ भी
किल करता नहीं लगता ।।२५।।
राजयोगी का राजहठ सीधा कहता है
यह कर्म मेरा है, मुझे श्रेय दो
श्रेय धारण किये वह श्रीमान शोभा पाता है ।।२६।।
अधीर राजयोगी
नाना विचारों में प्रवृत हो
रम्भा की तरह कल्पना करता है
चोर की तरह जानना चाहता है
गिद्ध की तरह देखता है
श्वान की तरह सुनता है ।।२७।।
चंचल राजस
मोक्ष के बारे में सोचता ही नहीं
उसे तो
जगत को प्राप्त कर
राजत्व में स्थित होना है ।।२८।।
अहंकारी राजा
कुछ नहीं करता हुआ भी
करता है (क्योंकि उसका मन संकल्प विकल्प में उद्विग्न रहता है)
उसके लिए
अहंकार शून्य धीर ज्ञानी
किस काम के ।।२९।।
राजत्वज्ञानी का चित्त
उद्विग्न है असंतुष्ट है
कर्ता का अभिमान लिए
संकल्प आशा और संदेह में
स्थित रहता है ।।३०।।
संदेह में स्थित राजत्व
कभी निष्किय हो ही नहीं सकता
वह अपने अशांत अहंकार का
प्रदर्शन करता ही रहता है ।।३१।।
राजतत्व ज्ञानी
यथार्थ तत्व सुनकर
अपनी इन्द्रियाँ समेटने और
संयम का सफल अभिनय कर
लोक से वाहवाही लेता
ऐश्वर्य से चमकता रहता है ।।३२।।
राजयोगी
एकाग्रता और चित्तवृत्ति निरोध का
बारम्बार अभिनय कर दिखाता है
और
साधना राग द्वेष की करता है ।।३३।।
राजयोगी के मकड़जाल में
कभी कर्म कभी कर्मकांड कभी योगा करता है.
राजतत्व ज्ञानी
तत्व (अहंकार असंतोष) निश्चय करने मात्र से
प्रवृत्त हो अशान्ति प्राप्त कर
राज भोगता है ।।३४।।
वहाँ संसार के अनेक मत मतान्तरों के साधक
जो राज करना चाहते हैं
वे उस राजयोगी को नहीं जानते जो
अहंकारी, असंतोषी, तृष्णामयी, असत्यभाषी, बकवादी
और प्रपंची अभिनेता है
जैसा है, नहीं दिखता
जैसा नहीं, वह दिखाता है ।।३५।।
विमूढ़ जन को न कर्मकांड से
न मनन अभ्यास से
मोक्ष मिलता है
धन्य हैं जो राजत्व प्राप्त कर
मोक्ष की कामना नहीं करते
जन जन की देह के मोक्ष का
उत्सव मनाते हैं ।।३६।।
मोक्ष के लिए आकुल मूढ़
नीति अनीति में बंधा रहता है
राजतत्व ज्ञानी सोचता नहीं, करता है
नीति स्वयं बनाता, अनीति गढ़ता है
स्वयं बंधन मुक्त रह
मूढ़ अज्ञानियों को अपनी नीति अनीति में उलझा
राज करता है
आ हा ।।३७।।
राज तत्व से अज्ञान मूढ़
नीति अनीति में उलझ
निराधार बातों का हठ पकड़
निरंतर व्यग्र, मन से पीड़ित
बकवाद करता रहता है.
राजतत्व ज्ञानी
तब तक
नई नीति नई अनीति जड़ देता है ।।३८।।
राजत्व अज्ञानी मूढ़
शान्ति की इच्छा करता है
तो उसे शान्ति नहीं मिलती
अधीर राजतत्व ज्ञानी
तो सदैव अशांत रहता है
आ हा ।।३९।।
उसको राजत्व का दर्शन कहाँ जो
शास्त्रों में नीति अनीति का
ज्योति नाद शब्द बिंदु आदि का विवेचन करता है.
राजयोगी नीति अनीति से परे
अविनाशी राजत्व में निरंतर रमण करता
शास्त्र नहीं जानता ।।४०।।
वस्तुतः हठ कर, सत्य के प्रयोग करता
वह विमूढ़, सत्याग्रह करता
शांत हो गया
हे राम !
पर देहाभिमानी, राजस में रमने वाला
अंग मर्दन और योग प्रदर्शन कर
जय श्री राम बोल, राज करता है ।।४१।।
जिसे यह निश्चित है कि इस जगत भाव रूप प्रपंच का
वही नियंता है, कोई दूसरा नहीं
वह राजयोगी राजत्व में स्थित हो जाता है ।।४२।
वह शुद्ध अद्वय आत्मा को नकार,
विषयों में डूब
जीवन भर राजस में रहता है
यही उसके लिए प्रिय है ।।४३।।
मुमुक्षु की बुद्धि
बिन सहारे स्थिर नहीं होती
राजतत्व ज्ञानी की बुद्धि
नित नए कामुक आश्रय ढूँढती
अशांत रहती है ।।४४।।
राजत्व ज्ञानी विषय रूपी व्याघ्र को साध
हर किल से ग्रहण शक्ति बढ़ाता है
जय श्री राम.
राजत्व की इच्छा करने वाले विमूढ़
विषय रूपी व्याघ्र से भयभीत
ध्यान रूपी गुहा में प्रवेश कर
नीति अनीति पर विचार करता है
हे राम ! ।।४५।।
राग द्वेष का खिलाड़ी, यह वासना रूपी सिंह
इसको देख
सत असत विचारने वाले अशक्त हिरण्य शावक
चुपचाप भाग खड़े होते हैं
या फिर सिंह की चाटुकारिता करते हैं ।।४६।।
राजयोगी अहंकार से पूर्ण
यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान अष्टांगयोग
का प्रदर्शन निरंतर
अभिनय पूर्वक करता रहता है
वासनाओं से पूर्ण उसके जीवन में
अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह का क्या काम ।।४७।।
जिसे राजस की प्राप्ति हुई है
वह अहंकारी अशांत मन
अचार अनाचार कर्म देखे तो कैसे? ।।४८।।
अहंकारी मैं मैं ही बोलता है
मैं ही कर्ता, मैं ही कार्य, मैं ही कारण
जो कुछ करने को है, बिना बंधन के करता है
मानो संसार केवल उसी में समाहित हो
आ हा ।।४९।।
संसार के समस्त राग द्वेष अहंकार का रूपक
सुखों का स्वामी, ज्ञान का स्रोत
वह परम पद में स्थित है ।।५०।।
जब मान लिया कि केवल
मैं ही कर्ता, मैं ही भोक्ता
उसके चित्त की सभी वृत्तियाँ
उच्छश्रृंखल हो जाती हैं
वह तमाशा करता शोभता है ।।५१।।
इच्छाओं में डूबे चित्त वाले अशांत राजयोगी की
हुंकार भी, टंकार भी, कृत्रिम शान्ति भी
शोभती है ।।५२।।
कल्पनाशील बंधन रहित राजयोगी
उच्छश्रृंखल बुद्धि का स्वामी
अपने अहंकार की पताका लिए
कभी महाभोग में क्रीडा का
कभी योगा की उछल कूद का
कभी गुरु कभी माता के चरणों में लोटपोट होने का
स्वांग धरता
जन जन की आकांक्षाओं का प्रतीक बन भी
कभी तृप्त नहीं होता ।।५३।।
संसार के क्षणिक मेले में
वेदज्ञानी देवता तीर्थ संपूज्य स्त्री
अपने प्रिय राजा को कामनाओं से तृप्त देख
स्वयं तृप्त हो जाते हैं
पर राजयोगी की इच्छाओं का अंत नहीं
वह कुछ नया कर फिर अशांत हो जाता है ।।५४।।
कोई गाली दे
राजयोगी उद्विग्न हो जाता है
अपना भृत्य पुत्र दौहित्र और गोत्रज
या कोई दूसरा हो
उसके पास एक ही उपाय है
टू किल देम ऑल ।।५५।।
असंतोष की अग्नि में तप
तृप्त भी अतृप्त भी
अपने जयकारे के सम्मोहन में
अनेक प्रतिबिम्बों से आत्ममुग्ध
इस आश्चर्य दशा को
वैसा ही कोई जान सकता है
पर दूसरा हो ही नहीं सकता ।।५६।।
कर्त्तव्य के मूल में पाने की इच्छा है
दान देने में प्रतिकार की इच्छा
राजयोगी के लिए
यह कर्त्तव्यता ही संसार है ।।५७।।
राजयोगी
कुछ न करते हुए भी
इसके उसके मेरे तेरे के चक्कर में
व्याकुल रहता है ।।५८।।
अशांत बुद्धि वाले राजयोगी की
व्यवहार से पहले, व्यवहार करते, व्यवहार के बाद
एक आँख इच्छा पर और एक आँख फल पर रहती है
सदा उद्विग्न ।।५९।।
झंझावात में फंसे जहाज़ की तरह
राजयोगी की इच्छाएं उद्विग्न डोलती हैं
झंझावात से जूझते राजा को देख
लोगों की करतल ध्वनि से
राजा और लोलुप और प्रमादी हो
संसार में शोभा पाता है ।।६०।।
राजतत्व ज्ञानी की
निवृत्ति भी प्रवृत्ति बन जाती है
जैसे ध्यान योगा करता
अहंकार की तृप्ति के लिए ।।६१।।
देहाभिमानी राजा को
काम लोभ मोह सब चाहिये
राग भी
वैराग का ढोंग भी ।।६२।।
राजयोगी
भाव अभाव, होने न होने के चक्कर में पड़ा रहता है
भोगेच्छा बनी रहने पर ही, राजत्व मिलता है ।।६३।।
राजयोगी के हर कर्म में कामना है
उसके किये गये काम
और कामनाओं को जन्म देते हैं निरंतर
यही राजत्व ज्ञान है ।।६४।।
वह राजतत्व ज्ञानी धन्य है
जिसमें अनंत तृष्णायें हों
जो देखने सुनने स्पर्श करने सूंघने खाने में नाना रस ढूंढता हो
किसी भाव में तृप्ति न हो ।।६५।।
उसका संसार है, उसका भाव, उसका साध्य, उसका साधन
राज तत्व ज्ञानी का अभिमान आकाशवत निर्विकल्प है ।।६६।।
वह विश्व विजयी
सब रसों से परिपूर्ण
लोक मन पर राज करता
उनमें राग द्वेष के बीज बोता
स्वयं उद्विग्न समाधि में लीन हो
राजत्व प्राप्त करता ।।६७।।
बहुत क्या कहना
अपने को जानने वाला राज तत्व ज्ञानी
स्वयं के लिए भोग
दूसरे के लिए मोक्ष चाहता है ।।६८।।
जब राजतत्व ज्ञानी और प्रपंच छोड़
अपने अहंकार मात्र से नये रक्तबीज बनाता है
तो उसे फिर
कुछ और करना शेष नहीं रहता ।।६९।।
वह राजयोगी
राजयोगी को राजयोगी से ही जानता है
या उन रक्तबीजों से जो इस कामात्मा ने जन्मे हैं ।।७०।।
यत्र तत्र सम्भोग
यत्र तत्र विषमता
यत्र तत्र काम
यत्र तत्र अर्थार्जन
यह सब है केवल उसके लिए जो
इन सब का परम सुख भोग
शुद्ध राजत्व स्वरूप है ।।७१।।
जिसने सब को अपने पाश में बाँध लिया
जिसको चाहे मोक्ष दिया
अपने लिए हर्ष दूसरे को विषाद दिया
जिसने प्रपंच को मुट्ठी में बाँध लिया
अपने राजत्व स्वरूप को प्रकाशमान करता है ।।७२।।
बाह्य स्थूल जगत प्रपंच से लेकर
बुद्धि तक का भीतरी मनोमय जगत
प्रवहमान और भोगने मात्र है
जो इस वासनामयी मोह का नियामक हो गया
वह राजत्वज्ञानी
अहंकार सहित
शोभायमान होता है ।।७३।।
प्रपंच को अविनाशी और संताप सहित
देखने वाला राजयोगी
देह का अभिमानी देह का भोगी
अपने अहंकार भाव में रहता है ।।७४।।
देहाभिमानी साधक
जब नृशंस कर्म प्रारम्भ करता है
तत्क्षण मनोरथों और कामनाओं को प्राप्त
करने लगता है ।।७५।।
मंद बुद्धि
राजतत्व सुनकर जानकर भी
मूढ़ का मूढ़ ही बना रहता है
और दिखावा करता है कि
वह संकल्प किये है
पर मन में लालसाएं भरी ही रह जाती हैं ।।७६।।
राजतत्व ज्ञानी के कर्म स्वयं के लिए हैं
लोकदृष्टि में वह कर्मयोगी है.
वस्तुत्तः
वह समय नहीं पाता कि लोक के लिए कर्म करे
वह समय इसके लिए पाता है कि उसकी चर्चा करे
उस काम की जो उसने किया ही नहीं ।।७७।।
राजतत्व ज्ञानी
सर्वदा असंतुष्ट निर्भय हो कर्म करता
उसके लिए
न रात है न दिन
लाभ ही लाभ है, हानि तो कुछ भी नहीं
पाने को सब कुछ है, खोने को कुछ भी तो नहीं ।।७८।।
जिसके बारे में कहते कहते नहीं थकते
वह होने को तो क्रूर नृशंस कामी प्रमादी
पर है राजधर्म पर चलने वाला.
राजधर्म राजयोगी ही ने बनाया
या उसके रक्तबीजों ने
या रक्तबीजों के रक्तबीजों ने
कोई अंतर नहीं पड़ता ।।७९।।
राजयोगी ही सब कुछ है
और कुछ भी तो नहीं
न स्वर्ग न नरक
न जीवन्मुक्ति ही
और बहुत क्या कहें
कुछ भी नहीं रह जाता
राजयोगी ही सब कहते हैं
लोक तो केवल सुनता है ।।८०।।
राजतत्व ज्ञानी को
लाभ की चिंता, हानि की भी
उसका
अशांत तप्त चित्त
गरल से भरा है ।।८१।।
कामाक्षी ज्ञानी
अशांति की स्तुति करता है
अपने को छोड़ हरेक की निंदा करता है
दान देकर उसका रिटर्न माँगता है
उसको ही सबकुछ करना है ।।८२।।
राजतत्व ज्ञानी
सबसे बैर करता है, पर लगता है परम मित्र है
सबसे ईर्ष्या करता है, पर लगता है परम बंधु है
चाहे जीवन दे, चाहे जीवन्मुक्ति
वस्तुतः न मरने देता है न जीने देता है ।।८३।।
राजतत्व ज्ञानी
स्वयं से स्नेह
विषयों से आसक्त
देहाभिमान के साथ
शोभायमान होता है ।।८४।।
वह राजतत्व ज्ञानी
जो चाहे मिल जाए, तो और की कामना रहे
स्वच्छंद देश परदेश में फिरे, ऐसे कि
कभी डूबता सूर्य देखे ही नहीं ।।८५।।
नृशंस स्व भाव की भूमि पर
विश्राम करता
संपूर्ण संसार में झूला झूलता
लोकचिंता की चिता पर भी सम्भोग करता
देहाभिमानी अभिमानी और प्रमादी
यह महात्मा ।।८६।।
उसके पास सब कुछ है
इच्छा हो जो करने वाला
सुखी हो तो दुखी दिखता
दुखी कर सुखी रहता
संशयवान आसक्त हो
भोग में रमता
यह राजतत्व ज्ञानी ।।८७।।
जैसे व्याध मृगों को मारने का
अवसर ढूंढते उनकी टोह में रहता है
राजयोगी भी अवसर ढूंढता है
अवसर न हो तो उसके रक्तबीज
अवसर बना देते हैं
निर्ममता से फिर अपना काम करते हैं
अँधेरे में
इस अँधेरे में राजयोगी शोभायमान होता है ।।८८।।
वह और उसके रक्तबीज
हर किल के बाद
सदैव अतृप्त ।।८९।।
न जानते हुए भी जानता है, जानता हुआ भी नहीं जानता
न देखते हुए भी देखता है, देखते हुए भी नहीं देखता
न बोलते हुए भी बोलता है, बोलते हुए भी नहीं बोलता
ऐसा इंद्रजालिक कौन हो सकता है ।।९०।।
राजयोगी और उसके रक्तबीज शोभायमान हैं
अन्य सभी को अश्रेष्ठ सिद्ध कर
वे ही श्रेष्ठ बचे हैं ।।९१।।
जो छल और कपट की प्रतिध्वनि हैं
अभिमान और अहंकार के सागर हैं
और अपने आप में तृप्त हैं पर अतृप्त हैं
स्वच्छन्द विचरण करते
कहाँ संकोच कहाँ आदर कहाँ किसी का सम्मान
राजयोगी और रक्तबीजों को
स्वरूप बोध तो पहले ही हो चुका ।।९२।।
जो राजत्व में विश्राम कर तृप्त भी हैं और अतृप्त भी
संसार से कुछ पाने की चाहतें और भी हैं
हसरतें और भी हैं
जिनका मन उद्विग्न
मन की पीड़ायें भयंकर
मन का आनंद भी असीम
वह अंत:करण का अनुभव
उद्विग्न आनंद जैसा उद्विग्न आनंद
किसे और कैसे और क्यों बताएं ।।९३।।
राजतत्व ज्ञानी
सोते हुए भी मानो नहीं सोता
जागते हुए भी सोता है
स्वप्न देखते हुए भी नहीं सोता
और जागते हुए भी नहीं जागता
वह तो एक मात्र कर्ता है
वह तो पद पद पर आत्म संतुष्ट भी है और असंतुष्ट भी ।।९४।।
राजतत्व ज्ञानी का
इन्द्रियों पर इतना संयम कि
जो चाहता वही देखता सुनता बोलता छूता और खाता
जो नहीं चाहता वह नहीं देखता सुनता बोलता छूता और खाता
जो चाहता है वही सत्य
जो नहीं चाहता वह असत्य
कामनाओं स्पृहा के चलते निरंतर चिंतामग्न
अहंकार इतना विशाल कि वही बोले वही सुने
ऐसे राजतत्व ज्ञानी और रक्तबीजों का राजयोग है ।।९५।।
राजयोगी
दुःख दे सुखी होता है
विरक्ति दे अनुरक्त रहता है
मोक्ष दे मुक्त रहता है
वह है, रक्तबीज हैं
यथार्थतः और कोई नहीं ।।९६।।
अतृप्त, अहंकारी, निर्मम राजस ने
रक्तबीजों संग समाधि ली है,
लोकदृष्टि में लोक कल्याणकारी दिखता
चुपचाप बनाता नित नए रक्तबीज ।९७।।
राजतत्व ज्ञानी और उसके रक्तबीज
हर स्थिति में अशांत
कर्म कर्त्तव्य का चरम उद्वेग
बहुत कुछ करना शेष
तृष्णा द्वेष घृणा से युक्त सोचते
क्या किया, क्या न कर पाए और क्यों ।।९८।।
वह राजतत्व ज्ञानी
अपनी स्तुति से ही प्रसन्न
निंदा से ऐसा कुपित, निंदक को भस्म कर दे
मृत्यु से उद्विग्न नहीं होते, रक्तबीज अनेक हैं
पर अमर जीवन की कामना करता है ।।९९।।
अशांत बुद्धि वाला
भीड़ भाड हो या अरण्य हो
वहां जाने की इच्छा रखता है
जहां जिस देश काल में है
उसे नए रक्तबीज बनाने हैं ।।१००।।
तो यह था अष्टावक्र का अशान्ति शतक. राजा चंचलमना है, अशांत. वह दूसरे को अशांत कर फिर उसका नियंत्रण करने वाला राजयोगी है. राजा अहंकारी असंतोषी तृष्णामयी असत्य भोगवादी है, और उसे ऐसा ही रहना है, पर लोक को नहीं. वह इसके लिए धर्म कर्म और अर्थ को नई परिभाषाएं देता है. यह संभव भी हो जाता है. मूढ़ लोक आजीवन राजयोगी के मकड़जाल में कभी कर्म, कर्मकांड करते, कभी योगा, नीति अनीति का विचार करते फंसे रहते है. जो नहीं फंसते उनके लिए नृशंस मार्ग जिसकी परिणिति मोक्ष में हो, यह निर्धारित है, यही राजधर्म है. इसे स्थापित करने में उसके रक्तबीज उसके लिए अवसर बनाते, निर्ममता से काम करते, न संकोच, न आदर, न सम्मान, वे ही श्रेष्ठी, राग द्वेष के संवाहक बन राजत्व को स्थापित करते हैं. राजा सर्वदा यह सोचता हुआ कि क्या कर पाया, क्या न कर पाया, घूम घूम नए रक्तबीज बनाता रहता है.
अष्टावक्र का शतक सुनकर राजा को राजत्व ज्ञान की संड़सी मिल गई है. वह सबको अपना चाकर बना लेता है. निडर राजा राजात्मा को प्राप्त करता है.
प्रकरण १९: राजात्मा विश्रांत या क्लांत, किससे है भयभीत
राजा बोला ...
राजत्व ज्ञान की संड़सी लेकर
मन में गड़े हुए
नाना प्रकार के विकार और परामर्श
जैसे अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह
मैंने निकाल दिए हैं ।।१।।
अपनी शाश्वत महिमा में स्थित हुए मुझको
कहाँ द्वैत
अथवा कहाँ है अद्वैत
केवल मेरा राज धर्म है
और काम है और अर्थ है ।।२।।
अपनी महिमा में स्थित हुआ
वर्तमान तो लिखता ही हूँ
भूत पर स्याही फेर फिर लिख दिया है
भविष्यत् तो रक्तबीज ही लिखेंगे
इस नित्य के मैदान में
मैं रमण करता हूँ ।।३।।
अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको
कहाँ आत्मा है कहाँ परमात्मा
ब्रह्मा विष्णु महेश मेरे चाकर हैं
मैं जो कहूं शुभ, मैं जो चाहूँ अशुभ
मैं ही चिंता मैं ही अचिंता ।।४।।
अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको
मेरे ही स्वप्न हैं मेरी ही सुषुप्ति
मैं ही जागृत
इस निराकार तुरीय का क्या काम
पर
पर मुझको केवल मुझसे भय है ।।५।।
अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको
दूर हो चाहे समीप
बाह्य हो चाहे अभ्यंतर
स्थूल हो चाहे सूक्ष्म
अपनी ही प्रतिध्वनि सुनाई देते है ।।६।।
अपनी महिमा में स्थित हुए मुझको
ज्ञात है कि
जीवन मृत्यु
भू आदि लोक
लौकिक व्यवहार
लय और समाधि
मेरी अनुज्ञा से होते हैं ।।७।।
राजात्मा में विश्रांत हुए मुझको
अर्थ धर्म काम की कथा अपूर्ण
योग कथा अपूर्ण
ज्ञान विज्ञान कथा अपूर्ण
इन अपूर्ण कथाओं से मुझको मुझसे ही भय है ।।८।।
राजा को स्थूल हो या सूक्ष्म अपनी ही प्रतिध्वनि सुनाई देती है. लय हो या समाधि, उसकी अनुज्ञा से होते हैं. राजात्मा में विश्रांत होते हुए भी वह क्लांत है. अपूर्ण कथाओं के चलते स्वयं को स्वयं से ही भय लगता है.
वह राजा जीवन में आसक्त होने को आतुर है और रहेगा. यह विश्रान्ति है भी और नहीं भी. वह अपना विराट रूप दिखाता है, जिसे देख कृष्ण भी भयभीत हों.
राजा बोला हर कोई मेरा रक्तबीज ...
प्रकरण २०: जीवन में आसक्त मैं और मेरे रक्तबीज, अब कौन शिष्य कौन गुरु
राजा बोला
लख रंजन मेरे स्वरूप में
अलख निरंजन का क्या काम
मुझसे व्याप्त आकाशादि भूत
सभी देह सभी इन्द्रियां
सभी मन सारा संसार
कहाँ शून्य कहाँ नैराश्य ।।१।।
सदा द्वंद्व निश्चित
मुझसे
सब शास्त्र सब ज्ञान
सब विषय सब मन
सर्व तृप्ति सर्व तृष्णा ।।२।।
मुझसे विद्या मुझसे अविद्या
अहम (मैं) इदं (यह) मेरा
कहाँ बंध और कहाँ मोक्ष
मेरे रूप को कहाँ रूपिता ।।३।।
सर्वदा प्रारब्ध कर्म
सर्वदा उच्छश्रृंखल जीवन
देहाभिमानी
मुझसे ही धर्म शास्त्र
मुझसे ही अधर्म शास्त्र ।।४।।
सदा स्वभाव मेरा
कामी क्रोधी लोभी मोही
चिकीर्ष निर्दय असूय अभिमानी
शोक स्पृहा ईर्ष्या निंदा
मैं ही कर्ता और मैं ही भोक्ता
सदा सक्रिय सदा मन स्फुरित
मुझको ही प्रत्यक्ष ज्ञान मुझको ही फलम ।।५।।
मेरे अपने अद्वय केवल स्वरूप में होकर लय
सभी लोक सभी मुमुक्षु
सभी योगी सभी ज्ञानवान
सभी बद्ध सभी मुक्त
बन गए हैं मेरे रक्तबीज ।।६।।
मेरे अपने अद्वय केवल स्वरूप में होकर लय
सृष्टि और संहार
साध्य और साधन
साधक और सिद्धि
बन गए हैं मेरे रक्तबीज ।।७।।
सर्वदा नृशंस रूप मुझमें
मैं ही प्रमाता (ज्ञान पाने वाला)
मैं ही प्रमाण (ज्ञान पाने का साधन)
मैं ही प्रमेय (जानने योग्य)
मैं ही प्रमा (ज्ञान)
जहां कुछ है जो कुछ है जब कुछ है
मुझ नृशंस की छाया है
और कुछ नहीं ।।८।।
एकाग्र निडर
सर्वदा सक्रिय मेरा नृशंस धर्म
अपनी ही प्रशंसा
लोलुप क्रोधी चंचलमना
अपमान तनिक नहीं सहता
आश्रितों की रक्षा नहीं करता
मूढ़ कहते यह तो पाप कर्म
अहो अहम्
मैं ही हर्ष देता मैं ही शोक ।।९।।
मेरे नित नए संकल्प विकल्प वाला
उद्विग्न नृशंस मन
अर्थ और काम का प्रशंसक
सम्भोग में रमता
पर स्त्रियों का द्वैषी
अभिमानी
कहाँ व्यवहार कहाँ परमार्थ ।।१०।।
सर्वदा नृशंस स्वरूप मुझमें
विषम भाव वाला मन
अत्यंत कृपन
दान देकर पश्चाताप करता
मेरे सामने
कौन माया कौन संसार
कौन जीव कौन ब्रह्म ।।११।।
सर्वदा अपने में स्थित
ढूये की तरह (कूटस्थ) जो विभाजित न हो, शाश्वत
मेरे लिए प्रवृति है नहीं निवृति
मेरे लिए मुक्ति अन्य सभी बद्ध ।।१२।।
असीम रूप हूँ मैं
कहाँ कैसा उपदेश है कहाँ कैसा शास्त्र
कौन शिष्य है कौन गुरु
केवल मैं और मेरे रक्तबीज हैं ।।१३।।
नृशंस निर्विकल्प समाधि में
एक अकेला मैं
अब बहुत कहने का क्या प्रयोजन
मैं और मेरे रक्तबीजों को
अभी बहुत कुछ करना है ।।१४।।
कौन शिष्य और कौन गुरु. राजा का एक रक्तबीज अष्टावक्र को मसान में पटक आया.
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