साहित्यम् इ पत्रिका वर्ष १ अंक 5 मार्च २०१९ होली अंक निशुल्क सम्पादकीय Happy holi to all! मार्च याने होली याने हास्य व्यंग्य मौज मस्ती आनंद....
साहित्यम् इ पत्रिका वर्ष १ अंक 5 मार्च २०१९ होली अंक निशुल्क
सम्पादकीय
Happy holi to all!
मार्च याने होली याने हास्य व्यंग्य मौज मस्ती आनंद. कभी होली अंकों का बड़ा जोर था अब न वे संपादक रहें न वे पत्रिकाएं, न वे पाठक और न वे लेखक, सब कुछ समाप्ति की ओर है, लेकिन आशा बड़ी बलवान है. इसी आशा के साथ मेरी फेसबुक ई-पत्रिका का यह अंक आपकी सेवा में पेश है.
6 अंक निकलने का विचार था यह पांचवां है .
अगला अंक लघु कथा अंक, कृपया कम से कम 5 अप्रकाशित अप्रसारित लघु कथाएं भेजें, 3-4 लगेगी.
मानदेय देय.
इस अंक के रचनाकारों का आभार.
प्रणाम
यशवंत कोठारी
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व्यंग्य
नंगई के मजे!
पूरन सरमा
- कन्हैया लाल सहल पुरस्कार से सम्मानित.
गांव में थे तो कुएं पर नहाना होता था। चूंकि खुले में नहाते थे तो स्वाभाविक तौर पर अण्डर गारमेंट्स पहन पर नहाना होता था। इससे एक हया, शर्म और संकोच का पर्दा दिमाग पर पड़ा रहता था। जीवन भी थोड़ा-बहुत अनुशासन में था। फिर शहर में आना हो गया तो मैं हम्माम में भी अण्डर गारमेंट्स पहन कर ही काफी दिनों तक नहाता रहा। एक दिन मेरे प्रिय मित्र अमोलक जी आये और मुझे अकेला पाकर बोले- ‘शर्मा, हमने सुना है तुम हम्माम में भी कपड़े पहन कर नहा रहे हो?’ मैंने कहा-‘हाँ, तो क्या हो गया?’ वे बोले-‘हो कैसे नहीं गया। शहर में रह रहे हो तो शहर का सलीका सीखो। हम्माम में तो सब नंगे हैं और निर्वसन होकर ही नहाते हैं। भाई मेरे तक तो बात आ गई, कोई बात नहीं, लेकिन पास-पड़ोस में बात फैलेगी तो लोग तुम्हारी मजाक बनायेंगे। भाई हम्माम में अंदर हो, दरवाजा बंद है और तुमने कपड़े पहन रखे हैं। है न हास्यास्पद बात। मैं आज तुमसे कहे जा रहा हूँ, कल से कपड़े उतार कर नहाना। फिर देखना तुम में कितने परिवर्तन होते हैं।’ अमोलक जी की बात दिमाग में जंच गई कि यार हम्माम में कपड़ों का क्या लफड़ा? और फिर नंगई के तो अपने मजे हैं। दूसरे दिन हम्माम में गया तो डरते-डरते निर्वसन हुआ। इसके तीन-चार दिन बाद तो मैं निर्भय होकर साबुन लगा कर नहाने लगा। मुझे भी लगा कि हम्माम में कपड़े पहनना कितना असभ्य तरीका था।
इसके बाद मैं बिंदास, मुंहफट, जवाब देने वाला तथा मनोबल से सराबोर हो गया। शर्म-हया सब जाती रही। बड़े-छोटों का लिहाज तथा सभ्य तरीकों को त्याग कर मैं किसी से क्या कह देता, किसी से लड़ लेता, बेवजह घर में चीखता-चिल्लाता और इतना निर्भीक हो गया कि डिप्रेशन की जो गोली लेता था, उसकी आदत छूट गई तथा मैं बिंदासपूर्वक बेमजा बातों पर भी दांत फाड़ने लगा। पंद्रह-बीस दिन बाद अमोलक जी फिर आये और आते ही बोले-‘अब बताओ कैसा महसूस कर रहे हो?’ मैंने कहा-‘अमोलक भाई, आपने तो गज़ब का सूत्र दिया। जीने का मजा आ गया। किसी से भय, शर्म और संकोच सब खत्म हो गया तथा आत्म विश्वास इतना आ गया है कि पड़ोसी तक डरने लगे हैं। लोग कहने लगे हैं, इससे बात मत करो वरना अभी यह नंगईपन पर उतर आयेगा तथा लेने के देने पड़ जायेंगे।’ अमोलक जी खुलकर हंसने के बाद बोले-‘अब थोड़ा अपना दायरा बड़ा करो। सभा-संगोष्ठियों में जाना सीखो और भाषण देना प्रारम्भ करो। फिर बताना नंगई के और कितने फायदे हुये।’ यह कह कर वे फिर अन्तर्धान हो गये।
मैंने अब भाषण देना प्रारम्भ किया। बेतुकी बातें करता, उस पर भी तालियां बजती और लोग खूब हंसते। इसका सीधा-सीधा फायदा यह हुआ कि लोग मुझे कार्यक्रमों में भाषण देने के लिए अब खुद बुलाने लगे। मैं कहीं अध्यक्षता करता तो कहीं मुख्य अतिथि बन जाता। इस तरह हौसला अफजाई इतनी जबरदस्त हुई कि राजनेताओं में उठ-बैठ शुरू होने से मेरा जीवन राजनीति में रंगने और जमने लगा। अपनी पार्टी के युवा मोर्चे का मैं विद इन नो टाइम प्रदेश अध्यक्ष बन गया। पार्टी में धाक और साख जम गई। अखबारों तथा मीडिया में मेरे वक्तव्य छपने और बोले जाने लगे। अमोलक जी यह देखकर बहुत खुश हुए और एक दिन वे फिर अपने साथ एक अन्य व्यक्ति को लेकर मेरे यहां आ गये। और आते ही बोले-‘अब ठीक रहा शर्मा। अब काम की बात सुनो। ये अमुकराम जी हैं। यार इनका तबादला घर से बहुत दूर हो गया है। ये तो लो बीस हजार के नोट तथा मंत्री से कहकर इनका तबादला निरस्त कराओ।’ मैंने नोट कुर्ते की जेब में रखकर कहा-‘यह तो मेरे बायें हाथ का खेल है। कल की तारीख में इनका तबादला कैंसिल हो जायेगा।’ वे एप्लीकेशन देकर चले गये। दूसरे दिन मैं मंत्री को बायें हाथ से एप्लीकेशन देकर बोला-‘सर, ये मेरे मिलने वाले हैं। जरा चिड़िया बैठा दो।’ मंत्री जी ने हंसते हुए हस्ताक्षर किये और ऑर्डर निकलवा कर घर ले आया। शाम को अमोलक जी आये और बोले-‘देखे नंगई के मजे। लाओ ऑर्डर मैंने अपनी दलाली उससे ले ली है।’ वे ऑर्डर लेकर चले गये और मैं खुले आम बायें हाथ से कार्य निपटाने लगा। मेरा नंगई का धंधा चल निकला। आजकल मैं एकदम खुश हूँ। पूरा परिवार खुश है।000000000000000000000
पूरन सरमा
124/61-62, अग्रवाल फार्म,
मानसरोवर, जयपुर-302020 (राजस्थान)
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किसे भाव दें?
देवेन्द्र कुमार पाठक
-कवि –व्यंग्यकार
अधिकाधिक लोग डालडा-तेल खाते हैं, उसकी मांग और पूर्ति भी अधिक है लेकिन लोग डालडा-तेल की बनिस्बत घी को ही श्रेठ मानते हैं. कम बिक्री और कम इस्तेमाल के बावजूद घी का भाव कभी भी तेल- डालडा से कमतर नहीं होता. डालडा-तेल से तिगुना-चौगुना भाव तो घी रखता ही रखता है. घी न खाने वाले भी उसके महत्व को मानते- जानते हैं. कुछ यूँ कहिये की मज़बूरी का नाम तेल-डालडा. . . . . . !और इसीलिए कुछ घी- विरोधी उसके नुकसान और मंहगे होने के कुतर्क से लोगों को घी से बचने और सस्ते तेल को खाने के लिए प्रेरित करते हैं. आप हवन में तेल नहीं, मंहगा घी उपयोग में लेते हैं. आज हम घी को खाने- पचाने की क्षमता ही नहीं रखते. . . . . . दरअस्ल आज
हमारे जीवन के हर क्षेत्र में अपने अलग तौर-तेवरों के साथ डालडा और घी कमोबेश हावी हैं. . . . अब देखिये न, हिंदी में पठनीयता के मामले में 'सरल सलिल' जैसी पत्रिका के मुकाबिल भला 'हंस', नया ज्ञानोदय' जैसी पत्रिकायें और 'सुरेंद्रमोहन पाठक' की तुलना में आज के हिंदी साहित्य के कितने उपन्यासकार टिकते हैं. 'शिवानी' जैसी बहु पठित को भी हमारे स्वयंभू घी टाइप लेखक डालडा लेखक ही मानते रहे. कविता का मामला भी कुछ ऐसा ही है. 'अटलजी' , 'कुमार विश्वास' जैसों को हमारे घी श्रेणी के स्वयम्भू कवि अपने स्तर का मानते ही नहीं. अक्सर मंचीय कवियों को यही अहसास कराया जाता है कि वे कविताई के बाजार में कितना भी डालडा कविता बेचते हों, घी स्तरीय होने से रहे, डालडा ही रहेंगे. . . . . . . . . . कविताई का एक और इलाका है, जिसमें ब्राह्मणवादी घी होने-कहलाने की कचर-खौंद मची रहती है. छंदमुक्त और छंदबद्ध कविताई में यह घी होने-कहलाने का ब्राह्मणवादी द्वन्द्व दशकों से चल रहा है. इस झगड़झिल्ल में कवियों का जो होना है , वो हुआ पर कविता वो सिनेमावाले हाँक ले गए या लतीफेबाज कवि!. . . . . . . क्या घी, क्या डालडा; कुछ समझ में ही नहीं आ रहा, किसे भाव दें?. . . आज अंग्रेजी माध्यम के स्कूल और शिक्षक हमारे देश -समाज में घी का भाव रखते हैं. हिंदी माध्यम के विद्यालयों के शिक्षक भी अपने बच्चों को घी स्तरीय माने जा रहे निजी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ने को भेज रहे हैं सरकारी हिंदी माध्यम वालों की दशा डालडा से भी गयी-गुजरी है. . . . . . . . . . देशी किसान-किसानी कभी किसी की भी सरकार या सियासत के लिए डालडा तो क्या तेल का भाव भी नहीं बना पाये. पूंजीपतियों को ही सरकारें घी के भाव देती-पूछती रहीं. . . . . . . तेल -डालडा सस्ता, बहु उपयोगी, आसानी से सुलभ, पाचक है. ऐसा प्रचारित, विज्ञापित कर, घी को मंहगा, गरिष्ठ बता उसकी उपयोगिता से आपको दूर कर, तेल डालडा से जुड़ने, उसे ही अपनाने को कहा जाता है. . . . . . इन दिनों हर चीज में मिलावट हो रही है. घी भी अछूता नहीं. अब घी में डालडा मिलाकर बेचा जाता है. बहुत से लोग इसलिए न घी खाते, न डालडा; ऐसे समझदार मात्र तेल खाते हैं. आँखों के सामने मशीन से पेरवाकर. अब जो ये हिंग्रेजी फलने-फूलने लगी है, यह घी में डालडा की मिलावट नहीं तो क्या है? . . . . . . . आप सत्य जानते हैं- घी का, तेल-डालडा का. फिर भी अपनी परख-पड़ताल, चयन को लेकर आप कभी संजीदगी से सोचते हैं? खाने-कमाने की मारा-मारी सुख-सुविधाओं को हथियाने-पाने की आपाधापी, बेहतर से बेहतरीन बनाने-बनने की होड़-अंखमुंद दौड़, अफवाह-शगूफों, जाति-धर्म के गैरजरूरी मुद्दों और आरोप-प्रत्यारोपों से गरमाए इस शोर-शराबे में गलतफहमियां कुछ इस तरह सर चढ़ी हैं कि सही-गलत, हित-अहित का कुछ अंदाजा ही नहीं कर पाते हैं हम. हमारे लिए क्या, कौन, कैसे, कितना उपयुक्त, उपयोगी है-इसकी सही-सही चीह्न-पहचान नहीं कर पा रहे. क्या तेल-डालडा, क्या घी! तमाम डालडा स्तरीय मुंहझौसी मचा रखी है चौतरफ शब्दशूरमाओं ने. 'जाँत जो हंसै तो हंसबै करै, अब इहाँ चलनिउ हंसत हई'!. . . . . 'तू डालडा, मैं घी ' साबित करने की हड़बोंगी में आदमी क्या सोचे-समझे, क्या किसे परखे-चुने. फिर असमंजस से घिरे, दुविधा में पड़े जनमानस के जनमत से क्या बनता-बिगड़ता है? इस सवाल से बचते-बचाते हम जहां आ पहुंचे हैं, वहां से आगे की राह बड़ी दुर्गम है. ठहरकर सही राह और सही अगुआई न चुनी, तो जल्दी ही तेल डालडा खाने के प्रभाव आप के हमारे और पूरे समाज पर पड़ना ही पड़ना पक्का है. हर आयु के लोगों के मन-ज़ेहन, दिल,
शरीर, सोच-संस्कार पर दुष्प्रभाव पड़ने लगे हैं. आप बीमार होंगे, भुगतेंगे, भुगत रहे हैं. मित्रो! स्वस्थ तन मन, लम्बी उम्र और सुख शांति के लिए, तेल-डालडा से बचिए, कम ही सही, घी जरूर खाइये!लेकिन सावधान! इन दिनों घी भी मिलावटी या कृत्रिम मिलने लगा है. घी है उसमें महक नहीं. महक है पर वह घी है ही नहीं. धनिया खूब हरी पर महक नहीं. हरी मिर्च में तीतापन नहीं. कविता में कविताई नहीं, सर से पांव तक एक विचार आलेख या बयान. . . !है कि नहीं. तो भाइयो-बहनों सावधान!
सम्पर्क-1315, साईंपुरम् कॉलोनी, रोशननगर, साइंस कॉलेज डाकघर, कटनी, कटनी, 483501, म. प्र.
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एक व्यंग्य ऐसा भी. . . .
मी-टू
भगवान अटलानी
-सिन्धी अकादमी के पूर्व अध्यक्ष
तिहत्तर साल का हो गया हूं। कभी दुलार आता है तो पोती के गाल पर थपकी लगा देता हूं। मगर समाचार पढ़ा तो झटका लगा। सत्तर वर्षीय राज्यपाल। उन्होंने कार्यक्रम के बाद अनौपचारिक बातचीत के दौरान की गई टिप्पणी से अभिभूत होकर पोती-दोहिती की उम्र की महिला पत्रका्र के गाल पर थपकी लगा दी। बुरी नीयत का आरोप लगाकर महिला पत्रकार ने बवंडर खड़ा कर दिया। मज़े की बात यह है कि इलैक्ट्रानिक, प्रिंट और सोशल, लगभग हर तरह के मीडिया ने इस घटना को ख़ूब उछाला। बेचारे राज्यपाल कैफ़ियत देते रहे। किसी ने ध्यान नहीं दिया। मीडिया छीछालेदर करता रहा। उनकी जान माफ़ी मांगने के बाद ही छूटी। उस दिन के बाद डरता हूं कि उम्रयाफ़्ता हूं तो क्या हुआ, पोती-दोहिती है तो क्या हुआ, कभी दुलार महंगा न पड़ जाये!
जब पहली-दूसरी कक्षा में पढ़ता था. तो एक टीचर जी मौक़ा मिलते ही मेरे गाल खींचती थीं। दर्द होता था फिर भी मुस्कराना पड़ता था। गोरा-चिट्टा गुड्डा लगने का कुछ तो नुक़सान होता न? मां से शिकायत करता तो वह भी हंसकर गाल चूमती और काला टीका लगाकर इतिश्री कर देती थी।
सातवीं कक्षा में था।उम्र बारह-तेरह साल रही होगी। स्कूल के वार्षिकोत्सव में एक नाटक में भाग लेने के लिये चुना गया। रोज़ाना रिहर्सल होती थी। को ऐड स्कूल था। नाटक में भाग लेने वाली एक लड़की को मुझमें पता नहीं क्या दिखाई दिया? एक दिन अकेले में उसने पूछ लिया, "मुझसे शादी करोगे?"
मैं हतप्रभ रह गया। हतप्रभ इसलिये हुआ क्योंकि संस्कारों में नैतिकता, आदर्श, बहन-भाई सम्बन्ध आदि रचे-बसे थै। लड़की को तो कुछ नहीं कहा मगर घर जाकर मां को बताया तो टीचर जी वाली वारदात बताने के बाद जिस तरह हंसी थी, ठीक वैसे ही हंस दी।
बड़ी बहन की शादी हुई। मैं बारहवीं में आ गया था। उसके ससुराल गया। मेरी समवयस्क उसकी ननद से मुलाक़ात हुई। बाद में बहन के साथ वह जब तब घर आ जाती। चिपककर खड़ी होती। ज़ुबान से कुछ नहीं कहती मगर भंगिमाओं से, आंखों से, हाव-भाव से अलग तरह का संदेश देती। मैंने मां और बहन को बताया तो दोनों हंसने लगीं, "तू है ही ऐसा, रे!"
अभी तीन-चार साल पुरानी बात होगी। सुबह घूमकर लौट रहा था। अचानक एक प्रौढ़ सज्जन पास आकर रुके। मुस्कराकर पूछा, "कितने साल के हैं आप?"
"आप बताइये?"मैंने हंसकर कहा।
"आपकी उम्र चाहे जितनी भी हो लेकिन कह सकता हूं कि अब यह हाल है तो जवानी में न जाने कितनी लड़कियां आपके ऊपर मर मिटी होंगी।"
अब उन्हें क्या बताता कि शारीरिक सौष्ठव, क़द-काठी, रंग और इकहरेपन के चलते मित्रता और विवाह के कितने भावुक, सौम्य या आक्रामक प्रस्ताव मुझे झेलने पड़े हैं?
सोच रहा हूं कि एक सूची बनाकर उन सबकी वर्तमान हैसियत की ख़ोज-बीन करूं। तब नहीं था मगर अब तो मी टू है न? नाती-पोतों, नातिनों-पोतिनों वाली साधारण नानियां-दादियां होंगी तो मेरे मी टू को कौन पूछेगा? कोई कलाकार, साहित्यकार, राजनेत्री, पूर्व या वर्तमान अभिनेत्री आदि नहीं हुई तो मेरा मी टू पिट जायेगा।
मुझे प्रसिद्ध होना है। आपकी दुआएं चाहियें। आशीर्वाद, प्रार्थना, शुभ कामना जो भी ठीक लगे, इनायत कीजिये। सूची में से एक भी मी टू के लायक निकली तो मरते दम तक आपका अहसान मानूंगा।
भगवान अटलानी, डी-183, मालवीय नगर, जयपुर-302017
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व्यंग्य.
गंजे होते हम
- प्रभाशंकर उपाध्याय
-वरिष्ठ व्यंग्यकार
अभी जवानी ढली भी नहीं थी कि सिर का चांद जवां होने लगा। कंघा करते ही बालों के गुच्छे के गुच्छे हमारे सम्मुख होते। ऊपरवाले ने केशों को हमारे कपाल पर उगा कर, उन्हें उच्च स्थान दिया। हमने इन्हें चाव पूर्वक सजाया। उम्दा शेम्पू, बेहतरीन हेयर क्रीम तथा सुवासित तेल से युक्तायुक्त किया। इनके रंग-ओ-रूप को निखारने के लिए खिज़ाब और मेहंदी की मदद ली। इन बेतरतीब केशों को सलीकेदार करने हेतु हज्जाम के आगे सर नवाया। कंघों से इन्हें समय-बेसमय संवारता रहा। मगर, इन नामुरादों को ऊर्ध्व स्थान रास नहीं आया। हाय रे! इतने लाड-चाव के बाद भी इन्हें आधोगति ही भाती रही।
इन मुओं ने हमें सी सांसत में डाल दिया है। हमने बालों का कोई कम ध्यान नहीं रखा। मगर, ये अपनी जड़ें छोड़ने को आमादा हो गये, हालांकि हमने इनकी आहिस्ता आहिस्ता मालिश करना और थपकना प्रारंभ किया। इसके बावजूद इनकी बेवफाई बदस्तूर है और हम हैरत में हैं कि क्या करें? ये या तो हमारी हथेली में ही चिपक जाते हैं या कंघी से बेपनाह प्यार जताते हुए लिपट जाते हैं। अपनी खोपड़ी से इनका संपर्क ना टूटे, हम इसका भरसक प्रयत्न करते और ये निष्ठुर हमारी त्वचा से नाता तोड़कर, धरती से नेह जोड़ने लगे। हम तो इनकी रूसवाई का रंज करें और ये विरागी हो पवन के झोंकों के साथ मस्ती भरी हिलोरें लेते रहें। हम इनके लिए विलापरत् हैं और ये हैं, विलासरत्। इनकी ऐसी अलमस्ती देख हमारा हृदय जला जाता है और इन मुओं के पास तो हृदय है ही नहीं । इन्हें चाहे काटो, कूटो, कुचलो, पीसो, जलाओ ये ऊफ तक न करेंगे। जबकि इंसान तो क्या जानवर भी अपना एक रोम के खिंच जाने पर हाय तौबा कर उठता है। पर, ये कमबख्त क्या जानें पीर पराई?
इश्क और मुश्क से इनका क्या वास्ता? आज आपके अख्तियार में हैं और कल आप से बेवफाई करते हुए आपका का साथ छोड़कर, धरती के आगोश में समा जाएंगे। किसी अधम की भांति अर्श से फर्श तक जाने की इन्हें कोई शर्मिंदगी भी नहीं होती और बेगैरत महबूब की भांति पाला बदल लेने में इन्हें देर नहीं लगती। आपका सुवासित साथ छोड़कर इन्हें गंधाती नालियां और गलीज़ कूड़ादान ही रास आते हैं।
अपने केशों को बरकरार रखने के लिए क्या क्या न किया? तुर्की-ब-तुर्की हकीमों, होम्योपेथों , वैद्यों और एलोपैथों की शरणागत हुए। भांति भांति की मीठी, कड़वी और कसैली औषधियां खायीं। बालों पर नाना प्रकार के द्रवों और मिश्रणों का लेप किया। पर, इन पत्थर दिलों का दिल नहीं पिघला। हेयर ट्रांसप्लांट का भी इन मुओं ने सरकारी पौधारोपण कार्यक्रम की भांति बंटाधार कर डाला। तनिक भी उगते तो सनद ही रहती।
दरअसल, अभी हमने जुमा जुमा पचास वसंत ही देखे थे कि ये हमें टकला कर देने की ठान बैठें। हमें श्वेतकेशु और खल्वाट होते देख हमारे हमवयस्क नर-नारी हमें अंकल पुकारने लगे। चलो इसकी भी, अब अपने को आदत हो चली है। किन्तु, जब कभी कोई मृगलोचनी हमें ताऊ अथवा बाबा कहकर पुकारने लगी, तब चुल्लुभर पानी में डूब मरने की इच्छा होती है। कवि केशव की पीड़ा अब जाकर हमें प्रत्यक्षीभूत हुई है। अरे! इससे उत्तम तो ब्रितानी शासन था। उस वक्त बीच खोपड़िया से बाल उड़ जाने पर ‘लार्ड’ का उद्बोधन मिल जाया करता था और इसके लिए लोग अपने बाल बीच में से नुचवा लिया करते थे।
कुछ लोग महज शौक की खातिर मूड मुंडवा लेते है और कुछ बीमारी की वजह से। कहा भी गया है-
‘‘मूंड मुंडाये तीन सुख, मिटे सीस की खाज
खाने को लड्डू मिलें, लोग कहें महाराज।।’’
एक बार, महाप्रतापी नंद के मंत्री और आचार्य वररूचि ने पत्नी की प्रसन्नता के लिए गंजा हो जाना स्वीकार किया था। इसी को अनुभूत कर एक कवि ने लिखता हैः-
‘‘गंजा गर मैं हो गया हूं, इसका कोई गम नहीं।
गम है कि करतूत बेगम की सब बताते हैं, इसे।।’’
शुक्र है कि हमें ऐसी स्थिति से दो चार नहीं होना पड़ा। हमें तो अपने बगटुट भाग रहे, कमबख़्त बालों को देख, बस यही याद आता है-
‘‘जिनके लिए मैं मर गया, उनका ये पैगाम है।
ईंटें उठाकर ले गये वो मेरे मज़ार की।।’’
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- प्रभाशंकर उपाध्याय
193, महाराणा प्रताप कॉलोनी
सवाईमाधोपुर (राज. )- 322001
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अब डर काहे का!
हरीश कुमार ‘अमित’.
वरिष्ठ लेखक
लगभग चालीस साल बाद अब हम सरकारी दामाद नहीं रहे मतलब सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त यानी कि रिटायर हो गए हैं. नौकरी शुरू करने के कुछ सालों बाद ही हम राजपत्रित अधिकारी (गज़ेटेड ऑफ़ीसर) हो गए थे. दफ़्तर के कमरे के दरवाज़े पर हमारे नाम की तख़्ती लग गई थी और हमारे नामवाली एक सरकारी मोहर भी हमें मिल गई थी. इस मोहर से हम प्रमाणपत्रों/दस्तावेज़ों की प्रतियों तथा इन्सानों के छायाचित्रों को सत्यापित अर्थात अटेस्ट करने में सक्षम हो गए थे.
राजपत्रित अधिकारी बनने पर दफ़्तर के कॉरीडोर में चलते हुए हमारा सीना यह सोच-सोचकर चौड़ा होता रहता था कि अब हम गज़ेटेड ऑफ़ीसर हैं और काग़जों को अटेस्ट करने की ‘पॉवर’ रखते हैं. हमारे मन की यह बात षायद कुछ अर्न्तयामी किस्म के लोगों ने जान ली थी क्योंकि फिर हर दूसरे-चौथे दिन कोई-न-कोई हमारे पास आने लगा - कोई काग़ज़ सत्यापित करवाने के लिए. साथ में जब मूल (ओरिजिनल) प्रमाणपत्र भी होता, तब तो उसकी फोटोप्रति को सत्यापित करना कोई मुश्किल बात नहीं होती थी, मगर कुछ लोग बग़ैर मूल दस्तावेज़ के उसकी फोटोप्रति को सत्यापित करने के लिए कहने लगते. अपने इस उसूल पर अड़े रहकर कि मूल दस्तावेज़ को देखे बिना हम कोई काग़ज़ सत्यापित नहीं करेंगे, हम कई लोगों को बेरंग लौटा दिया करते थे. ऐसा करके उन लोगों की नाराज़गी तो मोल लेते ही थे, साथ ही उनके द्वारा मन-ही-मन दिए गए अपशब्दों का प्रसाद भी ग्रहण करते थे. मगर मूल प्रमाणपत्र न होने पर सत्यापित करने से हर बार मना कर पाना मुमकिन नहीं होता था. उदाहरण के लिए अगर हमारा अपना अफ़सर कहे कि यह उसके बेटे या बेटी के प्रमाणपत्र की फोटोप्रति है, तो ऐसे में मूल प्रमाणपत्र सामने न होने पर इधर कुआँ, उधर खाई वाली स्थिति हो जाती थी. न निगलते बनता था, न उगलते.
कई बार स्थिति इससे भी ज़्यादा विकट तब बन जाया करती थी जब लोग किसी फोटो को सत्यापित करने के लिए कहते थे. अगर कोई फोटो पहचानपत्र सामने हो, तो उसे देखकर फोटो को सत्यापित करना कोई कठिन काम नहीं है, मगर बग़ैर किसी फोटो पहचानपत्र के किसी फोटो को सत्यापित करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने से कम नहीं होता, साहब! बग़ैर फोटो पहचानपत्र के फोटो सत्यापित करवाना चाह रहे लोग पूरे आत्मविश्वास के साथ अक्सर यही कहा करते थे कि यह उनके बेटे/बेटी/भतीजे/भांजे या किसी दोस्त/पड़ोसी के बच्चे की फोटो है, लेकिन उनकी यह बात हमारे मन में विश्वास नहीं जगा पाती थी. हम किंकर्तव्यविमूढ़ से हो जाते.
दफ़्तर से घर आ जाने या फिर किसी छुट्टीवाले दिन पास-पड़ोस के लोग भी हमारे घर पधारा करते थे - किसी काग़ज़ या फोटो को सत्यापित करवाने के लिए (इससे ज़्यादा औक़ात थी भी क्या हमारी और अब तो वह भी नहीं रही!). इस तरह घर पर आनेवाले लोगों को वापिस भेजने का अचूक नुस्ख़ा यही होता था कि हमारे पास एक ही सरकारी मोहर है जो हमने दफ़्तर में रखी हुई है और घर पर कोई मोहर नहीं है. हालाँकि ऐसी स्थिति में भी कुछ हठी लोग यह कहने लगते थे कि उनके काग़ज़ वग़ैरह हम अगले दिन दफ़्तर से सत्यापित कर लाएँ. कुछ अधिक सयाने लोग तो हमें फोन पर एडवांस में ही कह दिया करते थे कि दफ़्तर से आते वक़्त अपनी मोहर हम साथ लेते आएँ क्योंकि उन्हें कुछ काग़ज़ों को सत्यापित करवाना है.
मगर रिटायरमेंट के बाद इन सब परेशानियों से हमारा पीछा छूट गया है. अब तो हम सत्यापित करने के लिए सक्षम जो नहीं रहे. अब अगर कोई इस काम के लिए हमारे पास आता भी है तो हम धड़ल्ले से उसे कह देते हैं कि हम तो रिटायर हो गए हैं! लेकिन हमारे ऐसा बताने के बाद उसके ‘सर’, ‘सर’ कहने की आवृति में तत्काल प्रभाव से आती कमी हमें नज़र आने लगती है. हम यह भी जानते हैं कि यही आदमी, जो अब तक रास्ते में कभी मिलने पर हमें झुक-झुककर सलाम किया करता था, अब नज़रें चुराकर कन्नी काट जाया करेगा.
लेकिन इन सबसे हमें क्या मतलब? हम तो अब आज़ाद हैं! अब डर काहे का! अब तो हम ख़ुद ऐसे राजपत्रित अधिकारियों की तलाश में रहते हैं, जिनसे ज़रूरत पड़ने पर काग़ज़ या फोटो ‘अटेस्ट’ करवाए जा सकें. कोई ऐसा नेक अधिकारी मिल जाए जो मूल प्रमाणपत्र या फोटो पहचानपत्र के लिए इसरार न करे, तो सोने पर सुहागा!
-0-0-0-0-0-0-
ः हरीश कुमार ‘अमित’,
304, एम. एस. 4,
केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56,
गुरुग्राम-122011 (हरियाणा)
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व्यंग्य
मेरे घर विश्व हिन्दी सम्मेलन
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए-1, एमपीईबी कालोनी , शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर
इन दिनों मेरा घर ग्लोबल विलेज की इकाई है . बड़े बेटी दामाद दुबई से आये हुये हैं . , छोटी बेटी लंदन से और बेटा न्यूयार्क से . मेरे पिताजी अपने आजादी से पहले और बाद के अनुभवों के तथा अपनी लिखी २७ किताबों के साथ हैं . मेरी सुगढ़ पत्नी जिसने हिन्दी माध्यम की सरस्वती शाला के पक्ष में मेरे तमाम तर्कों को दरकिनार कर बच्चों की शिक्षा कांवेंट स्कूलों से करवाई है , बच्चों की सफलता पर गर्वित रहती है . पत्नी का उसके पिता और मेरे श्वसुर जी के महाकाव्य की स्मृतियो को नमन करते हुये अपने हिन्दी अतीत और अंग्रेजी के बूते दुनियां में सफल अपने बच्चो के वर्तमान पर घमण्ड अस्वाभाविक नही है . मैं अपने बब्बा जी के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सेदारी की गौरव गाथायें लिये उसके सम्मुख हर भारतीय पति की तरह नतमस्तक रहता हूं . हमारे लिये गर्व का विषय यह है कि तमाम अंग्रेजी दां होने के बाद भी मेरी बेटियों की हिन्दी में साहित्यिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और उल्लेखनीय है कि भले ही मुझे अपनी दस बारह पुस्तकें प्रकाशित करवाने हेतु भागमभाग , और कुछ के लिये प्रकाशन व्यय तक देना पड़ा रहा हो पर बेटियों की पुस्तकें बाकायदा रायल्टी के अनुबंध पत्र के साथ प्रकाशक ने स्वयं ही छापी हैं . ये और बात है कि अब तक कभी रायल्टी के चैक के हमें दर्शन लाभ नहीं हो पाये हैं . तो इस भावभूमि के संग जब हम सब मारीशस में विश्व हिन्दी सम्मेलन के पूर्व घर पर इकट्ठे हुये तो स्वाभाविक था कि हिन्दी साहित्य प्रेमी हमारे परिवार का विश्व हिन्दी सम्मेलन घर पर ही मारीशस के सम्मेलन के उद्घाटन से पहले ही शुरु हो गया .
मेरे घर पर आयोजित इस विश्व हिन्दी सम्मेलन का पहला ही महत्वपूर्ण सत्र खाने की मेज पर इस गरमागरम बहस पर परिचर्चा का रहा कि चार पीढ़ियों से साहित्य सेवा करने वाले हमारे परिवार में से किसी को भी मारीशस का बुलावा क्यों नही मिला ? पत्नी ने सत्र की अध्यक्षता करते हुये स्पष्ट कनक्लूजन प्रस्तुत किया कि मुझमें जुगाड़ की प्रवृत्ति न होने के चलते ही ऐसा होता है . मैंने अपना सतर्क तर्क दिया कि बुलावा आता भी तो हम जाते ही नहीं हम लोगों को तो यहाँ मिलना था और फिर विगत दसवें सम्मेलन में मैंने व पिताजी दोनों ने ही भोपाल में प्रतिनिधित्व किया तो था ! तो छूटते ही पत्नी को मेरी बातों में अंगूर खट्टे होने का आभास हो चुका था उसने बमबारी की, भोपाल के उस प्रतिनिधित्व से क्या मिला ? बात में वजन था , मैं भी आत्म मंथन करने पर विवश हो गया कि सचमुच भोपाल में मेरी भागीदारी या मारीशस में न होने से न तो मुझे कोई अंतर पड़ा और न ही हिन्दी को . फिर मुझे भोपाल सम्मेलन की अपनी उपलब्धि याद आई वह सेल्फी जो मैंने दसवें भोपाल विश्व हिन्दी सम्मेलन के गेट पर ली थी और जो कई दिनों तक मेरे फेसबुक पेज की प्रोफाईल पिक्चर बनी रही थी .
घर के वैश्विक हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर पत्नी ने प्रदर्शनी का सफल आयोजन किया था . दामाद जी के सम्मुख उसने उसके पिताजी के महान कालजयी पुरस्कृत महाकाव्य देवयानी की दिखलाई , मेरे बेटे ने उसके ग्रेट ग्रैंड पा यानी मेरे बब्बा जी की हस्तलिखित डायरी , आजादी के तराने वाली पाकेट बुक साइज की पीले पड़ रहे अखबारी पन्नों पर मुद्रित पतली पतली पुस्तिकायें जिन पर मूल्य आधा पैसा अंकित है , ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में उन्हें पालीथिन के भीतर संरक्षित स्वरूप में दिखाया . उन्हें देखकर पिताजी की स्मृतियां ताजा हो आईं और हम बड़ी देर तक हिन्दी , उर्दू , अंग्रेजी, संस्कृत की बातें करते रहे . यह सत्र भाषाई सौहाद्र तथा विशेष प्रदर्शन का सत्र रहा .
अगले कुछ सत्र मौज मस्ती और डिनर के रहे . सारे डेलीगेट्स सामूहिक रूप से आयोजन स्थल अर्थात घर के आस पास भ्रमण पर निकल गये . कुछ शापिंग वगैरह भी हुई . डिनर के लिये शहर के बड़े होटलों में हम टेबिल बुक करके सुस्वादु भोजन का एनजाय करते रहे . मारीशस वाले सम्मेलन की तुलना में खाने के मीनू में तो शायद ही कमी रही हो पर हाँ पीने वाले मीनू में जरूर हम कमजोर रह गये होंगे . वैसे हम वहाँ जाते भी तो भी हमारा हाल यथावत ही होता . हम लोगों ने हिन्दी के लिये बड़ी चिंता व्यक्त की . पिताजी ने उनके भगवत गीता के हिन्दी काव्य अनुवाद में हिन्दी अर्थ के साथ ही अंग्रेजी अर्थ भी जोड़कर पुनर्प्रकाशन का प्रस्ताव रखा जिससे अंग्रेजी माध्यम वाले बच्चे भी गीता समझ सकें . प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास हो गया . मैंने विशेष रूप से अपने बेटे से आग्रह किया कि वह भी परिवार की रचनात्मक परिपाटी को आगे बढ़ाने के लिये हिन्दी में न सही अंग्रेजी में ही साहित्यिक न सही उसकी रुचि के वैज्ञानिक विषयों पर ही कोई किताब लिखे . जिस पर मुझे उसकी ओर से विचार करने का आश्वासन मिला . बच्चों ने मुझे व अपने बब्बा जी को कविता की जगह गद्य लिखने की सलाह दी . बच्चों के अनुसार कविता सेलेबल नहीं होती . इस तरह गहन वैचारिक विमर्शों से ओतप्रोत घर का विश्व हिन्दी सम्मेलन परिपूर्ण हुआ . हम सब न केवल हिन्दी को अपने दिलों में संजोये अपने अपने कार्यों के लिये अपनी अपनी जगह वापस हो लिये वरन हिन्दी के मातृभाषी सांस्कृतिक मूल्यों ने पुनः हम सब को दुनियां भर में बिखरे होने के बाद भी भावनात्मक रूप से कुछ और करीब कर दिया .
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शातिर पतियों की दुमछल्ली बीबियाँ
राजेन्द्र मोहन शर्मा –वरिष्ठ व्यंग्यकार
मिडिलक्लास पति मुसद्दीलाल मुझे बहुत क्यूट और इन्नोसेंट लगते हैं ।व़ो अपनी नौकरीशुदा पत्नी के बारे में यह कहते फिरते हैं कि भाई साहब इनकी कमाई का एक रुपया भी मैं नहीं जानता।इनके पैसे यह जानें । इनकी आर्थिक आजादी ही हमारा राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण का प्रत्यक्ष प्रमाण है ।
मसद्दी जी का रसभरा किस्सा यह है साहबान कि ये हमारे पुरानेकुलीग रहे थे मियां-बीबी दोनों सरकारी मुलाजिम रहे । बातों-बातों में मियां मुसद्दीलाल ने कहा 20 साल हो गए हमारी नौकरी को ।मैं इनका एक रुपया नहीं जानता और मेरी सैलरी को ये नहीं तकती मेरी तिकड़म की कमाई से ही घर चलता है ।बस जेबखर्च के पैसे यही देती हैं ।घर, गाड़ी सब इनका । मुझे तो जब चाहें यह घर से निकाल दें बीबी मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं मैं अवाक । सच मे ऐसा है क्या भाभीजी । उनने आंखें तरेर कर मुसद्दीलाल जी को धूरा । सच भाईजान कल रात ही इन्होंने बैडरुम से धकेल दिया था ।
भाभीजी शर्माती हुई जाते जाते इतना ही बोलपाई इनको बीबी की तकलीफ से कोई लेना देना नहीं बस अपना मतलब. . . . . . . वे वाक्य अधूरा छोड़ गई । फिर चाय नाश्ता लेकर आ गई ।
मैंने पूछा . . तो यह अपने पैसे का क्या करती हैं और आप की तनख्वाह कहां जाती है ?
उन्होंने कहा मतलब. .
मैंने कहा मतलब क्या यह कहीं दान दे देती हैं अपने पैसे या कोई अन्य कार्य में लगाती हैं ?
मुसद्दीलाल मुस्कुराये बेगम भी मुस्कुराईं । पतिदेव बोले जी ये जो दो मंजिला मकान है, जमीन इनके नाम ।लोन भी इनकी सैलरी पर और गाड़ी भी इनके नाम और लोन भी इनका ।
कितने भोले जीव हैं यह पति नम्बर वन । दो परसेंट रजिस्ट्री का खर्च बचाने को जमीन बीबी के नाम कर दी ।बीबी गदगद गाड़ी का लोन और गाड़ी बीबी के नाम ।वह गाड़ी में आँचल सम्हालती, इतराती बगल की सीट पर बैठ महा गदगद । अब यह तो दुनिया जानती है कि बीबीयां अच्छी ड्राइवर नहीं होतीं, तो गाड़ी उनके हवाले कैसे कर दें मुसद्दीलाल ।वैसे भी नौकरी, पार्लर, मार्केट, मायके जाना कहीं भी हो होता है हाजिर हैं गैजिटेड ड्राइवर । बीबी इस सुख से अधाई रहती ये दूसरी बात है अधिकाशं अवसरों पर वे भी मुसद्दी जी के साथ शोपीस सरीखी ही होती हैं ।
पति मियां और ससुराल वाले जाने-अनजाने अपनी तारीफ़ करते नहीं अघाते की जी देखिये हम बहुत मॉर्डन हैं।हमने बहू बीबी को नौकरी करने की परमिशन दी जैसे बचपन से जवानी तक इन्होंने ही तो पढ़ाया-लिखाया था ।सूट पहनने पर ऐतराज़ नही कियाऔर तो और कामवाली बाई भी रख दी ।वैसे घर में काम ही कितना होता है ।उसपर एक अहसान यह भी कि यह जो कमाती है, हम उसका एक रुपया भी नहीं जानते। सच बताएं हमें इस की तनख्वाह कितनी है यह भी पता नहीं ।
साड़ी की जगह सूट पहन लें या अपनी फ्रेंडस के साथ जीन्स पहनले हम तो एतराज करते ही नहीं । रहीं. . होली, दीवाली, करवाचौथ, तीज, जन्मदिन, एनिवर्सरी पर कपड़े. . साल में एकाध इयररिंग, अंगूठीमहीने में एकाध बार पार्लर का चक्कर पूरी छुट्टी है भाईसाहब ।अभी कल हीएक बारह हज़ार का फोन लिया है बीबीने अपने पेटीएम से जिसमें व्हाट्सअप, फेसबुक चलाने की परमिशन. . . सेल्फ़ी और अनगिनत पोस्ट, थोक के भाव के मूर्खता, जाहिलियत, नाकाबिलियत, कामचोरी पर चुटकुले. . . जीने के लिए इसके अतिरिक्त और क्या चाहिए ?
यह अलग बात है कि मुसद्दीलाल की बीबी घर में बिना पूछे किसी को पांच हजार रुपल्ली उधार भी नहीं दे सकती, दान की बात दूर ।बस जी यह जरूर है कि घर वाले उसकी कमाई का एक रुपया भी नहीं जानते । धन्य हैं महापुरुष मुसद्दीलाल कहाँ से लाते हो इतनी महानता ।यह स्वीकार करने में तुम्हारी इज्ज़त घटती है कि बीबी की कमाई ज़रूरत बन चुकी है । परिवार के तुम भी सहयोगी हो सकते हो , नौकरी के दाता नहीं, विवाह के पहले ही बीबीजी अपनी पूरी पढ़ाई कर चुकी थी ।हां कुछ कोर्सेज( जो कि शौकिया नहीं नौकरी में सहायक हों जैसे बी. एड. . बी. टी. सी) तुमने करा दिए ताकि वह आगे पैसे कमाकर तुम सबका जीवन आसान कर सके । पर यह सब मानने मे मान धट जाएगा ।
पर नियंता, दाता बने बिना तुम्हारा पौरुष निहाल नहीं होता न मुसद्दीलाल जी तो खीस निपोरकर बनते फिरते हो महान । जिस दिन भी बीबी बोली कि वह मात्र एक महीने की सैलरी अनाथालय या किसी प्राकृतिक प्रकोप के फंड को देने जा रही उसदिन तुम्हारा असली चेहरे मर्दानी छवि पर जर्दानी छाया चिपक गई ।मस्जिद में दान चलेगा क्योंकि खुदा उस दान के बदले परिवार को खुशहाल रखने की गारंटी जो देता है। वैसे तुम्हारी महानता का सिंहासन सुरक्षित है मुसद्दीलाल क्योंकि सदियों की तुम्हारी कंडीशनिंग अभी अगली कई वर्षों तक चलने वाली है । तुम्हारी मैडम बेचारी तो बिना किसी प्रश्न, तर्क तुम्हारे आभामंडल में खोई रह कर यह भी नहीं पूछती कि साहब ये ऊपर की कमाई का क्या चक्कर है और तुम्हारी पूरी की पूरी तनख्वाह जमा होकर जर्सी गाय की तरह जो इन्टरेस्ट उगलती है उससे जमा बेनामी सम्पत्ति का आखिर करोगे क्या ?
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राजेन्द्र मोहन शर्मा d १३० , सेक्टर ९ , chitrakoot jaipur
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संपादन -व्यवस्था –अवैतनिक
इस होली अंक की व्यंग्य रचनायें एक से बढ़कर एक हैं. उम्रदराज अनुभवी सम्मान्य व्यंग्यकारों को पढ़ने और उनके साथ छपास सुख पाने का यह अवसर यशवन्त जी से मिला. साथ ही लेखन श्रम का सम्मान,मुद्दत के बाद पाकर प्रसन्नता भी.न कोई बड़ी बयानबाजी,न दावे;बस अपनी हिंदी और साहित्य की सेवा का अघोषित संकल्प है,जिसे अपनी सामर्थ्य-सीमा में पूरा करने की इच्छाशक्ति यहाँ देखता हूँ.मेरी शुभकामनायें !
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