फागुन का माह आते ही मन कुछ अलग ही रंग में रंगने लगता है। जिस तरह टेसू के वृक्ष फूलों से लद जाते हैं और नजारा इस तरह का हो जाता है मानो प्रकृ...
फागुन का माह आते ही मन कुछ अलग ही रंग में रंगने लगता है। जिस तरह टेसू के वृक्ष फूलों से लद जाते हैं और नजारा इस तरह का हो जाता है मानो प्रकृति भी रंगों में रंग गई हो और नया लबादा ओढ़ लिया हो। कुछ इसी तरह की उल्लासित और हर्षित करने वाली स्थिति मन को एक ही विचार में स्थिर नहीं रहने देती है। कभी रंगों के त्यौहार की मौज-मस्ती हृदय में कुंलाचे मारने लगती है तो कभी हंसी.ठिठोली भरी पारिवारिक नोक-झोंक से मन-मयूर नाच उठता है। हिन्दू पर्वों में होली का का पर्व ही ऐसा पर्व है जो सभी वर्गों को एक ही समान हस्ती में ला खड़ा करता है। चाहे राजा हो या रंक रंगों में नहाने के बाद सभी सामान दिखाई पड़ते हैं। इस त्योहार की छटा बसंत पंचमी से ही बिखरने लगती है। ढोल-मंजीरे और झांझ की कर्णप्रिय ध्वनि से मन के झंकार झंकृत हो उठते हैं। पौराणिक काल से लेकर वर्तमान की होली की परंपरा के दृश्य बच्चों से लेकर युवा और बुजुर्गों तक को आकर्षित करने लगते हैं।
होली वास्तव में पर्वों का पर्व कहा जा सकता है। यही कारण है कि स्वच्छंद हास-परिहास का पर्व माना जाता है। दूसरे शब्दों में रंगों के इस पर्व को मंगलोत्सव से जोड़कर देखा जाता है। भारत वर्ष के महान साहित्यकार एवं कवि रबिन्द्रनाथ टैगोर जी ने होली पर्व के संबंध में कहा है कि सहस्त्र मधुमादक स्पर्शी से आलिंगित कर रही सूरज की रश्मियों ने फागुन के इस बसंत सुबह को सुगंधित स्वर्ण में आल्हादित कर दिया है यह देश हंसते-हंसाते व मुस्कुराते चेहरों का देश है। जिंदगी जब सारी खुशियों को स्वयं में समेटकर प्रस्तुति का बहाना मांगती है, तब प्रकृति मनुष्य को होली जैसा त्योहार उपहार स्वरूप प्रदान करती है। वैसे होली के त्योहार का इतिहास भी बड़ा रोचक रहा है। मुगलकाल की चित्रकारी भी रंगोत्सव के उल्लास से भरी पड़ी हैं। अकबर-जोधाबाई से लेकर जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का ऐतिहासिक वर्णन भी ग्रंथों में समाया हुआ है। इसी होली को हम जहां रंगों की बौछार की उपमा देते हैं, वहीं शाहजहां के जमाने मे इस पर्व को ईद, गुलाबी या आब ए पाशी के नाम से जाना जाता था। होली का उल्लास मेवाड़ की चित्रकारी में भी दिखाई देता है।उन ऐतिहासिक चित्रों में महाराणा प्रताप अपने दरबारियों के साथ मगन होकर होली खेला करते थे।
श्री कृष्ण की नगरी मथुरा में होने वाली बरसाने की लट्ठमार होली का दृश्य नाम आते ही आंखों के आगे नाचने लगता है। रंगों के पर्व की लट्ठमार होली वास्तव में क्या है और क्यों इस रूप में खेली जाती है इसे जानना भी जरूरी है। इतिहास में वर्णन मिलता है कि बरसाने की परंपरा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के गांव नंदगांव के रहने वाले युवकों की टोली बरसाने में घुसकर राधा जी के मंदिर में ध्वज फहराने की कोशिश करते हैं। बरसाने की महिलाएं उन्हें ध्वज फहराने से रोकती हैं और न मानने पर उन पर लाठियों से प्रहार करने शुरू कर देती हैं। यही दृश्य लट्ठमार होली का रूप ले लेता है। इसी लट्ठमार होली की एक परंपरा ऐसी भी है की महिलाओं द्वारा यदि कोई युवक लट्ठमार होली के दौरान पकड़ लिया जाता है तो उसे महिलाओं की तरह श्रृंगार कर सभी के समक्ष नृत्य करना पड़ता है। इसके साथ ही अगले दिन बरसाने के युवक नंदगांव जाकर वहां की महिलाओं पर रंग डालते हैं। होली की यह परंपरा और उत्साह पूरे सप्ताह तक शबाब पर रहता है। रंगों के पर्व का अनोखा अंदाज वृंदावन की होली के रूप में भी प्रसिद्ध है। वृंदावन में बांकेबिहारी मंदिर की होली गुलाल कुंद की होली के नाम से जानी जाती है।
वर्तमान की तथा कथित भौतिकवादी सोच एवं पाश्चात्य संस्कृति के कु-प्रभाव एस्वार्थ एवं संकीर्णता भरे वतावरण ने होली कि परंपरा और प्राचीन स्वरूप को बदल डाला है। परिस्थितियों के थपेड़ों ने होली की खुशी और मस्ती को प्रभावित किया है, किन्तु आज भी बृजभूमि, वृंदावन बरसाने आदि की होली ने परंपराओं को जीवंत कर रखा है। हिंदुओं के रंग भरे पर्व को फीका करने की कोशिश भी लगातार जारी है। कभी रंगों से होने वाले नुकसान का प्रसार-प्रचार कर इसे कम करने की ताकत जुटाई जाती है तो कभी पानी की बरबादी का रोना रोया जाता है, किन्तु इतना होने के बाद भी हमारा देश अपनी परंपरा को अक्षुण्ण रखने उन्मुक्त होकर रंगों में नहाता आ रहा है। बृज की होली का तो कहना ही क्या? ऐसा कोई हाथ नहीं जो गुलाल और रंगों से भरा न हो। पिचकारियों से छोड़ी गई रंगों की धार हर किसी को रंगों से नहलाने में गर्व का अनुभव करती है। बृज में होली की हुड़दंग राधा.कृष्ण के बीच कुछ इस तरह होती है....
मति मारो श्याम पिचकारीएअब देऊंगी गारी,
भीजेगी लाल नई अंगिया, चुन्दर, बिगरैगी न्यारी,
देखेंगी सास रिसाएगी मोपेएसंग की ऐसी है दारी
हँसेंगी सब दै-दै तारी।।
मूलतः होली का पर्व प्रकृति का पर्व माना जाना चाहिए। इस को भक्ति और भावना से केवल इसलिए जोड़ा जाता है ताकि प्रकृति के इस रूप से मनुष्य का जुड़ाव हो सके। साथ ही इस प्राकृतिक पर्व एवं उसकी अमूल्य धरोहर को समज समझ सके, इसी में मनुष्य का जीवन आधारित है। मनुष्य का जीवन कष्टों और आपदाओं के पिटारा है। वह दिन-रात अपने जीवन की पीड़ा का समाधान ढूंढने में भिड़ा रहता है। इसी आशा और निराशा के क्षणों में उसका मन व्याकुल बना रहता है। ऐसे ही क्षणों में होली का पर्व उसके जीवन में आशा का संचार कर जाता है। कोई अबीर-गुलाल से तो कोई पक्के रंग और पानी से होली खेलता है। ऐसे लोग भी हैं जो फूल-पत्तियों तथा जड़ी-बूटियों से रंग बनाकर होली का मजा लेते और देते हैं। इस तरह से तैयार किया गया रंग पूर्ण रूप से सात्विक होता है और किसी तरह की हानि शरीर को नही पहुंचाता है। विगत कुछ वर्षों से होली के पर्व पर एक अलग ही हल्ला मचने लगा है। पानी की कमी का रोना होली पर्व पर सामाजिक संस्थाओं का नया नारा बन गया है। कुछ मीडिया ग्रुप में शामिल लोग भी सुखी होली से लेकर होलिका दहन का विरोध करते दिखाई पड़ने लगे हैं। त्योहार विरोधी मुहिम चलाकर ऐसे लोग खुद को अन्य लोगों के सामने आदर्श के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं, किन्तु उनका खुद का वजूद ऐसा नहीं है। होलिका दहन के रूप में हरे-भरे पेड़ काटकर न जलाए जाएं बल्कि कूड़े-करकट की होली जले रंगों की बौछार छक कर की जाए। पानी की कोई कमी इस देश में नही है। पर्व का उल्लास और उसके वास्तविक रूप पर कोई अंतर न आने पाए।
डा. सूर्यकांत मिश्रा
न्यू खंडेलवाल कालोनी
प्रिंसेस प्लेटिनम, हाऊस नंबर.5
वार्ड क्रमांक-19, राजनांदगांव (छग)
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