डॉ. सुरेन्द्र वर्मा कुछ क्षणिकाएं • मैं न भी रहूं प्रेम अटूट है मैं प्रेम करता हूँ इसी से मेरा वजूद है – • तुम्हारे शहतीर तो झेल...
डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
कुछ क्षणिकाएं
• मैं न भी रहूं
प्रेम अटूट है
मैं प्रेम करता हूँ
इसी से मेरा वजूद है –
• तुम्हारे शहतीर तो झेल लूंगा
पर उस एक तिनके का क्या करूं
जो आँख में आन पडा है
• माना
भूख एक बड़ा अभिशाप है
पर भरे पेट की
और, और ललक
है अभिशाप
इससे भी बड़ा
• दिन-ब-दिन विकसित होते
ईंट पत्थरों के परिवार |
बरक्स उनके,
हैं सिमटते जा रहे
पेड़-पौधों के परिजन
मेरे शहर में
• मेले में तुम
तन्हाइयों में तुम
भीड़ में
अकेले में तुम
बस, दिखाई भर नहीं देते
• कौन है जो
इंतज़ार करता है
आखिरी पत्ता गिरने का
पहला गिरा नहीं कि
फूटने को कोंपलें
बेचैन हो उठती हैं
• दुनियादार लोग
कभी सलीका न सीख पाए
दुनिया में रहने का
बस
अपना काम निकालते रहे
• जितना रचा
बस उतना ही देख पाए
दृष्टि सीमित
सीमित है सृष्टि भी
• लहरों सा बहता है
संभल जाता है
आता
चला जाता है
इतराता, कभी डूब जाता है
दिल बेचारा
• बहुत कुछ तो सोख लेते हैं बादल
इन आँखों की तरह
भर आने पर
बरस पड़ते हैं
• भूमिका भी लिखी
और विषय का विस्तार भी किया
पर सारा किया कराया
काम न आया
कुछ भी हाथ न आया
• नाम याद नहीं आता
सामने हो तो बेशक
पहचान सकता हूँ
नाम में भला क्या रखा है ..
• बेशक
वह बोली नहीं
किन्तु उसका मौन भी
वाचाल था
• शक्तिकरण के नाम पर
नारी स्वयं ही
अपना चीर हरण करने लगी
कैसी विडम्बना |
• दिल मांगे मोर
हर जगह बस यही है शोर
मिल तो जाएगा
रखोगे कहाँ ?
000000000
निशेश अशोक वर्द्धन
प्रतिशोध
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16-16 सममात्रिक
मैं वही चंडिका हूँ जिसने पोरस का शौर्य जगाया था।
बनकर 'पृथ्वी' का विकट तेज 'गोरी' का दर्प मिटाया था।
मैं बनी पराक्रम की ज्वाला ढल गई 'शिवा' के प्राणों में।
मैं प्रकट हुई कर शत निनाद रण के प्रचंड आह्वानों में।
मेरे सुत कभी न रखते हैं परराज्य-हरण की अभिलाषा।
किन्तु उन्हें है ज्ञात कपट के तीखे प्रति-उत्तर की भाषा।
विष- बुझे तीर ले चलती हूँ समझो न मुझे असहाय कभी।
मेरी दुहिताएँ वीरसुता गाया करतीं रणगीत सभी।
जाने कितने आघात सहे मैंने युग-युग विषपान किया।
अभिमन्यु के शोणित से भी अपना आँचल लाल किया ।
नित ज्वालाओं से लिखती हूँ अपने वीरों के भाग्य प्रखर।
देने को प्राणों की आहुति चलते निर्भय हो त्याग-डगर।
तांडव करते हैं प्रलय-मेघ अकुलाता हिन्दमहासागर।
रण में बहती अरिरक्त-धार मैं भरती हूँ अपनी गागर।
गर्जन करता है कच्छ ,कामरू में कढ़ती जिह्वा कराल।
करता है रक्तपान हिमपति ले दह्यमान निज शिखर-जाल।
घन कालकूट बरसाते हैं दिक्पति करते हैं युद्ध-गान।
रखते ही चरण रणांगण में नभ हो उठता है कंपमान।
उसी प्रचंड अनल को तुमने निर्भय होकर ललकारा था।
अब लो भुगतो परिणाम पाप का यह उपहार तुम्हारा था।
मेरी उदारता जगप्रसिद्ध मैं मानवता की रक्षक हूँ।
है अखिलविश्व मेरा कुटुंब मैं कलुषपुंज की भक्षक हूँ।
बस सावधान होकर सुन लो मेरा यह अंतिम कुलिशनाद।
छाती पर वज्रपात होगा, मिट जाएगा आतंकवाद।
पृथ्वी=पृथ्वीराज चौहान
गोरी=मुहम्मद गोरी
शिवा=शेर शिवाजी
कामरू--कामरूप(कामाख्या)
नौका
••••••••••••
दिशाओं के उदर में गीत गाने को चली नौका।
उफनते क्लेश-सागर को दबाने को चली नौका।
कहीं सूना पड़ा आँगन बजाता शोक-शहनाई।
सुहानी याद को जैसे जगाने को चली नौका।
छलकती है सुरालय में सतत अंगूर की हाला।
कि गहरे घाव पर मरहम लगाने को चली नौका।
मधुर नवप्रात में कोयल सुरीली तान भरती है।
निशा के मौन पर जयनाद ढाने को चली नौका।
सिसकते बाग में मधुवात छेड़े राग बासंती।
शिशिर की गोद सरसाती झुमाने को चली नौका।
निराशा के घने बादल हृदय में हैं जहाँ छाए।
नवल उत्साह को उर में बहाने को चली नौका।
यही इतिहास है कहता धरा पर पाप जब बढ़ता,
अनय के पार जाने की सुझाने को चली नौका।
दया की भावना को स्वाँस-पथ में घोलकर देखो।
लगे शुचि गंध जीवन में बसाने को चली नौका।
जगत की प्राण-रक्षा में गरल की धार पी लो तुम।
समझ लेना सुखों के धाम जाने को चली नौका।
(2) जीवन की व्यस्तता
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नहीं सूझता है पथ मुझको,
आगे बढ़कर बतलाओ रे!
दिन-रात कर्मरत जीवन है,
तनिक यहाँ विश्राम नहीं है।
लहू चूसते दिवस-काल का,
लगे कहीं अवसान नहीं है।
मृदुल सेज पर मुझे सुलाए,
वो निशा सुहानी लाओ रे!
नहीं सूझता है पथ मुझको,
आगे बढ़कर बतलाओ रे!
दायित्वों का अति विकट बोझ,
मुझको लाया है जिस पथ पर।
गहन वेदना के शूलों को,
पाया है मैंने पग-पग पर।
जिसने शैशव को छाया दी,
वो आँचल माँ का लाओ रे!
नहीं सूझता है पथ मुझको,
आगे बढ़कर बतलाओ रे!
अदय दंभ से भरी कोठरी,
इस जीवन का सार हुई है।
व्यस्तता के शिशिरांगण में,
नीरसता साकार हुई है।
कब दिन बीता,कब रात हुई,
नित-नित मुझको समझाओ रे!
नहीं सूझता है पथ मुझको,
आगे बढ़कर बतलाओ रे!
चल रही सतत जीवन-तरणी,
है,किन्तु इसे दिग्भान नहीं।
धनु पर चढकर चलनेवाले,
शर को स्वलक्ष्य का ध्यान नहीं।
मम हृदय-वेदना मुखरित है,
मुझको अब धैर्य बँधाओ रे!
नहीं सूझता है पथ मुझको,
आगे बढ़कर बतलाओ रे!
निज अमिय वारि से पावस ऋतु,
जन-जन को नहलाती होगी।
मधुमय ऋतुपति की मंद सुरभि,
उपवन को महकाती होगी।
शरदागम की उस सुषमा का,
मधुमय रसपान कराओ रे!
नहीं सूझता है पथ मुझको,
आगे बढ़कर बतलाओ रे!
क्यों लिखा क्षुब्ध होकर विधि ने,
मेरे मस्तक पर विषम लेख।
मैं रहता हूँ प्यासा-प्यासा,
देखो नभ में वो विपुल मेघ।
दो आज निमंत्रण वृष्टि हेतु,
तन-मन की तपन मिटाओ रे!
नहीं सूझता है पथ मुझको,
आगे बढ़कर बतलाओ रे!
चिर साध पालता आया हूँ,
विहगों-सी मुक्त उड़ान भरूँ।
चलूँ सुखों के कुसुम-कुंज में,
सुरभित अपना मन-प्राण करूँ।
कट गए पंख कब के मेरे,
अब तो नव आस जगाओ रे!
नहीं सूझता है पथ मुझको,
आगे बढ़कर बतलाओ रे!
उठ-उठकर उदधि -तरंगों-सा,
फिर गिर पड़ता यह चंचल मन।
खिलने से पहले मुरझाते,
इस जीवन के बहु स्वप्न-सुमन।
हरि से कह दो दुख हरने को,
मम विनती उन्हें सुनाओ रे!
नहीं सूझता है पथ मुझको,
आगे बढ़कर बतलाओ रे!
रचनाकार--निशेश अशोक वर्द्धन
उपनाम--निशेश दुबे
ग्राम-देवकुली
डाकघर--देवकुली
थाना -ब्रह्मपुर
जिला--बक्सर
(बिहार)
पिन कोड--802112
जन्म-तिथि--23•03•1989
शिक्षा--इंटरमीडिएट(विज्ञान,गणित) ए0एन0काँलेज,पटना
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भरत कापडीआ
सूना मन-आंगन
पहले फूटती थीं कोंपलें हंसी की
अठखेलियां मनभावन बातों की
अट्टहास से हिलती दीवारें
बेतरतीब घर में गूंजते ठहाके
लंबी बातों के दौर
कविताओं-ग़ज़लों के सफर
अनवरत सफर सफर सफर
फिर भी बच जाता था समय
आज करीने से सजा घर
खामोश गलियारे
सुनसान कमरे
मन की मौन वीथिकाएं
मैं से तुम तक का यह सफर
रह गया सिमट कर
मोबाईल की सुरंग में
घंटों खोये रहते
वाट्सएप, फेसबुक की गहन गह्वर गुहाओं में
खो गया सब का समय
न तुम्हारे पास है,
न मेरे पास ।
-भरत कापडीआ
aasthabsk@gmail.com
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लखनलाल माहेश्वरी ...प्रस्तुति: हर्षद दवे.
दो काव्य -
ममता तुमने यह क्या किया...?
ममता तुमने यह क्या किया
लोकतंत्र को तोड़ने, अपना जाल बिछा दिया
लोकतंत्र बचे या न बचे, पुलिस अफसर को बचा लिया
पुलिसवाला बचे न बचे लोकतंत्र को खतरे में डाल दिया.
शारदा चिट फंड क्या हुआ ममता को फंसा दिया
SIT की जांच दबाकर बचने का काम किया
जब जांच की बातें सामने आएगी तुमने क्या किया
सब साफ़ हो जाएगा लोकतंत्र बचाया या तोड़ दिया.
ममता तुमको भूलना नहीं है, तुमने यह क्या किया
एक पुलिस अफसर को बचाने के लिए धरना दिया
TMC के कितने ही नेता जेल गए तब क्या किया?
उन्हें धक्का देकर अपने को बचाने का काम किया.
मामला सर्वोच्च न्यायालय का था तुमने ऐसा क्यों किया
सिर्फ अपने को नेता बनाने के चक्कर में धरना दिया
डांट पड़ी सर्वोच्च न्यायालय, धरना क्यों तोड़ दिया
तुमने तो लोकतंत्र को बचने के लिए यह काम किया.
सारे देशवासी समझ गए लोकतंत्र तोड़ने का काम किसने किया
पुलिसवाले क्या तेरे काका थे जो ऐसा काम किया
प्रेमलखन कहे लोकतंत्र खतरे में है ममता ने यह किया
सारे देशवासी समझ गे कुर्सी बचने के लिए यह किया!
लखनलाल माहेश्वरी, पूर्व व्याख्याता,
६०७/३, प्रेम नगर, फाईसागर रोड, अजमेर (राजस्थान)
राहुल बन गए रामभक्त ...
राहुल बन गए रामभक्त मंदिर बनाने आएँगे
जनता को उल्लू बनाकर बहाना ढूँढने आएँगे
राजनीति के चक्कर कोई कुछ भी कर ले
सब सही है, यह कहकर बात बनाने आएँगे.
कभी मंदिर जाए कभी मस्जिद जाए
कभी मथा टेकने गुरुद्वारे जाए
जनेऊ पहन कर हिन्दू बन जाए
ये सब वोट पाने का बहाना बन जाए.
बात जब आती राममंदिर बनाने की
रोड़े उसमें लगाते हैं और सब को उकसाते हैं
यह सब राजनीति का खेल है
सबको बेवकूफ बनाकर खेल खेलना चाहते हैं.
प्रधानमंत्री का पद पाने हेतु कुछ भी किया जा सकता है
साम दाम और दंड को अपनाया जा सकता है
भोलीभाली जनता को योँ भड़काया जाता है
होता है कुछ नहीं केवल भ्रम फैलाना आता है.
अब ज़माना बदल गया है जनता सब समझती है
एक बार चक्कर में फंसकर कुछ भी कर सकती है
प्रेमलखन कहे जनता सब समझने लग गई है
सुनती है सबकी पर मन में जो आए कर ती है.
लखनलाल माहेश्वरी, पूर्व व्याख्याता,
६०७/३, प्रेम नगर, फाईसागर रोड, अजमेर (राजस्थान)
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अविनाश तिवारी
#प्रहार हो
तड़प उठा है हिंदुस्तान
दहक रही सीने में ज्वाला है।
नापाकी तेरी करतूतों ने
ह्रदय छलनी कर डाला है।
जब भी हमने दोस्ती का पैगाम
आगे लाया है।
खूनी होली खेलकर तूने कायरता
दिखाया है।
अब शब्दबाण से नही
अग्नि वर्षा से बात होगी।
शहीदों की शहादत
यूँ न जाया होगी।।
काट लेंगे अब वो सर
जो आज़ादी का खेल खेलता है।
कश्मीर के सेना पर पत्थर जो फेकता है।
निगाहे ढूंढ़ रही मानवधिकार के पैरोकारों को
ताले पड़े है मुंह में उनके
आतंकी पहरेदारों को।
भारत माँ के लाल आज
तिरंगे में लिपटे सोये हैं।
स्तब्ध है मानवता
अमन में जहर तूने घोले हैं।
होगा विकराल अंजाम
सुन नापाक पाक
विश्व के नक्शे से
अब होगा तू साफ।
पीठ पीछे खंज़र चलाना
तेरी खून में शामिल है
हिंदुस्तान के शेर जागो
अब पाकी गीदड़ों की बारी है।
अब प्रहार अमिट होगा
अन्तिम निर्णय शीघ्र होगा
अखण्ड भारत का परचम
शान से फहराएगा
चीर कर सीना तेरा
लाहौर में तिरंगा लहराएगा।।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
[16/02 11:13] avinashtiwari766: #ज्वाला(श्रद्धांजलि)
ढूंढ रही हूँ चिथड़ों में
मैं अपने लाल को।
गर्वित मेरा दूध हुआ
ऊंचा किया मेरे भाल को।
कतरे कतरे खून के
देश हित मे बहा गए।
सुखी हुई आंखे मां की
कर्ज मिट्टी का तुम चुका गए।
तेरा लल्ला मुझसे पूछे
क्यों सोये मेरे पापा हैं।
अबकी होली रंग खेलेंगे
कहके गए मेरे पापा हैं।
क्यों फिर खुद रंग लगाकर
फूलों में ये लेटे हैं।
मैं भी खेलूंगा पापा जैसे
हम भी तेरे बेटे हैं।
बहन पुकारे राखी लेके
किस हाथों में बाँधु
कायरों ने हाथ न छोड़ा
भैया किसे पुकारूँ।
दीये केंडल फूल और बाती
इनको कोने में रखना होगा
आतंक वाद को खत्म करने
हर लाल को निकलना होगा।
उठो सपूतों आगे आओ भारत
मां ने तुम्हे पुकारा है।
सर पर कफ़न बांध के निकलो
यह कर्तव्य तुम्हारा है।
यह कर्तव्य हमारा है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
छत्तीसगढ़
[26/02 14:52] avinashtiwari766: लो गरज उठी सेना अब
मान देश का बढ़ाया है।
आग ठंडी नही चिता की
अभी पूरे पाक का सफाया है।।
हम कहते रहे शांति को
तुम बम धमाके करते है।
कायर बनकर तुम नाहर के
पीछे वार करते हो।
है सजग हिन्द की सेना अब
इरादे उनके अटल हैं।
गोली हर उस सीने में होगी
जो अमन चैन के दुश्मन हैं।
कुछ बैठे यहां जयचन्द भी
जो भरम लगाए बैठे हैं
खाते हैं जिस थाली में ये
उसमें ही छेद करते हैं।
है गजब किया तूने हिन्द की सेना
तुमको हमारा सलाम है।
तेरे इस पराक्रम से
हिंदुस्तान कुर्बान है।
अब आरपार को तैयार
चतुरंगनी सेना का प्रस्थान है
सुन पाक नापाक न बन
ये हिंदुस्तानी पैगाम है।
जय हिंद जय भारत
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा जांजगीर चाम्पा
छत्तीसगढ़
[26/02 22:30] avinashtiwari766: ये महाप्रयाण कर के सन्धान
संकल्प वीरों ने ठाना था।
जो जख्म दिया नापाक
उसको सबक हमें सीखाना था।
तेरा धर्म यही तेरा कर्म यही
कर्म निरन्तर तेरा जारी रहे।
मा आदि भवानी की शक्ति से
तेरी भुजाओं में सौर्य रवानी रहे।
कर लिया सन्धान अब शस्त्रों का
तेरा पराक्रम निर्भीक रहे।
दुश्मन थर्राए तेरी आँखों से
दहाड़ तेरी सिंह का रहे।
हम नमन करते शहीदों का
शत शत शीश झुकाते हैं।
तेरे खून के बदले अब
पाक नख्शे से मिटाते हैं।
अब खत्म हो आतंकी
आतंकवाद का समूल नाश हो।
जय हिंद की सेना विजय हो तेरी
तुम हिंदुस्तान का विश्वाश हो।।
जय हिंद की सेना
अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
छत्तीसगढ़
[01/03 14:02] avinashtiwari766: वह सौर्य ध्वज का वाहक
परचम उसे लहराना था।
है अभिनव अमिट नवीन भारत
अभिनंदन को वापस आना ही था।
गीदड़ नाहर को कैसे रोके
आंखों से निकले वो शोला है।
सर पर कफ़न बांध के निकला
पहना बासन्ती चोला है।
है गर्व हमें तेरी वीरता पर,
भारत के सिंह तुम नन्दन हो
गर्वित हिंदुस्तान की माटी
सपूत तुम अभिनंदन हो।
पर घाव अभी भी सूखे नही
जब तक आतंकी जिंदा है।
हाफिज मसूद के सिरों पर
अब लगे फांसी का फंदा है।
टुकड़े वाले गैंग देख लो
भारत का हर जवान अभिनंदन है
जय जय जय हिंद की सेना
गर्वित हैं हम तेरा वन्दन है
ये धरती माटी चन्दन है
हर वीर यहां अभिनन्दन है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
--
है हमको अभिमान ये वीरों की है शान वन्देमातरम वन्देमातरम
अमर शहीदों के रक्त का मान वन्देमातरम
आजादी के परवानों का गान वन्देमातरम
वन्देमातरम वन्देमातरम।
हिमालय का सीना बोले सागर की गहराई डोले
भगत सुभाष की सांसो से निकले तान
वन्देमातरम
वन्देमातरम वन्देमातरम
देश प्रेम की भाव जगाये
प्रेम सुधा की रस
है भारत का स्वाभिमान
मेरा गान वन्देमातरम
वन्देमातरम वन्देमातरम
गंगा यमुना कलकल करती
सागर चरण पखारे
मन्दिर यही मस्जिद यहीं
चर्च और गुरद्वारे
हिंदुस्तानी नाद का पहचान
वन्देमातरम
सिंहों की दहाड़ का नाम
वन्देमातरम।
वन्देमातरम वन्देमातरम।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा जांजगीर चाम्पा
[12/01 10:19] avinashtiwari766: युवा दिवस
************
वो आवाज था हर युवा का
जन चेतना का संचार किया।
राष्ट्र वाद का बोध कराकर
विचार क्रांति का सूत्रपात किया।
विश्व बंधुत्व का संदेश देकर
नव युग का निर्माण किया।
धर्म सभा मे हिंदुस्तान का
ऊंचा नाम किया।
है धन्य धरा भारत भूमि
नरेंद्र को जिसने जन्म दिया,
वह असीमित व्यापक अनन्त
प्रखरता से आलोकित हुआ।
उस ज्योति किरण से आलोकित
भारत का ह्रदय कहता है।
ज्ञानपुंज विवेकानंद को सादर
वन्दन करता है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
#युवा दिवस की असीम शुभकामना
[16/01 15:45] avinashtiwari766: मेरी प्यारी दीदी कभी हंसाती
कभी चिढ़ाती
जीवन का हर ढ़ंग सिखाती
महके खुसबू से घर का आंगन
माँ की दुलारी पापा का अंजन
मेरी दीदी अतुल्य प्यार से
परिपूर्ण
भांजो को आदर्श सिखाती
माँ का अपना फर्ज़ निभाती
अपनी बिट्टी पर देखूं चेहरा तेरा
हंसी से जिसके हो नया सबेरा
प्यारी दीदी दुलारी दीदी
हंसती रहे गुनगुनाती रहे
जीजाजी का साथ निभाती रहे
अमर आपका प्यार हो
खुशियों से भरा संसार हो(अविनाश तिवारी मुन्नू)
[23/01 11:23] avinashtiwari766: सुभाष का स्वराज
*******************
वो क्रांति वीर जलता रहा
अंधेरों से लड़ता रहा।
ले स्वराज का दीपक
गांधी जी के संग चलता रहा।
पर प्रण लिया कठोर
अधिकार हमको चाहिए
भीख नही हमको स्वराज ही चाहिए।
खून कहा बहा दो
देश प्रेम की राह में
व्याकुल है भारत माँ
जंजीरे उसकी बांह में
व्यर्थ तेरी जवानी जिसमे न रवानी है।
आ सके देश के काम नही
वो खून नही पानी है।
हुआ तुलादान जब नेता जी का
बढ़चढ़ कर लोग आते थे
कोई सुहाग निशानी सिंदूर दानी
भारत माँ पर चढ़ाते थे।
ले अटल इरादे नेता जी शस्त्र उठा संकल्प लिया
हिद नर नारी से आजाद हिंद का जन्म हुआ।
जो जन्म लिया भारत मे मां
तेरा कर्ज चुकाऊंगा
खून मांगता हूं मैं तुमसे
आज़ाद वतन कर जाऊंगा।
है नमन सुभाष तेरे चरणों मे
श्रध्दा सुमन अर्पण है
तेरे सपनो का भारत आज फिर
कहीं दफन है।
मानवता है सार सार सेना पर पत्थर चलते हैं।
दिल्ली के jnu में आज़ादी के नारे
लगते हैं।
वो देशद्रोह का नारा लगाते
भटके युवा हो जाते हैं,
राजनीति के पुरोधा नतमस्तक
हो जाते हैं।
है जरूरत सुभाष भारत माँ तुझे पुकार रही
करो स्वतन्त्र हैवानों से माता यही विलाप रही।
कहि निर्भया कहि मानवी नोचे
खसोटे जाते हैं।
मानवता को रौंदते लोग
इंसानियत को शर्माते हैं।
आज वक्त है युवा मेरे अब तुम गमन प्रस्थान लिखो
देश के स्वाभिमान के लिए रण
में भी सन्धान करो
जागो उठो शपथ तुम्हे
नव युग का निर्माण करो तुम नव युग का निर्माण करो।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
8224043737
[25/01 13:42] avinashtiwari766: मेरा मुल्क मेरा देश ,
अनेकता में एक।
भिन्न भिन्न की बोली यहां पर
अलग अलग भाषाएँ।
जाती अलग है धर्म अलग है
पर एक ही है दिशाएं।
मानवता का धर्म यहां पर
खुशियां रोज मनाएं
क्या हिन्दू क्या मुस्लिम हम
भाईचारा फैलाएं।
ईद दीवाली वैशाखी में लगते यहाँ
पर मेले
क्रिसमिस की है शान निराली
बच्चे संग संग खेले।
बांट नही सकता हमको कोई
हम भारत के रखवाले हैं।
मिटा न सकेगा भाईचारा
हम प्रेम करने वाले हैं।
@अवि
अविनाश तिवारी
[14/02 22:52] avinashtiwari766: #श्रद्धांजलि पुलवामा शहीदों को
वो तिरंगे में लिपटे घर वापस
आये हैं।
अभी तो होली आई नही
वो खून लुटाकर आये हैं।
कैसे कहूँ बलिदान इसे
ये हमारी नाकामी है।
हम चुप बैठे घरों पर
शहादत नही ये सुनामी है।
राजनीति के तवे जलेंगे
वोटों से इसे देखा जाएगा
कोई हमदर्द बनकर आएगा
शहादत का तमाशा बनाया जाएगा।
तेरी शहादत पर स्तब्ध बेचैन हुं
आहत हूँ इस व्यवस्था से
फिर भी मैं मौन हूं।
अब सर्जिकल स्ट्राइक नहीं
सीधा प्रहार चाहिए।
पाक से खींचकर पागलों को
सूली पे लटकना चाहिए।
वो नामर्द नही दिखते
जो मानवाधिकार पर रोते हैं।
भारत में रहकर जो जहर का बीज बोते हैं।
है शर्म तो रुको नही
अब तो यलगार हो
यलगार हो प्रहार हो
पाक विश्व से साफ हो।
@अवि
अविनाश तिवारी
जांजगीर चाम्पा
[15/02 11:45] avinashtiwari766: #प्रहार हो
तड़प उठा है हिंदुस्तान
दहक रही सीने में ज्वाला है।
नापाकी तेरी करतूतों ने
ह्रदय छलनी कर डाला है।
जब भी हमने दोस्ती का पैगाम
आगे लाया है।
खूनी होली खेलकर तूने कायरता
दिखाया है।
अब शब्दबाण से नही
अग्नि वर्षा से बात होगी।
शहीदों की शहादत
यूँ न जाया होगी।।
काट लेंगे अब वो सर
जो आज़ादी का खेल खेलता है।
कश्मीर के सेना पर पत्थर जो फेकता है।
निगाहे ढूंढ़ रही मानवधिकार के पैरोकारों को
ताले पड़े है मुंह में उनके
आतंकी पहरेदारों को।
भारत माँ के लाल आज
तिरंगे में लिपटे सोये हैं।
स्तब्ध है मानवता
अमन में जहर तूने घोले हैं।
होगा विकराल अंजाम
सुन नापाक पाक
विश्व के नक्शे से
अब होगा तू साफ।
पीठ पीछे खंज़र चलाना
तेरी खून में शामिल है
हिंदुस्तान के शेर जागो
अब पाकी गीदड़ों की बारी है।
अब प्रहार अमिट होगा
अन्तिम निर्णय शीघ्र होगा
अखण्ड भारत का परचम
शान से फहराएगा
चीर कर सीना तेरा
लाहौर में तिरंगा लहराएगा।।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
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खान मनजीत भावडि़या मजीद
नज्म
आजि़र हूं मैं उजाड़ मत ना,
तू मुझ पर इजबार मत कर ।
इज़तदाह करता हूं मैं हर रोज़,
तू मुझ से अज़र मत कर ।
मैं मुफलिस हू फिर भी इज़तबा हूं,
तू मुझे गिराने की कोशिश मत कर ।
तेरी पोशाक जरूर अजलत है,
तू उस पर इब्हाम की कोशिश मत कर ।
आपका अबवाब आसाईस के लिए खुले,
तू मुझे भी आषुफता मत कर ।
मेरी आरजू है मै आसासामंद बन जाउं,
तू मुझे कभी गुलाम मत कर ।
मेरी आष्ती आपसदारी रहे सदा,
तू मुझे अज़ल रसीदह मत कर ।
ख़ान मनजीत नहीं चाहता अज़ल गिरफ्त में,
तू हमेशा मुझे बेगाना मत कर ।
खान मनजीत भावडि़या मजीद
गांव भावड तह गोहाना सोनीपत-131302
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खुशी राजली
बेटियां
कितनी अच्छी कितनी प्यारी होती है बेटियां।
गर्भ में ही क्यों मार दी जाती है बेटियां।।
बेटा साथ भले छोड़ दे रहती संघ सदा ,
मां बाप का कभी,साथ छोड़ती नहीं बेटियां।
कितने बेटे बीच में ही,छोड़ देते हैं पढ़ाई अधूरी,
पढ़ लिख डॉक्टर-अफसर बनकर, मान-सम्मान बढ़ा देती है बेटियां।
बुढ़े मां-बाप को रुलाते हैं बेटे,
बेटी आंसू पौंछती है, फिर भी गर्भ में मरवाते हो बेटीयां।
बेटे कहना मोड़ देते हैं,मां-बाप का,सुनते नहीं उनकी,
आधी रात को,खांसते हुए बुड्ढे मां-बाप को,उठकर पानी पिलाती है बेटियां।
खुशी राजली ©
नाम-खुशी राजली
पता-गांव व पोस्ट आफिस,राजली
तहसील-बरवाला
जिला-हिसार
राज्य-हरियाणा
पिन कोड-125121
ई मेल-khushirajli712@gmail.com
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लोकनाथ साहू ललकार
हिन्द की सेना जिंदाबाद !
सेना हिन्द की आन है, सेना हिन्द की शान है !
इस पर मन बलिहारी है, मेरा दिल कुर्बान है
तिरंगा धर जब सेना चलती, राह देते दुर्गम पहाड़ हैं
शौर्य-साहसी विपुल पूंज ये, हर सैनिक सौ-हजार है
इनकी धड़कने वंदेमातरम् ! अनुगूंज वो आसमान है
सेना हिन्द की आन है, सेना हिन्द की शान है !
निजजन को ये दूर छोड़कर, करते निर्जन से इक़रार हैं
परिंदे भी जहॉं पर नहीं मारते, करते मौतों से मनुहार हैं
इनके चरणरज चंदन धरके, पवन सुनाता शौर्यगान है
सेना हिन्द की आन है, सेना हिन्द की शान है !
होठों पे गंगा, हाथों तिरंगा, राणा-भगत-सा भाल है
इनका साया देख शत्रु थर्राते, ये कालों के महाकाल हैं
मनुजता पर प्राण छिड़कते, इनका दिल अर्चन-अजान है
सेना हिन्द की आन है, सेना हिन्द की शान है !
ऐ कलम ! तू ख़ालिस लिख, हिन्द की सेना जिंदाबाद !
गद्दारों को फ़रमान लिख, और दुश्मनों को मुर्दाबाद !
घर-घर तिरंगा लिख दे, दिलों में लिख दे हिन्दुस्तान है
सेना हिन्द की आन है, सेना हिन्द की शान है !
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लोकनाथ साहू ललकार
बालकोनगर, कोरबा (छ.ग.)
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लक्ष्मण घासोलिया गोगटिया
मेरी कविताएं
( 1 ) [ बसंतदूत ]
बनके अभ्यागत ,बसंतदूत आया है
पुरातन पात झरने का सन्देश लाया है
सन्देश पाकर पल्लव, निज ठान छोड़ आया है
सूखे पल्लव विदा हुवा धरणी में समाया है
क्षिति को ऊर्वर कर, अपना कर्ज चुकाया है
पावस नहीं, कुसुमाकर तरु पर छाया है
नवीन प्रसून पात तरुओं पर लहलाया है
कोकिल ने निज कलरव से अँचल को गूँजाया है
नवीन सुमन की सौरभ से अवनी को महकाया है
मनु समीर मलय मेरू से तर्पण युक्त दौड़ाया है
भानु ने रश्मि बरसाई, पुष्प खिलखिलाया है
भौंरो ने गूँजार कर मंगल गान गाया है
हर गुलशन मे पुहुप का भण्डार भर आया है
रंग बिरंगे पुष्पों से अवनी को सजाया है
लावण्य प्रकृति ने सबका मन बहलाया है
सुख सखा समान सकल जन की मंगल काया है
लक्ष्मण घासोलिया गोगटिया
( 2 ) [प्रकृति की एकांत छटा]
एक मैं एक तूं जाने कहाँ चले आए
जाएंगे उस दरीया पार जहाँ पुहुप खिलखिलाए
वो अँचल होगा निर्जन पर प्रकृति गुनगुनाए
निर्निमेष दृष्टि उस ठौर को तहां नाना होगी कलाएं
कल कल करती नदियां मोह माया को बहाए
झाग उगलते झरने घट में खुशियां लाए
गगन चुम्बी मेरू सम निज प्रयोजन बनाएं
साँए साँए करते मरू सम निज कीर्ति फैलाएं
जाएं उस उपवन में जहां सुखमय-मधुप गुनगुनाए
भौंरो की गूँजार सुन निज का दु:ख मिटाए
देख खिले पुष्पों को हम भी खिलखिलाएं
लावण्य प्रकृति सकल जन का मन बहलाए
नकार जन बहु मिलेंगे कर बंद नैना निकल जाएं
है भव-आम्र मँजरी आम निकलते ही झर जाए
ऐसा काज न करें जो निज की बाधा बन जाए
ऐसा हम कर्म करेंगे आई बाधा टल जाए
लक्ष्मण घासोलिया गोगटिया
( 3 ) [ अहंकार ]
कुछ जन है जु़बान की, वाणी मे लय श्वान की,
समय अभी है उनके पास, सम्भल जाए सम्भल जाए |
पता नहीं है उनको, निज घट में आधि घर बनाए,
वो आधि ऐसी होगी,
जिनकी न औषधी होगी |
दो काज कर देता है,
लोगों का कान भर देता है,
नित निज गाता महान् की,
यह बात उनके गुमान की |
ऐसे मनुज से रहना दूर,
निज को समझा महा शूर,
अंत अभी न उनका दूर,
निज अंत:गात को करता चूर |
बना बैठा है महा शूर,
मेरे खैयाल से है वो सूर,
निज को नित समझा ज़वान,
उपालम्ब देता उन्हे जहान् |
नाश मनुज पर छा जाता है, विवेक हीन हो जाता है,
तब आपा घर बनाता है, समष्टि में गिर जाता है |
लक्ष्मण घासोलिया गोगटिया
( 4 ) [सूर्योदय]
भौर हुआ जब क्षितिज पर, शोणित सी सरिता बह रही |
देख उसी लालिमा को, मुझे एक भ्रम हुआ |
असंख्य बैठे महामुनी, यज्ञ वो कर रहा |
अंधकार में डूबे लोगों को , आभा की ओर खींच रहा |
सम्पन हुए यज्ञ से,
जलता सा गोला निकल रहा |
सरिता सम गोले का रंग,
कुछ कुछ पीत होने लगा |
कारण था ज्वाला का, जब वो प्रचंड होने लगी |
ज्यों ज्यों ऊपर उठने लगा,
त्यों त्यों लालिमा लुप्त हुई |
रहा देखता कुछ पल मैं,
उस गोले की जादूई |
जब वो ऊपर उठने लगा,
अनल सी वर्षा होने लगी |
शिखर पर आ पहूँचा,
वसुधा तप्त होने लगी |
तप्त हुई अवनी से,
वाष्प सी ज्वाला उठने लगी |
दोनों ने मिल उनसे भी,
और अधिक प्रचण्ड किया|
धीरे धीरे प्रभाकर ने ,
पश्चिम की ओर चल दिया |
था जहाँ पर अब वहाँ,
कुछ कुछ शितल होने लगा |
पश्चिम सागर जा पहूँचा,
अब कलानाथ का राज हुआ|
लक्ष्मण घासोलिया
( 5 ). [ बाधा हरण ]
सकल संसृति के कोटी जन को, बाधाओं ने घेरा होगा,
व्यवधानों का हरण कर, स्वपन साकार करना होगा |
मरू अँचल मे पलता तरु, बिन जल श्यामल रहता है,
हिम-ताप का सहन कर , फिर भी आशा रखता है|
कब घन बरसा कब का प्यासा, फिर भी अटल रहता है,
आशा थी उनको, सागर से वाष्प खींच लेंगे,
तब घन बरसे गा निज को सींच लेंगे |
बाधा हिमालय बन जाएगी, पर्वतारोही बनना होगा,
धीरे धीरे चढा़ई कर, गंगा बन ऊतरना होगा |
कहीं आएगी समतल भूमि, कहीं आएंगे झरने,
साथ प्रवाहित हो चलेंगे, दरीया पार उतरने,
खेल समझ वहीं चलेंगे, जीवन सफल बनाने |
महा समंद की सीप बनेंगे, स्वाती की बूँद पाने
प्रयोजन मोती प्राप्त कर, तभी लगेंगे चमकने |
ध्येय हमारा सफल हुआ, सकल जन लगे समझने |
व्यवधानों से ज़ूझने वाले, कभी विफल ना होते हैं
सुख सखा समान समझ, प्रयोजन प्राप्त कर लेते हैं
लक्ष्मण घासोलिया
( 6 ) [पावस ऋतु]
घणघोर घटा घणी छाई
सब के मन मे खुशियाँ लाई
हरी भरी खेती लहराई
आ ऋतु बरसांत की आई
चारों ओर हरियाली छाई
साथ में अनेकों खुशियां लाई
जब हम फूली नहीं समाई
आ ऋतु बरसांत की आई
सभी किसान सुनो रे भाई
फिरकी सी हवा चली आई
ताल तलैया सब भर आई
आ ऋतु बरसांत की आई
सब लोगों ने मंगल गाई
उमड़ घुमड़ कर वर्षा आई
सबके मुख पर चमक घिर आई
आ ऋतु बरसांत की आई
मोर पपीहा नाच दिखाई
कोयल अपनी वाणी दोहराई
सरका बैठी हिरणी घबराई
आ ऋतु बरसांत की आई
अम्बर में घन घटा घिर आई
पेड़ों ने अपनी टहनी लहलाई
चारों ओर से खुशियाँ घणी छाई
आ ऋतु बरसांत की आई
लक्ष्मण घासोलिया गोगटिया
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द्रोणकुमार सार्वा
माँ
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हे जनयित्री हे मातृशक्ति,
हे स्नेहकरिणी दयाभक्ति
यश कीर्ति मान सब तुझसे ही
तुझसे ही मुझको प्राण मिला
सह गए अनेकों कष्टों को
पर होठों में नित मुस्कान मिला
सच कहता हूं जग की देवी
तुझसे जीवन दान मिला।।
वो रोटी गुथे प्रेम डाल
ममता करुणा के संग साथ
कब से भूखी वो स्वयं रही
पीकर पानी बिता गई रात
अघा गया न जब तक मैं
तब तक रुकती न उनकी हाथ
पड़ गए फफोले हाथों पर
चेहरे न कभी थकान मिली।
सच कहता हु जग की देवी
तुझसे जीवन दान मिली।।
टिक-टिक करता मेरा बचपन
बन कर रही सदा परछाई
बड़ा हुआ कब कैसे हँसते
ये बात समझ न मेरे आई
दिन-दिन भी कई बरस लगे थे
खुशियों को जो तूने खपाई
बार एक जब भी मैं बोला
हरदम कपड़े नया दिलायी
कितनी सिलवट फ़टी साड़ियां
पहन गई मां कर तुरपाई
छुआ नहीं माँ मुझे मुसीबत
हरदम नई उड़ान मिला।
सच कहता हूं जग की देवी
तुमसे जीवन दान मिली।।
(मौलिक अप्रकाशित)
द्रोणकुमार सार्वा
गुंडरदेही (बालोद)
छत्तीसगढ़
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ज्योत्सना सिंह
माँ की आवाज़
घात लगा मेरे वीरों को
बिना लड़े ही मारा दिया
अगर कायरों तुमने भी
माँ का दूध पिया होता
ललकारा होता वीरों को
लिया मोर्चा होता फिर
जन्नत और दोज़ख़ का फिर
अंतर तुमने भी जाना होता
पाक नाम रख कर भी
न पाक इरादे रखते हो
अल्लाह और अकबर का
तुम ने मान किया होता तब
नामर्दों तुमको मेरे वीरों के
पौरुष का भान हुआ होता
आज तिरंगे में लिपटा
लाल मेरा घर आया है
रोम-रोम फिर भी मेरा
जय हिंद की बोली बोला है।
ज्योत्सना सिंह
गोमती नगर
लखनऊ
00000000000
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
हम जानते है मौसम और मिजाज!
शब्दों से नहीं चढ़ते कभी परबाज।
जिनमें शहादत की होती हिम्मत,
इतिहास बताता है हमें वह आज।
कौन सजाता रहता संगीत के साज,
एक दिन शोक में न छोड़ सके काज!
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
ए-305 ओ.सीआर. बिल्डिंग
विधानसभा मार्ग, लखनऊ
000000000000
संध्या चतुर्वेदी
ना कोई शायरी और
ना कोई नज्म लिखेंगे।
डूबा है दिल दर्द में मेरा ,
माँ आज तेरा सम्मान लिखेंगे।।
हर फौजी के दिल में
वंदे मातरम का जोश लिखेंगे।
आज हम कश्मीर लिखेंगे।।
कब तक बर्बरता सहेंगे हम
कब तक सैनिकों के सर की भेंट करेंगे।
छलनी कर दुश्मन की छाती को,
नया एक इतिहास लिखेंगे।
आज हम कश्मीर लिखेंगे।।
रोती माँ ,बहनों की छाती को
दुश्मन के लहू से लाल करेंगे।
आज फिर धरती को
तेरी हम आबाद करेंगे।।
फहरायेंगे आज तिरंगा कश्मीर में।
उस पर वन्देमातरम का जोश लिखेंगे।
आज हम सिर्फ और
सिर्फ कश्मीर लिखेंगे।
जय माँ भारती जय हिंद
वीर शहीदों को नमन
--
प्रेम दिवस पर गद्दारों ने जो प्रेम जताया ,
उस का जोश अभी दिखाना है।
हमें अब प्रेम दिवस नहीं
हमें शहीद दिवस मनाना है।
आज जो हुआ उस से
दिनकर का भी ह्रदय
विचलित हुआ होगा।
देख कर ये खूनी होली,
उस का भी दिल रोया होगा।
कैसे फिर दुश्मन ने घात लगाई है।
जब प्रेम में डूबी थी दुनियां,
मातृ -प्रेमियों ने अपनी जान गवाई हैं।
हद हो गयी इस हिंसा की,
जो गीदड़ की भांति
पीठ पर आघात करें।
अब कौन सा जोश दिल
में फिर आवाज करें।
कितनों के घर उजड़ गए आज
कितनों की मांग सुनी हुई।
कौन दे जवाब अब इस का।
दुःखी हो गया हर दिल आज।
अश्रुओं से मना वेलेंटाइन आज।
कितनों की मांग सुनी हुई।
कितनी चूड़ी टूट गई,
कितनी बहनों ने भाई को खोया।
कितने बाप ने बेटों को खोया।
कितने लाल जो राह पिता की तकते है।
कितने माताओं ने आज
अपने शिशु के लिए रुदन देखा होगा।
हर बात का प्रतिकार करो अब,
दुश्मन पर पटलवार करो अब।।
संध्या चतुर्वेदी
अहमदाबाद, गुजरात
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अजय अमिताभ सुमन
(१). जीवन ऊर्जा तो एक ही है
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
ये तुमपे कैसे खर्च करो।
या जीवन में अर्थ भरो या,
यूँ हीं इसको व्यर्थ करो।
तुम मन में रखो हीन भाव,
और ईक्क्षित औरों पे प्रभाव,
भागो बंगला गाड़ी पीछे ,
कभी ओहदा कुर्सी के नीचे,
जीवन को खाली व्यर्थ करो,
जीवन ऊर्जा तो एक हीं है,
ये तुमपे कैसे खर्च करो।
या मन में अभिमान, ताप ,
तन में तेरे पीड़ा संताप,
जो ताप अगन ये छायेगा,
तेरा तन ही जल जायेगा,
अभिमान , क्रोध अनर्थ तजो,
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
ये तुमपे कैसे खर्च करो।
जीवन में होती रहे आय,
हो जीवन का ना ये पर्याय,
कि तुममे बसती है सृष्टि,
कर सकते ईश्वर की भक्ति,
कोई तो तुम निष्कर्ष धरो,
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
ये तुमपे कैसे खर्च करो।
धन से सब कुछ जब तौलोगे,
जबतक निज द्वार न खोलोगे,
हलुसित होकर ना बोलोगे,
चित के बंधन ना तोड़ोगे,
तुममे कैसे प्रभु आन बसो?
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
ये तुमपे कैसे खर्च करो।
कभी ईश्वर यहाँ न आएंगे,
कोई मार्ग बता न जाएंगे ,
तुमको हीं करने है उपाय,
इस जीवन का क्या है पर्याय,
निज जीवन में कुछ अर्थ भरो,
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
ये तुमपे कैसे खर्च करो।
बरगद जो ऊँचा होता है,
ये देख अनार क्या रोता है?
खग उड़ते रहते नील गगन ,
मृग अनुद्वेलित खुद में मगन,
तुम भी निज में कुछ फर्क करो,
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
ये तुमपे कैसे खर्च करो।
ये देख प्रवाहित है सरिता,
जैसे किसी कवि की कविता,
भौरों के रुन झुन गाने से,
कलियों से मृदु मुस्काने से,
आह्लादित होकर नृत्य करो,
जीवन ऊर्जा तो एक हीं है,
ये तुमपे कैसे खर्च करो।
तुम लिखो गीत कोई कविता,
निज हृदय प्रवाहित हो सरिता,
कोई चित्र रचो, संगीत रचो,
कि हास्य कृत्य, कोई प्रीत रचो,
तुम हीं संबल समर्थ अहो ,
जीवन ऊर्जा तो एक ही है,
ये तुमपे कैसे खर्च करो।
(२)
कविता बहती है
कविता तो केवल व्यथा नहीं,
निष्ठुर, दारुण कोई कथा नहीं,
या कवि शामिल थोड़ा इसमें,
या तू भी थोड़ा, वृथा नहीं।
सच है कवि बहता कविता में,
बहती ज्यों धारा सरिता में,
पर जल पर नाव भी बहती है,
कविता तेरी भी चलती है।
कविता कवि की ही ना होती,
कवि की भावों पे ना चलती,
थोड़ा समाज भी चलता है,
दुख दीनों का भी फलता है।
जिसमें कोरी ही गाथा हो,
स्वप्निल कोरी ही आशा हो,
जिसको सच का भान नहीं,
वो कोरे शब्द हैं प्राण नहीं।
केवल करने से तुक बंदी,
चेहरे पे रखने से बिंदी,
कविता की मूरत ना फलती,
सुरत मन मूरत ना लगती।
जिसको तुम कहते हो कविता,
बेशक वो होती है सरिता,
इसको बेशक कवि गढ़ता है,
पर श्रोता भी तो बहता है।
बिना श्रोता के आन नहीं,
कवि कवि नहीं, संज्ञान नहीं,
जैसे कवि बहुत जरूरी है,
बिन श्रोता के ये अधूरी है।
कवि के प्राणों पे चलती है,
कविता श्रोता से फलती है,
कवि इनको शीश नवाता है,
कविता के भाग्य विधाता है।
कविता के जो निर्माता है,
कविता के ये निर्माता है।
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
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बिलगेसाहब
हवा का झोंका था शायद
या राहों का मुसाफ़िर
मिला मुझे अजनबी बनकर
आँखों की रोशनी बनकर
गया दिल को सहलाकर
था शायद मेहमान मेरा
कुछ दिन गुजारकर
प्यार का पौधा लगाकर
मुहर दिल पे छोड़ गया
इंतजार आँखों मे
एहसास सांसों में
ख़ुमारी जिंदगी में छोड़ गया
रौशन महताब,जिंदा आफ़ताब
शब का सितारा था। नाज़-ए-दिल।
महकता एहसास था।
वो शख्श जो पता नहीं मेरा कौन था।
सहरे में महकता गुल-ए-गुलाब
था जैसे बारिश में जलता चिराग
हर बात में होती सदाकत उसकी
तूफानों से न बुझती शमा उसकी
जिसकी खुशबू थी दिल मे
इल्म था ज़िन्दगी मे
तस्वीर थी आँखों में
नशा था रगों में
उस शख्श से कैसे
न जाने कैसे
मेरा दिल अंजान था
जिसके लिए जो जहान था
वो शख्स जो पता नहीं मेरा कौन था।
लकीरों में होता तो
मुट्ठी में बंद कर लेता उसे
साँसों में होता तो
दिल में छुपा लेता उसे
मैं मरीज़ वो हक़ीम था
मैं पतझड़ वो बारिश..
मैं गुलशन वो महक था
मैं दरिया वो साहिल..
मुक्कदर मेरा साया रो रहा है
वक़्त रुक कर गह रहा है,
पंछियों का गीत
घटाओं की चीख़
धड़कनों का हुजूम भी अब कह रहा है
रोक उसे जो सफेद साया था
करीब-ए-रूह जो पराया था
दिल का हमसाया था
वो शख्स जो पता नहीं मेरा कौन था।
चेहरे पे रौनक थी सितारों सी
वजूद में महक थी गुलिस्ताँ सी
दिल से एहसास था जुड़ा उसका
धड़कनों पे लिखा था नाम उसका
खुद को सँवारा था जिसे देख के
वो जो आईना था
सच्ची दोस्ती का हवाना था
वो शख्स जो पता नहीं मेरा कौन था।
यूँ हुआ है आज वो रुख़सत मुझ से
जैसे होता है टुटता तारा आसमाँ से
तितली जैसे गुलशन से
जान जैसे जिस्म से
तन्हाईयाँ चुभ रही है उसके बिना
जिंदगी सितम है उसके बिना
फ़िजूल है कामियाबी उसके बिना
हर जीत मेरी हार है उसके बिना
मेरा चैन मेरा सुकून है वो
धड़कनों की धुन है वो
न रह पाउँगा मैं उसके बिन
जिंदा जिंदगी में जिसके बिन
वो जो फ़रिश्ता था
प्रेम का गुलदस्ताँ था
वो शख्स जो पता नहीं मेरा कौन था।
किरदार में उसके न झाँक सका मैं
आँखों में उसके न डूब सका मैं
न किसी राह से न जरिये से
दिल में उतर सका
न कोई बसेरा दिल में बना सका मैं।
न जाने क्यों उसे जान न सका
अफसोस कि मैं समझ न सका
वो जो नीर की तरह साफ
शहद की तरह मीठा था
न किसी पहेली सा
कहानी की तरह सरल था।
प्यार का सौदागर
दोस्ती का ग्राहक था।
रिश्तों का खुदा
वालिद-ए-तहज़ीब था।
वो हस्ती जो रिश्तों का ताज़
नूर मानो पूनम का चाँद
उसकी आँखें जैसे मोती
सोच जैसे शरीअत
वो जो सच्चा साथी था
जगमग कोहिनूर सा
अनमोल 'अमोल' था
वो शख्स जो पता नहीं मेरा कौन था।
WRITTEN BY- बिलगेसाहब
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नाथ गोरखपुरी
आज फिदायिनी हमले से ,देश हमारा घायल है
फिर कुर्बानी दी वीरों ने ,देश हमारा कायल है
कुछ शैतानो ने मिलकर ,मानवता को मारा है
उन हैवानो ने मिलकर ,देश को फिर ललकारा है
चलते राह जवानो को ,धोखे से है मार दिया
सैनिक के जज्बातों को,फिर से है ललकार दिया
अब कुछ नेता मिलकर के, जनता को बहकायेंगे
उलटे सीधे अल्फाजों से ,पानी में आग लगायेंगे
असल में दुश्मन बाहर नही, वो घर के ही अन्दर है
सारे छुप के बैठे हुये, कहीं नेता कहीं धर्म धुरंधर है
इनकी गंदी राजनीति, इक लाइलाज बिमारी है
उनकी गंदी धर्मनीति से, मानवता ही हारी है
अपने अपने स्वार्थनीति में ,देशप्रीति को भूल गये
कैसे राज चलाना चहिये, उस धर्मनीति को भूल गये
तू तू मैं मैं छोड़ो सालों, देश को अब तो बचा डालो
सेना को आदेश तो दो, कि कोहराम मचा डालो
ऐसे मुद्दों पर अक्सर ,दिल्ली भी कभी ना बोली है
पुलवामा उरी घाटी में सेना ने, जब जब खाई गोली है
खुल के बोलो सेनासंग में, अबसे कोई ना चूक करो
बात करो ना वीरों तुम, दुश्मन सम्मुख बंदुक करो
बोल नही सकती दिल्ली ,तो दिल्ली अब रोके ना
सेना छाती पर चढ़ती है,तो दिल्ली अब टोके ना
इन गद्दारों को अब तो, सेना को सबक सिखाने दो
सेना को आजाद करो,दुश्मन के घर घुस जाने दो
"नाथ" नेह अब देतें हैं, तुम आजाद परिंदों को
घर घर घुसके मारो अब, उन शैतान दरिंदो को
गरज पड़ो बादल बनके, उनको औकात दिखा डालो
गर दिल्ली बीच में आती तो, उसको भी आग लगा डालो
02
पुरूष नही है अत्याचारी
नारी तूं नारी की मारी
पुरूषों ने ये ताना बाना
तुझसे ही सीखा हथियाना
तेरे आगे किसकी चलती
पर नारी ही नारी से जलती
चरित्र से तेरे हारें त्रिपुरारी
नारी तूं नारी की- - - - -
तूने खुद ही खुद को मारा
गर्भ के खुद ना बनी सहारा
माँ के कोख को तुने लजाया
पुरूषवाद का डंका बजाया
खुद ही खुद से बनी बेचारी
नारी तूं नारी की- - - - -
प्रेम में है परिवार को तोड़ा
इसको उसको किसको छोड़ा
पीठ पीछे है घात कर डाला
घायल है जज्बात कर डाला
अबला चद्दर और गद्दारी
नारी तूं नारी की- - - - -
बातो में मर्यादा भूली
शर्मोहया चढ़ाया शूली
सुन्दरता है कबका मारा
संस्कार है कबका तारा
आधुनिकता की पहनी सारी
नारी तूं नारी की- - - - -
03-देश में मेरे खुशहाली छाई है
भाग नेता भाग CBI आई है
नयी रीति है, द्वेषप्रीति है
नये किस्म की हार जीति है
वोट के हैं दम या बरिआई आई है
भाग नेता भाग CBI आई है
अपना खेमा चोर नही
चोर है तो कमजोर नही
दूजे दल की काली दाल
अपनी काली दाल सही
ऐसी अपनी नई सचाई आई है
भाग नेता भाग CBI आई है
दल में मेरे शामिल हो जा
नाकाबिल से काबिल हो जा
गर शामिल ना होगा तो
तेरी क़िस्मत भाई पगलाई है
भाग नेता भाग CBI आई है
04-
कभी हँसके मेरी महफिल में आया कीजिए
दीदार में कमी हो तो, बताया कीजिए
ग़र मेरे जान को जरूरत जो हो जान की
तो इक बार नहीं सौ बार मार जाया कीजिए
हर बार मुझे देख कर मुस्कुराते हैं जनाब़
कभी तो मुस्कुराके देख जाया कीजिए
हम चाहते हैं तुमको तुम चाहते हमें
दुनिया से मेरी जान ना शरमाया कीजिए
05
वादे से मैं फिर गया हूँ ,
मुख कैसे तुझे दिखाऊं प्रिये।
प्राण पाषाण हुये तन के,
कैसे तुझको समझाऊं प्रिये।।
नेह मेरा कमजोर नहीं,
पर वक्त का यारा मारा हूँ
कोई कहता पागल हूँ
कोई कहता आवारा हूँ
ताने सुन सुनकर दुनिया के
कैसे मैं जी पाऊं प्रिये।
वादे से मैं फिर गया हूँ ,
मुख कैसे तुझे दिखाऊं प्रिये।
तुम आये जब पास मेरे,
दिल के गुल गुलजार हुये।
सदियों से सूनें दिल में जैसे
सपने कोरे साकार हुये।
तुझे पाने की चाह हुई
नित नित मैं ललचाऊं प्रिये।
-------
000000000000
अनिल कुमार
वरिष्ठ अध्यापक 'हिन्दी'
'मुर्दा इन्सान'
सब कहते, यह दुनिया ईश्वर की माया है
इसीलिए तू इन्सां बनकर इस धरती पर आया है
पर तू भूल गया, उसके विधि-विधान को
इन्सां ने ही मार दिया, उस इन्सान को
जिस मानवता से तू इन्सां कहलाया
उस मानवता का खुद तू ने है, खून बहाया
अब कहता, ये तो बलिदान है
पर ये तो तेरे ही लालच का संविधान है
अपने ही अन्तर्मन को खाया तू ने
बनता, फिर भी तू इन्सान है
तुझसे अच्छा तो वो जंगल का शैतान है
वह भी अपने कर्मों का है, बोजा ढोता
पर तू तो नफरत के बीज है, बोता
अपने ही सुख-दुःख को रोता
गर गैरों में अपनापन खोजा होता
तो आज भी तू इन्सां ही होता
पर भूला चुका तू, उस भगवान को
अब तो केवल चाहता तू, धनवान को
लेकिन गर होता, तू मनवान जो
तो मिल पाता, उस इन्सान को
तब तो मानवता यों मौत न पाती
गैरों में भी तुझको अपनेपन की छाया दिख जाती
अब भी खुद को पहचान ले
उस ईश्वर की माया को तू जान ले।
00000000000000
धीरेन्द्र"उत्पल"
"कविता"
देखा सागर को,
मैंने उस दिन।
कितना उद्गार,
कितना विशाल,
मन पुलकित हुआ।
लेकिन,
विकलित भी हुआ।
इस लिये नहीं कि,
इतना खारा क्यों है।
बल्कि इस लिए कि,
क्यों? नहीं होता है
मनुष्य का ह्रदय सागर जैसा।
इतना उद्गार।
इतना विशाल!
धीरेन्द्र "उत्पल"
"सच्चाई पलों की"
दूर कोने पर ,
जैसे आसमान धरती पर गिर पड़ा है।
नहीं नहीं गिरा नहीं है।
उसकी इच्छा हुई हो,
शायद धरती से मिलने की!
मिल रहा होगा!
लेकिन,
कल हम बहुत दूर,
निकल गए थे।
धरती आसमान को,
एक साथ देखने के लिए।
पर एक साथ कहीं नहीं मिले।
धरती आसमान।।
धीरेन्द्र "उत्पल"
"निरन्तर"
गर्म हथेली पर,
उठाया हमने
ठंडा समुन्द्र!
कुछ छड़ तो,
हथेली पर शीतलता रही।
लेकिन,
हथेली हमेशा के लिए
ठंडी तो नहीं हुई।
फिर मैंने हथेली सीधी कर दी,
समुन्द्र वहां पर पड़ी रेत पर जा गिरा।
रेत गर्म थी,
बहुत गर्म थी।
रेत से भाप निकली
और आधा समुन्द्र आसमान में उड़ गया।
लेकिन आधा समुन्द्र तो,
शीतलता देने का निरंतर प्रयत्न करता रहा।
लेकिन,
कुछ छड़ बाद
बालू फिर से गर्म हो गयी।
बालू भी हमेशा के लिए
ठंडी नहीं हुई।
ठीक उसी तरह,
जैसे चूल्हे पर रखे तवे पर,
पानी की बूँद गिरती है,
और भाप बन कर उड़ जाती है।
ठीक उसी तरह।
पर निरन्तर शीतलता देने का ,
प्रयास तो कर रहा है न समुन्द्र।।
धीरेन्द्र"उत्पल"
"कुछ अपनी कुछ उनकी यादें"
ह्रदय स्पंदन बढ़ रहा है,
सोच कर कुछ अपनी कुछ उनकी यादें।
कल रात में बिस्तर पर,
मैं करवटें बदल रहा था।
पलकों में कड़वाहट थी,
पर आँखों में सुकूँ न था।
मन ही मेरा बट्टे पर है,
दिल की करूं अब किससे बातें।
यादें हैं उस दिन की ,
जब अधरों पर थे उनके अधर।
चेहरा उसका खुद में दिखता,
फेरूं नजरें अब किधर।
तारों में भी नूर है तुझसे,
हम तुझको फिर कैसे भुलायें
ह्रदय स्पंदन बढ़ रहा है,
सोच कर कुछ अपनी कुछ उनकी यादें।।
धीरेन्द्र"उत्पल"
रमनगरा सीतापुर
उ०प्र०(२६१२०६)
000000000
कृष्ण राघव
नमन
40 शहीदों की
शहादत को नमन
उनके नवजात,
किशौर, युवा बच्चों को नमन
नमन हैं मात-पिता की
अमर बलिदानी को
नमन हैं बारम्बार
नमन है बारम्बार......
उस पत्नी महारानी को
उस पत्नी महारानी को
तुम्हारा बलिदान सर्वोच्च
देश कीं राहों में सदैव चमकेगा
14 फरवरी को ¬¬¬¬–
प्रेम दिवस नहीं
अब देश प्रेम दिवस मनेगा।
कृष्ण राघव
पलड़ा, गुरुग्राम, हरि.
मो. 9811432688
ई. मेल- kirshanraghav@gmail.com
सुन ले ओ पाकिस्तान
पुलवामा में हुई
बड़ी तबाही थी
40 वीर शहीद हुए
निकल रही जब
कानवाई थी
निहत्थे, बेखबर
सहासियों को
मौत के घाट उतार दिया
मानवता की सारी
शौहरत को मार दिया
उबल रहा है देश मेरा
हर घर में मातम है
देश के वीर सपूतो के
लिए सबके दिल मे गम है
पाकिस्तान की है ये साजिश
दहशतगर्द किये है काबिज
सुन ले ओ पाकिस्तान-
तू झूठ की गठरी है
धोखेबाजी का पर्याय है
अफवाहों का पिटारा है
दहशतगर्दी का उपाय है
तू आस्तीन का सापं है
उदाहरण अहसानफरामोशी का सटीक है
तुझसे बड़ा कोई नहीं
तू सबसे बड़ा नीच है
तू बड़ा कायर और धूर्त है
बेशर्मी की पहला अजूबा मूर्त है,
अभी जवाबी बिगुल
बजना बाकी है,
तेरा ये दाव-
देखना।
तुझ पर कितना
भारी पड़ेगा।
कृष्ण राघव
पलड़ा, गुरुग्राम, हरि.
ई. मेल- kirshanraghav@gmail.com
0000000000
डा.अंजु लता सिंह
हूं कृशकाय मैं एक तरू-
हुआ शुष्क,पर नहीं मरूं,
आस बंधी है फिर जीवन से-
नव -पल्लव से करूं शुरू
मैं बेबस बेजार हुआ
असमय मुझपर वार हुआ
दुष्ट दनुज की आरी से-
जीना मेरा दुश्वार हुआ
धनक रंग हैं खिले चमन में
पुष्पित शाखें लदीं हैं वन में
देखूं मैं मनुहार करूं
थिरकें बूंदें जलद गगन में
कूद रहीं नाचें भू पर
मेरे तन में रस भरकर
सपने सच करने आईं
मेरी तन्हाई छूकर
जिंदादिल मेरी डाली
अनगिन अरमानों वाली
भर जाएंगी मृदु पत्तों से
सुन! बहार आने वाली
_____
"उजास"
नैनों के नूर
रहते हैं दूर
मिलने की प्यास
मन है उदास
मांगे #उजास
बातों के तीर
देते दिल चीर
अपने ही खास
कटु अहसास
मन है उदास
मांगे #उजास
बूढ़ों का मन
रहता उन्मन
चाहे सदा
अपने हों पास
देकर दुआएं
गम-तम भगाएं
फंसे मोह-पाश
मांगे #उजास
बेबस कलम
भूली धरम
बनकर शमशीर
बदली तकदीर
शत्रु का नाश
मांगे #उजास
____
#स्वरचित काव्य सृजन
डा.अंजु लता सिंह
नई दिल्ली
0000000000000
राजेन्द्र जांगीड़
पाखण्ड खण्डिनी
हम पंछी आसमान के वासी।
गले में घंटी लगी है फाँसी।।
ना कोई मस्जिद ना कोई मंदिर।
सच्चा ईश्वर आत्म निवासी।।
सच्चा ईश्वर जान लो प्यारे।
वैदिक ज्ञान है बड़े हि न्यारे।।
गंगा जाये ना पाप धुलेंगे।
पाखंडियों से न भाग खुलेंगे।।
पाखंडी सब जेल में बैठे।
देखो इन के डॉन हैं बेटे।।
हाथ लगाये दोष मिटाये।
नवग्रहों के बन रहे एजेंटे।।
जन्म कुंडली क्या भाग्य बताये।
कर्म से हम भाग्य कमाये।।
जुझार ,पत्थर भी मोक्ष दिलाये।
सच्चा ईश्वर पाये वेद बताये।।
राजेन्द्र जांगीड़
00000000
कंचन धर द्विवेदी, कंचन
बिन दहेज विवाह करो,सुनो कुंवारे मर्द।
गर तुममें पौरुष भरा, हरो तात के दर्द ।।
कुछ भी करता जा रहा, बड़े बड़ों का पुंज।
हाय पदारथ क्या करें, व्यवस्था ही है लुंज।।
सूरत सब कुछ है नहीं,सीरत भी कुछ मान।
सीरत सूरत संग हो, मान इसे वर दान।।
माई बच्चों संग हो पिता रहे यदि दूर।
धर्म निभाती माई सब हो पिता मशहूर।।
लड़कर अपनी मौत से, हो गया मैं कंगाल।
रखते है अब देख वो, कितना मेरा ख़्याल।।
तु अनुगामिनी मोर है, मैं अनुगामी तोर।
जीवन पथ पर चल रहे,होकर भावविभोर।।
इक चाहत में आस थी, इक चाहत में पास।
इक चाहत ऐसी भई, होकर गए निराश।।
जब तक मेरे पास तू, बिगाड़ सके न कोय।
कृपा तुम्हारी चाहिए जब तक जाउं न सोय।।
कंचन धर द्विवेदी, कंचन
बस्ती यूपी
000000000
दोहे रमेश के
दोहे रमेश के अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर
---------------------------------------------------------
कहने को महिला दिवस,. सभी मनाएं आज।
नारी की लुटती रहे, ….मगर निरंतर लाज !!
नारी की करता नही ,इज्जत जहां समाज !
वहां सफल होती नही, पूजा और नमाज !!
चूल्हा चौकी साथ मे,खेतों का भी काम !
नारी मेरा आपको , है शत बार प्रणाम !!
सास ससुर बच्चे पिया,करे सभी से प्यार !
नारी का परिवार में,बहुत अहम् किरदार !!
पेंडिंग हों जहँ रेप के, . केस करोड़ों यार !
तहँ रमेश महिला दिवस, लगता है बेकार !!
बेटी माँ सासू पिया, ..सबका रखे खयाल !
नारी के बलिदान की,क्या दूँ और मिसाल !!
नारी के सम्मान की, बात करें पुरजोर !
घर में बीवी का करें,तिरस्कार घनघोर !!
नारी का होता नहीं, वहां कभी सम्मान !
जहां बसे इंसान की ,.. सूरत में हैवान !!
उलट पुलट धरती हुई,बदल गया इतिहास !
पृथ्वी पर जब जब हुआ, नारी का उपहास !!
नारी को ना मिल सका,उचित अगर सम्मान !
शायद ही हो पाय फिर, भारत का उत्थान !!
नारी की तकदीर में,. कहाँ लिखा आराम !
पहले ऑफिस बाद में,घर के काम तमाम !!
सास ससुर बच्चे पती, जो भी रहता साथ !
ध्यान सभी का आपको,काम करे निस्वार्थ !!
नारी ही करती नही,नारी का सम्मान !
नारी के गुणधर्म की,कैसे हो पहचान !!
---
दोहे रमेश के शिवरात्रि पर
------------------------------------
बच्चे खड़े कतार में ,भूखे जहाँ अनेक !
वहीं दूध से हो रहा,भोले का अभिषेक !!
…………………….
जिसने भी दिल से किया,भोले का गुणगान !
बदले में उसको मिला ,मन चाहा वरदान !!
………………………
भूत प्रेत पशु खग सकल,सभी थामकर हाथ !
भोले के परिवार में,. रहते हिलमिल साथ !!
……………………….
चन्दा साजे शीश पर,गल सर्पों का हार !
करें नित्य शव-भस्म से,महाकाल शृंगार!!
……………………….
दिनभर खाने को मिले, फरियाली बिंदास !
इसीलिये करते कई, शिव जी का उपवास !!
……………………….
भूखे को रोटी नहीं ,कभी खिलाई एक !
निराधार है आपका, शंकर का अभिषेक!!
…………………………………..
सोमवार का हो दिवस,सावन का हो मास !
खातिर पूजा के लिए, कहलाता है खास !!
रमेश शर्मा
000000000000000
चंचलिका शर्मा.
हाइकु में मेरी कुछ रचनायें......
(1)
उगा सूरज
कुछ इस तरह
डूबा अँधेरा....
हर किरण
बिखरी चारों दिशा
हुआ उजाला....
(2)
कोई किसी को
पहचानता नहीं
जानता नहीं.....
जनहीन था
पथ जहाँ से कभी
गुज़रे हम......
लोकालय है
आज जहाँ से हम
गुज़र रहे......
(3)
नादान हूँ मैं
तेरी हर बात को
सच मान ली....
तूने सच को
लिफ़ाफे में रखके
बंद कर ली.....
झूठ अब भी
बाहर घूम रहा
दिशाहीन सा....
जाने कब हो
मुक्त सच का रुप
तेरे मन से......
(4)
दर बदर
ढूँढते रह गये
पता न चला....
किस शहर
गली चौबारे मिले
ख़बर नहीं......
आखिर कैसे
समझाये हम कि
वो अपने हैं......
(5)
मेरे मानस
पटल पर तुम
विराजमान .....
जब से तुम
आये मेरे जीवन
खुशनुमा है.....
अब न जाना
दूर कभी भी तुम
रहना पास.......
---- चंचलिका शर्मा.
00000000
विकास भगत
4 कविताएं
रोटी
मैंने सीखा है रोटी को गोल करना
क्योंकि रोटी गोल होती है
मैंने सीखा है उसे पकाना
क्योंकि वह पकती भी है
जिन्होंने भी रोटी को गोल किया है
उसे पकाया है
वे जानते हैं उसका रंग-रूप और स्वाद।
रोटी जीवन का पर्याय है
तपस्या है, संघर्ष है
अपनों से, जीवन से, भूख से,
रोटी का है गहरा रिश्ता
उनके लिए ही उसे तपना पड़ता है आग में
कभी सार्थक होता है उसका उद्देश्य।
किताबों की दास्तां
किताबों में गहराई बहुत होती है
इस गहराई को समझना बहुत मुश्किल है
मैंने कुछ गहराइयों को पार किया है
कुछ को समझा है
मैं जानता हूँ
उसकी भयावहता को,
कितने बीच में छूट जाते हैं
मानो मर गए।
जिन्होंने भी इसकी गहराई को देखा है
समझा है, जाना है,
महसूस किया है
वे जानते हैं कि उसके एक-एक पल का भय
क्योंकि कई बार
किताबों के पन्ने बयां करते हैं
जीवन की हर एक दास्तां।
बासी रोटी
बचपन में अकसर सुना करता था
बासी रोटी की पुकार
मां प्रत्येक सुबह
रोटी को दो टुकड़ों में बांटा करती थी
और हम चार नखरें किया करते थे
उसे खाने के लिए।
मगर आज मुझे समझ आती है
एक बासी रोटी का स्वाद।
क्या बताऊं साहब !
एक बासी रोटी को
बासी होने के लिए
पूरी एक अंधेरी रात से गुजरना पड़ता है
तब एक रोटी बासी रोटी कहलाती है
तब जाकर उसमें वह ताकत
अकड़ और साहस आता है।
एक बासी रोटी का स्वाद
एक बासी आदमी ही समझ सकता है
हम नौजवानों में कहां वह चाहत
जो उसके स्वाद को पकड़ सके
आजकल लोग कहां पूछते हैं
बासी रोटियों को
आज तो ब्रेड का दबदबा है
जिसने दबाए रखा है
उन बासी रोटियों को
जो पहचान है
गरीबी की
भूख की
आदमी के संघर्षमय जीवन की
और हमारी संस्कृति की।
कौन हो तुम
मैं जब भी तुम्हारे करीब होता हूं
तुम्हें पाना चाहता हूं, छूना चाहता हूं
तुम्हें समझना भी चाहता हूं
मगर
सवाल उठता है
कौन हो तुम !
मैं जब-जब खुद को अलग पाता हूं
तब-तब
तुम्हारी पलकों की छांव के नीचे
अपना आश्रय पाता हूं
मगर
कौन हो तुम !
मेरी नींद में तुम्हारा बार-बार आना
और हठात माथे पर पसीने के साथ
तुम्हारा गायब हो जाना
समझ में नहीं आता
मगर
कौन हो तुम !
मैं पूछता हूं
क्या तुम समय हो ?
या मेरी मंजिल ?
या फिर ख्वाहिश ?
मगर
कौन हो तुम !
-विकास भकत, मो. - 7029710220
bikashbhakat7@gmail.com
0000000
ओम वर्मा
पुलवामा -कुछ दोहे
जन्नत में हूरें मिलें, सोचा किया जिहाद।
इक ‘जन्नत’ के वास्ते, दूजी की बरबाद॥
बहुत हो चुकी मंत्रणा, बहुत हो चुका प्यार।
देश हुआ खुश देखकर, निर्णायक प्रतिकार॥
छुपे हुए हैं देश में, ऐसे भी गद्दार।
तन से हैं जो हिंद में, मन से सीमा पार॥
कंप्यूटर इक हाथ में, दूजे में क़ुर्आन।
यही समय की माँग है, यही बने पहचान॥
अब केसर की क्यारियाँ, बहा रही हैं ख़ून।
आओ रोकें एक हो, यह मज़हबी जुनून॥
गदा चलेगी भीम की, गाण्डीव के तीर।
नहीं बचेगी आँख वह, जो घूरे कश्मीर॥
ख़त्म करें आतंक को, मिला हाथ से हाथ।
पहुँचा दें संदेश यह, अलगू जुम्मन साथ॥
पुनः सुन सकें घाटियाँ, मधुर मधुर संतूर।
बजा रहा जो बेसुरा, उसे भगाओ दूर॥
हिंसा से हम दूर हैं, मगर नहीं मज़बूर।
कायरता के दाग को, कर डाला है दूर॥
ठोक रहे हैं तालियाँ, गुरु जी बारंबार।
दुश्मन है जो देश का, उसे बताते यार॥
संगसार शैतान को, करना सही सवाब।
फ़ौजी पर पथराव कर, दोगे किसे हिसाब॥
जब भी दोगे देश को, पुलवामा सी आह।
तब तब होगा दूसरा, बालाकोट तबाह।।
***
00000000
विशन कौशिक
--
1.आओ हाथ मिलाएं
1.आओ हाथ मिलाएं,ज्ञान का दीप जलाएं।
अपने देश भारत को, स्वर्ग-सा सुन्दर बनाएं।।
आओ हाथ मिलाएं....
2.शिक्षित हो हर बच्चा,ना लगे कोई भी खर्चा।
हर मात-पिता का सपना, जब लगने लगे अपना।
इस कर्मभूमि में आओ, कुछ नवाचार कर जाएं।
आओ हाथ मिलाएं,ज्ञान का दीप जलाएं।।
3.जब शिक्षित होगा बच्चा, तब काम करेगा अच्छा।
हर शिक्षक को समाज में, तब मान मिलेगा सच्चा।
अनपढ़ता, बेकारी को, आओ मिलकर हम मिटाएं,
आओ हाथ मिलाएं,ज्ञान का दीप जलाएं।।
4.स्वार्थपूर्ण कर्मो से, कब देश महान होता है।
निस्वार्थ भाव से ही, 'वीर' जवां होता है।
'लाल','बाल' और पाल से,आदर्श हम अपनाएं।
आओ हम सब मिलकर ,नए 'कलाम' बनाएं।
आओ हाथ मिलाएं,ज्ञान का दीप जलाएं।
5.जब जाग जाएंगे सब, तब नया सवेरा होगा।
ना आतंकवाद होगा, ना आतंकी कोई होगा।
खुशहाली का आंगन, तब देश ये मेरा होगा।
जाति धर्म से उठकर, आओ सुंदर स्वप्न सजाएं।
आओ हाथ मिलाएं, ज्ञान का दीप जलाएं।
अपने देश भारत को, स्वर्ग-सा सुन्दर बनाएं।।
:-विशन कौशिक
2.हम भारत के शिक्षक
हम भारत के शिक्षक, शिक्षा को बेहतर बनाएंगे।
नई- नई गतिविधियों से, शिक्षा को सरल बनाएंगे।
हम भारत के शिक्षक, शिक्षा को बेहतर बनाएंगे।
जय हो शिक्षा, जय शिक्षक।।
रटने की पद्धति तो भैया, हुई अब पुरानी है।
हमने तो शिक्षा के क्षेत्र में, अब डिजिटल क्रांति लानी है।
हर विद्यालय हो स्मार्ट विद्यालय, हम ये करके दिखलाएंगे।
हम भारत के शिक्षक, शिक्षा को बेहतर बनाएंगे।
जय हो शिक्षा, जय शिक्षक।।
स्वयं करके जब सीखे बच्चा, वो ज्ञान स्थाई होता है।
घर-घर जाकर 'ममता' जी ने, दिया ये सबको मौका है।
हर बच्चा हो खुद में सक्षम, हम उनका विश्वास बढ़ाएंगे।
हम भारत के शिक्षक, शिक्षा को बेहतर बनाएंगे।
जय हो शिक्षा, जय शिक्षक।।
बेटा- बेटी एक समान , ये बात तो सबने मानी है।
शिक्षा का अधिकार मिला, ये बात भी सबने जानी है।
हर बेटी बने देश का गौरव, हम ऐसी क्रांति लाएंगे।
हम भारत के शिक्षक,शिक्षा को बेहतर बनाएंगे।
नई-नई गतिविधियों से, शिक्षा को सरल बनाएंगे।
जय हो शिक्षा, जय शिक्षक।।
:-विशन कौशिक
000000
संजय वर्मा"दॄष्टि"
सूरज
शाम हुई थका सूरज
पहाड़ो की ओट में
करता विश्राम
गुलाबी, पीली चादर
बादल की ओढ़े
पंछियो के कोलाहल से
नींद कहाँ से आए
हुआ सवेरा
नहा कर निकला हो नदी से
पंछी खोजते दाना-पानी
सूरज के उदय की दिशा में
सूर्य घड़ी प्रकाश बिना सूनी
जल का अर्ध्य स्वागत हेतु
आतुर हो रही हथेलिया
सूरज के ऐसे ठाट
नदियों के तट सुप्रभात के संग
देवता,और इंसान देखते आरहे
इंसान ढूंढ रहा देवता
ऊपर देखे तो
देवता रोज दर्शन देते
ऊर्जा का प्रसाद
देते रोज सभी को धरा पर
सूरज के बिना जग अधूरा
ब्रम्हांड अधूरा
प्रार्थना अधूरी
संजय वर्मा"दॄष्टि"
मनावर
000000000
00000000
जीतेन्द्र कानपुरी
"विश्वास"
"विश्वास"के रास्ते बना लो
मंजिले मिल जायेगी ।
मंजिले न भी दिखे पर
दुरियॉ घट जायेगी ।।
हो अटल "विश्वास" पक्का
नजदीकियॉ आ जायेगी ।
हर पग मे इतना दम होगा
कि जमीन भी हिल जायेगी ।।
लेखक & कवि --
जीतेन्द्र कानपुरी
00000000
देवेन्द्रराज सुथार
ऋतु वसंत की आई
ये पीले सरसों के खेत
ये लहराता नील गगन
इन्द्रधनुषी छटा छाईं
ये कलकल करती नदी
ये पक्षियों का कलरव
सोलह शृंगार कर घूँघट में
प्रकृति जो हौले से मुस्कुराईं
उठो ! समेटो जाड़े की रजाई
ऋतु वसंत की आई।
दशों दिशाएं झूम उठीं
नयन हुए पुलकित
मन मृग में अपार
उत्साह उल्लिखित
काले घुँघराले कुंतल
कस्तूरी तन, कचनार कमर
शीतल पवन-सा आँचल
अधरों पर कोयल-सा स्वर
कानों में अमृत घोल
पलाश की सुगंधी संग
देने आई नेह निमंत्रण
उठो ! समेटो जाड़े की रजाई
ऋतु वसंत की आई।
गर्मी के गर्म अहसासों पर
सर्दी के सुप्त भावों पर
बरसात में भीगे तन पर
जिसने मरहम लगाई
विरह विकल मोरनी को
मोर की याद सतायीं
प्रकृति के यौवन को देख
हर मन को भ्रम हो गया
जैसे फलक से उतरकर
कोई परी आई
उठो ! समेटो जाड़े की रजाई
ऋतु वसंत की आई।
- देवेन्द्रराज सुथार
स्थानीय पता - गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। 343025
00000000000
संस्कार जैन
खुद के सापेक्ष खुद को परिवर्तित करते हुए..
जाने कितनी सभ्यताओं को खुद में विलीन कर चुके हो तुम...
अनंत से शुरू औऱ अनंत तक जाते हुए..
सबको शून्य करते आये हो तुम...
सदियों से कभी किसी के लिए रुके नही हो तुम...
समय ! क्या तुम्हें कभी किसी से मोहब्बत नही हुई ??
Sanskar jain
M.Pharm
Department of Pharmaceutical Sciences,
Dr. Harisingh Gour University, Sagar (MP)
000000000
मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
बाल कविता - दावत
-------------------------
बंदर जी ने ब्याह रचाया |
दावत पर सबको बुलवाया ||
बड़े प्यार से भोजन बनवाया |
हंस-हंस के सबको खिलवाया ||
सबने चख-चख मजा उड़ाया |
इडली - डोसा सबको भाया ||
चाट-चटपटी, दही थी खट्टी |
कौआ पी गया सारी घुट्टी ||
छैना - गुलाब जामुन, हलवा पूरी |
बिल्ली खा गई गरमा-गरम कचौरी ||
शाही मटर-पनीर सबको भाया |
भिण्डी ने भी खूब रंग जमाया ||
गोभी पकौड़ा चख - चख खाया |
खीर का थोड़ा- सा लुत्फ़ उठाया ||
सबने मिल बंदर जी की करी बडाई |
बंदर जी को मिल गई सुंदर लुगाई ||
- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा, 283111
000000000000
महेन्द्र देवांगन माटी
जीवन इसका नाम
( सरसी छंद)
जीवन को तुम जीना सीखो , किस्मत को मत कोस ।
खुद बढकर तुम आगे आओ , और दिलाओ जोश ।।
सुख दुख दोनों रहते जीवन , हिम्मत कभी न हार ।
आगे आओ अपने दम पर , होगी जय जयकार ।।
सिक्के के दो पहलू होते , सुख दुख दोनों साथ ।
कभी गमों के आँसू बहते , कभी खुशी हैं हाथ ।।
राह कठिन पर आगे बढ़ जा , मंजिल मिले जरूर ।
वापस कभी न होना साथी , होकर के मजबूर ।।
अर्जुन जैसे लक्ष्य साध लो , बन जायेगा काम ।
हार न मानो कभी राह में , जीवन इसका नाम ।।
जीवन एक गणित है प्यारे , आड़े तिरछे खेल ।
गुणा भाग से काम निकलता , होता है तब मेल ।।
हँसकर के अब जीना सीखो , छोड़ो रहना मौन ।
माटी का जीवन है प्यारे , यहाँ रहेगा कौन ?
महेन्द्र देवांगन माटी
पंडरिया (कवर्धा)
छत्तीसगढ़
mahendradewanganmati@gmail.com
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शिवांकित तिवारी "शिवा"
सुन पाक सभी नापाक तेरे मंसूबों को हम तोड़ेंगे,
तन के तेरे अन्दर के लहू का कतरा-कतरा हम सारा निचोड़ेंगे,
तू भूल गया जाने कितने भारत ने तुझ पर एहसान किये,
कुत्तों वाली इस हरकत से हर कितने तूने कितने प्राण लिये,
हम हिन्दुस्तानी अब तक तुझको देते जीवनदान रहें,
तेरे कारण कितने माँओं और बहनों ने भीषण कष्ट सहे,
अब और नहीं कर गौर तू भी एक-एक हिसाब अब हम लेंगे,
अब पाक तेरे इस मुल्क को ही हम मिट्टी में सीधे मिला देंगे,
भारत माँ के वीर सपूतों पे सदैव तूने पीछे से वार किया,
कायरता का परिचय देकर तूने भीषण नरसंहार किया,
अब सहन नही होगा क्योंकि अब जाग गया है हिन्दुस्तान,
पाक तेरे घर में घुसकर अब तुझको मारेंगे वीर जवान,
पुलवामा में जो शहीद हुये भारत माँ वो सारे लाल सभी,
उनकी कुर्बानी का बदला अब हम लेंगे हर हाल अभी,
अब,सुन पाक सभी नापाक तेरे मंसूबों को हम तोड़ेंगे,
व्रत है अब हर हिन्दुस्तानी का पाक को शमशान बनाकर छोडेंगे,
-©शिवांकित तिवारी "शिवा"
युवा कवि एवं लेखक
सतना (म.प्र.)
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