: ग़ज़ल *1 ज़िन्दगी आसां सफ़र हो ये जरूरी तो नहीं । खूबसूरत हमसफ़र हो ये जरूरी तो ।।1 जब हमें ख़ार समझता है जहां समझा करे। सब पे फ...
: ग़ज़ल *1
ज़िन्दगी आसां सफ़र हो ये जरूरी तो नहीं ।
खूबसूरत हमसफ़र हो ये जरूरी तो ।।1
जब हमें ख़ार समझता है जहां समझा करे।
सब पे फूलों का असर हो ये जरूरी तो नहीं ।।2
वक्त के सफहों पे रोशनाई ए ज़ीस्त हरफ़ ।
पर हरफ़ हर गुहर हो ये जरूरी तो नहीं ।।3
ये सभा ये महफिलें ये खुदी की चाहतें मगर।
रब का भी ये दर हो ये जरूरी तो नहीं।4
बांट सामान दे अपना अपनों को बशर।
काम ये पुरअसर हो ये जरूरी तो नहीं ।।5
बांध सामान ले 'मीरा'मंजिलों के लिए अब।
साथ में 'रहगुजर हो ये जरूरी तो नहीं ।।6
ग़म उदासी मन बहम अबूझ ये पहेलियां।
जीत हर सिम्त मगर हो ये जरूरी तो नहीं ।।7
स्वरचित मीरा 'मंजरी'
ग़ज़ल 2
आज तो बेशक कयामत हो गयी।
जिनको चाहा है इनायत हो गयी।।
जुम्मे जुम्मे ही मिले बस कुछ घड़ी।
जाने कब उनसे मुहब्बत हो गयी।।
ग़म हमें पीते रहे हैं मय समझ।
लत कहें या कि ये आदत हो गयी।।
दर्द के बरपा हुए जब सिलसिले।
अपने हक़ में ये बिरासत हो गयी।।
या इलाही देख लें हालत मेरी।
मीरा की अब कैसी ये गत हो गयी।।
जब भी होंगे सच के हक़ में फैसले।
हम ये समझेंगे इबादत हो गयी।।
सोने की चिड़िया कभी था ये वतन।
आज कल केवल नसीहत हो गयी।।
मीरा परिहार मंजरी
ग़ज़ल 3
महराबदार जालियाँ आले कहाँ गये ।
दर औ दीवार घर घरवाले कहाँ गये।।
हमने यहीं पर की थी अठखेलियां कभी।
गुमसुम उदास डाल कर ताले कहाँ गये।।
बेनूर ये दरीचे रौजन और मकां हुए ।
मेरी जिंदगी को ढाले पाले कहाँ गये।।
कुछ दूर वायीं जानिब मक़तब ये मग्मून।
कांधे पे बोझ मुस्तक़बिल सम्भाले कहाँ गये ।।
छूटे हुए मकान में ढूंढूं मैं नक़्शे पा ।
पग पग पे पीछे आने वाले कहाँ गये।।
निन्यानवे के फेर 'मीरा 'उलझा हुआ जहां।
सौ सौ जो कल निकाले सम्भाले कहाँ गये ।।
दरीचे _खिड़कियां रौजन _रौशन दान
मक़तब _पाठशाला मग्मूम _उदास
मुस्तक़बिल _भविष्य नक़्शे पा_पांव के निशान
जहां _संसार
मीरापरिहार "मंजरी आगरा
[ ग़ज़ल 4
जी भर के देख लीजिए हमें इत्मीनान से।
कहने लगी है अब जमीं भी आसमान से।।
उल्फ़त के लम्बे रास्ते रहीं दूर मंजिलें।
चलते गये बिना थके अपने मकान से।।
रस्मों की दूरियां थीं थे शिकवे औ गिले।
मिल कर मिटायीं दूरियाँ दो दिल जान से।।
तरकीबें पारसाई हों गर पाने को मुकाम।
मेहनत के पैसे दो भले मंहगे सामान से।।
ग़म को ग़िजा बनाने का नहीं शौक है हमें।
दाम ए बला से दूर रह लड़ लूं जहान से।।
चाहत में देखो झुक गया है आसमान भी।
छोड़ो अना निकल के देखिए गुमान से।
आये गये जहान से कितने ही काफिले।
हर शख्स कह रहा है ये दबी जुबान से।।
कहने लगे मिष्ठान्न वह खायेंगे जरूर।
लेकर जो आयेंगे उन्हें ऊंची दुकान से।।
मांगती है ज़िन्दगी ये उम्र का हिसाब।
थकने लगे हैं हम भी अब इम्तिहान से।।
अब चाहतों का बोझ भी उठता नहीं मीरा।
बैठे लुटा के हसरतें अब हम भी शान से।।
पारसाई = नेक दामे बला = मुसीबत का जाल
मीरा परिहार '' मंजरी ''
स्वरचित
[ ग़जल 5
साहिल भी नहीं बदले सहरा भी नहीं बदला ।
इन्सान का इन्सान पे पहरा भी नहीं बदला ।1
परवान ए मुहब्बत अन्दाज़ जुदा हैं ।
बदले जो नहीं ख्वाब चेहरा भी नहीं बदला।।2
हर सिम्त फ़िज़ाओं में बे नूरी का आलम ।
हर दीदे बरक्स दीद ए गिरिया भी नहीं बदला।।
आवाज हमें देकर बुलाओगे कभी जब भी।
नज़रें भी नहीं बदलीं नज़रिया भी नहीं बदला।।4
बदले हैं जमाने में इन्सानों के रुख अब ।
काशी भी नहीं बदली काबा भी नहीं बदल।5
लहरों में मेरी किश्ती नहीं आब मयस्सर ।
ऐ खारे हुए सागर थोड़ा भी नहीं बदला।। 6
इक उम्र गुजारी है साहिल ओ सफीने पर ।
कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला ।।7
जब आ ही गये दर पे अपना ले हमें मौला ।
'मीरा 'ने मुहब्बत में रस्ता भी नहीं बदला ।।8
मीरा 'मंजरी 'स्वरचित
*****ग़ज़ल6
सच बताऊँ उन्हें क्या हुआ जुर्म है।
अपने हक़ में जो की वह दुआ जुर्म है।।
*****
हक़ उन्हें दे दिया हमें क्यों नहीं।
पूंछ हमने लिया पूछना जुर्म है।।।
*****
क़ातिलों के शहर बन रहे हैं यहाँ।
उनको जड़ से यहाँ मिटाना जुर्म है।
*****
ऐ तमद्दुन नक़ीब वक्त गुजरा गया।
सूरते हाल मुहीब दिखाना जुर्म है?।।
*****
दुनिया मुठ्ठी में करने चले अब हम।
खुद को नीचे भी ले जाना जुर्म है।।
*****
नींद आँखों की हम गंवा बैठे।
सच से दामन यूँ चुराना जुर्म है।।
*****
ओढ़ कर बैठी 'मीरा' खामोशियां।
बात कहने का भी हौसला जुर्म है।।
तमद्दुन=संस्कृति नक़ीब=उद्घोषक
मुहीब=भयानक
मीरा परिहार
ग़ज़ल 5
अब तलक ज़्ज़्ब रहे जाने कहाँ हमारे आँसू।
आज अब बहने लगे बन बन के फुहारे आँसू।।
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ये जमीं पांव जमाने को कहे हमसे जब तब।
तब फ़लक़ चाँद सितारों से उसारे आँसू।।
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मेरे हमदर्द हैं, मेरे हर ग़म की हैं ये दवा।
फ़र्ज़ बन कर्ज हमेशा से उतारे आँसू।।
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अपनी हर चाह जमींदोज नसीहत में।
ख्वाब ओ ख्यालात हमारे ये खारे आँसू।।
************
नींद से जागे तो उठने भी न हम पाये।
खाली वीरां से मकां में थे बिचारे आँसू।।
************,
आइना देखा तो समझ बस यह आया।
मीरा रख पास खुशी से ये सहारे आँसू।।
**********
सोच कर ये कि तुम्हें मुझमें यकीं है बेशक।
यूं ही चुपचाप चले आये हैं हमारे आंसू।।
मीरा परिहार***मंजरी
ग़ज़ल4
साहिल भी नहीं बदले सहरा भी नहीं बदला ।
इन्सान का इन्सान पे पहरा भी नहीं बदला ।1
परवान ए मुहब्बत अन्दाज़ जुदा हैं ।
बदले जो नहीं ख्वाब चेहरा भी नहीं बदला।।2
हर सिम्त फ़िज़ाओं में बे नूरी का आलम ।
हर दीदे बरक्स दीद ए गिरिया भी नहीं बदला।।
आवाज हमें देकर बुलाओगे कभी जब भी।
नज़रें भी नहीं बदलीं नज़रिया भी नहीं बदला।।4
बदले हैं जमाने में इन्सानों के रुख अब ।
काशी भी नहीं बदली काबा भी नहीं बदल।5
लहरों में मेरी किश्ती नहीं आब मयस्सर ।
ऐ खारे हुए सागर थोड़ा भी नहीं बदला।। 6
इक उम्र गुजारी है साहिल ओ सफीने पर ।
कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला ।।7
जब आ ही गये दर पे अपना ले हमें मौला ।
'मीरा 'ने मुहब्बत में रस्ता भी नहीं बदला ।।8
मीरा 'मंजरी 'स्वरचित
ग़ज़ल3
प्यार ज्यादा था पर तब दौलत कम थी।
हाँ मगर राहे सरे आम मुसीबत कम थी।।
आज मलबूसों से बदलें फितरतें इन्सानी ।
कैसे मानें हिजाबों में भी ये आदत कम थी।।
सिर्फ चाहत से दुनिया में शराफत मुमकिन।
लोग ऐसे ही तो थे तब बगावत कम थी।।
ना शराफ़त न नसीहत और अज़ीयत कम थी।
हाँ मगर राहे, सरे आम, तब मुसीबत कम थी।।
येतक़ाजा ए हया हम पर ही है क्यों नाज़िल।
उनकी नज़रों में दिखी हमको सदाक़त कम थी।।
सदाक़त =पवित्रता मलबूसों =वस्त्रों
मीरा परिहार'मंजरी'
स्वरचित
ग़ज़ल2
: आज तो बेशक कयामत हो गयी।
जिनको चाहा है इनायत हो गयी।।
जुम्मे जुम्मे ही मिले बस कुछ घड़ी।
जाने कब उनसे मुहब्बत हो गयी।।
ग़म हमें पीते रहे हैं मय समझ।
लत कहें या कि ये आदत हो गयी।।
दर्द के बरपा हुए जब सिलसिले।
अपने हक़ में ये बिरासत हो गयी।।
या इलाही देख लें हालत मेरी।
मीरा की अब कैसी ये गत हो गयी।।
जब भी होंगे सच के हक़ में फैसले।
हम ये समझेंगे इबादत हो गयी।।
सोने की चिड़िया कभी था ये वतन।
आज कल केवल नसीहत गयी।।
मीरा परिहार मंजरी
ग़ज़ल 1
हाल दिल का कहा बेबसी रो पड़ी।
उनकी सुन के सदा ज़िन्दगी रो पड़ी।।
नज़रें कह न सकीं अनकही दास्तां।
लब ये कहने लगे इक सदी रो पड़ी।।
हाथ थामा मेरा पर जिगर में वतन।
जाऊँ सीमा पे सुन बेखुदी रो पड़ी।।
फ़र्ज़ कितने बने हैं बशर के लिए।
एक संग जो चले दूसरी रो पड़ी।।
आरजूएं सिमट सब बनी जुस्तजू।
हमने चाहा जिसे वह खुशी रो पड़ी।।
जब से डूबीं इधर कश्तियाँ आस की।
उनका आया जो ख़त बन्दगी रो पड़ी।।
एक शरारा उठा जा फ़लक से मिला।
हुस्न देखा उधर सादगी रो पड़ी।।
ग़म दिए ज़िन्दगी ने तलातुम से जब।
चार खुशियाँ मिलीं बेवशी रो पड़ी।। गिरह
मीरा परिहार 'मंजरी'
आज खोल कर देखा तो मालूम हुआ कि मेरी रचनाकार में छपी हैं। आभार आपका
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