संजय शांडिल्य की प्रेम कविताएँ

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●   तुमने कहा प्रेम तुमने कहा प्रेम और कलम की नोक पर उछलने लगे अनायास अनजाने जानदार शब्द   कूँचियों से झड़ने लगे सपनों के रंग   फूट पड़ा साम...

तुमने कहा प्रेम

तुमने कहा प्रेम

और

कलम की नोक पर उछलने लगे अनायास

अनजाने जानदार शब्द

कूँचियों से झड़ने लगे

सपनों के रंग

फूट पड़ा सामवेद कंठ से

तुमने कहा प्रेम

और

हृदय के भूले कमलवन में

दौड़ने लगी

नई और तेज हवा वासंती

मन की घाटी में गूँजने लगा

उजाले का गीत

खिल उठा ललाट पर सूर्य

चंदनवर्णी

उफनने लगी

आँसूवाली नदी

तुमने कहा प्रेम

और बिछ गई यह देह

और तपती रही...तपती रही...

फिर तुमने क्यों कहा प्रेम ?

तुम

जैसे वेदों में साम

रामचरितमानस में राम

और महाभारत में गीता

जैसे संसृति में मानव

जैसे मानव में मन

और मन में हो ईश्वर

वैसे ही

मेरे जीवन में, प्रिये, तुम !

मुझे जाना होगा

मुझे जाना होगा

इस धारासार बारिश में

जाना होगा

इतना अँधेरा

अँधेरे में

आशंकाओं के

इतने साँप

इतने हत्यारे

पर जाना होगा

समय कहता–

मत जाओ!

पर जाना होगा

सब कहते–

मत जाओ!

पर जाना होगा

आज

जाना होगा उसके पास

जिसका वादा है

तुम्हें आना होगा...

तुम्हें आना होगा...

प्रेम का फ्रेम

हर प्रेम का

एक फ्रेम

होता जरूर है

हालाँकि

करनेवाले

ज्यादातर

उसके बाहर के

छूटे हुए

दृश्य होते हैं...

इतना सारा

तुमने दिया है

ऐसा विस्तार

कि कहीं भी

महसूस किया जा सकता है मुझे

दी है

ऐसी गहराई

कि कहीं तक

डूबा जा सकता है मुझमें

और

ऐसी उदारता

कि कुछ भी

माँग लिया जा सकता है मुझसे

तुमने दिया ही है

इतना सारा–

कि लगता है

मैं ही आकाश हूँ

समंदर हूँ, हवा और धरती हूँ

सूरज और चाँद और सितारा...

लड़की

ऐ लड़की, सुनो !

वहाँ

सबसे अलग

अपने एकांत में खोया

जो बैठा हुआ है लड़का

उसकी तरफ कभी मत जाना तुम

उसकी आँखों का समुद्र

तुम्हें खींच लेगा अपनी गहराई में

हो सकता है

कभी अचानक ही वह उठे

और तुम्हारे द्वार से होकर गुजरने लगे

तो सुनो

एकदम से भागकर तुम

घर के पिछवाड़े चली जाना

उसे झाँकना भी मत कहीं से

कि उसकी चाल में

असंख्य कामदेवों की चाल है

असंभव है जिसकी मादकता से बच पाना

यह भी हो सकता है

कि किसी रोज

किसी बहाने तुम्हारे द्वार पर

वह आ जाए

मसलन

कि वह तुम्हारे भाई से मिलने आया है

कि वह तुम्हारे मरणासन्न दादाजी को

गाकर सुनाने आया है रामचरितमानस

कि तुम्हारी दादी के गहनतम दुःख में

शामिल होने आया है वह

कि तुम्हारे माता-पिता का विश्वास बनकर वह आया है

कि वह आया है

ज्ञान की अपार प्रकाश-राशि से तुम्हें नहलाने

तुम्हें जीवन की हर बाधा पार कराने वह आया है

पर सुनो

वह तुम्हें केवल बहलाने आएगा

उसके भुलावे में कभी मत आना

वह तुम्हें हर रंग का सपना देगा

जपने को नाम केवल अपना देगा

वह मायावी है–मायावी

जादूगर है भाषाओं का

उसकी छाया से भी बचना

कि जब कहीं वह जाता है

गाड़ी में सवार होकर

तो भाड़ा देते समय

जनभाषा में बतियाता है

और जब सुंदरियों से बात करता है

तो खड़ीबोली की ऊँचाई से बोलता है

या धाराप्रवाह अंग्रेजी से उन्हें तोलता है

बचो

उससे बचो

उसके बिना ही

दुनिया अपनी रचो।

बीच

जानता हूँ

न पहला हूँ न अंतिम

एक रास्ता हूँ बीच का

जिससे तुम्हारा गुजर रहा है प्रेम

जो पहला था

वह था सबसे प्यारा

क्योंकि वह पहला था

जो होगा अंतिम

उसे मिलेगा बाकी सारा

क्योंकि वह होगा अंतिम

बस मैं ही

ताकता रह जाऊँगा दो छोर

और एक दिन उठाकर गठरी कविता की

चल दूँगा कहीं...किसी ओर...

प्रेम : गरल-अमृत

प्रेम-गरल से

मुझे अधमरा

कर देतीं तुम बारंबार

अगले ही पल

मुझे जिलातीं

करके अमृत की बौछार!

आग्रह

अब मान जाओ

इतना गुस्सा

इतनी उदासी

अब खत्म करो

आओ, हम फिर बैठें

और बतियाएँ

ऐसा क्यों नहीं हो सकता

कि एक प्रयास फिर से करें

इस अंतिम प्रयास में

हम जरूर सफल होंगे

और यकीन करो

हर बार अंतिम ही प्रयास में

मैं सफल हुआ हूँ

तो आओ,

इस अंतिम के लिए

फिर से शुरुआत करें

और यह वादा है तुमसे

कि यदि हम ही असफल रहे

तो मुक्त हो जाएँगे एक दूसरे से

मेरी डाल से

तुम उड़ जाना सदा के लिए अनंत में

मैं खुद ही सूखकर ठूँठ हो जाऊँगा

वैसे,

मैं यह भी जानता हूँ, प्रिए!

न तुम उड़नेवाली हो कहीं

न मैं सूखनेवाला हूँ कभी...

जिस दिन तुम जाओगी

जिस दिन तुम जाओगी

उस दिन भी मैं तुम्हारे साथ रहूँगा

बात ऐसे करूँगा

जैसे हम केवल दोस्त रहे इतने दिन

देखूँगा भी इस तरह

जिस तरह औरों को मैं देखा करता हूँ

जिस दिन जाओगी

उस दिन एकदम नहीं पूछूँगा

कि तुम्हारे बगैर

अब कैसे कटेगा समय का पहाड़

सागर अपार एकाकीपन का

कैसे पार होगा

जंगल तुम्हारे न होने का

कैसे रौशन होगा एकदम नहीं पूछूँगा

जिस दिन जाओगी

उस दिन भी

मेरे होंठों पर वही मुस्कान होगी

जिस पर तुम फिदा रहीं अब तक

और तुम्हारे फिदा होने के अंदाज पर

शायद मैं भी फिदा रहा

उस दिन

तुम्हारे जाने के बाद

सब एक एक कर

मेरी ओर देखेंगे और पाएँगे

मैं तब भी कमजोर नहीं हुआ हूँ

हालाँकि

तुम यह जानती हो

और बेहतर जानती हो

कि एकदम कमजोर क्षणों में

मैं बेहतरीन अभिनय करता हूँ।

पुनर्जन्म

मैं उसी क्षण जान गया था, प्रिए,

कि तुम

अब नहीं प्यार करोगी मुझे

जान गया था

कि अब

एकदम अकेला पड़ जाऊँगा

समय के रेगिस्तान में

जान गया था

कि मुझे

अब कोई सूरत नहीं सुहाएगी

कोई बात अच्छी नहीं लगेगी

सूरज डूबने चलेगा और डूब जाएगा आसमान में

चाँद उगने चलेगा और उग जाएगा क्षितिज से

सितारे चमकेंगे और गुम भी हो जाएँगे

परिंदे उड़ेंगे और लौट आएँगे घोंसलों में

जो होगा, होता रहेगा और हो जाएगा

मैं कुछ नहीं जान पाऊँगा

जान गया था

जान तो यह भी गया था, प्रिए,

कि विहँसती इसी दुनिया में

अगले ही क्षण मेरा पुनर्जन्म होगा

एक दुखी कवि के रूप में...

तुझसे

इस जीवन में

अब तक

तेरी खातिर

मैं क्या रहा हूँ?

बाकी सब तो

रहे 'और'

लेकिन मैं ही

'या' रहा हूँ!

अभी के बाद

अब हम दोनों

नहीं मिलेंगे

फूल स्वप्न के

नहीं खिलेंगे !

तुम

तुम सच हो

या स्वप्न हो

हम कभी साथ थे भी

या साथ रहनेवाली बात

स्वप्न में देखी गई बात है

जो हो

मैं कुछ भी नहीं जानता

जानता हूँ बस इतना

कि हमने जो पल

साथ कहीं भी जिए हैं

इस जीवन के

अंधकार में वे

जगमगाते दिए हैं !

समय

एक दिन

बात-बात में

तुमसे कहा था मैंने

कि जब से हम साथ हैं

मैंने कुछ भी नहीं लिखा है

मेरे जेहन में

कविता नहीं आती

तुमने उस दिन

मेरा हाथ थामकर कहा था

आएगा समय लिखने का

एक दिन सब दुरुस्त हो जाएगा

आज

इतने वर्षों बाद

वाकई

सब दुरुस्त हो गया है

अब तुम

मेरे साथ नहीं हो

मेरे साथ

अब रहता है

समय का अपार अंधकार

जिसमें मैं लिखता हूँ

जिससे मैं लिखता हूँ।

तुम नहीं हो

तुम नहीं हो

तो कितनी बातों का

खयाल रखना पड़ता है इन दिनों

सुबह उठकर पानी भरो टंकी में

और भरते वक्त हमेशा चौकन्ना रहो कि ओवरफ्लो न जाए

कभी हो भी जाए

तो इतना भी न हो कि पूरी छत पानी से भर जाए

या गिरने लगे बाहर सड़क पर

दूध उबलने के लिए रखा जाए और समय से उतार लिया जाए

कोई काम न हो तो बंद ही रहे किचेन का दरवाजा

वॉशरूम जाया जाए

तो निकलने से पहले फ्लश हर बार जरूर चले

बेटे की किताबें और कापियाँ

सुरक्षित रहें उसकी टेबल पर

कपड़े इधर-उधर न हों

हों भी

तो इतना भी न हों

कि दिख जाएँ वे इधर-उधर हैं

लोग आएँ, फर्श पर चलें और खूब ऊधम मचाएँ

पर जरा भी न लगे

कि कोई आया था

फर्श पर चला था

और खूब ऊधम मचाई थी

और हाँ, खयाल ऐसा हो

कि लगे नहीं कि खयाल रखा जा रहा है

जानता हूँ ये काम मेरे भी थे

पर तुमने कभी होने नहीं दिए मेरे

मैं पुरुषत्व के गुमान में फूलता रहा आजीवन

स्त्रीत्व के दायित्व से तुम जूझती रहीं ताउम्र

पर एक बात कहूँ?

जब तक इन कामों में लगा रहता हूँ

तो लगता है तुम हो

और मेरे

एकदम करीब हो

पर ज्योंही

जरा खाली होता हूँ

तो लगता है

और बहुत ज्यादा लगता है, प्रिए,

तुम नहीं हो—नहीं ही हो!

तुम्हारे होने के धुँधलके में

आज

काफी देर तक

वह बैठी रही सामने

तुम्हारे होने के धुँधलके में

मैं निहारता रहा उसे

बार-बार

अपने मौन में

वह विचरती रही लगातार

अपने जंगल में

भटकती रही बेपरवाह उस दुनिया से

जिसमें मैं था

उसका चेहरा

एकदम तुमसे मिलता था, प्रिए!

उसे जब पुकारा गया

उस पुकार में भी तुम्हारा ही नाम था

और जब उसने कहा–'हाँ, आती हूँ'

तब भी लगा

वह तुम्हारा ही 'हाँ' था

और तुम्हारा ही 'आना' था

मैं एकदम अचंभित था उसे देखकर-उसे सुनकर

लेकिन

वह तुम नहीं थीं, प्रिए!

तुम्हारे होने का स्वप्न

जरूर था उस धुँधलके में

जिसमें बहुत दूर तक और बहुत देर तक

मैं बहता रहा अस्तित्वहीन

पर वहाँ

तुम नहीं थीं, प्रिए!

आज अचानक

वर्षों से मैं वस्त्र

तुम देह

यानी

वर्षों से मैं देह

तुम आत्मा

आज अचानक

वासांसि जीर्णानि...

●●

परिचय

जन्म : 15 अगस्त, 1970 |
स्थान : जढ़ुआ बाजार, हाजीपुर |
शिक्षा : स्नातकोत्तर (प्राणिशास्त्र) |
वृत्ति : अध्यापन | रंगकर्म से गहरा जुड़ाव | बचपन और किशोरावस्था में कई नाटकों में अभिनय |

प्रकाशन : कविताएँ हिंदी की प्रायः सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले‘ (सारांश प्रकाशन, दिल्ली) तथा जनपद : विशिष्ट कवि(प्रकाशन संस्थान, दिल्ली) में संकलित | कविता-संकलन उदय-वेला’ के सह-कवि | दो कविता-संग्रह 'समय का पुल' और 'नदी मुस्कुराई ' शीघ्र प्रकाश्य |

संपादन : संधि-वेला’ (वाणी प्रकाशन, दिल्ली), पदचिह्न’ (दानिश बुक्स, दिल्ली), जनपद : विशिष्ट कवि’ (प्रकाशन संस्थान, दिल्ली), प्रस्तुत प्रश्न’ (दानिश बुक्स, दिल्ली), कसौटी’(विशेष संपादन सहयोगी के रूप में ), जनपद’ (हिंदी कविता का अर्धवार्षिक बुलेटिन), रंग-वर्ष’ एवं रंग-पर्व’ (रंगकर्म पर आधारित स्मारिकाएँ) |

संपर्क : साकेतपुरी, आर. एन. कॉलेज फील्ड से पूरब, हाजीपुर (वैशाली), पिन : 844101 (बिहार) |

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. संजय मेरे प्रिय कवि हैं। उनको पढ़ना अच्छा लगता है। बधाई संजय जी

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रचनाकार: संजय शांडिल्य की प्रेम कविताएँ
संजय शांडिल्य की प्रेम कविताएँ
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