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डोलर-हिंडा अंक २४ “सुल्तान एक दिन का”
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
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डी.ई.ओ. मेडम ओमवती सक्सेना ने अपना निर्णय दे दिया “कल सोहन लालजी के अलावा इस दफ़्तर के सभी अधिकारी शैक्षिक बैठकों में व्यस्त रहेंगे। अत: इस दफ़्तर के संचालन की जिम्मेदारी, जनाब सोहन लालजी की होगी।” बेचारे दिल के रोगी सोहन लाल सोनी के कमज़ोर कन्धों पर, दफ़्तर के संचालन की जिम्मेदारी डालकर ओमवती सक्सेना ने पान की डिबिया से पान की गिलोरी बाहर निकालकर मुंह में ठूंसी, फिर उसे चबाते हुए उन्होंने घीसू लाल से आगे कहा “ओ.ए. साहब, ध्यान रहे..दफ़्तर का कोई लिपिक या चपरासी, देरी से दफ़्तर न आये। ठीक दस बजकर पांच मिनट पर, स्टाफ़ का हाज़री रजिस्टर मेरे पास मेरे इसी कमरे में पहुंच जाना चाहिए। समझे, ओ.ए. साहब ?”
कार्यालय सहायक घीसू लाल शर्मा को तो हुक्म तामिल करना था, डी.ई.ओ. मेडम का...बस, फिर क्या ? झट डी.ई.ओ. मेडम के कमरे से बाहर आकर, घीसू लाल ने लम्बी सांस ली। फिर लोढ़ा-धर्माशाला से रवाना होकर, उन्होंने अपने क़दम बढ़ा दिए एलिमेंटरी दफ़्तर की तरफ़। वहां आकर, अब इनको पुन: हवाई-बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़नी थी..जो इनकी बदक़िस्मती ठहरी। यहाँ तो इनका रोज़ का क्रम बन गया ‘दफ़्तर आते वक़्त रोज़ सीढ़ियां चढ़ो और फिर रजिस्टर और फाइलें लेकर लोढ़ा धर्माशाला जाओ डी.ई.ओ. मेडम के पास..फिर फाइलों में उनके हस्ताक्षर लेकर वापस आकर हवाई बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ जाओ हाम्पते-हाम्पते...यह तो बस, इनकी मज़बूरी बन गयी। इस तरह दिन में कई बार हवाई-बिल्डिंग की सीढ़ियां उतरने और चढ़ने से बेचारे रक्त-चाप के रोगी घीसू लाल थक गए, तीन दिन से ढ़ंग का खाना खा नहीं पाए। सुबह नौ बजे से रात के नौ बजे तक कार्यालय कार्यों को गति देने के लिए, दफ़्तर और लोढ़ा-धर्माशाला के बीच चक्कर काटते रहे। बेचारे इतने बेनसीब ठहरे, जो अपने लिए ओमवती सक्सेना के मुंह से एक शब्द तारीफ़ का सुनने के लिए तरस गए।
हुक्म देकर, ओमवती सक्सेना तो हो गयी फारिग़..उन्हें क्या ? उनको क्या मालुम कि ‘उनके हुक्म की पालना में, बेचारे सरकारी कार्मिकों को क्या-क्या कष्ट भोगने पड़ते हैं ?’ मोहतरमा ने अपनी सुविधा देखती हुई, सूरज-पोल पर स्थित लोढ़ा-धर्मशाला में एक कमरा बुक कर रखा था। इसी कमरे को, वे निवास और डी.ई.ओ कक्ष के रूम के रूप में काम लेती थी। अगर बीच में कोई राजकीय अवकाश आये या अन्य अवकाश, ओमवती सक्सेना अपने कपड़े अटेची में डालकर अपे घर उदयपुर चली जाती..इस तरह छुट्टी के दिन, उनको कमरे का किराया भुगतना नहीं पड़ता। इस तरह लोढ़ा-धर्माशाला में रुकने के करण, वह हवाई-बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ने से बच जाती थी। यह भी कोई कम नहीं, ओमवती सक्सेना के लिए। उन्हें तो बस, यहां आराम ही आराम। कार्यालय का चपरासी नेमा राम, हर वक़्त उनके हुक्म तामिल करने के लिए हाज़िर..बस, बेचारे घीसू लाल और नेमा राम अपने नसीब के मारे..सुबह नौ बजे से रात के नौ बजे तक मोहतरमा की ख़िदमत में रहकर अपनी मज़बूरी का रोना रोते थे..!
इसे मोहतरमा की कोप दृष्टि कहें, या दया दृष्टि..मगर, बेचारे घीसू लाल हवाई-बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ते-उतरते हांप गए। कुर्सी पर बैठकर जनाब ने आवाज़ लगायी “रमेss..श। ज़रा पानी लाना, भाई..थक गया, आज़।” रमेश को पानी लाने का हुक्म देकर, वे ख़ुद सोहन लाल से गुफ़्तगू करने लगे “चंडिका ने आज़ छह बार बुलाकर कसरत करवा डाली, सीढ़ियां उतरते-चढ़ते लोगों का खाना हज़म हो जाया करता है..मगर यहां तो मुझे रोटी का एक निवाला मुंह में डालने का वक़्त नहीं मिला, सोहन लालजी।”
“शान्ति..शान्ति, घीसू लालजी। फ़िक्र मत कीजिये, जनाब। आप तो जानते ही है ‘चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शरीर..पाप से लक्ष्मी घटे, कह गए दास कबीर।’ धैर्य रखें, हुज़ूर। सब दिन एकसे नहीं होते हैं, जनाब।” इस तरह कहते हुए, सोहन लाल ने घीसू लाल को धीरज बंधाया।
“कबीरा संगत साधु की... ओहsss.. हमारे कबीर दासजी, ज़रा हम पर भी अपनी कृपा-दृष्टि बरसाइये। अकेले घीसू लालजी पर, कृपा-दृष्टि बरसाने से काम नहीं चलेगा।” युरीनल से बाहर आते हुए, सुल्तान सिंह मनणा बोल पड़े। फिर पतलून से बाहर नज़र आ रहे चड्डे के नाड़े को अन्दर डालने की कोशश करते हुए, जा पहुंचे सोहन लाल के पास..जहां उनके पहलू उनकी सीट थी..उस पर धड़ाम से आकर, बैठ गए। पाख़ाने से बाहर आते ही संस्थापन शाखा के बाबूओं की सीटें लगी थी, वहां बैठे बाबू बंशी लाल सुथार युरीनल से बाहर आयी बदबू को बर्दाश्त नहीं कर पाए। करते क्या, बेचारे बंशी लाल ? बाबू गरज़न सिंह की लायी हुए अगरबत्तियों के सभी पैकेट ख़त्म हो गए, और नया पैकेट अभी लाया नहीं गया। झट इस बदबू से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने अपने नाक पर रुमाल रख दिया, और फिर तपाक से बोले मनणा साहब से “साहब। गांधी के पास बैठ जाओ तो, अंतर की सुगंध से आनंद ही आनंद। जनाब, आपने तो कबीर दासजी के दोहे का सत्यानाश कर डाला..पाख़ाने के दरवाज़े को खुला छोड़कर..हाय राम, इस बदबू से..!”
“सुगंध मिलती है, कोशिश करने से...कण-कण में है भगवान। कण-कण को देखने की क़ाबिलियत पैदा करनी पड़ती है...अरे भाई, नाड़ा खोलना पड़ता है...” मनणा साहब बोले, और पहलू में बैठे सोहन लाल को विस्मित पाकर उन्होंने अपना जुमला पूरा किया “ज्ञान का नाड़ा खोलने पर चराचर सत्य सामने आता है, भाया।”
इस पूरे जुमले को सुनकर सोहन लाल का ऊंचा चढ़ा सांस सामान्य हुआ, नाड़े का ज्ञान पाकर सोहन लाल बोले “आज क्यों पधारे, जनाब ? काहे तक़लीफ़ उठायी, और किसके लिए ?” मनणा साहब और माला राम, दोनों अवर उपजिला शिक्षा अधिकारियों का दफ़्तर में आना उन्हें अच्छा नहीं लगा। अच्छा लगे भी कैसे ? डी.ई.ओ. मेडम की तरफ़ से जनाबे आली सोहन लाल को, एक दिन दफ़्तर में राज़ करने की सल्तन इनाम में जो मिली..इस सल्तन के इस्तेमाल के पहले ही इनके द्वारा होने वाले हस्तक्षेप को, वे कैसे सहजता से लेते..? सोहन लाल की बात सुनकर, मनणा साहब मुस्कराए...फिर उनकी भाव-भंगिमा को देखकर, वे अपनी टेबल पर रखे फाइलों के पेड को खोलने लगे और साथ में बोलते गए “नाड़ा खोलने, समझे ?”
सुनकर उनके आगे पहलू में बैठे माला राम हंस पड़े, और अक्समात उनकी नज़र मनणा साहब की पतलून पर पड़ी। पतलून से बाहर निकला हुआ उनका चड्डे का नाड़ा अभी भी नज़र आ रहा था। इसे देखकर, उनके मुंह से हंसी के फव्वारे छूटने लगे।
“हंसता क्या रे, ठोकिरे ? नाड़ा खोलने का मेरा मफ़हूम है, इस पेड का नाड़ा खोलकर फाइलें साथ ले जानी है ना बैठक में। अब समझा रे, ठोकिरे..? तुमने क्या समझ लिया, साहब बहादुर ?” मनणा साहब ने मुस्कराते हुए कहा, और फिर बाहर निकले नाड़े को उन्होंने झट पतलून के अन्दर डाल दिया। होल में बैठे सारे लिपिक, उनके कथन पर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे। उन सबको चहकते देखकर, मनणा साहब उन सबको गूढ़-रहस्य के बारे में समझाने लगे “बात-बात में कई अर्थ होते हैं। ठोकिरों समझ लो. संतों की बातों में कई गूढ़ रहस्य होते हैं। आपने कभी इन मुस्टंडों को देखा कभी ? खूब खाते हैं, मस्ती से। मोटे-तगड़े सांड-सरीखे पड़े रहते हैं मठों में। इन मठों में बिजली होते हुए भी, लाईट लगाना पाप समझते हैं। अब देखिये, कोई भक्तन आती है संध्या काल में..सुनों, ये मुस्टंडे क्या बोलते हैं उससे ? ‘नाड़ा खोल, बाई।’ अब भक्तन भोली हुई, तो इनका इल्म पूरा। अगर भक्तन समझदार हुई, और वह ऐसे बोली कड़क आवाज़ में ‘क्या कहा ?’ तब झट लंगोट सही करके, ये मुस्टंडे बोलेंगे ‘बाया, पोथी रखी है..पोथी का नाड़ा खोल। पाठ करना है।’ अब बोलो, भाइयों। इस अँधेरे मे ये मुस्टंडे कौनसी पोथी बांचेगे ?” इतना कहकर, उन्होंने पेड से फाइलें बाहर निकाली। तभी उनकी नज़र बाबू गरज़न सिंह पर गिरी..जो हाथ जोड़े उनके सामने आकर खड़े हो गए, और कहने लगे “साहब। पायालागू गुरुदेव। जनाब, आप ऐसे महापुरुषों से मुझे मिला दीजिये..उनसे गुरु-मन्त्र ले लूंगा तो मेरा कल्याण हो जाएगा।” फिर, मुस्कराकर आगे कहने लगे “फिर साहब आप चाहें तो, आपके लिए रोज़ हलुआ-पुड़ी..तैयार।”
“हलुआ-पुड़ी तू खा भाई, मैं तो बूढ़ा हूं..इसे पचा नहीं पाऊंगा भाया। ये हलुआ-पुड़ी तुम जैसे जवानों के लिए, हम तो रुखी-सूखी में राज़ी..जो तेरी काकी बनाती है।” मनणा साहब ने ज़वाब दिया, और फिर फाइलें लेकर सीट से उठे। और, बोले सोहन लाल से “माला रामजी जायेंगे, हाउसिंग बोर्ड कोलोनी। और मैं जाऊंगा, अपनी फेक्टरी। साहब आये तो..अरे नहीं नहीं, डी.ई.ओ. मेडम का फ़ोन आये और पूछे हमारे बारे में तो आप यही कहना कि दोनों बैठक में गए हैं। बस, अब हम चलते हैं। राम राम, भाई।”
सोहन लाल अब वापस क्या कहेंगे ? वैसे भी इनके ज़वाब की प्रतीक्षा, करेगा कौन..? दोनों महापुरुष सीट से उठकर, चल दिए। उनके जाने के बाद, सोहन लाल ने लम्बी सांस ली। फिर दोनों हाथ ऊपर ले जाते हुए अंगड़ाई ली, और जनाब बड़बड़ाये “बेकार इधर-उधर भटकना था, तब महाराज आप दोनों पधारे ही क्यों इस दफ़्तर में ? और यहा से जाते-जाते मेरे जैसे राजा हरीश चन्द्र को, अलग से मज़बूर कर डाला झूठ बोलने के लिए..?”
सोहन लाल अपनी आदत से बाज आये नहीं, जम्हाई लेते-लेते कुर्सी पीछे ली..तभी किसी वस्तु के गिरने की आवाज़ आयी। सोहन लाल चिल्लाए “क्या गिरा, भाई ?” पीछे बैठे बाबू नारायण सिंह से, सवाल कर बैठे।
“गिरा नहीं, हुज़ूर। आपने गिरा दी, गोंद की बोतल...!” नारायण सिंह दुखी सुर में बोल पड़े “यह स्टोर कीपर महेश ठहरा कुतिया का ताऊ, कमबख़्त माँगने पर देता नहीं गोंद की बोतल। हुज़ूर, आंगनबाड़ी दफ़्तर से मांगकर लाया था यह बोतल..जो बेचारी अर्पित हो गयी आपके चरणों को।”
“कुछ नहीं, काहे फ़िक्र करता है ? पैसे खर्च करके तू लाया नहीं, सरकारी माल है..और ला देना..” सोहन लाल बोले, बेफ़िक्री से। उनको क्या मालुम, उनके बुशर्ट की पीठ पर गोंद लगने से हिन्दुस्तान का नक्शा छप चुका...यानि बुशर्ट ख़राब हो गया ? भगवान जाने, उनका धोबी इस दाग को मिटा पायेगा या नहीं ? अब बार-बार नारायण सिंह को बुशर्ट की तरफ़ झांकते देखकर, सोहन लाल बुरा मान गए। क्रोधित होकर, परशु राम की तरह लगे कड़कने “क्या देखता है, मुझे ? ग़लती सफ़ा-सफ़ तेरी है, काम हो जाने के बाद तू गोंद को अलमारी के अन्दर क्यों नहीं रखता ?”
“कैसे रखूं, साहब ? कहाँ है, मेरे पास अलमारी ? एक टेबल की दराज़ है, जिसमें क्या-क्या रखूँ ? हुज़ूर, आप ही बताएं।” लाचारगी से, नारायण सिंह बोले।
“दुखी क्यों होता है, नारायण ? शांत हो जा, और लिख साहब को डिमांड। भाई साहब के पास आज़ डी.ई.ओ. का चार्ज है, जो चाहता है वह इनसे मांग ले।” घीसू लाल ने, व्यंग-मिश्रित डाइलोग दे मारा। बेचारे सोहन लाल समझ न सके, आख़िर इनके कहने के पीछे इनकी मंशा क्या है ? बस, वे तो आ गए ज़ोश में..आज़ ठहरे हम सुल्तान एक दिन के, फिर क्यों नहीं भलाई करें ? और आली जनाब तपाक से बोल पड़े “हां हां, लिख दे नारायण। जो चाहता है डिमांड लिख दे, अभी महेश को हुक्म देता हूं...देखता हूं, कैसे नहीं लाता वह ?”
जनाब की ज़बान पर महेश का नाम, क्या आया..? और, उनको याद आ गया पिछला पे-डे...दिल में उसके प्रति कड़वाहट आये बिना रहती नहीं, बस जनाब ने झट उसके नाम गाली की पर्ची काट बैठे। ‘उल्लू की दुम। दिन-भर बैंक-कोषागार के बहाने घूमता फिरा मास्टरों से सेटिंग करने। बेचारे पुष्करं नारायणजी तो ठहरे भोले, वे क्या जाने बैंक में कितना वक़्त लगता है ? इस कमीने ने सुबह साढ़े दस बजे, बैंक से भुगतान उठा लिया...मगर, उनको वेतन भुगतान किया नहीं। शाम को दफ़्तर में आया करीब पांच बजे, तब ज़बान पर मिश्री घोलता हुआ बोल पड़ा “क्या करूं, साहब ? दिन-भर मास्टरों को निपटाया, अब जान छूटी। बदक़िस्मती ठहरी हुज़ूर, अब कैश नहीं मिल रहा है..कहीं टोटल में मिस्टेक हुई होगी ? जैसे ही कैश मिलेगा, आपको तुरंत वेतन का भुगतान कर दूंगा। आप बिराजिये, प्लीज।” मगर करें क्या, रात के दस बजे-तक रोकड़ के योग मिले नहीं ? आख़िर, क्या ? डबल लोक में सारा रोकड़ रखकर यह महेश, घीसूलालजी और घसीटा रामजी के साथ दफ़्तर छोड़कर चला गया अपने घर। बेचारा नेमा राम क़िस्मत का मारा..सुबह ९ बजे से रात के ९ बजे तक ओमवती सक्सेना के कमरे में ड्यूटी पर तैनात रहा, और अब आ फंसा दफ़्तर की नाईट ड्यूटी के चक्कर में..कैश पूरा वितरण न होने के करण। तब कहीं जाकर सोहन लाल को सत्य के दीदार हुए कि ‘इस तरह एक राजपत्रित अधिकारी को, वेतन के लिए तरसाया गया ? जबकि, दफ़्तर के अन्य कर्मचारियों को वेतन समय पर दे दिया गया।’ बार-बार उनको वह मंज़र याद आने लगा, उस दिन उनकी ज़ेब में पांच रुपये भी टेम्पो किराए के न रहे और उनको अपने घर हाउसिंग बोर्ड कोलोनी जाने के लिए सूरज पोल से पद-यात्रा करनी पड़ी।
दूसरे दिन सुबह ११ बजे तक यह महेश दफ़्तर में आया नहीं, तब-तक सोहन लाल ने ज़ोर से बोलते हुए दफ़्तर के पूरे होल को गूंज़ा दिया..विद्रोह का झंडा लेकर। आख़िर ११ बजे के बाद महेश दफ़्तर आया..तब जाकर उनको वेतन मिलने की आशा बंधी। मगर उस वक़्त तो उनके क्रोध की ज्वाला को, महेश जैसे कलाकार ने मक्खन से लबरेज़ शब्दों से शांत कर दिया। मगर रेवेन्यु स्टाम्प पर हस्ताक्षर करते वक़्त सोहन लाल ने अपना हाथ रोक दिया, और वे कह बैठे “कुतिया के ताऊ, तूझे मुझसे क्या दुश्मनी है तेरी ? इधर मेरा वेतन बढ़ता है, और उधर तू मेरी कटौतियों की राशि बढ़ाकर काट लेता है..इस तरह पूर्व वेतन से मुझे कम वेतन मिलता है...? मुझसे कम पगार पाने वाले, अब मुझसे ज्यादा वेतन अपने घर ले जाते हैं..यह पक्षपात क्यों ?’ तब महेश और घसीटा राम की जान हलक में आ गयी, आख़िर इनको समझाए कैसे ? फिर क्या ? कई नियमों का हवाला देते हुए बड़ी मुश्किल से इनको समझाया, तब कहीं जाकर सोहन लाल ने रेवेन्यु स्टाम्प पर अपने हस्ताक्षर किये..वह भी, उन दोनों पर भारी अहसान जतालाकर। और ऊपर से उन्होंने यह जुमला दे मारा “भाया, भलाई करोगे तो ऊपर वाला तुम्हारा भला करेगा..लोगों की दुआएं लो।” इस घटना को, सोहन लाल कैसे भूल पाते ? घर आते ही, श्रीमतीजी इनका वेतन देखते ही उबल पड़ी “हर साल सबका वेतन बढ़ता है, मगर आपका वेतन बढ़ने के स्थान पर घट कैसे रहा है ? कहीं आप किसी छिनाल रांड पर रुपये लुटाकर तो, घर नहीं आये ?” कभी-कभी तो हद हो जाती, वह उनके कपड़ों में लम्बे केश ढूंढ निकालती और शेरनी की तरह बिफ़रती हुई कह बैठती “यह कौन छिनाल रांड है, जो मेरे हिस्से का खा रही है ? आखिर, ऐसा है क्यों...ये बैनजियां स्कूल में पढ़ाना छोड़कर आपके आगे-पीछे क्यों चक्कर काटती है ?” ऐसे वक़्त बेचारे बुरे फंसे सोहन लाल इतना ही बोल पाते, उस मोहतरमा के सामने “मेरे गीगले की अम्मा, धैर्य धारण कर। सर पर सफ़ेदी आ गयी, इसका तो लिहाज़ कर..इस बुढ़ापे में तूझे छोड़कर किस पर नज़र डालूँगा ?” यह सुनकर भी, इनकी श्रीमतीजी को कहाँ तसल्ली ? वह तोप के गोले छोड़ना, कैसे भूले ? यह तो उसका ठहरा, जन्म सिद्ध अधिकार। फिर क्या ? वह फटाक से, अंगार उगलने लगी “बन्दर बूढ़ा हो जाता है, मगर व छलांग लगाना नहीं भूलता..मैं सब जानती हूँ गीगले के पापा..आप बोलते क्या हो, और करते क्या हो ?”
बरबस, उनके मुंह से ये अल्फ़ाज़ बाहर निकल पड़े “ए महेशिया, कुतिया के ताऊ। तूने मेरे सुखी जीवन में अंगारों की बारिस की..आज़, मैं तूझे नहीं छोडूंगा।” इस तरह, पे-डे वाली वारदात उनको याद आ गयी, और अब सोहन लाल ने महेश से प्रतिशोध लेने का पक्का इरादा कर डाला।’
फिर क्या ? नारायण बाबू ने एक लम्बी डिमांड-लिस्ट तैयार करके थमा दी, सोहन लाल को। जनाबे आली सोहन लाल ने एक दिन की सल्तन हाथ आ जाने के जोश में, झट उनकी मांग को स्वीकृत करते हुए अपनी टिप्पणी लिख डाली ‘खजांची को आदेश दिए जाते है, वह शीघ्र मांगी गयी सामग्री सम्बंधित प्रभारी को अविलम्ब उपलब्ध करावें।’ यह तो भगवान ही जाने, जनाब के बदन में कहाँ से इतना जोश आ गया कि उन्होंने पूरे मांग-पत्र को भी पढ़ने की कोशिश नहीं की। इसके साथ उन्होंने यह भी सोचा नहीं कि, ‘जिस सामग्री को उपलब्ध करवाने के वे आदेश ज़ारी कर रहे हैं, उसके क्रय करने की शक्ति डी.ई.ओ. मेडम ने उनको दी है या नहीं ? नियमानुसार वे उस सामग्री को उपलब्ध करवाने का क्रय अधिकार भी रखते हैं, या नहीं ? मगर. उनको क्या ? उन्हें तो, अपने चमड़े के सिक्के चलने से मतलब था। उतावली में उनको यह भी अंदेशा था, कहीं पुष्कर नारायणजी आ गए तो उनके सिक्के चलने बंद न हो जाए ?’
फिर क्या ? उनके आदेश किये जाने के बाद, रमेश वह फ़ाइल घीसू लाल के पास ले आया। उनके किये गए आदेश को पढ़कर घीसू लाल चौंक गए, और सोहन लाल से कहने लगे।
“अरे सोहन लालजी। आप अलमारी नारायण सिंह को दिलवा रहे हैं, क्या ? आपको क्रय करने के पॉवर है भी, या नहीं ?” लिस्ट पढ़कर घीसू लाल हो गए हक्के-बक्के। आख़िर, उन्होंने सोहन लाल से पूछ ही लिया।
“घीसू लालजी पॉवर दी नहीं जाती, छीनी जाती है..पैदा की जाती है जनाब। नियमों की आड़ लेकर, सरकारी कामों को रोका नहीं जाता। आख़िर हम भी हैं, राजपत्रित अधिकारी। इसीलिए दफ़्तर में, राजपत्रित अधिकारी को लगाया जाता है।” सोहन लाल ने, तपाक से ज़वाब दिया।
“तब, हमें क्या ? दे दीजिये साहब, दे दीजिये....जो मांगे, वह दे दीजिये।” इतना कहकर, घीसू लाल ने नारायण सिंह को पुकारते हुए कहा “अरे ओ नारायण भय्या। अब ख़ुश हो जा..”
“क्या कहा, हजूर ?” नारायण सिंह बोले।
“सुना नहीं ? साहब मेहरबान...” इतना कहकर आगे घीसूलाल ने धीरे से कहा “और गधा पहलवान। अच्छा मौक़ा है, और मांग ले साहब से।” इतना कहकर घीसू लाल ने टेबल से फाइलें उठायी, और अलमारी में सहेज़कर रख दी। फिर अलमारी लोक करके, सीट से उठे। बाद में, सोहन लाल से कहा “साहब। लंच का वक़्त हो गया है, घर जा रहा हूं..खाना खाने। कोई आये-जाए तो आप ध्यान रखना।” इतना कहकर, घीसू लाल चल दिए। थोड़ी देर बाद, वे हवाई बिल्डिंग की सीढ़ियां उतरने लगे।
लंच का वक़्त हो गया, मगर सोहन लाल हिले ना डुले..बस, कुर्सी से चिपके रहे। तभी बाबू जसा राम ने सोचा कि, ‘अगर दफ़्तर का ध्यान रखने के लिए, आज़ साहब बैठे ही हैं। फिर काहे का डर ? क्यों न हम भी सूरज पोल जाकर, चाट-पकोड़े खाकर आ जाएँ ?’ फिर क्या ? जसा राम सीट से उठा, और जा पहुंचा सोहन लाल के पास। फिर उनके कान के पास खड़े होकर, उनसे कहने लगा “साहब, हम भी ज़रा घर जाकर खाना खाकर आ जाएँ।”
जसा राम की आवाज़ सोहन लाल की कानों में ऐसे पड़ी, जैसे आसमान में दो बादल आपस में टकरा गए हों ? जनाब क्रोध से फट पड़े “बहरा हूं, क्या ? ज़ोर से बोलने की, क्या ज़रूरत ? यह दफ़्तर है, घंटा-घर नहीं ? कोई आकर कहता है, खाना खाने जा रहा हूं तो कोई कहता है फेक्टरी जा रहा हूं..यह क्या मटरगस्ती दफ़्तर में फैला रखी है ? कोई यह नहीं कहता कि, मैं ऑफिस में रहूँगा....साहब, आप अपना काम निपटकर, आ जाएँ। सभी यहा से भागने में उस्ताद हैं, चाहे बाबू हो या अधिकारी ? अब जाओ, बैठ जाओ अपनी सीट पर। काहे मेरा मुंह ताक रहे हो, मेरे मुह से लार नहीं गिर रही है ? जाओ, पहले काम पूरा करो। फिर जाना..समझ गए ?”
इतना लंबा सोहन लाल का भाषण सुनकर बेचारा जस राम लाचार होकर बैठ गया अपनी सीट पर, और बैठा-बैठा वेतन-विपत्र तैयार करने लगा। आख़िर एक दिन की मिली सल्तन का रंग ज़माने का श्री गणेश कर बैठे सोहन लाल। आली जनाब ठहरे आख़िर, ‘एक दिन के सुल्तान।’
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