-एक- माना दुनिया बवाल है साहिब, कहाँ इससे निकाल है साहिब। ख़ाकसारों की ताजपोशी का, रोज उठता सवाल है साहिब। बाद मुद्दत के आज जीने की, को...
-एक-
माना दुनिया बवाल है साहिब,
कहाँ इससे निकाल है साहिब।
ख़ाकसारों की ताजपोशी का,
रोज उठता सवाल है साहिब।
बाद मुद्दत के आज जीने की,
कोई देता मिसाल है साहिब।
मरने दे है न मारने वाला,
खूब करता कमाल है साहिब।
‘तेज’ जुल्मत की निगहबानी में,
करता फिरता धमाल है साहिब।
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-दो-
कुछ तो इस दुनिया से सीख,
लूट-मार और दंगे सीख।
बात-बात पर धोखा देना,
और सियासी नारे सीख।
चिकनी चुपड़ी बात बनाना,
करना थोथे बादे सीख।
चोर-उच्चकी राजनीति से,
कुर्सी के हथकंडे सीख।
अ आ इ ई छोड़ ‘तेज’ अब,
अँग्रेजी के नुस्खे सीख।
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-तीन-
कोई बिचारा ख़त लिखता है,
ख़त में अपना कद लिखता है।
धरती को लिखता है अम्बर,
अम्बर को सरहद लिखता है।
खेतों खलियानों को जंगल,
बस्ती को मरघट लिखता है।
फूलों के बिस्तर को पत्थर,
काँटों को मसनद लिखता है।
‘चंदा को लिखता है रोटी,
रोटी को मक़सद लिखता है।
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-चार-
जिनके होने से असरदार हूँ मैं,
वो ही कहते हैं अलमदार हूँ मैं।
मेरी आँखों से चुराकर निंदिया,
खुद ही कहते हैं ख़बरदार हूँ मैं।
उसके सपने भी नहीं आते अब तो,
कैसे मानूँ कि तलबगार हूँ मैं।
मैंने खुद ही बचाया था मगर,
उसने जाना कि मददगार हूँ मैं।
खाली-खाली है मिरा मनाँगन,
‘तेज’ कहता है शहरयार हूँ मैं।
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-पाँच-
सिर पर अपने छाँव रखो ना,
धरती पर भी पाँव रखो ना।
बहुत तिकड़मी है ये दुनिया,
छोटे-मोटे दाँव रखो ना।
रजधानी के इक कोने में,
छोटा सा इक गाँव रखो ना।
सहरा-सहरा दरिया उबला,
संग में अपने नाव रखो ना।
‘तेज’ ग़ज़ल कहना है ग़र तो,
सीने में कुछ घाव रखो ना।
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-छ्ह-
छीनकर मुँह से निवाला आपने,
शर्म को घर से निकाला आपने।
चंद चुपड़ी रोटियों के वास्ते,
स्वयं को ही बेच डाला आपने।
शहर अपन जगमगाने के लिए,
गाँव सारा फूँक डाला आपने।
चाँद-तारों की तलब में बारहा,
अर्श पर पत्थर उछाला आपने
देखने को ‘तेज’ सौ-सौ सूरतें,
आईना तक तोड़ डाला आपने।
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-सात-
जनतंत्र की आंधी में क्या खूब बही मिट्टी,
विश्वास के फूलों पर बन कोढ़ जमी मिट्टी।
गए दौर में पर्वत-सी काटे न कटी लेकिन,
नए दौर के दरिया में नाबाद बही मिट्टी।
क्या बात है कि आख़िर मुँह मोड़ चले वो भी,
जिनकी खुशी को हमने ताउम्र चखी मिट्टी।
चुभती है कंटकों सी, फटती है अणुबमों सी,
इस तौर सियासत के साँचों में ढली मिट्टी।
दीपों में, बर्तनों में, गमलों में ढले कैसे,
सत्ता का नशा पीकर गुस्ताख बनी मिट्टी।
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-आठ-
खाते-खाते चोट हम यूँ चूर हो गए,
करने को दो-दो हाथ हम मजबूर हो गए।
इंसानियत के हाथ की नस काटकर,
कुछ लोग हैं जो शहर में मशहूर हो गए।
बिन वजह लड़ना-लड़ाना मारना-मरना,
नूतन सदी के खासकर दस्तूर हो गए।
उनको जिनके घर अंधेरे थे घने,
चन्द तारे क्या मिले कि मगरूर हो गए।
सच को सच कहने का भला कहाँ दिमाग ,
हौसले कुछ ’तेज’ यूँ काफ़ूर हो गए।
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-नौ-
शूल पत्थर आग बन पानी न बन,
वक्त की आवाज सुन ज्ञानी न बन।
अब फ़कत तारीकियां ही शेष हैं,
रहम खा इंसान पर दानी न बन।
जिन्दगी माना कोई हासिल नहीं,
पर इसे अगवा न कर नाजी न बन।
धर्म के मालिक बहुत हैं चारसू,
तू कर्म का अध्याय बन ग़ाज़ी न बन।
कब तक चलेगी जीस्त नंगे पाँव,
मौत को सिजदा न कर फ़ानी न बन।
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फ़ानी = नाशवान
नाजी = मुक्ति पाने वाला
-दस-
आज का इंसान जब भी लौटकर घर आता है,
टूटा बदन हारा थका विश्वास लेकर आता है।
अहंकार की मीनार पर बैठा समूचा आदमी,
बौना तो बौना , दरअसल शैतान नज़र आता है।
पीते-पीते उम्र भर दस्तूर का मीठा गरल,
आदमी तो आदमी दस्तूर तक मर जाता है।
देखकर वादों की माला मालिकों के हाथ में,
भुखमरी की माँग में सिन्दूर सा भर जाता है।
हादसों के दौर में न ‘तेज’ इतना मुस्करा,
देखकर सहसा हँसी यहाँ आदमी दर जाता है।
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-ग्यारह-
सियासतें बदलीं मगर दफ़्तर नहीं बदले,
कि हुक्मरानी कोट के अस्तर नहीं बदले।
ज़ख़्मों से निकले खून का रंग तो बदल गया,
लेकिन सियासी यार के ख़ंजर नहीं बदले।
भुखमरी के वोट ने बदले हैं तख़्तो-ताज,
पर भुखमरी के मील के पत्थर नहीं बदले।
ज़ेरे-बहस है मुद्दआ रोटी का आज भी,
अभी तलक तो भूख के बिस्तर नहीं बदले।
खण्डहरों को तोड़कर घर तो बना लिए,
पर खण्डहरों की नींव के पत्थर नहीं बदले।
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-बारह-
नए दौर में अधिकारों की सेज सजी,
रफ़्ता-रफ़्ता प्रशासन पर जंग लगी।
नैतिकता और मानवता के सीने पर,
विध्वंसों ने पाली-पोसी एक सदी।
सहरा–सहरा तल्ख समंदर का दर्शन,
है मनाँगन में भूखी-प्यासी एक नदी।
लँगड़े-लूले थके विचारों से ना टूट,
बेशक इनकी सिंहासन पर नज़र लगी।
रक्षक और भक्षक के जैसे भेद मिटे,
अपनी चौखट पर धनिया की लाज लुटी।
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लेखक: तेजपाल सिंह तेज (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हैं- दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से आदि ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन-झुन, खेल-खेल में आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), पाँच निबन्ध संग्रह और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा के उपसंपादक, आजीवक विजन के प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक के संपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं।
संपर्क -
ई-3/ ए-100 शालीमार गार्डन, विस्तार –2 (साहिबाबाद) , गाजियाबाद (उ.प्र.) -201005
E-mail — tejpaltej@gmail.com
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