कहानी - इत्यादि - विजय शंकर विकुज

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उस छनछनाहट की आवाज को नजरअंदाज किया जा सकता था, सुगंध को नहीं। उसकी तासीर नथुनों में समा कर दिमाग में हलचल पैदा करने लगी थी। छनछनाहट की आवाज...

उस छनछनाहट की आवाज को नजरअंदाज किया जा सकता था, सुगंध को नहीं। उसकी तासीर नथुनों में समा कर दिमाग में हलचल पैदा करने लगी थी। छनछनाहट की आवाज रमाकांत बनर्जी के किराये के मकान के ठीक बगल में पड़ोस के मजुमदार बाबू के रसोईघर से आ रही थी। दीवार की सीमा रेखा सुगंध या दुर्गंध को हमेशा रोक नहीं पाती है।

महीने भर का खर्च का पूर्वानुमान एक कॉपी में करते हुये रमाकांत की नजरें उठीं। कोने में पीढ़े पर बैठी कावेरी उबले आलू के छिलके उतार रही थी। उसके ओठ धीरे-धीरे हिल रहे थे। रमाकांत समझ नहीं पाये कि वह किसी को न सुन पाने लायक कुछ गुनगुना रही थी या किसी कल्पना में खोई थी। महुआ और देवेन चारपाई के पास ही नीचे चटाई पर बैठे पढ़ रहे थे। ऊंघ-ऊंघ कर पाठ रटने के प्रयास में देवेन के नथुने फूल-पिचक रहे थे। अपना पाठ पढ़ते हुये महुआ बीच-बीच में उसे निहार लेती। वह उसे धीरे से हिला देती और देवेन का स्वर फिर लय में आ जाता। देवेन इस वर्ष आठवीं में था और महुआ इंटर की परीक्षा देने वाली थी। बच्चों के पढ़ने का स्वर उस छनछनाहट की आवाज में जैसे कभी-कभी डूब जाता।

रमाकांत और कावेरी ने एक ही समय एक दूसरे की ओर निहारा। दोनों की आंखों ने एक दूसरे से कुछ छिपाने की कोशिश-सी की और पलट कर बच्चों की ओर निहारने लगे। महुआ उन दोनों की ओर निहार रही थी। छनछनाहट की आवाज का प्रभाव सब की आंखों में था। कावेरी ने धीरे से सिर झुका लिया। महुआ और रमाकांत ने एक साथ अपनी सूखी जीभ को मुंह से भिगोया। सुगंध नथुनों से दिमाग, दिमाग से दिल और दिल से जीभ पर आ स्वाद बन कर चिपक गयी थी।

‘आह .....!’ ऊंघते हुये देवेन के मुंह से एक सुखद एहसास-सा उभरा। वह झट सचेत हो गया। सब उसकी ओर निहारने लगे। उसने झेंप कर सिर झुका लिया।

‘लग रहा है मजुमदार अंकल के यहां मछली बन रही है।’ देवेन की ओर निहारती महुआ अनायास बोल पड़ी।

‘हाँ, चिंगड़ी की गंध है। कल उनके यहां हिलसा बनी थी।’ देवेन ने धीरे से कहकर पुस्तक पर नजरें गड़ा दीं।

‘वे लोग बहुत पैसे वाले हैं। उनके यहां मांस या मछली में से एक हमेशा ही बनती रहती है।’ महुआ ने धीरे से कहा।

‘जैसे कभी हमलोगों के यहां बनती थी।’ देवेन ने अविलंब कहा।

‘गप्प नहीं, पढ़ाई में ध्यान दो।' दुर्बल स्वर में कावेरी ने धीरे से डांटा। दोनों ने तुरंत अपनी-अपनी किताब का पन्ना पलटना शुरू कर दिया। रमाकांत के अंदर एक हूक-सी उठी। दूसरी ओर निहारते हुये वे अपनी अन्तर्व्यथा के खुद में ढक लेने की कोशिश करने लगे। वे चुपचाप कॉपी और कलम सिरहाने रख खाट पर पसर गये।

सुगंध और तीव्र हो गयी थी। उन्होंने जीभ से मुंह के भीतर किसी अदृश्य पदार्थ को चुभला कर साकार किया। आलू छिलती हुई कावेरी उनके हिलते गालों को निहारने लगी थी। रमाकांत ने सिर घुमाया। कावेरी को अपनी ओर निहारते देख उनके गाल स्थिर हो गये।

'कल मैं इलीस (हिलसा) अवश्य लाऊंगा। बहुत दिन हो गये हैं खाये हुये।' वे बच्चों की ओर निहार कर बोले।

'दो-ढाई सौ ग्राम पुंटी (पुठिया मछली) ही ले आइयेगा।' किताब के पन्ने से दृष्टि हटाकर देवेन उनकी ओर देखता हुआ बोला। उसकी आंखों में समझदारी की झलक थी। उसे मालूम था कि रमाकांत को वेतन मिलने में अभी भी कई दिन बाकी हैं। महीने के आखिर में अक्सर तंगी रहती है।

'अच्छा-अच्छा ! अपनी पढ़ाई करो। घर-संसार के बारे में तुमलोगों को चिंता करने की आवश्यकता नहीं। अभी मैं हूँ।' रमाकांत ने धीरे से डांटा।

महुआ और देवेन ने सिर झुका लिया। रमाकांत ने सिर झटक कर कावेरी की ओर देखा। वह एक बर्तन में भात का मांड पसा रही थी।

कावेरी ने मांड पसाकर हांडी एक ओर रख दी। पास ही एक तख्ते पर सजाये बर्तनों से उसने चार ग्लास उतारे। ग्लासों में उसने चम्मच से माप कर नमक डाला और फिर उसमें मांड डालने लगी। लगभग समान माप से मांड डालकर उसने उसी चम्मच से नमक को घोला और दो ग्लास उसने महुआ और देवेन के सामने रख दिये। दोनों ने एक-एक ग्लास उठाकर अपने-अपने मुंह से लगा लिया।

एक ग्लास रमाकांत को थमाकर उसने दूसरा ग्लास खुद उठाते हुये कहा, 'कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी ऐसा भी दिन गुजारना पड़ेगा।'

रमाकांत ने एक ही सांस में पूरा ग्लास खाली कर दिया और खाट के नीचे रखते हुये कहा, 'कम से कम हमलोग भूखे तो नहीं सोते। न जाने कितने लोगों को कई-कई रोज अनाज देखने को नहीं मिलता। जो मिल जाये उसी में गुजारा करना सीखो।'

'घर-गृहस्थी में सुख-दुख से प्रभावित होना ही पड़ता है। सपने दिखाई पड़ते हैं तो गुजरे दिन भी याद आ जाते हैं।' कावेरी ने सिर झटककर गंभीर स्वर में कहा।

'भाग्य ! पेपर मिल बंद हो जाने से कितने घर बर्बाद हो गये। पता नहीं, मिल कभी खुलेगी या नहीं ? अब उम्मीद नहीं है। आठ-दस साल से ऊपर हो गये।' रमाकांत ने दीर्घ उच्छवास छोड़ी।

'हाँ,' कावेरी ने उनकी ओर निहारा, 'और आपकी इस नौकरी से कुछ होने-जाने वाला नहीं है। किसी तरह पेट में कुछ अनाज डालकर संसार नहीं चलता।'

'तो अब मैं क्या करूं ?' रमाकांत आहत-सा बड़बड़ाये, 'कल तक अच्छी नौकरी थी तो सामान बर्बाद होता था। आज यह दिन देखना पड़ रहा है तो इसे भी स्वीकार करना ही होगा। कल समय बदल भी सकता है।'

'सुनने में तो खराब लगेगा ..... अरे, आप हाथ-पांव मारेंगे तभी तो समय बदलेगा। आपके कई साथी अच्छी-अच्छी नौकरी पा गये। बस आप ही अपनी खोह में कुंडली मारे बैठे हैं।' कावेरी ने शिकायत भरे स्वर में कहा।

'जो हो लेकिन किसी भी हालत में सब का पेट तो पाल रहा हूँ। किसी को घर से निकलने तो नहीं देता, कोई चिंता करने तो नहीं देता। कोशिश भी कर रहा हूँ कि कहीं आसपास कोई अच्छी नौकरी मिल जाये मगर मेरा दुर्भाग्य .....!' और उन्होंने असहाय-सा कावेरी की ओर देखा।

'बच्चों को पढ़ाना-लिखाना है। महुआ सयानी हो गयी है। अब हमें बहुत कुछ सोचना है।' कावेरी की आंखों से चिंता झांक रही थी।

'चिंता मुझे भी है। बर्णपुर के कारखाने में 'ब्वायलर डिपार्टमेंट' में नियुक्ति होने वाली है। मैंने आवेदन कर दिया है। शायद 'एक्सपीरियेंस' के आधार पर मेरी नौकरी हो जाये। बस, थोड़ी प्रतीक्षा करनी होगी।' रमाकांत के गंभीर चेहरे पर विश्वास की झलक थी।

'भगवान करे कि हो जाये।' कह कर कावेरी आंखें बंद कर मानो मौन रूप से ईश्वर से प्रार्थना करने लगी।

'पिताजी, मुझे अर्थशास्त्र की एक किताब चाहिये।' महुआ ने उन दोनों की ओर निहार कर कहा।

'बहुत जरूरी है ?'

'हाँ, मैंने कई रोज पहले ही आपसे कहा था पर आप शायद भूल गये। परीक्षा करीब आ गई है।'

'अच्छा, तनख्वाह मिलते ही मैं जरूर ला दूंगा। हां, यह किताब कितने में आ जायेगी ?'

'यही करीब साठ-सत्तर रुपये।' महुआ ने धीरे से कहा।

'बस्स ! वेतन वाले दिन तू मुझे किताब का नाम लिख कर दे देना या खुद ही ले आना। भूलना मत। पढ़ाई-लिखाई के मामले में लापरवाही अच्छी नहीं।' उन्होंने स्नेहिल दृष्टि से महुआ की ओर निहारा। महुआ ने धीरे से सिर हिलाया और मुस्कुरा पड़ी।

'अच्छा अब तुमलोग अपनी पढ़ाई-लिखाई में ध्यान दो।' कहकर कावेरी ने जूठे बर्तनों को उठाया और दरवाजे के बाहर निकल गयी। महुआ और देवेन फिर अपना पाठ रटने लगे।

छनछनाहट की आवाज आनी बंद हो गयी थी मगर सुगंध का प्रभाव अभी भी वैसा ही था। बाहर से कावेरी के बर्तन मांजने की आवाज आ रही थी। खाट पर लेटे छत की ओर टकटकी लगाये रमाकांत सोच रहे थे ..... 'सच ही तो ..... सच को भूलाकर जीना हमेशा संभव नहीं होता। सत्य और जीवन तो सदा से ही सहयात्री रहे हैं।'

दसेक वर्ष पहले, जब पेपरमिल चालू थी तो पूरे रानीगंज की रोनक ही कुछ और थी। रमाकांत पेपरमिल में 'ब्वायलर' विभाग में एक अच्छे ओहदे पर थे। रानीगंज की वह पेपरमिल पूरे भारत की सबसे बड़ी कागज मिल मानी जाती थी। इतने बड़े कारखाने में एक ऊंचे ओहदे पर उनकी तनख्वाह अच्छी थी। अच्छी तरह खा-पहन और इधर-उधर की करने के बाद भी अभाव का सामना कभी उनके परिवार ने नहीं किया था।

उन दिनों रमाकांत का परिवार पूरे आफिसर्स कालोनी में 'माछ रान्ना' के लिये विख्यात था। मछली भक्त बंगाली समाज के होते हुये भी वे लोग कुछ विषेश रूप से चर्चित थे। उनके घर में किसी भी हालत में प्रतिदिन दो तरह की मछलियां अवश्य बनती थीं। कभी-कभी तो तीन-चार आइटम हो जाते थे। उनके घर नियमितता से मछली पहुंचा जाने वाले कई बंधे मछली विक्रेता थे। वे स्वयं भी बाजार में एक चक्कर लगा लेते थे। तली हुई कोई न कोई मछली उनके घर हमेशा रखी रहती थी। जब-तब इधर-उधर से आकर चबाने-चुभलाने के लिये या जब आवश्यकता पड़ी तो झोल बना लेने के लिये।

रूई, कतला, सिंघी, मांगुर, पंफ्लेट, पुठिया या और कई तरह की मछलियों में से किसी एक का 'सिंपल आइटम' नियमित जरूरी था लेकिन दो-एक विशेष 'आइटम' भी प्रतिदिन बनते थे। हिलसा की 'वेराइटीज' रसोई एक दिन बाद या कभी-कभी कई दिनों तक लगातार बनती थी। कोफ्ता, चॉप, पातुड़ी, कोरमा, कालिया, नारियल इलीश, भापा और दही इलीश में से कोई न कोई आइटम प्राय: बनता रहता था। सुटकी (सूखी) मछली की तो 'स्पेशल डिश' बनती थी। कॉलोनी के दो-चार घरों में प्राय: कोई न कोई स्पेशल डिश एक प्लेट करके वे लोग भिजवा देते।

लोग कहते कि जितनी तरह की मछली की रसोई पूरे बंगाल की जानकारी में है, उनके यहां बनती है। कई नये आइटमों का अविष्कार भी शायद उनलोगों ने किया था। कई बार कावेरी ने वहां की महिलाओं को बताया था कि वह अपने मायके में लोटिया, तरल और पता नहीं कई तरह की मछली खा चुकी है मगर रानीगंज में वे मछलियां नहीं मिलतीं। उन मछलियां का तो स्वाद भी अलग होता है और वे बहुत सस्ती भी होती हैं। उन लोगों को तो बस रोज मछली चाहिये। बहुत कम लोग ही हैं जो प्रतिदिन मछली खाते हैं या कई रोज खा लिया तो उब गये।

रमाकांत का परिवार बिना मछली के भात का कौर निगल नहीं पाता। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि जिस दिन जिस विशेष मछली का बनना तय हुआ था, वह मछली उस शहर की मछली पट्टी में नहीं मिलने पर रमाकांत उस दिन 'ड्यूटी' न जाकर स्कूटर लेकर निकल पड़ते। तीस-चालीस किलोमीटर के आसपास के दुर्गापुर, अंडाल और आसनसोल जैसे करीबी शहरों को छान मारते। ऊंगलियों पर गिन कर ही कभी-कभार कार्यक्रम असफल हुआ था।

पेपरमिल का बंद हो जाना प्रकृति के विरुद्ध परिवर्तन-सी कल्पना के बाहर की बात थी। मजदूरों की कुछ मांगें थीं जिसे मिल मालिक ने मानने से इंकार कर दिया था। बस्स, एक दिन मजदूर हड़ताल पर बैठ गये। मालिक ने भी नोटिस डलवा दिया कि वह उनकी मांगें स्वीकार नहीं करेगा चाहे मिल बंद क्यों न हो जाये। यूनियन एवं मजदूरों ने उसे मालिक की गीदड़ भभकी समझा। भला इतना बड़ा कारखाना बंद करना खेल है ! मालिक को एक दिन झुकना ही होगा।

एक दिन, दो दिन, एक सप्ताह, दो सप्ताह करते-करते जब समय दो महीने से ज्यादा गुजर गया और कंपनी की ओर से कोई संकेत नहीं मिला, कोई चेष्टा नहीं हुई तो मजदूरों को चिन्ता होने लगी। खाली पेट लड़ाई कब तक चलती ? चिन्ता के साथ-साथ जहां पछतावा होने लगा वहीं हड़ताल पर बैठे मजदूरों की संख्या घटने लगी।

लोग कहते हैं कि यूनियन ने एक हद तक हार स्वीकार करके भी मिल खुलवाने की चेष्टा की मगर मिल नहीं खुली। कुछ लोग इसे नेताओं का अत्याचार और मजदूरों की मनमानी मानते हैं। कुछ ने कहा कि कई वर्षों से करोड़ों का नुकसान झेलते-झेलते कंपनी का दिवाला निकल गया था और मजदूरों की हड़ताल के बहाने कंपनी को अपने बचाव का मौका मिल गया। जितने मुंह उतनी बातें ! धीरे-धीरे साल भर से ऊपर हो गया। मगर मिल नहीं खुली तो नहीं खुली। हड़ताल टूट गयी। लोगों ने समझ लिया था कि बंगाल के पचीसों कारखानों की तरह रानीगंज की पेपरमिल भी अब कभी नहीं खुलने वाली पर आजीविका की जुगाड़ तो करनी ही होगी।

साधारण मजदूर तो कब के इधर-उधर लग गये थे। कुछ शहर में छोटी-मोटी दुकान लगाकर बैठ गये थे। कुछ ने रिक्शाचालक और कुली-कबाड़ी का जीवन अपना लिया। कुछ ओहदेदारों ने घर का सामान बेच-बाच कर थोड़ी लंबी प्रतीक्षा की। मिल के कुछ अनुभवी कर्मचारियों ने अन्य प्रांतों में कोशिश की और निकल गये। आशा भरी प्रतीक्षा में उनके घर का अधिकतर सामान बिक गया था। तब भी उनके घर में कोई न कोई मछली नित्य बनती थी।

जिस दिन उन्हें कंपनी का फ्लैट खाली करना पड़ा था, उस दिन पैतृक संपति की वह खाट, दो-तीन ट्रंक, थोड़े बर्तन और कुछ लटर-पटर लेकर एक छोटे से वैन में वे वहां से निकल गये थे। सिर झुका कर जगह छोडने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। उनसे पहले अधिकतर लोग वहां से उसी तरह निकले थे। कुछ बचे-खुचे साथियों ने अफसोस प्रकट किया था तथा कंपनी और यूनियन दोनों को कोसा था। यह औपचारिकता सब के साथ निभाई गयी थी।

रानीगंज की एक छोटी-सी ग्लास फैक्टरी में एक साधारण कर्मचारी के पद पर एक नौकरी जुगाड़ हो गयी थी। वे वहां लग गये थे। शहर के इस मुहल्ले में एक भाड़े के घर में उनका परिवार आ गया था। रमाकांत को यह संतोष है कि हर परिस्थिति में उनका परिवार उनके साथ रहा है। समय का फेर तो झेलना ही पड़ता है। पलायन इसका विकल्प नहीं। बस, एक तकलीफ नागवार गुजरती है कि अब उनके घर महीने में तीन-चार बार ही मछली बन पाती है। जितनी आती है, चार-छह कौर में ही थाली से गायब हो जाती है। अगली मर्तबा तक वे लोग इस सकून के साथ रहते हैं कि फलां दिन उन लोगों ने मछली खाई थी। जीभ पर नियंत्रण रखना संचय, स्वास्थ्य और शांति के लिये पहले जरूरी है।

कल पहली तारीख है लेकिन रविवार है। वेतन परसों मिलेगा। कभी-कभार दो-एक दिन देर भी हो जाती है। वेतन मिलते ही वे महुआ की किताब और हिलसा साथ लेकर घर आयेंगे। भीतर दृढ़ होते निश्चय से उनका मन हल्का होने लगता है।

रात का सन्नाटा पसर चुका था। खाट पर लेटे-लेटे ही उन्होंने मुड़ कर देखा, कावेरी रात का भोजन परोसने की तैयारी कर रही थी। महुआ और देवेन किताब-कॉपी समेट रहे थे। वे भी उठ कर बैठ गये। अक्सर अवकास के दिन का एक बेला रमाकांत का उनके मित्रों के बीच गुजरता था। वे अपराह्न में तीन-चार बजे निकलते और घूम-टहल कर रात नौ-दस बजे तक घर लौटते थे। आज निकले तो दो घंटे बाद ही लौट आये। उन्हें लौट आये देखकर कावेरी ने उत्सुकता से पूछा, 'बड़ी जल्दी लौट आये ?'

'हाँ,' रमाकांत प्रफुल्लित चेहरे के साथ मुस्कुराये, 'कल से एक ट्यूशन शुरू कर रहा हूँ। पांच सौ मिलेंगे।'

'अच्छा !' कावेरी का चेहरा भी खिल उठा, 'चलो ठीक किया। शाम को छह बजे तक तो आप घर आ जाते हैं।'

'हाँ, इसीलिये सोचा कि कर ही लूँ। दो-एक और जुगाड़ करुंगा। बर्णपुर वाली नौकरी हो जाये तो अच्छी बात है नहीं तो कुछ अतिरिक्त आय का हिसाब-किताब बिठाना ही था। बस, मेरे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई ठीक तरह से पूरी हो, उनका भविष्य उज्ज्वल बने।'

'अचानक आपने ट्यूशन करने का निर्णय कैसे ले लिया। सुबह तक तो ऐसी बात नहीं थी।' कावेरी ने हंस कर कहा।

रमाकांत कावेरी की ओर निहार कर बोले, 'दास दा के यहां बैठा था। वहीं एक सज्जन मिल गये। जाने-पहचाने हैं। उन्होंने अपने बच्चों के लिये 'आफर' दी तो मैंने भी हां कर दी। चलो, कुछ अन्य जरूरतें तो पूरी होंगीं।'

कावेरी ने कुछ नहीं कहा। उसकी आंखों में कोई दर्द झिलमिला उठा। उसने धीरे से सिर झुका लिया।

'बच्चे कहां गये ?'

'मजुमदार बाबू के बच्चों के साथ होंगे। अभी थोड़ी ही देर हुये हैं उन्हें गये।'

रमाकांत ने कुछ नहीं कहा। वे आलमारी से लुंगी उतार कर पैंट बदलने लगे।

'बिस्तर ठीक कर दूँ ?' कावेरी ने पूछा।

'नहीं मैं जरा पोखर जा रहा हूँ।' कह कर उन्होंने पैंट दीवार में लगी खूंटी पर टांग दी और घर से निकल पड़े। कावेरी झाड़ू उठाकर घर की सफाई में लग गयी।

रमाकांत के घर के पांच-छह घर बाद खुला इलाका था। वहीं कुछ परती जमीन थी और एक तालाब। तालाब के आसपास झाड़ियां थीं और उसके बाद खेत ही खेत। इस मुहल्ले के अधिकतर लोग दिशा फारिग होने इधर ही आते हैं। रमाकांत जिस मकान में रहते हैं उसमें 'लैट्रिन' नहीं है और कुछ सुविधाओं वाले किराये का घर उनके वश की बात नहीं है। इधर आते ही मन कभी-कभी टीसने लगता है पर समय के परिवर्तन को स्वीकार करना ही पड़ता है।

उत्तर की ओर पुटुस की झाड़ियों की ओट से निकल कर रमाकांत बाहर आये। हाथ में लुंगी को आधे से टांगे हुये वे पगडंडी से होकर तालाब के घाट की ओर बढ़े। उन्हें तुरंत वहीं ठहर जाना पड़ा और उन्होंने अपना मुंह दूसरी ओर कर लिया। तालाब में चार-पांच औरतें गमछा पहन कर उतरी हुईं थीं। वे दिशा फारिग होने आई होंगी और अब पानी में उतरी हुई बदन धो रहीं थीं।

रमाकांत ने मुंह फेरे हुये ही तिरछी नजरों से देखा। तालाब को आधा बांध कर उस तरफ घांटा गया था। दूसरी तरफ जाने से भी फायदा नहीं, उधर तो कीचड़ है। यहीं उतरना होगा। थोड़ी प्रतीक्षा करनी होगी।

रमाकांत ने तिरछे होकर देखा। औरतें साड़ी पहन रहीं थीं। कुछ ही देर में औरतों ने साड़ी पहन कर गमछी धोयी और दूसरी ओर से मुहल्ले की ओर बढ़ गयीं।

रमाकांत आगे बढ़े। आधे तालाब के इसी ओर पानी था। वे पानी छूकर उठे तो उन्हें कुछ ही दूरी पर और दो-तीन लोग पानी छूते नजर आये। वे दूसरी ओर मुड़कर अपनी लुंगी ठीक करने लगे। कपड़ा ठीक कर वे धीरे-धीरे कीचड़ वाले भाग की ओर से घर की ओर बढ़ने लगे।

चलते हुये वे सोच रहे थे, अवश्य ही आज मुहल्ले के लोगों ने मछली मारी है। गर्मी के दिनों में तालाब सूखने से पहले तालाब के मालिक या ठेकेदार सारी मछलियां उठवा लेते हैं। फिर भी कुछ मछलियां बच जाती हैं। बची-खुची मछलियों से मुहल्ले के निचले तबके के लोगों का उपकार हो जाता है। वे तालाब घांट कर उसे मार लेते हैं। आधे तालाब को नहाने-धोने के लिये छोड़ दिया जाता है। जब तालाब बिल्कुल सूखने को होता है तो लोग उस वक्त भी पूरे तालाब को एक बार और घांट कर शेष बची मछलियों को तलाशने की कोशिश करते हैं। ऐसा कार्य गरीब घर के लोग ही करते हैं। उन लोगों ने कभी भी इस तरह से मछली नहीं पकड़ी है। वे लोग तो हमेशा से मछली खरीद कर खाते आये हैं।

चलते-चलते रमाकांत ठिठक गये। एक जगह कीचड़ में एक अजीब सी थरथराहट नजर आयी। क्या बात है ? क्या हो सकता है ? इस तरफ तो मछलियां मार ली गयी हैं। शायद कीचड़ थिरा रहा होगा। किसी सामान्य बात की संभावना के साथ उनकी नजर पास ही एक लकड़ी पर पड़ी। उन्होंने पलट कर फिर कीचड़ की ओर देखा। हां, कीचड़ के नीचे कुछ हलचल-सी लग रही है। कुछ अवश्य है। सांप-वांप या कोई जीव-जन्तु कीचड़ में फंसा है। कुछ सोचते हुये उन्होंने दहिने हाथ से उस लंबी लकड़ी को उठा लिया। उन्होंने धीरे से इधर-उधर देखा। आसपास काफी दूर तक कोई नजर नहीं आया। निश्चिंतता के साथ उनका मन उत्सुक हो उठा।

उन्होंने लकड़ी से उस जगह की कीचड़ को घांटा। कुछ नजर नहीं आया। उस जगह का कीचड़ थोड़ा भदभदाया, फिर स्थिर होने लगा। वे ध्यान से देखने लगे। थरथराहट फिर दिखाई पड़ने लगी। थोड़ा आगे बढ़ कर उन्होंने लकड़ी से थोड़ी गहराई तक कीचड़ को हिलोरा। इस बार सफेद-सी कोई चीज नजर आयी। वहां के कीचड़ को उन्होंने लकड़ी से फिर सरकाया। वह चीज दृष्टिगोचर हो उठी। वे चौंक उठे। अरे, यह तो मछली है ! रमाकांत ने झट लकड़ी को एक ओर फेंका और लपक कर दोनों हाथों से मछली को पकड़ लिया। कीचड़ में लिपटी वह करीब पांच-छह सौ ग्राम की रोहू मछली थी। उसके गलफड़ फड़क रहे थे। वह अकबका कर अपना मुंह खोल-बंद कर रही थी। उसकी आंखें निस्तेज-सी थीं। रमाकांत समझ गये। मछली शायद किसी तरह बच गयी होगी और आहत हो गयी थी। रमाकांत वापस तालाब के पानी वाले भाग की ओर बढ़ गये। उन्होंने पानी में मछली को धोया। मछली के बदन की थरथराहट बहुत कम हो गयी थी।

चिकनाई के कारण आधा किलो से ऊपर की मछली को एक हाथ में थामना बहुत देर तक संभव नहीं हुआ। उन्होंने उसे दोनों हाथों में थाम लिया। एक पुलकित व्यग्रता उनके अंदर हलचल कर रही थी और वे तेज रफ्तार से घर की ओर चल पड़े। उन्होंने पहले मुहल्ले की ओर फिर आसमान की ओर देखा। शाम का धुंधलका आसमान से उतर कर पसरने लगा था।

'चलो, आज सबको मछली खिला ही दूंगा। सब आश्चर्यचकित रह जायेंगे।' घर की ओर बढ़ते हुये उनका मन किलकारी मार उठा।

'तीन नहीं तो दो-दो पीस करके हम चार जनों के लिये अवश्य ही निकलेगा। कावेरी को कहूंगा कि बच्चों के लिये तीन-तीन पीस और हम दोनों के लिये दो-दो पीस निकालने की कोशिश करे। हो जायेगा।' वे मन ही मन आश्वस्त होते हुये कार्यक्रम तैयार कर रहे थे, 'कहूंगा कि स्पेशल डिश बनाये। बच्चे कल रात किस तरह कर रहे थे।'

'पिताजी, मेरी किताब बहुत जरूरी है। 'एक्जाम' करीब आ गया है।' अचानक महुआ की याचक आंखें उनकी कल्पना में हस्तक्षेप कर उनकी आंखों में झांकने लगीं।

वे ठिठक कर ठहर गये। मुहल्ला करीब ही था। धुंधलका गहराने लगा था। मछली उनके हाथों में शिथिल-सी कैद थी। और एक विचार उनके अंदर कौंध कर उभरा।

चौराहे के बाजार में जाकर क्या किसी को मछली बेच आयें ? हां यही ठीक रहेगा। खरीदने वाले मिल ही जायेंगे। पचास-साठ रुपये मिल ही जायेंगे। घर में आख-ताख टटोलने पर पांच-सात रुपये भी निकल आयेंगे। कावेरी भी तो दो-चार रुपये बचा-छुपा कर रखती है। शायद महुआ की किताब खरीदने लायक पैसे हो जायें। वेतन में कई बार देर हो जाती है। मन मार कर मछली बेच देंगे तो महुआ की किताब आ जायेगी। उसकी पढ़ाई तो ठीक तरह से चलती रहेगी। वेतन मिलते ही मछली भी ले आयेंगे।

रमाकांत ने पगडंडी से निकलते हुए दूसरे रास्ते की ओर निहारा। वह रास्ता दूसरी ओर से सीधे चौक पर पहुंचता था। उन्होंने धीरे से मछली को जमीन पर रख दिया और इधर-उधर निहारा। आसपास वैसा कुछ नजर नहीं आया। कुछ सोचते हुये उन्होंने अपनी कमीज उतारी, फिर गंजी। उन्होंने तुरंत कमीज पहन ली। किसी दृढ़ निश्चय के साथ उन्होंने मछली को गंजी में लपेट लिया और उनके कदम दूसरे रास्ते की ओर बढ़ गये।

रानीगंज शहर के एक कोने का वह चौक अच्छा-खासा गुलजार क्षेत्र था। रमाकांत के वहां पहुंचते-पहुंचते अंधेरे के प्रभाव को मिटाने के लिये दुकानों-मकानों में बत्तियां जगमगा उठीं थीं। वेधीरे-धीरे चलते हुये एक गुमटी के पास पहुंचे और एक ओर ओट में खड़े हो गये।

आते-जाते चेहरों में वे कोई ऐसा चेहरा तलाशने लगे जहां उनकी समस्या का समाधान हो। इंतजार समय तो लेता ही है। थोड़ी ही देर में हाथ में सब्जी की थैली लिये हुये हेमन्त बाबू आते नजर आये। रमाकांत का मन आशान्वित हो उठा। हेमन्त बाबू तो उसी ओर से गुजरेंगे।

रमाकांत का ख्याल सही निकला। उसी ओर बढ़ते हुये हेमन्त बाबू ने उन्हें देख लिया और मुस्कुरा पड़े। करीब पहुंचते ही वे तपाक से बोले, 'अरे रमाकांत बाबू ! कहिये कैसा हालचाल है ? बाजार करने आये हैं ?'

'हाँ,' बात किस तरह शुरू की जाये सोचते हुये रमाकांत ने दो पल बाद कहा, 'अरे भाई ! मुझे ख्याल ही नहीं कि आज आपकी भाभी ने कोई व्रत रखा है। मैंने झोंक में यह पचास रुपये की मछली खरीद ली। कावेरी तो फिंकवा देगी। सोच रहा हूँ कि किसी को बेच दूँ। घर ले जाने से कोई फायदा नहीं।'

'ओह !' हेमन्त बाबू हंस पड़े, 'यह कोई समस्या नहीं। मुझे दे दें। लेकिन पैसे दो-तीन दिन बाद मिलेंगे, महीने का आखिरी चल रहा है न। यह सब्जी ही उधार लेकर आ रहा हूँ।'

एक खटके के साथ रमाकांत तुरंत सतर्क हो गये। हेमन्त बाबू का हाथ थोड़ा भारी है। पैसे कब तक मिलें या न मिलें लेकिन मछली तो हजम हो जायेगी। अभी मिलने से एक काम हो जाता नहीं तो मछली बेचने की क्या जरूरत थी। इन्हें टरकाना होगा।

रमाकांत ने धीरे से कहा, 'अभी-अभी मेरे एक पड़ोसी ने ले लेने के लिये कहा है। वे सामने की दुकान में गये हैं। आते ही होंगे।'

दांव असफल होता देख हेमन्त बाबू गंभीर हो उठे, 'अच्छी बात है। आप इंतजार करें। मैं चलूं, जरा जल्दी है।'

बाल-बाल बचे सोचते हुये रमाकांत ने अविलंब औपचारिकता निभाई, 'अच्छा, फिर मुलाकात होगी !'

हेमन्त बाबू के जाते ही रमाकांत ने गहरी उच्छवास छोड़ी। बल्बों की पीली रौशनी में वे आने-जाने वाले लोगों को निहारने लगे। चौक पर चहल-पहल बढ़ गयी थी। उन्होंने गंजी में लिपटी मछली की ओर एक नजर देखा और फिर सामने की ओर देखने लगे।

कुछ ही पल गुजरे होंगे कि सामने से आते पेपरमिल के दो पुराने कर्मचारी साथी मोहन और असलम दिखाई पड़े। दोनों आपस में बातें करते हुये उसी ओर ही बढ़ रहे थे। रमाकांत के मन में आस का दीपक जल उठा।

'अरे रमाकांत भाई ! कैसा हालचाल है?' उन्हें देखते ही असलम तपाक से बोला।

'ठीक ही है। किसी तरह दाल-रोटी जुगाड़ हो जाती है। पेपरमिल तो अब खुलने वाली नहीं।' रमाकांत गंभीर स्वर में बोले।

'दस साल से ऊपर हो गये। मशीनों में जंग लग गयी होगी। खुलने से मालिक का भट्ठा बैठ जायेगा ..... सब कुछ तो हमलोगों ने ही चौपट किया है और आज अपनी बर्बादी पर रो रहे हैं। क्या फर्क पड़ा नेताओं को ?' मोहन के स्वर में एक दर्द-सा था।

'आज हम दिहाड़ी पर खट रहे हैं। कभी चूल्हा जलता है, कभी नहीं। हम जैसे लोग ही इस चक्की में पिस गये हैं।' असलम ने मोहन की ओर निहारते हुये उसके ही जैसे स्वर में कहा।

'क्या किया जाये ? सब की एक ही दशा है।' रमाकांत के स्वर में गहरी संवेदना थी।

'अब भोगना है।' असलम रमाकांत की ओर मुड़ते हुये बोला, 'इधर क्या कर रहे हैं ?'

रमाकांत ने झट मछली की ओर निहारा और बोले, 'अरे भाई ! मैं इधर आया था और क्या मन हुआ कि पचास रुपये में यह मछली खरीद ली। अब मुझे याद नहीं कि आज आपकी भाभी का कोई व्रत है। वह तो आज मछली घर में ढुकने नहीं देगी। अब सोच रहा हूँ कि क्या करूं ?'

दोनों ने एक-दूसरे को रहस्यमयी नजरों से देखा। मोहन तुरंत रमाकांत की ओर मुड़ कर आत्मीय स्वर में बोला, 'रमाकांत भाई ! चलिये, आज एक साथ थोड़ा खान-पीना हो जाये। हमें एक-दूसरे से मिले बहुत दिन हो गये।'

'हाँ,' असलम भी तुरंत बोला, 'कितना अच्छा मौका है। पहले दो थे अब तीन हो गये, वह भी पुराने साथी। मछली का भी सदुपयोग हो जायेगा। भून लेंगे। दारू का खर्च हमदोनों दे देंगे।'

रमाकांत हड़बड़ा कर दो कदम पीछे हट गये, 'तुमलोगों को तो मालूम ही होगा कि मैं यह सब नहीं लेता। हां, मछली लेनी हो तो पचास की जगह चालीस दे दो, फिर तुम लोगों की जो मर्जी।'

दोनों ने एक बार एक-दूसरे की ओर निहारा और मोहन ने अफसोस भरे स्वर में कहा, 'जब आप नहीं जायेंगे तो मछली लेकर क्या फायदा। हमलोग चना फांक लेंगे।'

मछली को बांये हाथ में थामते हुये रमाकांत ने दायें हाथ से सलाम-सा ठोंका, 'मुझे माफ कर दें। मैं यह सब पसंद नहीं करता।'

'अच्छी बात है ! फिर हमलोग चलें।' और बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किये दोनों पलट कर चले पड़े।

'हे भगवान !' रमाकांत ने आसमान की ओर निहार कर जैसे किसी अदृश्य अस्तित्व को धन्यवाद प्रकट किया। रात का अभेद्य अंधकार वहां अनन्त रूप से फैला हुआ था।

कई और परिचित चेहरे रमाकांत को नजर आये मगर वे उनकी आशा के अनुरूप नहीं लगे। दिमाग में कई ख्याल उमड़ने-घुमड़ने लगे। बहुत देर हो गयी, घर में लोग चिन्ता कर रहे होंगे। बेला डूबने के पहले निकले और अभी तक घर नहीं लौट पाये। क्या घर लौट चलना चाहिये ? आज मछली ही खा लेंगे। महुआ की किताब वेतन वाले दिन ही आ सकेगी। नहीं मछली ..... नहीं किताब ..... नहीं, थोड़ी देर और प्रतीक्षा कर लेनी चाहिये।

उन्हें लगा, अब यहां से हटकर कहीं और खड़ा होना बेहतर होगा। यहां ऐसे ही लोग मिलेंगे। काम तो कुछ बनेगा नहीं, बस, समय बर्बाद होगा। और वे धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ गये।

चलते हुये किसी की टक्कर से उनकी सोच बिखर गयी। उन्होंने तमतमाकर देखा। उनसे टकराने वाला उनकी ही ग्लास फैकट्री का पे-क्लर्क था।

'नमस्ते दादा !' रमाकांत तुरंत विनयी हो उठे, 'गलती से टक्कर लग गयी। बुरा मत मानियेगा।'

पे-क्लर्क के गंभीर चेहरे पर मुस्कुराहट की एक बेबस झलक-सी उभरी, 'कोई बात नहीं। कहो कैसे हो ?'

'ठीक ही हूँ। बाजार करने आया था।' रमाकांत की चिन्ता उनके अंदर सक्रिय थी। पे-क्लर्क तो अच्छे व्यक्ति हैं। कहने से मछली अभी ही खरीद लेंगे। बस, रमाकांत ने मछली बेच देने के अपने इरादे को गढ़ी हुई कहानी के साथ दुहरा दिया।

'यह कौन सी समस्या है ? मछली मुझे दे दो।' पे-क्लर्क ने मुस्कुरा कर हाथ आगे बढ़ा दिया। अचानक उपस्थित इस परिस्थिति में रमाकांत कोई निर्णय नहीं ले सके कि क्या कहा जाये मगर उनका मछली वाला हाथ स्वमेव आगे बढ़ गया। पे-क्लर्क ने मछली थामते हुये पूछा, 'यह क्या है ?'

'गंजी है। गलती से थैले की जगह इसे उठा लाया था। गंदी नहीं है, धुली हुई है।' थूक निगलते हुये रमाकांत को फिर उपयुक्त उत्तर गढ़ना पड़ा। उन्होंने मन ही मन सोचा, चलो गंजी जाये तो जाये। बस्स ! पचास-साठ रुपये मिल जायें।

'कोई बात नहीं।' पे-क्लर्क उसी मुस्कुराहट के साथ बोला, 'थोड़ी दूर पर मेरी मोटर साइकिल खड़ी है। उसके डिब्बे में डाल लूंगा। गंजी कल ले लेना।'

'हूँ ..... ' रमाकांत आशा भरी नजरों से उन्हें निहार रहे थे।

'अच्छा, तुम्हें एक बात बता दूं। इस बार पेमेंट पांच-सात तक मिलेगा। कुछ देर होगी। मैनेजर साहब ने मुझे बताया है।'

रमाकांत ने कुछ कहने के लिये मुंह खोला पर कुछ कह न सके।

'तुम चिन्ता मत करो। मैं तुम्हारा पेमेंट तीन-चार तक निकलवा दूँगा या और पहले कोशिश करुंगा। किसी को बताना मत। पे-क्लर्क ने आत्मीय मुस्कान के साथ कहा।

'हाँ, आगे मिल जाने से अच्छा होता।' रमाकांत के स्वर में लबालब आग्रह था।

'हाँ-हाँ, तुम्हें मिल जायेगा। मैं हूं न।' पे-क्लर्क ने उनका कंधा धीरे से थपथपाया, 'अच्छा, यह मछली मैंने ले ली। तुम्हारी भाभी को कहूंगा कि रमाकांत ने भिजवाई है। खुश हो जायेगी।'

रमाकांत भीतर ही भीतर चौंक पड़े मगर उनका सिर हाँ में हिल पड़ा। ज़ुबान जैसे तालू से चिपक गयी थी।

'अच्छा तो मैं चलूँ।' और पे-क्लर्क ने मुस्कुरा कर औपचारिकता निभाई तथा बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किये सीधा चल पड़े।

रमाकांत वहीं खड़े-खड़े उन्हें जाते हुये देखते रहे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपने आपको गाली दें या खुद पर हंसे। हुंह, जिन्दगी भी क्या-क्या खेल दिखाती है।

उन्होंने सिर झटका। अब घर चलना चाहिये।

'गंजी भी गयी।' वे मन ही मन बुदबुदाकर थके कदमों से घर की ओर लौट पड़े।

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रचनाकार: कहानी - इत्यादि - विजय शंकर विकुज
कहानी - इत्यादि - विजय शंकर विकुज
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